नाम तो धांसू होना ही चाहिए चाहे किसी रेसिपी का हो या जगह का. इंसान का तो फिर भी ठीक है... अपना बस चलता तो लोग रखते फिर एक से बढ़कर एक नाम. हमारे एक दोस्त ने दसवीं में अपना नाम पप्पू से बदल कर अक्षय कुमार कर लिया ! अब ये बात अलग है कि उनको इस बात पर दोस्तों ने इतना परेशान किया... अगर फिर मौका मिलता तो वो अब अपना नाम रवीना टंडन भी कर लेते लेकिन अक्षय कुमार तो नहीं ही रहने देते. जो भी हो नाम रखने के पहले खोज-बीन तो खूब होती ही है.
अब रेसिपी के तो बस नाम होने चाहिए पोटाचियो घूघूरियानो या चिकन आलाफूस की तरह… भले ही स्वाद कुछ भी हो. आप कहेंगे केवल नाम से क्या होता है? अरे भाई जब सीमेंट बिक सकता है 'विश्वास है, इसमें कुछ खास है' कह देने पर*. और देखने वाले ढूँढते ही रह जाते हैं इसमें क्या खास था सीमेंट वाला? तो वैसे ही लगभग हर मामले में है. पहले एक अच्छा नाम सोचो... बस. बाकी बाद में. अरे तुलसी बाबा उस जमाने में कह गए थे ‘कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिरि-सुमिरि नर उतरहिं पारा’.
कंपनी खोलनी है. आइडिया नहीं है किस चीज की कंपनी. खुलेगी भी या नहीं... लेकिन पहले एक अच्छा नाम तो सोचते हैं ! अपना तो कल पढ़ाई में भी नाम का धाक चल गया.
हाँ बे क्या कर रहे हो?
ऐसे ही कुछ पढ़ रहा था.
क्या?
गार्च
ये क्या होता है?
जनरलाइज्ड ऑटोरेग्रेसिव कंडीशनल हेटेरोस्टेकाड्स्टिसिटि.
अरे @#$%, क्या नाम है ! फिर से बोल.
भाग... !
अबे नहीं, किसी को डराना हो तो मस्त नाम है... मैं भी याद कर लेता हूँ. जैसे वो है न मुंछे हो तो नत्थूलाल की तरह और बीमारी हो तो लिम्फोसर्कोमा ऑफ... उसी टाइप्स का ये भी है जनरलाइज्ड... क्या था आगे?
कहने का मतलब ये कि नाम फोकसबाजी वाला होना चाहिए बाकी और कुछ हो न हो.
वैसे कई बार ये झाम चल नहीं पाता. अभी कुछ दिनों पहले मैं घर जा रहा था तो ब्लूमबर्ग पत्रिका भी ले गया. अब अपने को तो मुफ्त में मिलती है और सोचा चलो थोड़ा तो इंप्रेसन बनेगा ही आजू-बाजू वालों पे. जब ट्रेन में 10 घंटे गुजर गए तो हमारे बगल में बैठे भाई साब ने पत्रिका पलटी. पत्रिका के पिछले कवर पर किसी विदेशी घड़ी का विज्ञापन था.
'मस्त घड़ी है, नहीं?' कितने की होगी? देखो तो लिखा है कहीं?'
'नहीं ये तो नहीं लिखा !'
एक मिनट में उन्होने पत्रिका उलट पलट कर रख दी... 'कुछ खास नहीं है... चित्र ही नहीं हैं. बस कागज अच्छा दिया है... इससे अच्छी तो अपनी वो भारत की सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिकवा होती है. क्या पढ़ते हो ये सब? कुछ अच्छा भी पढ़ लिया करो.'
मैं मुस्कुरा कर रह गया. एक बार ऐसे ही हुआ जब अपने कॉलेज की टी-शर्ट पहने ट्रेन में जा रहा था और एक अंकल जी ने बोला ‘…मन लगा कर पढ़ा होता तो अभी कुछ कमा रहे होते !’. ऐसे कई किस्से हैं... बस बात का मूल यही है कि कई बार ये नाम वाला झाम उल्टा पड़ जाता है. और अब तो ना मैं कभी ऐसी-वैसी टी-शर्ट पहनता हूँ और ना ही ऐसी-वैसी पत्रिका ले जाऊँगा.
वैसे कुछ नाम क्लासिक हैं हर जगह और हमेशा चलते हैं... जैसे 'सरकारी नौकरी' ! बाकी सेक्टर में बूम डूम आते रहते हैं सरकारी वालों का बूम-बूम-बूम ही रहता है. प्राइवेट वालों का तो बिल्लेसुर बकरीहा** वाला हाल है. उनका राज वही जानते हैं बेचारे. बैंक वालों का तो मार्केट वैसे ही डाउन है, हाल ही में पता चला कि बीपी स्पिल के बाद तेल वाले भी अब अपना सेक्टर बताने से डर रहे हैं. लड़की वाले भाग ना जाय :). अब बताइये एवरग्रीन तो सरकारी वाले ही हुए न?
खैर... आउट ऑफ कांटेक्स्ट... पता नहीं क्यों मुझे याद आ रहा है 'एस्क्यूज मी, माईसेल्फ़ बदरी शंकर... '. समझ गए न? नहीं तो यहाँ देख आइये.
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~Abhishek Ojha~
*जेके सीमेंट का विज्ञापन तो देख ही होगा आपने.
** निराला की ये किताब कल ही ख़त्म की है, आजकल थोड़ा पढ़ना हो पा रहा है. किताबें किसकी अनुशंसा पर खरीदी गयी हैं... उनका नाम और धन्यवाद देकर आभार कम नहीं करना चाहता.