Aug 16, 2013

खलल दिमाग का !


वैसे तो ग़ालिब ने कहा है – “कहते हैं जिसको इश्क़ खलल है दिमाग का”। पर इश्क़ ही नहीं बहुत कुछ है जो, और कुछ नहीं, सिर्फ दिमाग का खलल है... जैसे –


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कभी वो चमकता सितारा था
अब एक ‘ब्लैकहोल’ है !
- हुआ क्या?
किसे पता सिंगुलारिटी में होता क्या है !
- तुम्हारा गणित क्या कहता है?
गणित के समीकरण ही तो जवाब दे जाते हैं...
...निरर्थक तरीके से असीमित विध्वंस.  इंटेलेक्चुअल्स के इश्क़ की तरह !


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- अगर मैं ब्लैकहोल में कूद जाऊँ तो?
मरोगी !
- क्या होगा मेरा?
संभवतः... उस अनंत घनत्व में चूर हो विलीन हो जाओ...
- मुझे ये दुनिया छोड़ कहीं और चले जाना हो तो?
पलायन वेग से भाग पाओगी?
- एक बार उस ब्लैकहोल से मिल लूँ फिर
नहीं, पॉइंट ऑफ नो रिटर्न हैं वहाँ...
वहाँ से भागना असंभव...
प्रकाश की गति के लिए भी !


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- क्वान्टम उलझन क्या होता है?
रोमांटिक फिजिक्स !
- वो कैसे?
दो कण...  अलौकिक प्रेम की तरह जुड़े होते हैं
जैसे उनका अस्तित्व एक ही हो !
परकृति के उस सूक्ष्मतम स्तर पर स्वच्छंदता भी नहीं होती – अद्वितीय जोड़े !
- अगर दूर हुए तो?
ब्रह्मांड में कहीं भी रहें एक को छेड़ो तो दूसरा भी उसी क्षण प्रभावित हो जाता है !
- ये कैसे हो सकता है?
क्वान्टम इश्क़ !
समझ ही आना होता तो...
पिछली सदी के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क ने इसे ‘भुतहा प्रक्रिया’ न कहा होता !
- तो क्या ऐसा कहने वाले आइन्सटाइन गलत थे?
नहीं...
आस पास जो है सब वैसे मस्तिष्कों के कहे पर चल रहा है
- फिर?
‘बेहतर सच’ आते रहते हैं!
- सच समझ के बाहर कैसे?
गणित और प्रयोग सही कह दे तो भी...
कभी-कभी सच इंद्रियबोध के बाहर होता है !
…at times, truth makes no sense!
- जैसे ?
अगर गणित कहता है कि कोई घटना ब्रह्मांड की उम्र बीतने के बाद होगी तो...


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- क्या हम कुछ प्रकाशवर्ष की दूरी तय कर सकते हैं?
हाँ ! कुछ सालों में शायद...
- अगर वहाँ हम एक दर्पण रख आयें तो क्या हम अपना बीते दिन देख पाएंगे?
हाँ !
- हम कोई भी दूरी तय कर पाएंगे?
शायद हाँ..
.... अपनों के बीच आ गयी दूरी का पता नहीं !


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- क्या तुम भी टूट सकते हो?
हाँ। हर चीज की एलास्टिक लिमिट होती है...
मेरी भी अनंत नहीं।


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- सुना, एक रोबोट को प्रोग्राम किया था इश्क़ करने को?
हाँ और वो कुछ ज्यादा ही आगे निकल गया?
- गलत प्रोग्रामिंग?
...गलत कैसे? इंसान से ही कौन सा संभल जाता है !


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- श्रोडिंगर कैट जैसा कुछ होता है?
जैसे... जब कुछ पाने का बहुत मन हो और उसे ना पाने का भी।
मनोवैज्ञानिक उसे अपोरिया कहते हैं !


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- क्या कोई और भी ऐसा सोच रहा होगा?
हाँ ! बिलकुल अलग लोग अलग समय-काल में एक जैसा सोचते हैं।
- बहुत अजीब नहीं है?
अगर कुछ बहुत अजीब है तो उसमें कुछ बहुत रोचक भी जरूर होता है।
- सब कुछ गणित का समीकरण तो नहीं होता ! बहुत कुछ अनचाहा समझ के बाहर का भी होता है।
गणित भी तो विकसित होता रहता है। हर जगह अपूर्णता है।
- हमेशा रहेगी?
हाँ।


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- तुमने एक बार ‘लॉन्गर दैन फॉरएवर’ सा कुछ कहा था?
हाँ। फाइनाइटनेस का स्ट्रोक लगने के पहले तक।


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- क्या पैराडॉक्स हल नहीं होते? जीवन भी ऐसा ही हैं न?
हाँ।
पर कभी-कभी जेनो जैसों को सुलझाने के लिए एक फॉर्मूला ही काफी होता है।


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- मुझे खुश रहना है !
पानी के लिए चाँद पर नहीं जाना होता।
- ज्ञानी खुश रहते हैं?
नहीं। अक्सर कर्ण की धनुर्विद्या की तरह।
कलह परमर्शदाताओं के घर भी होता है।
- फिर?
खुश रहने की चिंता में दुखी रहना बंद करो।


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- मुझे 'कोई' प्यार नहीं करता !
आईना झूठ नहीं बोलता।
- मतलब?
तुम बुरे तो जग बुरा की तरह। तुम मुस्कुराओ तो 'कोई' भी मुस्कुराएगा ! Smile


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बैरीकूल ने कहा था –  भैया, दिमाग के रसायन इधर-उधर हो जाये तो आदमी कुछो सोच कर सकता है !  Smile


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~Abhishek Ojha~
*based on my twits.
1. इसके लिए कभी लिखा था कि - सिंगुलरिटी में फंक्शन फट जाता है :)