May 27, 2008

ई सब इंडिया में होता होगा... भारत में कहाँ होता है?


'अरे बेटा जरा अखबार देखना तो का ख़बर आई है. रामलाल के परिवार को कुछ पैसा-वैसा मिलेगा का?' चाचा ने पड़ोसी के मनोज को आवाज दी. (मनोज B.Sc करने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता है.)
'चाचा रामलाल की ख़बर तो नहीं है... पर खूब सारी मजेदार खबरें आई हैं... तसवीरें देखोगे? छोड़ो तुम क्या देखोगे ये सब... वैसे दो अच्छी खबरें भी छपी हैं, लो सुनाता हूँ.'
'चलो सुनाओ, बेटा अब ई अंग्रेजी अखबार काहे लेते हो कोई देख के समझेगा कि हम अनपढ़ हैं?'
'अरे चाचा का करें, नौकरी लेनी है, वैसे भी अंग्रेजी के बिना कुछ नहीं होता है. और तुम्हे सुनाने के बहाने थोड़ा पढ़ भी लेता हूँ... नहीं तो पढ़ाई से ही फुरसत नहीं है।'

अच्छा तो सुनो एकदम सच्ची घटना है... लेखक चकाचक अरोड़ा हवाई जहाज में बैठे तो उसके बगल में एक महिला आकर बैठ गई, थोडी देर में बोली...

'भाई साहब गड्डी बंगलोर में कितनी देर रुकेगी?'
लेखक को हँसी आ गई... उन्होंने कहा '१ घंटे'.
'मुझे बंगलोर में ही उतरना है, जरा बता दीजियेगा आए तो... मैं तो घर में काम करने वाली बाई ठहरी, मुझे कुछ समझ नहीं आता है, पहली बार तो जहाज में चढी हूँ.'

तब लेखक को लगा ... अरे हमारा देश तो बहुत आगे जा रहा है, इसको कहते हैं असली बदलाव... सच में बहुत विकास हो रहा है... समझे चाचा देश बहुत आगे जा रहा है, इस कहानी से लेखक ने यही समझाया है... फिर आगे बहुत कुछ लिखे हैं कि कैसे-कैसे विकास हो रहा है, और कैसे सबको इसका लाभ मिल रहा है.

अगली कहानी में भी यही सब है बस थोड़ा चरित्र अलग है, इसके लेखक हैं चमचम दास, ई गए एक चाय के दूकान पे... वहाँ एक ११ साल का बच्चा चाय दे रहा था, बात करते-करते पता चला की उ लड़का अंग्रेजी बोलता है, और कम्प्यूटर भी सीखता है... अरे और-तो-और वो यहाँ पर चाय बेचने की नौकरी नहीं करता 'समर जॉब' करता है ताकि अपने कम्प्यूटर कोर्स का खर्चा निकाल पाये. गरीब है तो क्या हुआ, आज हमारे देश में कोई भी पैसा कमा सकता है अब इस बच्चे को ही देखो कम्प्यूटर सीख लेगा बस कमाई-ही-कमाई. देख रहे हो चाचा कितना आसन है पैसा कमाना हमारे देश में. ई लेखक कह रहे हैं की बस एक समस्या है ... सरकार गरीबो पर बहुत ध्यान दे रही है जिसकी जरुरत नहीं है, क्योंकि इनका सिद्धांत कहता है कि धीरे-धीरे सबको काम और पैसा कमाने का साधन मिल जायेगा. बस देश का विकास इसी तरह से होता रहे.

'हाँ बेटा ई सब तो हम बचपन से सुनत आ रहे हैं, विदेश कि बात ही कुछ और है, वहाँ पर तो ऐसा ही होता है. अपने उ नरेन के चाचा भी तो गए थे... उ भी ऐसा ही कुछ बता रहे थे, जब आए थे.'
'अरे चचा, आप फिर नहीं समझे ... ई सब विदेश के नहीं अपने इंडिया कि बात है.'
'अरे बेटा किसे पढ़ा रहे हो, ई सब हिन्दुस्तान में होत है? ''

एक मिनट रुक कर चाचा फिर बोले: 'हाँ वैसे ठीक ही कहा तुमने ये सब अमेरिका, इंडिया जैसे देश में होता है, भारत में कहाँ होगा... अब भाई इंडिया में तो अखबार भी ऐसे ही छपते हैं. यहाँ तो भर पेट खाना मिलना भी बड़ी बात है... भाई हम गरीब देश के लोग हैं.... अब रामलाल को ही देख लो, बेचारा अकेला ही चला गया कुछ नहीं हुआ, २०-२५ को साथ ले गया होता तो ख़बर भी शायद छाप जाती. इन इंडिया वाले अखबारों में छप भी जाता. और शायद कुछ पैसे-रुपये भी मिल जाते, तुम्हारे ये इंडिया वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि रामलाल जैसे किसान पैसे के लिए मर जाते हैं... अरे भाई अब कोई मर के पैसों का का करेगा, बताओ? वैसे अखबार वालों की भी गलती नहीं है भाई ... उनके पास चकाचक और चमचम जैसे बड़े लेखक हैं, वो क्यों भारत की चिंता करें... बड़े देश के लोग हैं. अब रामलाल अमिताभ बच्चन तो था नहीं की फिलिम के अंत में मर जाए तो फिलिम हिट '

'अरे चाचा ये सब तो मैं भी जानता हूँ, पर मैं ये कह रहा था कि इंडिया तो अपने देश को ही कहते हैं ... और ये कहानियाँ हमारे ही देश की हैं.'
'जाओ बेटा चार अक्षर पढ़ के हमें पढाने चले हो, हम इंडिया नहीं जानते हैं... और कभी गए भी नहीं वहाँ लेकिन भारत में हम बचपन से रह रहे हैं... और तब से समझ रहे हैं जब से नेहरूजी थे, हमें का पढ़ा रहे हो, इ अखबार वाले तुम्हे ही समझा सकते हैं मुझे नहीं... पढ़ लो ... एक लेख लिख दोगे तो परीक्षा में अच्छे नंबर आ जायेगे और भगवान ने चाहा तो इंडिया में नौकरी भी लग जायेगी. वही अच्छा है इस देश में कुछ रखा नहीं है.'

और आव-आव ओझाजी के बबुआ तुम तो बाहर देश भी हो आए हो, और सुना है की आजकल तुमलोग बिलोग लिखते हो... अखबार में ही एक दिन आय रहा कि आजकल भारत वाले भी बिलोग पढ़ते हैं, ससुरे अखबार वाले तो आजकल इंडिया कि खबरें छाप देते हैं, भारत के नाम पे. तुम भी लिख देना बिलाग पर कुछ लोग टिपिया भी जायेंगे: बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप !. चलो कम से कम इतना तो है की इंडिया वाले तुम्हारे बिलाग-दोस्त इसे ठीक तो समझते हैं.'

मैं वहाँ से थोडी देर के बाद चला आया, कई महीने हो गए आज उस चर्चा के सोचा चाचा की कही हुई बात मान ही लेता हूँ.

P.S.: दुर्भाग्य ये है कि ये बात चकाचक और चमचम की बातों से कम से कम १५० फीसदी ज्यादा सच है. मुझे अभी भी भरोसा नहीं है की उनका चाय वाला और काम वाली बाई कितने सच हैं, पर मैं इन चाचा से मिल चुका हूँ और आप भी आराम से मिल सकते हैं कहीं भी, किसी भी गाँव में निकल जाइए. इसके लिए न तो आपको भारत-यात्रा की जरुरत है ना किसी हवाई यात्रा की.

~Abhishek Ojha~

चित्र साभार: http://pra-sh-ar.blogspot.com/2007/09/pipal-tree.html

May 8, 2008

खाना बनाना: मज़बूरी से शौक तक !

आज इस पोस्ट में मेरे द्वारा बनाए गए कुछ व्यंजनों की झलकियाँ... खाना बनाना कब चालू किया और कब शौक बन गया ठीक-ठीक तो नहीं पता. हाँ इतना जरूर जानता हूँ कि किचन में खुराफात करते रहना ही इसका मूल कारण रहा. और किचन में खुराफात करने का सबसे बड़ा कारण तो बस एक ही है... जब भी घर पर होता हूँ हमेशा माँ के साथ रहना. पर बस खुराफातों तक ही सीमित था ये सब, हाँ एक बात जरूर है हर तरह के व्यंजन पर हाथ तो आजमा ही चुका था. पर असली अभ्यास तो मजबूरी में ही शुरू हुआ. ये कहना कि मैं मुल्ला-दो-प्याज़ा हूँ और खाना बनाना मेरे बचपन का शौक है... सही नहीं होगा, अरे वैसे भी सच्चाई तो ये है की मजबूरी में चालू करना पड़ गया. लेकिन ये बात भी है की चालू करने के बाद ये शौक में परिवर्तित तो हो ही गया है. ऐसी मजबूरी के शौक बन जाने के पीछे तो बस एक ही कारण हो सकता है... मज़ा आना. शुरू में तो नहीं पर जब लोगों ने दिल खोल के बड़ाई की तो एक प्रतियोगिता में हिस्सा भी ले लिया और फिर किस्मत का खेल... जीत भी गया.

वैसे ये सारी बातें मुझे आज साफ-साफ दिख रही है कि ये सब हुआ कैसे... खुराफात वाली बात के बाद हुआ ये कि २००५ में IIT में तीन साल पूरा करने के बाद गर्मी की छुट्टियों में इन्टर्नशिप के लिए स्विटजरलैंड जाना पड़ा.

अब एक तो यूरोप का खाना और ऊपर से मैं ठहरा शाकाहारी और वो भी विशुद्ध शब्द के साथ. जब भी कुछ खाने कि कोशिश करता तो 'एक तो करेला दूजा चढा नीम' वाली कहावत जरूर याद आती. कहाँ सोचा था की स्विटजरलैंड की वादियों में आनंद मनाएंगे और वहाँ आलम ये था की रोज़ चाकलेट, बर्गर और जूस पर एक-एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था. शुरुआत हुई लंच से, मेरे एक साथी का घर यूनिवर्सिटी के पास ही था और रोज़ दोपहर में २ घंटे के लिए उनके किचन का मालिक मैं बनने लगा. पहले ही दिन सफलता हाथ लगी, (अब वहाँ का खाना खा के जो मेरा हाल था तो कुछ भी बने सफलता ही कहेंगे !)

खाना बनाने में आई दिक्कतें भी मजेदार रही... बेलन और चकली नहीं मिले तो - कांच के ग्लास बेलन बनने में टूट गए, पर बाद में जब वाइन की बोतल ने जब बेलन का काम संभाल लिया तो ट्रे और डेकची भी उल्टा कर देने पर चकली का काम करने में पीछे नहीं हटे... इस प्रकार के उपकरणों से ५७ समोसे बनाने के बाद किसी युद्ध जीत लेने जितनी खुशी तो हुई ही थी. नीचे के समोसे वाली तस्वीरों में आप वो धन्य हुई वाइन की बोतल देख सकते हैं :-) धीरे-धीरे भारतीय दुकानों से मसाला वगैरह भी ले आया, और फिर बात भी फैलने लगी... लोग भारतीय खाना खाने के लिए आग्रह करने लगे, मुझे लगा की खाने के लिए ही कई लोग दोस्ती भी करने लगे :-) इस मुसीबत के लिए इंटरनेट भगवान् की शरण में गया और ऑफिस में मिला फ्री का फ़ोन... घर से भी डिस्कस कर लेता... पार्टी भी सफल रही... ! (यहाँ भी ये कह सकते हैं कि कुछ भी बना के खिला दो उन्हें क्या पता...अच्छा बना या बुरा) :-) पर प्रसिद्धि मिलनी थी तो संयोगो का सिलसिला जारी रहा और मेरे भारतीय दोस्तों के यहाँ भी जाके खाना बनाने का सिलसिला चल उठा, हर वीकएंड पर मैं खाना बनाता फिर निकल जाते हम घूमने। ... बात ख़त्म !

पर जैसा की मैंने कहा... संयोग !

२००६ में फिर से ३ महीने के लिए स्विटजरलैंड जाना हुआ. २००५ में आखिरी के दो महीनों में मैं एक प्रोफेसर साब के घर रहा था और इस बार उन्होंने शर्त रखी थी कि मुझे उन्ही के घर रहना पड़ेगा... हाँ एक बात कहना चाहूँगा, इस शर्त का कारण मेरा खाना बनाना नहीं था... प्रोफेसर साब की चर्चा फिर कभी. इस पोस्ट में उतने अच्छे लोगो की चर्चा नहीं की जा सकती. हाँ तो इस बार फिर से सिलसिला चला और इस बार कुछ ज्यादा ही चला और प्रोत्साहन मिलने का आलम ये की मुझसे ज्यादा मुझ पर भरोसा दूसरो को ही रहता, और शायद यही भरोसा था जिसने सर्टिफिकेट भी दिला दिया. देखा आपने कैसे मजबूरी शौक में बदल जाती है.

और अब पुणे में भी कभी-कभी बनाना हो जाता है... और शौक जारी है. प्रोत्साहन भी जारी है. और अब इस बोरिंग पोस्ट के अंत में एक बात जो मैंने खाना बनाते-बनाते महसूस किया है: खाना बनाने वाले को सबसे बड़ी खुशी मिलती है, जब कोई कह दे ... वाह क्या स्वाद है ! तू तो मस्त बनाता है... बस सारी थकान दूर, भूख भी दूर... ! अच्छा आईडिया भी दे दिया ना आपको, बस एक बड़ाई की जरुरत है !

आजतक का सबसे अच्छा कम्प्लिमेंट: मेरे एक दोस्त ने कहा ... तू मेरी माँ की तरह खाना बनाता है... !

अंत में कुछ डिस्क्लेमर: स्विटजरलैंड का खाना इतना बुरा भी नहीं होता, पर ठीक से जानकारी ना होने पर शुरुआत में थोडी दिक्कत होनी स्वाभाविक है। (जल्दी ही मैं एक श्रृंखला लिखने की सोच रहा हूँ अपनी स्विस यात्रा का, बस समयाभाव ही देर कराये देता है... !) दूसरी: भले ही मजबूरी में शुरू की लेकिन अब एक अच्छा शौक है और मुझे इस बात की खुशी है। तीसरी: बहुत जल्दी में बिना सोचे समझे किया गया पोस्ट है, असुद्धियों और गलतियों के लिए क्षमा.

और हाँ ये बताना मत भूलियेगा आपको कैसा लगा ? :-)

ये तस्वीरे शुरुआत के दिनों की हैं.

















तसवीरें ऊपर से: एक झलक, आलू पराठा, पकोडे, मैं प्रो ब्राईट के साथ (उन्होंने मुझे खोज-खोज ले स्विस खाना खिलाया और मैंने उन्हें भारतीय), खाने में मग्न सहयोगी, खाने में मग्न एक दोस्त, समोसे, खीर, पूड़ी, फिर समोसे, पराठे चाय और अचार के साथ, पकोडे.