Dec 23, 2009

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:

'तब मुझे 1.8 लाख का पैकेज मिला था. आस पास के कई गाँवों में खबर फैली थी कि फलाने का बेटा साहब बन गया. एसी टू का किराया मिला था बैंगलोर जाने के लिए. और आज ये बिजनेस क्लास की सीट छोटी लग रही है ' करीब 10 साल पहले की बात याद करते हुए बगल की सीट पर बैठे मेरे कलीग ने कहा. बस money कहने को ही 10 साल सीनियर हैं, हैं तो अपने यार ! कुछ लोगों से ना तो घुलने में वक्त लगता है ना उम्र और अनुभव ही आड़े आते है. आज उन्हें उस पहले ऑफर की तुलना में करीब 15 गुना ज्यादा मिलता है. और संभव है आने वाले पाँच दिनों के ट्रिप का खर्च उनके तब की सालाना आमदनी से ज्यादा हो जाय. उनके पास किसी दूसरी कंपनी से अभी के पैकेज से डेढ़ गुना ज्यादा का ऑफर है... पर फैमिली वाले है दूसरे शहर जाना नहीं चाहते… ! लेकिन ऐसा ऑफर छोड़ा भी नहीं जाता. मैंने दिमाग में कुछ जोड़-घटाव किया. दूसरे की आमदनी जोड़ने में इंसान बिल्कुल फटाफट कैलकुलेशन करता है, खर्च ज्यादा घटाना नहीं होता है तो और आसान हो जाता है. मैं सोचता हूँ  'कहाँ अंत है इसका?' कितना ज्यादा 'ज्यादा' होता है?

माइकल डग्लस का वालस्ट्रीट फिल्म का एक डायलोग याद आता है:  'एक समय मैं जिसे दुनिया की सारी दौलत समझता था वो आज एक दिन की कमाई है '. मेरे एक दोस्त ऐसे हैं जिनकी महीने की कमाई और मेरे एक समय के संसार की सारी दौलत में आराम से मैच हो जायेगा. शायद उनकी कमाई ही ज्यादा बैठे (ईमानदारी की कमाई है बेचारे की कुछ और मत समझ बैठिएगा, किसी कोड़ा से 'अबतक' तो दोस्ती नहीं हुई). ये प्रक्रिया बड़ी अजीब है. प्रोग्रामिंग की भाषा में अनकंसट्रेंड इंफाइनाइट लूप टाइप की चीज है, अब ऐसा लूप है तो एक बार चालू हुआ तो फिर प्रोग्राम को किल किए बिना कैसे रुकेगा?

व्हाइल (एन > 0) {
एन = एन + के ;
}

यहाँ एन और के दोनों धनात्मक ही होते हैं और 'के' कोंस्टेंट ना होकर इंक्रीजिंग फंक्शन है. कोई प्रोग्रामिंग वाले बेहतर समझा पायेंगे इस  लूप को. शायद पीड़ी कुछ मदद करें समझने में. तब एसी टू का किराया और दोस्तों के घर रुक जाने वाले अपने भाई को आज घुसते ही ह्यात पसंद नहीं आया. दिमाग का लूप करेक्ट करने की कोशिश करता हूँ... ये जो लूप है ऐसा  केवल पैसे के साथ ही नहीं है ! खैर कम से कम उनकी भाषा तो नहीं बदली. वरना हमारे धंधे के लोग तो 'वॉट द #$%^?' से नीचे बात ही नहीं करते. खैर... मैं ये मानता हू कि इस लूप में मैं भी हूँ आप भी हैं, वैसे आप इंकार करना चाहें तो मुझे आपत्ति नहीं.

शाम को दोस्तों की मण्डली बैठी और मैंने कहा 'अबे 10 रुपये का समान 750 रुपये में ! वॉट द... '
'तुम्हारी मानसिकता अब भी वही है. इटस नोट अबाउट 750, इटस अबाउट योर मेंटालिटी. द पीपल आउट देयर कैन पे अँड दे डोंट केयर'
'आई अग्री ! शायद अभी टाइम लगे मेंटालिटी बदलने में'

मानसिकता अब भी वही है? अग्री तो कर गया पर लगता नहीं है. 'बेकार कॉफी है इससे अच्छी और सस्ती सीसीडी की कॉफी होती है'. पाँच मिनट के अंदर ये बात आई. सीसीडी की कॉफी सस्ती? मानसिकता और उसका बदलना भी रिलेटिव है ! और डोंट केयर वाली बात पर क्या कहूँ... ! कुछ चीजें वैसे ही लोगों द्वारा वैसे ही लोगों के लिए बनाई गयी है जिसमें पैसा किसी की जेब से नहीं लगता. 'इटस अ ज़ीरो सम गेम !' अब इसकी व्याख्या फिर कभी नहीं तो आप कहेंगे की पोस्ट टेकनिकल हो गयी. आस्था चैनल ना हो जाये ये तो तब से कोशिश कर रहा हूँ. वैसे 'ज़ीरो सम गेम' से वालस्ट्रीट का एक और डायलोग याद आया:
Bud Fox: How much is enough?
Gordon Gekko: It's not a question of enough, pal. It's a zero sum game, somebody wins, somebody loses. Money itself isn't lost or made, it's simply transferred from one perception to another.
 

वैसे इस फिल्म के कई डायलोग बड़े रोचक हैं पढ़ने का मन हो तो यहाँ कुछ मिल जाएँगे. और शीर्षक डायरी के एक पन्ने पर मिल गया कठोपनिषद से है. मामला तब भी वही था आज भी वही है ! कुछ चीजें कहाँ बदलती हैं.

~Abhishek Ojha~

--

अंततः मैं कल घर जा रहा हूँ ! एक सप्ताह के लिए… अंत भला तो सब भला. (अभी पता नहीं क्यों अंत भाला तो सब भाला टाइप हो रहा है, कभी आम का जामुन टाइप हो जाये तो बुरा मत मानिएगा !)

आप सभी को नव वर्ष और छुट्टियों की हार्दिक शुभकामनाएँ !

Dec 13, 2009

उन गलियों से गुजरना

पिछले दिनों ऑफिस के काम से एक यात्रा पर जाना हुआ. दिल्ली, कानपुर और बीच में लखनऊ. यूँ तो बहुत दिन नहीं हुए पर पता नहीं क्यों लगा कि एक अरसे Unpublished Postबाद आना हुआ है इन गलियों में. थोड़ी भाग-दौड़ वाली यात्रा जरूर थी पर बड़ी रोचक और ज्ञानवर्धक रही. अब भाग-दौड़ का क्या है... अभी ९ दिसंबर को सोचा जन्मदिन के बहाने एक पोस्ट ठेली जाए तो टाइप की हुई पोस्ट को ठेलने के पहले ही ९ का १० हो गया. उसका स्नैपशॉट ले लिया था तो आज चिपकाये दे रहा हूँ आपको मन हो तो क्लिक करके पढ़ लीजिये. 

वैसे आजकल व्यस्तता को नापने के मैंने अपने नए तरीके निकाले हैं जैसे रीडर में कितने अपठित लेख जमा हैं, औसत कितने लेख शेयर किये जा रहे हैं, कितने दिनों से लैपटॉप की जगह आईपॉड पर सर्फिंग हो रही है, ऑफिस में कितने मिनट तक तशरीफ़ कुर्सी से दूर रही (तशरीफ़ का शाब्दिक अर्थ छोडिये मतलब तो आप समझ गए ना !), कितने ईमेल का जवाब देना बाकी है, औसत कितने पोस्ट/कमेन्ट किये और अगर घर फ़ोन करने का समय नहीं मिला तो सही में व्यस्त !  सोच रहा हूँ इन सारे पारामीटर्स को कलेक्ट कर एक बिजिनेस इंडेक्स (व्यस्तता सूचकांक) बना लूं दिन में एक बार तो अपडेट कर ही सकता हूँ कि आज कितना बिजी रहा.

रोचक और ज्ञानवर्धक को तो एक पोस्ट में समेटना कहाँ संभव है ! हाँ कई बातों पर भरोसा और पक्का हुआ. जैसे 'समाज में कुछ चीजें बस कुछ लोगों द्वारा, कुछ लोगों के लिए ही बनाई गयी हैं'. खैर इस पर फिर कभी. फिलहाल तो इसी बात की ख़ुशी है कि कुछ गेजुएट हो रहे बच्चों को नौकरी मिली जो इस यात्रा का मकसद भी था. कुछ दोस्तों से एक छोटी मुलाकात भी हुई. जब से तथाकथित ब्लोगर हो गए हैं तो अब 'ब्लोगर मीट' भी यात्रा का एक हिस्सा है. तो इसी बहाने कुछ धुरंधरों से भी मिल आये... कुछ को तो १० मिनट की 'मीट' के लिए एक घंटे तक इंतज़ार करवा दिया. लेकिन कुछ तो बात है जो पहली बार मिलने पर भी सॉरी कहना तक फोर्मलिटी  लगती है.

दिल्ली और लखनऊ तो ठीक लेकिन सुबह-सुबह जब कानपुर पहुचे और एक ऑटो(विक्रम) में गाना बजता सुनाई दिया... 'जब-जब इश्क पे पहरा...'. हम तो वही नोस्टालजिक हो गए. ये मिस करना भी अजीब चीज है वो थकेले ऑटो, उसमें बजते फास्ट फॉरवर्ड स्पीड में चीं-चों करते गाने और १२ लोग ! ये भी कोई मिस करने की चीज है वो भी तब जब आप उस गाडी में बैठे हो जो आपको सबसे अच्छी लगती है. वालस्ट्रीट फिल्म में माइकल डगलस का एक डायलोग याद आया उस पर एक पोस्ट लिखनी कब से पेंडिंग है. इन ऑटो में जो गाने बजते हैं उनकी लिस्ट ५० से ज्यादा लम्बी नहीं है... सारे क्लासिक ! मेरे एक दोस्त आपके प्लेलिस्ट से आपका भूत और आप किस परिवेश में रहे हो ये बता देते हैं... इन ऑटो में बजने वाले गानों के ट्रेंड पर गौर करें तो ये बता देना कोई बड़ी बात नहीं लगती.

गाडी वाला भी उन रास्तों से ले गया जहाँ से कभी सबसे ज्यादा गुजरना होता था. फिर वो जगह... जहाँ पर जीवन के सबसे यादगार दिन गुजारे हैं.. अपना कॉलेज, अपना कैम्पस. तो अब क्या हमारे साथ बुरे दिन बीत रहे हैं ? (गनीमत है ये सवाल किसी सेंटी टाइप लड़की ने नहीं पूछा, वरना समझाने में ही दिन निकल जाता). जीवन के २-४ सबसे ज्यादा भावुक क्षणों में से एक था जब मैंने ये कैम्पस छोड़ा था और दूसरा जब मेरे कुछ दोस्तों ने मुझसे एक साल पहले छोड़ा था. इंसान सच में बड़ा Bloggers meet विचित्र जीव है... किसी चीज का पीछा करता रहता है फिर मिलने पर पता चलता है कि उसे पाने के लिए क्या कुछ गंवा दिया. गनीमत है मैंने ज्यादा नहीं गंवाया. उन नहीं गंवाए गए मस्ती के क्षण... अलंकारिक भाषा में कहूं तो उस कैम्पस में हर तरफ दिखने वाले लाल ईंटों से कहीं ज्यादा यादें जुडी हुई हैं उस जगह से. उस समय व्यस्त से लगने वाले दिन अब जिंदगी के सबसे अधिक फुर्सत वाले दिन लगते हैं. गुजरी हुई बातों के मामले में मुझे अपनी मेमोरी पर कभी ज्यादा भरोसा नहीं रहता लेकिन वहां पहुच कर  लगा सब कुछ जैसे अभी हो रहा हो. समय तो नहीं मिल पाया पर आते-आते गाडी से ही सही दो चक्कर लगा आया. मेरे साथ गयी एचआर को लगा कि मैं कुछ ज्यादा ही सेंटी हो रहा हूँ. वैसे उनको जितना लगा मैं उससे कहीं अधिक सेंटी था. अभी तक गेट पास की पर्ची पड़ी हुई है बटुए में... !

फिलहाल इतना ही... बिजिनेस इंडेक्स अभी भी ऊपर चल रहा है. मंदी आ नहीं पा रही इसमें.

'मीट' की चर्चा तो यहाँ और यहाँ आई ही है, मैं भी कुछ यदा-कदा ठेलता रहूँगा, वैसे एक क्लारिफिकेशन देना था. मुझे लगता था इस ड्रेस में थोडा स्मार्ट लगता हूँ लेकिन अनूपजी के इ७१ का कैमरा कुछ सही नहीं लग रहा :)

~Abhishek Ojha~

Nov 12, 2009

कुछ चीजें कभी नहीं बदलती?

[दिमाग में चलने वाली रैंडम बाते हैं... अपने रिस्क पर पढें :)]

६.३० घंटे में शाम के चार बजे से सुबह के ५.३० बज जायेंगे. यूँ तो ऐसा पहली बार नहीं हुआ लेकिन पता नहीं क्यों ये बात मुझे पांचवी सदी में ले गयी... अब मन है जहाँ मर्जी ले जाए ! वीजा की जरुरत तो है नहीं. मैं सोच रहा हूँ आखिर जिस इंसान ने पहली बार इस बात का अनुभव किया होगा उसे कैसा लगा होगा?  सब युद्धिष्ठिर का दोष है वाली पोस्ट याद आती है… आगे सोचने से पहले मैं मुस्कुरा देता हूँ.

अटलांटिक में  एक बड़ी सी जहाज मुझे छोटी दिखाई दे रही है. DSC00381एक ही पल में मुझे अपने पिछले ३० दिन याद आ रहे हैं. टाइम्स स्कवैर... चकाचौंध और ग्लैमर... घर से निकलते ही भूल जाता कि क्या करने आया था ! इंसान का दिमाग वही वस्तु रोज देखता है पर अचानक एक दिन उसी वस्तु को दार्शनिक दृष्टि से देखने लगता है. 'दार्शनिक दृष्टि' से एक कहानी याद आई... जिसमें देर रात तक इन्तजार करती एक गरीब माँ का बेरोजगार बेटा आगे परोसे गए खाने में रोटी को दार्शनिक दृष्टि से देखता है, उसे पता है उसकी माँ ने खाना नहीं खाया. कहानी का नाम याद नहीं लेखक का नाम भी याद नहीं आ रहा... लेकिन ये लाइन याद है. जो बातें दिल को छू लेती हैं वो शायद दिमाग की जगह दिल में स्टोर हो जाती हैं.  इस हिसाब से हमारे देश में दार्शनिकों की कोई कमी नहीं है. इस साल १० प्रतिशत और बढ़ गए.

फिलहाल मैं पांचवी सदी में था... इंसान एक छोटे से दीये पर इतरा रहा है अब क्या बचा है आविष्कार करने को ! इधर आज मैं फिर ऊपर से यूरोप देख रहा हूँ, शायद रात में पहली बार. अंधकार के समुद्र में सोने के द्वीप लग रहे हैं. एक दीये से द्वीप तक ! … जेब में पड़ा इलेक्ट्रोनिक गजट याद आता है अब तो कॉपी किताब भी कहने सुनने की चीज हो जायेगी. मेरे दोस्त मुझे एक काल्पनिक सफलता पर किन्डल गिफ्ट करने की बात करते हैं... अभी मैं कह दूं कि मैं काठ की पटरी पर पढ़ा हूँ तो सामने वाले अंकल सोच में पड़ जायेंगे... कहीं ये बेंजामिन बटन का हीरो तो नहीं जो बुड्ढा पैदा  होकर जवान हो रहा है वरना 'काठ की पटरी'? वो तो बाप-दादा के जमाने की बात हुआ करती थी. एक किन्डल जैसी चीज लेकर बच्चें स्कूल जाने लगे तो  ऊपर वाली लाइन में  'जिल्द लगी नोटबुक' से 'काठ की पटरी' को रिप्लेस करने में कितने दिन लगेंगे?

चीजें कितनी तेजी से बदलती हैं... वैसे अगर सोचे तो मानव सभ्यता का इतिहास है ही कितना पुराना. और हम इतिहास का उदहारण देते हैं... क्या अच्छा है क्या बुरा ! चार दिनों के इतिहास पर कह देते हैं कि डेमोक्रेसी अच्छी है, कैपिटलिज्म अच्छा है. सोसलिज्म, कम्युनिज्म... वगैरह. अबे मनुष्य ! अभी हुए ही कितने दिन जब तू नंगा घुमा करता था? इन चंद  दिनों के इतिहास पर हमारे फैसले निर्धारित होने चाहिए या उन्मुक्त तार्किक मानव सोच पर? पांचवी सदी के उस मशाल से लेकर आज के इस स्वर्णिम जगमगाते द्वीपों तक हर मिनट तो चीजें बदली हैं. दो साल पहले ग्रेजुएट हुए मेरे मित्र गोदान लेकर आये हैं और मैं सोच रहा हूँ कि स्कूल में बच्चे शिडनी शेल्डन पढ़ते हैं. तो क्या हम अभी ही आउटडेटेड हो गए हैं? हम जितना सोचते हैं चीजें उससे कहीं अधिक तेजी से बदलती हैं. अभी कल को ही बैंक ठुके पड़े थे... अभी रिकॉर्ड प्रोफिट ! कौन सा इतिहास देखूं मैं? और इतिहास देखकर क्या सीखूं? जो फलाने कह गए है वही सत्य है कि जाप करने वाले जरा अपना भी दिमाग लगा लो. इस 'हाईली रैंडम' इतिहास में हर क्षण तो बदलाव हो रहा है. और आप मानव सभ्यता के शुरुआत के एक इंसान की बात को लेकर बैठ गए... क्या कहा वो इंसान नहीं था (थे)? छोडो भाई आपसे बात करना ही बेकार है.

सामने बैठे अंकल-आंटी (भारतीय मूल के बुजुर्गनुमा) को बियर पर चियर्स करते देखता हूँ. मेरे दोस्त मेरे मन की बात समझ कह रहे हैं 'तुम बिजनेस क्लास में चलना डिजर्व नहीं करते !'  ओरेंज जूस और दो टके की काफ़ी ! खैर... ये बात फिर कभी. एक पुरनिये के बारे में सुना है उनके यहाँ दूध की नदी टाईप की कोई चीज बहा करती और उन्हें दूध ही अच्छा नहीं लगता था. शायद इसे किस्मत कहते हैं.  शायद ये उस जमाने की बात है जब दूध और ‘नंबर ऑफ़ गाय' सम्पन्नता का प्रतीक हुआ करते थे. अब शायद 'ब्रांड ऑफ़ दारु' और 'नंबर ऑफ़ कार' से रिप्लेस हो गया हो. फिलहाल मैं डिजर्व नहीं करता इस बार का कोई ग़म नहीं अभी तक ओरेंज जूस का साइड इफेक्ट नहीं मिला :)

खैर बदलाव की बात… दो दिन पहले की बात याद आ रही है. रात को १ बजे सेंट्रल पार्क के पास एप्पल स्टोर से वापस आते समय... एक बनी-ठनी लड़की.... 'हाय गाईज ! वान्ना पार्टी?' हुर्र ! एक मिनट में बदलाव वाली बात उड़ जाती है दिमाग से… कुछ चीजें तो कभी नहीं बदलती ! मानव सभ्यता की हर कहानी में ये बात तो आजतक ऐसे ही चली आई हैं. तो क्या मैं चार दिनों के इतिहास को मान लूं कि ये ऐसा ही चलता रहेगा. फिलहाल यही दृश्य मुझे फिर पांचवी सदी में ले गया. यह दिखाने की कुछ बातें तब भी ऐसी ही थी !

... सब युद्धिष्ठिर का दोष है मन तो भटकता  ही रहेगा... फिलहाल एक कॉफी इंजेक्ट की जाय.


~Abhishek Ojha~


1. तकरीबन ढाई महीने पहले फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर बैठा सुषुप्तावस्था में खलील जिब्रान पढ़ रहा था, उसी में एक पन्ने पर यह लिखा था. साथ में उस  पन्ने पर यह भी लिखा मिला 'ईरानी बंदी है'. शायद किसी की तरफ इशारा रहा हो अपने दोस्त को दिखाते हुए !
2. शिव भैया उन चुनिन्दा लोगों में से हैं जिनकी बाते कई मौको पर याद आती हैं और मैं बिना किसी बात के मुस्कुरा उठता हूँ, मैंने उनसे एक बार कहा था कि अगर ऐसा ही होता रहा तो लोग समझेंगे कि मेरे दिमाग के कील-कांटे ढीले पड़ रहे हैं ! उनकी तबियत ठीक होने का बेसब्री से इंतज़ार है.
3. ये तस्वीर मलेसिया और हाँग-काँग के बीच स्थित किसी 'बीच' की है.

Oct 25, 2009

निज भाग्य बड़ाई

जहाँ तक मुझे याद है बिगिनर्स लक (नौसिखिया किस्मत !) का लाभ इससे पहले मुझे एक ही बार मिला था. पहली बार जब पत्ते खेलते हुए बस जीत गया था 26102009426एक बिन पैसे का खेल. उसके बाद पिछले दिनों जब मुझे स्टीव बालमर द्वारा हस्ताक्षरित विन्डोज़ ७ का लिमिटेड संस्करण मिला. यूँ तो मैं ऑनलाइन सर्वे, लकी विजेता और फॉर्म भरने वाली ईमेल देखते ही डिलीट कर देता हूँ लेकिन जब कुछ मित्रों ने विन्डोज़ लॉन्च पार्टी की एक पोस्ट रीडर में शेयर की तो पता नहीं क्या दिमाग में आया और मैं अपना नाम पता भर आया. और फिर बिगिनर्स  लक ! माइक्रोसॉफ्ट ने विन्डोज़ ७ भेज दिया वो भी पार्टी और प्रचार की कुछ सामग्री के साथ जैसे कुछ पहेलियाँ, झोले, पोस्टर इत्यादि. सोच रहा हूँ किसी दिन कैसिनो हो आऊं पहले दिन तो बिगिनर्स लक चल ही जाएगा !(?)

२ साल तक विस्टा इस्तेमाल के बाद विन्डोज़ ७ पर काम करना एक सुखद अहसास है. विन्डोज़ एक्सपी की याद आई... एक नए परिधान में. किसी ने अपने रिव्यू में कहा था ‘नए मेकअप में पुरानी गर्लफ्रेंड'. मैं भी वही कहूँगा बस 'पुरानी' की जगह 'पहली' गर्लफ्रेंड. हल्का फुल्का और अच्छा ग्राफिक्स (वैसे मेरा डब्बा* ४ जीबी रैम का है, जब एक्सपी इस्तेमाल करता था तब ५१२ एमबी का हुआ करता था).  मैं एक्सपी के बाद विन्डोज़ ७ जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम की ही राह देखता... बीच में २ साल के विस्टा को २५ दिनों में ही भूल गया. एक अच्छी बात ये रही कि मुझे फिर से कुछ भी इंस्टाल नहीं करना पड़ा. यहाँ तक की विस्टा के ब्राउजर की हिस्ट्री और टेक्स्टबॉक्स में भरे गए शब्द भी मौजूद हैं.

वैसे मैं एप्पल के प्रोडक्ट्स का फैन हूँ लेकिन मुझे ये भी लगता है कि माइक्रोसॉफ्ट के प्रोडक्ट्स को अनायास ही लोग कोसते हैं. कुछ चीजें फोकट की बदनाम हो जाती हैं. क्या लोग भी फोकट में बदनाम हो जाते हैं? वैसे ये बात मैं मुफ्त के विन्डोज़ ७ मिलने के पहले से भी कहता रहा हूँ. माइक्रोसॉफ्ट के कई प्रोडक्ट लाजवाब हैं.

वैसे मुझे आश्चर्य तब हुआ जब पता चला कि ये प्रोमोशनल पार्टी पैक इबे पर बिक रहा है ! लोगों ने मिलते ही बेचने के लिए ऑनलाइन डाल दिया... इसे कहते हैं साधु के निवाले से पहले चोर के घर पार्टी होना. माइक्रोसॉफ्ट के खाते में चवन्नी नहीं गयी और लोग २०० डॉलर में धड़ल्ले से बेच रहे हैं. खैर... ! जहाँ तक हिंदी का सवाल है तो फोंट्स थोड़े बेहतर दीखते हैं और उससे ज्यादा मैं हिंदी के लिए इस्तेमाल नहीं करता. टाइप अभी भी गूगल ट्रांस्लितेरेशन से ही करता हूँ !

~Abhishek Ojha~


अब ये पोस्ट ना तो विन्डोज़ ७ का रिव्यू ही है, ना टेक्नीकल पोस्ट ही, तुलसी बाबा की आधी लाइन शीर्षक बनी है जिसका पोस्ट में कोई इस्तेमाल नहीं. अब जैसी पोस्ट बनी है वैसी की वैसी ठेले दे रहा हूँ. वैसे इलाहबाद ब्लॉगर महासम्मेलन से लौटे महानुभाव इसे किस श्रेणी में रखेंगे? सुना है बड़ी धुँआधार चर्चा हुई है उधर.

*कम्प्यूटर को डब्बा कहने की आदत उस जगह पर लगी जहाँ की आदतें छूटती नहीं !

Sep 30, 2009

डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ महात्मा गाँधी

०२ अक्टूबर २०३०: सरकार ने आज एक विज्ञप्ति जारी की जिसके अनुसार 'इंडिया दैट इज भारत' की जगह 'डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ महात्मा गाँधी' कर दिया गया. इसके साथ ही सरकार का दो साल पहले का 'भारत' को देश का राष्ट्रीय नाम घोषित करने वाला फैसला रद्द हो जाएगा. कई लोगों ने इसका विरोध किया है... विपक्ष का कहना है कि सारे दस्तावेजों पर परिवर्तन करना बहुत महंगा होगा जबकि प्रधानमंत्री ने कहा है कि सारे दस्तावेजों को इलेक्ट्रोनिक कर दिए जाने के बाद इस खर्च का कुछ ख़ास असर नहीं पड़ेगा. उधर गृहमंत्री ने कहा है कि इसी gandhi तरह के बेबुनियाद सवाल उठाये गए थे जब हमने 'भारत' को देश का राष्ट्रीय नाम घोषित किया था. भारत गणराज्य, भारतवर्ष, हिन्दुस्तान जैसे कई नामों में से हमने सबसे सटीक नाम को जब राष्ट्रीय नाम घोषित किया था तब भी कई लोगों ने यह आरोप लगाया था कि हमारे पास कुछ भी राष्ट्रीय घोषित करने को नहीं बचा इसलिए हम देश के नाम के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. लेकिन हमने तब भी जनता की भावनाओं का सम्मान किया था और आज भी कर रहे हैं. सोचिये तो शोर्टफॉर्म में ‘ड़ीआर महात्मा गाँधी’ कितना अच्छा लगेगा. लोग डॉक्टर महात्मा गाँधी भी कह लिया करेंगे.

उधर एक मंत्री के ब्लॉग पोस्ट से नया विवाद खडा हो गया है. अपने ही मंत्री से ऐसी पोस्ट देखकर सरकारी खेमे के कई लोग सकते में है. मंत्रीजी ने अपनी पोस्ट में कहा है कि ये तो होना ही था. इतिहास इस बात का गवाह रहा है... जो कुछ भी राष्ट्रीय घोषित हो जाता है वो धीरे-धीरे विलुप्त हो जाता है. चाहे वो राष्ट्रीय पक्षी हो, पशु हो, खेल हो, भाषा या नदी. गंगा के राष्ट्रीय नदी घोषित होने के बाद ही मुझे तो ये समझ में आ गया था. कैबिनेट मीटिंग में तो पानी को राष्ट्रीय सम्पदा घोषित करने पर भी विचार चल रहा है. वैसे सच में बात ये है कि सरकार के पास अब राष्ट्रीय घोषित करने के लिए कुछ बचा नहीं है. पहले किसी सरकार द्वारा चालु की गयी परियोजना का नाम नयी सरकार अपने नेताओं के नाम पर रख लेती थी. लेकिन जब से योजना शुरू होने के पहले ही नेताओं के नाम पर फैसला होने लगा तब से नयी सरकारों के पास अपने नेताओं के नाम पर घोषित करने के लिए भी कुछ नहीं बचा. पिछले दिनों एक नेता ने २० वर्षीय पुराने पुल का नाम अपने नाम पर रख लिया था तबसे एक नयी होड़ चालु हो गयी.

कई नेताओं ने इस ब्लॉग पोस्ट पर मंत्री का इस्तीफा माँगा है.

उधर बहनजी ने लगभग दो दशक पहले बनाए गए स्मारकों को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करवाने की मांग की है. उनका कहना है की राष्ट्रीय स्मारकों में आ रही कमी को देखते हुए यह कदम जरूरी हो गया है.

हिंदी दिवस पर हिंदी ब्लोगरों के एक संगठन ने हिंदी को ब्लॉग्गिंग की राष्ट्रीय भाषा बनाने की मांग की है और कांग्रेस पार्टी ने एक्सवायजेड गाँधी को प्रधान मंत्री का नया उम्मीदवार बनाते हुए प्रधान मंत्री का राष्ट्रीय उपनाम ‘गांधी’ करने की मांग की है…

--

और मेरा अलार्म बज गया… मैं ०२ अक्टूबर २०३० से ०१ अक्टूबर २००९ पर वापस आ गया... सोचा जल्दी से ये पोस्ट ठेल दूं नहीं तो भूल जाऊँगा. वैसे सुना है सुबह के सपने सच होते हैं :)

~Abhishek Ojha~

Sep 22, 2009

उनके प्यार का ग्राफ

मैंने बहुत कोशिश की ये जानने की कि आखिर हुआ क्या हमारे रिश्ते में? लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. इस 'ख़ास रिश्ते' की शुरुआत बाकी कई रिश्तों से बेहतर तरीके से हुई थी लेकिन अंत इस तरह होगा ऐसा कभी नहीं लगा. अंत तो मैं अभी नहीं कहूँगा क्योंकि मैं तो अभी भी उसे चाहता हूँ… मैंने इस रिश्ते को हमेशा ही अहमियत दी और आज भी देता हूँ पर वो ये समझे तब न? मैं तो उसके नफ़रत के बदले भी उसे प्यार करता हूँ काश ! एक बार वो ये जान पाती. २ साल के इस उतार चढाव में पहले एक साल मेरी जिंदगी के सबसे अच्छे दिन थे. फिर कुछ बातों को लेकर जो अनबन चालु हुई... उस समय शायद हमारा रिश्ते के सबसे अच्छे दिन थे. यह सुनते हुए कल मैंने एक अरसे बाद अपने मित्र के चेहरे पर मुस्कान देखी. स्वाभाविक है आगे सुनने की रूचि बढ़ गयी.

...पर वक़्त के साथ कुछ बातें बदलती हैं. उसके साथ कुछ आदतें-चीजें बदलनी पडती हैं. ये वो क्यों नहीं समझती? मैंने तो उसके बाद भी... और आज भी. वो मुझसे जितना नफ़रत करती है मैं उससे उतना ही प्यार करता हूँ. मैं मानता हूँ उसकी नफ़रत के साथ मेरे प्यार में भी एक तरह की स्थिरता जरूर आ गयी है, पर ये नफ़रत में नहीं बदल सकता ये भी जानता हूँ. लेकिन वो तो...

पिछले कुछ दिनों से मैं परेशान हो गया हूँ. हमारे रिश्ते में कुछ नहीं बदल रहा है जैसे सब कुछ स्थिर हो गया हो. प्यार और झगडे कभी-कभार हो जाया करते थे लेकिन अब तो सब बंद हो गया ! Untitled शांत जल की तरह... सब स्थिर... अब इस शून्य से मुझे डर लगने लगा है. भाई मेरे एक पत्थर मार दे किसी तरह इस शांत जल में. प्यार ना सही नफ़रत की तरफ ही सही मुझे परिवर्तन चाहिए ! उसका सब कुछ इग्नोर कर के चुप्पी साध लेना मुझसे बर्दाश्त नहीं होता. मुझे एक पत्थर मारना ही पड़ेगा अब जीने के लिए !

क्या सच में हलचल ना रहे तो ऐसे रिश्ते स्थिर हो जाते हैं? या क्या सच में प्रेम-विवाह वालों के लिए समय के साथ चीजें बदलती हैं और इतनी ज्यादा बदल जाती हैं? मैंने ये बात सुनते-सुनते बगल वाला ग्राफ बना डाला. शायद ये उनकी कहानी को एक स्तर तक दिखला पाता हो.

अब वो बेचारा भी क्या करे... शादी के पहले और बाद में कितना कुछ बदल गया दोनों के लिए. परियों की दुनिया से जमीन पर वापस आना शायद इतना आसान नहीं होता. इस ग्राफ में दोनों अक्सिस पर कई गैप हैं और कई परिवर्तन हैं वो क्यों और कैसे हैं ये मैं ज्यादा समझ नहीं पाया, वैसे भी ये चीजें जीतनी उलझनदार होती हैं ठीक-ठीक समझ पाना आसान नहीं, जब खुद उसे स्थिरता का कारण नहीं पता तो... हमें समझ में आ जाए ये कैसे हो सकता है. बस ये परियों से जमीनी वास्तविकता वाली बात मुझे थोडी समझ में आई. बाकी जो समझ में आया वो ये कि यह एक काम्प्लेक्स नॉन-लीनियर ऑपटीमाइजेशन प्रॉब्लम की तरह है. जिसमें कई सारे कंस्ट्रेंट्स हैं. और फिर इन्हें हल भी उसी तरीके से करना होता है... हर एक स्टेप के बाद सारे कंस्ट्रेंट्स को साथ रखते हुए अगर मामलें में सुधार हो रहा हो तो उस तरफ और बढो वरना फिर दूसरी तरफ. इस तरह अगर ओपटीमाईज हो पाए तो शायद दोनों लाइनें पोजिटिव अक्सिस पर चलीं जाए ! 

फिलहाल कहीं मामला समझाने में मैंने कहीं और तो नहीं उलझा दिया ?

~Abhishek Ojha~

Sep 13, 2009

फर्माटिंग के चक्कर में बड्डे सेलिब्राट हो गया !

कुछ फर्माटिंग में गड़बड़ हुई और हमारा बड्डे सेलिब्राट हो गया. अब ये वाकया लिखने बैठा तो 'फर्माटिंग' और 'सेलिब्राट' याद आ गए. शब्द चर्चा थोडी देर बाद...

१२ सितम्बर को बिस्तर छोड़ने से पहले ही समीरजी का  ईमेल पढ़ा 'जन्म दिन की बधाई और शुभकामनाएं'. खुरपेंची डॉक्टर की तरह थोडा हम भी कन्फ्यूजियाये कि  कहीं रामखेलावन के पाड़े का असली जन्म दिन तो नहीं पता चल गया. पहला शक गया ऑरकुट/फेसबुक पर नींद में ही पूछा 'अबे ड्यूड ! आज किसी साईट पे मेरा बड्डे तो नहीं दिखा रहा?'
'नहीं भाई !'
मेरे ये मित्र सोशल नेट्वर्किंग साइट्स के अपडेट बाकी लोगों को दिखने के पहले नहीं तो साथ-साथ तो देख ही लेते हैं. फ्लैश ट्रेड्स की तरह. फिर? मुझे तो हर एंगल से अपने दो ही बड्डे याद हैं ९ दिसम्बर और १ जुलाई. और हम पैदा तो ९ दिसम्बर को ही हुए थे. १ जुलाई की बात फिर कभी पर सेलिब्राट तो ९ दिसम्बर को ही होता रहा है. फिर ख्याल आया... १२/९ और ९/१२. मतलब किसी से तो फर्माटिंग की गलती हुई है. यहाँ भी अमेरिकी हाथ निकला... दिन-महिना-साल फर्माट महिना-दिन-साल हो गया कहीं. वैसे भी ९/११ के बाद ज्यादा करने लोग यही वाला फर्माट पसंद करने लगे हैं. ये गडबडी किधर हुई ये तो नहीं पता चला पर एक ट्रेंड दिख रहा था कि सारी शुभकामनाएं अपने हिंदी ब्लागरों से ही आ रही है. एक बार डाउट तो हुआ... 'किसी ने पोस्ट तो नहीं लिख मारी?'

थोड़े-बहुत काम में व्यस्त रहा पर ये बधाइयों और शुभकामनाओं का सिलसिला शाम तक जारी रहा. शाम को एक दो मेल का सधन्यवाद जवाब भेजा ९/१२ और १२/९ की बात बताते हुए तो (वाया द्विवेदीजी) पाबलाजी का फोन आया. और फिर शुभकामनाओं के पेड़ की जड़ ये पोस्ट निकली.

फिलहाल हमें खुश रहने, जिंदगी में बड़े-बड़े काम करने... और ऐसी ही ढेर सारी शुभकामनायें मिली है. तो हम पूरे वीकएंड हैप्पी च लकी फील करते रहे. आप सबको धन्यवाद ऐसे ही किसी भी बहाने शुभकामनायें और आशीर्वाद भेजते रहिये... धन्यवाद के अलावा कुछ और वापस नहीं करूँगा इसकी गारंटी !  इस बार आप चुक गए तो ९ दिसम्बर को फिर मौका है भूलियेगा मत :)  पार्टी-सार्टी लेनी है तो पुणे आइये. वैसे भी जिस ब्लॉगर से मिलता हूँ जूनियर ब्लॉगर होने के नाते पे तो मुझे नहीं ही करने देंगे आप. क्यों? इसे कहते हैं दोनों हाथ में लड्डू...

कभी ऐसे सेलिब्राट होगा सोचा न था. कई बार ये सलाह जरूर मिली: 'करले बर्थडे सेलिब्रेट और बुला ले पार्टी में यही एक तरीका है...'. जो भी हो बढ़िया रहा :)

और अब फर्माटिंग: हमारी एक ट्रेनिग में एक उड़िया इंस्ट्रक्टर थे उनसे हमने सीखा संसार कि सारी समस्याएं या तो भर्जनिंग (version) से होती हैं या फर्माटिंग (Formatting) से. कम से कम प्रोग्रामिंग में तो यही होता है. तब से ये दोनों शब्द हमारे तकिया कलाम हैं :)

सेलिब्राट: कानपूर में एक बार बड्डे पार्टी से लौट कर आते हुए फैसला हुआ कि मेन गेट से हॉस्टल तक पैदल चला जाय. रास्ते में एक टुन्न सज्जन मिल गए... बड़े हैप्पी थे और वो बार-बार कहते 'आज मैं बहुत खुश हूँ और तुम सब मेरे दोस्त हो... आज हम सेलिब्राट करेंगे. लेट्स सेलिब्राट !' ये कह कर वो रुक जाते और एक क्लासिकल गाना गाने लगते. हम कहते 'रुक क्यों गए? चलते-चलते गाइए...'  और वो खड़े-खड़े फिर तान छेड़ देते 'चलते-चलते मेरे ये गीत....'.

~Abhishek Ojha~

Sep 1, 2009

कभी-कभी इत्तफाक से...

हर व्यक्ति के जीवन में कुछ लोग होते हैं जिनसे वो जाने अनजाने प्रेरणा लेता रहता है. अपने रिश्ते, आस-पड़ोस के लोगों से लेकर ऐतिहासिक, पौराणिक, काल्पनिक और वास्तविक चरित्रों तक से. और अब इन्टरनेट के जमाने में ये लिस्ट लम्बी हुई है इसमें कोई दो राय नहीं. हम जब भी किसी व्यक्ति विशेष के बारे में कुछ पढ़ते-सुनते हैं या किसी से मिलते हैं तो कहीं न कहीं उनके गुणों से प्रभावित तो होते ही हैं.

वैसे प्रभावित होने के लिए ये जरूरी नहीं कि हम उनसे मिलें भी. कई बार तो ये सिर्फ पुस्तकों में बसे चरित्र ही होते हैं या फिर ऐतिहासिक लोग. पर इनमें से अगर किसी से अपने जीवनकाल में कभी मिलना हो जाय तो फिर अतिशय ख़ुशी होना स्वाभाविक ही है.

वैसे प्रेरणा लेने की बात से याद आया. हर प्रेरणा लेने वाले एकलव्य को द्रोणाचार्य तो नहीं मिलते. अगर सोचे तो उस एकलव्य ने तो फिर भी द्रोणाचार्य से मिलने का सौभाग्य पाया.

द्रोणाचार्य को तो 'को नहीं जानत है जग में !' की तर्ज पर भला कौन नहीं जानता होगा/है. तो यहाँ हर एक 'साधारण जिज्ञासु' व्यक्ति की तुलना एकलव्य से करना बेमानी होगी. पर एक बात तो सत्य है... एकलव्य न सही अगर एक साधारण जिज्ञासु भी अगर द्रोणाचार्य से मिलता तो सीखता तो बहुत कुछ. भले ही उनके गुरुकुल में पहुचने के लिए पचासों शर्ते रही हो और हर किसी को ये अवसर ना मिलता हो. पर क्या एक साधारण इंसान की गुरु द्रोण से एक क्षणिक मुलाकात ज्ञान में वृद्धि और सहज हर्ष कि अनुभूति नहीं कराती होगी? क्या आप द्वापर युग के उस व्यक्ति की ख़ुशी का अनुमान लगा सकते हैं जिससे कभी कहीं आते-जाते कोई मिल गया हो. और अचानक ही पता चला हो कि वो जिसके साथ है वो स्वयं द्रोणाचार्य हैं ! वो भले ही घास काटने* का काम करता हो एक बार तो पूछता ही होगा 'क्या मैं भी तीर चला सकता हूँ?'.

यह हर्षातिरेक अनुभूति मुझे पिछले दिनों हुई जब मैं खुद इत्तफाक से एक ऐसे ही गुरु द्रोण से मिला. मेरी हालिया यात्रा के दौरान मुंबई एयरपोर्ट पर एक आचार्यजी मिल गए. मुंबई एअरपोर्ट पर लाउंज में यूँ ही आदतन वायरलेस इन्टरनेट देखकर ऑनलाइन हो गया. मैं अपने मित्र से थोडा जल्दी पहुँच गया था तो अकेले समय काटने का ये तरीका अच्छा लगा. थोडी देर में मेरे मित्र भी आ गए और फिर इधर-उधर की बातें होने लगी. उसी दौरान एक हंसमुख व्यक्ति से अचानक ही बातचीत शुरू हो गयी. वैसे तो किसी अनजान व्यक्ति से बात करना हमेशा ही सुखद होता है पर हम इंसानों ने दूरियाँ कुछ इस कदर बढा दी हैं कि कम से कम हवाई यात्रा में तो दो अनजान यात्रियों का आपस में बात करना एक सामान्य घटना नहीं लगती है. पर इस बार की घटना से तो मुझे सीख मिली कि अगली बार से जरूर एक दो यात्रियों से बात करूँगा 'जाने केही वेश में' कौन मिल जाए. वर्ना अब तक तो अक्सर बगल में बैठने वाले से भी औपचारिकता से आगे बात कम ही बढ़ पायी.

लैपटॉप, यात्रा, काम-धाम, पढाई, हाल-चाल की बात होते-होते अचानक उनका नाम पता चला तो एक बार भरोसा नहीं हुआ... और उसके बाद ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. हमने तो उन्हें यह बताकर कि 'हम आपको पहले से जानते हैं' और साथ में साबुत के तौर पे ये बता पाया कि उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय से सांख्यिकी की पढाई की थी. इसी में अपने को धन्य मान लिया.

खैर उमंग में बात ही कहाँ हो पाती है. इस बात को लेकर मन में लड्डू फूटते रहे कि दोस्तों को बताऊंगा... मैं किससे मिला ! किस्मत को धन्यवाद देता फ्रैंकफर्ट पंहुचा. फ्रैंकफर्ट में कुछ पल के साथ में एक त्वरित फोटो खिचाई. आचार्य तो आचार्य थे... पिता सामान आचरण. जब गुरु द्रोण कहा ही है तो ज्ञान कि बात करने वाला मैं कौन? बस इतना ही कहना है कि उनका विनम्र होना... !

हजारों चीजें सीखी हमने इस छोटी सी मुलाकात में. हम लोग फोकट में हीरो बने फिरते हैं... और जिन्हें आदर्श मानते हैं वो ! ज्ञान-श्यान अपनी जगह है... मुझे तो सबसे पहले उनमें एक अच्छा, विनम्र, हंसमुख और मिलनसार इंसान दिखा. वो गुण जो अब गिने-चुने विलुप्त हो रही प्रजातियों में ही पाए जाते हैं.

अगर आपको कभी ऐसे आचार्य से मिलने का मौका मिले तो ख़ुशी से फूलने की जगह अधिक से अधिक ज्ञान लेने की कोशिश कीजियेगा (ये एक सलाह है). वैसे मेरा अनुभव कहता है कि इतनी ख़ुशी मिलने पर कुछ समय के लिए कोई इच्छा नहीं बचती... ज्ञान प्राप्ति की भी नहीं.
ये आचार्य थे दीपक जैन. दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित बिजनेस स्कूलों में से एक केल्लोग बिजनेस स्कूल के डीन. उनसे मुलाकात की और बातें फिर कभी.... !

~Abhishek Ojha~

बड़े दिनों बाद इधर लौटा हूँ. व्यस्तता का रोना तो अब पुरानी बात हो गयी है... वैसे आपको पता ही है कि अगर समय मिला तो ब्लॉग्गिंग प्राथमिकता सूची में बहुत ऊपर आता है. हालिया संपन्न यात्रा में तरुणजी से मुलाकात हुई और कई बड़े लोगों से बात हुई आप तो सबको जानते ही हैं... समीरजी, लावण्याजी, अनुरागजी, नीरज भाई से भी १ मिनट :)

हमारे संस्थान के एक सीनियर हैं उनसे मिलना भी सुखद रहा... आप उन्हें शायद ही जानते होंगे. हमारी उनकी पहचान भी इसी ब्लॉग की बदौलत है. वैसे बड़े धाँसू फोटोग्राफर हैं, आप उनकी खिंची तस्वीरें देखकर आइये. उनसे एक हिंदी ब्लॉग बनाने का अनुरोध किया तो है मैंने... पर पहली प्रतिक्रिया से थोडा मुश्किल ही लग रहा है.


*वैसे घास काटना मेरे हिसाब से कहीं से भी कम कौशल का काम नहीं हैं. वो तो मुहावरा समझ कर लिख दिया है जी. बुरा मत मानियेगा :)

Jul 7, 2009

बारिशाना मौसम में शून्य दिमाग !

झम-झम-झम-झम मेघ बरसते हैं सावन के
छम-छम-छम गिरती बूँदें तरुओं से छन के
चम-चम बिजली चमक रही रे उर में घन के
धम-धम दिन के तम में सपने जगते मन के

ऐसे पागल बादल बरसें नहीं धरा पर
जल फुहार बौछारें धारें गिरती झर-झर
उड़ते सोन-बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन
घुमड़-घुमड़ फिर मेघ गगन में भरते गर्जन

वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख-गायन
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन

रिमझिम-रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर
रोम सिहर उठते, छूते वे भीतर अंतर
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर
रज के कण-कण में तृण-तृण की पुलकावलि भर
पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन
आओ रे, सब मुझे घेर कर गाओ सावन
इंद्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन
फिर-फिर आए जीवन में सावन मन-भावन

- सुमित्रानंदन पंत (साभार)

काफी इन्तजार के बाद आखिर बारिश होने ही लगी. उजड़ कर गंजे हो चुके पहाडों पर हरियाली लौटने लगी है. काले-सफ़ेद उमड़ते-घुमड़ते बादल, चमकती बिजली, पहाड़, हरियाली, सडकों पर पड़ती बूंदें... ! अब सुमित्रानंदन पंत ने तरुओं से छनते हुए बूंदों का जिक्र किया. हमें तो बिल्डिंग, सड़कें, नंगे चट्टानों... गाड़ियों और कंक्रीट पर ही बूंदें गिरती दिखाई देती है. कल्पना शक्ति जैसी कोई चीज तो अपने पास है नहीं. फिर भी कंक्रीट और गाड़ियों से टकराती हुई बूंदें भी मनभावन ही लगती हैं.

बारिश से लगाव कब हुआ याद नहीं ! बारिश में भीगने का मन हमेशा करता है. अब जेब में मोबाइल और बटुआ जैसी बाधाएं हो तो भी मन तो करता ही है. पर वो दिन कुछ और ही थे जब बारिश में... घुटने तक पानी पार करते हुए स्कूल के बस्ते को पानी में तैराते हुए घर लौटते ! सेट बोरिस स्कूल का 'बोरिस' कुछ लोगों के लिए रेनकोट होता तो बाकी लोगों के लिए सिर्फ बस्ते को बचाने के काम में आता. और उसके पहले तो बस्ते के नाम पर काठ की एक पटरी हुआ करती जो पानी में मस्त तैरती. शायद तभी से भीगने में मजा आने लगा था. हाँ तब ये कविता नहीं पढ़ी हुई थी पर बुँदे जरूर पत्तों से छन कर गिरती. स्कूल से घर Puneतक बीच में बगीचा ही था कुछ २ किलोमीटर तक. अब डायरेक्ट बुँदे गिरती हैं... छनने का झंझट लगभग ख़त्म हो चला है. सीधे गाडी के शीशे से टकराती हैं. तब जमा हुए पानी में पटरी तैराने में मजा आता, ठीक से याद नहीं कि वो भी इतना ही गन्दा होता जितना सड़क पर जमा पानी जिसे देख कर अब चिढ होती है.

चीजें बड़ी तेजी से बदलती हैं... ! तब बारिश में भीगते हुए और छींटे उडाते हुए दिमाग शून्य हो जाया करता था... बिल्कुल खाली... निशब्द ! बस एक अजीब सा सुकून... आनंद बचा रह जाता. अब भीगने पर भी वो अनुभूति नहीं होती. बीमार हो जाने की चिंता तो अब भी नहीं सताती. पर दिमाग शून्य नहीं हो पाता... अब भीगते हुए... दिमाग में मणिरत्नम की फिल्मों के बारिश के सीन चलते हैं... नायकन का मुंबई की बारिश वाला सीन सबसे ज्यादा. अब 'सिंगिग इन द रेन' याद आता है. नौवी क्लास की हिंदी पुस्तक में पढ़ी सुमित्रानन्दन पंत की ये कविता याद आती है जिसे मैंने बक्से में बंद किया है. पर दिमाग शून्य नहीं हो पाता.

दो दिन पहले रात को करीब ग्यारह बजे रेनकोट में पैक, बाईक से घर लौटते हुए अचानक मूड बदला... बाईक रोकी... रेनकोट समेत मोबाइल और बटुआ पीठ पर लदे बैग में ठूंस दिया और... भीगते हुए लौटा. फिर काफी देर टहलता रहा. उतने समय तक दिमाग ने बूंदों और बरसात के अलावा कुछ और नहीं सोचा ! यानी 'लगभग' शुन्य अवस्था ! वैसे तो समुद्र के किनारे और किसी मनोरम दृश्य वाली पहाड़ी के ऊपर ही ऐसी अवस्था में दिमाग पहुच पाता है जब और कुछ नहीं सोचता. तेज मन भी जैसे रुक जाता है...

'पगला गए हो का बे? बीमार पड़ जाओगे !' ये सुनकर सपना टूटा और आ गया वापस 'अपनी' दुनिया से 'अपनी' दुनिया में. अगली सुबह थोडा गला कुछ ढीला हुआ और थोडी थकान. पर बीमार नहीं पड़ा :) यूँ तो आजकल अक्सर मन करता है भीगने का. पर 'फोर्मल ड्रेस' में घुसा हुआ ऑफिस आ जा रहा इंसान अगर मन की ऐसी बातें मानने लगे तो सिरफिरा कहलायेगा. वैसे कभी-कभी ऐसी लंठई करने का अपना ही मजा है ! वैसे आपको भी बारिश से इतना लगाव है क्या?

~Abhishek Ojha~

Jun 25, 2009

हिंदी ही बेहतर है भाई !

यूँ तो ऐसी बातें मैं नहीं करता. क्योंकि (लगभग) सभी के लिए अपना देश और अपनी भाषा ही सबसे अच्छे होते हैं. और वो भाषा जिसमें आप बोलना सीखते हैं उसकी तो बात ही क्या है ! तो किसी एक को बेहतर कहना सही नहीं लगता. पर अपने साथ एक ऐसी घटना घटी कि... जब भी याद आती है लगता है 'हिंदी ही बेहतर है !'

अब अंग्रेजी तक तो हम लोग मैनेज कर लेते हैं. इसमें तो ‘लिखने कुछ और बोलने कुछ’ तक ही समस्या सीमित है. पर जब बात आती है अन्य भाषाओँ की तो बंटाधार हो जाता है. अब फ्रेंच ही ले लीजिये. लिखते कुछ हैं बोलते कुछ और सुनने वाले समझ कुछ और लेते हैं. बोलने वाले भी पता नहीं क्यों कंजूसी करते हैं, अरे बोलो न भाई मुक्त कंठ से इसमें कैसा परहेज ! [वैसे सुना है जर्मन भी अपने हिंदी जैसे ही होती है जो लिखो वही बोलो, पर सीख नहीं पाया तो कन्फर्म कह नहीं सकता. वैसे तो ऐसा स्टेटमेंट देने का अधिकार नहीं बनता जानता ही कितनी भाषाएँ हूँ :)]. खैर घटना सुनिए...

अब देखिये स्विट्जरलैंड में एक जगह है Rennes, अब लिखा है तो पढेंगे भी वही न? रेन्नेस. अब मैंने लोज़न (Laussanne) स्टेशन काउंटर पर पूछा कि मुझे रेन्नेस जाना है ट्रेन कब आएगी. तो बताने वाले को पता नहीं कैसे समझ में आ गया कि ये वेनिस (Venice) पूछ रहा है. लो भाई हो गया काम... बैठो ६ घंटे. क्या करता उसने तो यही बोला: 'द नेक्स्त त्रैन तू वेनिस विल दिपार्त ऐत त्वेन्ति आफ्त्र इलेवन फ्रॉम त्रैक तू' (The Next train to Venice will depart at twenty after eleven from track two) अब कहाँ 'ट' कहाँ 'द' और कहाँ 'ड' सब खिचडी.

हम तो हार मान के बैठ गए. समझ में नहीं आया कि ५ मिनट की दूरी है और छः घंटे तक कोई ट्रेन ही नहीं. तब तक एक ट्रेन दिख ही गयी, जिसे देखते ही शक हुआ कि ये तो जायेगी. हम कहाँ चुप बैठने वाले थे फिर धर लिया उसी महोदया को. अब आप परेशानी में हैं और अच्छे से काउंटर पे कोई प्यार से बताने वाली हो तो बार-बार पूछने में कुछ बुराई है क्या? एक बार फिर पूछा… और फिर मुझे समझ में नहीं आया कि वो रेन्नेस बोल रहा है या वेनिस और तो और इस बार और अड़ंगा.

'द नेक्स्त त्रैन तू वेनिस विल दिपार्त ऐत त्वेन्ति आफ्त्र इलेवन फ्रॉम त्रैक तू... दू यू हैव अ रिज़र्वेशन? यू नीद अ रिज़र्वेशन तू त्रवेल इन दैत त्रैन' (The next train to Venice will depart at twenty after eleven from track two... do you have a reservation? You need a reservation to travel in that train).

लो भाई १० मिनट के लिए रिज़र्वेशन. हमने कहा नहीं भाई हम तो ऐसे ही चले जायेंगे. हमारे पास तो टिकट भी नहीं बस ये पास है !

'नो सर, दिस पास इस नोत वैलिद फॉर वेनिस'. (No Sir, This pass is not valid for Venice). अब माथा ठनका मन तो किया कि हिंदी में मुस्कुराते हुए कुछ गालियों के साथ बोल दूं 'अरे मोहतरमा ! अभी पिछले सप्ताह ही तो हम गए हैं और कह रही हो कि नहीं जा सकते'. लेकिन लगा जरूर कुछ लोचा है. तब पेपर और पेन के सहारे लिख के दिया.

'आई वान्त तू गो तू दिस प्लेस'. तुरत बोल पड़ी: 'ओ ! यु वान्त तू गो तू रेनो'. लो यही बाकी था अब ! Rennes से Venice से रेनो. Renault को भी सुना है रेनो ही बोलते हैं. मैं सोच में पड़ गया कहीं ये Renault कार की बात तो नहीं कर रही ! रिज़र्वेशन तो पहले ही पूछ चुकी है.

तब तक एक ट्रेन पर Rennes लिखा दिख गया और मैं भाग कर उस ट्रेन में बैठा जैसे किसी भूत से पीछा छुडाकर भागा हुआ इंसान ! ओह ! हिंदी इज बेस्त सॉरी बेस्ट.





श्यामसखा‘श्यामजी ने अपने संस्मरण जानकारी और चित्र सहित कुछ यूँ भेजे हैं: हम आज जेनेवा से ४५ किलोमीटर दूरी पर बसे फ़्रेंच कस्बे अन्सी की सैर पर आए हैं! यह कस्बा एक विस्तृत झील के किनारे पर बसा है और यह झील एक नहीं कई झीलों से मिलकर बनी है या कह सकते हैं कि एक ही झील को अलग अलग जगह कई नाम दे दिये गये हैं! कारण कई जगह इस झील का पाट संकरा हो जाता है और इस संकरे पाट के दोनो ओर के हिस्सों को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है! कसबे की खासियत इसका ३०० साल पुराना बाजार है जो संकरी गलियों मे बसा है! बिल्कुल हमारे पुराने शहरों जैसा, बस इन लोगो ने अपने आर्किटेक्चर को बिल्कुल २००-३०० साल पुराना ही रहने दिया है वही ईंटो वाली दुकाने,यहां तक की बाजार की सड़कें भी कोबल स्टोन हमारी छोटी इंटो जैसे पत्थर की बनी हैं बाजार के दोनो तरफ़ झील से निकली एक नहर है! यह नहर पहले खेत सींचती थी ! अब सैलानियों हेतु इस पर होटल हैं कुछ व्यापारिक संस्थान भी हैं तथा कुछ रिहाइश भी!
आज जिस बात ने सबसे पहले ध्यान खेंचा वह था इस नहर पर बने एक छोटे पुल पर जाने वाले रास्ते पर लगे बोर्ड ने आप भी देखें चित्र.
फ़्रेंच भाषा में लिखा है -फ़्रेंच भाषा में अगर शब्द के अंत में व्यंजन आजाए तो वह मूक रहता है जैसे restorent को फ़्रांसिसी रेस्तरां बोलते हैं ज़ानि अन्तिम अक्षर टी t मूक रहता है अब आप चित्र को दोबारा देखें और पढें /यह बनेगा पिद आ त्रि और इसे हिन्दी में देखें पदयात्री ऐसे अनेक शब्द है जो लगता है संस्कृत भाषा से मिलते जुलते हैं और इनका अर्थ भी वही है!

धन्यवाद श्यामजी.


~Abhishek Ojha~

Jun 16, 2009

स्वाइन फ्लू पर सूअर महासभा की बैठक !

जब से स्वाइन फ्लू ने महामारी का रूप लिया सूअर परेशान ! आनन फानन में सूअर महासभा की इमरजेंसी मीटिंग बुलाई गयी.  तमाम तरह के सुरक्षा साधनों की समीक्षा की गयी.

एक सूअर बोल उठा 'ये सब मानव जाति की चाल है हमें बदनाम करने की. ये फ्लू-व्लू तो हमारे अन्दर सदियों से चला आ रहा है. ये हमारा आतंरिक मामला है. किसी का भी हस्तक्षेप बर्दास्त नहीं किया जाएगा. हम सदियों से मनुष्य के लिए जान देते रहे लेकिन मनुष्य को कभी फ्लू नहीं दिया.'

दुसरे ने कहा 'बिलकुल सही बात है, ये दवाई बेचने वाले कंपनियों की साजिश है. कल ही मैंने सिन्डिया टीवी पर देखा है !' 

उसी में एक ने कहा 'अबे धीरे बोलो कहीं किसी को खबर लग गयी कि एक साथ इतने सूअर एक जगह हैं तो एक और जीनोसाइड हो जाएगा. इंसान को ज्यादा दिमाग-विमाग तो होता नहीं है. हम बात करे या छींके इंसान को तो सब एक ही लगता है'.

ये फैसला हुआ कि जो भी बोलना है धीरे-धीरे. अब आदमी का कोई भरोसा तो हैं नहीं कब सनक जाय. 'हाँ तो मैं कह रहा था कि ये हमें बदनाम करने कि साजिश है. वाइरस खुद इंसानों ने बनाया है. हमारे अन्दर तो पहले से ही ऐसे वाइरस हैं. हमें कहाँ कुछ होता है? ये नया बनाकर हमें भी मार रहे हैं और खुद भी मर रहे हैं.' 
'क्या बात कर रहे हो?'
'और नहीं तो क्या? सिन्डिया टीवी वाले कभी गलत नहीं दिखाते. और-तो-और हमें बदनाम भी किया जा रहा है. कई ऐसे जगहों पर भी स्वाइन फ्लू हुआ है जहाँ सूअर ही नहीं है. आदमी से आदमी में ही फ़ैल रहा है. और आदमी से सूअर में. ये अलग बात है कि हम झेल जाते हैं और जल्दी ही इसके भी अनुकूल हो जायेंगे. अरे ये वाइरस तो प्रयोगशाला में बना है. इसमें भला हमारा क्या दोष? हम फ्लू के विक्टिम है स्पोंसर नहीं.' खुफिया विभाग वाले ने ये अन्दर की बात बताई.

'अबे तू पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी वालों से मिला था क्या? वो भी आजकल रोज यही कह रहे हैं हम टेररिज्म के विक्टिम हैं स्पांसर नहीं. अरे मैं तो कहता हूँ कि ये दुसरे जानवरों कि साजिश है. हमारी शांतिप्रियता उनसे सहन नहीं होती.'

'नहीं-नहीं उनकी साजिश से क्या होगा. मुझे पक्का पता है आदमी बस अपने मन की करता है. मुझे तो ये ओसामा-बिन-लादेन का किया लगता है. सिन्डिया टीवी पर स्पेशल रिपोर्ट आने वाली है. वो क्या है कि ओसामा इस बार दिखाना चाहता है कि वो केवल उन्ही का दुश्मन है जो सूअर खाते हैं.' सिन्डिया टीवी देखने वाला एक बार फिर बोल पड़ा.

'लेकिन ये  बीमारी खाने से तो फैलती नहीं? मैं तो कहता हूँ कि स्वाइन फ्लू को छोडो और इस साले सिन्डिया टीवी के भक्त को पीटते हैं. साला कुछ भी नमक मिर्च लगा  देखता है. और हमें भी गुमराह कर रहा है. और सिन्डिया टीवी वाले कुछ दिखाने के पहले ये तय करते हैं क्या कि दिखाई जा रही चीज से कुछ भी सेंस ना बने?'

सारे सूअर सिन्डिया टीवी के भक्त पर टूट पड़े. अब भारतीय जनता तो थे नहीं जो कोई कुछ भी दिखाए देखते रहते. उन्हें तो सुनना भी पसंद नहीं आया.

इधर आदमी को खबर लगी कि एक साथ कई सूअर आपस में लड़ रहे हैं. और इस तरह एक और जीनोसाइड हो गया.




पोस्ट-पब्लिशोपरांत अपडेट बनाम 'ब्रेकिंग न्यूज़': अभी-अभी हमारे वरिष्ठ संवाददाता से खबर मिली है कि सूअरों के बढ़ते आन्दोलन को देखते हुए अफगानिस्तान में सूअर महासभा के एकमात्र सूअर सदस्य को नजर बंद कर दिया गया है. विस्तृत खबर आप यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं.





~Abhishek Ojha~

--

*सिन्डिया टीवी के भक्तों से क्षमा याचना सहित. ऐसा ही 'खबर' के नाम पर कुछ भी तो दिखा देते हैं !

Jun 1, 2009

जूतम् शरणम् … !

मैं चरण पादुका !

अब ये मत कहना कि स्टाइल मार रहा हूँ नाम तो यही है अब बदल के लोगों ने जूता कर दिया. वैसे अब मुंबई और चेन्नई की तरह मैं भी फिर से चरण पादुका ही कहलाना पसंद करूँगा. वैसे एक एक बात है मेरा इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है. अब आप भी तो अपने बीते इतिहास को गौरवशाली कह कर फूले नहीं समाते. तो मैं कौन सा कुछ ज्यादा कर रहा हूँ. मैंने तो कभी इस देश पर राज किया है. अरे याद नहीं आया? तब अयोध्या राजधानी हुआ करती थी और लगातार चौदह सालों तक मैंने राज किया था. मेरी बराबरी तो श्रीराम के अलावा आजतक कोई शासक कर ही नहीं सका. ये आजाद भारत वालों की कौन कहे... ये तो मेरे तलवे के बराबर भी नहीं. अरे उस जमाने में क्या शासन किया था मैंने ! क्या कहा? मैंने शासन नहीं किया ! ये तुम जनता की आदत है फोकट का हीरो बनने की, ये बात मुझे क्या तुलसी बाबा को भी पता थी. तभी वो क्लियर कर गए. लो देखो किससे पूछ के राज-काज चलता था:

'नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।

मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥'


तो असली राजा कौन? मैं !
अब ये मत कह देना कि करूणानिधि ने कहा है ये कोई प्रमाण नहीं है. नहीं तो मारूंगा दो ... खींच के. चुपे-चाप सुनो ! एक जूते तक का सुख नहीं देखा जा रहा तुमसे ! मनुष्य कहीं के.

पर सब दिन एक समान कहाँ होते हैं. तुम्हारे इतिहास की ही तरह मुझे भी
बहुत दुर्दिन देखने पड़े. बस पाँव का तिरस्कृत जूता बनकर रह गया मैं. बाकी सब लुट गया. वैसे आज सच्ची बात बता ही देता हूँ दरअसल बात ये है कि जब मैं अयोध्या का राजा था तभी मुझे घमंड हो गया था. तो अब फल तो भुगतना ही था. वर्ना पहले तो क्या दिन थे ! राजा तो मैं था ही और गुरु के पैर में पड़ गया तो गुरु-गोबिंद सबसे ज्यादा इज्जत मेरी ही होती थी. सारे दान मेरे ऊपर ही चढ़ते थे. पर कालांतर में मुझे अपने घमंड के पापों का फल भोगना पड़ा. उन गर्दिश के
दिनों में मरुस्थल में पड़ने वाले दो बूंद की तरह बस कभी-कभी लैला के कोमल
हाथों का शस्त्र बन मजनुओं के सिर और गालों पर पड़ता रहा. बाकी तो मत पूछो !

पर सदियों तक पाँव तले घिस-घिस कर मैं विनम्र हो गया. इतिहास ने एक बार फिर रुख पलटा और मेरी सदियों की विनम्रता का फल मिला. मैं रातों रात स्टार बन गया. जोर्ज बुश पर क्या फेक दिया गया मेरे तो दिन ही बदल गए. मेरे धकाधक क्लोन बनाए गए. एक बार फिर किसी म्यूजियम में प्रतिष्ठा देने की बात चली. और अब तो मैं उत्कृष्ट पत्रकारिता का प्रतीक बन गया हूँ. जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती उनका प्रतीक... क्रांति का प्रतीक.

अगर आप पत्रकार नहीं बन पा रहे, बन गए हो और कोई जानता नहीं या फिर आपकी आवाज़ कोई नहीं सुन रहा तो फिर एक ही उपाय है: मेरी शरण में आ जाओ. अब तो मैं संसद में चलाया जाऊँगा, कर्मचारी अपने बॉस के ऊपर, छात्र शिक्षक के ऊपर और प्रेमी-प्रेमिका के बीच तो मैं पहले से ही हूँ. सड़क के आशिक तो वैसे ही शुरू से सॉफ्ट टारगेट रहे हैं. अगर आपने किसी बड़े आदमी पर मुझे फ़ेंक दिया तो और कुछ हो ना हो आपको लाखो तो मेरे लिए ही मिल जायेंगे. किसी पार्टी से आपको टिकट मिल जायेगा या फिर आपको किसी चैनल में नौकरी मिल जायेगी. मेरी व्यापकता बढती जा रही है. जैसे मेरे दिन फिरे वैसे भगवान सबके दिन फेरे, अगर नहीं फेर रहा तो मेरी शरण में आ जाओ ! नहीं तो खाते रहो … !

~Abhishek Ojha~

--

जब ऐतिहासिक हनाहन च दनादन जूता फ़ेंक प्रक्रिया चल रही थी तब से ये डायरी में पड़ा था. पहले तो ब्लॉग पर ठेलने की हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर लगा हुर्र ! ब्लॉग पर ठेलने में काहे का सोचना अपने ही लोग हैं... पढ़ा देते हैं. झेल ही लेंगे :)

May 24, 2009

और भी गिफ्ट है ज़माने में इक डायरी के सिवा !

आज ये डायरी मिली - एज अ गिफ्ट ! मेरे मित्र के मम्मी-पापा की तरफ से. उन्हें पता चला कि 'ब्लागर' हैं और इसके बिस्तर पर कम से कम एक किताब हमेशा पायी जाती है. (भले पढ़े या न पढें !) अब ऐसे आदमी को क्या गिफ्ट दिया जाय? ऐसे आदमी के लिए विकल्प कितने कम होते हैं: डायरी, पेन, पेन स्टैंड. लेकिन सबकी तरह अंकल-आंटी को भी सबसे अच्छा वाला विकल्प ही पसंद आया: डायरी !

अब दुविधा ये है कि इसका किया क्या जाय? वैसे तो बचपन से सबसे ज्यादा चीज गिफ्ट मिली तो वो यही है. पर अब तक कभी दुविधा नहीं हुई... सबको भर डालता था. सब फोर्मुलों से भर दिए जाते उसके बाद भी जो बचते उसमें संस्कृत की लाईने. एक बार एक महाभारत सदृश रजिस्टर वाया भईया प्राप्त हुआ कुछ २ हजार से ज्यादा पन्ने होंगे. अब दीखता है तो यकीन नहीं आता. नौवी-दसवी की पुस्तकों का हल तैयार करने में क्या मजा आता था ! अपनी सुपर हिट फोर्मुलों की डायरी दुसरे लड़कों को देने में जितना भाव खाया होगा उतना भाव तो वो मोहल्ले की ब्यूटी क्वीन '...' भी नहीं खाती होगी. अब लगता है उस उम्र में पन्नों का ऐसा दुरूपयोग ! प्रेमपत्र लिखे होते तो नाम बदल कर ब्लॉग पर भी ठेले जाते लेकिन सवालों के हल का क्या करें? जिंदगी का एक क्रिएटिव हिस्सा बेकार चला गया. वो तो ठीक लेकिन इस डायरी का ?

अब तो न कागज न कलम बस लैप्पी बाबा पर खटर-पटर... किसी ने नंबर भी बोला तो नोटपैड ही खोलने की आदत हो गयी है. ये लिखते-लिखते अपनी हैण्ड राइटिंग देख रहा हूँ... बिलकुल गाँधी छाप. अब इस लिखावट में डायरी की सुन्दरता और ज्यादा बिगाड़ने का मन नहीं हो रहा. क्या मेरी लिखावट इतनी घटिया ? पुरानी डायरी खोलकर कन्फर्म करना पड़ेगा. पर इतना तो तय है कोई फोरेंसिक वाला भी पुराने और नए को देखकर चक्कर में पड़ जाएगा… इसी की लिखावट है क्या?

एक मित्र हैं, आजकल जर्मनी में. अगले महीने आ रही हैं (अरे बस मित्र हैं और कुछ नहीं. आप भी न `रही है' देखते ही... लगाने लगे अटकलें !). बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि आज उन्होंने खूब शॉपिंग की. और मेरे लिए क्या लाना है ये भी उन्होंने सोच लिया है. मतलब ये तो साफ़ है जहाँ से सबके लिए खरीदारी की गयी वहां पर मुझे दिया जाने वाला गिफ्ट नहीं मिला. वैसे तो सरप्राइज़ है पर प्रबल 'संभावना' बनती है डायरी की. अब आईपीएल के बाद सम्भावना ही कहेंगे आखिरी ओवर में ३०-३५ रन बनाने हो तो भी कमेंटेटर 'संभावना' ही कहते हैं. आखिरी गेंद पे रन ८-१० की जरुरत हो तो भी... संभावना !

एक उपाय सूझ रहा है तबादले की परंपरा... जैसे मिली वैसे ही किसी और को दे दो. पर कोई 'स्पेशल गिफ्ट' दे तो फिर वो भी अच्छा नहीं लगता. अब बहनजी की तरह तो हैं नहीं... जो धकाधक तबादला कर दें. क्यों न कुछ यादें लिखी जाय कुछ पर्सनल बातें?

'नहीं कोई पढ़ लेगा'

'ब्लॉग पर लिखने में तो नहीं सोचते?'

'कहाँ यार ब्लॉग पर वैसी बाते कहाँ लिखता हूँ...'

ये भी अजीब है !

वही बचपन वाले बात की तरह... कोई आंटी किसी दोस्त को बोलती:

'एक ये लड़का है. कितना पढता है... कभी टाइम बर्बाद नहीं करता. और एक तुम हो !'

'नहीं आंटी कहाँ? मैं तो बस १-२ घंटे से ज्यादा कभी नहीं पढता'

'देखो सुना कुछ तुमने... १-२ घंटे में... और एक तुम हो, कभी ध्यान से पढा करो'

सही गलत जो भी हो लेकिन बाहर से सीरियस और अन्दर जो लड्डू फूटते की... वाह ! आनंद ही आनंद ! पर अब क्या झूठ बोला जाय जो भी बातें होती है घुमा-फिरा कर ब्लॉग पर देर-सवेर आ ही जाती हैं !

सवाल वहीं का वहीं... क्या लिखूं इसमें ? और लोगों को कैसे बताया जाय कि मुझ जैसे लोगों को डायरी असमंजस में डाल देती हैं, किताबें हो तो फिर भी ठीक है. ‘और भी चीजें हैं दुनिया में गिफ्ट देने को इक डायरी के सिवा !’

वैसे एक सवाल आ रहा है दिमाग में हर कवि सम्मलेन में कवियों को स्मृति चिन्ह, शॉल और एक चेक दिया जाता है. चेक और स्मृति चिन्ह तो ठीक पर इतने सारे शॉल का वो क्या करते हैं ! जो प्रसिद्द कवि हैं वो? साल में सैकडो मिलते होंगे उन्हें तो !

*वैसे आप भी अगर मुझे डायरी गिफ्ट करने वाले हैं तो बता दूं... बस एक्सचेंज ऑफर हैं. ये नहीं की कुछ दिया ही नहीं :)

**ये उसी डायरी के शुरूआती पन्ने हैं !

--

~Abhishek Ojha~

May 13, 2009

घूस दे दूँ क्या?

‘आपका क्या ख्याल है घूस दे दूँ क्या?’

अगर आपसे कोई अधेड़ अजनबी ऐसा सवाल पूछे तो आप क्या कहेंगे?

छुट्टी के बाद घर से वापस आ रहा था. रात का समय… बलिया (यूपी) से बक्सर (बिहार) (तकरीबन ३० किलोमीटर) जाने के लिए टैक्सी पकड़नी थी. जल्दी-जल्दी रिक्शे से उतरा ताकि आखिरी टैक्सी छूट ना जाए. गर्मी का दिन... उतरते ही पानी निकाला ही था की आवाज सुनाई दी:

'बोतल का ही पानी पीते हो, नहीं? इंसान भी कितना शौकीन हो गया है !'

सच कहूं तो बहुत गुस्सा आया… अरे मैं बोतल का पानी पियूँ या गड्ढे का तुम्हे क्या पड़ी है? लेकिन फिर उनकी उम्र देखकर मुस्कुरा दिया. 'नहीं… वो छुट्टे नहीं थे तो एक बोतल पानी ले लिया'.

फिर बातचीत चालु हुई. पहले तो पानी का बोतलीकरण और फिर बेचने वालो को गाली... फिर बाद में बाकी बातें... अंकलजी रिटायर्ड फौजी थे और एक साक्षात्कार के लिए पटना जा रहे थे. कोई सीआईएसऍफ़/सीआरपीऍफ़ या फिर किसी बैंक में सेक्युरिटी के लिए कोई पोस्ट थी. इन सबका उन्होंने जिक्र किया था तो ठीक-ठीक याद नहीं किस वाली नौकरी के लिए जा रहे थे. रिटायर्ड फौजी… लेकिन बेटे पढने वाले हैं तो पेंशन पर गुजारा नहीं हो रहा तो काम करना जरूरी है ! आधे भारत की यही कहानी है. ये आधे खुशहाल में आते हैं बाकी आधों के लिए तो कपडे मकान का संघर्ष है. रोटी शायद अब सबको मिल जाती है. और जो बाकी बचे वो थोड़े आराम की जिंदगी जीते हैं. अब ये मत पूछियेगा कि आधे-आधे हो ही गए तो ये बाकी वाले कहाँ से आ गए? ये जो बाकी हैं इन्हें मैं भारत नहीं इंडिया मानता हूँ.

बच्चों की पढाई और नौकरी की बात करते रहे फिर मेरे बारे में भी कुछ पूछा. ‘पुणे में काम मिल सकता है क्या? ५-६ हजार में किसी के यहाँ खाना बनाने का भी...?’ फिर अचानक ही बोल पड़े:

‘तुम्हारा क्या ख्याल है दे दूं घूस? बिना घूस के तो नौकरी मिलेगी नहीं. ’

'मैं क्या बताऊँ… आप अनुभवी हैं. पर ऐसा नहीं है… बिना घूस के भी काम होता है, अगर आप योग्य हैं तो आपको क्यों नहीं मिलेगी नौकरी? आपको इतने सालों का अनुभव है. ऐसे छोटे काम के लिए क्यों परेशान हो रहे हैं, हो जाएगा आपका.’

‘अरे योग्य तो सभी हैं. चार में से एक का होना है. और उनमें से ऐसा कोई नहीं जो योग्य नहीं इस पोस्ट के लिए. सभी ओवर क्वालिफाइड ही हैं. बस एक ही बात बची है पूरी प्रक्रिया में जो १ लाख देगा उसको रख लेंगे. मेरे पास तो साक्षात्कार का लेटर आने के पहले ही दलाल आ गया था. और वो तो चैलेन्ज करके गया है कि बिना पैसे के होना संभव ही नहीं है ! मैं नहीं दूंगा तो कोई और देगा…’

'पर मान लीजिये पैसा भी ले ले और नौकरी भी नहीं लगी तो?' इसके अलावा और कोई तर्क बचा नहीं था मेरे पास. ईमानदारी से भूखो मरने की सलाह उनकी समस्या और 'सभी ओवर क्वालिफाइड ही हैं' वाली बात सुनकर मैं नहीं दे पाया.

'नहीं ऐसा बहुत कम होता है. उनका एक दिन का काम तो है नहीं... प्रोफेशनल लोग हैं. काम होने के बाद आधा पैसा लेते हैं.'

अब क्या बोलता मैं?... मैंने बस इतना ही कहा 'अगर आप योग्य हैं तो नौकरी आपको मिलनी ही चाहिए. और इन सबके चक्कर में ना पड़े तो ही बेहतर है'

अंकलजी ने बस इतना ही कहा... 'तुमने दुनिया देखी कहाँ है? मैं पटना जा रहा हूँ... और वो भी ऐसे पोस्ट के लिए जिस पर कई सालों से बिना घूस के कोई नहीं रखा गया... तुम्हे क्या पता कैसे दुनिया चल रही है... फौज और पारा मिलिट्री में नॉन-ऑफिसर की बहाली कैसे होती है ! मैंने दुनिया देखी है... २० वर्ष के फौज की नौकरी के आधार पर कह रहा हूँ ! '

पता नहीं उनकी नौकरी का क्या हुआ !

पिछ्ली पोस्ट में अन्न मसूर था. जिसे काली दाल भी कहते हैं.

~Abhishek Ojha~

May 5, 2009

छुट्टी कथा: एक दिवसीय किसान

मार्च का महिना कटाई-मड़ाई का सीजन होता है तो हम भी खेती-बाड़ी का हाल देखे आये.  वैसे तो ट्रैक्टर से अनाज निकलने का काम कई सालों से हो रहा है पर नजदीक से देखने का मेरा पहला अनुभव था. इससे पहले थ्रेसर ही देखा था. पता चला पहले जो काम रातभर में भी नहीं हो पाता था अब वो घंटे-दो घंटे में हो जाता है. पहले लोग पछुआ हवा का इंतज़ार करते थे, करते तो अभी भी हैं पर अब वो कोई बहुत बड़ा फैक्टर नहीं रहा. मतलब ये कि कोई भी हवा चल रही हो उसमें मौजूद नमी का कुछ ख़ास असर अनाज निकलने की प्रक्रिया पर नहीं होता. सुना है अब हार्वेस्टर से यह काम और आसान हो गया है. खड़ी फसल से ही अनाज निकाल लिया जाता है. (पर फिलहाल शायद केवल गेंहू के लिए ही ये मशीन इस्तेमाल हो रही है कम ऊंचाई वाली फसल के लिए नहीं) बस भूसे का नुकसान होता है. पर कई लाभ हैं इसके... कटाई और फिर मड़ाई में दो स्तरों पर अनाज के रूप में दी जाने वाली फीस से काफी कम लागत पर काम हो जाता है (काटने वाले से लेकर मजदूर और ट्रैक्टर मालिक सभी अनाज में से एक हिस्सा लेते हैं). समय की बचत होती है वो अलग.

सुना है पहले यह काम बैलों से होता था एक महीने से ज्यादा समय लगता था. थ्रेसर से कुछ सप्ताह और अब दिनों से बात घंटो पर आ रही है. पर कई ऐसे किसान हैं जो अभी भी थ्रेसर पर अडे हुए हैं. और अभी भी थ्रेसरों की विक्री जारी है. पुराने थ्रेसर के खरीदार भी हैं मार्केट में. इसका सबसे बड़ा कारण है किसानों का दिन प्रतिदिन छोटा होना. जनसँख्या बढती जा रही है और बंटवारा होता जा रहा है. छोटे किसानों के पास २० साल पहले जीतनी जमीन होती थी उसकी तुलना में चौथाई से भी कम जमीन है. कैसी बिडम्बना है... तब बैल अब हार्वेस्टर !

kheti-1 kheti-2

मज़बूरी में कई किसान एक साथ मिलकर हार्वेस्टर बुलाते हैं. पर कैश पेमेंट करना अभी भी सबके बस की बात नहीं ! लिहाजा उन्हें पुराने तरकीब से ही काम करना पड़ता है.  पूर्वी उत्तर प्रदेश के बदतर हो रहे हालात ने मजदूरों को बाहर जाने पर मजबूर किया है और खेती में काम करने वाले मजदूरों की भारी कमी है. मेरे बड़े पिताजी सेवानिवृत शिक्षक हैं और हमारे घर तो पूरी तरह मजदूर आश्रित रामभरोसे ही खेती होती है. खेती से जुडी उनकी भावनाएं अगर ना होती तो कब के खेत बटाई या फिर लगान पर दे दिए गए होते.

ट्रैक्टर से हो रही दंवरी (मड़ाई) देखकर कई सुधार दिमाग में घूम रहे थे लेकिन फोटो खीचते समय दिमाग में आया कि किसको सुझाया जाय. वैसे भी साधारणता एक ब्लॉगर के विचार टिपण्णी कमाने के अलावा और किसी काम के नहीं होते ! अब फोटो तो ब्लॉग पर डालने के लिए ही खीच रहा था. तो एक ब्लॉगर की हैसियत से चुप ही रहा.

क्या आप बता सकते हैं ऊपर कि तस्वीर में कौन सा अनाज है? अगर इसे पहेली माना जाय तो अशोक जी को छोड़कर बाकी लोगों के लिए ही :-)

~Abhishek Ojha~

Apr 26, 2009

छुट्टी कथा: १३८ पहियों पर लदा अजूबा !

'अरे छोटू वो मशीन देखे?'
'कौन मशीन?'
'अरे! जर्मनी से ट्रांफार्मर आया है... इतना बड़ा है कि उसे ले जाने के लिए १३८ पहियों की गाडी आई है, जगह-जगह पेड़ काटे जा रहे हैं. और पुराने पूल कहीं टूट ना जाए इसलिए उनकी जगह नए पूल बनाए जा रहे हैं ! तुम्हारी किस्मत अच्छी है जो इस समय गाँव आये हो तुम भी देख लोगे, लोग दूर-दूर से बस और ट्रेन से आ रहे हैं देखने !'

हमारे पड़ोस वाले चाचा जब बात किस्मत पर ले आये तो हमने भी सोचा चलो देखे आते हैं... हमारे गाँव के बजरंग बली के मंदिर के पास वो गाडी रुकी. भारी भीड़ के बीच सुना मशीन की पूजा की गयी और एक नेताजी ने कुछ भाषण भी दिया... ये मनोरम दृश्य तो छुट गया. पर हम अगले दिन सुबह-सुबह ये अजूबा देख आये. जितना हाइप था वैसा तो कुछ नहीं निकला. पर पहले आप भी इसे देख लीजिये और अपनी किस्मत को धन्यवाद दीजिये. फिर नीचे जानकारी पढियेगा :-)




हमने जो अवलोकन किया वो इस प्रकार है. हमने देखते ही सीमेंस कंपनी का टूटा हुआ नाम पहचान लिया (पहले चित्र में दाहिनी तरफ, पुणे में हमारे ऑफिस के बाजू में ही सीमेंस का ऑफिस है) और फिर अपनी आदत अनुसार साथ गयी अपनी भतीजी को सीमेंस के बारे में, फिर मशीन डिजाइन पर लेक्चर दिया गया. और फिर ये गौर किया गया की ये मशीन तो जर्मनी की ही है पर १३८ की जगह १२८ चक्के थे और वो भी ३२-३२ पहियों की चार ट्रोलियों को जोड़कर तैयार किया गया था. फिर ये तय हुआ की इसे खीचने के लिए जो अलग से ट्रकनुमा इंजन जोड़ा जाता होगा १० पहिये उसके भी गिने गए होंगे १३८ पूरा करने में. और इन चार ट्रोलियों पर पर एमएच का नंबर देखकर ये फैसला लिया गया की ये मुंबई से आ रहा है. एक जगह और मुंबई पोर्ट दिखा मिल गया (आखिरी तस्वीर). पर लोगों के अनुसार वो जल मार्ग से (गंगा नदी) लाया गया तो शायद फिर वहां से कलकत्ता ले जाया गया होगा.

अब अवलोकन तो पूरा हो गया पर विवरण के बावजूद ये पहेली की तरह लगा की ये आखिर है क्या? फिर विवरण वाली तस्वीर ((आखिरी) की जानकारी को वहीँ गूगल मोबाइल के हवाले किया गया और जो जानकारी मिली वो ये है: पॉवर ग्रिड कारपोरेशन इंडिया लिमिटेड के बलिया भिवाड़ी-विद्युत् वितरण प्रोजेक्ट 2500 MW HVDC (2500 MW high-voltage, direct current electric power transmission system) के तहत सीमेंस कंपनी द्बारा तैयार यह बईपोल टर्मिनल पूर्वी भारत से पश्चिमी भारत तक बिजली वितरण में इस्तेमाल होगा. इसकी विस्तृत जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध है. दुनिया भर में ऐसे अन्य ग्रिडों की जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध है. जय हो टेक्नोलोजी !

हाँ इस परियोजना में सुना है पीडबल्यूडी के इंजीनियरों और ठेकेदारों की चांदी हो गयी है... और जरुरत बिना जरुरत करोडों के रास्ते बनाए जा रहे हैं ! अब विकास से करोडो का फायदा ऐसे ही तो लोगों तक पहुचता है. बलिया के लोग आस लगाए बैठे हैं की २४ घंटे बिजली रहेगी... मुझे ये संभव होता नहीं दिख रहा. पर जो भी हो लोग उत्सुकता से इस अजूबे को देखने रहे थे... रांची में भारी अभियांत्रिकी निगम (एचइसी) ऐसी बड़ी-बड़ी मशीनें बनाता है और महीनो तक वो स्टेशन पर पड़ी रहती है. हम बचपन में देख कर हैरान तो जरूर होते थे पर कभी इतनी उत्सुकता से लोग देखने जमा नहीं होते थे.
~Abhishek Ojha~

Apr 22, 2009

छुट्टी कथा: दिल्ली में... ना भूख ना प्यास

रात को ९ बजे दिल्ली... बाहर निकलते ही भईया मिल गए फिर १.३०-२ घंटे लगे होंगे नॉएडा पहुचने में. फिर जो बातों का सिलसिला चला तो कब सुबह के ४ बजे पता ही नहीं चला. ३ घंटे की नींद और फिर वही... तीन भाई और अनगिनत बातें... ना भूख न प्यास ! [तीन नालायक :-)]

ना भूख ना प्यास: वो तो भला हो एक सज्जन का जो किसी काम के सिलसिले में मिलने आ गए उनके लिए मिठाई की व्यवस्था की गयी और घर पे कुछ संतरे पड़े थे. वर्ना नए साल का पहला दिन (२७ मार्च) खाली पेट ही निकल जाता. शाम को ४ बजे भईया को डॉक्टर के पास जाना था तो सब उधर ही निकल लिए फिर बाजार. रात को ८-९ बजे लौटे. इस बीच हमारी मित्र मंडली के बीसियों फोन आये तो हमने सोचा की उनसे ना मिला गया तो... खैर रात को ९ बजे स्नान करके और बड़े भाइयों को कुछ खाने की हिदायत देकर ११ बजे मैं पीवीआर साकेत पहुचा. उसी दिन एक मित्र  ने सिविल सेवा की परीक्षा का साक्षात्कार दिया था. जब तक रास्ते में था फोन पर उनके साक्षात्कार की चर्चा चली. रास्ते में कैब से उतरा तो एक ऑटो वाले ने जो मदद की... लगा इंसानियत अभी जिन्दा है. यात्रा में मिले अच्छे-बुरे लोगों की चर्चा आखिरी पोस्ट में.

ये दोस्ती: वहां कॉलेज के ५ दोस्त जमा हुए २४ घंटे की भूख के बाद जम के खाया गया. और फिर सुबह के ५ कब और कैसे बज गए पता ही नहीं चला. ये कुछ ऐसे दोस्त हैं जो दोस्ती की परिभाषा हैं... इनसे दोस्ती को परिभाषित किया जा सकता है. ये उन दिनों के दोस्त हैं जिन दिनों परीक्षा में एक किताब के दस टुकडे कर के पढ़े जाते. किसी एक के चेक बुक से १० लोगों का मेस बिल भरा जाता. एक का परफ्यूम पूरे २० लोग लगाते और 'जरा दिखाओ कैसा है' यही देखने में ख़त्म हो जाता. पार्टी-शार्टी में एक के कपडे पांच लोग पहनते. कमरों में कभी ताला नहीं लगता... अपने कमरे को छोड़कर कोई कहीं भी पाया जा सकता था. अगर एक दुसरे को पढाया नहीं गया होता तो शायद कोई पास नहीं हुआ होता. वो दोस्त जिन्हें सुबह के ४ बजे कह दो कि भूख लगी है तो बाइक से जीटी रोड का हर एक ढाबा स्कैन कर दिया… कहाँ क्या मिलेगा. भूख तो दूर कि बात बस कह दो कि चाय पीने का मन है ! अनगिनत यादें... अनगिनत बातें. कुछ डाउनलोड की गयी फिल्में भी इधर से उधर की गयी. क्या-क्या लिखा जाय ! अगर वे ना होते तो शायद जिंदगी कुछ और होती, मैं वो ना होता जो हूँ… क्या होता पता नहीं ! इन दो सालों से कम वक्त में ही कितना कुछ बदल रहा है… सुबह ६ बजे मैं फिर नॉएडा के लिए निकल गया.

अटेंडेंट कुरियर सर्विस: नॉएडा पहुँच कर फिर बतरस...  पुराना कंप्यूटर घर ले जाने के लिए पैक किया गया. और फिर शाम को स्टेशन, आज का दिन भी बिना खाए पीये निकल गया. ना बनाने की सुध न बाहर जाने की फिकर, ऑर्डर करने तक का नहीं सूझा ... 'थोडी देर में चलते हैं' करते-करते शाम हो गयी. स्टेशन पर एक दुसरे को खा लेने की नसीहत जरुर दी गयी. स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस में एक नयी बात पता चली कोच के अटेंडेंट कुरियर कंपनी की तरह भी काम करते हैं. अब कितनी जायज-नाजायज चीजें भी वो ट्रासपोर्ट करते होंगे ये तो अपने को नहीं पता. पर जितना हमने देखा ये काम बड़े सहज तरीके से होता हैं. आप एक प्लेटफोर्म टिकट लेकर दिल्ली में सामान अटेंडेंट तक पंहुचा दीजिये और फिर अगले दिन निर्धारित स्टेशन पर आपका कोई आदमी आकर सामान ले जायेगा !

दिल्ली में बारिश और ट्रेन लगभग एक साथ ही चालु हुए...पिछले दो रातों को मिलकर ४ घंटे की नींद और भाग-दौड़ के बाद रात के ९ बजे जो नींद आई तो अगले दिन सुबह ११ बजे बनारस में किसी ने उठाया. उठने के बाद पता चला की ट्रेन में बड़े मजेदार लोग हैं, और सोने के पीछे एक मजेदार पोस्ट चली गयी :-)

एयर होस्टेस सुपर हिट: पिछली पोस्ट पर जेट एयरवेज की तीनों एयर होस्टेस हिट हो गयी. हवाई जहाज से कहीं पहुँचने पर दोस्तों का बाई डिफॉल्ट पहला सवाल एक ही होता है 'एयर होस्टेस कैसी थी?' यही नहीं जो छोड़ने आया था उसको फोन किया तो उसने भी यही पूछा. मुझे लगा की ये हमउम्र दोस्तों तक ही सीमित होगा पर पिछले पोस्ट पर अगर कुछ बिका तो एयर होस्टेस. अब आपने कहा की सब सच-सच लिखना है तो लिखे देते हैं. हमने तो इस बार यही जवाब दिया ‘जहाज में जाते ही पैसा वसूल हो गया, आज पहली बार यकीन हुआ की एयर होस्टेस अच्छी होती हैं ! वर्ना अब तक तो... '
इसके बाद कुछ अच्छी के लिए कुछ शब्द भी इस्तेमाल होते हैं वो सब तो आप जानते ही होंगे ... [उदहारण के लिए एक शब्द 'ग़दर-ए-गर्दिश' वैसे तो इन शब्दों की डिक्शनरी बहुत बड़ी है :)].

और हाँ हम इतने लेट से एयरपोर्ट पहुचे थे की आखिरी लाइन में सीट मिली थी. यूँ तो हम किताब बहुत एकाग्र होकर पढ़ते हैं और उस दिन भी आँखें किताब पर गड़ी रही लेकिन कान तो पूरे रास्ते उन तीनों की बात ही सुनते आये... अब किसी की व्यक्तिगत बातें तो ब्लॉग पर सार्वजनिक नहीं की जा सकती ना. वैसे लडकियां आपस में बड़ी रोचक बातें करती हैं... चाहे एयर होस्टेस ही क्यों ना हों !

~Abhishek Ojha~

(जारी...)

Apr 20, 2009

अथ श्री छुट्टी कथा: पुणे से दिल्ली तक

पिछली पोस्ट पर मुझसे छुट्टी का हिसाब माँगा गया.  १७ पोस्ट तो शायद नहीं हो पाए पर लेखा जोखा तो अब देना ही पड़ेगा. आज दिल्ली तक की डायरी.

और मिल गयी छुट्टी: हमारे ऑफिस में साल में एक बार लगातार एक सप्ताह (५ कार्य दिवस) की छुट्टी लेना अनिवार्य है. अगर दिसम्बर तक लगातार एक सप्ताह की छुट्टी ना ली जाय तो आपको जबरदस्ती घर भेजा जायेगा. ऐसे ब्लाक लीव के नियम बनाने वालों को भगवान लम्बी उम्र दे :-) २७ मार्च को गुडी पडवा की छुट्टी से लम्बा सप्ताहांत वैसे ही था और इधर १० अप्रैल को गुड फ्राइडे. तो एक सप्ताह में ब्लाक लीव और दुसरे सप्ताह में ४ दिन की छुट्टी... इस तरह जो ९ दिन की छुट्टी मैंने ली वो १७ दिन की हो गयी. एक तो मैं छुट्टी ऐसे समय पर लेता हूँ जब ऑफिस में कोई और ना ले रहा हो. साधारणतया सब लोग एक ही साथ छुट्टी लेना चाहते हैं जैसे होली, दिवाली इत्यादि. हमारी दो की टीम में से एक को ऑफिस में रहना जरूरी है और जब अजित की तरह का होनहार कलिग हो तो फिर काहे की चिंता :-)  इस तरह थोडी सी ओप्टिमाइजेशन लगाने पर हमारी छुट्टी मान्य हो गयी.

जो होता है अच्छे के लिए: कम से कम एक महिना पहले तो बताना ही पड़ता है छुट्टी के लिए. पर हम तो दो महिना पहले ही बता के बैठे थे... तो टिकट भी करा लिया. पर इस बीच लम्बे सप्ताहांत में ऑफिस के लोगों ने गोवा जाने की योजना बनाई. पर हमारे मन ने गोवा की चकाचौंध के आगे घर जाने को ज्यादा तरजीह दी और हमने अपनी योजना नहीं बदली. पर अच्छी यात्रा  के लक्षण पहले ही दिखने लगे... हमने बड़ा सस्ता टिकट कराया था पुणे से दिल्ली का जेटलाइट में. १० दिन पहले पता चला की फ्लाईट ही रद्द हो गयी ! जय हो ! उन्होंने कहा की आप अपना पैसा वापस ले लीजिये. मैंने कहा 'वाह भाई ! आपने कह दिया और मैं पैसे ले लूं और अब उससे ४ गुना पैसा देकर मैं टिकट लूं? मैं वापस नहीं लेता आप मुझे किसी तरह २६ की रात में दिल्ली पहुचाओ !' शायद पहली बार पैसे को ना कहा होगा मैंने. अब बेचारे क्या करते उसी टिकट को अपडेट कर मुझे उसी दिन शाम को जेट एयरवेज का टिकट मिल गया.

ऑफिस से निकलने में देर हो गयी और हमारे रूम पार्टनर की बाइक से दौड़ते-हांफते ६.३० बजे एयरपोर्ट पहुचे तो पता चला की ७ बजे और उसके बाद की सारी फ्लाईट रद्द ! उफ़ ! पर फिर कमाल... गौर से देखा तो ७ बजे की एक फ्लाईट रद्द नहीं हुई थी. और हम एक बार फिर लकी... अब ३ एयर होस्टेस में कौन कैसी थी ये आपको नहीं बता रहा बेकार में पोस्ट लम्बी हो जायेगी :-)

भूख लगी हो तो कुछ भी अच्छा लगता है: नयी-नयी ब्लैक स्वान खरीदी गयी थी तो थोडी देर पढने की कोशिश की गयी. पर दिन में लंच करने का भी समय नहीं मिल पाया था और भूख बड़े जोर की लगी थी. हम खाने पर टूट पड़े... हमारे बगल की सीट वाले महानुभाव उस समय तो चुप थे पर अभी मैंने शुरू ही किया था की खाने को गालियाँ देने लगे. 'कितना बेकार खाना है !' अब हमने भी हामी भर ही दी और ना चाहते हुए भी थोडा छोड़ना ही पडा. अरे ये भी कोई तरीका होता है? हाय न  हेल्लो... सीधे खाना बेकार है ! आप को एक सलाह देता हूँ अगर कोई भूखा खा रहा हो तो जब तक वो पूरा खा न ले खाने की बुराई कभी मत कीजियेगा बहुत बद्दुआ लगेगी.

हम असभ्य लोग: खैर यहाँ तक तो ठीक था. पर दिल्ली पहुचते-पहुचते एक बार फिर मन किया की दो-चार लोगों को थपडियाया जाय. जब भी फ्लाईट उतरती है... उतरने के पहले ही लोग फोन चालु करने लगते हैं. क्यों भाई २ मिनट में कौन सा पहाड़ टूट जायेगा? अभी हाल ही में प्रोफेसर रघुनाथन की ये किताब पढ़ी थी और  एक बार फिर भरोसा हुआ… हम भारतीय बड़े अनसिविलाइज्ड होते हैं.

~Abhishek Ojha~

(जारी... 'दिल्ली में... ना भूख ना प्यास')

Apr 14, 2009

क्षीणे पुण्ये ऑफिसम् विशन्ति !

मैंने छुट्टी क्या ले ली जिसे देखो वही परेशान:

१७ दिन?

कहाँ जा रहे हो?

क्यों?

कोई 'यूँही' इतने दिनों के लिए घर जाता है क्या? कोई तो काम होगा?

और इतने दिनों तक ऑफिस का काम?

इतने दिन तो कोई अपनी शादी में भी छुट्टी नहीं लेता ! (चलो ये तो कन्फर्म हुआ की मैं शादी करने नहीं गया था !)

फिलहाल सबको संशय में डाले... हम आनंद मनाते हुए नेट-वेट से दूर छुट्टी मना आये. और जब लौट के आये तो लोगों ने पूछा: 'कैसी रही छुट्टी?' अब क्या बताएं हमें तो लगा 'धत ! ये भी कोई छुट्टी हुई शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो गयी.' लगा जैसे कभी का कुछ किया हुआ पुण्य शेष था जिसके क्षीण होते ही हम ऑफिस में आ गिरे*. 

इधर जाने के पहले ब्लॉगजगत से छुट्टी मान्य तो हो गयी पर एक चेतावनी भी दी गयी 'पिछला रिकॉर्ड बड़ा ख़राब है जरा ध्यान रखो ! ' अब जब पुण्य क्षीण हो गया और हम फिर से अपने लोक में आ गए तो इस ब्लॉग रूपी माया का ध्यान आना भी स्वाभाविक ही है. तो हम फिर से हाजिर हैं. वैसे तो हम कुछ यूँ गायब रहते हैं कि अगर आने जाने की सूचना पोस्ट से देने लगे तो सूचना वाले पोस्ट ही सबसे ज्यादा हो जायेंगे. वापस आकर ज्ञान भैया की एक पोस्ट पढ़ी तो सच में लगा की बहुत बड़ा पुण्य करने से आदमी दरोगा होता होगा. सरकारी नौकरी, रॉब, उपरी कमाई और छुट्टी मिले सो अलग. यहाँ तो सब जानने वाले १७ दिन में ही मुर्छाने लगे... इस मंदी में १७ दिन? और कहाँ घर वालों के साथ मुझे भी लगा ही नहीं कैसे ख़त्म भी हो गए ये सारे दिन.

खैर… फिलहाल इस मायाजाल (ब्लॉग) में थोडा रेगुलर रहने की इच्छा है. इस बीच कई रोचक बातें हुई जो ठेली जायेंगी. इन १७ दिनों के कुछ अनुभव भी होंगे. अभी बस यह तस्वीर... इन १७ दिनों में सोचा तो बहुत कुछ पढने/देखने को था पर इन दोनों किताबों (तस्वीर वाली) और कुछ फिल्मों से ज्यादा नहीं हो सका. दोनों किताबें बेजोड़ हैं... लगता था गणित ही अब्सट्रैक्ट होता है पर उपनिषद् ने दिमाग का दही कर दिया. पारिवारिक आनंद, ब्लैक स्वान, ब्रह्म और आत्मा-परमात्मा के बीच सालों बाद एक मेला भी देख आया. डिटेल धीरे-धीरे…  अभी के लिए इतना ही.

Black Swan and upanishad

--

* ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। (वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर फिर से मृत्यु लोक पहुँचते हैं।) ॥श्रीमद्भगवद्गीता ९- २१॥

Mar 25, 2009

बुलशिट कार्टेल: 'वो भी वही है': भाग II

पिछले पोस्ट से जारी...

पहले कुछ अर्थशास्त्र... एक महान गणितज्ञ हैं जॉन नैश. जिन्हें गेम थियोरी पर किये गए उनके काम के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया. इनकी छोटी चर्चा अन्यत्र हो चुकी है. आज की शुरुआत इनके एक बड़े प्रसिद्द सिद्धांत से. गेम थियोरी परस्पराधीन रणनीतिक हालातों (interdependent strategic situations) में निर्णय लेने में मदद करने वाले विश्लेष्णात्मक औजार के रूप में जाना जाता है. यहाँ रणनीति में फैसले अक्सर सामने वाला क्या करेगा ये सोच कर लिए जाते हैं.

किसी खेल में नैश संतुलन (Nash Equilibrium) एक ऐसी अवस्था है जिसमें अगर बाकी खिलाडियों की रणनीति मालूम हो तो संतुलन की हालत में हर खिलाडी अपनी 'उत्तम रणनीति' वाली अवस्था में होता है. (the equilibrium that is the dominant strategy for each player in the game, given the actions taken by any other player.) अब उत्तम रणनीति का निर्धारण कैसे हो? तो उत्तम रणनीति कुछ इस तरह परिभाषित है: वो रणनीति जो किसी खिलाडी के लिए हमेशा ही अच्छी है भले ही सामने वाला कोई भी रणनीति चुने. खैर ज्यादा भारी  होता लग रहा है... पर आपको बता दूं की ये सिद्धांत कई जगह इस्तेमाल होते है. और इसके अर्थशास्त्र में होने वाले भारी इस्तेमाल के चलते ही नैश को नोबेल पुरस्कार मिला. वर्ना गणितज्ञ और नोबेल ! ?

तो अर्थशास्त्र में खेल की जगह व्यवसाय और खिलाडी की जगह कंपनियाँ रख दीजिये… फिर करते रहिये नए नए सिद्धांतों की खोज. अब देखिये कोई भी कंपनी चाहेगी लागत से ज्यादा पर माल बेचकर फायदा कमाना. लेकिन सामने वाली कंपनी अगर उससे कम दाम पर बेचना चालु कर दे तो वह ज्यादा बाजार अपने कब्जे में ले सकेगी और इस तरह उसका लाभ ज्यादा हो जायेगा. इस खेल  का नैश संतुलन कम कीमत पर आकर रुकता है. और इस प्रकार कम कीमत और कम लाभ नैश संतुलन होता है. इसका एक मजेदार उदहारण मुझे कुछ दिनों पहले तक अक्सर देखने को मिलता था. जब फ्लैट खुद साफ़ करने की बात होती तो हर फ्लैट पार्टनर को साफ़ फ्लैट चाहिए होता था पर साफ़ कोई नहीं करना चाहता था... इस प्रकार नैश संतुलन ये होता था की कोई फ्लैट साफ़ नहीं करता था :-)

अब बात ये है की दोनों का फायदा तभी होगा जब वो सहयोग करें... अगर अपने स्वार्थ का काम करने लगे तो फिर परिणाम होगा नैश संतुलन ! जैसे मेरे मामले में फ्लैट साफ़ रहेगा वैसे ही कंपनियाँ फायदे के लिए कार्टेल (उत्पादक संघ) बनाती है. ओपेक तो आपने सुना ही होगा तेल उत्पादक देशों का कार्टेल है. ऐसे ही कम्पनियाँ भी कार्टेल बनाती हैं. अगर सब मिलकर बहुत ज्यादा कीमत रखें तो cartel example उपभोक्ता को देना ही पड़ेगा. लेकिन कौन कंपनी नहीं चाहेगी इस कार्टेल को धोखा देकर थोडी कम कीमत पर बेचें और पूरा बाजार अपने कब्जे में ले ले ! और स्वार्थी बाजार में फिर यही होता है... अर्थात नैश संतुलन. (ऐसे एक कार्टेल का बड़ा अच्छा उदहारण है कोक और पेप्सी दोनों कभी कीमत कम नहीं करते, कभी एक दुसरे को धोखा नहीं देते और उपभोक्ता से लागत से  ज्यादा कीमत लेते हैं,  दोनों खूब मुनाफा भी कमाते हैं...).

अब असली बात, इस ऊपर वाले कार्टेल में कीमत की जगह गुणवत्ता कर दीजिये. तो कोई भी कंपनी अगर उसी कीमत पर गुणवत्ता बढा दे तो वो ज्यादा बाजार पर कब्जा कर लेगी. और फिर दूसरी कंपनी को या तो गुणवत्ता बढानी पड़ेगी या फिर उसे बाजार से ही बाहर होना पड़ जायेगा. अब जैसे ऊपर कोक-पेप्सी का कीमत को लेकर कार्टेल है वैसे ही भारतीय कंपनियों का गुणवत्ता को लेकर कार्टेल है. बस इतना अंतर है कि यहाँ धोखा देने पर लाभ हो सकता है फिर भी यहाँ कोई धोखा नहीं दे रहा है. नैश संतुलन बन पड़ा है. हम भी घटिया सर्विस देंगे तुम भी घटिया सर्विस दो इस तरह हम दोनों बाजार में मुनाफे की साझेदारी करेंगे और किसी को बाजार से बाहर भी नहीं होना पड़ेगा ! मुझे इसके लिए नाम सूझा: 'बुलशिट कार्टेल !' 

बाकी क्षेत्र का तो पता नहीं पर टेलिकॉम और मीडिया में तो साफ़-साफ़ दीखता है ये बुलशिट कार्टेल. सारे चैनल बुलशिट दिखाते हैं. कोई इस कार्टेल को धोखा नहीं देता... ! और टेलिकॉम का तो पिछली पोस्ट में आप देख ही चुके हैं...

सब वही हैं... बुलशिट कार्टेल के सदस्य.

~Abhishek Ojha~

चलते-चलते: आज शाम दो सप्ताह कि छुट्टी पर घर जा रहा हूँ... बहुत काम हो गया… अब एक ब्रेक ! तब तक के लिए राम-राम !

Mar 22, 2009

वो भी वही है !

एक किस्सा: जीवन की कुछ छोटी-छोटी बातें दिमाग में हमेशा के लिए बैठ जाती है. फिर हम ऐसी बातों, घटनाओं और किस्सों को जीवन में होने वाली कई अन्य घटनाओं से जोड़ कर देखते हैं. ऐसी ही मेरे बचपन की एक छोटी सी बात अक्सर बहुत सारे परिपेक्ष्यों में बड़ी सटीक बैठती है. बात थोडी घरेलू है. हमारे पड़ोस की आंटी के पास दो कड़ाही हुआ करती थी दोनों बिल्कुल काली... बाहर-भीतर कोयले सदृश्य. कौन ज्यादा काली है ये पता लगाना बड़ा मुश्किल काम था. एक दिन उन्होंने बहुत मेहनत से सफाई की तो एक कड़ाही में कहीं-कहीं थोड़े से सफ़ेद धब्बे दिखने लगे. कोई उनके घर आया था और बोल पड़ा:

'इससे अच्छी  तो वो लोहे वाली कड़ाही ही है'. उनका मतलब ये था की वो तो काली होती ही है, लेकिन ये एल्यूमिनियम वाली (जो थोडी साफ़ हो गयी थी) तो बिल्कुल ही बेकार है, देखिये तो भला कितनी गन्दी हो गयी है !
आंटी ने जवाब दिया: 'वो भी वही है !'
मतलब जो आपको लोहे की लग रही है वो भी असल में लोहे की नहीं है... और वो भी गन्दी होकर ही काली हुई है.

ये किस्सा जंग लग चुके समाज में मुझे हर जगह दिखाई देता है...  बाहर से देखकर हम अक्सर भ्रम में पड़ जाते हैं पर सच्चाई कुछ और ही होती है !

एयरटेल और मैं: ये किस्सा मैंने आज आपको इसलिए सुनाया क्योंकि इतने दिनों जो मैं गायब रहा. मेरे ब्लॉग पे सूखा रहा और आपके ब्लॉग पर भी नहीं आया. होली पर भी आपके ईमेल का जवाब नहीं दे पाया तो इन सब का जिम्मेवार सीधे रूप से एयरटेल और उसकी सड़ी हुई सर्विस है. इन दिनों मैंने सबसे ज्यादा कुछ किया तो एयरटेल के कस्टमर सर्विस  पर फोन.
अचानक एक दिन ब्रॉडबैंड चलना बंद फिर... रोज लगभग २० मिनट ४४४४१२१ पर फ़ोन. सुना है वो फ़ोन रिकॉर्ड करते हैं ट्रेनिंग परपज के लिए. व्हाट? क्या ट्रेनिंग देते हैं?... कोई कुछ भी बोले, कुछ भी पूछे बिना सुने अंत में या तो कॉल फॉरवर्ड कर देनी है... और कुछ इरिटेटिंग सा सन्देश बार-बार सुनाते रहो और इतनी देर तक होल्ड पे रखना है कि सामने वाला खुद ही फोन पटक दे. या फिर ये बता दो की आपकी रिक्वेस्ट फॉरवर्ड कर दी गयी है और २४ घंटे में आपका काम हो जायेगा ! ये २४ घंटे, अगले दिन १२ होने की वजाय ४८ हो जाते हैं. और इसी तरह एक सप्ताह तक चलने के बाद आपको १० दिन बाद की डेडलाइन दे दी जाती है !  रोज़ फोन करो तो  सामने एक नयी आवाज उसको  शुरुआत से पूरी राम कहानी सुनाओ और फिर अंत में समस्या वहीं की वहीं. हाँ रोज़ समस्या का कारण और ठीक होने की डेडलाइन जरूर बढती गयी. एक ने कह दिया की हमारे फलां ऑफिस में आइये... वहां गया तो बताया दुसरे ऑफिस में जाइए वहां गया तो बोला की फिर से पिछले वाले ऑफिस में जाइए... ये है एयरटेल. WTF? खैर हम पोजिटिव थिंकिंग वाले ठहरे एक फायदा तो दिखा... वो सब गालियाँ दी जो जीवन में कभी नहीं दी थी. फ़ोन पे भी और उनके ऑफिस में भी... भले इससे फायदा हुआ हो या घाटा !

वर्गमूल (०३/०३/०९) दिवस से पाई दिवस (०३/१४) सब निकल गए और कनेक्शन कि बत्ती बीच में एक दिन २ घंटे के लिए जली फिर १० दिन के लिए गायब. बाद में पता चला वो २ घंटे टेस्ट करने के लिए दिए गए थे... पिछले ६ महीनो से कनेक्शन चल रहा था और ये २ घंटे में वो अपनी.... खैर छोडिये.

बाकी जो भी हो इनके कस्टमर केयर वाले बड़े सहनशील लोग है इन्हें हमारी भाषा में 'थेथर' कहा जाता है अर्थात बेशर्म. ये खुद फैसला करते हैं की इनकी सर्विस कितनी अच्छी है. आपके मत पर बिलकुल ध्यान नहीं देते. मैंने इन्हें हड़काते हुए बड़ी कड़वी मेल लिखी. पर इन्हें काहे की शरम... आप भी देखिये इनकी रिप्लाई. बड़े भले लोग हैं. जिस दिन साले डूबेंगे मैं मिठाई बाटूंगा.

---
We would like to thank you for being our customer. We are honoured that you have  chosen  us  to  be  your  preferred  service provider. Your continued support  and suggestions have helped us grow into the best in class Service Company.

We  have  been  responding  to all your correspondence and have ensured all your  service request has been processed and resolved to your satisfaction.
Please let us know if you have any queries/service requests, which you feel are unresolved.

We appreciate and thank you once again for your continued patronage.

Assuring you the best of our services always.
---

खैर मेरे लिए तो अब ये निर्विवाद है की एयरटेल की सर्विस संसार की सबसे घटिया सर्विस है. पर बाकियों का भी यही हाल है... बीएसएनएल को तो कहते ही हैं 'भाई साहब नहीं लगेगा'. लेकिन मुझे लगता है की वो इनसे बेहतर ही होगा. पर एयरटेल, आईडिया और वोडाफोन का अपना अनुभव है और इस मामले में ऊपर वाला किस्सा बिलकुल सही बैठता है... 'वो भी वही है !'
कौन कितना काला है ये पता लगाना इतना आसन नहीं है !

इन कंपनियों की सफलता किसी की कार्यकुशलता नहीं है. मुझे तो पूरा विश्वास हो चला है कि किसी भी भारतीय (या भारत में सक्रिय विदेशी) कंपनी में पूर्ण ईमानदारी और कर्मठता से काम नहीं होता है. लगभग सभी सत्यम की तरह ही हैं. पर जब तक चोरी पकडी नहीं जाती तब तक तो राजू भी महान ही थे! इन कंपनियों की सफलता अगर कुछ है तो वो है हम सबसे मिलकर बना एक विशालकाय भूखा चिरकुट उपभोक्ता बाजार !  जिसकी मानसिकता ही ऐसी है 'ऐसा ही होता है'. हममें से ही कुछ उस कस्टमर केयर पर बैठते हैं और कुछ उनको ट्रेनिंग देते हैं. और हमें कुछ भी हो फर्क कहाँ पड़ता है. मैं आज लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे इतनी दिक्कत हुई अब आगे शांत बैठा रहूँगा जब तक सही सलामत चलता रहेगा !

_______________________

चलते-चलते: ये पोस्ट अभी जारी रहेगी ऊपर वाले किस्से की तरह कुछ और बातें दिमाग में चली हैं वो अगली पोस्ट में. इस बीच एक अच्छा व्यक्तिगत काम ये हुआ कि हमने सारी परीक्षाएं पास करके 'प्रोफेशनल रिस्क मेनेजर' की योग्यता हासिल की. इससे सम्बंधित एक छोटी प्रोफाइल यहाँ है. शुरू के कुछ दिनों तक व्यस्तता का एक कारण ये भी था. पर धन्य हो एयरटेल जिसने सबको गौण कर दिया.

_______________________

~Abhishek Ojha~

Feb 12, 2009

चड्ढी-साड़ी आर्बिट्राज ट्रेडिंग स्ट्रेटजी

भयानक मंदी का समय है जहाँ बाजार का कोई भरोसा नहीं है, सालों से फायदा दे रही जमी-जमाई जितनी भी ट्रेडिंग स्ट्रेटजी (Trading strategy) थी उनका सारा गणित असफल हुआ जा रहा है. आजकल जहाँ बड़े बैंकों के स्टार ट्रेडरों के लिफाफे में बोनस की जगह गुलाबी रसीद (Pink slip) निकल आती है. ऐसे में अगर कोई रिस्क फ्री स्ट्रेटजी मिल जाए तो वो 'अंधे की आँख' ना सही 'बुढापे की लाठी' तो जरूर साबित होगी. अब मार्केट किस कदर डूबा है ये तो आप जानते ही है. ये भी कोई बताने की बात है! फिर भी बात निकली है तो मामले की गंभीरता आप इस गोता लगा चुके इस सेंसेक्स के ग्राफ में देख ही लीजिये !

ऐसे में तारणहार बनकर सामने आई है मुथालिक की 'श्रीराम सेना'. अब इसके बारे में बताने की क्या जरुरत है, भले ही आप मार्केट की उठा-पटक से एकदम ही अनभिज्ञ हों इस पब-विरोधी गैंग की उठा-पटक तो जानते ही होंगे. ये आजकल वैलेंटाइन के दिन मुफ्त शादी कराने के साथ एक और स्पेशल ऑफर दे रहे हैं. 'पिंक चड्ढी भेजो और बदले में साड़ी पाओ'. अब पिंक चड्ढी को साड़ी में बदलने के साथ-साथ पिंक स्लिप को बोनस में बदलने का ये सुनहरा अवसर ही तो है ! और उनके लिए भी जो कुछ लाभ बनाना चाहते हैं.

यूँ तो हम रिस्क-मैनेजमेंट का काम करते हैं पर इस सिलसिले में कई ट्रेडिंग स्ट्रेटजी भी देखने को मिलती है. इतने बड़े-बड़े फोर्मुले और गणित लगाकर स्ट्रेटजी लिखी जाती है और ऐसे मार्केट में परिणाम? ... छोडिये, वैसे भी अत्यन्त गोपनीय रखना होता है ! खैर उन्हीं में से कुछ की अनालिसिस और चार्ट-वार्ट देखते हुए हमारे सहकर्मी अजित के दिमाग में ये रिस्क्लेस आर्बिट्राज मौका (Riskless Arbitrage Opportunity) सूझा. यहाँ तो भारी-भारी कम्प्यूटर और गणित लगाने पर भी आधे-एक सेंट (चवन्नी-अठन्नी) का आर्बिट्राज नहीं मिल पाता हैं और यहाँ चड्ढी के बदले साड़ी ! यानी लाभ ही लाभ !

तो फिर देर किस बात की... फटाफट गुलाबी चड्ढी भेज डालिए और बदले में साड़ी लीजिये... जीतनी मिले उनमें से कुछ इस्तेमाल कीजिये कुछ बेच दीजिये. ट्रेडिंग स्ट्रेटजी का एक राज होता है 'गुप्त रखना'. अगर सबको पता चल जाय और सभी यही ट्रेड लगाकर बैठ जाएँ तब तो हो चुका फायदा. अभी शिव भइया मिलने आए थे तो उन्होंने भी बताया 'अगर एक आदमी आकर बताये की घी बेचकर उसने कुछ पैसे बनाए हैं और ये सुनकर सभी लोग घी बेचने ही निकल पड़ें तो क्या होगा? ' तो इसे भी गुप्त ही रखना है. आप तो हमारे अपने आदमी हैं इसलिए आपको बताये दे रहा हूँ. बिना किसी और को बताये फटाफट ट्रेड लगाइए नहीं तो फिर वही होगा जो आर्बिट्राज वाले मामले में अक्सर होता है. वैसे भी परफेक्ट मार्केट में धीरे-धीरे ये मौका ख़त्म हो ही जाता है. धीरे-धीरे चड्ढी की डिमांड बढेगी और फिर कीमत भी और इसी तरह साड़ी की कीमत घटने लगेगी जब तक की दोनों कीमतें बराबर ना हो जाए. इस्तेमाल की हुई चड्ढी के बदले भी नई साड़ी मिलने वाली है तो साड़ी की रीसेल भी चड्ढी की रीसेल से ज्यादा होगी. डिमांड-सप्लाई के साथ ये सारे फैक्टर बाद में चड्ढी महँगी कर देंगे तो फिर किस बात का फायदा होगा! वैसे हमारी अनालिसिस कीमतों को कुछ यूँ प्रेडिक्ट करती है.

तो क्या जबतक कीमतों में अन्तर रहेगा (लगभग मई २०१०) तब तक कोई रिस्क नहीं है? क्या ये ट्रेड पूरी तरह रिस्क-फ्री है?
अजी क्या कभी कुछ रिस्क-फ्री हुआ है ! अगर रिस्क-फ्री होने लगा तो हम क्या मैनेज करेंगे ?

अब एक समस्या ये है की ये ट्रेड एक्सचेंज में तो होगा नहीं मतलब ये ओटीसी (over-the-counter) प्रोडक्ट है तो मुकर जाने का खतरा (Default Risk) तो है ही ! अपनी बात से मुकरने में श्रीराम सेना का क्या जाता है. ऐतिहासिक विश्लेषण (हिस्टोरिकल अनालिसिस) और हमारे मोडल्स की बैक टेस्टिंग ये बताती है की ये रिस्क बहुत ज्यादा है. और इस मामले में रिकवरी रेट भी लगभग शून्य होगा. तो?

अरे ऐसे समय के लिए ही तो क्रेडिट डेरिवेटिव (Credit Derivative) बनाए गए हैं. अगर श्रीराम और मुथालिक मुकर भी जाएँ तो आपके पैसे मिल जायेंगे ! बस हर हप्ते/महीने आपको इस सुरक्षा के लिए कुछ रकम सुरक्षा प्रदान करने वाले (Credit Protection Seller) को देनी पड़ेगी और अगर श्रीराम सेना मुकर जाती है तो आपको साड़ी या उसके कीमत के बराबर पैसा मिल जायेगा. ठीक वैसे ही जैसे बीमा कराने पर होता है. एक साधारण कोंट्रैक्ट कुछ इस तरह काम करेगा:

लीजिये अब तो हर तरह का ट्रेड हो सकता है इस पर. हेजिंग (hedging) और स्पेकुलेशन (Speculation) भी सम्भव है. आप भी अपनी आवश्यकता अनुसार ट्रेड लगाइए ! (इससे जुड़े बाकी बिजनेस आईडिया फिर कभी)

~Abhishek Ojha~

-------------------------------
ये हमारे रिसर्च का प्रारंभिक आईडिया और सारांश भर है. अगर काम्प्लेक्स मोडल्स के साथ टेस्ट की हुई स्ट्रेटजी और पूरी केस स्टडी चाहिए तो आप मुझसे संपर्क कर सकते है. 'An Investor's Guide to The Chaddhi-Sadi Trading Strategy and Risk Analysis - by Abhishek Ojha & Ajit Burad.

कीमत:
व्यक्तिगत निवेशक (Individual Investor): $100.00
संस्था/व्यवसायिक निवेशक (Institutional/Corporate Investor): $500.00
(सारे मेजर क्रेडिट कार्ड स्वीकार किए जायेंगे)

*This post is subject to non-understandable risk ! Please don't read carefully before commenting.
-------------------------------

Riskless Arbitrage: A risk-free transaction consisting of purchasing an asset at lower price and simultaneously selling that at a higher price.