बैरीकूल से अक्सर चाय की दूकान पर ही मिलना होता था. चार बजे के आस पास, ४ रुपये की चाय. नियमित फोन करता था बैरी – ‘आइये भैया नीचे, चाय पी कर आते हैं’. मुझे उस दूकान की चाय अच्छी लगने लगी थी. बिरेंदर को अच्छी नहीं लगती.
‘अबे ! फिर तीता बना दिया है? है न भैया?’ - मेरी तरफ देखते हुए बिरेंदर ने पूछा.
‘हम्म…. हाँ, पर ठीक है' - मुझे ताज़ी पत्तीयों की खुशबू लिए कम देर तक उबली चाय अच्छी लगती. मैं चाय का शौक़ीन तो नहीं पर मुझे लगता है कि चाय अच्छी-बुरी नहीं होती. पीने वाले पर निर्भर करती है. कितना दूध, कितनी पत्ती और कितनी देर तक उबाली जाय. इन सबका अपना व्यक्तिगत पैमाना होता है ! चाय बनाने के सबके अपने-अपने तरीके भी होते हैं. चाय के शौकीनों को एक-दूसरे की बनाई चाय अच्छी नहीं लगती ! वैसे बैरी कहता है कि लोग जैसे-जैसे ‘बड़े आदमी' बनते जाते हैं – ‘ब्लैक टी' की तरफ बढते जाते हैं. चीनी और दूध दोनों की मात्रा कम करते जाते हैं. ज्यादा बड़े लोग बिना शक्कर बस ब्लैक ही ‘परेफर’ करते हैं.
उस दिन मुझे जुकाम हुआ था. जुकाम हो तो मेरी आँखें ज्यादा परेशान होती हैं…. सूजी हुई, लाल और अनवरत आंसू ! कुल मिला कर हालत ऐसी होती है कि जो भी मेरी हालत देख ले उसे चिंतित होने का अभिनय तो करना ही पड़ता है. और फिर बैरी तो… जान लड़ा देने वाला इंसान है.
बैरी ने कहा ‘भैया, आज कॉफी पी लीजिए. छोटू, एक अच्छी कॉफी बना के ले आ’.
‘… दूध ज़रा कम डालना.’ - मैंने चाय वाले से कहा. उससे दो दिन पहले कॉफी किसी तरह पी पाया था.
‘सर ! त काफी बनेगा कैसे? काफी त दूध में ही नू बनता है ?!’ - चाय वाले ने कहा.
बैरी ने उसे मना कर दिया. ‘चलिए भैया… आज आपको बढिया काफी पीला के लाते हैं.’ बैरी अपनी बाइक ले आया और ५ मिनट में हम मोना सिनेमा पंहुच गए. और… यहाँ भी सभी बैरी को पहचानते थे. बीच में एक लड़का दिखा तो बैरी चला गया. २ मिनट बाद आया तो हंसते-हंसते लोट-पोट. मैंने पूछा ‘क्या हुआ?’
‘कुछ नहीं भैया, उ जो लड़का था न, मेरा दोस्त है. यहीं मोना में टिकट काउंटर प रहता है, बोलता है कि भैया को बोलो… काहे पहने हैं इ सब फूटपाथ वाला कपरा… आ इ चाइना मोबाईल काहे लिए हैं?’
‘हा हा' - मुझे बात समझ में नहीं आई. और कई बार ना समझ में आये तो साथ हंस देना एक अच्छा उपाय होता है.
बैरी ने समझाया ‘इ जो ए एक्स लिखा है न आपके टी-शर्ट पर इ यहाँ फूटपाथ पर ही मिलता है. इ हो गया… फिर से… केल्विन क्लेन हो गया… इ सब फूटपाती कपरा है पटना का. आ फोन तो टच स्क्रीन बड़ा… माने चाइना मोबाईल ही होगा.’
तब तक हमारी कॉफी आ गयी. ‘आछे, एक ठो बात का बुरा मत मानियेगा भैया. लेकिन ऐसा नहीं है आजकल ऑफिस में सब काफी इसलिए पीता है कि इसी बहाने एक ठो ब्रेक मिलेगा?’
‘नहीं नहीं, ऐसा नहीं है. कई लोग तो अपने डेस्क पर ही कॉफी पीते हैं.’
‘अरे ! लेकिन लाने त जैबे करेगा. अब देखिये… मजदूर सब एतना खैनी काहे खाता है?’
‘नशा है !’
‘अरे नहीं भैया. नशा तो खैर हैये है. लेकिन इसी बहाने उसको दस-पन्द्रह मिनट का बरेक मिल जाता है. पाँच मिनट बनाएगा, बांटेगा… ऐसे करके सब मटिया लेता है… वइसेही आजकल काफी का फैसन है. अपना ऑफिस से निकले १० मिनट टाइम पास किये… काफी बरेक !’
‘बात तो सही है तुम्हारी'
‘आछे , एक ठो और बात है. इ वाला काफिया आप पी कैसे लेते हैं?’
‘क्यों?’ मैंने पूछा.
‘एक बार हम भी पीये हैं… यही वाला. बहुते कड़वा होता है. एकदम जानलेवा… अइसा जहर जैसा चीज कोई काहे पीता है. हमको तो नहीं बुझाता है.'
‘अरे चीनी-दूध डाल लेते’ - मैंने हंसते हुए कहा.
‘चीनी-दूध? देखिये भैया ! एक ठो बात बोलें? इसमें पांचो लीटर दूध आ एको पौवा चीनी डाल दीजियेगा त आपको लगता है कि ई पीने लायक बन पायेगा? लेकिन अब कड़वाहट के लिए ही पीते हैं, यही कह दीजिए. सब कहता है कि नींद भाग जाता है, सर दर्द ठीक हो जाता है. अरे इहे नहीं कवनो जहर जैसा कड़वा चीज पी लीजिए…. त पीने के बाद १० मिनट तक तो अइसही माथा झनझनाते रहेगा… अईसा कड़वा मुंह में गया त कोई और टेंसन बचेगा? ! अरे यही काम नीम का पत्ता भी कर सकता है, करेला भी… नहीं तो दुई ठो मिर्ची चबा लीजिए… गारंटी है नींद भाग जाएगा. हा हा हा. है कि नहीं भैया ? लेकिन अब फैसन है तो है.’
‘हे हे हे. बोल तो तुम बिल्कुल सही रहे हो' मैंने हंसते हुए कहा.
‘ऐ जिम्बाज ! इधर आओ तनी...’ बैरी ने एक लड़के को बुलाया.
‘देख रहे हैं भैया. इ जिम्बाज है पटना का. अरे आओ न इधर… सर्माता काहे है, परनाम कर भैया को’ बैरी ने कहा. ‘दो मिनट में आया बीरेंदर भैया’ कहकर जिम्बाज कहीं चला गया तो बैरी ने आगे सुनाना शुरू किया ‘लौंडा बड़ा जिम्बाज है? जिम्बाज समझते हैं? जांबाज नहीं - जिम बाज. साला काम करेगा नहीं. आ जिम जाएगा. हमको देखिये… हम जानते ही नहीं है जिम होता क्या है !’ बैरी ने सगर्व बताया.
‘ज़माना बदल गया है भैया… अब देखिये न पहिले बाबूजी भोरे-भोर गाते थे. ‘जागिये ब्रजराज कुंवर पंछी बन बोले’… अब साला फोन का अलारम ही भजन कीरतन है. ‘जागिये ब्रजराज कुंवर घंटी टन-टन बोले’… सब जगह वही हाल है. हमरा मनेजर है…. जानते हैं… नहैबो करता है त फोन बगल में रखता है. सबसे पहिले खाली हाथ पोछ के एक बार फोनवा देख लेगा तब जाके बाकी देह पोछता है. पता नहीं साले को अइसा का चेक करना होता है हर दू मिनट में फोन जरूर देखेगा. और इ लईका सब तो एतना मेसेज करता है कि… मूतने भी जाएगा त एक हाथ से एसेमेस करते रहेगा… दूसरा हाथ त… हा हा… . सच्ची बोल रहे हैं भैया… अभीये इंटरवल में यहीं मोने में आपको दिख जाएगा…’ बैरी ने फोन पर कुछ टाइप करते हुए कहा.
‘लेकिन तुम भी तो इसी जमाने के हो?’ मैने हंसंते हुए पूछा.
‘नहीं भैया. हमलोग अभी भी…’ बैरी ने विस्तार से बताया कि वो कैसे नहीं है अपनी उम्र के बाकी लड़कों के जैसा.
‘यार बिरेंदर कुछ भी हो तुम बात बहुत सही कहते हो, एकदम ज्ञानी की तरह' मैंने कहा.
‘अरे नहीं भैया, हमलोग जमीन से जुरे आदमी हैं. और जहाँ तक ज्ञान का बात है तो एक बात जान लीजिए इ बिहार है यहाँ किसी को ज्ञान हो जाएगा. आपको क्या लगता है बुद्ध को यहीं ज्ञान क्यों मिला? आये अपना… इधर कुछ दिन… राजा आदमी थे… इधर आके लूटे-पीटे होंगे आ जब भूख से पटपटाये… हो गया ज्ञान !’ बैरी ने हंसते हुए कहा.
हम वापस आ गए. अभी बैरी की कई बातें याद आ रही हैं… नींद से उठते ही आँखों के सामने पहली चीज मोबाईल स्क्रीन होती है तो बैरिकूल की बातें याद आती हैं. और ये नया प्रभात मन्त्र:
फोनाग्रे वसते ट्विटर: फोनमध्ये जीमेलः| फोनमुले तू फेसबुक: प्रभाते कर फोन* दर्शनं ||
मुझे पूरा भरोसा है कि आप भी किसी ऐसे ‘आजकल के लोग’ को जानते हैं जो फोन में घुसे रहते है. लेकिन आप खुद ऐसा नहीं करते होंगे. …कई बार मुझे समझ में नहीं आता कि ये ‘आजकल के लोग' होते कौन हैं. क्योंकि सभी तो दूसरों को ही आजकल के लोग कहते हैं… खुद तो वैसे होते नहीं
~Abhishek Ojha~
बहुत दिन हो गए पटना से लौटे हुए. पटना सीरीज को १० तक ले जाने के लिए आज फिर बैरी को खींच लाये. संभवतः पटना सीरीज की आखिरी पोस्ट हो.
*सुधार के लिए आभार: आराधना चतुर्वेदी.