मैं बात कर रहा हूँ रिश्तों के एक झटके में मर जाने की. ये थोड़ा कठिन मसला लगता है, यहाँ अगर मौत हो भी गयी तो वापस जिंदगी डाली जा सकती है. क्या कहा आपने गाँठ पड़ जायेगी? नहीं ! मैं रहीम बाबा के 'टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए' से पूर्णतया सहमत नहीं हूँ. कम से कम एक झटके में सब ख़त्म तो नहीं हो सकता. अगर किसी गलतफहमी से चटक के टूट भी गया तो सच्चाई सामने आने पर क्या और और मजबूत नहीं हो सकता? अब ऐसा मसला है तो मन तो भटकेगा... खूब भटकेगा. कुछ बातें याद आ रही है...
संस्मरण 1: स्कूल के दिन... एक बच्चा (या किशोर?)
'मुझे तुमसे फिर कभी बात नहीं करनी !'.
अगर उस समय 'बेस्ट फ्रेंड' जैसा कोई चयन होता तो शायद उसका ही नाम आता, गर्लफ्रेंड का फंडा तब शायद इतने जोरों पर नहीं हुआ करता था. पर एक बार उसने ऐसा कहा और फिर कभी बात नहीं हुई. ये बात उसने क्यों कही थी अब तो ढंग से याद भी नहीं. वो बात जो अब याद भी नहीं वैसी किसी बात के लिए... ! एक झटके में ही सब ख़त्म हो गया था.
संस्मरण 2: कॉलेज तृतीय वर्ष... मुझे याद है एक बहुत अच्छे दोस्त के बारे में कुछ बुरा-भला कहा था मैंने. जब 4-6 लोग बैठे हों और कोई बात निकले तो दूर तलक चली ही जाती है. ये बात भी पीठ पीछे अपने दोस्त तक पंहुची और फिर गोल घूमकर मुझ तक आ गयी. मुझे एक बार फिर एक झटके में ही सब ख़त्म होता दिखा. 'भाई मैंने ऐसा कहा तो था... पर...'. इससे आगे उसने मुझे बोलने नहीं दिया. 'मैं तुम्हें 3 सालों से जानता हूँ वो ज्यादा विश्वसनीय है या कोई आकर तुम्हारे बारे में कुछ कह दे? या तुम कहीं किसी संदर्भ में यूँ ही कुछ कह दो उससे ये निर्धारित होगा कि तुम कैसे इंसान हो?'. ऐसी समझदारी हो तो फिर क्या डरना ! कुछ भी ख़त्म नहीं हुआ... बल्कि दोस्ती पुनः परिभाषित हुई.
संस्मरण 3,4,5...: 'ओह! तो ये बात थी!' ...ये कई बार हुआ. कई लोगों के साथ अलग-अलग संदर्भ में. एक स्पष्टीकरण के बाद कई बार रिश्ते बेहतर हुए, कई बार बिगड़े तो कई बार वैसे के वैसे ही रहे. परिणाम जो भी रहा हो एक-दूसरे की बात तो सुनी गयी खुले दिमाग से.
संस्मरण 0: अब एकदम अलग सी बात याद आ रही है. दसवी का एक छात्र. ये वो उम्र होती है जिसमें कुछ लोगों को परीक्षा में एक अंक भी कम पाना मंजूर नहीं होता और अक्सर हर परीक्षा के बाद वास्तविकता से समझौता करना पड़ता है. प्री-बोर्ड... गणित का पेपर... एक रैखिक समीकरणों के समूह को हल करने का सरल सवाल. हड़बड़ी में 35 कि जगह 15 लिख दिया और फिर जूझता रहा. अंततः दो पन्नों में सचित्र ये समझा आया कि सवाल का हल संभव नहीं है ! परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही... 15,35 ! ओह ! ओह ! (आज की बात होती तो... फSSSS*!.. तीन चार बार ज़ोर से) उस समय की हालत तो बस सोची जा सकती है... उसके बाद कई परीक्षाओं में ऐसी गलतियाँ होती रही. पर कोई उस कदर याद नहीं. जब भी याद आता है एक कसक, एक टीस उठती है मन में. शिक्षक के पास गया तो पता चला प्री-बोर्ड का पेपर कोई और चेक करेगा... वो भी बोर्ड स्टाइल में. उसकी मर्जी चाहे तो पढ़े. वैसे उसे क्या पड़ी है जो दो पन्ने पढ़े और ढूँढे कि कहीं 35 की जगह 15 हुआ है. और वैसे भी साफ़-साफ़ गलत है... आधे पन्ने के सवाल के लिए 2 पन्ने? सन्न रह गया था मैं... शून्य मिलेगा ! एक बार फिर सीधे-सीधे गलत था मैं. 100 नंबर आने का अरमान तो ख़त्म हो गया पर इंसानी आदत... एक आस बनी रही... कुछ नंबर तो मिल ही जाएँगे. और एक ख्वाहिश बची रही अगर गलती से भी ध्यान से पढ़ लिया तो सामने वाला 'वाह' कह उठेगा. वैसे भी कोई कैसे शून्य दे सकता है... समीकरण पर पूरी महाभारत तो लिख आया हूँ ! अंततः उस सवाल में शून्य ही मिला... हमारी महाभारत सामने वाले सुनते कहाँ हैं?
मुझे इन सारे संस्मरणों में एक जैसी बात दिखती है. रिश्तों को जिंदा रखने की बात... संस्मरण 0 में मुझे असली दर्शन दिखता है. माफ कीजिएगा अजीब से उदाहरण हैं ये... लेकिन अब क्या करें ज़िदगी भर जिस कुएं में पड़ा रहा उदाहरण तो वही से आयेंगे न.
संस्मरण 0 की कई बातें दिमाग में घूम रही हैं. अभी भी लगता है 'क्यों अंक ठीक से नहीं पढ़े?'... वैसे सच कहूँ तो इस बात पर अब ध्यान नहीं जाता. ये गलती तो लगता है कि होनी ही थी. शायद इसलिये कि वो गलती खुद की थी. अपनी भूल/गलती कभी गलती लगती ही नहीं. अपने शिक्षक ने देखा होता तो क्या होता? मेरे दो पन्ने अगर सामने वाले शिक्षक ने पढ़ लिए होते तो? मतलब ये कि अगर सामने वाले हमारी तरह सोचने लग जायें या हमारी बात सुनने की कोशिश करें तो कितने अरमान पूरे हो जायें. कितने दिल टूटने बच जायें.
खैर इनसे ज्यादा दिमाग में वो चल रहा है जो उन दो पन्नों में लिखा था. अगर दो रैखिक समीकरण हैं तो तीन स्थितियाँ बनती हैं. कोई हल नहीं, अनंत हल या फिर एक अद्वितीय हल. समीकरण से बनने वाली रेखाएँ या तो समानांतर होती हैं या एक बिन्दु पर एक दूसरे से मिलती हैं या दोनों रेखाएँ समान ही होती है... अर्थात हर बिन्दु पर मिलती है. मेरे संस्मरण 1 में रेखाएँ कभी मिली ही नहीं... रिश्तों के समीकरण समानांतर ही रहे. संस्मरण 2 में रिश्तों के समीकरण एक ही थे एक दूसरे की हर बात समझते रहे कुछ भी हो जाये विवाद की गुंजाइस ही नहीं... बिल्कुल पर्फेक्ट. बाकी 3,4,5,... में एक हल निकला भले ही रिश्तों के समीकरण उसके बाद फैल गए हों (डाइवर्ज हो गए हों). आपस के विवाद कहीं न कहीं इन तीनों जैसे ही तो होते हैं. आपने एक गलती की... फिर लगता है कि अब कुछ भी संभव नहीं... सब ख़त्म.
एक गलती/गलतफहमी के बाद हम अपने दिमाग के पन्ने रंग डालते हैं 35 की जगह 15 मानकर. अभी भी सब कुछ वैसा ही होता है जैसा पहले हुआ करता था लेकिन अब हमें सब कुछ उल्टा दिखता है. सामने वाला पहले जैसा था उससे बिल्कुल अलग दिखने लगता है. उसकी हर बात अब जो कभी अपनी तरह दिखती थी अब समानांतर रेखा की तरह दिखने लगती है. वो हर बात जो अच्छी लगती थी अब दिखावा लगने लगती है. और फिर सामने वाला भी उन रंगे पन्नो को बोर्ड स्टाइल में ही तो देखता है... एक पूर्वाग्रह के साथ. और फिर जैसे मुझे 100 अंक नहीं मिले, रिश्ते भी परफेक्ट नहीं रह पाते. अगर एक बार सामने वाले के फ्रेम में जाकर सोच लें, थोड़ा समय देकर ये ढूँढ लाये कि कहाँ 35 का 15 हुआ है तो फिर... परफेक्ट मार्क्स के अरमान तो वैसे ही उस गलती के बाद नहीं रह जाते हाँ एक सुकून जरूर मिलता है. और साथ में एक अरमान कि अगर सामने वाला ढंग से पढ़ ले तो शायद 'वाह' कर उठे.
वैसे ये ट्रिगर बड़े क्षणिक होते हैं... अक्सर परीक्षा कक्ष से निकलते ही, कई बार कुछ दिन बाद, फिर से सवाल पढ़ने पर, कई बार उत्तर पुस्तिका देखने पर पता चलता है... पर जैसे ही पता चलता है... ओह ! सब ख़त्म हो गया ! (वॉट द फ* हैव आई डन?, माफ कीजिएगा आजकल यही वाली लिने फैशन में है). लेकिन तीर से निकले बाण, मुँह से निकली बोली वाले स्टाइल में ही... आजकल एक माऊस क्लिक से भेजे गए ईमेल और सेंड बटन से भेजे गए एसएमएस... गया तो गया.
अब ऐसे हालात में बस जरूरत है रंगे हुए पन्ने जो उल्टी राह दिखाते हैं, में से उस बात को ढूँढ निकालना जिससे गलतफहमी की शुरुआत हुई. एक ट्रिगर से रिश्ते मरने लगे तो बुरा लगता है पर अगर हम किसी को संस्मरण 2 वाले लोगों के वर्ग में सोचते हो और वो किसी मोड पर समानांतर हो निकल जाये तो फिर ज्यादा दुख होता है.
निष्कर्ष: कुल मिलकर अगर रिश्ते एक ट्रिगर से मरने लगे तो बेहतर है कि उन्हें हल करने कि कोशिश की जाय. जरूरी नहीं की गाँठ पड़ ही जाये. सामने वाले की बात सुनकर उसके बाद भले ही अपनी राह निकल लें. वैसे भी हम सब को एक निर्धारित K वर्ष की जिंदगी मिली है जो हर क्षण (K-X) होती जा रही है. इस क्षय हो रही जिंदगी और बम-धमाको की दुनिया में X कब K हो जाये कोई नहीं जानता ! फिर काहे को टेंशन पालना? वरना एक कसक, एक टीस उठती रहेगी मन में... इससे तो बेहतर है कि सच्चाई जानकर अपने समानांतर रास्ते चुन लिए जाय.
मैं सोच रहा हूँ अपने छोटे से वृत्त में से गुजरने वाले रिश्तों को संस्मरण 2 की तरह बनाया जाय... अगर वो संभव नहीं तो हल करने की कोशिश की जाय... दूसरे एक्सिस का सहयोग मिले न मिले.
... यकीन मानिए किसी के बारे में सोची गयी बातें और वास्तविकता में बहुत फर्क है !
अपडेट 1: अभी मेरे सोने का वक्त हुआ है और पोस्ट ठेलने से पहले वैसा ही एक ट्रिगर मिला जिसने ये पोस्ट लिखवा डाली. जय हो गूगल के बज़ बाबा की. इतनी कम उम्र में इतने कहर ढा रहे हैं. आप खुद देखिये.
अपडेट 2: 7 तारीख को कुछ घंटो के लिए एक शादी के सिलसिले में लखनऊ जाना हुआ. लखनऊ शहर से ज्यादा तो एयरपोर्ट पर ही रहा इसलिये किसी को बताना सही नहीं लगा, लखनऊ वालों रिश्ता तोड़ने का मन हो रहा हो तो पोस्ट एक बार फिर पढ़ लो :) ना समझ में आए तो फिर... अब ऐसी सजा पर भी नाराज हैं तो कहिए? सोमवार को 3 दिन गोवा में बिताकर लौटा हूँ, पुणे में रहने के कारण मेरे जानने वालों के खूब फोन आए ये पता करने को कि जिंदा हूँ या नहीं ! सोमवार से तीन दिन के लिए रूडकी-देहरादून जा रहा हूँ. और अपडेट दूँ क्या...? फोकट में लिखे जा रहा हूँ... क्या फर्क पड़ता है ! मैं हैप्पी हूँ आप भी रहिए, हैप्पी रहने के लिए कारण जरूरी है क्या? !
~Abhishek Ojha~