Dec 8, 2015

... 'ओक्सिटोसिन' क़हत टैटू मोरा


बात शुरू हुई एक रस-आयनिक टैटू वाले ट्वीट से - 

Oxytocin Tattoo
इस पर पोस्ट लिखने की बात हुई तो याद आया - चित्र देखकर कहानी लेखन जैसा कुछ होता तो था हिन्दी-व्याकरण की किताबों में। हर व्याकरण की किताब में एक तस्वीर जरूर दी ही होती थी। सारस और लोमड़ी. तस्वीर देखते ही कहानी समझ आ जाती कि दोनों ने एक दूसरे  को कहा होगा - "कभी खाने पर आओ हमारे घर"... आगे की कहानी तो आप समझ ही गए होंगे। हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी है ! दस बटा दस पाने वाले विद्यार्थी को भी तस्वीर दे दीजिये कहानी लिखने को तो वो उसमें भेड़िया, लोमड़ी, सारस ही तो ढूंढेगा? हमने भी बहुत गौर से देखा लेकिन इसमें ऐसा कुछ दिखा नहीं। मोबाइल उल्टा करके देखना पड़ा तब थोड़ा बहुत समझ आया कि ये चित्र है क्या ! 

...बैकग्राउंड पर से ध्यान हटा गौर से देखा तो ये संरचना कुछ तो देखी-देखी सी लगी. ख्याल आया कि ओक्सिटोसिन तो नहीं ? गूगल किया तो ख्याल 'अटेस्ट' हो गया। ओक्सिटोसिन माने प्यार-मोहब्बत का रसायन- लव हार्मोन। अब अनुमान तो यही लगाया जा सकता है कि ये टैटू, ये मुद्रा... 'ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा' टाइप्स प्यार से ही जुड़ा होगा. किसी ने कह दिया होगा - यही है असली केमिकल लोचा तो गोदवा ली होंगी अपनी काया पर ! (टैटू से टैटूवाना क्रिया बने न बने हिन्दी में गोदवाना/गुदवाना ही कहते हैं) या फिर हो सकता है बुद्ध के चार सत्य की तरह अनुभूति हो गयी हो मोहतरमा को - 
इस दुनिया में प्यार ही प्यार है। प्यार का कारण ओक्सिटोसिन है। प्यार को पाया जा सकता है। और फिर प्यार प्राप्ति के अष्टांग मार्ग में एक टैटू गोदवा लेना होता होगा या अभय मुद्रा, धर्मचक्र मुद्रा इत्यादि की तरह प्यार प्राप्ति के बाद की टैटू-मुद्रा होगी ये.

अब हम और सोच भी क्या सकते हैं? हमसे कोई पूछे तो। ...टैटू बनवाने में दर्द भी, पैसा भी और ऊपर से परमानेंट... वो भी एक केमिकल का फॉर्मूला ! हम एक और सवाल पूछ बैठेंगे - मतलब... क्यों? कोई मज़बूरी थी?... मान लीजिये कल को पता चला कि हाइड्रोक्साइड गलत जगह पर लग गया हो, कल को ये भी हो सकता है प्यार पर से भरोसा ही उठ जाये, बेहतर केमिकल का आविष्कार हो जाये तब? दाहिने भुजा टैटू बनाए के बाद अहिरावण की भुजा उखाड़े स्टाइल में कुछ करना पड़ जाएगा. (अगर टैटू भुजा पर हो तो नहीं तो जो भी अप्रोप्रिएट हो)। वैसे भी साइंस का क्या भरोसा ! रिलिजन तो है नहीं... किसी ने कह दिया तो वो शाश्वत सत्य हो गया।  विज्ञान की तो खूबसूरती ही इसीमें है कि सवाल उठाओ! आइंस्टीन को भी गलत कर दिए तो कोई फतवा थोड़े जारी करेगा. उलटे और वाह-वाही होगी। कल का सही आज तक गलत नहीं हुआ तो कल गलत नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं। गलत नहीं भी होगा तो बेहतर सत्य आते रहेंगे ! खैर... इतना सोचने वाले टैटू नहीं बनवाते होंगे।

प्यार की बात आती है तो मुझे तुलसी बाबा कि ये बात जरूर याद आती है। बड़ी रोमांटिक लाइन है - 

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

तुलसी बाबा संत आदमी थे। वैसे हमेशा से संत नहीं थे. मैंने तूफ़ान से लड़ते आशिकों को भी तुलसीदास कहे जाते सुना है। नदी पार करने वाली उम्र में होते तो शायद कुछ और कहे भी होते... लेकिन ये बातें उन्होने आत्मज्ञान और प्रभु दर्शन हो जाने के बाद कही। प्रेम का सार, प्रीति-रस इतने में ही है - विशुद्ध बात। पर टैटू से पता चलता है वो ओक्सिटोसिन नामक प्रेम-रस तक सीमित प्रेम की बात है ! लव-केमिकल यानि प्रीति-रस का नाम पता चला टैटू बनवा लिया - प्रीति रसु एतनेहि माहीं. 

खैर... हमने भी ट्वीट का जवाब ट्वीट से दे दिया  - "तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। ओक्सिटोसिन कहत टैटू मोरा।" ट्वीटर पर अक्सर 140 अक्षर में ही बात वहीँ की वहीँ निपट जाती है। पर जवाब के बाद भी पोस्ट की बात बाकी रह गयी। और आप तो जानते ही हैं कि उधार-बाकी ओक्सिटोसिन का एंटीडोट है... (प्रेम उधार की कैंची है का अनुवाद !)

अब बात निकली तो बता दें कि हम भी टैटू एक्सपर्ट रह चुके हैं। मेरे एक मित्र को टैटू टैटूवाना था - दाहिनी भुजा पर गर्लफ्रेंड का नाम - तमिल में। बिना गर्लफ्रेंड को बताये। तमिल उन्हें खुद आती नहीं थी। समस्या ये थी कि गूगल इनपुट टूल्स पर ज्यादा भरोसा किया नहीं जा सकता। पता चला कुछ और ही गोदवा लिए ! "गोदनाधारी अपने गोदना के लिए खुद ज़िम्मेवार है" टाइप डिस्क्लेमर ना भी हो तो गोदनाहार को तो आप जो देंगे वो तो वही बना देगा। ...रिस्क लेना भारी काम है। जैसे इसी गोदना में... मान लीजिये एक दो हाइड्रोक्साइड गलत जगह पर लग गए और पता चला ओक्सिटोसिन की जगह कोर्टिसोल की तरह काम करने लगा ! केमिस्ट से प्यार होगा तो वो तो पकड़ लेगा कि फार्मूला ही गलत है.

दोस्त-दोस्त के काम आने वाले सिद्धान्त के तहत हमने अपने एक तमिल सीनियर को ईमेल किया। हमारे सीनियर तब हार्वर्ड में थे। बहुत बड़े फिजिस्ट हैं। पर मामला भी गंभीर ही था। गंभीर न भी हो तो अब किसी दोस्त को कल को नोबल प्राइज़ भी मिल जाये तो ऐसा थोड़े न होगा कि पीएनआर कन्फर्म हुआ या नहीं जानने के लिए उसको फोन नहीं करेंगे? (वो बात अलग है कि अब फोन में इन्टरनेट हो गया पर अपने जमाने का डायलॉग मार दिया तो आप दोस्ती के वसूल का मर्म समझ ही गए होंगे)। मेरे सीनियर ने भी इस बात को उम्मीद से कहीं ज्यादा गंभीरता से लेते हुए विस्तृत जवाब भेजा। निष्कर्ष ये था कि वो उत्तर भारतीय नाम तमिल में शुद्ध तरीके से लिखा ही नहीं जा सकता! तमिल भाषा की अपनी सीमाएं हैं। (तभी पता लगा कि त को थ क्यों लिखा रहता है कई तमिल नामो में)। खैर उनके सुझाव के हिसाब से जो सबसे सटीक हो सकता था वो हमारे मित्र ने अपने हाथ पर गुदवा लिया ! गलत नाम गुद जाने के अलावा एक रिस्क ये भी था... जो तनु वेड्स मनु में कंगना ने राजा अवस्थी के नाम का टैटू करा ले लिया था! उसमें उन्होंने हल भी बताया था - सरनेम का टैटू है उसी नाम का  कोई और ढूंढ लुंगी। उनके इस डर से ये बात भी सीखने को मिली थी कि आधुनिक इश्क़ में चीजें 'वैरिएबल' होनी चाहिए - परमानेंट कभी नहीं। लभ लेटर हो या टैटू... पुनः इस्तेमाल होने वाले होने चाहिए। रिसाइकल होने वाले। ओरगेनिक - ग्रीन टाइप्स। - मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।

खैर... ओक्सिटोसिन को वैज्ञानिक प्रेम-मुहब्बत के लफड़े वाला केमिकल मानते हैं। यही वो केमिकल है जिससे उल्फ़त वाला लोचा होता है। माँ के 'माँ' जैसी होने के पीछे भी लोग-बाग इसका होना ही कारण बता देते हैं। और भी कई चीजें - भरोसा वगैरह। दरअसल भोले लोग बहल जाते हैं। इतना आसान होता तो... दो चार सुई घोंप देते(-लेते) इश्क़ कम पड़ने लगता तो. नहीं? दरअसल बस इतना भर है कि किसी न्यूज चैनल वाले को बता दीजिये तो 'गॉड पार्टिकल' की तरह इस पर भी आलंकारिक भाषा में प्रोग्राम कर देंगे - वैज्ञानिकों के ढूंढा लोचा-ए-उल्फ़त का केमिकल। और वो देख बायोलॉजिस्ट-केमिस्ट वैसे ही सर पीट लेंगे जैसे गॉड पार्टिकल पर प्रोग्राम देख फिजिसिस्ट ! इस बात पर कैसी कैसी हेडलाइन बनाएँगे न्यूज बेचने वाले वो आप यहाँ एक ब्रेक लेकर सोच-सोच मुस्कुरा लीजिये। 

ब्रेक के बाद -

ऐसे ही एड्रेनालीन, डोपामिन जैसे कई केमिकल लोग बताते हैं ख़ुशी वगैरह के लिए। पर खुशी, प्रेम... जैसी जटिल चीजों को एक केमिकल में सिमटा देना वैसे ही हो जाएगा जैसे भोले लोग खुशी का फॉर्मूला दे देते हैं - माइनस और माइनस मिला के प्लस बन जाता है। बिल्कुल सही बात है ! पर यहाँ कर्ल-डाइवरजेंस-इंटेग्रेशन-स्टोकास्टिक-अगैरह-वगैरह भी लगा दीजिये तो संभव है कभी खुश हो जाने का फॉर्मूला लिख पाना?

पर जिसने टैटू कराया उससे कह दीजिये कि ये प्यार का फॉर्मूला नहीं है तो बिगड़ ही जाएगा ! भोले लोग हैं...  साइंस, फिलोसोफी, गायक, भगवान, शंख, चक्र, गदा, क्रॉस, चिड़िया, फूल, पत्ती, जो पसंद आये छपवा लेते हैं. किसी ने भेजा था मुझे एक मैथ वाला टैटू...

Math Tattoo 
मैंने कहा - खूबसूरत है ! पर ध्यान भटक जा रहा है। गणित ऐसे तो नहीं पढ़ा जा सकता। और जगह भी कम पड़ गयी है। जगह कम होता देख फ़र्मैट का मार्जिन याद आ गया। एक महान गणितज्ञ हुए फ़र्मैट, वो लिखते लिखते लिख गए थे एक धांसू प्रमेय। और उसके बाद लिख गए - "मेरे पास इस प्रमेय का प्रूफ भी है पर उसे लिखने के लिए ये मार्जिन बहुत कम है"। जो प्रमेय लिख के गए वो गणित का सबसे कठिन सवाल बन गया. सदियों बाद हल भी हुआ तो ७०० पन्नों का हल छपा. गणित के लिए मार्जिन होना बहुत जरूरी है. बड़ी महिमा गायी है गणित के विद्वानो ने. फ़र्मैट साहब के पास थोड़ा और मार्जिन होता तो गणित का इतिहास शायद आज कुछ और होता ! और इस टैटू में... कालिदास के शब्दों में जिसे "मध्‍ये क्षामा" कहेंगे वहां तो... ना हो पायेगा. 







लीजिये लिखते लिखते एक किताब में मिले मॉडलस-ऑन-मॉडलस वाला आलंकारिक गोदना भी याद आ गया - मॉडल मॉडल ते सौ गुनी मादकता अधिकाय

Models on Models 
कुछ लोग संस्कृत के मंत्र ही गुदवा लेते हैं। श्लोक के उच्चारण का महत्त्व तो पढ़ा है। गुदवाने का भी कुछ तो फायदा होता ही होगा। नहीं तो कम से कम संस्कृत तो पढ़ ही लेते होंगे थोड़ा बहुत। जैसे केटी पेरी का टैटू देखा तो लगा ये सबसे अच्छा तरीका हो सकता है लोट लकार, प्रथम पुरुष का उदाहरण पढ़ाने के लिए। खट से याद हो जाएगा ! 
और कुछ लोग - अजंता एलोरा के भित्ति चित्र  की तरह पूरा शरीर ही चलता फिरता कला का संग्रहालय बनवा लेते हैं! खैर हमसे किसी ने एक बार पूछा था धार्मिक कुछ बताओ टैटू करवाने को तो हमने कहा था कीर्तिमुख बनवा लो ! 

...टैटू का अच्छा मार्केट है. एक टैटू सलाहकार की दुकान खोली जा सकती है. बढ़िया चलेगा।

अभी ही देखिये बात निकली तो तमिल भाषा की सीमा से लेकर, प्रेम, ओक्सिटोसिन, किर्ति मुख, फ़र्मैट... कितना कुछ है जी जो अभी चर्चा में आ गया। प्रेम और टैटू का तो खैर गहरा संबंध है। 
वैसे... गोदना की डिजाइन के साथ साथ अंग चयन की भी बड़ी महिमा बताई है टैटू-विद्वानो ने :)

(टैटू पर बहुत अच्छा पढ़ना हो तो यहाँ पढ़िये)

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~Abhishek Ojha~ 

Oct 16, 2015

अहिम्सा (यूनान २)


नयी जगहों पर जाते हुए मन में कहीं न कहीं चलता रहता है कि वहाँ खाने को पता नहीं क्या मिलेगा ! वैसे समय के साथ ये समस्या लगभग खत्म हो गयी है। मेरे एक दोस्त कहते हैं - 'ये ऐसा वेजिटेरियन है कि कुछ भी खा सकता है'। उनके कहने का मतलब मांस-मछली-अंडा के अलावा मैं कुछ भी लगभग निर्विकार भाव से खा लेता हूँ। जैसे सुना है कि सुट्टेबाज अजनबियों में अक्सर माचिस-सुट्टे को लेकर बातचीज शुरू हो जाती है... (होती होगी !) वैसे ही मेरा शाक-पात-भक्षी होना एक मुलाक़ात का कारण बना था, ग्रीस में, आइरिन से - 

वैसे ये सुखद था कि ग्रीस में मुझे खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं हुई। शायद ये भी कारण रहा हो कि मैं जिन जगहों पर गया वो सारे विश्वप्रसिद्ध पर्यटक स्थल हैं । या एक कारण ये भी हो कि खाने में आधा किलो टमाटर, चीज के साथ सामने रख दिया जाना भी मुझे अच्छा ही लगा। टमाटर-चीज-शिमला मिर्च-बैंगन-दही-फल-ब्रेड-चावल-पास्ता... अब देखिये लिखना शुरू किया था तो लगा बस टमाटर और चीज ही तो खाने को मिलता था। पर लिस्ट लंबी होती गयी। कहने का मतलब ये कि दही-टमाटर-चीज की प्रमुखता रही पर दिक्कत वाली कोई बात नहीं थी। सैलेड के अलावा जेमिस्टा, केफेटेडेस, लंदर, फंदर जो भी नाम रहे हों व्यंजनों के एकाध बार छोड़ दें तो जीभ को भी कुछ खास शिकायत नहीं रही। मुझे लगता है कहीं न कहीं खान पान पर यूरोप के अलावा ओट्टोमान साम्राज्य और मध्य पूर्व की  मिश्रित सभ्यताओं का असर इस ना-शिकायती का कारण रहा होगा। कहने का मतलब ये कि जीभ के गुलाम लोगों के लिए भी ग्रीस अच्छी जगह है। 

खैर… खाने के चक्कर में आइरिन की बात अधूरी ना रह जाए. आइरीन से मुलाक़ात हुई थी एक खूबसूरत रेस्तरां में। मेरे अपने शाकभक्षी होने की बात वेटर को समझा चुकने के तुरत बाद पीछे से आवाज आई - 'हाउ लॉन्ग हैव यू बीन अ वेजिटेरियन?' मैंने मुड़कर देखा तो आइरिन मुस्कुराती नजर आई। 

मैंने कहा - 'हाय ! आई वाज रेजड ऐज़ ए वेजिटेरियन सो... बेसिकली माई एंटायर लाइफ
'वॉव ! यू नेवर ईवन ट्राइड? आई वाज अ वेजेटेरियन फॉर फ़्यू यीयर्स। बट देन... इट्स टफ।' 

मैंने जवाब में मुस्कुरा दिया। शायद कोई बहुत छोटा उत्तर नहीं था मेरे पास जो एक अजनबी को दिया जा सके। पर जब आइरिन ने खुद ही अगले सवाल के रूप में जवाब देते हुए कहा - 'बिकॉज़ ऑफ अहिम्सा ?' तो बात आगे निकल गयी। इससे पहले मुझे याद नहीं कभी मैंने एक शब्द का उत्तर दिया हो अपने शाकाहारी होने के सवाल का। 'अहिम्सा' सुनकर बहुत सुखद अहसास हुआ.

बात आगे बढ़ी तो आइरिन ने बताया कि 'योगा ऐंड इन्दु फिलॉसोफी' में उसे रुचि है। कुछ क्लासेज भी की है उसने। दे इवन सर्व अ योगिक वेजिटेरिअन मील ओन वीकेण्ड्स.

'ऐंड वॉट अबाउट आयुर्वेड़ा?' उसने पूछा।

मैंने आइरिन को बताया कि मुझे आयुर्वेद  की कोई ख़ास जानकारी नहीं। उसने पूछा 'व्हाइ? आई लव आयुर्वेड़ा ! यू हैव बीन टू केराला? व्हेयर आर यू फ़्रोम इन इंडिया?' बात अहिंसा से आयुर्वेड़ा पर आई तो मुझे समझ में आ गया कि इस लड़की को पर्यटक स्थलों पर भारतीय देखकर 'नामास्ते'  और बिना रुके-थमे एक सांस में 'केसहेंयाप' कहने वालों से कहीं ज्यादा पता है। (एथेंस में एक गाइड ने हाथ जोड़ 'केसहेंयाप' कहा तो मुझे थोड़ी देर तक समझ नहीं आया कि वो क्या कह रहा है। फिर उसने पूछा यू नो हिन्दी? तब समझ में आया कि वो 'कैसे हैं आप' कह रहा था।)

मैंने आइरिन को अपने तरीके से समझाया कि मुझे आयुर्वेद की जानकारी इसलिए भी नहीं क्योंकि मुझे  उसकी कभी जरूरत नहीं पड़ी। वैसे तो मैं बहुत उत्सुक इंसान हूँ पर दुनिया में कई चीजें ऐसी हैं जिनका मैं अनुभव करना नहीं चाहता। चिकित्सा भी वैसी ही एक चीज है - वो चाहे आयुर्वेद हो या कुछ और। जैसे मान लो मेरे पास कुछ दवाइयाँ पड़ी हैं। मेरे हिसाब से उनका सबसे अच्छा उपयोग होगा कि वो पड़ी-पड़ी खराब हो जाएँ !  सबसे अच्छा उपयोग कि वो उपयोग में आए ही न । अब जैसे मेरे मेडिकल इन्स्युरेंस का सबसे अच्छा पैसा वसूल यही तो होगा कि वो बिन इस्तेमाल हुए मेरी जगह बीमा कंपनी का ही फायदा करा दे? मैं नहीं चाहता कि वो बेकार जा रहे पैसे वसूल करने की कभी नौबत आए। 

आइरिन को मेरी बात अच्छी लगी। उसने पूछा 'बट व्हाट अबाउट योगा ऐंड आयुर्वेड़ा ऐज़ वे ऑफ लिविंग?'

मैंने आइरिन को समझाया कि बहुत तो नहीं पर हां जिस तरह मैं पला बढ़ा कुछ वे ऑफ लिविंग की बातें  'बाई डिफ़ाल्ट' ही पता होती जाती हैं - अनकोंसियसली... नॉट एक्सपर्ट बट यू नो वॉट आई मीन। मैंने सोचा कि अब घर की बात क्या बताई जाये उसे पर सच्चाई तो ये है कि हमारे देश में हर दूसरा इंसान ही वैद्य होता है। 

थोड़ी इधर उधर की बात हुई तो आइरिन ने पूछा - 'यू डोंट ड्रिंक ऐज़ वेल? यू डोंट नो माई फ्रेंड वॉट यू आर मिसिंग'।

फिर आइरिन ने मुस्कुराते हुए मुझे एक टंगा हुआ बोर्ड दिखाया जिस पर लिखा था “A man who drinks only water has a secret to hide. - Charles Baudelaire" 

मैंने कहा - आई डोंट नो, इफ आई कैन कीप माई सिकरेट्स आफ्टर अ ड्रिंक ऑर नॉट... बट ऐज़ यू सेड़ आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग ! और जब मुझे पता ही नहीं कि मैं क्या मिस कर रहा हूँ क्या नही तो फिर उस चीज की कमी कैसे हो महसूस हो सकती है? कभी किया होता तब तो अच्छा, बुरा या फिर मैं क्या मिस कर रहा हूँ ये पता चलता ? मैंने आइरिन को समझाया कि 'आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग' भी एक उत्तर है कि मुझे क्यों कभी ट्राई करने की जरूरत नहीं पड़ी। गुड टिल आई डोंट नो. 

"बट देन हाउ विल यू एवर नो हाऊ ईट फील्स लाइक? दिस वे यू कैन नेवर फील फ़्यू थिंग्स। "

मेबी आई डोंट नीड़ टू ! आई नेवर फेल्ट दैट आई शुड। शायद मुझे कभी इनकंप्लीट लगा नहीं क्योंकि 'आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग'। मैंने आगे कहा कि कैसे ये आइरिन के लिए समझना कठिन हो सकता है. जिसकी कभी आँखें रही ही नहीं वो कैसे सोच सकता है कि जो देख पाते हैं वो क्या देखते होंगे? अच्छा, बुरा या मिस करने का सवाल ही नहीं उठता। बात वैसी ही है कुछ. मैंने उसे समझाया कि जब मैं अपने उन दोस्तों के साथ जाता हूँ जो  - प्याज, लहसुन, दूध तक नहीं खाते ! मुझे तुरत लगता है कि ये खाते क्या हैं फिर? इन्हें तो पता ही नहीं स्वाद क्या होता है? ये जिंदा कैसे रहते हैं? मैं भी वैसा ही हूँ तुम्हारे लिए. पर कहीं न कहीं जो नहीं जानते कि वो क्या मिस कर रहे हैं उनके लिए आसान है वैसे ही बने रहना। पर एक बार कुछ जीवन का हिस्सा बन जाये फिर उसे छोडते हुए आपको पता होता है कि क्या जा रहा है जिंदगी से क्या नहीं। बीलीव मी, इट्स गुड समटाइम्स नॉट टू नो वॉट वी आर मिसिंग ऑर नॉट मिसिंग। 

ऐसा लगा जैसे आइरिन को फिर मेरी बात पसंद आई। 

उसने बताया कि वो कुछ साल तक वेजिटेरियन रह चुकी है। इंडिया से लौटने के बाद। - आई हैव बीन टू इंडिया - केराला, रिचिकेश, वारानासी ऐंड माडुराई।

मुझे बहुत खुशी हुई। अब पता चला कि उसे इतना कैसे पता है.  आइरिन ने आगे बताया... वो पहली बार भारत गयी आयुर्वेद के लिए। दुबारा ब्रेकअप होने के बाद 'योगा कैपिटल रिचिकेश'। जब उसके सारे दोस्तों की शादी होने लगी और वो अकेली, टूटी, अवसाद में डूबी, सब कुछ खो जाने के बाद. उन दिनों उसे किसी ने उसे ऋषिकेश जाने की सलाह दी। तब वो बत्तीस साल की थी.

"इट वाज सो डेंजरस बट आई टूक अ डीप इन गैन्गीज।" उसके बाद उसी यात्रा पर वो अपने होने वाले पति से मिली मदुरै में ! किसी फिल्मी कहानी की तरह मैं आइरिन की बातें मंत्रमुग्ध सुनता रहा। ही इज फ्रॉम रोमानिया। लाइफ हैज बीन काइंड आफ्टर दैट. आइरीन ने मुझे अपनी बेटी की फोटो भी दिखाई - ईट वाज हर सेकंड बर्थडे लास्ट मंथ. 
उसके पति नौकरी ढूंढ रहे हैं। क्राइसिस में आसान नहीं है, ऊपर से कैपिटल कंट्रोल। ... बट आई हैव सीन सो मच दैट... आई डोंट वांट टू डू एनिथिंग स्टुपिड अगेन। 

मैंने सतही सा घिसा पीटा दिलासा दिया - डोंट वरी... सब ठीक हो जाएगा.

'विल यू गो अगेन टु इंडिया?' मैंने पूछा
'आई डोंट नो ! लाइफ हैज़ बीन सो अनप्रेडिकटेबल सो फार। आई वांट टू... मेबी वंस माई डाटर ग्रोज अप' 

आइरिन ने मुझसे पूछा - 'यू? विल यू कम अगेन टू ग्रीस?'  हाउ डू यू लइक इट?'

'वंडरफुल सो फार. अबाउट कमिंग अगेन... आई डोंट नो. प्रॉबब्ली नॉट बट देन… हु नोस ! फ्यू इयर्स बैक आई वुड हैव नेवर इमेजिनड आई विल एवर कम टु ग्रीस!' 

"यू लूक वेरी काम ऐंड फिल्ड। लेट मी गेस समथींग, यू हैव नेवर बीन इन लव? ऐंड यू हैव नेवर बीन विथ समवन रियली स्टुपिड?" 

"वॉट मेक्स यू थिंक दैट?"

'लव बिकौज…अटैचमेन्ट्स माई फ्रेंड ! दे रूईन एव्रिथिंग -अ मेजर पार्ट ऑफ़ यू. ऐंड… यू हैव नो आइडिया अबाउट फूलिश ऐंड ओब्स्टिनेट पीपल माई फ्रेंड !'

मैंने बस मुस्कुरा दिया... एक शब्द का उत्तर सुझा नहीं और फिर बात लम्बी हो जाती ! 

...
दुनिया के हर कोने में लोगों की कहानी एक जैसी ही होती है। बस कहने और सुनने वाले होने चाहिए। …खोना, पाना, गलतियाँ, संघर्ष, प्यार, सुख, दुःख, जीना सीखना... आइरिन की कई बातें ऐसी लगी जैसे पहले भी कई लोगों के मुंह से सुनी हो। वैसे लोगों के दुःख की बातें भी होती हैं जिन्हें देखकर हमें लगता है - 'इन्हें भला क्या दुख होगा !' प्यार मुहब्बत किसी को इतना कैसे तोड़ सकता है. लगता है जिन्हें कोई दुःख नहीं अचानक वही सबसे अधिक दुखी दिख जाते हैं ! अधुरे...  

आइरिन से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा। बहादुर ! किसी ने कह दिया तो भारत तक चली जाने वाली -गंगा में डुबकी लगा आने वाली. रोमानियन को मदुरै में पा लेने वाली. कई बार मैं लोगों के दुःख सुन अक्सर अपने अंदर खुद से कह देता हूँ  - जिसके पास होता है वही रोता है - 'हसीन दुःख' - पर आइरीन से मिल लगा वो मेरी नासमझी है !  

खैर… मुस्कुरा के बात ख़त्म करते हैं नहीं तो बात  फिर लम्बी  हो जायेगी :)

मेरे पास आइरिन का कोई संपर्क नहीं, न उसके पास मेरा। अच्छी मुलाकातों को 'इट वाज अ प्लेजर मीटिंग यू' पर ही खत्म हो जानी चाहिए।  - …अटैचमेन्ट्स माई फ्रेंड ! 


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~Abhishek Ojha~ 

किसी अपने ने कहा - इतनी जगहें गए... ग्रीस ही क्यों? उसी यात्रा पर और भी जगहें थी?
पता नहीं ! वैसे ही जैसे पुणे, बैंगलोर, मुंबई, दिल्ली… ये सब भी तो गया. कई बार… और पटना? एक बार ! :)

Sep 17, 2015

चाइनीज शॉट (यूनान -१)


'डोंत वरी, यू कैंत क्लिक अ बैद शॉत हियर। ऑल सीनिक ग्रीक पोस्तकार्द्स कम फ्रॉम दिस प्लेस' - मैंनफ्रेड ने मुसकुराते हुए कहा. मैनफ्रेड से मेरी मुलाक़ात वहीँ थोड़ी देर पहले हुई थी। पर्यटकों, सेल्फ़ी-स्टिक्स और सैकड़ों ट्राईपॉड़ों  से खचाखच भरी जगह पर. जहाँ अनजान लोग एक दूसरे को देखते हुए अक्सर मुस्कुरा देते हैं ताकि ऑक्वर्ड न लगे.

सनसेट पॉइंट - भीड़ सूर्यास्त का इंतज़ार कर रही थी. लोग कहते हैं सूर्यास्त देखने के लिए दुनिया के सबसे अच्छे जगहों में से वो एक है. आबादी 14-15 हजार पर वहाँ  हर साल कई लाख पर्यटक आते हैं। दिन अभी काफी  बचा था पर भीड़ अभी से ही अच्छी हो चली थी. दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आये लोग. सबकी अपनी भाषा और अपनी-अपनी अंग्रेजी

वहां आते हुए रास्ते में मुझसे एक चीनी लड़की ने बड़ी हड़बड़ी में पुछा - 'वेयर इज सनसेट? आर यू गोइंग फॉर सनसेट?' सनसेट को तो पश्चिम में ही होना चाहिए। कायदे से मुझे कहना चाहिए था - 'कीप लुकिंग ऐट वेस्ट' पर मैंने बताया - 'कीप वाकिंग स्ट्रेट एंड इन अबाउट एट टू टेन मिनट्स यू विल रीच सनसेट'.

खैर… सनसेट पॉइंट पर मैनफ्रेड की वेशभूषा देख मुझे ह्वेनसांग की याद आई. बचपन में इतिहास की किताब में बनी उनकी फोटो। पीठ पर बैगपैक और सर पर तवा लिए.



स्कूल के दिनों में कभी समझ नहीं आया कि ह्वेनसांग के सिर पर वो तवा दरअसल छतरी थी.

ऐसी जगहों पर मैं भी ट्राईपॉड और लेंस फिल्टर लेकर जाता हूँ.  पर यहाँ न तो ट्राइपॉड था न फिल्टर। मैं सोच रहा था कि सनसेट की तो क्या ही अच्छी फोटो आएगी ! खैर दुनिया का कोई  भी कोना हो बोली के इतर भी एक भाषा होती है जो सभी समझते हैं. उसी भाषा से ये बात समझ आधुनिक ह्वेनसांग, मैनफ्रेड ने मुझसे कहा - 'डोंत वरी, यू कैंत क्लिक अ बैद शॉत हियर।' 

इस के बाद मैनफ्रेड से थोड़ी बात चीत हुई. मैं शायद ही कभी आगे बढ़ कर खुद किसी से बात करता हूँ पर अगर कोई करने लगे तो अच्छा लगता है. मैनफ़्रेड आराम से यात्रा करने वाले यात्री हैं और अक्सर ग्रीस आते हैं. वो कहीं भी जाते हैं तो कम से कम १५ दिन रुकते हैं. स्थानीय लोगों के बीच रहते हैं उनसे मिलते जुलते हैं. आराम से घूमते हैं. उन्होंने कहा - "आई डोंट वांत तू तेक अनदर वैकेशन तू रिकवर आफ्टर माय वैकेशन। आई कीप इत रिलैक्स्ड।" उन्हें व्यू पॉइंट्स कवर करने और फोटो खींचने की जल्दी नहीं होती। तीसरी बार वो वहाँ आए थे. मैंने उनसे पूछा - "क्या-क्या है यहाँ देखने लायक?" उन्होंने एक भी व्यू पॉइंट और शॉपिंग की जगह या रेस्टोरेंट नहीं बताया। उनके अनुभव अलग थे. बातें अलग थी। गाँवों के नाम बताये उन्होने. वाइनरी बतायी। खेत देख के आओ. लोगों से मिलो। टूरिस्ट्स, रेस्टोरेंट्स, क्रुजेज? -दिस इस नो ग्रीस ! 

पहला सवाल जो मेरे दिमाग में आया वो ये कि - कोई  घूमने क्यों जाता है ?

मुझे याद आया उसी दिन सुबह होटल में बैठे एक दंपत्ति से मेरी बात हुई थी. उन्होंने मुझसे कहा - 'एक सप्ताह थोड़ा ज्यादा ही है यहाँ के लिए. दो दिनबहुत है.' उन्होंने ही मुझे दिखाया था एक सनसेट की फोटो और कहा था  'यू मस्ट सी सनसेट हियर, इट्स मेस्मेराईज़िंग '. उनके फोटो का कैप्शन था - 'हेवेन ऑन अर्थ'. मुझे लगा 'हेवेन ऑन अर्थ' के लिए दो दिन बहुत कैसे हो सकते है? हेवेन से भी बोर?

'आर दे रियली लुकिंग ऐट हेवेन?' मैनफ्रेड ने कहा. मैंने सोचा - बात तो सही है. हो गया घूमना-फिरना, खींच ली फोटो, शेयर  कर दी. चलो अब घर ! लाइक्स से अभिभूत होने के जमाने में किसे पड़ी है अनुभव की?

वैसे कई लोगों के साथ वैसा भी हो जाता है कि... एक थीं कोई. वो गयी तीर्थ करने। जाने से पहले उनके आचार  के मर्तबानों को धूप दिखाना था, जो वो पड़ोसी के यहाँ छोड़ गयी। पर उनके मन में यही हुट-हूटी रही कि... आचार खराब तो नहीं हो जाएँगे? कहते हैं जब वो द्वारका पहुंची तो लोग उन्हें द्वारिकाधीश दिखाते रह गए। पर उन्हें हर तरफ सिर्फ अचार के मर्तबान ही दिखते रहे। वैसे ही अब पर्यटकों को सिर्फ लाइक्स और कमेंट्स दिखते हैं - द्वारिकाधीश दिखें न दिखें। कैप्शन होना चाहिए - फीलिंग स्पिरिचुयल ऐट...

पिछले दिनों मैं एक कार्यक्रम में भारतीय दूतावास गया था। वहाँ मेरे आगे बैठी लड़की पूरे समय फोन में यही ढूंढती रही कि टैग  कैसे हो दूतावास! फिर वो ट्वीटर पर गयी तो उसे दूतावास का हैंडल नहीं मिला। क्या लिखना है वो तो पहले से लिख चुकी थी। कुछ देखने और सुनने की जरूरत थी नहीं। बीच में लोग ताली बजाते तो वो भी  बजा देती। शायद कर  पाते हों लोग इतनी मल्टी टास्किंग  हमसे तो न हो पाता। [हां, ये ऑब्जर्व जरूर कर रहा था :)]

खैर... मुझे याद आया जब पिछले साल मैं और मेरे एक दोस्त कोलोराडो प्लेटो के कैन्यन्स और रेगिस्तान में दो सप्ताह घूमते रहे थे. लोग पूछते हैं इतने दिन तुमने किया क्या? है क्या इतना देखने लायक? और हम सोचते रहते हैं - फिर जाएँगे कभी ! हम किसी एक जगह पर जितनी देर बैठते उतनी देर में पर्यटक बस लोगों को पूरा नेशनल पार्क दिखा लाती ! लोग व्यू पॉइंट्स पर उतरते भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसी अलग-अलग मुद्राएं बनाते - खीचिक-खीचिक कर आठ दस फोटो खींचते और चले जाते. मै उन्हेंचाइनीज शॉट कहता हूँ। सूर्यास्त देखने की जगह सूरज खाते हुए लील्यो ताहि मधुर फल जानी* पोज और एफिल टावर  चुटकी में भर लेने में ही लोग लगे रह जाते हैं। मुझे नहीं लगता वो देखते भी हैं कि क्या है वहाँ. सब कुछ तो है इन्टरनेट पर क्यों देखें या पढ़ें वहां रूककर? देखने के लिए थोड़े न गए हैं ! मुझे नहीं लगता उनके अनुभव कैप्शन और स्टेटस सोचने से बहुत अधिक होते होंगे। वो आँख भर नहीं कैमरा भर देखते हैं। मुझसे भी किसी ने मेरे एक ट्रिप की फोटो देख कहा था - "क्या देखूँ इसमें? वालपेपर लग रही हैं सारी पिक्स ! तुम तो हो नहीं इसमें।"

सूर्यास्त हुआ. खूबसूरत था. इतना कि उसके कुछ दिनों बाद मैंने किसी से कहा  - "पिछले कुछ दिनों से मैं सनसेट रेजिस्ट नहीं कर पा रहा. मुझे ओबसेशन सा हो गया है." … सूर्यास्त देखने के लिए खड़ी समुद्री नावों और जहाजों ने भोपूं बजाया। लोग सेल्फ़ी और तस्वीरें लेने में व्यस्त रहे. जल्दी-जल्दी।  कहीं 'गोल्डेन मूमेंट' चला न जाये। मुझे पता है उनके स्टेटस और कैप्शन जरूर सिरीन रहे होंगे भले वहां हांव-हांव मची थी.

लोग बहुत खुश दिखे। अच्छी तस्वीरें आई. मैनफ्रेड ने सही कहा था इतनी खूबसूरत जगह है कि ख़राब फोटो नहीं आ सकती।  फिर मैंने किसी को कहते सुना - 'इट्स ओवररेटेड ! सन, सी, माउंटेंस व्हॉट इज सो वंडरफुल अबाउट ईट? इट इज सो क्राउडेड!' बात सच थी. सूरज रोज उगता है रोज अस्त होता है. समुद्र, पहाड़ -  है थोड़ा खूबसूरत पर ऐसा भी क्या है जो इतना हो-हल्ला? जैसे बादशाह के अद्भुत कपड़े के लिए सभी वाह-वाह कर रहे हों और किसी ने  कह दिया हो कि - नंगा है !

भीड़ आई थी धीरे-धीरे पर छँटी बड़ी तेजी से. अभी ठीक से सूर्य अस्त भी नहीं हुआ था कि अधिकतर लोग निकल लिए. बैठने की जगह भी खाली होने लगी। जब सब जाने लगे - मैनफ्रेड बैठ लिए. हम भी बैठ गए. सोचा थोड़ी देर में जाएँगे जब रास्ते खाली हो जाएंगे। मैनफ्रेड ने कहा… 'वेत, अनतिल मिडनाईट। इफ यू रियली वांत तू फील समथींग वंदरफूल '.  उन्होंने तस्वीर नहीं खींची। उन्होंने बताया कि बहुत अच्छी तस्वीरें ली हैं उन्होंने उस जगह की। पर आज वो सिर्फ देखने आये थे. हम कुछ गिने-चुने लोग देर तक बैठे रहे। मुझे याद आया रात के दो बजे आर्चेस नेशनल  पार्क में डेलिकेट आर्च के पास सिर्फ छह लोग बैठे रहे थे - धुप्प अंधेरी रात, मिल्की वे, डेलिकेट आर्च. फिर रात को सिर पर फ्लैश लाइट लगाए नीचे उतरना.... वो अब तक के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक है।

लाखों पर्यटकों के लिए एक-दो दिन किसी भी जगह के लिएबहुत होता है - हेवेन्ली कैप्शन और तस्वीरों के लिए. फेसबूक पर कमेन्ट का रिप्लाई होता है - 'इट वाज अ ड्रीम वकेशन ! सैड दैट इट एंडेड टू सून :(' और मन में होता है - दो दिन ही काफी थे। एक सप्ताह बेकार गए! कहीं और भी चले गए होते इतने दिन में। मुझे मैनफ्रेड की बात जमी। मैं दो शाम और गया वहाँ। देर रात तक बैठा रहा।

मुझसे जब कोई पूछता है कैसी जगह है? कितने दिन के लिए जाना चाहिए? मुझे नहीं समझ आता मैं क्या जवाब दूँ।
वापस आने पर किसी ने पूछा - विल यू गो अगेन ?! देख तो लिया ! अगर सिर्फ जगहें 'कवर' करना लक्ष्य हो तो फिर क्यों दुबारा जाऊंगा? अगर अनुभव करना हो तो बिलकुल। फिर से... बार-बार. डिपेंड  करता है - 'चाइनीज शॉट' या 'मैनफ्रेडीय'।

मुझे लगता है कि लोग कहीं इसलिए जाने लगे हैं क्योंकि... फैंटेसी है। एल्बम बनाना है। शेयर करना है। इंटरनेट का पर्यटन पर प्रभाव विषय पर रिसर्च करने की जरुरत नहीं है. फिर लोग अपने यात्रा के असली अनुभव बताने से डरते हैं। कहीं लोग ये न समझे कि... उस बादशाह के कपड़े की तरह जो दरअसल नंगा था ! कितने लोगों के निगेटिव यात्रा अनुभव (या विस्तृत?) आपने फेसबुक पर पढ़ा है?

सबका यात्रा करने का अपना तरीका होता है- अपने कारण। सबकी अलग-अलग पसंद होती हैं। पर लाइक्स/कमेंट्स के जमाने में अनुभव के लिए कौन यात्रा करता है? यात्री बढ़े हैं - यात्रा से अनुभवी होने वाले घटे हैं - ह्वेनसांग नहीं होते अब। ट्वीट/फेसबुक के त्वरित जमाने में किसे फुर्सत है विस्तार से लिखने की और किसे फुर्सत है आपका लिखा पढ़ने की?

मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं इज इट वर्थ टू विजिट न्यू यॉर्क फॉर वन वीकेंड? 

मुझे नहीं पता क्या जवाब दूँ मैं। मैं इस शहर में घंटों पैदल चला हूँ... मीलों। मुझे सच में नहीं पतावर्थ क्या है ! शायद मुझे सारे प्रसिद्द जगहों से ज्यादा अच्छा सेंट्रल पार्क में एक पानी बेचने वाले से बात करना लगा ! मैंने पिछले पांच साल में दर्जनों दोस्तों को न्यूयॉर्क का वीकेंड ट्रिप कराया है. अन ऑफिसियल गाइड ! ऐसी जगहें हैं जहाँ पर बार-बार सिर्फ इसलिए गया क्योंकि किसी को घुमाना होता है. नहीं तो दुबारा तो कभी नहीं जाता।एक दिन भी काफी है - सालों भी कम है। घूमते रहो तो हर बार कुछ नया दिखता है। जैसे मेरी माँ ने हजारो बार मानस पढ़ा है, हर बार उन्हे लगता है कुछ नया मिला ! मैनफ़्रेडिय घूमना वैसे ही है। चाइनीज शॉट है - मानस का पाठ हुआ प्रसाद लेने के समय पहुंचे, जय-जय किया, निकल लिए.

मैं कह देता हूँ - डीपेंड्स।
लोग कहते हैं - न्यू यॉर्क के बारे में तो बहुत सुना है। और कह रहे हो डीपेंड्स ?

मैनफ़्रेडिय घूमना हो तो - "पैदल घुमो - सड़कों पर। स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी, म्यूजियम्स, स्टोर्स, ब्रूकलिन ब्रिज और एम्पायर स्टेट ही न्यू यॉर्क नहीं है.".

.... या है शायद... इतना कह सकता हूँ कि समय लगता है इस शहर से प्यार होने में। पर ऐडपटेबल शहर है। शायद वो सबसे जरूरी है किसी जगह  के लिए - कुछ समय रहो तो हर अगला दिन पिछले से बेहतर लगे. सबके लिए कुछ  न कुछ है इस शहर में।  कई लोग आते हैं जिन्हें पहले भीड़-भाड़, चमक धमक, मौसम, भाग-दौड़, लोग पसंद नहीं आते। पर धीरे-धीरे मैंने देखा है उन्हें अच्छा लगने लगता है। क्योंकि उनके लायक जो है शहर का वो हिस्सा उन्हें दिख जाता है. सबकुछ है इस शहर में. पर वो शायद मैनफ़्रेडीय नजरिया है। मैनफ्रेड जगहों के बारे में लिख सकते हैं। यात्राओं से सीख सकते हैं। अनुभव बटोर सकते हैं. पर जिन्हें चाइनीज शॉट के लिए घूमना हो - उनके लिए दो दिन बहुत है और न्यूयॉर्क तो उनके लिए पर्फेक्ट है !

मुझे खुशी है मैं मैनफ्रेड से मिला।

अज्ञेय याद आए -

मैंने आँख भर देखा। (सिर्फ कैमरा भर नहीं !)
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?'

और ये रही बिन फिल्टर ट्राइपॉड बिना शॉट…


~Abhishek Ojha~

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यूनान डायरी... पटना की तुलना में बहुत कम दिन रहना हुआ यूनान में। पर लिखने का मन है 8-10 पोस्ट। जो मैंने देखा। भाषा, लोग, जगहें, खँडहर, माइथोलॉजी, भूत, वर्तमान...

पटना और यूनान - सहस्त्राब्दियों पुराने खंडहरों को देख कर लगा यहाँ पाटलिपुत्र से आए आचार्यों ने जरूर कभी मंत्रोचर किया होगा। खैर... बाकी अगली पोस्ट्स में।

बाई दी वे - यूनान को हिन्दी में ग्रीस कहते हैं :)

*लिल्यो ताही मधुर फल जानूँ पोज- शिव भैया ने बहुत पहले एक पोस्ट में ये बात लिखी थी। वो इतनी पसंद आई थी कि लोगों को सूरज लीलते हुए देख वही याद आता है :)

Aug 6, 2015

...मॉडर्न आर्ट

"जाकी रही भावना जैसी, मॉडर्न आर्ट तिन्ह देखी तैसी"

कला प्रेमी नाराज न हो। मज़ाक की बात नहीं है... मैं प्रभु से तुलना कर रहा हूँ। इसी बात से आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरे मन में कला के लिए कितनी इज्जत है। मैं अक्सर म्यूजियम भी जाता हूँ और 'मूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा)' तो कई बार जा चूका हूँ। वो बात और है कि नॉर्मल अवस्था में जाता हूँ... जाना अच्छा लगता है। मेरे एक मित्र ने कहा था - "अबे,  मोमा बिना गाँजा मारे जाके करते क्या हो तुम ? हाई होकर जाओ तो वहाँ जो 'कुछ भी' रख दिया जाता है उसे देखकर  फंडे मारने में मजा आएगा। तब आर्ट एंजॉय करोगे"। मानता हूँ उस स्तर का कलाप्रेमी नहीं हूँ। पर मोमा जाकर ये अनुभूति जरूर हुई कि कला ब्रह्म की तरह साकार और निराकार दोनों है. मैं नादान अभी तक कला को साकार ही समझता रहा था।

कला प्रेमी होने के बावजूद मैं मोमा के लिए इस ट्वीट को आधुनिक कला की परिभाषा मानता हूँ। जैसे ऋषि-मुनि कण कण में भगवान देखते हैं वैसे ही मॉडर्न आर्ट प्रेमी... वैसे मुझे कला की समझ नहीं बस थोड़ी रुचि है और मोमा जैसी जगहों पर जो 'कुछ भी' रखा होता है उसमें से बहुत कुछ मुझे रोचक भी लगता है। कुछ बहुत रोचक भी। पिछले दिनों एक आर्ट ऑक्शन में भी जाने का मौका मिला। जिसका अनुभव कुछ ऐसा था  -


वैसे 'मोरोंस' नाम की ये पेंटिंग भी आप जितना अनुमान लगा रहे हैं उससे महंगी ही है। नहीं-नहीं मैं आपकी औकात नहीं नाप रहा, हो सकता है आप इसे और ज्यादा पैसे में खरीद लेते। वो तो मैं अपनी औकात से सोच रहा हूँ कि मेरे ब्लॉग का पाठक मेरे जैसा ही तो होगा कितना भी अनुमान लगाएगा तो भला कितना लगाएगा ! वो क्या है कि हम उस सोच के हैं - 'इतना महंगा पैंट है तो हम क्यों लेंगे जी?लूँगी ही क्या बुरी है ?' वैसे ऑक्शन में कला से ज्यादा मैं नीलामी करने वाले की बेचने की कला और प्रक्रिया पर मुग्ध हुआ। थोड़ी देर बाद वही मैं पेंटिंग्स की कीमत का ऐसे अनुमान लगाने लगा जैसे... बस में बिकने वाला 'सोना चाँदी से कम नहीं, भुलाने पर गम नहीं' ब्रांड वाला गहना जिसे महंगा लगता हो वो कार्टियर-टिफनी देख कर कीमत गेस कर दे।

आर्ट ऑक्शन में बेचने वाले कला की कीमत कुछ ऐसे बढ़ा देते हैं जैसे... बचपन में एक चाचा राशन की दुकान चलाते थे। वो कहते कि... "मैं चावल दिखाता हूँ तो कई लोग पुछते हैं कि थोड़ा और महीन नहीं है? ये साफ भी नहीं लग रहा? तो मैं अंदर जाके उसी बोरी में से फिर लाता हूँ और कहता हूँ ये देखीये बिल्कुल फाइन क्वालिटी का चावल आया है। और ज्यादा महंगा भी नहीं है बस पिछले वाले से पाँच रुपये ही ज्यादा है"। वैसे ही जिन बातों की मुझे कोई समझ नहीं मैं उन्हें भी समझने के भ्रम में कीमत सोचने लगा.… ये वाली इतने नहीं उतने हजार डॉलर की होनी चाहिए ! ऐसा भी नहीं कि मुझे कोई पेंटिग बहुत कमाल की लगी हो... जैसे कलाकार ने जान डाल दी है। अब कला के  बारे में  तो यही सुनते आये थे - जान डाल देना ! पर यहाँ तो कभीनिराकारमोंकारमूलं तुरीयं  तो कभी अष्टावक्र दिखने वाली कला में कलाकार क्या जान डालेगा... पहले डिसाइड तो हो कि उसने जो  बनाया है वो कोई प्राणी है या ऑटो या ऐटम बम!

खैर... मैं मानता हूँ कि जो मुझे समझ नहीं आता वो भी जरूर किसी और को आता होगा। जो मुझे रोचक लगता है वो किसी और को बकवास लगता होगा। कुछ बात होगी तभी तो ऐसी कला को इतने बड़े म्यूजियम में रखा जाता है और इतना महंगा बिकता है !  ऐसी ही बात पर मुझे किसी ने सलाह दी थी कि मुझे आर्ट अप्रेसिएशन का कोर्स करना चाहिए। पर मुझे लगा कोर्स करके अप्रेसिएट करना तो नहीं सिखाया जा सकता। मुझे तो नहीं. मुझे नहीं लगता किसी के कह देने से मैं कुछ अप्रेसिएट करने लग जाऊंगा ! मैं अक्सर कहता हूँ - अगर कोई अच्छा इंसान नहीं तो भले ही नोबल प्राइज़ जीत के बैठा हो मुझसे न होनी उसकी इज्जत ! तो मुझे नहीं लगता किसी के कहे या सिखाये से मुझे कुछ रोचक लग जाएगा।  इश्क़, कला, ईश्वर ये सब अनुभूति की चीजें हैं... संभवतः जिन्हे है और जिन्हें नहीं है एक दूसरे को बहुत ज्यादा समझ-समझा नहीं सकते। समझने का एक ही तरीका है - खुद अनुभव करना। खैर... बात इतनी सिरियस भी नहीं है। तो बैक टु मोमा -


जब मैं मोमा जाता हूँ तो  वहाँ रखे 'आर्ट' को देख अक्सर मन में सवाल उठता है कि 'ये है क्या'! पढ़ने के बाद कई बार कुछ रोचक लग जाता है पर कई बार ये भी लगता है कि क्या बकवास है। सबसे मजेदार अनुभव वहाँ होता है जहां कुछ लिखा ही नहीं होता। या पढ़ने से पहले जो देख कर समझ आता है वो पढ़ने के बाद कुछ और ही निकल जाता है।  या जब लगता है यूँही भारी-भारी बात लिख दी गयी है। मेरे लिए मोमा जाना यानि खुश होकर लौटना, आर्टमय होकर लौटना। थोड़ी देर तक हर चीज आर्ट ही आर्ट लगने लगती है। हर चीज को देख कर लगता है - "फिर तो ये भी आर्ट हुआ" !

खैर... फिलहाल आप ये बेनामी तस्वीर देखिये -



मैंने कुछ लोगों को दिखाया और पूछा - 'ये क्या है' ! बड़े रोचक जवाब मिले। जितने ज्यादा लोग देखेंगे यकीनन और रोचक जवाब मिलते जाएँगे। ये हैं कुछ जवाब  -

1 दीवार लग रही है
2 आयरन से कोई कपड़ा जल गया है
3 स्टीम आयरन
4 पानी की परछाई
5 मुझे तो ये कोई बैक्टीरिया या वाइरस लग रहा है, माइक्रोस्कोप के नीचे
6 समुद्र में क्रूज जा रहा हो वैसा लग रहा है !
7 कोई कीड़ा?
8 कुछ तो ऐसा लग रहा है जैसे कंक्रीट आयरन से जल गया हो... कंक्रीट के ऊपर आयरन से कपडा जलने के कांसेप्ट का प्रोजेक्शन है !
9 जबड़े का एक्स रे (सबसे अधिक लोगों ने कहा)
10 मगरमच्छ का मुंह लग रहा है। अब ये मत कहना कि मैथ का कोई थियोरम है !
11 कोई मछली?
12 लूक्स लाइक ए डेंटल इंप्रिंट
13 त्रिशूल !
14 रैंडम लग रहा है पर कुछ ज्यादा ही रैडम है !
15 हीटमैप?
16 फ्रैक्टल ? तुम भेजे हो तो मैथ ही होगा !
17 कुछ तो माइक्रोस्कोपिक है।
18 भुतहा लग रहा है। जैसे फोटो खींचते समय कैमरा हिल जाता है।
19 क्या है? बताओ। नहीं पता चल रहा। मैग्नेटिक फील्ड?
20 टॉर्च या लैंप के सामने रखे किसी पेपर जैसी चीज से दीवार पर रौशनी पड़ रही है। आकार-प्रकार से कली जैसा लग रहा है या दो कीड़े। लगभग पर्फेक्ट सिमेट्री है तो मुझे लग रहा है कि कागज को बीच से मोड़ा गया है।
21 साउंड वेव को पानी में डालकर उसका प्रोजेक्शन खींचे हो
22 पता नहीं चल रहा। पर ऐसा लगता है कि ये तस्वीर कहीं देखी है मैंने !

यानि 'देखा-देखा लग रहा है' के लेवल पर ये तस्वीर पहुँच चुकी है। इस जवाब के बाद लगा मैंने मास्टरपीस बना दिया। जब पूछा था तब ये फोटो इस तरह फ्रेम में नहीं थी। ना ही मैंने कहा कि इसे आर्ट की नजरों से देख कर बताओ।


क्या दिख रहा है से याद आया… एक बार एक पहलवान, एक बनिया और एक पंडित एक जंगल से जा रहे थे। अब जंगल था तो चिड़िया तो बोलेगी ही ! तो एक चिड़िया अपनी धुन में कुछ बोल-गा रही थी। पंडित ने कहा - सुना तुम लोगो ने? चिड़िया कह रही है राम-लक्ष्मण-दशरथ।
पहलवान बोला - धेत पंडिज्जी ! आपको तो रामे राम दिखता है। वो कह रही है - दंड-बैठक-कसरत।
बनिया बोला - कैसे सुन रहे हो आपलोग ! साफ साफ कह रही है - प्याज-लहसुन-अदरख !
अब चिड़िया क्या कह रही थी ये तो चिड़िया जाने। हम चिड़िया तो हैं नहीं जो पता होगा। फिर से तुलसी बाबा साक्षी - खग जाने खग ही की भाषा !

किसी ने मुझसे मुझसे कहा - 'जो भी है ये पर... ह्यूमन ब्रेन इज सो वायरड़ टू मेक ऐंड सी पैटर्नस आउट ऑफ रैंडम नथिंग , ...बेस्ड ओन एक्सपेरिएन्सेस !' और मुझे लगा ये वायरिंग ही मॉडर्न आर्ट के आर्ट होने का कारण है। सब लोचा घूमा फिरा के ब्रेन की वायरिंग का ही है।

तो ये है क्या?
अब चिड़िया के बोलने की तरह ये जो भी हो... आप भी कुछ देख ही रहे होंगे इसमें। बताइये।

ये कला है?
कला का तो ऐसा है कि …कलाकार की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कलाकार काहे का?

'भेंड़े और भेंडिए' में परसाईजी ने एक सियार कवि के हुआं-हुआं करने पर लिखा है - पीले सियार को 'हुआं-हुआं' के सिवा कुछ और तो आता ही नहीं था। हुआं-हुआं चिल्ला दिया। शेष सियार भी हुआं-हुआं बोल पड़े। बूढ़े सियार ने आँख के इशारे से शेष सियारों को मना कर दिया और चतुराई से बात को यों कहकर सँभाला - "भई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं। पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं? अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का? उनकी कविता में से शाश्वत के स्वर फूट रहे हैं।"

खैर कभी गलती से हम भी मशहूर हो गए तो... ममता दी की तरह कराएंगे हम भी नीलामी !

वैसे यहाँ तक पढ़ गये तो ये भी देखकर आइये - ..समीकरणरूपाय जगन्नाथाय ते नमः ! :)

~Abhishek Ojha~

Jun 23, 2015

हनीमून के भूगोल का सिलेबस (पटना २०)


‘का भईया, किससे बतिया रहे थे? लग रहा है कहीं जाने का प्लान बन रहा है?’ मेरे फ़ोन रखते ही बीरेंदर ने पूछा। वो बात और है कि यही बात किसी ने बीरेंदर से पूछा होता तो उसका जवाब होता - ‘जब सब सुनिए लिए हैं त फिर काहे ला पूछ रहे हैं?’
'हाँ कुछ दोस्तों के साथ सुंदरबन जाने का प्लान बन तो रहा था पर कुछ फाइनल नहीं हो पा रहा. एक ट्रेवल एजेंट से बात कर रहा था. वो कुछ ज्यादा ही महंगा बता रहा है. बोला सीजन नहीं है और कम आदमी हुए तो भी दस आदमी का पे करना पड़ेगा' मैंने कहा।
‘ई गजब हिसाब त पहिला बार सुन रहे हैं! हमको आइडिआ त नहीं है पर साथे का पढ़ा एक ठो लरका ट्रेभेल एजेंसी खोला है. कहिये त बात करें?.’ बैरीकूल के जान पहचान और जुगाड़ पहले भी काम आ चुके थे, तो मना करने का कोई कारण था नहीं.

ट्रेवेल एजेंसी एक पुराने ऑफिस बिल्डिंग के बेसमेंट में थी. जहां से हम अंदर गए वहाँ ढेर सारी बाइकें बेतरतीब तरीके से पार्क की गयी थी। बिल्डिंग को थामे खम्भे पर पान के पीक की परतें और पास जमा किया गया कचरा। बैरीकूल को लगा कि मुझे थोड़ा अजीब लग रहा होगा कि ये कैसी जगह पर 'ट्रेभेल एजेंसी' है ! उसने कहा – ‘थोड़ा जादे गंदगी है, का कीजिएगा कुकुर ही नहीं यहाँ आदमी भी खंभा देख के उसी का इस्तेमाल करते हैं। आछे भैया, कभी आपके दिमाग में आया है कि ये खंभा भी कभी तो एक दम फरेस... चूना-पालिस मारके एकदम चकाचक रहा होगा। अइसा कौन आदमी होगा जो पहली बार मुंह उठा के थूका होगा? माने अभी तो गंदा है तो लग रहा है कि जगहे है थूकने का. लेकिन जब चमक रहा होगा त एक दम सर्र से कोई थूक के लाल कर दिया होगा... माने उसको मजा आया होगा का? चमचमाती दीवार देख थूकने वाला जीव मचल जाता होगा थूकने के लिए कि उसको बुरा लगता होगा थूक कर?‘

'यार तुम भी क्या सोचने को कह रहे हो? मुझे कैसे पता होगा' मैंने हँसते हुए कहा।

एक छोटे से चाय की दूकान के बगल से सीढ़ियां नीचे गयी थी. चाय की दुकान के नाम पर एक कोयले का चूल्हा, एक लकड़ी की आलमारी जिसमें प्लास्टिक के तीनं-चार डब्बे रखे थे। चूल्हे को हवा देने के लिए एक टेबल फैन। एक प्लास्टिक की बड़ी बाल्टी जो शायद ट्रक के मोबिल का डब्बा था जिसकी छपाई उतर गयी थी। गिलास धोने से आस पास का फर्श गीला हो गया था। चाय के कप और कुल्हड़ फेंकने के लिए भी एक डब्बा रखा था लेकिन कप-कुल्हड़ उस डब्बे से ज्यादा बाहर फर्श पर बिखरे थे। हमें उसी रास्ते जाना था. बैरी कूल ने बताया था कि – “चाय की पसंद अपनी-अपनी होती है। कोई जादे शक्कर वाला चासनी जैसा पसंद करता है, त कोई जादे दुध वाला रबड़ी जैसा... आ जैसे-जैसे ‘बड़े आदमी' बनते जाते हैं – ‘ब्लैक टी' की तरफ बढते जाते हैं. चीनी और दूध दोनों की मात्रा कम करते जाते हैं. ज्यादा बड़े लोग बिना शक्कर बस ब्लैक ही ‘परेफर’ करते हैं. वैसे ही कप का भी है... कोई शीशा वाला गिलास, कोई कुल्हड़.  आ प्लास्टिक वाला त माने नरक है। आजकल वैसे 'हाई क्लास' फैसन में फिर कुल्हड़ आ रहा है. 'हाई क्लास' माने  'आई लभ कुल्हड वाली चाय' वाला क्लास। जैसे आदमी साल में एक बार चार जामुन- एक करेला खाके  सोचता है अब डायबिटीज नहीं होगा, बहुते फायदा करता है. वैसे ही साल में एक दो बार कार से उतर कुल्हड़ में पी के पर्यावरण से लेकर सेहत सब…।'

ट्रेवेल एजेंसी के अंदर शीशे का एक केबिन था जैसे पुराने पीसीओ होते थे. दीवारों पर कोनों से उखड़ते, टेप से फिर चिपका दिये गए, धुल की एक हलकी परत ओढ़े, स्विट्ज़रलैंड, एफ़िल टावर, सिडनी और स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी जैसे पोस्टर लगे थे. आईएटीए का एक सेर्टिफिकेशन, हज की कुछ तस्वीरें, एक पीला हो चूका सफ़ेद कम्प्यूटर, एक बड़ा सा चाइनीज मोबाइल, एक रजिस्टर जिन पर अनगिनत बार घिस घिस कर कलम चलाने का प्रयास किया गया था, जिसके उपर एक 'लिखी-फेंको' वाली कलम रखी थी और पानी की एक बोतल।

बीरेंदर ने अपने चिर परिचित अंदाज में कहा - ‘का हो चिंटूपुत्र-मांझा, कटाई कैसी चल रही है आजकल? बकरे आ रहे हैं कि नहीं? सुने रोजे बक़रईद मन रहा है?’
‘आओ आओ बीरेंदर दीखबे नहीं करते हो आजकल।’ ट्रैवल एजेंट ने सर उठाते हुए कहा।
‘का निहार रहे थे बे एतना ध्यान से कम्प्यूटर में? हमको त डाउट हो गया तुम ट्रेभेल एजेंसी खोले हो कि साइबर कैफे? आ सुने हैं आजकल भीजा-ऊजा भी लगवाने लगे हो? एक ठो हमरा भी लगवा दो कि खाली फोटवे देखते रहेंगे हम?’
‘तुमको भिजा थोरे लगेगा बीरेंदर, तुम्हरा तो ओबामा किहाँ से सीधे लेटेरे आएगा।‘
‘...बैठा जाय, खारा काहें हैं? चाय पीयेंगे? की ठंढा मांगा दें?’ ट्रेवेल एजेंट ने मेरी तरफ देखते हुए कहा। मैं चुपचाप चीजों को घूरते हुए ऐसे खड़ा था जैसे एडमिशन के लिए किसी बच्चे को स्कूल लाया गया हो.
‘काम मंदे चल रहा है बीरेंदर. का बताएं’
‘मंदा चल रहा है आ हीरो हौंडा उरा रहे हो?… हमेशा रोइतहि रहेगा. ई बता सुंदरबन का का हिसाब चल रहा है चार से पाँच आदमी के जाना है’

‘अरे बैइठिये ना पहिले। बात करे परतौ, हमलोग उधर भेजते नहीं है जादे। कउन जा रहा है?’ पटना की अपनी एक अलग ही भाषा है। हिन्दी-भोजपुरी-मगही-मैथिली कई भाषाओं का सम्मिश्रण। बोलते-बोलते अक्सर लोग एक से दूसरे पर ‘स्विच’ भी कर जाते हैं।
‘भैया को जाना है’  बीरेंदर ने मेरी तरफ इशारा किया. ‘आ बात कौंची करे परतौ रे? हमको तू पैंतरा सिखाएगा? माने तू अपना मलाई खायेगा और जिससे बात करेगा उ बचलका घी खायेगा? काम मंदा चल रहा है तो हमी को लूट के राजा हो जाएगा, नहीं?’
‘बीरेंदर यार, तुम्हें कहना पड़ेगा? उधर का आइडिया ही नहीं है तो का करें... एक तो तुम्हें सब सच बता रहे हैं’
‘अच्छा करो बात’

ट्रेवेल एजेंट अपना मोबाइल उठा कर बात करने चला गया।

‘इसके लिए भी हमको लगता है कि मिस्सडे काल मारेगा। एक नंबर के लीचर है। ...जानते हैं भैया, मांझवा का असली नाम सतप्रकास आ इसके पिताजी का नाम चिंटू. आप कभी सुने हैं कि पिताजी के नाम चिंटू आ बेटा के नाम सतप्रकास ? मतलब अइसा लगता है की उल्टा रखा गया नाम. बचपन में कोई पूछता होगा कि बेटा  तुम्हारा नाम क्या है तो बोलता होगा - सत्य प्रकाश। और तुम्हारे पिताजी का - श्री चिंटू ! दू चार ठो और श्री भी लगा दे तो चिंटू कभी भारी हो सकता है? पूछने वाला कन्फरम करने लगे - चिंटू बेटा फिर से बताओ? तो मंझवा बोलता होगा नहीं नहीं मेरा नाम चिंटू नहीं वो तो पिताजी...’

‘पूरा नाम सत्य प्रकाश मांझी?’ मैंने हँसते हुए पूछा।

‘आरे नहीं। मांझा तो इसका नाम स्कूल में धरा गया। वो ऐसे कि ई काटने में उस्ताद है. माने एकदम वल्ड चैम्पियन मांझा. धड़ से काट देता है एक दम. आ आज भी देखिये एतना न महीन कटाई की गाहक के बुझाएगा ही नहीं’ बात स्कूल के दिनों की चली और तब तक मंझवा वापस आए।

‘लिया जाय’ पोटेंशियल कस्टमर के लिए चाय मंगाई गयी थी. और फोन पर बात कर मंझवा ने बताया कि ‘बरी महंगा बता रहा है. ओतना पैसा देके काहे जाएंगे आप. कुछो नहीं है सुंदड़बन में’

ये पहला मौका नहीं था जब पटना में किसी ने मेरे खर्च की चिंता की थी। अक्सर जब रास्ता पूछता कि कितनी दूर होगा तो एक से पूछो तो चार उत्सुक लोग बताने आगे बढ़ आते। जैसे मिठाई बंट रही हो। जब पूछता कि रिक्शा या ऑटो मिल जाएगा? तो अक्सर जवाब होता  - ‘अरे काहे रेक्सा करेंगे, टहलते टहलते निकल जाइए एगारह नंबर का गारी से। हिहें पर तो है.’  तीन किलोमीटर तक के तो पैसे बचवा ही देते लोग। ये उत्सुकता और बेवजह की शुभचिंतकी हमेशा सुखद लगती।

सतप्रकास ने कहा – ‘भैया, एतना पैसा में त हम आपको ग्रुप टूर पर दुबई भेज देंगे, आ दुबई का फोटो जब आप फेसबुक पर डालेंगे त सोचिये केतना लाइक आएगा। आपका फ्रेंडलिस्ट में गर्दा उर जाएगा. एक बार आइडिया दीजिये अपना दोस्त सब के भी। सुंदड़बन में कुछो नहीं है‘
‘जाना तो सुंदरबन ही है नहीं तो कोई जरूरी भी नहीं है कि कहीं जाना ही है। खैर कोई बात नहीं... ’ मैंने कहा।
‘माने भैया को सुंदरबन जाना है त तू दुबई भेजने लगा? तुम्हरा काटने का आदत नहिये गया... ई साला चहवो तीता बना दिया है’ बीरेंदर ने मुंह बनाते हुए चाय का ग्लास रख दिया।
‘देखिये भइया हमलोग के भी त मार्केट के हिसाब से चलना पड़ता है। लोग जो पसंद करेंगे हमलोग वही भेजेंगे। मेरे पास पहली बार कोई आया है सुंदड़बन के लिए। डिमांडे नहीं है’
‘बात सही है। लेकिन अब फेसबुक पर फोटो डालने के लिए घूमने नहीं नू जाएँगे? कह रहे हैं सुंदरबन आ तू भेज रहा है दुबई। डाक्टर के हियाँ सर दर्द दिखाने आए त उ बताने लगा कि लिबरे चेक करा लीजिये फ़ेल मार गया होगा। तू चार बाई चार का डिब्बा में अकेले बईठ के फेसबूक टूर पैकेज बना रहा था क्या जब हम लोग आए?’

‘अरे उ बात नहीं है। आ भैया दुबई काहे नहीं जाएंगे? माने आपे बताइये कोई देखबों नहीं करता है अब दार्जिलिंग, शिमला, ऊटी का फोटो। कम से कम अंडमान-केरल हो तो कुछ लाइक आ भी जाय। ओतने पैसे में दुबई-बैंकॉक नहीं जाएगा कोई? उहे जमाना नहीं है बीरेंदर कि सिमला-मनाली से आगे दिमागे न जाये? अब लोग आते हैं भेनिस, संटोरिनी आ सेसेल्स के लिए... ई सब जगह अब फैसन में आ गया है। हनीमून के भूगोल का सिलेबस जो है उ सिमला-ऊटी-कस्मीर से आगे बर्ह गया है। आ अडवेंचर के लिए जाना है त लद्दाख जाइए।’

‘कौंची बोला रे? मालूम भी है तुमको नक्सा में कहाँ है ई सब? कि इसको भी झाड़खण्डे में दिखा देता है? आ अपना अनुभव के लिए जाना है कि दिखाने के लिए? तुम ससुर पाहिले एक थो इनक्रेडिबल इंडिया का फोटो लगाओ हीहां फिर बाद में संतोरियाना. देस का नक्सा  देखना आया नहीं आ यूरेसिआ के मैप पढ़ाने लगा हमको। जलडमरूमध्य बुझाया नहीं कभी आ भूगोल फेसबुकमध्ये बुझने चले हैं’

सत्यप्रकाश कुछ बोला नहीं हंसने लगा।

‘अरे भाई हमें हनीमून पर नहीं जाना है ना ही फेसबुक पर फोटो डालनी है. खैर कोई बात नहीं  मार्केट का डिमांड-सप्लाई बताने के लिए धन्यवाद। दुबई जाना हुआ तो जरूर बताएँगे आपको’ - मैंने कहा.

बीरेंदर ने आगे कहा – ‘छोड़िये! हम पहिलही बोले कि हम लोग पैंतरा में पड़ने नहीं आए हैं। लेकिन तू अइसा अइसा जगह का नाम बताया आज। हनीमून के भूगोल में परकाण्ड पीएचडीये दिला दें का तुमको? नालंदा भी फिर खुलिए गया है। एक ठो बर्हिया चाहो नहीं पिलाया आ भूगोल पढ़ाने बईठ गया। तुम्हारा सब भूगोल का कच्छा में हम भी साथे थे... सब देखे हैं…’  हम चलने लगे तो बात भूगोल की कक्षा की ओर चली गयी…

‘जानते हैं भैया, भूगोल में हमलोग के हर परीच्छा में भारत का मानचित्र बनाने आता था। माने उ सवाल फिक्से समझिए। आ आधे से जादा लरका दु रुपया का सिक्का लेके जाता था आ नहीं त नक्सा वाला कोम्पस बोक्स। तबो सब अखण्डे भारत बना के आता था। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश आ साथ में पाकिस्तानो भारते में दिखा देता था। नक्सा के बाद उसमें जगह दिखाना होता था…  मंझावा के त था कि जो भी दिखाना हो सब झारखण्डे में दिखा आता था। माने सवाल में आधा त खनिजे उत्पादन का जगह दिखाने आता था। त इ अइसा झारखंड फैन कि बंबईओ दिखाने आए त झारखण्डे में। एतने इसको पता था भूगोल। आ अब देखिये केतना भारी-भारी जगह का नाम ले रहा है! एक्को नाम नहीं सुना होगा जब पर्हता था… अभियो से पर्ह लो बे अपने देस में झारखण्ड के अलावे भी बहुत जगह है’

‘केचाईन मत करो बीरेंदर। झाड़खंड वाला हम नहीं थे उ राजेसवा करता था।’

‘अबे जाओ ! चपटु सर बोले नहीं बोले थे तुमको कि जब नकसवे सही नहीं है तो “दिखाये तो सहिये हैं सर” का कर रहा है? जब नकसवे सही नहीं बना है त जगह कौंची का ठीके दिखाया हैं? आ महाद्वीप के महाद्विप लिख देगा त महा हाथी हो जाएगा भी तुम्ही को बोले थे। अब भले तुम पीएचडी कर लिए हो हनीमून भूगोल में’

‘कौन कौन बात याद रखते हो बीरेंदर तुम भी !’ - मंझवा ने कहा.

इसके बाद एएन कॉलेज में हुई मार पीट की बात चली... वो फिर कभी :)

‘वहाँ से चले तो बीरेंदर ने बताया... अब सब कुछ फेसबुके से डिसाइड होता है। माने देखिये... वैसे जानते हैं भैया उ पुरुवा है न जिससे मिलाये थे उस दिन। उ छोर दिया फेसबुक। हम पूछे त बोला... “जानते हो नसा हो गया था। ओहि में लगे रहिते थे। एक दिन गुस्साके डिलीट कर दिये। जानते हो मेरे बाबूजी पहले खूब चाय पीते थे... उस जमाने से जब चाय पहिले पहिल फैसन में आया था। एक दिन छोर दिये... उसके बाद जहां भी जाते हैं। सब कहता है - ई चाय नहीं पीते हैं... त पेरा (पेड़ा) मांगा देता है। अब पेरा  मिलने लगा त उनको मन भी होता चाय पीने का त नहीं पीते... आ उनका चाय छूटिए गया। उहे हुआ फेसबुक छोरने पर... एतना न फैसन में हो गया है कि अब न रहो फेसबुक पर त लोग कहता है कि कैसे नहीं हो? माने अइसा है जैसे.. कौनो असंभव वाला कम कर दिये. हमको स्पेसल लगता है। फेसबूक पर तो सब है ही त जे है से कि जो नहीं है उहे न स्पेसल हुआ’  :)

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~

May 14, 2015

ना(समझ) - II


खलल दिमाग का और (ना)समझ - 1 से आगे -


सबसे ज्यादा प्रेम

लेकिन 'सबसे ज्यादा प्रेम' तो किसी एक से ही हो सकता है न?
नहीं... प्रेम अनंतता है और अनंत कई होते हैं।
सच में?
हाँ ! न सिर्फ कई अनंत होते हैं पर कई तरह के भी होते हैं।
ओह !

मुझे नहीं समझ प्रेम  की तुलना कैसे करते हैं।
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सफल रिश्ता

एक समझदार व्यक्ति ने कहा -
आजीवन झेला
घुटते रहे
पर एक 'सफल' रिश्ता निभाया.

मुझे नहीं समझ आजीवन घुटन सफल कैसे कहा जा सकता है !
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राधा-कृष्ण

कृष्ण की कितनी पटरानियों के नाम जानते हो?
बच्चे ने तपाक से उत्तर दिया - एक तो राधा !
मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा - नहीं !
ऐसे कैसे?

मुझे नहीं समझ - बस ऐसा ही है !
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ऑनलाइन

सोचते रहते हैं वो -
कितने बजे पोस्ट करने पर
किस एंगल से फोटो लेने पर
कितने दिनों बाद पुरानी फोटो पर कॉमेंट करने पर
किसे टैग करने पर
कितने लाइक - कितने कमेन्ट.

बना रखी है जिंदगी
हसीन ऑनलाइन - फटेहाल ऑफलाइन

मुझे नहीं समझ जिंदगी जीना ज्यादा जरूरी है या दिखाना  !
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सैलरी

एक ने कहा -
नहीं यार, बहुत कम है।
अब उनकी बात न करो जो भर पेट खाना भी नहीं खाते,
आज के जमाने में पचास हजार में मुश्किल है !

दूसरे ने कहा  -
महीने का पचास हजार !?
बहुत कम लोगों को मिल पाता होगा। नहीं?

ऐसे वार्तालाप के बाद -

मुझे नहीं समझ किसी से उसकी पगार* पूछने की जरूरत ही क्या है !

*इंक्लुडिंग-उपरवार :)
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ज्ञान

अपना सारा अनुभव निचोड़ एक ने कहा -
प्रेम और 'रुख लखि आयसु अनुसरेहू' है - दांपत्य जीवन !

दूसरे ने कहा  -
धैर्य की परीक्षा !
सिर्फ झेलना और सहना है - दांपत्य जीवन।

मुझे नहीं समझ व्यक्तिगत अनुभवों को लोग शाश्वत ज्ञान कैसे मान लेते हैं  !
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बहुमूल्य-अनमोल

दिखाओ जरा हमें भी कैसी होती है इतनी महंगी कलम।
उत्सुक संतोषी जीव ने अपने सरकंडे की कलम- मिट्टी के दवात को याद करते हुए कहा -
ई सोना चानी ना नु लिखी? इहों त क-ख-वे-ग-घ-S लिखी?' *

सात समंदर पार  -
सरकंडे की कलम देख
'वॉव ! क्लासिक ! कैसे लिखते हैं इससे?'
मैंने उनके आँखों में उत्सुक-इर्श्योल्लास देखा
जो खरीद सकते हैं कोई भी कलम !

मुझे नहीं पता किसी चीज की कीमत कैसे निर्धारित करते हैं !

*ये सोना चाँदी तो  नहीं लिखेगी न? ये भी तो क-ख-ग-घ ही लिखेगी।









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प्रेम ज्ञानी

असाधारण प्रेमी -
गढ़ते रहते हैं प्यार की परिभाषा
देते हैं प्रेम पर सुंदर व्याख्यान
ग़ालिब-फैज कंठस्थ !
उन्हें पता है क्या होता है प्रेम
कैसे करते हैं रोमांस
क्या देना होता है गिफ्ट
कैसा होता हैं - रोमांटिक माहौल ।

पर वेनिस के माहौल में बैठे भी अक्सर एक दूसरे से सीधे मुंह बात नही कर पाते।

साधारण प्रेमी -
अज्ञानी
उन्हें नहीं पता प्रेम की परिभाषा
ना याद कोई प्रेम की तारीख
प्यार-रोमांस शब्द से भी अंजान।
नहीं कहते कभी - आई लव यु.

पर उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी परिभाषा है प्रेम की - टोल्स्टोय के तीन सन्यासियों की तरह।

मुझे नहीं पता प्रेम-ज्ञानी कैसे होते हैं !
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वक़्त की  गति

वक़्त का 'पता ही नहीं चलता'
और 'बीत ही नहीं रहा'
के बीच जूझते लोगों को देख -

मुझे नहीं समझ वक़्त को किस गति से चलना चाहिए।
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संस्कार

उन्होने कहा -
हमारे तो संस्कार ही ऐसे रहे कि... पूरी आजादी।
दारू तो घर वालों के साथ भी, गाली-गलौज से भी कभी परहेज नहीं रहा ।

दूसरे ने कहा - हमारी तो आज भी हिम्मत नहीं कि...

मुझे नहीं समझ संस्कार के पहले 'कु' या 'सु' कब लगाते हैं।
---

मूर्ख

आज तक
किसी मूर्ख को अपनी मूर्खता महसूस होते नहीं देखा।
शायद मैं भी किसी को वैसे ही मूर्ख लगता होऊंगा?

मुझे नहीं समझ फिर कैसे किसी को मूर्ख कह दूँ।
---

उदाहरण 

उन्होने कहा -
तुम इसकी तरह नहीं,
उसकी तरह नहीं।
शर्मा जी के बेटे की तरह नहीं !*

मैंने सोचा - नए आविष्कारों और विचारकों के उदाहरण पहले से कैसे हो सकते हैं !

मुझे नहीं समझ लोग किसी में किसी और को क्यों देखना चाहते हैं !

*शर्मा जी का लौंडा
---

समझ

चंद अनुभव और
हम समझ लेते हैं - "ऐसा ही होता है"
उस कुत्ते की तरह -
गाड़ी की छाँव में जिसे लगा वही गाड़ी चला रहा है।

जब हम नहीं जानते थे कि गुरुत्वाकर्षण कारण है
तब भी चीजें उसी तरीके से गिरती थी !
हम भूल जाते हैं
कि चीजों के गिरने ने हमारी समझ को जन्म दिया.
हमारी समझ उनके गिरने का कारण नहीं !

समझ ध्वस्त होती रहेगी - नए आइंस्टीनियन-ऋषि आते रहेंगे.

मुझे नहीं समझ अपनी समझ से दुनिया न चले तो खीज क्यों होती है !
---

पुनश्च:

ब्लॉगिंग में और अन्यत्र भी डीस्कलेमर की बड़ी महिमा है इसलिए कहे दे रहा हूँ - "ना-तजुरबाकारी से वाइज़ की ये बाते हैं, उस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है !"

और "वादे वादे जायते तत्त्वबोध:" - रंभा-शुक संवाद 

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~Abhishek Ojha~

Apr 3, 2015

#जब_मैं_छोटा_बच्चा_था



आदि काल से मानवता निरंतर परिवर्तनशील है. “जेनेरेशन गैप” दरअसल पीढ़ियों के बीच नहीं कुछ सालों के अंतराल में ही हो जाता है. अब चार दिन के इंटरनेट को ही ले लीजिये, कल तक इसका मतलब होता था “साइबर कैफे में जाकर रिजल्ट देखना” और आज ऐसा हो गया है कि चौपाल अब ट्विट्टर पर ही लगती है ! साइबर कैफे तो #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था के जमाने की बात हो गयी. ग्लोबल भिलेज में सुबह सबेरे की राम-राम से लेकर भरपूर बतकूचन, बहस, छींटा कशी, देश-दुनिया, ज्ञान, शायरी… सब कुछ ट्विट्टर पर होता है . ऐसे में किसी ने #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था हैशटैग चला दिया तो लोगों ने दिल खोल के अपने बचपन के दिनों को याद किया। सभी के बचपन के दिन… खूबसूरत होते हैं. अनंत मासूम यादें.


ऐसे में हमने भी थोड़ा बहुत ट्वीट कर दिया। उन्हीं ट्वीटो को एक पोस्ट के रूप में सहेजने की सलाह गिरीश भैया ने दी... पर उससे पहले महापंडित राहुल सांकृत्यायन की ‘वोल्गा से गंगा’ में २५०० ई पू परिकल्पित एक दृश्य पढ़िए। इसमें बात है मानवता के पहले आविष्कारों की. जिन आविष्कारों ने मनुष्य को पशुपालन और बंजारे के जीवन से आगे बढ़ाया। पढ़ते हुए आपको लगेगा वैसी ही बातें आज के रोज आ रहे नए-नए ‘गैजेट्स’ के बारे में हमें सुनने को मिलती है. मानव इतिहास का ट्विट्टर हैंडल होता तो वो ट्वीट करता - #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब ताँबा था अब आईफोन है। :)

'वोल्गा से गंगा' का अंश:
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कथा शुरू हुई कंडी के पास रखी ताँबे की पतीली को देखकर। बाबा ने कहा -
“इस ताँबे और खेतों को देखकर मेरा दिल जाता है. जबसे ये चीजें वक्षु के तट पर आई, तब से चारो ओर पाप-अधर्म बढ़ गया, देवता भी नाराज हो गये, अधिक महामारी पड़ने लगी, अधिक मार-काट भी.”
“तो पहले ये चीजें नहीं थी बाबा?” - पुरुहूत ने कहा.
“नहीं बच्चा ! ये चीजें मेरे बचपन में जरा-जरा आई. मेरे दादा ने तो इनका नाम तक न सुना था. उस वक़्त पत्थर, हड्डी, सींग, लकड़ी के ही सारे हथियार होते थे.”
“तो लकड़ी कैसे काटते थे, बाबा !”
“पत्थर के कुल्हाड़े से.”
“बहुत देर लगती होगी; और इतनी अच्छी तो कटती नहीं होगी?”
“इसी जल्दी ने तो सारा काम चौपट किया। अब अपने दो महीने के खाने तथा आधी जिंदगी के चढ़ने के एक अश्व को देकर एक अयः (ताम्बे का) कुल्हाड़ा लो, फिर जंगल काट-उजाड़ दो अथवा गाँव के गाव को मार डालो। लेकिन गाँव जंगल के वृक्षों की तरह निहत्था नहीं है, उसके पास भी उसी तरह का तेज कुल्हाड़ा है. इस अयः कुठार ने युद्ध को और क्रूर बना दिया। इसके घाव से जहर पैदा हो जाता है. पहले बाण के फल पत्थर के होते थे, वे इतने तीक्ष्ण नहीं थे, ठीक है; किन्तु चतुर हाथों में ज्यादा कारगर होते थे. अब इन ताँबे के फलों से दुधमुंहे बच्चे भी बाघ का शिकार करना चाहते हैं. अब  काहे कोई निष्णात धनुर्धर होना चाहेगा?
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दुनिया रोज बदलती है पर कुछ बातें कभी नहीं बदलती जैसे - दुनिया के बदलने की गति। हर नयी पीढ़ी को लगता है पिछली पीढ़ी बिन इन औजारों के काम कैसे चलाती होगी? और पिछली पीढ़ी अपने आउटडेटेड औजारों को लेकर नॉस्टॅल्जीआई रहती है - क्या दिन थे ! राहुल सांकृत्यायन के बारे में पढ़ते हुए लगता है चलते-फिरते विकिपीडिया रहे होंगे। उनके लिखे इस वार्तालाप की आखिरी पंक्ति पढ़ कर आप सोच रहे होंगे। सच है - “गूगल की मदद से अब दुधमुंहे बच्चे भी विद्वान हो जाना चाहते हैं, अब काहे कोई महापंडित होना चाहेगा?” :)

खैर… ये रहे ट्वीट्स -

१. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब सर्दियों में कउड़ा के पास जमा होकर लोग देश दुनिया राजनीति की बतकही करते थे।
२. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब आम-जामुन-महुआ के बगीचे होते थे। जिनमें भूत रहते थे। ...और मैंने वहीं दोनाली चालाना सीखा :) #यूपी
३. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब टीवी का अंटेना घुमाना पड़ता था। और जुगाड कर साइकल के पहिये से अंटेना बनाया था।
४. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब हेयरकट के नाम पर पिताजी का नाऊ को "एकदम छोटा काट दो" का आदेश होता था। :) 
५. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब एक ही थान के कपड़े से सारे भाइयों का कपड़ा सिल जाता था। :) 
६. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब एक कागज पर पैर का निशान बनाकर चप्पल/जूता खरीदा जाता था। :) 
७. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब बढ़ई घर में काम करने आए तो अंत में एक बैट और पीढ़ा जरूर बनाता था।
८. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब गाँव के सेंट बोरिस पब्लिक स्कूल में अपना "सिटींग अरेंजमेंट" (बोरा) साथ लेकर जाते थे :) 
९. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब आँगन में ओखली, जाँत और सिलबट्टा हुआ करते थे। 
१०. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब एक टेलीफोन पर पूरे गाँव का फोन आता था। 
११. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब पंद्रह का पहाड़ा ऐसे पढ़ता था जैसे युद्ध के वर्णन वाली कोई वीर रस की कविता हो :) 
१२. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था पन्द्रह दुनीतीस तियांपैंतालिस चौकासाठ पांचेपचहत्तर छक्कानब्बे सातपिचोत्तर आठेबिस्सा नौपैन्तिसा झमक-झमक्का डेढ़ सौ !’ 
१३. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब आम खाकर बता देते थे कि बगीचे के किस पेंड का है ! 
१४. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था ट्यूबवैल पर नहाकर गीली हाफ पैंट हाथ में सुदर्शन चक्र की तरह घुमाते घर आता था :) 
१५. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब खराब घड़ी, रेडियो, चुंबक, तार, सिलाई मशीन ये सब फेवरेट खिलौने होते थे। 
१६. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब बगीचे से गुजरते हुए मुंह बंद रखना होता था। क्योंकि गिद्ध दांत गिन ले तो सारे झड़ जाते थे। 
१७. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब बिन समझे बुझे जो संस्कृत के श्लोक रटा के कंठस्थ हो गए थे वो अब भी याद हैं। 
१८. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब कला के नाम पर साड़ी की किनारी, आम, अमरूद, कमल, नदी-पहाड़-सूर्योदय (बस इतना ही) :) बना लेता था। 
१९. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब शोले की पूरी फिल्म के ऑडियो कैसेट आते थे. 
२०. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था  नानावा एकासी (9X9=81), नाना गईले फांसी, छोड़ाव ए नाती :) 
२१. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था "ओका बोका तीन तड़ोका लौवा लाठी चन्दन काठी" इफ यू नो व्हाट ईट मीन्स :) 
२२. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तो पोखरा में डूबते-डूबते बचना और "ये किस चीज का ऐड है" पूछकर घर में सन्नाटा कर देना जैसे काम तो कंपलसरी होता है :) 
२३. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब कौवा उड़, चिरई उड़ के खेल में... पतंग उड़ तो फिर कागज भी उड़? जैसी उड़ाने विवाद का विषय होती थी :) 
२४. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब गन्ने के छिलके कौन कितना बड़ा छिल सकता है जैसे कंपटीशन करता था :) 
२५. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब बड़ों के यात्रा करने के लिए बड़े टूथपेस्ट ट्यूब से छोटे ट्यूब में टूथपेस्ट भर देता था। 
२६. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब डायोड से फ्यूज ट्यूब लाइट जला देता था। 
२७. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब रीफ़ील में स्याही भर देता था। 
२८. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था एक बार सियाही घोर के लिखने का शौक चढ़ा था। शाम को स्कूल से बानर जैसा मुंह करिया कर के घर लौटा था :) 
२९. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब बड़े बच्चो को स्कूल जाता देख पहली धमकी दी थी। मुझे स्कूल जाने दो नहीं तो बाद में कहोगे तो भी नहीं जाऊंगा :) 
३०. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब निबंध लिखते समय खूब हाँकता था। जो भी दोहा-चौपाई याद आती वो घूमा-फिरा के घुसा ही देता था :) 
३१. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब गाँव के दूसरे घरो में चिट्ठी लिखने-पढ़ने के लिए बुलाया जाता था। 
३२. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था “अंग्रेजी वाली मैडम”... बाकी कहानी 140 अक्षर में थोड़े न आएगी :) 
३३. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब एक लड़की मेरे घर नोट्स मांगने आयी थी। और मुझे जिस नजर से देखा गया था मुझे उसका मतलब नहीं पता था :) 
३४. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था पढ़ने के लिए कभी डाँट नहीं खायी :) 
३५. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब घर में रादूगो प्रकाशन मॉस्को की किताबे होती थी। 
३६. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब फाउंटेन पेन से लिखता था। रीफ़ील वाले पेन से लिखने पर हैंड राइटिंग खराब होती थी। :) 
३७. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था मेला, पिपीहरी, लट्टू, कैसेट, खेत-खलिहान, हल-बैल-हेंगा, ट्यूबवेल, बैलगाड़ी, तांगा, कैसेट, कंचे, सरकंडे की कलम, स्लेट.. 
३८. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था "लक्स सुपरहिट फ़िल्म *(कोई भी फ्लॉप फ़िल्म)* के इस भाग के प्रायोजक हैं" :) 
३९. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब विरले ही मार खाता था। अच्छा बच्चा होने के साथ चालु भी था मार खाने के पहले ही रोने लग जाता था. :) 
४०. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था बिन कहानी सुने कभी खाना नहीं खाता था। 
४१. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब खिलौनों से ज्यादा जुगाड़ और मशीन खोलने-जोड़ने में मजा आता था। 
४२. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब पता नहीं था कि जो अंकल घर आए हैं उनको सबके सामने उस नाम से नहीं बुलाना होता जिस नाम से पीठ पीछे बुलाते हैं। :) 
४३. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब सर उठाकर हवाई जहाज जरूर देखता था। और धुआँ छोडते जाने वाले जहाज को रॉकेट कहते थे :) 
४४. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब बड़ा होकर बुलेट की सवारी और राइफल चलाना चाहता था :) #यूपी 
४५. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब देशभक्त और शहीद कम्युनिस्ट, लेफ्ट-राइट, आस्तिक-नास्तिक नहीं.. सिर्फ पूज्य होते थे। 
४६. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति-मुख्यमंत्री-राज्यपाल सब तोपची लोग लगते थे. बड़ा हुआ तो यशवंत सिन्हा से अग्री कर गया. कोई भी *&$ 
४७. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था इयं आकाशवाणी. सम्प्रतिः वार्ताः श्रूयन्ताम् ! प्रवाचकः एट्सेटरा एट्सेटरा :) 
४८. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था खिलखिला कर हँसता था, और जब रोता था तब हांफ जाने और रुक-रुक कर सांस आने तक !  
४९. मुझे जानने वाले #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब की बातें सुनते हैं तो उन्हें लगता है उन्होने मुझे तब क्यों नहीं देखा :) 
५०. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब मेरा बचपन ऐसा था कि इस हैशटैग पर लिखता ही रह जाता। पर अब बड़ा हो गया हूँ तो ऑफिस में काम भी करना है :) 
५१. #जब_मैं_छोटा_बच्चा_था तब ऐसे दिन थे कि... आज सिर्फ चर्चा छिड़ी तो अभी तक ऑफिस में कुछ काम नहीं किया :)


#जब_मैं_छोटा_बच्चा_था बहुत देर तक ट्रेंड हुआ. लाखों ट्वीट हुए... अनंत बातों में से मैंने सिर्फ ५१ ही ट्वीटा !

अगर आप अट्वीटरीय इंसान हैं तो आपको ये बातें बेवकूफी लग सकती है. आपके लिए ही कुछ दिन पहले मैंने एक ट्वीट किया था - सर्वे जना: यत्र मंडूक-सदृश: टर्र-टर्र इति अतिउल्लासे लीयते सा ट्विट्टर: ! :)

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~Abhishek Ojha~