Aug 24, 2016

ग्रीक म्यूजिक (यूनान ३)


यादें धुंधली पड़ती जाती हैं. अच्छी-बुरी सब. कुछ यादें स्थायी जैसी होती तो हैं - पर स्थायी नहीं. कुछ उड़ते समय अवशेष छोड़ जाती हैं - रसायन में जिसे अवक्षेप कहते हैं - प्रेसिपिटेट. जिन बातों के होते समय लगता है कि ये अनुभव तो कभी नहीं भूल सकते - सवाल ही नहीं उठता ! ... वो अनुभव भी धुंधले हो ही जाते हैं - एवरी एक्साइटमेंट हैज अ हाफ लाइफ !  

कई बार खुद की डायरी में लिखे नोट्स पढ़ते हुए लगता है कि लिखना क्या चाहा था? लिखावट उतनी बुरी भी नहीं कि खुद का लिखा न पढ़ पाएं पर लिखते समय अक्सर बस एक दो शब्द लिख जाता हूँ...  क्योंकि उस समय तो ऐसा लगता है जैसे ये घसीट कर लिखे हुए शब्द देखते ही सब कुछ आँखों के सामने घूम जाएगा. पर बहुत दिन बीत जाए तो कई बार खुद ही नहीं जोड़ पाता उन शब्दों को !  डायरी पलटा तो  "ग्रीक म्यूजिक? :)" सिर्फ इतना ही लिखा है एक पन्ने पर. पर ये दो शब्द बहुत हैं याद दिलाने को कि हुआ क्या था. वैसे यात्रा में जो बुरे अनुभव होते हैं वो याद रह जाते हैं कोई बचकानी हरकत, कोई समस्या, शर्मिंदगी, फँस जाना - वगैरह. ऐसी बातें हर यात्रा में होती हैं. और जैसे जिंदगी का हर सपना पूरा हो जाने के बाद ओवररेटेड लगने लगता है, वैसे ही हर उलझन से निकल जाने के बाद वो परेशानी हलवा लगती है और हम बाद में उसे चाव से सुनाते हैं. वैसे ये बहुत छोटी सी बात थी.

कहीं जाने के पहले बजट-टाइम कन्स्ट्रेन्स के साथ सोचना पड़ता है कि कहाँ-कहाँ जाएँ. गूगल अपनी जगह है पर किसी जगह के बारे में वहां के लोगों से पूछो तो वो बड़ी ख़ुशी से बताते हैं. किसी को उसकी 'अपनी' जगह के बारे में बताते हुए सुनने में एक अलग खूबसूरती होती है. इतनी ख़ुशी और गर्व होता है बताने वाले के चेहरे पर कि...

मुझे भी एक ग्रीक-दोस्त ने जगहों का विस्तृत ब्यौरा पहले बताया फिर लिखकर भी भेजा. कहाँ जाना, क्या देखना, कहाँ रुकना, क्या खाना, क्या करना, क्या नहीं करना... पर उसने सब कुछ कुछ इस तरह बताया मानो ऑप्टिमाइजेशन बिना किसी कन्स्ट्रेन सोल्व करना हो. बजट और टाइम की फ़िक्र किये बिना !  मुझे उनका विस्तार से बताना और फिर काट-छांट के बनायी गयी यात्रा ! ऐसे याद रहा कि कुछ दिनों पहले जब किसी ने मुझसे पूछा 'भारत देखने के लिए कितने दिन चाहिए'. तो मुझे समझ नहीं आया क्या जवाब दूं. बताने बैठो तो पुराण लिखना पड़ जाए. मैंने कहा 'सवाल गलत है - तुम बताओ तुम्हारे पास कितने दिन हैं और तुम्हें कैसी जगहें पसंद हैं'. ये बात दुनिया के हर जगह के लिए सच है. मुझे नहीं पता लोग कोई भी देश या पूरा यूरोप कैसे देख आते हैं एक सप्ताह में। ग्रीस में भी दो सप्ताह जैसी समय सीमा में बहुत कम देखा जा सकता है. जगहें भी अलग अलग तरह की. हर कदम - इतिहास और मिथ नहीं तो प्राकृतिक खूबसूरती - क्या देखें-क्या छोडें ! फिर जैसे कोई पूछे कि... गोवा के अलावा कहाँ कहाँ जा सकते हैं भारत में. तो अक्सर हम कहेंगे ही कि... 'और भी अनगिनत अच्छी जगहें हैं ! गोवा खुबसूरत है - पर उससे भी अच्छी जगहें हैं'. एक ही जगह के लिए - 'इट्स अ मस्ट सी' से लेकर '... 'वी हैव बेटर प्लेसेस...' जैसे सुझाव दिए थे लोगों ने. पर कुछ जगहें हर लिस्ट में निर्विवाद थी तो वहां जाना ही था! -जब बहुत सारे कंस्ट्रेन हों तो कॉमन मिनिमम एजेंडा टाइप कुछ निकल ही आता है.

मिथ और खंडहरों से भरा पड़ा है ग्रीस - संरक्षित और जानकारी से भरपूर. ग्रीक के द्वीप दुनिया के सबसे खुबसूरत द्वीपों में आते हैं. ये दो सबसे बड़े कारण हैं जिससे ग्रीस हर साल अपनी जनसँख्या के दोगुने से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है. इसके बाद भी अर्थव्यवस्था... :)  इकॉनमी फिर कभी.

अगर आप कहीं घुमने जा रहे हैं तो कोई होना चाहिए जो आपको खंडहरों से खींच कर खूबसूरत जगहों पर भी ले जाए. और अगर आप खुबसूरत जगहों के शौक़ीन हैं तो कोई चाहिए जो आपको खींच कर खँडहर और संग्रहालयों में ले जाय. समुद्र-झील-पहाड़-घाटी श्रेणी की खुबसूरत जगहें प्रेमचंद की कहानियों की तरह होती हैं - सदाबहार -सुपरहिट. मुझे अब तक कोई नहीं मिला जिसे पसंद न हो. पत्थरों, खंडहरों और म्यूजियम कुछ लोगों को ही पसंद आ पाते हैं 'घुमने जाते हो कि पढने?' टाइप के लोग. अपनी-अपनी पसंद. और बहुत प्रसिद्द जगह हो तो भी ये जरुरी नहीं कि वो वहां के निवासियों की भी पहली पसंद हो. कई जगहें पर्यटकों के लिए खूब विकसित की गयी हैं . सब कुछ वैसा ही जैसा पर्यटकों को चाहिए - एक तो खूबसूरत ऊपर से सिंगार !  - संतोरिणी.

यूनान - डेमोक्रेसी, रोमन लिपि, गणित, दर्शन, खगोल, ट्रेजेडी, कॉमेडी, खेल, युद्ध, जीयस, वीनस, अपोलो, ओरेकल, अगोरा, अकिलीस, ओडीसस, सिकंदर, पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, ओलंपिक, मैराथन, काठ का घोडा  - अनगिनत - पश्चिमी सभ्यता का सबकुछ. पढ़ते रहो तो ख़त्म न हो घूमते रहने से कहाँ हो पायेगा !

खैर.. लोगों से उनके देश के बारे में पूछने से होने वाली ख़ुशी की ही तरह एक और ख़ुशी होती है  जब आप उस देश की भाषा (अंग्रेजी छोड़कर) बोलने की कोशिश करते हैं. टूटी फूटी ही सही. मुझे ग्रीक नहीं आती पर...  मैंने बस स्टैंड पर जोड़-जाड के पढ़ा ΚΤΕΛ क्टेल? Δρομολόγια - डेल्टा-रो-ओ-म्यु-लैम्ब्डा-गामा-आयोटा-अल्फा - ड्रोमो... ड्रोमो-लोगिया.... ड्रोमोलोग्या ?

'यू स्पीक ग्रीक?'

मैंने कहा नहीं... पर अक्षर पढ़ लूँगा (इस कार्टून की तरह) - ग्रीक लिपि में
एक अक्षर नहीं जो गणित-विज्ञान में इस्तेमाल न होता हो - एक भी नहीं. सिग्मा, थीटा, अल्फा, बीटा, पाई, टाऊ, ओमेगा... वगैरह वगैरह. ग्रीक लिखा हुआ देखकर लगता है किसी नौसिखिये ने फार्मूला लिखने की कोशिश की है. और सारे सिंबल की खिचड़ी बना दी है. पता नहीं बस स्टैंड पर खड़े उस आदमी को पता था या नहीं कि दुनिया में कहीं भी मैथ-फिजिक्स-इंजीनियरिंग के सिंबल ग्रीक अक्षरों में ही लिखे जाते है. पर वो खुश बहुत हुआ. उसने बताया - कटेल यानि बस. और द्रोमोलोग्या माने टाइम टेबल. मुझे ग्रीक पढने में मजा आता. जैसे नया नया पढ़ना सीखे बच्चे सब कुछ पढ़ डालते हैं - बिना मतलब पता हुए. सारे अक्षर पहचान के थे, मतलब कुछ नहीं पता था. κέντρο मैंने एक बोर्ड देखकर पढ़ा - केंत्रो. टैक्सी वाले ने सुधारा -  केद्रो जैसा कुछ कहा उसने. मतलब बताया सेंटर. तब चमका मुझे - केन्द्रो-केंद्र-सेंटर. यूँही तो नहीं हो सकता एक ही शब्द. ॐ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती. नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरू टाइप लगा ॐ संस्कृते च ग्रीके चैव लैटिनं ... टाइप कभी रहा होगा. वीनस सरस्वती हों न हों, इंद्र जीयस हो न हो... केंद्र तो केंद्र होगा ही ! यहाँ से वहां गया हो या वहां से यहाँ आया हो.

 'ग्रीक म्यूजिक?'  - इन दो शब्दों में छुपी कहानी पर वापस आते हैं.  इटरनल, स्पिरिचुअल, खुबसूरत - वगैरह वगैरह कैप्शन वाली जगहें हम भूल सकते हैं पर ऐसे अनुभव नहीं. हुआ यूँ कि इतिहास-खँडहर-पत्थर वाले इंसान को 'व्यू' वाली हाई-फाई जगहों का अनुभव तो वैसे ही नहीं. तो ऐसी जगह जाने पर हर चीज देखकर हम मान लेते हैं -  बड़े लोग हैं  ऐसा ही करते होंगे !  और फिर जितनी सभ्यता-शिष्टता से अपने आप को समेट कर रख सकते हैं रखते हैं. तो ऐसा ही कुछ हुआ एक बड़े लोगों वाले रेस्टोरेंट में. मद्धम मद्धम रौशनी. अभी अभी सूर्यास्त हुआ था. व्यू के साथ सिंगार-पटार वाली जगह. दो संगीतकार टाइप के लोग संगीत बजा रहे थे. अब अच्छा संगीत तो वैसा होता है जो सबको ही अच्छा लगता है. कोई भी बाजा हो - देश-काल-भाषा के इतर. अच्छा संगीत बस अच्छा संगीत होता है.  हमें भी बहुत अच्छा लग रहा था. नाचने-गाने-थिरकने वाली कैटेगरी वाले तो नहीं हैं पर बैठे बैठे पैर वैसे हिल रहे थे.. जैसे हिलाने पर डाँट पड़ती है - 'पैर मत हिलाओ'. थोड़ी देर में वो घूम घूमकर बजाने लगे. हमें देख उन्हें शायद कुछ ज्यादा अच्छा सा लगा होगा. स्पेशल टाइप. सो वो आ गए हमारे टेबल के पास.  बजाने लगे... हम बहुत खुश हुए. माने... बता नहीं सकते. हर टेबल से तुरत ही चले जाते। हमारे यहाँ जम से गए. हम विडियो भी बनाए. ताली भी बजाये. वो भी एक दम लीन होकर  भाव भंगिमा के साथ बजाये. फिर उन्होंने फरमाइसी संगीत का कार्यक्रम टाइप भी किया और पूछा - 'ग्रीक म्यूजिक? ग्रीक म्यूजिक?' सर हिलाते हुए - सिर्फ दो शब्द। और सर ऐसे गिरगिट की तरह हिलाते रहे...  मानों उनको उतनी ही अंग्रेजी आती हो जितनी हमें ग्रीक.

हम भला क्यों मना करते !

थोड़ी देर बाद हमें लगा अब कुछ ज्यादा हो रहा है. हमारे पास ही ये क्यों बजाये जा रहे हैं ! उनकी मुस्कान भी तल्लीनता से लेफ्ट टर्न लेकर इस मुद्रा में आ गयी थी कि ...वो भी कुछ वैसा ही सोच रहे थे जैसा हम. तब मुझे पहली बार लगा कि इन्हें कुछ देना होगा. तब लगा कि शायद बाकी जगह लोगों ने उतना भाव नहीं दिया या तुरत कुछ दे दिया होगा ! इन दो बातों का उनका इतनी देर तक बजाने और इतने अच्छे से बजाने में जरूर ज्यादा योगदान रहा होगा. हम कितने स्पेशल लग रहे थे वो दिल बहलाने का ग़ालिबी  ख्याल साबित हो गया. खैर ये कोई बात नहीं जो याद रह जाए... बात तब हुई जब हमने जेब टटोला.

जेब खाली तो नहीं थी पर...

ग्रीस हम गए थे ये सोच कर कि - यूरोप है ! हर जगह कार्ड चलेगा. ग्रीस ऐसा है कि एक तो कार्ड कोई नहीं लेना चाहता (कैपिटल कण्ट्रोल भी था तब पर लोगों ने बताया कि बिना उसके भी यही हाल रहता है). जहाँ कार्ड लेते भी वहां - कार्ड से इतना, कैश से उतना का हिसाब. और ये उतना इतने से हमेशा कम. अब दुनिया का कोई भी कोना हो दिमाग एक्सचेंज रेट लगा तुरत जोड़-घटाव कर लेता है  कि कितना घाटा-फायदा हो रहा है. तो हमने उसी शाम कैश तो निकाल लिया था. लेकिन 'जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि' की तरह हमारे  पास १०० यूरो से नीचे कुछ था नहीं. अमेरिका में २० डॉलर से ज्यादा के नोट कभी एटीम से निकलते देखा नहीं. या कभी सौ से ज्यादा कैश निकाला हो ये भी याद नहीं. भारत होता तो वैसे ही कोई जुगाड़ निकल आता. खैर... ऐसे मौके पर दिमाग तुरत हिंदी पर आ जाता है. जीटा-थीटा थोड़े करोगे आपस में अब. हमने अपने साथी से पूछा तो वहां भी यही हाल था. हाथ में वॉलेट लिए.. अब हम बेशर्मी वाली मुस्कान के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे. छुट्टा भी नहीं पूछ सकते थे -कलाकार की बेइज्जत्ती हो जाती. हमने एक बार मुस्कुराया.. वो दोनों जो एक वायलिन सरीखा और एक कोई ग्रीक बाजा लिए थे.. मेरे हाथ में बटुआ देख और जोश में बजाने लगे. वो हमें देख मुस्कुराते, हम उन्हें.. ये सिलसिला कुछ देर तक चला. माने हमारे ऊपर थोड़ी देर तक पानी पड़ा जब तक उन्हें समझ आया... अब उन्हें जो भी समझ आया हो.  थोडा बहुत हमें भी समझ आया और हम उठकर काउंटर पर छुट्टा पूछने गये. पर वो अपनी समझ से दूसरी तरफ निकल लिए. मुझे लगा वो इसी  रेस्टोरेंट में काम करते होंगे पर वो निकल कर चले ही गए. माने अब... हम लिखने में इतने सिध्हस्त तो हैं नहीं कि वोसीन लिख सके. यूँ समझ लीजिये... दोनों पार्टियों की ख़ुशी परवर्तित हो रही हो दिमाग की झुंझलाहट में और चेहरे पर मुस्कान बनी रहनी चाहिए! बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ. तो कैसा दृश्य रहा होगा. इससे ज्यादा मैं नहीं लिख सकता. :)

आप  कहेंगे ये भी कोई सोचने की बात हुई.. उनसे अब कौन सा फिर से मिलना है. पर वो क्या है न कि... इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी कहती है... किसी और पोस्ट में.

ये पोस्ट भूमिका में ही ख़त्म होने की सी लंबाई को प्राप्त हो गयी !

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~Abhishek Ojha~