Mar 29, 2015

तत् त्वं असि

तत् त्वं असि- You are that! - तुम वही हो। - छंदोग्य उपनिषद। 

अगर शीर्षक देख आपको लग रहा हो कि यहाँ वेदान्त चर्चा होने वाली है तो आप बिल्कुल ही निराश होंगे। आगे बिंदास पढ़िए ये 'फैशन के दौर में गारंटी नहीं टाइप' पोस्ट चेतावनी है. 

हुआ कुछ यूं कि... 
कई दिनों से मुंबई के एक नंबर से फोन आ रहा था। भारतीय समय अनुसार शाम ५.५५ से ६ बजे के बीच। मेरे यहाँ सुबह-सुबह ठीक उसी समय पर जब मैं नहा रहा होता हूँ और फ़ोन मूकावस्था में पड़ा रहता है ! अधिकतर लोगों की तरह मेरी भी सप्ताह के पाँच दिनों की लगभग बंधी-बंधाई समय सारणी होती है, निर्धारित समय पर उठना, तैयार होना, रोज उसी ट्रेन से ऑफिस... खैर... इस चक्कर में कई दिनों तक इस अनजान कॉलर से बात हो नहीं पा रही थी। मुंबई के एक लैंडलाइन नंबर से उसी समय कॉल आता रहा। मैं वापस संपर्क करने की कोशिश करता तो कोई जवाब नहीं मिलता। लैंडलाइन का नंबर, ६ बजे शाम का समय... लगा जरूर किसी ऑफिस का नंबर होगा। आजकल चाहने वाले संपर्क करने का 'अल्टरनेट' तरीका ढूंढ ही लेते हैं, आज के जमाने में कौन ही दूर है किसी से अगर दिलों की बीच दूरी ना हो तो*… तो मुझे बात न हो पाने की कुछ ख़ास चिंता तो नहीं थी पर थोड़ी उत्सुकता जरूर थी और थोड़ा बुरा भी लगने लगा था बार-बार कॉल न ले पाने पर।  

फिर अंततः मैंने एक दिन बाथरूम से निकल लपक कर फोन उठा ही लिया। 
एक मोहतरमा की मधुर आवाज आई - "अभिषेक ओझा से बात हो सकती है ?"
मैंने कहा "जी हाँ मैं ही हूँ कहिए !"
"सर, आप 'अभिषेक ओझा' बोल रहे हैं?"

सर ? और इतना बल देकर मेरा नाम? नाम पर इतना ज़ोर दिया गया था कि मैं भी एक पल को सोच में पड़ गया... ऐसा क्या मशहूर हो गया मैं ! हाल फिलहाल में कुछ गड़बड़ तो की नहीं मैंने... और बिना मुझे पता हुए ही पता नहीं प्रसिद्ध होने वाला ऐसा कौन सा काम हो गया है मेरे नाम पर... मोहतरमा की आवाज भी जिंदगी में पहली दफा ही सुनाई दी थी, ऐसे में... 

खैर, मैंने कहा - "हाँ, हाँ मैं अभिषेक ओझा ही बोल रहा हूँ। आप कौन? "
"सर, मैं मुंबई से बोल रही हूँ... $#%^ बैंक से।"

बैंक शब्द सुनते ही सब एक्साईटमेंट फुस्स...  बैंक शब्द सुनते ही आधी बात तो वैसे ही समझ आ जाती है. 

"जी, बोलिए?" बे-मन...  माने एकदम्मे बेमन से कहा मैंने। 
"सर आपने हमारे बैंक से २००६ में लोन लिया था... और... "
"एक मिनट, एक मिनट... मैंने कोई लोन नहीं लिया। आप गलत अभिषेक ओझा से बात कर रही हैं !" 
इससे पहले की मैं और कुछ कहता बीच में ही उन्होने कहा - 
"नहीं सर, मैं बिल्कुल सही अभिषेक ओझा से बात कर रही हूँ।" इतने इत्मीनान से मेरी सहीयत पैट तो शायद मैं खुद न बोल पाऊं! उन्हें शायद ऐसे सही लोगों से बात करने की आदत हो या फिर मेरे आवाज में एक्साइटमेंट का स्तर उठ कर गिर जाने से उनको मेरे सही होने का प्रमाण मिल गया हो। 
"वेट... यू मीन टु से, मैं नहीं जानता पर आप जानती हैं कि मैं कौन हूँ? देखिये आपने गलत नंबर पर फोन किया है। मुझे ऑफिस जाना है. मैं फोन रख रहा हूँ" 

'मैं कौन हूँ' सवाल पर वैसे ही अनगिनत ऋषि-महर्षि-बुद्ध-योगी अपना जीवन लगा गए हैं, पर इस तरह? और वैसे भी सुबह सुबह इस ये सोचने की मेरी कोई मंशा थी नहीं. 

"नहीं सर, आप भूल गए होंगे। मुझे पता है मैंने बिल्कुल सही अभिषेक ओझा को ही फोन किया है। आप ने अभी कहा न आप अभिषेक ओझा है?" इतनी कॉन्फिडेंसनियता वो भी किसी और के बारे में… विरले देखने को मिलती होगी।

"व्हाट? मैं भूल गया हूँ कि मैं कौन हूँ? कमाल है ! आपको पता भी है आप कह क्या रही हैं? मैंने हँसते हुए कहा… और सच पूछिए तो जिंदगी में पहली बार किसी ने कहा होगा 'तुम भूल गए हो, तुम कौन हो' बड़ी शाश्वत सी पंक्ति है। एकदम वेदान्त के स्तर की। शायद मैं कभी कभार खोया-खोया भी रहता हूँ. दरअसल हम सभी कभी होते-होते अचानक वहां नहीं होते हैं ! जब हमारे साथ रहे लोगों को लगता है कि ये अभी यहीं तो था पर एक पल को कहीं और चला गया,  कुछ और सोचने लगा, बात सुना ही नहीं… उन्हें अजीब सा लग जाता है कि इसके अन्दर वही इंसान है या एक पल को इसके अंदर कोई और समा गया था या किसी और बात में ही वो लीन हो गया था.  …पर 'मैं भूल गया हूँ कि मैं कौन हूँ?' ये मैं कतई नहीं मान सकता। 


"सर, आप समझ नहीं रहे हैं। ये बताइये आप पहले मुंबई में रहते थे न?" उन्होंने मामला आगे बढ़ाया।
"क्या नहीं समझ रहा मैं? कब की बात कर रही हैं आप? मुंबई आता जाता रहा हूँ लेकिन मुंबई में रहा कभी नहीं ।"
"सर याद कीजिये आप २००६ में मुंबई में रहते थे। आप भूल गए होंगे" फिर भूल गए होंगे? ! मानता हूँ वक़्त के साथ बहुत कुछ पीछे छूटता जाता है पर ये? सच में भूल सकता है कोई? व्हाट? डज ईट ईवन मेक सेंस कि मैं मुंबई में रहता था और भूल गया !

"हा हा, आप कह रही हैं कि मैं २००६ में मुंबई में रहता था और ये बात आपको पता है और मैं भूल गया? अब भूल गया तो भूल गया याद करने से कहाँ याद आ जाएगा। अरे.… आपको जो पूछना है या बताना है वो कहिये।  मैं ओनेस्टली जवाब दूंगा। आप ये बार-बार मेरी याददाश्त पर सवाल क्यों कर रही हैं?"
"यस सर"
"क्या यस सर? जी नहीं, २००६ में मैं मुंबई में नहीं था. तब मैं कॉलेज में था। और मुझे ये साबित करने की कोई जरुरत नहीं लगती। आप को बस बता सकता हूँ कि मैं कोई और हूँ। आप गलत इंसान से बात कर रही हैं. बाय"
"सर प्लीज एक मिनट, आपका डेट ऑफ बर्थ क्या है?"
"आपके पास क्या लिखा हुआ है? मैं क्यों बताऊँ आपको? अभी आपको मेरा नाम और फ़ोन नंबर मिला है कल आप फ़ोन कर कहेंगी कि आपका डेट ऑफ़ बर्थ ये है न? तो?"
"सर, सॉरी सर. प्लीज नाराज मत होइए.... आपका डेट ऑफ बर्थ १९६९.. "
"जी नहीं, उस समय मैं पैदा नहीं हुआ था। और मैं अपना डेट ऑफ बर्थ आपको नहीं बताऊंगा,  पर आप निश्चिंत रहिए न तो मैंने कोई लोन लिया न मैं २००६ में मुंबई में था ना मैं १९६९ में पैसा हुआ। पर हाँ अभिषेक ओझा मेरा नाम है. और आपको जब कभी सही अभिषेक ओझा से काम हो तो फोन कीजिएगा। आपने सही ही कहा मैं सही अभिषेक ओझा  ही हूँ! लेकिन अभी आप गलत अभिषेक ओझा से बात कर रही हैं."
"ओह ! सॉरी सर" पता नहीं सही-गलत की व्याख्या का क्या समझा उन्होंने, मैं कौन सा कुछ समझ कर बोल रहा था। 
मैंने कहा - "कोई बात नहीं, बाय"

और इस तरह मुझे पता चला कि.... मैं गलत अभिषेक ओझा नहीं हुँ. मैं सही अभिषेक ओझा हूँ.



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~Abhishek Ojha~ 

पुनश्च:
१.एक ज़माना था जब इस तरह के पोस्ट  को ही ब्लॉगिंग कहा जाता था. फिर फेसबुक इस पोस्ट-प्रजाति को खा गया.  तख्ती-ब्लॉगवाणी-चिटठा चर्चा- टिपण्णी युग में सक्रिय रहे लोग जानते हैं कि हिंदी में इस तरह ब्लॉग फेसबुक की माँ हुई. एक जमाना था जब हर बात से एक पोस्ट निकलती थी. फिर धीरे धीरे ब्लॉगर सीरियस होते हुए विलुप्त सुषुप्त होने लगे. तख्ती जेनेरेशन के कुछ ब्लॉगर फेसबुक पर जरूर जेनेरेशन गैप टाइप फील करते होंगे ! :)
२.  तख्ती की तुलना में हिंदी लिखना अब बहुत आसान हो गया है. अंक लिखना भी. मैं आठवीं में था जब सर्दियों की धुप वाली छत पर एक रविवार को मोहल्ले के दोस्तों के बीच एक छोटा सा चैलेन्ज हो गया था कि हिंदी अंकों में बिना रुके १०० तक गिनती नहीं लिख सकता कोई. पढ़ लेने की बात और है. पेन पेपर लाया गया…  १६० पार कर गया था मैं. लगा था सो ईजी ! अब क्या ! अब तो फ्लो में लिखता ही जाऊँगा… पहली गलती के पहले किसी को पता भी नहीं चला था कि पहली के पहले ही १४9 लिख आया था:)

.... अब भी पुराने हार्ड डिस्क में 'हिंदी' फोल्डर में 'तख्ती' पड़ा हुआ है, २००६ का डाउनलोड. अब वो फोल्डर शायद कभी न खुले !


*- क्या हम कुछ प्रकाशवर्ष की दूरी तय कर सकते हैं?
हाँ ! कुछ सालों में शायद...
- अगर वहाँ हम एक दर्पण रख आयें तो क्या हम अपना बीते दिन देख पाएंगे?
हाँ !
- हम कोई भी दूरी तय कर पाएंगे?
शायद हाँ..
.... अपनों के बीच आ गयी दूरी का पता नहीं !  (खलल दिमाग का)


Mar 3, 2015

लगाव...


“इट्स सो ब्यूटीफूल ! व्हेयर डिड यू गेट दिस?” 

भले कोई वास्तविक गुण हो या न हो ये सच  है कि किसी भी चीज (या इंसान) की बार-बार तारीफ हमारी नजरों में उसे विशेष बना देती है। फिर ये सवाल बार-बार सुन अनुराग को लगने लगा कि उसने इस तरह तो कभी लोगों का ध्यान आकर्षित नहीं ही किया। तवज्जो भला किसे अच्छी नहीं लगती, अनुराग भी इससे अछूता नहीं ! हर बार उसे पूरी कहानी बतानी पड़ती। लेकिन बार-बार सुनाने में उसे बोरियत की जगह एक तरह का गर्व होने लगा था। लोगों की आँखों में ईर्ष्या देख उसकी आँखों के गर्व की चमक बढ़ती गयी। एक बूढ़ी औरत ने कहा - “यू आर सो लकी ! मैं चालीस साल से यहाँ आ रही हूँ पर मुझे कभी नहीं मिला। ना कभी ये समझ ही आया कि यहाँ ये मिल भी सकता है ! इट्स रियली वेरी ब्यूटीफुल। आई एम जेलस ऑफ यू”. 
अनुराग ने तहे दिल से जेलसी स्वीकार कर मुस्कुराते हुए कहा - "थैंक यू !". उसने कभी नहीं सोचा था कि दो पत्ते सबकी आँखों में इस तरह चुभने लगेंगे. 

अनुराग बोस्टन में रिसर्च स्कॉलर है. जब उसे पता चला था कि एक रिसर्च प्रोजेक्ट के सिलसिले में उसे कैरिबियन के एक द्वीप पर जाने का अवसर मिल सकता है तो उसने अपनी अपनी जान लगा दी थी। अध्ययन से ज्यादा उसका सैलानी दिल मचल उठा था।  इस अध्ययन को एक बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी आर्थिक मदद दे रही थी। मौका हकीकत बना और अनुराग को समिति में जगह मिल गयी। सपना सच होने से सुखद और क्या हो सकता है भला। अध्ययन तो क्या समुद्री विहार ही था ! सप्ताह भर के इस अध्ययन-सम्मलेन-यात्रा में उन्हें पानी के जहाज से दो द्वीपों पर रुकते हुए बरमूडा तक जाना था।

सैर सपाटे का ख्वाबी-शौक़ीन अनुराग, बोस्टन की कड़ाके की ठण्ड और लगभग नीरस हो चुका उसका अकादमिक जीवन। 'बोरिंग पढ़ाकू अनुराग' के लिए अकादमिक यात्राये ही जीवन का रंगीन समय थी - अगर उसे रंगीन कहा जा सकता हो तो।  ऋचा से वो इसी यात्रा पर मिला। यात्रा के तीसरे दिन- कैरिबियन के समुद्री इन मिडल ऑफ नो व्हेयर में, बोस्टन की ठंड से बहुत दूर खिली धूप में... एक रैंडम मुलाक़ात जिसके बाद जल्दी ही दोनों को एक जैसे होने के पैटर्न दिखने लगे थे ! ऋचा भी अनुराग की तरह एक ट्रेवल कंपनी की ट्रेनिंग पर थी - पेड ट्रिप ! दोनों के लिए ही मुफ्त में मिली ये जहाज की यात्रा उनके सोच में ना आ पाने वाले स्तर की विलासिता थी। अनुराग-ऋचा जैसे कुछेक, दूसरों के पैसे पर आने वाले, ग्रुप्स को छोड़ दें तो विभिन्न देशों से आराम फरमाने आये विलासी-रईस यात्री अक्सर अपने आप में ही व्यस्त रहते। ऐसे में अनुराग और ऋचा का एक दूसरे से परिचय हो जाना दोनों के लिए ही सुखद संयोग था।  स्वाभाविक रूप से दोनों में दोस्ती होती गयी। 

अक्सर दोनों अपनी उम्र के हिसाब से गंभीर किस्म की बातें करते । सूर्यास्त देखते हुए एक दिन अनुराग ने कहा - ‘जहाँ तक हम देख पा रहे हैं सिर्फ पानी ही दीखता है न? और पानी पर तैरते इस 'फ़ैन्सी टापू' की छोड़ी गयी लकीर ! और पानी पर बानी लकीर का क्या - अभी है, अगले ही पल नहीं। सोचो तो कितना सुनसान और डरावना दृश्य है पर आश्चर्य ही है कि एक पल के लिए भी वो दृश्य होते हुए भी नहीं दिखता - माया जैसा। शायद इसलिए कि हर एक वो चीज जो हम सोच सकते हैं सब कुछ यहाँ उपलब्ध है।  मेरे मन में तो ये यात्रा विलासिता की परिभाषा ही होती जा रही है - यहाँ तो वो सबकुछ भी है जो मैंने कभी किसी बड़े शहर में भी नहीं देखा !”. ऋचा ने कहा - “हाँ ये तो है पर मैं अभी सोच रही हूँ.… ‘नेचर’ की अनंतता। आसमान, पहाड़, रेगिस्तान, तारे, दिस इनफिनिट सी.... सब एक अजीब सा सुकून देते हैं मुझे. आई डोंट नो व्हाट इज़ इट विद ग्रांडनेस ऑफ़ नेचर... बट हमेशा एक शान्ति सी मिलती है. आई डोंट नो व्हाट इज दैट फीलिंग। शायद अपनी अनंतता का एहसास या अपने खालीपन का। बट आई फील आई सी माईसेल्फ़ इन नेचर”. ऐसी बातें करते करते अक्सर थोड़ी ही देर में दोनों अपने क्षेत्र की बातें करने लग जाते… वही रोजमर्रा की एकरस जिंदगी ! फिर अपने आप को मानों मन ही मन याद दिलाते कि नहीं उन बातों का जिक्र नहीं करना चाहिए।  अनुराग ने एक बार कहा भी- “यहाँ भी वही बातें ? मैं नहीं करना चाहता। मैंने तो स्वीकार कर लिया है उन बातों को.... जीवन भर यही तो चाहा था मैंने ! ये फेलोशिप, ये अकादमिक जीवन। पता नहीं क्यों उससे ही अब शिकायत हो गयी है। पर कितनी भी शिकायत करूँ शायद अब भी मेरे जीवन का सबसे खूबसूरत हिस्सा है वो. पता नहीं क्यों हमें सिर्फ बुरा हिस्सा ही दिखता है अपनी रोज़मर्रा कि जिंदगी का। वैसे ही जैसे... तुम्हें याद है आखिरी बार तुम्हें दर्द कब हुआ था? याद होगा न हर छोटा दर्द? पर कभी ये मसूस हुआ कि हम हरपल सांस भी लेते रहते हैं ? या हमारा पूरा शरीर स्वस्थ है? ऐसा ही है हमारे कैरियर के साथ भी... महसूस ही नहीं होता वो सब कुछ जो खूबसूरत है!"
ऋचा ऐसी बातों से सहमत नहीं होती। उसने कहा - "तुम नहीं समझते। मुझे एक्सैप्ट नहीं होती कुछ बातें !"  अनुराग को मन ही मन लगता इस लड़की को हर बात से परेशानी क्यों है?
"मेबी ! पर तुम्हे नहीं लगता कि हम तभी तक किसी चीज से जूझते हैं जब तक हम उसे जीवन का हिस्सा स्वीकार नहीं कर लेते या बिलकुल ही जीवन से निकाल नहीं देते? पर अक्सर चीजें इन दोनों छोरों के बीच झूलती रहती है. चूज़ वन ऐंड बी ऐट पीस - इफ यू कैन!”. अनुराग के समझाने के उटपटांग उदाहरण और तरीके, दुनिया जहां की उसकी बातें और ऋचा की उत्सुक्ता. दोनों का अच्छा समय बीत रहा था. 

बरमूडा में दोनों में फैसला किया किसी शांत से तट पर दिन बिताने का. शहर में रहने वालो के लिए ऐसे तट सचमुच खूबसूरत सपनों सी जगह थी ! अनायास ही अनुराग को स्नोर्कलिंग करने का मन हो आया. मन से ज्यादा शायद सेल्समैन की सरगर्मी और संकोची अनुराग से अक्सर ना कहा नहीं जाता. थोड़ी देर हाथ पैर मारने के बाद एक पढ़ाकू के लिए स्नोर्कलिंग सचमुच एक अद्भुत अनुभव था. रंग-बिरंगे कोरल, अनगिनत तरह के जीव और रंगीन मछलियों  के बीच अनंत-एक्वेरियम में खोये अनुराग ने एक बार सर बाहर निकाल ट्रेनर से पूछा - "कैन आई टेक वन ऑफ़ दिज कोरल्स?"
“ऑफ़ कोर्स ! लेट मी गेट इट फॉर यू, दिस विल बी अ नाइस सूवनिर फॉर योर गर्ल” 
“योर गर्ल” सुन अनुराग सिर्फ मुस्कुराया और खुद भी उसने एक चट्टान पर लपलपाते कोरल को जड़ से तोड लिया। जाली की तरह हाथ में जब दो खूबसूरत कोरल लेकर बाहर निकला तो ऋचा ख़ुशी से उछल पड़ी ! देखने में बैंगनी और हरे रंग के किसी धातु से बने जाली की तरह।  ट्रेनर ने बताया इन्हें कम से कम  पांच साल लगते हैं ऐसा बनने में. अनुराग ने रिचा से कहा - "तुमने कभी अहमदाबाद के सीदी सैयद की जाली के बारे में सुना है ? हुबहु वैसे ही हैं ये" 
फिर तो सिलसिला चल पड़ा - “व्हेयर डिड यू गेट दिस?” का। अनुराग ने बैग में नहीं रखा, कहीं टूट न जाएँ। पर्यटक तो दूर स्थानीय लोग भी उनके आकर्षण से नहीं बच पाये। एक ने कहा “इसे फ्रेम करा देना.… नहीं तो इसे अपने फायर प्लेस के पास रख देना एक तुम्हारे लिए और एक तुम्हारे लिए. इट्स सो ब्यूटीफुल”. एक ने तो “इफ यु डोंट माइंड....” कहते हुए खरीदने का भी प्रस्ताव रख दिया । 
एक दूकानदार ने खुद आगे आकर सुरक्षित रखने के लिये बड़ा सा कागज दे दिया। पता नहीं वो कोरल सच में इतने खूबसूरत थे या लोगों की प्रशंसा और ईर्ष्या। अनुराग को लगने लगा जीवन में इससे प्रशंसनीय काम उसने कभी नहीं किया। अनजाने में किये गये गए इस काम के लिए उसे अपने दिमाग और सोच पर गर्व होता चला गया। जिसकी कोई कीमत नहीं थी वो अचानक अनमोल हो गया। वो सोचने लगा इससे अच्छा भला कुछ यादगार क्या ले जा सकता था वो यहाँ से? कितने भी पैसे देकर ऐसा कुछ कहाँ खरीद सकता है कोई ? अपने आप पर उसे स्वभाविक गर्व हो आया। और कोरल से आसक्ति। उसे याद आए वो पीपल के पत्ते जो उसने कभी बोधि वृक्ष के नीचे से उठाया था और वो छोटे-छोटे पत्थर जो अक्सर समुद्री तटों से उठाकर लाता था। उसे लगा वो तो हमेशा से ही ऐसा रहा है !

दोनों आनंद में झुमते वापस जहाज पर आए तो सुरक्षा कर्मी ने भी वैसे ही पूछा जैसे सबने -“व्हाट इज दैट? लुक्स इंट्रेस्टिंग”. अनुराग ने फिर उसी गर्व मिश्रित भाव से पूरी दास्तान सुनाई कि कैसे उसने समुद्र के अंदर से खुद निकाला। पर… उसके चेहरे के भाव ही बदल गए जब सुरक्षाकर्मी ने कहा - “वॉव ! बट सर आई एम अफ्रेड यू कैंट टेक दिस ऑनबोर्ड द शिप! आई एम सॉरी बट...” 

...फिर चला तर्कों का सिलसिला. व्हाइ, व्हाइ नॉट... अनुराग को अब भी लगता रहा... ऐसे कैसे नहीं ले जाने देंगे ! मेरे साथ ऐसा कभी कुछ हुआ ही नहीं ! …पर अंततः उसे कोरल वहीं सुरक्षाकर्मी के पास ही छोड़ जहाज पर आना पड़ा। 

...पर वो सोचता रहा ! पता नहीं क्या-क्या... मुंह लटकाये ! जो खुशी मिली थी, जितनी योजनाएँ बनाई थी, जितना गर्व किया था बच गया उसका कई गुना चिंतन! मुझे बैग में रख लेना था... नजर लग गयी... मुझे ये नहीं कहना था, ऐसा कह देता तो शायद मान जाते... और पता नहीं क्या-क्या !  क्या यही माया का द्वैत रूप है? - खुशी के साथ दुख? जबकि उसे पता था... ईट वाज जस्ट अ डेड लीफ़ ! ऋचा उसे क्या समझाती.... ऐसा कुछ था नहीं जो उसे खुद पता नहीं हो। 

वो फिर से वापस गया -  “ऋचा, मुझे नहीं पता मैं जा भी क्यों जा रहा हूँ पर... एक आखिरी कोशिश!" शायद सुरक्षाकर्मी  को भी अनुराग की पीड़ा दिखी थी या तर्कों से तंग आ गया था। शायद ये कि कौन बेवकूफ पत्तों के लिए इतनी जिरह करता है? तभी तो वो सीधे प्रमुख सुरक्षा अधिकारी को बुला लाया - “दैट लीफ गाय इज हेयर अगेन ”. 

“सर,आई वाज अ कॉप फॉर ट्वेंटी फाइव इयर्स एंड आई अंडरस्टैंड दैट इट्स जस्ट अ डेड लीफ. बट लॉजिकल ऑर नॉट अ लॉ इज अ लॉ ! ईट सेस क्लियरली दैट यू आर नॉट एलाउड तो ब्रिंग लीफ़, फ्लावर... ऑर ईवन सॉइल । एंड वी आर नॉट डिस्कसिंग दिस एनिमोर। इदर यू आर कमिंग अलोन ऑर स्टेयिंग हियर इन बरमूडा विद योर लीफ. ” प्रमुझ सुरक्षा अधिकारी ने अंततः झुँझलाते हुए कहा। अनुराग को समझ नहीं आया क्या करे। वो गलत था - और निस्सहाय ! एक पल के लिए लगा कह दे - "ठीक है मैं रुक जाऊँगा और वापस फ्लाइट से चला जाऊँगा।" पर ऋचा उसे खींच ले गयी - उदास ! पूरे दिन उमंग में उसके दिमाग में एक पल को भी ये बात आई ही नहीं थी कि ऐसा भी हो सकता है। कितने सपने, कितनी कहानियाँ सोच डाली थी उसने पर ये ? सोच में आ भी कैसे सकती थी ये बात - किम आश्चर्यम? 

अनुराग सोचता रहा... घंटो। क्या सचमुच 'नजर' लग जाती है? मुझे छुपा कर लाना था? ऐसा हुआ होता तो... वैसा हुआ होता तो... ये कह कर देख लिया होता तो... जबकि उसे ये भी पता था कि उसने सब कुछ कह के देख लिया था। 

कई सप्ताह बाद जब उसने मुझे ये बात बताई तब भी उसकी आँखों में मैंने घनीभूत पीड़ा देखी ! उसने मुझसे कहा - "फेंक ही तो दिया होगा न उन्होने? कितना भी खूबसूरत था... उनके लिए तो  ईट वाज जस्ट अ डेड... स्टुपिड लॉ!"
फिर एक सांस लेकर बोला - "आई शुडनॉट हैव पिक्ड ऐट फ़र्स्ट प्लेस !  ईट वाज ब्यूटीफूल ऐंड अलाइव... ऐट होम"

मुझे पता नहीं क्यों उसके टूटे दिल के सोच की खिचड़ी में से सिर्फ यही बात अच्छी लगी - 
"आई शुडनॉट हैव पिक्ड ईट अप !  ईट वाज ब्यूटीफूल ऐंड अलाइव... " 

मैंने सोचा - "क्या उन कोरल्स पर भी कुछ बीती होगी? या... दे वेयर जस्ट डेड..."

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~Abhishek Ojha~ 

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पुनश्च: 

- दो पंचाक्षर मंत्रो की महिमा अपरंपार है ! - "नमः शिवाय" और "Let Go".
- "नहीं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता (प्रशंसा-भाव-तारीफ एंड आल ऐज वेल) पाइ जाहि मद नाहीं !"
- भगवान ने गीता में कहा है -
 ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥ 3-61

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते, संगात्संजायते कामःकामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ 2-62॥

- शीर्षक पहले 'आसक्ति' रखा था फिर 'पता नहीं क्यों' पब्लिश करने के ठीक पहले 'लगाव' कर दिया !
- भोजपुरी में कहते हैं - कऽथा गईल बन में, सोचऽ अपना मन में ! :)