झम-झम-झम-झम मेघ बरसते हैं सावन के ऐसे पागल बादल बरसें नहीं धरा पर वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन रिमझिम-रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर - सुमित्रानंदन पंत (साभार) |
बारिश से लगाव कब हुआ याद नहीं ! बारिश में भीगने का मन हमेशा करता है. अब जेब में मोबाइल और बटुआ जैसी बाधाएं हो तो भी मन तो करता ही है. पर वो दिन कुछ और ही थे जब बारिश में... घुटने तक पानी पार करते हुए स्कूल के बस्ते को पानी में तैराते हुए घर लौटते ! सेट बोरिस स्कूल का 'बोरिस' कुछ लोगों के लिए रेनकोट होता तो बाकी लोगों के लिए सिर्फ बस्ते को बचाने के काम में आता. और उसके पहले तो बस्ते के नाम पर काठ की एक पटरी हुआ करती जो पानी में मस्त तैरती. शायद तभी से भीगने में मजा आने लगा था. हाँ तब ये कविता नहीं पढ़ी हुई थी पर बुँदे जरूर पत्तों से छन कर गिरती. स्कूल से घर तक बीच में बगीचा ही था कुछ २ किलोमीटर तक. अब डायरेक्ट बुँदे गिरती हैं... छनने का झंझट लगभग ख़त्म हो चला है. सीधे गाडी के शीशे से टकराती हैं. तब जमा हुए पानी में पटरी तैराने में मजा आता, ठीक से याद नहीं कि वो भी इतना ही गन्दा होता जितना सड़क पर जमा पानी जिसे देख कर अब चिढ होती है.
चीजें बड़ी तेजी से बदलती हैं... ! तब बारिश में भीगते हुए और छींटे उडाते हुए दिमाग शून्य हो जाया करता था... बिल्कुल खाली... निशब्द ! बस एक अजीब सा सुकून... आनंद बचा रह जाता. अब भीगने पर भी वो अनुभूति नहीं होती. बीमार हो जाने की चिंता तो अब भी नहीं सताती. पर दिमाग शून्य नहीं हो पाता... अब भीगते हुए... दिमाग में मणिरत्नम की फिल्मों के बारिश के सीन चलते हैं... नायकन का मुंबई की बारिश वाला सीन सबसे ज्यादा. अब 'सिंगिग इन द रेन' याद आता है. नौवी क्लास की हिंदी पुस्तक में पढ़ी सुमित्रानन्दन पंत की ये कविता याद आती है जिसे मैंने बक्से में बंद किया है. पर दिमाग शून्य नहीं हो पाता.
दो दिन पहले रात को करीब ग्यारह बजे रेनकोट में पैक, बाईक से घर लौटते हुए अचानक मूड बदला... बाईक रोकी... रेनकोट समेत मोबाइल और बटुआ पीठ पर लदे बैग में ठूंस दिया और... भीगते हुए लौटा. फिर काफी देर टहलता रहा. उतने समय तक दिमाग ने बूंदों और बरसात के अलावा कुछ और नहीं सोचा ! यानी 'लगभग' शुन्य अवस्था ! वैसे तो समुद्र के किनारे और किसी मनोरम दृश्य वाली पहाड़ी के ऊपर ही ऐसी अवस्था में दिमाग पहुच पाता है जब और कुछ नहीं सोचता. तेज मन भी जैसे रुक जाता है...
'पगला गए हो का बे? बीमार पड़ जाओगे !' ये सुनकर सपना टूटा और आ गया वापस 'अपनी' दुनिया से 'अपनी' दुनिया में. अगली सुबह थोडा गला कुछ ढीला हुआ और थोडी थकान. पर बीमार नहीं पड़ा :) यूँ तो आजकल अक्सर मन करता है भीगने का. पर 'फोर्मल ड्रेस' में घुसा हुआ ऑफिस आ जा रहा इंसान अगर मन की ऐसी बातें मानने लगे तो सिरफिरा कहलायेगा. वैसे कभी-कभी ऐसी लंठई करने का अपना ही मजा है ! वैसे आपको भी बारिश से इतना लगाव है क्या?
~Abhishek Ojha~
पन्त की कविता और आपका ललित लेख मिलजुल कर और मादक बन गए हैं -बारिश कहीं न कहीं हमारी आदिम इच्छाओं को हुलसाती है -क्योंकि वह लाखो साल से हमारे साथ है !
ReplyDeleteजी बिल्कुल है वर्षा और वर्षा ऋतु किसे नहीं सुहाती, वैसे बहुत रोचक लेख है।
ReplyDelete---
नये प्रकार के ब्लैक होल की खोज संभावित
खुबसुरत अभिव्यक्ति व रचना
ReplyDeleteमुझे तो है जी बारिश से ऐसा ही लगाव!!
ReplyDeleteबारिश का जिक्र, पंत की कविता और आपकी रम्य रचना- सब मिलजुल कर बारिश की बूँदों की मादकता का एहसास तो करा ही रहे हैं । आभार ।
ReplyDeleteपंत जी की रचना के साथ आपका यह आलेख एक मादकता पैदा करता है. ऐसा लगता है कि काली घटाओं के नीचे बैठे हों और सच मे ही बैठे हैं. आज हमारे यहां बहुत काली घटाएं छारही हैं . शायद बरसात आज हो ही जायेगी जमकर.
ReplyDeleteरामराम.
पंत जी दादा जी की कविता और ये लेख दोनों ही बहुत पसंद आये अभिषेक भाई :)
ReplyDeleteपंत जी की कविता बहुत सुंदर है। आप वाली लंठई करने का मन है, पर बारिश लौट कर तो आए।
ReplyDeleteरिमझिम -रिमझिम-रुनझुन -रुनझुन......
ReplyDeleteअब का, इसके बाद भी पूछेंगे का, कि बारिश कैसी लगती है ,लेकिन मानसून वाली न की भयंकर बिजलियों वाली.
बूंदें आकाश का संदेश हैं धरती के लिए,
ReplyDeleteतो मन ऊपर उठता है बारिश में भींग कर,
खोता है शून्य में,
और आनंद मिलता है शून्य का।
धरती की भागदौर से थका मन,
आकाश के शून्य में आनंद पाता है।
धन्यवाद्, आपके शब्दों में भींग कर,
बारिश का मज़ा आया और
कई पंक्तियों में शून्य भी हुआ मैं,
लेखन के सौंदर्य से।
पूरा ही भिगो दिया आपने ।।
ReplyDeleteवाह! वाह! अद्भुत पोस्ट.
ReplyDeleteऔर हमारा यही कहना है कि गणितज्ञ कविताई पर उतर आये तो अद्भुत कविता लिखता है.
बहुत सुंदर पंत जी की कविता के संग आप का लेख वाह वाह.
ReplyDeleteधन्यवाद
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमेरा मन बिल्कुल टेंजेंशियल गया। बचपन में एक पुस्तक पढ़ी थी सिंथिया बोल्स (भारत में अमरीकी राजदूत की बेटी) की। वह एक गरीब लड़की को चित्र बनाना सिखा रही थी। लड़की बार बार बुरूश (कूची के लिये) कहती और सिंथिया बार बार बाहर जा कर देखती कि बारिश तो हो नहीं रही है।
ReplyDeleteदोनो का हाथ भाषा में तंग था!
और इस साल हमारे यहां बारिश का वितान तंग है! :)
पन्त जी की कविता बहुत अच्छी है पर यहाँ तो बारिश हो ही नहीं रही है भीगे काइसे ?
ReplyDeleteबारिश में भीगने और झूमने की कल्पना जितनी रूमानी लगती है सच बताऊँ कि सचमुच का भींगना उतना अच्छा कभी नही लगा।
ReplyDeleteबारिश में भीगना तो खूब हुआ ही है...यहाँ तो आपकी लेखनी ने अंतर्मन तक को भीगो डाला और उपर से पंत साब की मेरी पसंदीदा कविता..अहा!
ReplyDeleteये आपने अलग से रंगीन बक्सा कैसे बनाया इस खास कविता के लिये?
अरे यार इधर अपन भी बारिश में झूम लिए
ReplyDeleteMujhe bhi barish se itna hi lagaw hai... barish ho aur bheege na... ye to koi baat nahi...
ReplyDeleteआपका पोस्ट पढ़ने के बाद एक बार फिर बच्चा बन जाने को जी चाहता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा आपने।
कौन पागल होगा .जिसे बारिश से मोहब्बत नहीं होगी...सबके पास एक भीगा यादो का संदूक पड़ा है भाई....
ReplyDeleteवाह अभिषेक... अद्भुत :)
ReplyDeleteआपके इस अनुभव के सौंदर्य बोध को महसूस करने के बाद तो लगता है, भला ऐसा कोई होगा भी जिसे बारिश न भाती हो। बारिश की ख़ूबसूरती में मन डूब सा गया। हर एक शब्द में भावनाओं की बारिश बरसती दिखाई दी।
waah baarish ka ye vivaran bhi bahut achha laga,saath hi kavita bhi.
ReplyDeleteअगली सुबह थोडा गला कुछ ढीला हुआ और थोडी थकान. पर बीमार नहीं पड़ा :)
ReplyDeleteमन प्रसन्न हो तो कौन सी बीमारी पास फटक सकती है भला? खुश रहो आबाद रहो, पेरिस रहो या इलाहाबाद रहो! [वैसे एक पढा लिखा नौजवान कवी होने लगे तो यह अच्छे लक्षण नहीं हैं ;)]
दिमाग की शून्यता का अपना ही महत्व है, आपकी बात से जाना। यादों में जाकर मन बिन बारिश ही झूमने लगा:)
ReplyDeletebarish se lagav kise nahi hai ji?? :)
ReplyDeleteetna khoobsurati se likha hai lagta tha pad nahi rahe dekh rahe hai mahsoos kar rahe hai...
ReplyDeleteबीमार हो जाने की चिंता हमें तो सताती है भाई |हां दिमाग शून्य नहीं हो पाता| काश ! हो पाता ||बारिश से लगाव किसे नहीं होता |काले सफ़ेद उमड़ते घुमड़ते बादल चमकती बिजली "घन घमंड नभ गर्जत घोरा ""पहाड़ हरियाली आपकी रचना की तरह सबको अच्छे लगते है
ReplyDeleteबारिश में भीगने का आनंद ही कुछ और है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
खूबसूरत पोस्ट वो भी पंत जी की कविता के साथ वाह.. बंधुवर वाह....
ReplyDeleteis sundar rachana ke kya kahane .....uspar warish ko bouchhara ......yaade .......ek sundr kawita.....sahajata se padhawate chale gaye ........bahut hi sundar.....badhaaee swikare
ReplyDeletebarish se lagav bahut hai. par aise profession me hu ki barish se bhigne ke liye taras jati hu...
ReplyDeleteaapki rachna achchi lagi,
http://som-ras.blogspot.com
baarish se behtar koi aur mausam nahi hai ji .. aapka lekh man ko bhigo gaya .. pant ji kavita aur aapka graphical details bahut man ko bha gaye ji .. badhai ho...
ReplyDeletevijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
--------------------------------------------------------
ReplyDeleteसूचना :
कल सवेरे नौ बजे से पहली C.M. Quiz शुरू हो रही है.
आपसे आग्रह है कि उसमें भी शामिल होने की कृपा करें.
हमें ख़ुशी होगी.
--------------------------------------------------------
क्रियेटिव मंच
सच कहा आपने कभी कभी ऐसी लंठई का मज़ा लेते रहना चाहिये । बारिश का मौसम जिसे अच्छा न लगता हो वह कोई अरसिक ही होगा वरना तो मिट्टी की सौधी सुगंध,जो पहली बूंदों के साथ ही उठती है बरबस ही आपको दरवाजे पर खींच लाती है । फिर हाथ में बूंदों को लेना फिर थोडा और आगे जाकर फुहारों में भीगना आपके लेख ने सब याद दिला दिया ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDelete