Dec 28, 2007

गाँव की ओर...

इस वर्ष एक लंबे अरसे के बाद घर पे छुट्टियां बिताने का मौका मिला। पिछले ३ सालों में घर तो जाना होता था, पर काफी कम दिनों के लिए ... हर लंबी छुट्टी में कोई न कोई यात्रा हो ही जाती थी। फिर कॉलेज ख़त्म हुआ तो घर पे रहना तो था ही। स्कूल के दिनों की याद आ गयी... जब हर गर्मी की छुट्टी में हम घर जाया करते थे। पर अब गाँव वैसा नहीं रहा, काफी कुछ बदल गया है... वो सारी चीजें बदल गयी जिनका हम बेसब्री से इंतज़ार किया करते थे।

वो घर जिनकी दीवारें मिट्टी की और छत खपरैल के होते थे... वो सब कुछ कंक्रीट के हो गए। बिजली तो पहले भी थी पर अब हमारे घर के फ़ोन की घंटी किसी और के लिए नहीं बजती, किसी को बुलाना नहीं पड़ता... । और दूसरी-तीसरी क्लास में जो हम उछल-उछल के किसी की चिट्ठी पढ़ने जाया करते थे, आज के बच्चे तो जानते भी नहीं है की चिट्ठी क्या होती है। हमारे बचपन में तो तेज़ होने का मतलब ही होता था फर्राटेदार चिट्ठी पढ़ने वाला ...। अरे भाई मैं इतना भी बुड्ढा नहीं हूँ... । अभी इसी साल तो कॉलेज से निकला हूँ... पर या तो हम जमाने से ही पीछे थे ... या ज़माना ही कुछ तेज़ आगे निकल गया। हाँ, तो फ़ोन का न बजना और चिट्ठियों के लुप्त होने का तो एक ही कारण है... मोबाइल ... सबके हाथ में मोबाइल । लोग पहले शाम को बैठकर बातें किया करते थे, अखबार में क्या आया है से ले कर हर घर की समस्याएं, हर बच्चे के बारे में बातें... हमें भी ख़ुशी होती थी ये सुन के की हम शरीफ हैं, और कभी-कभी तेज़ भी कह दिए जाते थे... और फिर ४ लोग सुन रहे हों... तो ख़ुशी तो होगी ही। अब मुश्किल से २-३ बुजुर्ग होते हैं... अधिकतर युवक और प्रौढ़ शहरों में काम करते हैं... । अब गुल्ली-डंडे की जगह क्रिकेट और कंचों की जगह फूटबाल ने ले ली है। कबड्डी अभी भी सरकारी स्कूल में खेली जाती है, पर सरकारी स्कूल में अब जाता ही कौन है?

सरकारी स्कूल.... वो स्कूल जहाँ मैं पहली बार पढ़ने गया था... वो पेड़... रोज़ शाम को... दो एकम दो। मुझे प्रसन्नता के साथ आश्चर्य भी हुआ जब मास्टरजी ने मुझे पहचान लिया... । मास्टरजी से पता चला की अब सरकारी स्कूल में लोग अपने बच्चों को नहीं पढाते... अंग्रेजी स्कूल बरसाती मेंढक की तरह खुल गए हैं। रजिस्टर में नामांकन तो होता है पर वो दोपहर में मिलने वाले पोषाहार के लिए... और बाक़ी कुछ जीवन बीमा के लिए ... कुछ वर्ग के छात्रों के लिए मिलने वाले वजीफे के लिए ... पर इन सबके लिए स्कूल नहीं आना होता, आप आराम से अंग्रेजी स्कूल में पढो और नाम सरकारी स्कूल में। और फिर पोषाहार जानवरों को खिलाने के लिए आसानी से मार्केट में भी तो मिलता है, चाहे आपको खरीदना हो या बेचना ! यह आपको आन्गंवाड़ी में काम करने वाली औरतों या ग्राम प्रधान के करीबी लोगो से सस्ते दर पर मिल सकता है। मास्टरजी तो आज भी पढाना चाहते हैं पर पढायें तो किसे.... ।

खेतों में जो नालियाँ बनती थी उनकी जगह प्लास्टिक के पाइपों ने ले ली है। घर पर पड़े हुए पुराने हल को देख कर याद आया की अरे किसी जमाने में बैल भी तो होते थे... खैर मैंने ये भी पता किया... तो पता चला की अब गाँव में एक भी बैल नहीं है। हमारे पुराने ट्युबवेल वाले घर में पड़ा थ्रेशर उस दिन का इंतज़ार कर रहा है जिस दिन उसे कबाड़ी वाले ले जायेंगे। अब खलिहान में उसका कोई काम नहीं है... दिनों तक होने वाले दँवनी अब नए मशीनों से घंटो में हो जाती है... । प्लास्टिक के पाइपों से ध्यान आया कि गाँव में अगर सब कुछ लुप्त हो रह है तो एक चीज बढ़ी भी तो है... और वो है प्लास्टिक... हर तरह के प्लास्टिक... ।

बहुत विकास हुआ... रोज़ हो रहा है... पर मुझे तो बस दो चीजों की कमी बहुत खली...

पहली तो ये की अब भैया, चाचा, काका... कहने वाले कम हो गए हैं। लोग एक दुसरे से आँखे चुराते हैं... बबुआ कब आये? कब तक रहना होगा? आजकल कहाँ हो? अब कम लोग पूछते हैं। दूरीयाँ बढ़ गयी हैं। अब कारण तो पता नहीं पर लोगो को एक दुसरे से मतलब कम रहता है।

दूसरी जिसके लिए गर्मियों में गाँव जाने का सबसे ज्यादा मन करता था... आम के बगीचे। इतने घने कि दिन में भी जाने में डर लगता था। हर पेड़ के साथ एक कहानी जुडी हुई थी... अब न तो पेड़ हैं ना कहानियाँ... लगभग सारे भूत भी उन पेडों के साथ कहीं चले गए। ना आम ना जामुन... कुछ भी तो नहीं रहा। वो बगीचे गाँव के थे... कभी हमारी हिम्मत नहीं होती थी कि किसी को कह दें... कि ये हमारे पेड़ हैं जाओ यहाँ से... । इतने पेड़ कि जिनके पास पेड़ नहीं थे, वो भी अपने रिश्तेदारों के यहाँ आम भेजते थे... । अब एक-दो पेड़ जो लोगो के घरो के सामने हैं, वो उनके अपने हैं। और वैसे भी एक-दो पेडों को न तो बगीचा कहेंगे, ना ही वो मज़ा... जब बाल्टी में से आम निकालते समय ये नहीं पता होता था कि कौन सा आम कैसा होगा। और फिर आम देख कर लोग पेड़ भी तो पहचान लेते थे... ।
हम डर के मारे बगीचे में मुँह नहीं खोलते थे... अगर गिद्धों ने देख लिया तो सारे दांत टूट जायेंगे... अब बच्चे खुल के हंस सकते हैं... इसलिए नहीं कि वो हमसे ज्यादा समझदार हैं... या वे जानते हैं कि गिद्ध दांत नहीं गिरा सकते... परन्तु इसलिए क्योंकि वो जानते ही नही कि गिद्ध क्या होता है... उन पेडों के ऊपर रहें वाले गिद्ध भी अब रहे... ।

~Abhishek Ojha~

Dec 12, 2007

मानस पटल पर अंकित वो पंक्तियाँ ...


चिट्ठियों की तरह मुझे पुस्तकें भी सहेजकर रखने की आदत है। इस बार घर गया तो स्कूल की कुछ पुस्तके मिल गयी... कई अध्याय बैठ के अनायास ही पढ़ डाला... । हिन्दी की पुस्तकों की वो लाइनें जो कभी नहीं भूल सकता... उन लाइनों के साथ यादें जुडी हैं... जब पढ़ के लगता था कि किसी ने हमारे लिए ही लिख दिया हो... सारी यादें फिर ताज़ा हो गयी... । कुछ लाइनें शायद आपको भी पसंद आ जाये... ।

यूं तो कई किताबें पढी... पर उस उमर में उन लेखकों की बातें जो मस्तिष्क पर छाप छोड़ती हैं उनकी जगह कोई और कैसे ले सकता है... । इन पक्तियों को पढ़कर पूरी क्लास, पुरा पाठ सब कुछ तो याद आ जाता है... ।

- यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता तो बहुत से विवाद समाप्त हो जाये, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा... । (महादेवी वर्मा)

- अरे, कवि की बात समझ में आ जाये तो वह कवि काहे का...। (हरिशंकर परसाई)
- हर भेडिये के आस पास दो-चार सियार रहते ही हैं। जब भेंडिया अपना शिकार खा लेता है, तब ये सियार हड्डियों में लगे मांस को कुतर कर खाते हैं, और हड्डियाँ चूसते रहते हैं । ये भेडियों के आस-पास दुम हिलाते रहते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौक़े-बेमौके "हुआं-हुआं" चिल्लाकर उसकी जे बोलते हैं । (हरिशंकर परसाई)

- नम्रता ही स्वतंत्रता की धात्री व माता है। लोग भ्रम वश अंहकार-वृति को उसकी माता समझ बैठते हैं, पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश कर देती है।
- मनुष्य का बेडा अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाये... ।
- जिस पुरुष की दृष्टि सदा नीचे रहती है उसका सिर कभी ऊपर ना होगा...
- जितना ही मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है। (आचार्य रामचंद्र शुक्ल, वैसे मित्रता और आत्मनिर्भरता की हर एक पंक्ति स्मरणीय है।)

- विफलता के इस मरुस्थल में एक बूंद आएगी भी तो सुखकर खो जायेगी।
- मुझे दुर्योधन कहेगा यही न। जानता हूँ युद्धिष्ठिर! मैं जानता हूँ। मुझे मारकर ही तुम चुप नहीं बैठोगे। तुम विजेता हो, अपने गुरुजनों और सगे-संबंधियों की शोणित की गंगा में नहाकर तुमने राजमुकुट धारण किया है। तुम अपनी देख रेख में इतिहास लिख्वाओगे और उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने में क्यों चुकोगे? सुयोधन को सदा के लिए दुर्योधन बनाकर छोडोगे। उसकी देह को ही नहीं, उसका नाम तक मिटा दोगे। (भरतभूषण अग्रवाल)

- ऐसी स्थितियां मन को बहुत व्यथित करती हैं। कैसे कहूं की उस गाँव का नहीं हूँ, जहाँ जन्मा, उन शहरों का नहीं हूँ, जिन्होंने मुझे ठौर-ठिकाना दिया, और उस व्यापक देश का नहीं हूँ जिसने हर विदेश-यात्रा के पूर्व रुमाल में गाँठ लगाई; जिसने हर विदेश-यात्रा को स्वदेश की पहचान के लिए नयी कसौटी बनायी, और जिसने विदेश की संस्कृति को समझने की आत्मीय परकीयता दी और जिसका होकर मैं अपने को बराबर गौरवान्वित अस्तित्ववान पाता रहा?
- ललक केवल स्नेह पाने के लिए नहीं, ललक स्नेह देने के लिए नहीं, केवल अपने को पहचानने के लिए नहीं, बल्कि दूसरो की पहचान में अपनी पहचान समाहित करने में है।
- आजकल तो दूध इतना शुद्ध है की हंस आये तो झंखने लगे। ... अब दही नहीं जमता, मन जरूर जम गया है। ऐसा जम गया है की कोई ताप उसे पिघला नहीं पाता। जिंदगी में ताप कम नहीं है, पर मन है ज्वालामुखी के ऊपर बर्फ की चादर बना हुआ है । (विद्यानिवास मिश्र)

- हम दीवानों की क्या हस्ती है आज यहाँ कल वहाँ चले ...

- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला उस-उस रही को धन्यवाद...

- मुझे तो ऐसा लगता है की मेरी माँ यदि जगी नहीं होती, तो में सोया होता... ।
- कहाँ गया वह बचपन और कहाँ गए वी आम के पेड़? जब सोचता हूँ तो पढना-लिखना बेकार सा लगता है। जीवन में गहरी खाई पैदा हो गयी है, जिसको भरकर सड़क नहीं बना सकता। पूल बनाता हूँ मगर वह पूल भी हर समय साथ नहीं देता, मौक़े-मौक़े पर टूट जाता है। (गोलंबर, हरिवंश नारायण)

-क्या मेरे देश को इसका एहसास हो सकता है की कोई माँ यात्रा-पथ पर शिशु को जन्म देने के एक दिन बाद ही चल पड़ती है पुनः अनंत यात्रा पर। (डाक्टर श्याम सिंह शशि)

- रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चिर देता,
रक्त की दो बूंद गिरती, एक दुनिया डूब जाती
आँख में हो स्वर्ग लेकिन पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंताको की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले

- और उडाये हैं इसने उज्वल कपोत जो,
उनके भीतर भरी हुई बारूद है। (रामधारी सिंह दिनकर)।


एक पोस्ट के लिए बहुत हो गया... बाक़ी फिर कभी... ।


~Abhishek Ojha~