पिछले पोस्ट से जारी...
पहले कुछ अर्थशास्त्र... एक महान गणितज्ञ हैं जॉन नैश. जिन्हें गेम थियोरी पर किये गए उनके काम के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया. इनकी छोटी चर्चा अन्यत्र हो चुकी है. आज की शुरुआत इनके एक बड़े प्रसिद्द सिद्धांत से. गेम थियोरी परस्पराधीन रणनीतिक हालातों (interdependent strategic situations) में निर्णय लेने में मदद करने वाले विश्लेष्णात्मक औजार के रूप में जाना जाता है. यहाँ रणनीति में फैसले अक्सर सामने वाला क्या करेगा ये सोच कर लिए जाते हैं.
किसी खेल में नैश संतुलन (Nash Equilibrium) एक ऐसी अवस्था है जिसमें अगर बाकी खिलाडियों की रणनीति मालूम हो तो संतुलन की हालत में हर खिलाडी अपनी 'उत्तम रणनीति' वाली अवस्था में होता है. (the equilibrium that is the dominant strategy for each player in the game, given the actions taken by any other player.) अब उत्तम रणनीति का निर्धारण कैसे हो? तो उत्तम रणनीति कुछ इस तरह परिभाषित है: वो रणनीति जो किसी खिलाडी के लिए हमेशा ही अच्छी है भले ही सामने वाला कोई भी रणनीति चुने. खैर ज्यादा भारी होता लग रहा है... पर आपको बता दूं की ये सिद्धांत कई जगह इस्तेमाल होते है. और इसके अर्थशास्त्र में होने वाले भारी इस्तेमाल के चलते ही नैश को नोबेल पुरस्कार मिला. वर्ना गणितज्ञ और नोबेल ! ?
तो अर्थशास्त्र में खेल की जगह व्यवसाय और खिलाडी की जगह कंपनियाँ रख दीजिये… फिर करते रहिये नए नए सिद्धांतों की खोज. अब देखिये कोई भी कंपनी चाहेगी लागत से ज्यादा पर माल बेचकर फायदा कमाना. लेकिन सामने वाली कंपनी अगर उससे कम दाम पर बेचना चालु कर दे तो वह ज्यादा बाजार अपने कब्जे में ले सकेगी और इस तरह उसका लाभ ज्यादा हो जायेगा. इस खेल का नैश संतुलन कम कीमत पर आकर रुकता है. और इस प्रकार कम कीमत और कम लाभ नैश संतुलन होता है. इसका एक मजेदार उदहारण मुझे कुछ दिनों पहले तक अक्सर देखने को मिलता था. जब फ्लैट खुद साफ़ करने की बात होती तो हर फ्लैट पार्टनर को साफ़ फ्लैट चाहिए होता था पर साफ़ कोई नहीं करना चाहता था... इस प्रकार नैश संतुलन ये होता था की कोई फ्लैट साफ़ नहीं करता था :-)
अब बात ये है की दोनों का फायदा तभी होगा जब वो सहयोग करें... अगर अपने स्वार्थ का काम करने लगे तो फिर परिणाम होगा नैश संतुलन ! जैसे मेरे मामले में फ्लैट साफ़ रहेगा वैसे ही कंपनियाँ फायदे के लिए कार्टेल (उत्पादक संघ) बनाती है. ओपेक तो आपने सुना ही होगा तेल उत्पादक देशों का कार्टेल है. ऐसे ही कम्पनियाँ भी कार्टेल बनाती हैं. अगर सब मिलकर बहुत ज्यादा कीमत रखें तो उपभोक्ता को देना ही पड़ेगा. लेकिन कौन कंपनी नहीं चाहेगी इस कार्टेल को धोखा देकर थोडी कम कीमत पर बेचें और पूरा बाजार अपने कब्जे में ले ले ! और स्वार्थी बाजार में फिर यही होता है... अर्थात नैश संतुलन. (ऐसे एक कार्टेल का बड़ा अच्छा उदहारण है कोक और पेप्सी दोनों कभी कीमत कम नहीं करते, कभी एक दुसरे को धोखा नहीं देते और उपभोक्ता से लागत से ज्यादा कीमत लेते हैं, दोनों खूब मुनाफा भी कमाते हैं...).
अब असली बात, इस ऊपर वाले कार्टेल में कीमत की जगह गुणवत्ता कर दीजिये. तो कोई भी कंपनी अगर उसी कीमत पर गुणवत्ता बढा दे तो वो ज्यादा बाजार पर कब्जा कर लेगी. और फिर दूसरी कंपनी को या तो गुणवत्ता बढानी पड़ेगी या फिर उसे बाजार से ही बाहर होना पड़ जायेगा. अब जैसे ऊपर कोक-पेप्सी का कीमत को लेकर कार्टेल है वैसे ही भारतीय कंपनियों का गुणवत्ता को लेकर कार्टेल है. बस इतना अंतर है कि यहाँ धोखा देने पर लाभ हो सकता है फिर भी यहाँ कोई धोखा नहीं दे रहा है. नैश संतुलन बन पड़ा है. हम भी घटिया सर्विस देंगे तुम भी घटिया सर्विस दो इस तरह हम दोनों बाजार में मुनाफे की साझेदारी करेंगे और किसी को बाजार से बाहर भी नहीं होना पड़ेगा ! मुझे इसके लिए नाम सूझा: 'बुलशिट कार्टेल !'
बाकी क्षेत्र का तो पता नहीं पर टेलिकॉम और मीडिया में तो साफ़-साफ़ दीखता है ये बुलशिट कार्टेल. सारे चैनल बुलशिट दिखाते हैं. कोई इस कार्टेल को धोखा नहीं देता... ! और टेलिकॉम का तो पिछली पोस्ट में आप देख ही चुके हैं...
सब वही हैं... बुलशिट कार्टेल के सदस्य.
~Abhishek Ojha~
चलते-चलते: आज शाम दो सप्ताह कि छुट्टी पर घर जा रहा हूँ... बहुत काम हो गया… अब एक ब्रेक ! तब तक के लिए राम-राम !