"जाकी रही भावना जैसी, मॉडर्न आर्ट तिन्ह देखी तैसी"
कला प्रेमी नाराज न हो। मज़ाक की बात नहीं है... मैं प्रभु से तुलना कर रहा हूँ। इसी बात से आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरे मन में कला के लिए कितनी इज्जत है। मैं अक्सर म्यूजियम भी जाता हूँ और 'मूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा)' तो कई बार जा चूका हूँ। वो बात और है कि नॉर्मल अवस्था में जाता हूँ... जाना अच्छा लगता है। मेरे एक मित्र ने कहा था - "अबे, मोमा बिना गाँजा मारे जाके करते क्या हो तुम ? हाई होकर जाओ तो वहाँ जो 'कुछ भी' रख दिया जाता है उसे देखकर फंडे मारने में मजा आएगा। तब आर्ट एंजॉय करोगे"। मानता हूँ उस स्तर का कलाप्रेमी नहीं हूँ। पर मोमा जाकर ये अनुभूति जरूर हुई कि कला ब्रह्म की तरह साकार और निराकार दोनों है. मैं नादान अभी तक कला को साकार ही समझता रहा था।
कला प्रेमी होने के बावजूद मैं मोमा के लिए इस ट्वीट को आधुनिक कला की परिभाषा मानता हूँ। जैसे ऋषि-मुनि कण कण में भगवान देखते हैं वैसे ही मॉडर्न आर्ट प्रेमी... वैसे मुझे कला की समझ नहीं बस थोड़ी रुचि है और मोमा जैसी जगहों पर जो 'कुछ भी' रखा होता है उसमें से बहुत कुछ मुझे रोचक भी लगता है। कुछ बहुत रोचक भी। पिछले दिनों एक आर्ट ऑक्शन में भी जाने का मौका मिला। जिसका अनुभव कुछ ऐसा था -
वैसे 'मोरोंस' नाम की ये पेंटिंग भी आप जितना अनुमान लगा रहे हैं उससे महंगी ही है। नहीं-नहीं मैं आपकी औकात नहीं नाप रहा, हो सकता है आप इसे और ज्यादा पैसे में खरीद लेते। वो तो मैं अपनी औकात से सोच रहा हूँ कि मेरे ब्लॉग का पाठक मेरे जैसा ही तो होगा कितना भी अनुमान लगाएगा तो भला कितना लगाएगा ! वो क्या है कि हम उस सोच के हैं - 'इतना महंगा पैंट है तो हम क्यों लेंगे जी?लूँगी ही क्या बुरी है ?' वैसे ऑक्शन में कला से ज्यादा मैं नीलामी करने वाले की बेचने की कला और प्रक्रिया पर मुग्ध हुआ। थोड़ी देर बाद वही मैं पेंटिंग्स की कीमत का ऐसे अनुमान लगाने लगा जैसे... बस में बिकने वाला 'सोना चाँदी से कम नहीं, भुलाने पर गम नहीं' ब्रांड वाला गहना जिसे महंगा लगता हो वो कार्टियर-टिफनी देख कर कीमत गेस कर दे।
आर्ट ऑक्शन में बेचने वाले कला की कीमत कुछ ऐसे बढ़ा देते हैं जैसे... बचपन में एक चाचा राशन की दुकान चलाते थे। वो कहते कि... "मैं चावल दिखाता हूँ तो कई लोग पुछते हैं कि थोड़ा और महीन नहीं है? ये साफ भी नहीं लग रहा? तो मैं अंदर जाके उसी बोरी में से फिर लाता हूँ और कहता हूँ ये देखीये बिल्कुल फाइन क्वालिटी का चावल आया है। और ज्यादा महंगा भी नहीं है बस पिछले वाले से पाँच रुपये ही ज्यादा है"। वैसे ही जिन बातों की मुझे कोई समझ नहीं मैं उन्हें भी समझने के भ्रम में कीमत सोचने लगा.… ये वाली इतने नहीं उतने हजार डॉलर की होनी चाहिए ! ऐसा भी नहीं कि मुझे कोई पेंटिग बहुत कमाल की लगी हो... जैसे कलाकार ने जान डाल दी है। अब कला के बारे में तो यही सुनते आये थे - जान डाल देना ! पर यहाँ तो कभीनिराकारमोंकारमूलं तुरीयं तो कभी अष्टावक्र दिखने वाली कला में कलाकार क्या जान डालेगा... पहले डिसाइड तो हो कि उसने जो बनाया है वो कोई प्राणी है या ऑटो या ऐटम बम!
खैर... मैं मानता हूँ कि जो मुझे समझ नहीं आता वो भी जरूर किसी और को आता होगा। जो मुझे रोचक लगता है वो किसी और को बकवास लगता होगा। कुछ बात होगी तभी तो ऐसी कला को इतने बड़े म्यूजियम में रखा जाता है और इतना महंगा बिकता है ! ऐसी ही बात पर मुझे किसी ने सलाह दी थी कि मुझे आर्ट अप्रेसिएशन का कोर्स करना चाहिए। पर मुझे लगा कोर्स करके अप्रेसिएट करना तो नहीं सिखाया जा सकता। मुझे तो नहीं. मुझे नहीं लगता किसी के कह देने से मैं कुछ अप्रेसिएट करने लग जाऊंगा ! मैं अक्सर कहता हूँ - अगर कोई अच्छा इंसान नहीं तो भले ही नोबल प्राइज़ जीत के बैठा हो मुझसे न होनी उसकी इज्जत ! तो मुझे नहीं लगता किसी के कहे या सिखाये से मुझे कुछ रोचक लग जाएगा। इश्क़, कला, ईश्वर ये सब अनुभूति की चीजें हैं... संभवतः जिन्हे है और जिन्हें नहीं है एक दूसरे को बहुत ज्यादा समझ-समझा नहीं सकते। समझने का एक ही तरीका है - खुद अनुभव करना। खैर... बात इतनी सिरियस भी नहीं है। तो बैक टु मोमा -
जब मैं मोमा जाता हूँ तो वहाँ रखे 'आर्ट' को देख अक्सर मन में सवाल उठता है कि 'ये है क्या'! पढ़ने के बाद कई बार कुछ रोचक लग जाता है पर कई बार ये भी लगता है कि क्या बकवास है। सबसे मजेदार अनुभव वहाँ होता है जहां कुछ लिखा ही नहीं होता। या पढ़ने से पहले जो देख कर समझ आता है वो पढ़ने के बाद कुछ और ही निकल जाता है। या जब लगता है यूँही भारी-भारी बात लिख दी गयी है। मेरे लिए मोमा जाना यानि खुश होकर लौटना, आर्टमय होकर लौटना। थोड़ी देर तक हर चीज आर्ट ही आर्ट लगने लगती है। हर चीज को देख कर लगता है - "फिर तो ये भी आर्ट हुआ" !
खैर... फिलहाल आप ये बेनामी तस्वीर देखिये -
मैंने कुछ लोगों को दिखाया और पूछा - 'ये क्या है' ! बड़े रोचक जवाब मिले। जितने ज्यादा लोग देखेंगे यकीनन और रोचक जवाब मिलते जाएँगे। ये हैं कुछ जवाब -
1 दीवार लग रही है
2 आयरन से कोई कपड़ा जल गया है
3 स्टीम आयरन
4 पानी की परछाई
5 मुझे तो ये कोई बैक्टीरिया या वाइरस लग रहा है, माइक्रोस्कोप के नीचे
6 समुद्र में क्रूज जा रहा हो वैसा लग रहा है !
7 कोई कीड़ा?
8 कुछ तो ऐसा लग रहा है जैसे कंक्रीट आयरन से जल गया हो... कंक्रीट के ऊपर आयरन से कपडा जलने के कांसेप्ट का प्रोजेक्शन है !
9 जबड़े का एक्स रे (सबसे अधिक लोगों ने कहा)
10 मगरमच्छ का मुंह लग रहा है। अब ये मत कहना कि मैथ का कोई थियोरम है !
11 कोई मछली?
12 लूक्स लाइक ए डेंटल इंप्रिंट
13 त्रिशूल !
14 रैंडम लग रहा है पर कुछ ज्यादा ही रैडम है !
15 हीटमैप?
16 फ्रैक्टल ? तुम भेजे हो तो मैथ ही होगा !
17 कुछ तो माइक्रोस्कोपिक है।
18 भुतहा लग रहा है। जैसे फोटो खींचते समय कैमरा हिल जाता है।
19 क्या है? बताओ। नहीं पता चल रहा। मैग्नेटिक फील्ड?
20 टॉर्च या लैंप के सामने रखे किसी पेपर जैसी चीज से दीवार पर रौशनी पड़ रही है। आकार-प्रकार से कली जैसा लग रहा है या दो कीड़े। लगभग पर्फेक्ट सिमेट्री है तो मुझे लग रहा है कि कागज को बीच से मोड़ा गया है।
21 साउंड वेव को पानी में डालकर उसका प्रोजेक्शन खींचे हो
22 पता नहीं चल रहा। पर ऐसा लगता है कि ये तस्वीर कहीं देखी है मैंने !
यानि 'देखा-देखा लग रहा है' के लेवल पर ये तस्वीर पहुँच चुकी है। इस जवाब के बाद लगा मैंने मास्टरपीस बना दिया। जब पूछा था तब ये फोटो इस तरह फ्रेम में नहीं थी। ना ही मैंने कहा कि इसे आर्ट की नजरों से देख कर बताओ।
क्या दिख रहा है से याद आया… एक बार एक पहलवान, एक बनिया और एक पंडित एक जंगल से जा रहे थे। अब जंगल था तो चिड़िया तो बोलेगी ही ! तो एक चिड़िया अपनी धुन में कुछ बोल-गा रही थी। पंडित ने कहा - सुना तुम लोगो ने? चिड़िया कह रही है राम-लक्ष्मण-दशरथ।
पहलवान बोला - धेत पंडिज्जी ! आपको तो रामे राम दिखता है। वो कह रही है - दंड-बैठक-कसरत।
बनिया बोला - कैसे सुन रहे हो आपलोग ! साफ साफ कह रही है - प्याज-लहसुन-अदरख !
अब चिड़िया क्या कह रही थी ये तो चिड़िया जाने। हम चिड़िया तो हैं नहीं जो पता होगा। फिर से तुलसी बाबा साक्षी - खग जाने खग ही की भाषा !
किसी ने मुझसे मुझसे कहा - 'जो भी है ये पर... ह्यूमन ब्रेन इज सो वायरड़ टू मेक ऐंड सी पैटर्नस आउट ऑफ रैंडम नथिंग , ...बेस्ड ओन एक्सपेरिएन्सेस !' और मुझे लगा ये वायरिंग ही मॉडर्न आर्ट के आर्ट होने का कारण है। सब लोचा घूमा फिरा के ब्रेन की वायरिंग का ही है।
तो ये है क्या?
अब चिड़िया के बोलने की तरह ये जो भी हो... आप भी कुछ देख ही रहे होंगे इसमें। बताइये।
ये कला है?
कला का तो ऐसा है कि …कलाकार की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कलाकार काहे का?
'भेंड़े और भेंडिए' में परसाईजी ने एक सियार कवि के हुआं-हुआं करने पर लिखा है - पीले सियार को 'हुआं-हुआं' के सिवा कुछ और तो आता ही नहीं था। हुआं-हुआं चिल्ला दिया। शेष सियार भी हुआं-हुआं बोल पड़े। बूढ़े सियार ने आँख के इशारे से शेष सियारों को मना कर दिया और चतुराई से बात को यों कहकर सँभाला - "भई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं। पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं? अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का? उनकी कविता में से शाश्वत के स्वर फूट रहे हैं।"
खैर कभी गलती से हम भी मशहूर हो गए तो... ममता दी की तरह कराएंगे हम भी नीलामी !
वैसे यहाँ तक पढ़ गये तो ये भी देखकर आइये - ..समीकरणरूपाय जगन्नाथाय ते नमः ! :)
~Abhishek Ojha~
कला प्रेमी नाराज न हो। मज़ाक की बात नहीं है... मैं प्रभु से तुलना कर रहा हूँ। इसी बात से आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरे मन में कला के लिए कितनी इज्जत है। मैं अक्सर म्यूजियम भी जाता हूँ और 'मूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा)' तो कई बार जा चूका हूँ। वो बात और है कि नॉर्मल अवस्था में जाता हूँ... जाना अच्छा लगता है। मेरे एक मित्र ने कहा था - "अबे, मोमा बिना गाँजा मारे जाके करते क्या हो तुम ? हाई होकर जाओ तो वहाँ जो 'कुछ भी' रख दिया जाता है उसे देखकर फंडे मारने में मजा आएगा। तब आर्ट एंजॉय करोगे"। मानता हूँ उस स्तर का कलाप्रेमी नहीं हूँ। पर मोमा जाकर ये अनुभूति जरूर हुई कि कला ब्रह्म की तरह साकार और निराकार दोनों है. मैं नादान अभी तक कला को साकार ही समझता रहा था।
कला प्रेमी होने के बावजूद मैं मोमा के लिए इस ट्वीट को आधुनिक कला की परिभाषा मानता हूँ। जैसे ऋषि-मुनि कण कण में भगवान देखते हैं वैसे ही मॉडर्न आर्ट प्रेमी... वैसे मुझे कला की समझ नहीं बस थोड़ी रुचि है और मोमा जैसी जगहों पर जो 'कुछ भी' रखा होता है उसमें से बहुत कुछ मुझे रोचक भी लगता है। कुछ बहुत रोचक भी। पिछले दिनों एक आर्ट ऑक्शन में भी जाने का मौका मिला। जिसका अनुभव कुछ ऐसा था -
वैसे 'मोरोंस' नाम की ये पेंटिंग भी आप जितना अनुमान लगा रहे हैं उससे महंगी ही है। नहीं-नहीं मैं आपकी औकात नहीं नाप रहा, हो सकता है आप इसे और ज्यादा पैसे में खरीद लेते। वो तो मैं अपनी औकात से सोच रहा हूँ कि मेरे ब्लॉग का पाठक मेरे जैसा ही तो होगा कितना भी अनुमान लगाएगा तो भला कितना लगाएगा ! वो क्या है कि हम उस सोच के हैं - 'इतना महंगा पैंट है तो हम क्यों लेंगे जी?लूँगी ही क्या बुरी है ?' वैसे ऑक्शन में कला से ज्यादा मैं नीलामी करने वाले की बेचने की कला और प्रक्रिया पर मुग्ध हुआ। थोड़ी देर बाद वही मैं पेंटिंग्स की कीमत का ऐसे अनुमान लगाने लगा जैसे... बस में बिकने वाला 'सोना चाँदी से कम नहीं, भुलाने पर गम नहीं' ब्रांड वाला गहना जिसे महंगा लगता हो वो कार्टियर-टिफनी देख कर कीमत गेस कर दे।
आर्ट ऑक्शन में बेचने वाले कला की कीमत कुछ ऐसे बढ़ा देते हैं जैसे... बचपन में एक चाचा राशन की दुकान चलाते थे। वो कहते कि... "मैं चावल दिखाता हूँ तो कई लोग पुछते हैं कि थोड़ा और महीन नहीं है? ये साफ भी नहीं लग रहा? तो मैं अंदर जाके उसी बोरी में से फिर लाता हूँ और कहता हूँ ये देखीये बिल्कुल फाइन क्वालिटी का चावल आया है। और ज्यादा महंगा भी नहीं है बस पिछले वाले से पाँच रुपये ही ज्यादा है"। वैसे ही जिन बातों की मुझे कोई समझ नहीं मैं उन्हें भी समझने के भ्रम में कीमत सोचने लगा.… ये वाली इतने नहीं उतने हजार डॉलर की होनी चाहिए ! ऐसा भी नहीं कि मुझे कोई पेंटिग बहुत कमाल की लगी हो... जैसे कलाकार ने जान डाल दी है। अब कला के बारे में तो यही सुनते आये थे - जान डाल देना ! पर यहाँ तो कभीनिराकारमोंकारमूलं तुरीयं तो कभी अष्टावक्र दिखने वाली कला में कलाकार क्या जान डालेगा... पहले डिसाइड तो हो कि उसने जो बनाया है वो कोई प्राणी है या ऑटो या ऐटम बम!
खैर... मैं मानता हूँ कि जो मुझे समझ नहीं आता वो भी जरूर किसी और को आता होगा। जो मुझे रोचक लगता है वो किसी और को बकवास लगता होगा। कुछ बात होगी तभी तो ऐसी कला को इतने बड़े म्यूजियम में रखा जाता है और इतना महंगा बिकता है ! ऐसी ही बात पर मुझे किसी ने सलाह दी थी कि मुझे आर्ट अप्रेसिएशन का कोर्स करना चाहिए। पर मुझे लगा कोर्स करके अप्रेसिएट करना तो नहीं सिखाया जा सकता। मुझे तो नहीं. मुझे नहीं लगता किसी के कह देने से मैं कुछ अप्रेसिएट करने लग जाऊंगा ! मैं अक्सर कहता हूँ - अगर कोई अच्छा इंसान नहीं तो भले ही नोबल प्राइज़ जीत के बैठा हो मुझसे न होनी उसकी इज्जत ! तो मुझे नहीं लगता किसी के कहे या सिखाये से मुझे कुछ रोचक लग जाएगा। इश्क़, कला, ईश्वर ये सब अनुभूति की चीजें हैं... संभवतः जिन्हे है और जिन्हें नहीं है एक दूसरे को बहुत ज्यादा समझ-समझा नहीं सकते। समझने का एक ही तरीका है - खुद अनुभव करना। खैर... बात इतनी सिरियस भी नहीं है। तो बैक टु मोमा -
जब मैं मोमा जाता हूँ तो वहाँ रखे 'आर्ट' को देख अक्सर मन में सवाल उठता है कि 'ये है क्या'! पढ़ने के बाद कई बार कुछ रोचक लग जाता है पर कई बार ये भी लगता है कि क्या बकवास है। सबसे मजेदार अनुभव वहाँ होता है जहां कुछ लिखा ही नहीं होता। या पढ़ने से पहले जो देख कर समझ आता है वो पढ़ने के बाद कुछ और ही निकल जाता है। या जब लगता है यूँही भारी-भारी बात लिख दी गयी है। मेरे लिए मोमा जाना यानि खुश होकर लौटना, आर्टमय होकर लौटना। थोड़ी देर तक हर चीज आर्ट ही आर्ट लगने लगती है। हर चीज को देख कर लगता है - "फिर तो ये भी आर्ट हुआ" !
खैर... फिलहाल आप ये बेनामी तस्वीर देखिये -
मैंने कुछ लोगों को दिखाया और पूछा - 'ये क्या है' ! बड़े रोचक जवाब मिले। जितने ज्यादा लोग देखेंगे यकीनन और रोचक जवाब मिलते जाएँगे। ये हैं कुछ जवाब -
1 दीवार लग रही है
2 आयरन से कोई कपड़ा जल गया है
3 स्टीम आयरन
4 पानी की परछाई
5 मुझे तो ये कोई बैक्टीरिया या वाइरस लग रहा है, माइक्रोस्कोप के नीचे
6 समुद्र में क्रूज जा रहा हो वैसा लग रहा है !
7 कोई कीड़ा?
8 कुछ तो ऐसा लग रहा है जैसे कंक्रीट आयरन से जल गया हो... कंक्रीट के ऊपर आयरन से कपडा जलने के कांसेप्ट का प्रोजेक्शन है !
9 जबड़े का एक्स रे (सबसे अधिक लोगों ने कहा)
10 मगरमच्छ का मुंह लग रहा है। अब ये मत कहना कि मैथ का कोई थियोरम है !
11 कोई मछली?
12 लूक्स लाइक ए डेंटल इंप्रिंट
13 त्रिशूल !
14 रैंडम लग रहा है पर कुछ ज्यादा ही रैडम है !
15 हीटमैप?
16 फ्रैक्टल ? तुम भेजे हो तो मैथ ही होगा !
17 कुछ तो माइक्रोस्कोपिक है।
18 भुतहा लग रहा है। जैसे फोटो खींचते समय कैमरा हिल जाता है।
19 क्या है? बताओ। नहीं पता चल रहा। मैग्नेटिक फील्ड?
20 टॉर्च या लैंप के सामने रखे किसी पेपर जैसी चीज से दीवार पर रौशनी पड़ रही है। आकार-प्रकार से कली जैसा लग रहा है या दो कीड़े। लगभग पर्फेक्ट सिमेट्री है तो मुझे लग रहा है कि कागज को बीच से मोड़ा गया है।
21 साउंड वेव को पानी में डालकर उसका प्रोजेक्शन खींचे हो
22 पता नहीं चल रहा। पर ऐसा लगता है कि ये तस्वीर कहीं देखी है मैंने !
यानि 'देखा-देखा लग रहा है' के लेवल पर ये तस्वीर पहुँच चुकी है। इस जवाब के बाद लगा मैंने मास्टरपीस बना दिया। जब पूछा था तब ये फोटो इस तरह फ्रेम में नहीं थी। ना ही मैंने कहा कि इसे आर्ट की नजरों से देख कर बताओ।
क्या दिख रहा है से याद आया… एक बार एक पहलवान, एक बनिया और एक पंडित एक जंगल से जा रहे थे। अब जंगल था तो चिड़िया तो बोलेगी ही ! तो एक चिड़िया अपनी धुन में कुछ बोल-गा रही थी। पंडित ने कहा - सुना तुम लोगो ने? चिड़िया कह रही है राम-लक्ष्मण-दशरथ।
पहलवान बोला - धेत पंडिज्जी ! आपको तो रामे राम दिखता है। वो कह रही है - दंड-बैठक-कसरत।
बनिया बोला - कैसे सुन रहे हो आपलोग ! साफ साफ कह रही है - प्याज-लहसुन-अदरख !
अब चिड़िया क्या कह रही थी ये तो चिड़िया जाने। हम चिड़िया तो हैं नहीं जो पता होगा। फिर से तुलसी बाबा साक्षी - खग जाने खग ही की भाषा !
किसी ने मुझसे मुझसे कहा - 'जो भी है ये पर... ह्यूमन ब्रेन इज सो वायरड़ टू मेक ऐंड सी पैटर्नस आउट ऑफ रैंडम नथिंग , ...बेस्ड ओन एक्सपेरिएन्सेस !' और मुझे लगा ये वायरिंग ही मॉडर्न आर्ट के आर्ट होने का कारण है। सब लोचा घूमा फिरा के ब्रेन की वायरिंग का ही है।
तो ये है क्या?
अब चिड़िया के बोलने की तरह ये जो भी हो... आप भी कुछ देख ही रहे होंगे इसमें। बताइये।
ये कला है?
कला का तो ऐसा है कि …कलाकार की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कलाकार काहे का?
'भेंड़े और भेंडिए' में परसाईजी ने एक सियार कवि के हुआं-हुआं करने पर लिखा है - पीले सियार को 'हुआं-हुआं' के सिवा कुछ और तो आता ही नहीं था। हुआं-हुआं चिल्ला दिया। शेष सियार भी हुआं-हुआं बोल पड़े। बूढ़े सियार ने आँख के इशारे से शेष सियारों को मना कर दिया और चतुराई से बात को यों कहकर सँभाला - "भई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं। पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं? अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का? उनकी कविता में से शाश्वत के स्वर फूट रहे हैं।"
खैर कभी गलती से हम भी मशहूर हो गए तो... ममता दी की तरह कराएंगे हम भी नीलामी !
वैसे यहाँ तक पढ़ गये तो ये भी देखकर आइये - ..समीकरणरूपाय जगन्नाथाय ते नमः ! :)
~Abhishek Ojha~
इतना ज्ञान दे दिये हो मगर असल मुद्दे पर आओ, ये कमबख्त चीज़ है क्या?
ReplyDeleteवैसे मॉडर्न आर्ट का नहीं पता. मैं आर्ट गैलरीज में जाती हूँ तो कुछ तसवीरें होतीं हैं जिन्हें देख कर कुछ महसूस होता है. ऐसा भी हुआ है कभी कभी कि कुछ इतना खूबसूरत है कि आँख भर आई है. किसी क्षण को जैसे किसी ने हमेशा के लिए पेंट कर दिया हो वैसा. कभी शांत सा लगा है मन. मगर मॉडर्न आर्ट वाकई बहुत बार समझ नहीं आता है.
इसी सिलसिले में इक नावेल पढ़ी थी...आधी...क्लॉकवर्क ऑरेंज...बहुत सुना था उस बारे में मगर किताब बहुत ही बोझिल लगी. शायद मुझे भी आर्ट अप्रिसियेशन की जरूरत है.
आखिर में. ये फोटो सच में आर्ट गैलरी का है या तुम कोई खुराफात किये हो और जेनरली पब्लिक को बुड़बक बना रहे हो...मजे मजे में. विदेशी होने का गलत फायदा यु नो.
Agreed !
Deleteमैं बहुत जाता हूँ आर्ट गैलरीज़ और म्यूजियम्स में। मोमा, जिसके बारे में लिखा है वहाँ कम से कम पाँच बार तो गया ही हूँ।
अब्स्ट्रैक्ट की समझ मुझे थोड़ी कम है। पर तुमने जैसा कहा वैसी तस्वीरों के अलावा कुछ में तो गज़ब की क्रिएटिविटी होती है। जहां भी एक खास किस्म की क्रिएटिविटी दिखती है मेरे अंदर कुछ पिघल जाता है। मुश्किल है लिख पाना कि क्या अच्छा लग जाता है... कई बार बहुत सिम्पल सी चीज देख के लगता है - वॉव ! तो कई बार बहुत कॉम्प्लेक्स।
मुझे थोड़े आउट ऑफ बॉक्स टाइप के आर्ट पसंद आते हैं। या फिर जहां बिलकुल ही दो अलग चीजों को मिला के आर्ट बना हो... वैसी चीजों से जिनमें हमें लगता है कि आर्ट इसमें हो ही नहीं सकता। पेंटिंग, स्कल्प्चर्स, इमेजिनेशन, कान्सैप्ट... कंप्यूटर, इंटरनेट, मैथ, टेक्नोलोजी... कुछ भी !
जैसे एक देखा था 'विजुअलाइजिंग साउंड'। या एक जिसने उन आवाजों को औडिबल बनाया था जो हम नहीं सुन पाते हैं। हवा में जो तरंगे हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते। खैर... ईट इज समथिंग कि लिखने बैठा तो लिखता ही चला जाऊंगा :)
अब काम की बात -
ये फोटो आर्ट गैलरी का नहीं है रे :)
ये तो मैंने बनाया है खुराफात करके। फ्रेम-उरेम भी सब डिजिटल है। ये बात बता नहीं रहा था कि बता दिया तो कोई सीरियसली लेगा नहीं :) :)
हेंस प्रूव्हड - कैनवस खाली है, परंतु वहाँ पर घास चरती गाय (अदृश्य) है - {घास कहाँ है, वह गाय खा गई, गाय कहाँ है - गाय घास खाकर चली गई }
ReplyDeleteपत्नी ड्राइंग टीचर हैं, मॉडर्न ऑर्ट ही पढ़ाती हैं, तो मैं भी उपर्युक्त समीकरण हल करने में यदा कदा सफल हो जाता हूूँ, परंतु कभी कभी फ़ॉर्मूला सही नहीं लगता या केल्कुलेशन बिगड़ जाता है. :)
:)
ReplyDeleteVery interesting and soulful article. ..
ReplyDeleteचित्र तो एक पशु की बत्तीसी का एक्सरे लग लहा है। वैसे इन झंझटों से बचने के लिए ही मैंने दो कला सिद्धान्त बनाये हैं
ReplyDelete1) अगर बैठ सको तो कुर्सी वरना कला (कला सौंदर्यबोध है, जुगाड़ नहीं)
2) खाट अपने पायों पर टिकती है, कला को कद्रदाँ चाहिए (मूल्य वही जो जोहरी समझे)