Dec 23, 2009

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:

'तब मुझे 1.8 लाख का पैकेज मिला था. आस पास के कई गाँवों में खबर फैली थी कि फलाने का बेटा साहब बन गया. एसी टू का किराया मिला था बैंगलोर जाने के लिए. और आज ये बिजनेस क्लास की सीट छोटी लग रही है ' करीब 10 साल पहले की बात याद करते हुए बगल की सीट पर बैठे मेरे कलीग ने कहा. बस money कहने को ही 10 साल सीनियर हैं, हैं तो अपने यार ! कुछ लोगों से ना तो घुलने में वक्त लगता है ना उम्र और अनुभव ही आड़े आते है. आज उन्हें उस पहले ऑफर की तुलना में करीब 15 गुना ज्यादा मिलता है. और संभव है आने वाले पाँच दिनों के ट्रिप का खर्च उनके तब की सालाना आमदनी से ज्यादा हो जाय. उनके पास किसी दूसरी कंपनी से अभी के पैकेज से डेढ़ गुना ज्यादा का ऑफर है... पर फैमिली वाले है दूसरे शहर जाना नहीं चाहते… ! लेकिन ऐसा ऑफर छोड़ा भी नहीं जाता. मैंने दिमाग में कुछ जोड़-घटाव किया. दूसरे की आमदनी जोड़ने में इंसान बिल्कुल फटाफट कैलकुलेशन करता है, खर्च ज्यादा घटाना नहीं होता है तो और आसान हो जाता है. मैं सोचता हूँ  'कहाँ अंत है इसका?' कितना ज्यादा 'ज्यादा' होता है?

माइकल डग्लस का वालस्ट्रीट फिल्म का एक डायलोग याद आता है:  'एक समय मैं जिसे दुनिया की सारी दौलत समझता था वो आज एक दिन की कमाई है '. मेरे एक दोस्त ऐसे हैं जिनकी महीने की कमाई और मेरे एक समय के संसार की सारी दौलत में आराम से मैच हो जायेगा. शायद उनकी कमाई ही ज्यादा बैठे (ईमानदारी की कमाई है बेचारे की कुछ और मत समझ बैठिएगा, किसी कोड़ा से 'अबतक' तो दोस्ती नहीं हुई). ये प्रक्रिया बड़ी अजीब है. प्रोग्रामिंग की भाषा में अनकंसट्रेंड इंफाइनाइट लूप टाइप की चीज है, अब ऐसा लूप है तो एक बार चालू हुआ तो फिर प्रोग्राम को किल किए बिना कैसे रुकेगा?

व्हाइल (एन > 0) {
एन = एन + के ;
}

यहाँ एन और के दोनों धनात्मक ही होते हैं और 'के' कोंस्टेंट ना होकर इंक्रीजिंग फंक्शन है. कोई प्रोग्रामिंग वाले बेहतर समझा पायेंगे इस  लूप को. शायद पीड़ी कुछ मदद करें समझने में. तब एसी टू का किराया और दोस्तों के घर रुक जाने वाले अपने भाई को आज घुसते ही ह्यात पसंद नहीं आया. दिमाग का लूप करेक्ट करने की कोशिश करता हूँ... ये जो लूप है ऐसा  केवल पैसे के साथ ही नहीं है ! खैर कम से कम उनकी भाषा तो नहीं बदली. वरना हमारे धंधे के लोग तो 'वॉट द #$%^?' से नीचे बात ही नहीं करते. खैर... मैं ये मानता हू कि इस लूप में मैं भी हूँ आप भी हैं, वैसे आप इंकार करना चाहें तो मुझे आपत्ति नहीं.

शाम को दोस्तों की मण्डली बैठी और मैंने कहा 'अबे 10 रुपये का समान 750 रुपये में ! वॉट द... '
'तुम्हारी मानसिकता अब भी वही है. इटस नोट अबाउट 750, इटस अबाउट योर मेंटालिटी. द पीपल आउट देयर कैन पे अँड दे डोंट केयर'
'आई अग्री ! शायद अभी टाइम लगे मेंटालिटी बदलने में'

मानसिकता अब भी वही है? अग्री तो कर गया पर लगता नहीं है. 'बेकार कॉफी है इससे अच्छी और सस्ती सीसीडी की कॉफी होती है'. पाँच मिनट के अंदर ये बात आई. सीसीडी की कॉफी सस्ती? मानसिकता और उसका बदलना भी रिलेटिव है ! और डोंट केयर वाली बात पर क्या कहूँ... ! कुछ चीजें वैसे ही लोगों द्वारा वैसे ही लोगों के लिए बनाई गयी है जिसमें पैसा किसी की जेब से नहीं लगता. 'इटस अ ज़ीरो सम गेम !' अब इसकी व्याख्या फिर कभी नहीं तो आप कहेंगे की पोस्ट टेकनिकल हो गयी. आस्था चैनल ना हो जाये ये तो तब से कोशिश कर रहा हूँ. वैसे 'ज़ीरो सम गेम' से वालस्ट्रीट का एक और डायलोग याद आया:
Bud Fox: How much is enough?
Gordon Gekko: It's not a question of enough, pal. It's a zero sum game, somebody wins, somebody loses. Money itself isn't lost or made, it's simply transferred from one perception to another.
 

वैसे इस फिल्म के कई डायलोग बड़े रोचक हैं पढ़ने का मन हो तो यहाँ कुछ मिल जाएँगे. और शीर्षक डायरी के एक पन्ने पर मिल गया कठोपनिषद से है. मामला तब भी वही था आज भी वही है ! कुछ चीजें कहाँ बदलती हैं.

~Abhishek Ojha~

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अंततः मैं कल घर जा रहा हूँ ! एक सप्ताह के लिए… अंत भला तो सब भला. (अभी पता नहीं क्यों अंत भाला तो सब भाला टाइप हो रहा है, कभी आम का जामुन टाइप हो जाये तो बुरा मत मानिएगा !)

आप सभी को नव वर्ष और छुट्टियों की हार्दिक शुभकामनाएँ !

Dec 13, 2009

उन गलियों से गुजरना

पिछले दिनों ऑफिस के काम से एक यात्रा पर जाना हुआ. दिल्ली, कानपुर और बीच में लखनऊ. यूँ तो बहुत दिन नहीं हुए पर पता नहीं क्यों लगा कि एक अरसे Unpublished Postबाद आना हुआ है इन गलियों में. थोड़ी भाग-दौड़ वाली यात्रा जरूर थी पर बड़ी रोचक और ज्ञानवर्धक रही. अब भाग-दौड़ का क्या है... अभी ९ दिसंबर को सोचा जन्मदिन के बहाने एक पोस्ट ठेली जाए तो टाइप की हुई पोस्ट को ठेलने के पहले ही ९ का १० हो गया. उसका स्नैपशॉट ले लिया था तो आज चिपकाये दे रहा हूँ आपको मन हो तो क्लिक करके पढ़ लीजिये. 

वैसे आजकल व्यस्तता को नापने के मैंने अपने नए तरीके निकाले हैं जैसे रीडर में कितने अपठित लेख जमा हैं, औसत कितने लेख शेयर किये जा रहे हैं, कितने दिनों से लैपटॉप की जगह आईपॉड पर सर्फिंग हो रही है, ऑफिस में कितने मिनट तक तशरीफ़ कुर्सी से दूर रही (तशरीफ़ का शाब्दिक अर्थ छोडिये मतलब तो आप समझ गए ना !), कितने ईमेल का जवाब देना बाकी है, औसत कितने पोस्ट/कमेन्ट किये और अगर घर फ़ोन करने का समय नहीं मिला तो सही में व्यस्त !  सोच रहा हूँ इन सारे पारामीटर्स को कलेक्ट कर एक बिजिनेस इंडेक्स (व्यस्तता सूचकांक) बना लूं दिन में एक बार तो अपडेट कर ही सकता हूँ कि आज कितना बिजी रहा.

रोचक और ज्ञानवर्धक को तो एक पोस्ट में समेटना कहाँ संभव है ! हाँ कई बातों पर भरोसा और पक्का हुआ. जैसे 'समाज में कुछ चीजें बस कुछ लोगों द्वारा, कुछ लोगों के लिए ही बनाई गयी हैं'. खैर इस पर फिर कभी. फिलहाल तो इसी बात की ख़ुशी है कि कुछ गेजुएट हो रहे बच्चों को नौकरी मिली जो इस यात्रा का मकसद भी था. कुछ दोस्तों से एक छोटी मुलाकात भी हुई. जब से तथाकथित ब्लोगर हो गए हैं तो अब 'ब्लोगर मीट' भी यात्रा का एक हिस्सा है. तो इसी बहाने कुछ धुरंधरों से भी मिल आये... कुछ को तो १० मिनट की 'मीट' के लिए एक घंटे तक इंतज़ार करवा दिया. लेकिन कुछ तो बात है जो पहली बार मिलने पर भी सॉरी कहना तक फोर्मलिटी  लगती है.

दिल्ली और लखनऊ तो ठीक लेकिन सुबह-सुबह जब कानपुर पहुचे और एक ऑटो(विक्रम) में गाना बजता सुनाई दिया... 'जब-जब इश्क पे पहरा...'. हम तो वही नोस्टालजिक हो गए. ये मिस करना भी अजीब चीज है वो थकेले ऑटो, उसमें बजते फास्ट फॉरवर्ड स्पीड में चीं-चों करते गाने और १२ लोग ! ये भी कोई मिस करने की चीज है वो भी तब जब आप उस गाडी में बैठे हो जो आपको सबसे अच्छी लगती है. वालस्ट्रीट फिल्म में माइकल डगलस का एक डायलोग याद आया उस पर एक पोस्ट लिखनी कब से पेंडिंग है. इन ऑटो में जो गाने बजते हैं उनकी लिस्ट ५० से ज्यादा लम्बी नहीं है... सारे क्लासिक ! मेरे एक दोस्त आपके प्लेलिस्ट से आपका भूत और आप किस परिवेश में रहे हो ये बता देते हैं... इन ऑटो में बजने वाले गानों के ट्रेंड पर गौर करें तो ये बता देना कोई बड़ी बात नहीं लगती.

गाडी वाला भी उन रास्तों से ले गया जहाँ से कभी सबसे ज्यादा गुजरना होता था. फिर वो जगह... जहाँ पर जीवन के सबसे यादगार दिन गुजारे हैं.. अपना कॉलेज, अपना कैम्पस. तो अब क्या हमारे साथ बुरे दिन बीत रहे हैं ? (गनीमत है ये सवाल किसी सेंटी टाइप लड़की ने नहीं पूछा, वरना समझाने में ही दिन निकल जाता). जीवन के २-४ सबसे ज्यादा भावुक क्षणों में से एक था जब मैंने ये कैम्पस छोड़ा था और दूसरा जब मेरे कुछ दोस्तों ने मुझसे एक साल पहले छोड़ा था. इंसान सच में बड़ा Bloggers meet विचित्र जीव है... किसी चीज का पीछा करता रहता है फिर मिलने पर पता चलता है कि उसे पाने के लिए क्या कुछ गंवा दिया. गनीमत है मैंने ज्यादा नहीं गंवाया. उन नहीं गंवाए गए मस्ती के क्षण... अलंकारिक भाषा में कहूं तो उस कैम्पस में हर तरफ दिखने वाले लाल ईंटों से कहीं ज्यादा यादें जुडी हुई हैं उस जगह से. उस समय व्यस्त से लगने वाले दिन अब जिंदगी के सबसे अधिक फुर्सत वाले दिन लगते हैं. गुजरी हुई बातों के मामले में मुझे अपनी मेमोरी पर कभी ज्यादा भरोसा नहीं रहता लेकिन वहां पहुच कर  लगा सब कुछ जैसे अभी हो रहा हो. समय तो नहीं मिल पाया पर आते-आते गाडी से ही सही दो चक्कर लगा आया. मेरे साथ गयी एचआर को लगा कि मैं कुछ ज्यादा ही सेंटी हो रहा हूँ. वैसे उनको जितना लगा मैं उससे कहीं अधिक सेंटी था. अभी तक गेट पास की पर्ची पड़ी हुई है बटुए में... !

फिलहाल इतना ही... बिजिनेस इंडेक्स अभी भी ऊपर चल रहा है. मंदी आ नहीं पा रही इसमें.

'मीट' की चर्चा तो यहाँ और यहाँ आई ही है, मैं भी कुछ यदा-कदा ठेलता रहूँगा, वैसे एक क्लारिफिकेशन देना था. मुझे लगता था इस ड्रेस में थोडा स्मार्ट लगता हूँ लेकिन अनूपजी के इ७१ का कैमरा कुछ सही नहीं लग रहा :)

~Abhishek Ojha~