Jul 7, 2009

बारिशाना मौसम में शून्य दिमाग !

झम-झम-झम-झम मेघ बरसते हैं सावन के
छम-छम-छम गिरती बूँदें तरुओं से छन के
चम-चम बिजली चमक रही रे उर में घन के
धम-धम दिन के तम में सपने जगते मन के

ऐसे पागल बादल बरसें नहीं धरा पर
जल फुहार बौछारें धारें गिरती झर-झर
उड़ते सोन-बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन
घुमड़-घुमड़ फिर मेघ गगन में भरते गर्जन

वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख-गायन
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन

रिमझिम-रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर
रोम सिहर उठते, छूते वे भीतर अंतर
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर
रज के कण-कण में तृण-तृण की पुलकावलि भर
पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन
आओ रे, सब मुझे घेर कर गाओ सावन
इंद्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन
फिर-फिर आए जीवन में सावन मन-भावन

- सुमित्रानंदन पंत (साभार)

काफी इन्तजार के बाद आखिर बारिश होने ही लगी. उजड़ कर गंजे हो चुके पहाडों पर हरियाली लौटने लगी है. काले-सफ़ेद उमड़ते-घुमड़ते बादल, चमकती बिजली, पहाड़, हरियाली, सडकों पर पड़ती बूंदें... ! अब सुमित्रानंदन पंत ने तरुओं से छनते हुए बूंदों का जिक्र किया. हमें तो बिल्डिंग, सड़कें, नंगे चट्टानों... गाड़ियों और कंक्रीट पर ही बूंदें गिरती दिखाई देती है. कल्पना शक्ति जैसी कोई चीज तो अपने पास है नहीं. फिर भी कंक्रीट और गाड़ियों से टकराती हुई बूंदें भी मनभावन ही लगती हैं.

बारिश से लगाव कब हुआ याद नहीं ! बारिश में भीगने का मन हमेशा करता है. अब जेब में मोबाइल और बटुआ जैसी बाधाएं हो तो भी मन तो करता ही है. पर वो दिन कुछ और ही थे जब बारिश में... घुटने तक पानी पार करते हुए स्कूल के बस्ते को पानी में तैराते हुए घर लौटते ! सेट बोरिस स्कूल का 'बोरिस' कुछ लोगों के लिए रेनकोट होता तो बाकी लोगों के लिए सिर्फ बस्ते को बचाने के काम में आता. और उसके पहले तो बस्ते के नाम पर काठ की एक पटरी हुआ करती जो पानी में मस्त तैरती. शायद तभी से भीगने में मजा आने लगा था. हाँ तब ये कविता नहीं पढ़ी हुई थी पर बुँदे जरूर पत्तों से छन कर गिरती. स्कूल से घर Puneतक बीच में बगीचा ही था कुछ २ किलोमीटर तक. अब डायरेक्ट बुँदे गिरती हैं... छनने का झंझट लगभग ख़त्म हो चला है. सीधे गाडी के शीशे से टकराती हैं. तब जमा हुए पानी में पटरी तैराने में मजा आता, ठीक से याद नहीं कि वो भी इतना ही गन्दा होता जितना सड़क पर जमा पानी जिसे देख कर अब चिढ होती है.

चीजें बड़ी तेजी से बदलती हैं... ! तब बारिश में भीगते हुए और छींटे उडाते हुए दिमाग शून्य हो जाया करता था... बिल्कुल खाली... निशब्द ! बस एक अजीब सा सुकून... आनंद बचा रह जाता. अब भीगने पर भी वो अनुभूति नहीं होती. बीमार हो जाने की चिंता तो अब भी नहीं सताती. पर दिमाग शून्य नहीं हो पाता... अब भीगते हुए... दिमाग में मणिरत्नम की फिल्मों के बारिश के सीन चलते हैं... नायकन का मुंबई की बारिश वाला सीन सबसे ज्यादा. अब 'सिंगिग इन द रेन' याद आता है. नौवी क्लास की हिंदी पुस्तक में पढ़ी सुमित्रानन्दन पंत की ये कविता याद आती है जिसे मैंने बक्से में बंद किया है. पर दिमाग शून्य नहीं हो पाता.

दो दिन पहले रात को करीब ग्यारह बजे रेनकोट में पैक, बाईक से घर लौटते हुए अचानक मूड बदला... बाईक रोकी... रेनकोट समेत मोबाइल और बटुआ पीठ पर लदे बैग में ठूंस दिया और... भीगते हुए लौटा. फिर काफी देर टहलता रहा. उतने समय तक दिमाग ने बूंदों और बरसात के अलावा कुछ और नहीं सोचा ! यानी 'लगभग' शुन्य अवस्था ! वैसे तो समुद्र के किनारे और किसी मनोरम दृश्य वाली पहाड़ी के ऊपर ही ऐसी अवस्था में दिमाग पहुच पाता है जब और कुछ नहीं सोचता. तेज मन भी जैसे रुक जाता है...

'पगला गए हो का बे? बीमार पड़ जाओगे !' ये सुनकर सपना टूटा और आ गया वापस 'अपनी' दुनिया से 'अपनी' दुनिया में. अगली सुबह थोडा गला कुछ ढीला हुआ और थोडी थकान. पर बीमार नहीं पड़ा :) यूँ तो आजकल अक्सर मन करता है भीगने का. पर 'फोर्मल ड्रेस' में घुसा हुआ ऑफिस आ जा रहा इंसान अगर मन की ऐसी बातें मानने लगे तो सिरफिरा कहलायेगा. वैसे कभी-कभी ऐसी लंठई करने का अपना ही मजा है ! वैसे आपको भी बारिश से इतना लगाव है क्या?

~Abhishek Ojha~