Nov 4, 2017

सीट नं ६३


बनारस से बलिया जितना पास है जाने के पहले उतना ही ज्यादा सोचना पड़ता है  - व्युत्क्रमानुपात में. इतनी कम दुरी है कि यात्रा तो सड़क से ही करनी चाहिए। ..पर सड़क से की गयी यात्राओं का इतिहास कुछ ऐसा विकट घनघोर रहा होगा कि कोई उसकी बात भी नहीं करता - जाना तो दूर की बात है. और रेल यात्रा का तो ऐसा है कि आपको भी पता ही होगा - सिंगल लाइन,  टाइमिंग , क्रॉसिंग नहीं होनी चाहिए. चेन पूलिंग। यानि बनारस से बलिया जाने वाले प्रॉब्लम की बॉउंड्री कंडीशंस ही इतनी है कि फीजिबल सोल्यूशन बहुत कम हो जाता हैं. (ऑप्टिमाईज़ेशन  की भाषा में उपमा लिखना कितना तो सरल है). जिस दिन अमेरिका से दिल्ली तक आने के लिए जितना सोचना पड़ता है उससे कम या उतना बनारस से बलिया जाने के लिए सोचना पड़े उस दिन मैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश को विकसित घोषित कर दूंगा. भूमिका ख़त्म.

भूमिकोपरांत ब्लॉग के पाठक को मालूम हो कि पिछले दिनों हमें बनारस से बलिया जाना था. शुभचिंतकों से पता चला कि एक नयी-नवेली-बहुत-अच्छी ट्रेन चली है. सुबह सुबह मिल जाए तो तीन घंटा में बलिया लगा देती है. शोध करने के बाद बचे एक ही विकल्प में से उसे ही चुन लिया गया। उसके बाद अनुभवी लोगों की सीख - 'बनारस से बलिया के लिए रिजर्वेशन कौन कराता है? - बौराह' को न मानते हुए (या मानते हुए भी हो सकता है - बौराह वाला पार्ट) हम वो भी करा लिए.

ट्रेन उस दिन एकदम से राइट टाइम थी सो आधे घंटे की देरी से प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयी. असुविधा से होने वाले खेद की नौबत भी नहीं आयी। आती तो हमारी पहले से योजना थी बाहर चाय पीने जाकर उसे सुविधा बनाने की। एक बार बनारस में कुल्हड़ में चाय पीए थे वो 'मोमेंट' दोहरा आते। ख़ैर... हम अंदर गए तो कोच में घमासान मचा था. एक लड़का सीट नंबर ६३ पर पहले से सो रहा था. एक सज्जन बोल रहे थे कि उनका रिजर्वेशन है लेकिन लग रहा है कि बैठने को जगह भी नहीं मिलेगी. एक अन्य सज्जन पर्ची पर नीले रंग की स्याही (स्याही को स्याही मत समझना, रिफ़िल वाली - बॉल पॉइंट पेन से  लिखे थे) से एक के नीचे एक पाँच लिखे नंबर (जैसे बनिए के दूकान से सामान लाने के लिए लिस्ट लिखी गयी हो) देखकर बोल रहे थे - 'पांड़ेजी बैठिये न हटा के. तिरसठ, चौसठ, इक्यावन, बावन और पचपन अपना बर्थ है'. पर्ची लहराते हुए पांडे जी के मित्र युद्ध स्तर पर सीटों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे।

हम सोच में पड़े थे कि ६३ नम्बर सीट तो ईमेल, एसेमेस वग़ैरह के हिसाब से रेलवे ने हमको भी ऐलॉट किया है  तभी एक नौजवान आया और सीट पर लेटे हुए लड़के से बोला - 'हम  नीचे गए थे पानी पीने तो आप लेट गए ? हमारा रिजर्वेशन है। उठिए'.

लड़का लेटे लेटे बोला - 'हम जौनपुर से सोते हुए आ रहे हैं और आपका रिजर्वेशन है? कम झूठ बोला कीजिए महाराज'
मुझे  देखकर पैर मोड़ते हुए बोला - 'बैठ जाइए। सबके पास चालुए टिकट है'. या तो लड़के को लगा कि एक यही है जिसने अभी तक सीट पर दावा नहीं ठोका। या समझ आ गया होगा कि ज़रूर इसी के पास टिकट है। मिला लेने में ही फ़ायदा है - अनुभव भी तो कोई चीज़ होती है!

ऐसा नहीं है कि हमने ये सब कभी देखा नहीं है। पर ये पर्ची वाला नया कॉन्सेप्ट था। बिलकुल नया।

हम एहसान में मिली जगह पर बैठ गए. जो पानी लेने उतरे थे वो भी खिसका के बैठ लिए। पर्ची वाले सज्जन को अभी भी एक सीट कम पड़ रही थी। उनका फ़रमान था 'हमारा सीट है कम से कम बैठने तो दीजिए'.
लड़के ने बोला - 'आपका सीट  कैसे हो गया? टिकट दिखाइए हम हट जाएंगे.'
'टिकट हम आपको क्यों दिखाएं ? टीटी आएगा तो दिखाएँगे'.
'टीटी आएगा और बोलेगा तो हम भी हट जाएंगे ! टीटीये लिख के दिया है क्या आपको सीट नम्बर? या ख़ुद ही लिख लिए हैं? पर्ची पर लिख लेने से सीट आपका हो जाएगा?' पर्ची की महिमा से वो अपने मित्र पांडेजी को सपरिवार तो बैठा चुके थे लेकिन इस तर्क पर अंतिम सीट उन्होंने छोड़ दिया। उन्हें लगा होगा कि कट लेने में ही भलाई है। 'क्या मुँह लगा जाय' वाला लूक देकर वो कट लिए। फ़िलहाल हम भी अपने सीट पर बैठ ही गए थे। जौनपुर से लेटकर आ रहा लड़का भी उठकर बैठ गया और जो पानी लेने उतरे थे उनका भी सीट पर दूसरी तरफ़ क़ब्ज़ा हो ही गया था। क़ब्ज़े के अवैध होने की बात नहीं थी क्योंकि जब हमने अंततः दिखाया कि टिकट हमारे पास है तो बात ये हो गयी कि दिन का रिज़र्वेशन होता ही नहीं है ! लेकिन मत ये भी था कि भाई जिसने नासमझी में दिन का रिज़र्वेशन करा लिया है तो उसको बैठने को तो मिलना चाहिए ...और वो हमें मिल ही गया था। तो सब कुछ जैसा होना चाहिए वैसा ही हो गया था। आगे कुछ कहने सुनने को बचा नहीं।


इन सबके परे हमें एक चीज़ बहुत अच्छी लगी। इस रूट (की सभी लाइनें व्यस्त होने वाली बात नहीं है बिना पूरी बात पढ़े कंक्लूड मत कीजिए) पर मैं उस उम्र से चल रहा हूँ जब इस इलाक़े में बहुत अभाव था। ग़रीबी थी। घनघोर। (अभी भी है पर... ) तब लोग झोले-बोरे में समान लेकर चलते। कपड़े इतने झकाझक साफ़ नहीं पहनते। अब सबके हाथ में स्मार्ट फ़ोन और सबके पास बैग। खिड़की से बाहर देखने पर साइकिल की जगह मोटरसाइकिलें। जीवन स्तर में  परिवर्तन के लिए किसी इंडेक्स को देखने की ज़रूरत नहीं होती। (इसे राजनीति से जोड़कर मत पढ़िए, व्यक्तिगत अनुभव है। और वो इलाक़ा वैसे ही धीमी गति का है। फ़टाक से कुछ भी कंक्लूड मत कीजिए)। वैसे इलाक़े का तो ये भी है कि स्वच्छ भारत में सरकार ने जब शौचालय बनवा के दिया तो लोगों ने अपने घरों के सामने स्ट्रेटजिक लोकेशन पर बनवाया ताकि उसमें गोईंठा वग़ैरह रखा जा सके!

खैर... हमारे पास बात करने की कमी तो होती नहीं है तो बातों बातों में पता चला युसुफ़पुर (ज़िला ग़ाज़ीपुर) आ रहा है. कहने का मतलब कि ट्रेन युसुफपुर पहुँच रही थी युसुफपुर तो जहाँ है वहीँ रहेगा. आये तो टीटी साहब... बहुत कम सीटें थी जिनपर वैध टिकट वाले लोग थे तो अपने हिसाब से स्ट्रेटजिक लोकेशन देखकर बैठ गए वो भी सीट  नंबर ६३ पर ...एडजस्ट कर-करा के.

'टिकट बनवाएंगे कि किराया देंगे?' उद्घोषणा के साथ. किसी से टिकट मांगने की जरुरत नहीं समझी उन्होंने. उनका तो ये सब रोज का था. केवल कहने को नहीं ...सच में रोज का. चोरी अकेले की हो तो चोरी होती होगी - सामूहिक थी तो मामला ध्वनिमत से ही पारित होना था. जैसा अक्सर होता है यहाँ भी चोरी चोरी नहीं मज़बूरी थी. पर्ची वाले सज्जन ने कहा - 'देखिये अब जनरल में जाना तो संभव ही नहीं था ऊपर से परिवार साथ है तो कुछ कर नहीं सकते थे.'

'सही बात है. उसकी तो गुंजाइस ही नहीं है. चलिए कुछ दे दीजिये।'  टीटी  ने सहमत होते हुए कहा। मुझे लगा ये कुछ दे दीजिये क्या होता है? एकदम लूजूर-पुजूर टीटी। ये भी नया ही था थोड़ा. ऐसे थोड़े कोई मांगता है - माने श्रद्धा से कुछ दे दीजिये ! खैर.. रेल मंत्रालय ने अटेंडेंट को तो 'नो टिप प्लीज'  की वर्दी पहना दी पहले टीटी को ही पहना देते ! जौनपुर से आ रहा होनहार लड़का अपना बैग ठीक करते हुए खड़ा हुआ - 'हमारा तो स्टेशन आ गया... बाकी आप लोग तो पढ़े लिखे लोग हैं. समझदार हैं. देख लीजिये. कुछ न कुछ हिसाब बैठ ही जाएगा.'

'पढ़े लिखे होने' की ऐसे याद दिला गया जैसे चिंतामग्न बानरों से जामवंत के रोल में कह रहा हो- 'स्टेशन अयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार' और निकल लिया।

इसी बीच किसी के फ़ोन पर 'कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया' बजा तो कन्फर्म हुआ गाड़ी  सही रूट पर ही है। श्रद्धानुसार बिना किसी झंझट कुछ कुछ लोगों ने टीटीजी को चढ़ावा दिया। ट्रेन रुकी - युसुफ़पुर।

चाय-गरम चाय वाले से मैंने पूछा तो बोला - 'दस रुपए'। खुदा क़सम एक बात झूठ नहीं लिख रहे हैं ...दस रुपया सुनकर हमें लगा महँगाई बहुत बढ़ गयी है (खुदा क़सम का ऐसा है कि एक दोस्त बचपन में झट से 'खुदा क़सम' बोल देता। एक दिन अकेले में राज की बात बताया कि बहुत सोच समझ के उसने फ़ाइनलाइज किया था कि झूठ बोलने में विद्या क़सम खाने का रिस्क नहीं ले सकते, माँ क़सम का भी नहीं। भगवान क़सम में भी रिस्क तो है ही। खुदा कसम में कोई रिस्क नहीं। विभागे अलग है ! गणित विभाग के विद्यार्थी को इतिहास विभाग के शिक्षक से क्या रिस्क।) दस रुपया? युसुफ़पुर में? हमने चाय नहीं पी। जीवन स्तर-वस्त्र सब तो ठीक है लेकिन युसुफ़पुर में दस रुपए की चाय? वैसे युसुफ़पुर अगर कोई इंसान होता तो लड़ पड़ता - क्यों भाई ? हमारे यहाँ की चाय दस रूपये की क्यों नहीं हो सकती ! डिस्क्रिमिनेशन का इल्जाम लग जाता सो अलग ! खैर... चाय के तो हम वैसे भी बहुत शौक़ीन नहीं पर कुछ बातें समझ सी आ गयी। ...कि कैसे जब सुना था किसी को कहते हुए कि 'चार आना पौवा, पेट भरौवा’ जलेबी मिला करती थी। बात याद रह गयी थी बात का मर्म थोड़ा सा ही सही ..समझ अब आया। या कि कैसे कोई सब्ज़ी लेकर आता और उनके बूढ़े पिताजी पूछते कि सब्ज़ी कितने की मिली तो २० रुपए किलो के लिए भी कहते 'बाबूजी २ रुपए किलो’. या फिर अभी हाल में पढ़ा ये ट्वीट। दो रुपए तक की चाय तो हमने भी इस रूट पर बिकते देखा है।

हरे भरे खेतों के बीच से गुज़रते हुए एक जगह रेलवे लाइन के समांतर एक कतार में खड़े कई ट्रक दिखे। ड्राइवर-खलासी खाना बनाने की तैयारी कर रहे थे। आटा गुँथते, सब्ज़ी काटते, एक अरसे बाद किसी को स्टोव (जिसे एक उम्र तक हम 'स्टोप' सुना करते) में हवा भरते देखा! एक ट्रक पर पूनम, सोनी, अजय समेत पाँच नाम लिखे थे। लगा जैसे 'ट्रान्स्पोर्ट कम्पनी' (जैसा हर ट्रक पर लिखा हुआ था - यादव ट्रान्सपोर्ट कम्पनी वग़ैरह) के सीईओ को एक ही ट्रक पर पाँच नाम किसी मजबूरी में ज़बरन घुसाने पड़ गए थे। एक ट्रक पर तुलसी बाबा की चौपाई लिखी थी - 'चलत बिमान कोलाहल होई, जय रघुबीर कहई सबु कोई'। ड्राइवर के बैठने की जगह पायलट लिखने से बहुत ऊँचे स्तर की चीज़ थी ये। कुछ चीज़ें देखकर बिना किसी कारण ही अच्छा लगता है। चलती ट्रेन से ये एक झलक भी वैसा ही था। तुलसी बाबा की उड़ते हुए विमान में कोलाहल होने की दृष्टि भी और उसका ट्रक पर लिखा होना दोनों - स्वीट, क्यूट जैसा.


वैसे तो हमें थोड़ा और आगे तक जाना था लेकिन बलिया स्टेशन आया तो हम उतर गए। एक्सप्रेस ट्रेन छोटे स्टेशनों पर रूकती नहीं और ऊपर से रविवार का दिन। ..नहीं तो 'पढ़ने वाले लड़के' ट्रेन रोक ही देते। इस इलाक़े में पढ़ने वाले लड़के आज भी गुणी होते हैं - 'बलिया ज़िला घर बा त कौन बात के डर बा’ परम्परा के वाहक । चेन, वैक्यूम वग़ैरह खींच-काट के ट्रेन रोकने में सिद्धहस्त। (वैक्यूम कैसे कट जाता है पता नहीं  - बस सुना है) लेकिन ऐसा नहीं होता तो छपरा तक चले जाने का ‘रिक्स’ था तो ‘हम तो कहेंगे कि चलिए बीच में कहीं ना कहीं तो ज़रूर रुकेगी’ के आश्वासन के बाद भी हम उतर गए।

 स्टेशन से बाहर निकलते ही एक लड़का आया - 'भैया, गाड़ी होगा?'

हमने बात करने में रूचि दिखाई तो दो और आ गए। मैंने मन में जोड़ घटाव किया और बताया कि किलोमीटर के हिसाब से पैसे कुछ ज़्यादा हैं। मैं भोजपुरी में बात कर रहा था लड़का हिंदी में !

'हाँ भैया, ओला उबर सब किलोमीटर का हिसाब कर दिया है शहर में लेकिन यहाँ हमलोग को पोसाता नहीं है'। गाड़ी की बात छोड़कर मैंने पहले एक गम्भीर सवाल पूछ लिया - 'ए भाई, बलियो में हिंदी बोलाए लागी त भोजपुरिया कहाँ बोलायी?' लड़का झेंप गया पर बात हिंदी में ही करता रहा। इसी बीच एक दूसरा राज़ी हो गया चलिए हम ले चलेंगे। कॉम्पटिशन का फ़ायदा ! ये दुनिया में हर जगह काम कर जाता है। मोर्गन स्टैन्ली और गोल्ड्मन सैक्स के इग्ज़ेक्युटिव्ज़ से मीटिंग में कह दीजिए कि ' योर रेट ईज़ नॉट कम्पेटिटिव। कंपटिटर्स आर गिविंग अस बेटर रेट' या ज़िला बलिया के गाड़ी वाले हों। मामला कम्पेटिटिव रेट की बात हो जाने पर अपने आप सही रेट पर कन्वर्ज कर जाता है। सामने वाला का टोन  ही बदल जाता है. जय हो कम्पटीशन देवता।  थोड़ी दूर खड़ा एक और गाड़ी वाला हमारी बात सुन रहा था। फ़ाइनल होने के बाद वो आया और बोला कि 'भैया हमारी वाली एसी गाड़ी है लेकिन उसमें थोड़ा ज़्यादा लगेगा'। मैंने उसे बताया मैं भीआइपी तो हूँ नहीं, बात नहीं बनती तो बस से जाने का प्लान था। तो बोला - 'भैया, भीआइपी के कौनो बात नइखे। एसिया में तनी ख़र्चा ढेर लागेला'। हमें उसकी ईमानदार बात पसंद आयी। गाड़ी यानी एम्बेसडर। अभी भी हिंद मोटर में काम किए लोगों के नाती-पोतों को नोस्टालज़ियाने का काम बख़ूबी कर रही हैं खंडहर हो चुकी अंबेसडर कारें।

निर्माणाधीन सड़क अपना नाम सार्थक कर रही थी। सड़क के दोनों तरफ़ हर चीज पर धूल की इतनी गहरी परत थी कि - चढ़ै न दूजो रंग. क्या पेड़, पत्ते और क्या दूकान-घर. घुटन के स्तर की धूल। पर पैड़ल रिक्शा की जगह बैटरी रिक्शा देखना उम्मीद से ज्यादा सुखद था. और ये धूल-धक्कड, पीं-पाँ से भरा 'बलिया शहर' (शहर ही कहते हैं लोग! इस बात पर पटना की याद आयी जब बैरीकूल ने कहा था - भैया, जैसे न्यू यॉर्क को एनवायीसी कहते हैं वैसे ही पटना को भी पटना सिटी कहते हैं।) ५ मिनट में निकल गया तब हवा भी मन को चकाचक करने वाली मिली और हरे भरे खेत भी। बीच बीच में इलाक़े का फलता फूलता उद्योग - प्राइवेट स्कूल और ईंट भट्ठे। यहाँ फिर एक बार लगा जैसे भी हुआ हो बदलाव तो हुआ है। जींस पहने, स्कूटी चलाते लड़कियाँ भी दिखी।

लेकिन असली मन वाली बात हुई जब गाना बजा। और जो मुस्कान मेरे चेहरे पर आयी वो खुदा क़सम झूठ नहीं बोल रहे हैं (फिर से !) वैसी मुस्कान पहली बार इश्क़ में बौराए इंसान के चेहरे पर भी नहीं आती। जब हम पढ़ने वाले लड़के (गुणी नहीं थे, ट्रेन व्रेन का चेन नहीं खींचे है) हुआ करते थे उन दिनों टेम्पो, विक्रम, बस वग़ैरह में एक ख़ास क़िस्म के गाने बजते। और उन दिनों दिमाग़ में मेमोरी भी बहुत होती अंट-शंट बातें याद रखने की ...तो हमें कुछ ऐसे धाँसू गानों की प्ले लिस्ट याद हो गयी थी (गाड़ियों में सुन सुन के घर में वो कैसेट नहीं थे)। ए-साइड में किस गाने के बाद कौन गाना बजेगा, बी-साइड में कौन सा। टी-सिरीज़ के गिने चुने तो लोकप्रिय कैसेट थे इस धाँसू श्रेणी के। यूँ तो कैसेट से और बाद में सीडी से भी बजने वाले गानों की आवाज़, सुर और गति का एक अलग ही स्तर होता - टेम्पो के बाजे में जो मोटर जैसा कुछ होता वो कुछ ज्यादा ही गति से चलते । जिसने वो सुना है वही ये वाली बात समझ सकता है! बिन अनुभव किए वो बात नहीं समझ आनी। तो हम आगे लिखने की कोशिश भी नहीं करने जा रहे। पेन ड्राइव से बज रहे गानों को सुन के लगा ... बदलते ज़माने में कुछ तो है जो बचा हुआ है। - वही प्लेलिस्ट. हमारी ना छुप सकने वाली मुस्कान पर लड़के ने गाने का वोल्यूम बढ़ा दिया और उसके बाद अगला गाना मुहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में जो न गूंजा -

 .... मितवाआSS भुउउउउल न जाना मुझSकोओओ...।


~Abhishek Ojha~