'तब मुझे 1.8 लाख का पैकेज मिला था. आस पास के कई गाँवों में खबर फैली थी कि फलाने का बेटा साहब बन गया. एसी टू का किराया मिला था बैंगलोर जाने के लिए. और आज ये बिजनेस क्लास की सीट छोटी लग रही है ' करीब 10 साल पहले की बात याद करते हुए बगल की सीट पर बैठे मेरे कलीग ने कहा. बस कहने को ही 10 साल सीनियर हैं, हैं तो अपने यार ! कुछ लोगों से ना तो घुलने में वक्त लगता है ना उम्र और अनुभव ही आड़े आते है. आज उन्हें उस पहले ऑफर की तुलना में करीब 15 गुना ज्यादा मिलता है. और संभव है आने वाले पाँच दिनों के ट्रिप का खर्च उनके तब की सालाना आमदनी से ज्यादा हो जाय. उनके पास किसी दूसरी कंपनी से अभी के पैकेज से डेढ़ गुना ज्यादा का ऑफर है... पर फैमिली वाले है दूसरे शहर जाना नहीं चाहते… ! लेकिन ऐसा ऑफर छोड़ा भी नहीं जाता. मैंने दिमाग में कुछ जोड़-घटाव किया. दूसरे की आमदनी जोड़ने में इंसान बिल्कुल फटाफट कैलकुलेशन करता है, खर्च ज्यादा घटाना नहीं होता है तो और आसान हो जाता है. मैं सोचता हूँ 'कहाँ अंत है इसका?' कितना ज्यादा 'ज्यादा' होता है?
माइकल डग्लस का वालस्ट्रीट फिल्म का एक डायलोग याद आता है: 'एक समय मैं जिसे दुनिया की सारी दौलत समझता था वो आज एक दिन की कमाई है '. मेरे एक दोस्त ऐसे हैं जिनकी महीने की कमाई और मेरे एक समय के संसार की सारी दौलत में आराम से मैच हो जायेगा. शायद उनकी कमाई ही ज्यादा बैठे (ईमानदारी की कमाई है बेचारे की कुछ और मत समझ बैठिएगा, किसी कोड़ा से 'अबतक' तो दोस्ती नहीं हुई). ये प्रक्रिया बड़ी अजीब है. प्रोग्रामिंग की भाषा में अनकंसट्रेंड इंफाइनाइट लूप टाइप की चीज है, अब ऐसा लूप है तो एक बार चालू हुआ तो फिर प्रोग्राम को किल किए बिना कैसे रुकेगा?
व्हाइल (एन > 0) {
एन = एन + के ;
}
यहाँ एन और के दोनों धनात्मक ही होते हैं और 'के' कोंस्टेंट ना होकर इंक्रीजिंग फंक्शन है. कोई प्रोग्रामिंग वाले बेहतर समझा पायेंगे इस लूप को. शायद पीड़ी कुछ मदद करें समझने में. तब एसी टू का किराया और दोस्तों के घर रुक जाने वाले अपने भाई को आज घुसते ही ह्यात पसंद नहीं आया. दिमाग का लूप करेक्ट करने की कोशिश करता हूँ... ये जो लूप है ऐसा केवल पैसे के साथ ही नहीं है ! खैर कम से कम उनकी भाषा तो नहीं बदली. वरना हमारे धंधे के लोग तो 'वॉट द #$%^?' से नीचे बात ही नहीं करते. खैर... मैं ये मानता हू कि इस लूप में मैं भी हूँ आप भी हैं, वैसे आप इंकार करना चाहें तो मुझे आपत्ति नहीं.
शाम को दोस्तों की मण्डली बैठी और मैंने कहा 'अबे 10 रुपये का समान 750 रुपये में ! वॉट द... '
'तुम्हारी मानसिकता अब भी वही है. इटस नोट अबाउट 750, इटस अबाउट योर मेंटालिटी. द पीपल आउट देयर कैन पे अँड दे डोंट केयर'
'आई अग्री ! शायद अभी टाइम लगे मेंटालिटी बदलने में'
मानसिकता अब भी वही है? अग्री तो कर गया पर लगता नहीं है. 'बेकार कॉफी है इससे अच्छी और सस्ती सीसीडी की कॉफी होती है'. पाँच मिनट के अंदर ये बात आई. सीसीडी की कॉफी सस्ती? मानसिकता और उसका बदलना भी रिलेटिव है ! और डोंट केयर वाली बात पर क्या कहूँ... ! कुछ चीजें वैसे ही लोगों द्वारा वैसे ही लोगों के लिए बनाई गयी है जिसमें पैसा किसी की जेब से नहीं लगता. 'इटस अ ज़ीरो सम गेम !' अब इसकी व्याख्या फिर कभी नहीं तो आप कहेंगे की पोस्ट टेकनिकल हो गयी. आस्था चैनल ना हो जाये ये तो तब से कोशिश कर रहा हूँ. वैसे 'ज़ीरो सम गेम' से वालस्ट्रीट का एक और डायलोग याद आया:
Bud Fox: How much is enough?
Gordon Gekko: It's not a question of enough, pal. It's a zero sum game, somebody wins, somebody loses. Money itself isn't lost or made, it's simply transferred from one perception to another.
वैसे इस फिल्म के कई डायलोग बड़े रोचक हैं पढ़ने का मन हो तो यहाँ कुछ मिल जाएँगे. और शीर्षक डायरी के एक पन्ने पर मिल गया कठोपनिषद से है. मामला तब भी वही था आज भी वही है ! कुछ चीजें कहाँ बदलती हैं.
~Abhishek Ojha~
--
अंततः मैं कल घर जा रहा हूँ ! एक सप्ताह के लिए… अंत भला तो सब भला. (अभी पता नहीं क्यों अंत भाला तो सब भाला टाइप हो रहा है, कभी आम का जामुन टाइप हो जाये तो बुरा मत मानिएगा !)
आप सभी को नव वर्ष और छुट्टियों की हार्दिक शुभकामनाएँ !