मानस पटल पर अंकित वो पंक्तियाँ ...
चिट्ठियों की तरह मुझे पुस्तकें भी सहेजकर रखने की आदत है। इस बार घर गया तो स्कूल की कुछ पुस्तके मिल गयी... कई अध्याय बैठ के अनायास ही पढ़ डाला... । हिन्दी की पुस्तकों की वो लाइनें जो कभी नहीं भूल सकता... उन लाइनों के साथ यादें जुडी हैं... जब पढ़ के लगता था कि किसी ने हमारे लिए ही लिख दिया हो... सारी यादें फिर ताज़ा हो गयी... । कुछ लाइनें शायद आपको भी पसंद आ जाये... ।
यूं तो कई किताबें पढी... पर उस उमर में उन लेखकों की बातें जो मस्तिष्क पर छाप छोड़ती हैं उनकी जगह कोई और कैसे ले सकता है... । इन पक्तियों को पढ़कर पूरी क्लास, पुरा पाठ सब कुछ तो याद आ जाता है... ।
- यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता तो बहुत से विवाद समाप्त हो जाये, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा... । (महादेवी वर्मा)
- अरे, कवि की बात समझ में आ जाये तो वह कवि काहे का...। (हरिशंकर परसाई)
- हर भेडिये के आस पास दो-चार सियार रहते ही हैं। जब भेंडिया अपना शिकार खा लेता है, तब ये सियार हड्डियों में लगे मांस को कुतर कर खाते हैं, और हड्डियाँ चूसते रहते हैं । ये भेडियों के आस-पास दुम हिलाते रहते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौक़े-बेमौके "हुआं-हुआं" चिल्लाकर उसकी जे बोलते हैं । (हरिशंकर परसाई)
- नम्रता ही स्वतंत्रता की धात्री व माता है। लोग भ्रम वश अंहकार-वृति को उसकी माता समझ बैठते हैं, पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश कर देती है।
- मनुष्य का बेडा अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाये... ।
- जिस पुरुष की दृष्टि सदा नीचे रहती है उसका सिर कभी ऊपर ना होगा...
- जितना ही मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है। (आचार्य रामचंद्र शुक्ल, वैसे मित्रता और आत्मनिर्भरता की हर एक पंक्ति स्मरणीय है।)
- विफलता के इस मरुस्थल में एक बूंद आएगी भी तो सुखकर खो जायेगी।
- मुझे दुर्योधन कहेगा यही न। जानता हूँ युद्धिष्ठिर! मैं जानता हूँ। मुझे मारकर ही तुम चुप नहीं बैठोगे। तुम विजेता हो, अपने गुरुजनों और सगे-संबंधियों की शोणित की गंगा में नहाकर तुमने राजमुकुट धारण किया है। तुम अपनी देख रेख में इतिहास लिख्वाओगे और उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने में क्यों चुकोगे? सुयोधन को सदा के लिए दुर्योधन बनाकर छोडोगे। उसकी देह को ही नहीं, उसका नाम तक मिटा दोगे। (भरतभूषण अग्रवाल)
- ऐसी स्थितियां मन को बहुत व्यथित करती हैं। कैसे कहूं की उस गाँव का नहीं हूँ, जहाँ जन्मा, उन शहरों का नहीं हूँ, जिन्होंने मुझे ठौर-ठिकाना दिया, और उस व्यापक देश का नहीं हूँ जिसने हर विदेश-यात्रा के पूर्व रुमाल में गाँठ लगाई; जिसने हर विदेश-यात्रा को स्वदेश की पहचान के लिए नयी कसौटी बनायी, और जिसने विदेश की संस्कृति को समझने की आत्मीय परकीयता दी और जिसका होकर मैं अपने को बराबर गौरवान्वित अस्तित्ववान पाता रहा?
- ललक केवल स्नेह पाने के लिए नहीं, ललक स्नेह देने के लिए नहीं, केवल अपने को पहचानने के लिए नहीं, बल्कि दूसरो की पहचान में अपनी पहचान समाहित करने में है।
- आजकल तो दूध इतना शुद्ध है की हंस आये तो झंखने लगे। ... अब दही नहीं जमता, मन जरूर जम गया है। ऐसा जम गया है की कोई ताप उसे पिघला नहीं पाता। जिंदगी में ताप कम नहीं है, पर मन है ज्वालामुखी के ऊपर बर्फ की चादर बना हुआ है । (विद्यानिवास मिश्र)
- हम दीवानों की क्या हस्ती है आज यहाँ कल वहाँ चले ...
- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला उस-उस रही को धन्यवाद...
- मुझे तो ऐसा लगता है की मेरी माँ यदि जगी नहीं होती, तो में सोया होता... ।
- कहाँ गया वह बचपन और कहाँ गए वी आम के पेड़? जब सोचता हूँ तो पढना-लिखना बेकार सा लगता है। जीवन में गहरी खाई पैदा हो गयी है, जिसको भरकर सड़क नहीं बना सकता। पूल बनाता हूँ मगर वह पूल भी हर समय साथ नहीं देता, मौक़े-मौक़े पर टूट जाता है। (गोलंबर, हरिवंश नारायण)
-क्या मेरे देश को इसका एहसास हो सकता है की कोई माँ यात्रा-पथ पर शिशु को जन्म देने के एक दिन बाद ही चल पड़ती है पुनः अनंत यात्रा पर। (डाक्टर श्याम सिंह शशि)
- रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चिर देता,
रक्त की दो बूंद गिरती, एक दुनिया डूब जाती।
आँख में हो स्वर्ग लेकिन पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंताको की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।
- और उडाये हैं इसने उज्वल कपोत जो,
उनके भीतर भरी हुई बारूद है। (रामधारी सिंह दिनकर)।
एक पोस्ट के लिए बहुत हो गया... बाक़ी फिर कभी... ।
~Abhishek Ojha~
You made me remember my school days... waiting for your second part !
ReplyDeleteअभिषेक अच्छा लिखा है । उम्मीद है कि लगातार लिखते रहोगे । मैं तो बस भटकते भटकते यहां आ गया था । अपने ब्लॉग को ब्लॉगवाणी से जोड़ लो । www.blogvani.com
ReplyDeletebhut hi achaa liokha hai aapne ,
ReplyDeleteplease write second part of it
आप पूरी पुस्तक अपलोड करते तो कृपा होती !
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