Nov 2, 2012

वो लोग ही कुछ और होते हैं - III


कुछ लोगों से मिलकर अच्छा लगता है। वो अपनी एक अलग छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही कुछ लोगों से हम ना भी मिले तो उनके बारे में सुनकर ही अच्छा लगता है। अलग तरह के लोग ... भले ही दुनिया उन्हें पागल कहे। पर  उन लोगों की एक क्लास होती है। और जहां क्लास हो...

पिछले दिनों जेईई 2012 के परीक्षाफल का विश्लेषण पढ़ा तो एक प्रोफेसर का कमेन्ट था कि पाँच लाख  अभ्यर्थियों में से जिसके सबसे कम अंक  आए हैं... उतने कम अंक तभी संभव है जब उस अभ्यर्थी को लगभग सारे उत्तर आते हों और उसने जान बुझ कर गलत उत्तर मार्क किए हों !  इस साल जेईई में किसी के कम से कम -72 से लेकर अधिकतम 408 अंक तक आ सकते थे। अधिकतम 385 आया और न्यूनतम -64 !  -64 लाने के लिए इतनी ज्यादा गलतियाँ करनी पड़ेगी कि वो तुक्का मार कर नहीं किया जा सकता। वो तभी संभव है जब कोई हर एक सवाल को हल कर जानबूझ कर गलत उत्तर मार्क करे । उसने ऐसा क्यूँ किया ये मुझे नही पता । पर ऐसे लोगों के लिए मन में एक सम्मान की भावना आती है। उनमें प्रतिभा होती है - विशुद्ध, निःस्वार्थ ।  अगर मैं किसी संस्थान का डायरेक्टर होता तो इस अभ्यर्थी को बुलाकर नामांकन देता।

मुझे अकादमिक बातों में हमेशा से रुचि रही है। और मैं ऐसे कई अद्भुत सिरफिरे लोगों से मिला हूँ। कई लोग याद आ रहे हैं। आज बात बस उसकी जिसका नाम मुझे नहीं पता । क्योंकि जमाना खराब है कोई अपना नाम सुन भड़क न जाये !

बात है आईआईटी दिल्ली की। प्लेसमेंट के पेपर का एक सेक्शन मैंने सेट किया था। एक स्टूडेंट ने एक सवाल के उत्तर में जो लिखा था उसका मतलब था -  "मुझे पता है कि ये सवाल आई ई ईरोड़ोव की पुस्तक प्रॉब्लम्स इन जनरल फिजिक्स के सवाल 1.12  से बनाया गया है। मैं इसे हल कर सकता हूँ क्योंकि मुझे उस सवाल का हल याद है। पर इसका हल देख अगर आप ये मतलब निकालें कि मैं उतना ही मेधावी हूँ जितना चार साल पहले था तो सॉरी मैं उतना मेधावी नहीं रहा।" उसी लड़के ने एक और सवाल के उत्तर में लिखा "सवाल तो जिओमेट्रिक प्रोग्रेशन से बन जाएगा पर हाइअसिन्थ का बैंकिंग से क्या लेना देना?"।  सवाल में हाइअसिन्थ प्लांट का ग्रोथ रेट दिया हुआ था और उससे कुछ और निकालना था।

(ये सबसे हल्का सवाल था पर बहुत कम लोग सही हल कर पाये थे, अब आप मुझसे ये मत पूछिएगा कि मैंने इसी प्लांट का नाम क्यों इस्तेमाल किया Smile )।

उसने दोनों ही सवाल हल नहीं किए थे पर उसका इतना लिखना ही ये बता गया कि वो दोनों सवाल हल कर सकता था। अगर वो हल करता तो आसानी से वो बाकियों से ज्यादा अंक लेकर आता। उसी दिन साक्षात्कार में एक लड़का बिन नहाये, बिखरे बाल और चप्पल में भी आया था। मेरा बस चलता तो मैं इन दोनों को ही....

खैर... मैं पहले लड़के से अलग से भी मिला। अच्छी बातें हुई। आते-आते मैंने बस इतना कहा - "नॉट योर लॉस" ! पता नहीं मेरा ये कहना उसे कितना अच्छा लगा होगा.... पर मुझे वो अब तक याद है !

~Abhishek Ojha~

PS: बहुत दिनों से ब्लॉग अपडेट नहीं हो पाया था। कारण ? ऐसा कोई कारण तो मुझे भी नहीं मिल रहा :)  आज ये पोस्ट कर दिया... ब्लॉग जिंदा रहे।

कुछ बहुत पुरानी पोस्ट्स -
वो लोग ही कुछ और होते हैं ... (भाग II)
वो लोग ही कुछ और होते हैं...

Sep 3, 2012

संसकीरित के पर्हाई (पटना १५)

 

सुबह सुबह रिक्शे वाले ने जब सौ रुपये का नोट देखकर हाथ खड़ा कर दिया तो मैं चाय वाले छोटू के पास गया। सौ रुपये अभी उसके पास भी जमा नहीं हुए थे। अगली कोशिश जूस वाले चचा... मैंने सौ का नोट बढ़ाते हुए कहा - "चचा, सौ रुपये का छुट्टा है तो दे दीजिये। रिक्शे वाले को देना है।"

"अरे त अइसे बोलिए ना कि रेकसा वाला को देना है। उसके लिए सौ टाकिया काहे लहरा रहे हैं उ त ओइसे भी हो जाएगा। आपका कवन सा एक दिन का आना है। रोज त आप यहाँ आते ही हैं बीरेंदर के साथ। बोलिए न कै पईसा देना है? हमको बाद में लौटा दीजिएगा"

"पंद्रह रुपये" मैंने सौ रुपये का नोट वापस जेब में रखते हुए कहा।

ये तीसरी बार था जब ना चाहते हुए भी मुझे इस तरह उधार लेना पड़ा था। पटना की इन छोटी दुकानों पर उधार बहुत ही आम बात है भले ही उधार की समानता प्रेम की कैंची से करते हुए स्टिकर सामने लगा हो। 

"पंदरह? अरे महाराज आपलोग त बिगार के रख दिये हैं रेक्सवा वलन के। अब कायदे से त एतना दूर से आपको पैदले आ जाना चाहिए। आ रेकसा किए भी भी त पंदरह रुपाया का जरूरत देने का ! ...लीजिये" - चचा ने पाँच-पाँच के तीन सिक्के मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा।  मैंने मुसकुराते हुए बस इतना कहा - "एक फ्रूट प्लेट बनाइये मैं दो मिनट में आता हूँ।"

मुख्य सड़क पर पैसे देकर मैं वापस गली में आया तो बीरेंदर भी मिल गया। बाइक रोकते ही बोला - "भैया, आज सुबह-सुबह आप इधर आ गए। आप त सीधे ऑफिस में ही जाते हैं।"

"अरे वो छुट्टा नहीं था तो रिक्शे वाले को देने के लिए चचा से पैसे लेने आ गया । वैसे भी ऑफिस में आज कुछ खास काम है नहीं। एक घंटे बाद दानापुर जाना है। बैंक से कोई आने वाला है उसी के साथ फील्ड ट्रिप है"

"त फिर क्या ! चाय पीकर जाईएगा"

"नहीं बीरेंदर चाय नहीं, फ्रूट प्लेट लिया है। चचा को पैसे भी लौटाने हैं, अब क्या खाता चलाएं इनके यहाँ एकाध महीने तो बचे हैं बस" 

"आरे आप उसका टेंसन न लीजिये। चचा खाता में लिखते ही नहीं है उ का है कि एक बार खाता में लिख देते हैं, दुबारा खुदे नहीं पढ़ पाते हैं" बीरेंदर का मूड देखते ही मुझे लग गया कि आज चचा का नंबर है।

"अरे ऐसा क्या छायावाद लिख देते हैं जो समझ नहीं आता?" मैंने पूछा।

"अरे नहीं भैया, उ त सदालाल सिंगवा का फील्ड है। चचा तो पुराने जमाने के बिदवान हैं। चचा तनी बताइये न ? "

चचा अपने ग्राहको को सुबह-सुबह जुस पिलाने में बीजी थे तो ध्यान नहीं दे पाये। फ्रेज़र रोड में जहां चचा की दुकान है वहाँ बड़े-बड़े ऑफिस हैं। अब ऑफिस बड़े हैं तो साहब लोग भी बड़े वाले ही हैं। उनमें से कई ब्रेकफ़ास्ट में फलाहार ही लेते हैं। तो चचा का धंधा सुबह थोड़ा अच्छा चलता है। हर ऑफिस से एक चपरासी अपने-अपने साहब की पसंद लिए उनकी दुकान पर आते हैं। इलाके में बड़े साहबों के होने से छोटू को चाय भी कई तरह की बनानी पड़ती है। बीरेंदर यानि बैरीकूल ने एक बार बताया था कि जैसे-जैसे साहब लोग बड़े होते जाते हैं उनके चाय में दूध और शक्कर कम होता जाता है। सबसे बड़े साहब बस ब्लैक ही लेते हैं।

बीरेंदर ने चचा की कहानी छेड़ी -

"भईया, दरअसल ऐसा था कि चचा बचपन से आजतक जो एक बार लिख दिये दुबारा खुदे कभी पढ़ नहीं पाये। हिस्ट्री का मास्टरवा एक बार कह दिया इनके क्लास में कि अगर किसी को हीरोग्लिफिक लिपि देखना हो तो इनकी कॉपी में देख लेना। ओहि लिपि में लिखते थे ई" बैरी ने हँसते और ताली बजाते हुए कहा।

चचा को अब तक भनक नहीं थी। पर शायद 'हीरोग्लिफिक' शब्द सुन के उन्हें लग गया कि उनकी ही बात है। बोले - "का बीरेंदर तू भी न... भोरे भोर तोरा के कोई और नहीं मिला?"

"आचे चचा सही बताइयेगा आपको संस्कृत वाले तिवारीजी नहीं बोले थे कि अपना लिखा पढ़ दे त पास कर देंगे?" बीरेंदर ने चचा को पूछा तो चचा गंभीर मुद्रा में आ गए।

"एक बात तो मानना परेगा बीरेंदर कि तेवारी जी संसकीरित का एक नंबर बिदवान हैं। चेहरा प तेज है उनका। अपना जमाना में जो धोती कुर्ता पहिन के पर्हआने आते थे त लगता था कि कुछ हैं - ये लंबा चौड़ा छौ फूट का जवान थे। बस हमको एक बार बरी मार मारे । एतना कि हमको ओहि दिन बुझा गया कि ई परहाई-ओरहाई हमारा बस का बात नहीं है ! हुआ क्या कि हम गलती से गुरु को गोरू लिख दिये । आ इहे बात गुरुजी को लग गया। पूरा कक्षा में छरी उठा के बोले - गुरु के मवेशी आ भारतीय महाद्वीप को महा हाथी लिखता है रे तुम। तुम तो हमको साकछाते गुरु से गोरू बना दिया। ई बोल के जो मारे हैं हमको... माने... बूंक दिये थे धर के। शाम को हल्दी-चुना चढ़ गया पीठ पर" चचा ने अपने बीते दिनों को याद करते हुए सगर्व बताया। चेहरे के भाव को देख कर लगा की सच में बहुत पीटे होंगे। 

"आ पढ़ के दिखा तो पास कर देंगे ई वाला किस्सा तो बताइये"

"अरे उ त हम जाके जब फाइनल परीछा के बाद बोले कि हमको इस बार पास कर दीजिये आगे साल से हम बहुत मेहनत करेंगे। तब उ बोले कि जा एक पन्ना सुलेख लिख के ले आ संसकीरित का किताब से कौनों पाठ। हम लिख के ले गए त बोले कि पर्ह देगा कि तू कि का लिख के लाया है त पास कर देंगे। अब संसकीरित कबो किताब से त हम पर्ह नहीं पाते थे त अपना लिखा हुआ कबूतर का टँगड़ी का पर्हते? बस उसी का बाद छोर दिये परहाई लिखाई।" चचा की आवाज में ग़म नहीं शान था !  जो किए झण्डा गाड़ के शान से किए वाली भावना।

"लेकिन चचा, तिवारीजी त आपके बाबूजी के दोस्ते  हैं।" बीरेंदर ने पूछा।

"अरे उ जमाना में मास्टर सब ईमानदारी से परहाते थे। आ इस सब के बीच में दोस्ती आना भी नहीं चाहिए। चोर-पूलिस का दोस्ती। मास्टर बिद्यार्थी का दोस्ती....  होना  ही नहीं चाहिए। अपना अपना काम करो ईमानदारी से। हम को नहीं आता था त उ दोस्ती निभा के अपना ही जीवन खराब करते। अब आपे बताइये आपका नाम ओझा है नू? आप को पता लगेगा कि कोई लरकी डायन है त आप उसको कभी लाइन मारेंगे? " इस बार चचा का इशारा मेरी तरफ था।

"अरे मैं..." मैं हँसते हुए इतना ही बोल पाया था कि चचा ने बात लपक ली।

"बर्हिया मास्टर थे... आ उ का है कि संसकीरित में मात्रा, हुंकार-फुँकार, हलंत-चलंत सब बहुते होता है। आठवाँ क्लास में हम का किए कि... तब त हम लोग सियाही से लिखते थे... परीछा लिखने के बाद फाउंटेन पेन छीरक दिये कापीये प। अब खोजते रहो हलंत-फलंत... सब ओहिमे हुंकार फुँकार सब मिल गया मास्टर साहेब को। जहां चाहिये वहाँ भी जहां नहीं चाहिए वहाँ भी। आ हम पास हो गए। नौमा क्लास में तिवारी जी हमको एक दिन धर के थूर दिये... बस तब से परहाईये स्वाहा हो गया" चचा ने फलों के टुकड़ो से भरे चांदी वाले कागज के प्लेट को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा।

"माने एकदम डाक्टर जईसा लिख देते थे... नहीं?" बीरेंदर ने चुटकी ली।  "लेकिन चचा एक बात है आज का  जमाना  में आप इंजीनियर तो बन ही गए होते। उसको देखिये... अपना डाक्टरवा का भतीजवा, उहे जो साउथ इंडिया गया था पढ़ने। जानते हैं इंजीनियरिंग में उसके बैच का ही एगो लड़का पास होके आ उसी कालेज में लेक्चरर बन के पढ़ाने आया। दोस्ते था त इसको इंटरनल आ प्रेक्टिकल में पास किया। ई त ४-५ साल से प्रेक्टिकलवे में फेल हो जाता था।"

"अब बताइये त... उ बिल्डिंग आ पूल बनाएगा त टूटेगा कि नहीं? अब हम हियाँ फल बेच के अच्छा काम कर रहे हैं कि उ इंजीनियर बन के? मान लीजिये अभी हम आपको फल खिलाये नु जी । इसमें आपको सेहत के लिए बीटामिन-उटामिन सब बढ़िया मिला न? अब हम किसी का जान नहीं नू ले रहे हैं"  चचा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा तो... असहमति का सवाल ही नहीं था !

हम ऑफिस जाने लगे तो एक चमचमाती स्कॉर्पियो सन्न से निकली। बैरी ने कहा बिधायक जी का गाड़ी लगता है। जानते हैं भईया... कभी पटना में गारी से जाइएगा आ ठोलवन सब (पुलिस) अगर  रोका कहीं कागज-पतर के लिए त बस सीसा नीचे कर के ज़ोर से पूछिएगा - "का है रे !" ऐसा पूछने से  ठोलवन सबको लगता है कि जरूर कोई बड़ा आदमी है... बस ओतने में कह देगा...

- कुछ नहीं सर जाइए Smile

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~

Aug 17, 2012

परमानेंट मेमोरी इरेज़र से मुलाक़ात के पहले तक...

 

कुछ बेवकूफाना हरकतें -
(किया कभी?)

नए 'कटर' से पेंसिल...
और दाँत से गन्ने - छिलकों की लंबाई का रिकॉर्ड तोड़ने-बनाने की कोशिश।

फाउंटेन पेन में सूख गयी स्याही की खुशबू…
बॉलपेन के रीफ़ील में स्याही डालने की कोशिश?

सिग्नेचर की प्रैक्टिस में पन्ने बर्बाद...
अपने नाम के पहले 'डॉ॰' और बाद में 4 अनजान डिग्रियों के नाम।

मशीन के पुर्जे-पुर्जे कर देने के बाद की चिंता – वापस जुड़ेगा कैसे?
अनजान-सुनसान जगह पर शाम और रात के बीच - भटक जाना!

खेतों-पगडंडियों से होते हुए, सुबह पड़ी ओस में नंगे पाँव... मीलों...
वो आम जो किसी चिड़िया के चोंच मारने से गिरे हो? - सबसे मीठे होते हैं।

किसी अनजान को अगले ट्रैफिक सिग्नल से वापस आकर लिफ्ट...
कभी किसी बच्चे का हाथ पकड़कर नाम लिखना सीखाया?

कितने कदम चला - ये गिनना । सीढ़ियाँ?
यूँ ही चलते चलते - क ख ग घ... क्ष त्र ज्ञ - याद है या नहीं..

किसी भिखारी को कभी बर्गर खिलाया? आइसक्रीम?
किसी बीयर बार में दुध? दारू में गंगाजल मिलाकर? - हरी ॐ !

धुप्प अंधेरे में तारों-ग्रह-नक्षत्रों-आकाशगंगा से बातें...
चाँदनी रात में सुनसान समुद्र तट ?

इतना शांत? -... मन विहीन-शून्य दिमाग।
अपने खिलाफ जाकर किसी को प्यार?

किसी के लिए... सिर्फ जान ही नहीं - अपना सब कुछ !
ऐसे सुध बुध खोना - आग लगे तो… उठकर पानी डालने की सुध न रहे ?

एवरेस्ट जैसी बात यूं छुपा लेना - सामने वाले को भनक तक ना लगे !
ऐसा महसूस?- डूबते हुए… अंतिम सांस अधूरी/पूरी होने के ठीक पहले - खींच लिया हो किसी ने !

किसी दरिया में छलांग... झील में पैर ?
पानी के ऊपर पत्थर तो उछाला होगा? कितनी बार?

कुछ ऐसी हरकत जिसे सोचकर आज भी...?
और ऐसा कुछ ? सामने वाले का दिमाग हिल जाये - ऐसे लोग भी होते हैं !

साइकिल पर आगे बैठ बाएँ पैर से डबल पैडल साइकिल चलाया?
डाक टिकट से मुहर हटाने की कोशिश?

…और ...

... वो सब कुछ जिसे भुलाने के लिए 'परमानेंट मेमोरी इरेज़र - मौत' से मुलाक़ात होना ही एक रास्ता हो?

या शायद उसके बाद भी नहीं...कौन जाने !

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....कुछ किया, कुछ देखा ! न गद्य-न पद्य !

~Abhishek Ojha~

Aug 5, 2012

‘मैं’ वैसा(सी) नहीं जैसे ‘हम’ !

 
बचपन में सुनी हुई एक बोध कथा याद आ रही है। आपने भी सुना ही होगा।

एक राजा को अपने राज्य में दूध का तालाब बनवाने का मन हुआ । अब राजा ही थे तो मन तो कुछ भी करने का हो ही सकता है ! जैसे एक बादशाह को मन हुआ और टैक्सपेयर्स के पैसे से उन्होने ताजमहल बनवा दिया... साइड इफैक्ट में - अमर हुआ इश्क़बैरीकूल से पूछूंगा तो कहेगा - अर्थशास्त्र पढे हो? साला इश्क़ का फैक्टर कहाँ से आया बे?  हमें भी इफ़रात के पैसे दे दो तो हम भी चाँद पर दस गुना बेहतर ताजमहल बनवा दें In love  खैर...

राजा ने तालाब खुदवाकर घोषणा कर दी कि आज की रात सब लोग अपने घर से एक-एक लोटा दूध लाकर तालाब में डालें। जनता ने फरमान सुन लिया पर जनता तो जनता है – सॉरी जनार्दन भी है। जो भी हो फिलहाल हुआ कुछ यूं कि लगभग सभी जनार्दनों ने सोचा - इतने बड़े तालाब में अगर मैं एक लोटा पानी ही ड़ाल दूँ तो किसको पता चलेगा ! शायद हाजिरी लगानी हो नहीं तो लोग डालने भी नहीं गए होते । जैसे भी रहा हो हम वहाँ मौजूद तो थे नहीं तो विथाउट लॉस ऑफ जेनेरालिटी मान लेते हैं कि अंततः लगभग सभी ने एक-एक लोटा पानी ही डाल दिया और अगले दिन सुबह पानी से लबालब तालाब तैयार ! एक दो लोगों ने दूध डाला भी हो तो न तो वो भरे तालाब में दिखना था। ना ही किसी का कहना कोई मानता। तो सर्वसम्मति से यही मान्यता बनी कि राज्य की सारी जनता ने तालाब में दूध की जगह पानी ही डाल दिया !

और राज्य की जनता? (यहाँ से मेरी व्याख्या है) सब एक दूसरे से कहते कि यार गज़ब हो गया ! हमने तो दूध ही डाला था ! कोई ईमानदार बचा ही नहीं इस राज्य में – भ्रष्ट शासन, झूठे लोग... आपको पता ही है बाकी बातें जो जनता ने कही होगी । नहीं पता तो किसी दिन ‘एलिटनेस’ [ब्लॉगिंग में कुछ लोग इस शब्द से भड़कते हैं, उस संदर्भ में इसे ना लें Smile ] छोड़िए और किसी भी पान-कम-चाय की दुकान पर सुन आइये। मन न भरे तो भारतीय रेल के द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर आइये एक बार।

तब से लेकर आज तक तालाब में पानी डालने वाले किसी को मिले नहीं ! सभी पूछते और ढूंढते रह गए – पानी डाला किसने? जमाना खराब किया किसने। राज्य का नाम चौपट कैसे हुआ? गज़ब है !पूरा तालाब ही पानी का और पानी डालने वाला मिलता ही नहीं। एक मिनट-एक मिनट... सोचने दीजिये। एक सेट (समुच्चय) है। कायदे से सभी उसके सदस्य हैं... लेकिन हर सदस्य उस सेट का सदस्य होने की शर्तें पूरी ही नहीं करता। माफ कीजिएगा ये बहुत साधारण है लेकिन इतना कठिन कि आदतन गणित के बार्बर पैराडॉक्स की याद आ गयी। बर्ट्रांड रसेल ना हल कर पाये तो हम क्या घंटा कर पाएंगे ! (बाई दी वे ‘घंटा’ शालीन शब्द है न? मंदिर में होता है जी ! नहीं तो एडिट करवा दीजिएगा। कर देंगे। Smile हम बाकी ब्लॉगरों जैसे नहीं हैं।)

अब ये जो सेट है अक्सर दिखता है। माने रोज ही ! दिन में दो-चार बार भी। और गारंटी है कि आपको भी दिखता ही होगा। नहीं? फिर से देखिये । अपने देश में देखिये। पूरा देश भ्रष्ट है। और हम सभी ढूंढते जा रहे हैं कि भ्रष्टता हैं कहाँ? खतम कैसे हो ! पानी डालने वाला मिले तो गोली मार दें ! साला जो सिस्टम है... वही भ्रष्ट है पर इंडिवीजुअली कोई नहीं – अब ये कैसे संभव है जी?। हमें तो नहीं समझ आ रहा – कुछ कोंट्राडिकशन सा हो रहा है। बाबा रसेल हल इससे साधारण समस्या हल नहीं कर पाये तो...  [बाबा रसेल को हल्के में मत लीजिएगा। गणितज्ञ समझकर हिला हुआ इंसान समझ रहे हैं तो... नहीं भी समझ रहें हैं तो एक बार प्लीज़ लिंक पर पढ़ आइये बाबा खतरनाक किस्म के प्राणी थे साहित्य में भी नोबल ले गए। बाकी क्या-क्या किया वो... पढ़ ही आइये जरा। Smile ]

जैसे अमेरिका में अपने भारतीय लोग खुद ही कह देते हैं ‘देसीस आर...’ आगे जो भी कहें क्या फर्क पड़ता है? कहने वाले को अब हम क्या कहें इसके अलावा कि आप भी तो उसी समुच्चय के सदस्य हैं? अगर कोई एक बात ‘देसी’ कम्यूनिटी के लिए सच है तो आप भी तो वही हैं? और अगर सभी यही कहते हैं तो... ये बात आई कहाँ से ? आप भी वैसे नहीं, हम भी वैसे नहीं। फिर ये हो कैसे गया? बेवफा तुम नहीं, बेवफा हम नहीं फिर ये क्या सिलसिले हो गए... ऐसा कोई गाना है न? खैर... !

अब देखिये न मैं जितनी लड़कियों को जानता हूँ [नियम नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि बहुत कम लड़कियों को जानता हूँ। ...पर फिर भी :) ] – लगभग सब कहती हैं। मैं बाकी लड़कियों जैसी नहीं। मेकअप... बस एक दो कैटेगरी...बाकी लड़कियों जैसे नहीं । शॉपिंग... उतना भी नहीं। लड़कियों जैसी बातें – मैं नहीं करती! अब जब कोई लड़की वैसी होती ही नहीं... तो लड़कियों का वैसा होना ये अवधारणा बनी कैसे? किस लड़की ने तालाब में पानी डाला ? Thinking smile लड़को के लिए भी ऐसी ही बातें हैं... धर्म, देश, राज्य, महिला, पुरुष… वॉटएवर... सभी कह देते हैं - ‘मैं वैसा/वैसी नहीं जैसे हम’। जहां तक मुझे लगता है ‘हम’ की परिभाषा हर एक ‘मैं’ को आपस में रखकर ही बनती है या मैं कुछ गलत हूँ?

अब क्या कहें? इससे आगे समझ नहीं आ रहा -

हे प्रभो ! आनंद दाता ! ज्ञान हमको दीजिये... Smile

बाईदीवे माई लवली रीडर फ्रेंड -आप भी 'वैसे' नहीं न? अरे आप तो नहीं ही हैं इतना तो पता है मुझे :) । ये 'वैसे' टाइप के लोग हैं कौन? ....ढूँढने का कोई फायदा नहीं.

बाबा कबीर ने कहा ही है - बुरा जो देखन मैं चला तुझसे बुरा न कोय...ऐसा ही कुछ कहा था। मुझसे, तुझसे में थोड़ा कन्फ़्यूजन है।


हे प्रभु ! Smile

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~Abhishek Ojha~

Jul 19, 2012

यूँ ही...कुछ परिभाषाएँ !


1॰ पहला 'आल-इन' शाश्वत प्रेम: पार्वती - जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी। तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू।
महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम। जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम। (- बाबा तुलसी)
[पार्वती ने कहा - करोड़ जन्मों तक हमारी जिद यही रहेगी कि शिव को वरूँगी नहीं तो कुंवारी ही रहूँगी। मैं नारद के उपदेश को नहीं छोडूंगी चाहे सौ बार स्वयं महेश ही क्यों न कहें !
मान लिया कि महादेव अवगुणों के भवन हैं और विष्णु सद्गुणों के धाम। पर अब जिसका मन जिससे लग गया उसको तो बस उसी से काम है !] 
हमने तो एक दिन सपने में देखा पार्वतीजी ने कहा... आई लव शिवा एंड नथिंग एल्स मैटर्स। नथींग बोले तो नथींग। सप्तर्षियों! अब बोलो Smile
*पोकर के खेल में बचा-खुचा सबकुछ दांव पर लगा देने को 'आल-इन' कहते हैं।

2॰ अटूट भरोसा: परशुराम - पिता ने कहा - काट ! और उन्होने अपनी माँ को काट डाला - बिन सोचे। बिन हिचके। आई डोंट केयर फॉर रेस्ट ऑफ द स्टोरी !

3॰ प्रेम में त्याग की पराकाष्ठा (नथिंग एल्स मैटर्स व्हेन इट्स लव): सुमति: अपने सेक्स मैनियाक पति के लिए, जो चलने में असमर्थ हो गया था, एक वेश्या से बात कर उसके कोठे तक पति को ले जाना और फिर वैसे पति के लिए सोलर सिस्टम कोलैप्स करने तक पर उतर आना !

4॰ पहला दिल टूटा जीनियस आशिक: भर्तृहरि -
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च। 
-
(मैं अपने चित्त में रात दिन जिसकी स्मृति सँजोये रखता हूँ वो मुझसे प्रेम नहीं करती, वो किसी और पुरुष पर मुग्ध  है। वह पुरुष किसी अन्य स्त्री  में आसक्त है। उस पुरुष की अभिलाषित स्त्री मुझपर प्रसन्न है। इसलिए रानी को, रानी द्वारा चाहे हुए पुरुष को, उस पुरुष की चाहिए हुई वेश्या को तथा मुझे धिक्कार है और सबसे अधिक कामदेव को धिक्कार है जिसने यह सारा कुचक्र चलाया।)

5. समानता: ये कोई पौराणिक कथा नहीं। बचपन में खेत में खाद डाला जा रहा था। खेत के एक हिस्से के लिए खाद कम पड़ गया। एक बुजुर्ग ने कहा - वक़्त रहते बाजार से खाद लेते आओ, नहीं तो बचा हुए खेत गाली देता है ! गौर करें - यहाँ निर्जीव की बात है।

6॰ रिलेशनशिप: ये अपनी सोच है। सेकेंड ईयर टीए लैब - ऑक्सी फ्युल वैल्डिंग: इंस्ट्रक्टर ने कहा - दो टुकड़ों को एक ताप पर गरम कर पिघलाना होगा - एक 'मोल्टेन पूल' और कुछ 'एक्सट्रा फिलर'। फिलर कैसा होगा ये मेटल के टुकड़ों पर निर्भर करता है। और अगर अच्छे से वेल्ड हुआ तो दोनों हिस्से भले टूट जाएँ जोड़ नहीं टूट सकता - कभी नहीं। और अगर टूट गया तो? - तो तुमने सही से वेल्ड नहीं किया !
बस वैसे ही अपने 'ईगो' को थोड़ा सा जला एक शेयर्ड पूल... और उसी तरह वेल्ड। टूट नहीं सकता... टूट गया तो कोंट्राडिक्श्न से प्रूव हुआ कि वेल्ड ही नहीं हुआ था - जय सिया रामSmile

7॰ बीता हुआ कल: कितना भी खूबसूरत रहा हो। उसको लेकर बैठे रहोगे तो कुछ नहीं होना !
ब्रह्मा ने ये यूनिवर्स बनाया - क्वान्टम स्टेट्स से लेकर ग्रेविटेशन तक ! (एक मिनट के लिए मान लो, इफ ही एक्सिस्ट्स) ...अनंत.. खूबसूरत ! जीवन। उसी स्कूल ऑफ थोट के विष्णु और शिव भी। ब्रह्मा ने तो यूनिवर्स बना दिया... वो कितना भी खूबसूरत रहा हो... है तो बीता हुआ कल... ब्रह्मा को कोई नहीं पूजता।

लंबरेटा कभी सबसे अच्छा टू व्हीलर था। नो ड़ाउट। आप अपने पास्ट को लंबरेटा से बेहतर मानते हैं? मेरे उदाहरण पर हंसने वाले ! जरा उससे जाकर पूछ जिसने पहली बार भारत की सड़कों पर लंबरेटा चलाई होगी। पर उसी पास्ट में अटके रहोगे तो आज के टू व्हीलर के बारे में जानोगे भी कैसे? बीते हुए कल का गर्व, उसकी टेंशन, उसकी सुनहरी और काली यादें... जैसी भी हो... आज और आने वाले कल को नहीं सुधार सकती ! ....गणितीय रूप से शेयर बाजार का भविष्य निर्धारित करने के लिए मार्कोव इस्तेमाल करते हैं.... मार्कोव बोले तो... भविष्य बस अभी पर निर्भर करता है। पहले क्या था....  कोई मायने नहीं रखता। .... बोले तो मार्कोव इज मेमोरिलेस!

...और आप पूछेंगे कि ये सब कह कर किसी को समझाया जा सकता है ?
- तो मैं कहूँगा...  दिल बहलाने को ग़ालिब ये खयाल अच्छा है !Laughing out loud पर इतना तो है ... इन बातों से अपने रोंगटे तो खड़े होते हैं दोस्त...
और ये भी है कि कोई 'समझदार' कह सकता है - ओझा बाबू, तुम थियरि के आदमी लगते हो कभी अप्लाइड में आओ तो औकात पता लगे !  ऐसा कहोगे तो अब क्या कहूँ कि प्योर मैथस वाले अप्पलाइड वालों को कैसी नजरों से देखते हैं... Smile with tongue out

...खैर शेष फिर कभी !  ...क्योंकि ऐसा  ढेर सारा कचरा भरा है दिमाग में :)  और वो मुफ्त के प्लैटफ़ार्म पर नहीं उगला जाएगा तो कहाँ ! अब और ज्यादा लाइट मूड किया तो आपको मेरे पोस्ट में ग़म न दिखने लगे। रिस्क है... तो इस पोस्ट को सीरियसली ही लिया जाय।
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~Abhishek Ojha~

Jul 4, 2012

हनी जैसी स्वीट, मिर्ची जैसी हॉट (पटना १४)

 

मैंने पूछा – ‘क्या हुआ बीरेंदर ?’

‘कुछ नहीं भईया. आइये. ई साला नया वाला फोन ! जब  से लिए हैं पता नहीं दिनों-रात का भीतरे-भीतर अपडेट करते रहता है ! हम भी कहते हैं - कर जो करना है. जो पूछता है ओके दबा देते हैं.'  - बीरेंदर ने फोन के स्क्रीन से आँखें हटाते हुए कहा.

‘ऐ छोटूआ दू ठो कटिंग लाओ. आछे भईया, एक ठो बात बताइये. ई जो सब अपडेट होता है इसका कुछ मतलब भी होता है? साला अपडेट त एतना हो रहा है. आ चल ओइसही रहा है. कुछो नया त होता नहीं है !’ बीरेंदर ने चाय की दूकान के सामने लगी मोटरसाइकिलों में से एक पर बैठते हुए कहा.

‘हाँ कुछ तो होता ही होगा. अब ऐसे तो अपडेट नहीं ही हो रहा होगा. ज्यादातर छोटे-मोटे चेंजेस होते हैं. जो हमें पता नहीं चलते' – मैंने गोल-मटोल जवाब दिया तो मुझे लगा कि बीरेंदर भी मन ही मन कह रहा है –‘एही जानने के लिए आपसे पूछे थे? एतना त हमको भी बुझाता है.’ लेकिन कुछ बोला नहीं.

चाय आई तो मैंने पूछा ‘बीरेंदर उस दिन का कांड तो बताओ?’

‘आरे अइसही… उ एकठो लरका-लरकी का चक्कर था. लरकवा जाने-पहचान का है. उस दिन हमको फोन किया था. उ का है कि हम ई सब मामला में खूब सपोर्ट करते हैं.’ - बीरेंदर ने सगर्व बताया तो हमें भी लगा कि बैरीकूल ऐसे ही नहीं कहते हैं उसे.

बीरेंदर ने आगे बताया. ‘फोन किया त बोला कि - भईया हम भाग आये हैं हनिया के साथ. आपको बता तो रहे हैं लेकिन ई मत पूछियेगा कि कहाँ जा रहे हैं. हम अब आयेंगे नहीं.  …पहिले तो हमको बुझाइएबे नहीं किया कि साला उ भागा किसके साथ है. आ अब पूछ भी तो नहीं सकते थे! आस-पास का कम से कम दस मोहल्ला का सब लरका-लरकी को त हम जानबे करते हैं. बहुत सोचे कि कौन लरकी को भगाया है. अइसा त साला हो नहीं सकता कि हम नामे न सुने हों ! बाद में ईस्टराईक किया कि उ प्यार से 'हनी' बोल रहा है. उहे हम कहे कि साला चक्कर था पमिया से आ ई बीच में हनिया कहाँ से आ गयी !’ बीरेंदर ने जीतने उतार-चढ़ाव अपनी आवाज और हाव-भाव में किया और अंत में ‘हनिया’ और ‘पमिया' पर जोर देते हुए जिस अंदाज में कहा - सबको हंसी आई.

‘अरे ठीक है न. प्यार मोहब्बत में बोल दिया होगा लड़के ने. वैसे ही जोश में होगा' मैंने कहा.

‘अरे नहीं  रुकिए त एक मिनट. आप नहीं बुझेंगे. हनी बोलता है उ त कुछो नहीं है. माने अब आपको का बताएं… सही में कुछो नहीं.’ बोलते-बोलते बीरेंदर रुक गया. फिर बताने का प्रयास किया – ‘अईसा है कि हम त ई सब बहुते कांड देखे हैं. लेकिन उ दिन दू ठो मोबाईल का मेसेज भी पढ़े. अब का कीजियेगा. पता लगाने के लिए पढ़ना पड़ा कि भाग के गया कहाँ होगा. अब का बताएं आपको. का नहीं बोलता है सब आजकल. मिर्ची बोलता है, केक बोलता है, कड़ाही बोलता है. कुकुर-बिलाई सब बोलता है ! अबे इ कौन सा प्यार है ! माँ-बाबूजी तोके एतना अच्छा नाम दिए हैं. लेकिन उ नाम छोर के बाकी सब नाम से बुलाता है. अब वही प्यार है, तो ठीक है. !' – बताते-बताते  बात नाराजगी से निराशा जैसी हो चली.

‘जब वापस लेके आये उ दूनों को त बाद में उससे पूछे अकेले में कि अबे मजनूँ एक बात बता - ई हनी तो ठीक है लेकिन मिर्ची ? त बोला कि - भईया हनी जईसा स्वीट आ मिर्ची जईसा होट. बोला त अइसे जैसे कामायनी लिख दिया हो. आ हमको मन त किया कि एक लप्पड मारे वहीँ.  लेकिन हम उसको बस एतना बोले – ‘साले कभी मिर्ची आ हनी मिला के खाना त बुझायेगा.’ का कहियेगा मोबाईल जैसा भीतरे भीतर ई सब भाषा भी कब अपडेट हो गया हमको पते नहीं चला !’

‘हा हा हा. अरे बीरेंदर, कितनी मेहनत से लिखा होगा उसने. प्यार में कोई भी शायर टाइप का बन जाता है’ - मैंने हंसते हुए कहा.

‘ई प्यार नहीं होता है भईया. प्यार मत कहिये. प्यार माने… बाबूजी दू लप्पड मारे त भाग गया. उसके बाद धर के लतिया दिए त प्यार का भूत उतरियो गया. आपको एक ठो बात बताते हैं. एक बार सदा लाल सिंहवा बोला कि - बीरेंदर हमको इश्क का फील हो गया है. सायरी त लिखबे करता है. हम बोले सही जा रहे हो बेटा लेकिन एक बात जान लो अगर तुम मजनूँ से मिलते न त उहो बोलता कि हमको नहीं मालूम ई का चीज है ! आ तुम बात अइसे कह रहे हो जैसे तुमको हवा में इश्क का फार्मूला नजर आता है. इश्क का कवनो उर्दू जबान में लिखा फार्मूला है कि चार ठो सीख लिए त हो गया. ऐ छोटुआ ! उ कब का बात है? मेरे हिसाब से सन ट्वेंटी सौ छौ का बात होगा.  छोटुआ तब नाइंथ टेंथ में था. नहीं रे?’ बीरेंदर उस दिन बहुत जोश में था. बिन रुके बोले जा रहा था. छोटुआ ने ध्यान नहीं दिया और अनसुना सा करते हुए अपने काम में लगा रहा.

बीरेंदर ने  कहा - चलिए थोडा उधर चलते हैं. फिर चलते-चलते छोटुआ की बात आगे बताई – ‘भईया बात अईसा है कि ई बात एक ठो हमीं को पता है कि आपे को बता रहे हैं. छोटुआ एक दिन हमको बोला कि उसका बिजनेस बहुते अच्छा चलता है. लेकिन उ ई कभी नहीं कहता कि उसका चाह सबसे अच्छा होता है.  बोला कि अच्छा चाह जैसा कुछ होता ही नहीं ! किसी को कम पत्ती वाला, किसी को जादे पत्ती वाला, किसी को फरेस उबलते ही तुरत चाहिए त कोई उसको काढ़ा -रबड़ी बाना के पिएगा. कोई बिना दूध-चीनी के मांगता है त कोई… अब उसको चाह का कहियेगा… उसको रख दीजियेगा त १० मिनट में जम के बरफी हो जाएगा ! … का हो कनिमांझा*? माजा मार रहे हो न ?’ - बीच में बैरी ने चलते-चलते किसी को टोका.

‘हाँ चाय के मामले में तो तुम्हारी बात बिल्कुल सही है' - मैंने कहा.

‘हाँ. ५ साल में आजतक चाह का बात नहीं बुझाया छोटुआ को आ इहे छोटुआ दस में पढता था तो बोल दिया अपने क्लास का लड़की को… कि बस हमको तुम्हरे खुसी से मतलब है. उ पूछी - काहे? त बोला  – ‘ई त हमको भी नहीं पता. लेकिन है. आ उसके अलावा हमको किसी भी बात से कवनो मतलब भी नहीं है.’ अब देखिये… इसका परिभाषा इहे था प्यार के. उसी को पूछा कि हाँ बोलेगी त उसके लिए कुछ भी ना बोलेगी तो साला ना के लिए ही कुछ भी ! मतलब समझ रहे हैं आप?--- बस उसका खुसी. अपना कुछो नहीं ! आज तक छोटुआ कभी उसको बुरा भला नहीं कहा होगा. हम त इसी को मजनूँ मानते हैं. अइसे तड़प के चुप रह गया है ई लड़का !’ बीरेंदर ने अपनी पांचो उंगुलियां फैला कर हवा में ऐसे लहराई जैसे मछली तड़प रही हो. ‘आ सदा लाल सिंहवा ‘इस्क के फील' का बात करता है’

‘छोडो बीरेंदर तुम इतनी अच्छी बात में कहाँ बार-बार सदालाल को घसीट देते हो' - मैंने फिर उसे शांत करने के हिसाब से कहा.

‘भईया, आपका यही बात हमको अच्छा लगता है. आप किसी को गरियाने नहीं देते. खैर… छोटुआ जो निस्वार्थ प्यार में बेबस, लाचार हुआ है न भईया… साला कोई नहीं कर सकता. चुप रह के… खैर ई सब जो करता है वही बुझेगा… आपके लिए थोडा मुश्किल हो शायद. या पता नहीं आप भी बुझते हों. ई छोटुआ को हम तब से जानते हैं. कभी कोई टेंसन-फिकर नहीं. देखिये चाय का दूकान पर ही हमारे जेतना कमाने वाला से जादा तो पगार में दे देता है. दुनिया को अपने उसके दक्खिन ही रखता है. उसको कोई का टेंसन देगा? लेकिन जानते हैं मेरियाना गर्त है उ साला, कुछ भी समेट लेता है अपने अंदर ! हमको तो लगता है जेतना अईसा आदमी होता है न, टेंसन ना लेने वाला, उसका अंदर से ओतना ही खेला साफ़ होता है !’

‘गंभीर बातें कह रहे हो बीरेंदर, तुम भी तो उसी तरह लगते हो मुझे’ मैंने पुछा.

‘हा हा. नहीं भईया. ओइसे आप कह रहे हैं त कभी सुनायेंगे आपको. आपे चुप रह जाते हैं ! हम त सुनाइये देंगे सब एक न एक दिन. एक ठो और बात ई सब चीज पढ़ के आ सायरी कर के घंटा नहीं बुझायेगा. जानते हैं नौवां क्लास में फिजिक्स में एक ठो कोस्चन था कि रोटी कैसे फुल जाता हैं? हम त इस सवाल से यही सीखे कि ना तो सब अच्छा रोटी बनाने वाला लरकी इस सवाल का सही आंसर करती है. ना सही करने वाले सब को रोटीये बनाने आता है. ओइसही अब जेतना लरकी हिल पहन के चलती है… उसको अपना बोडी का सेंटर आफ मास आ मोमेंट ऑफ इनर्सिया थोरे न बुझना होता है !… सही बोल रहे न भईया?… हमको फिजिक्स कभी नहीं बुझाया. साला फिजिक्स का क्लास में यही सब त सोचते रहते थे.’ Smile'

‘अरे बीरेंदर ! तुमने कभी कुछ गलत कहा है?  चलो वापस चलते हैं. कुछ ऑफिस में काम निपटाना है. कल फिर मिलते हैं.'

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~

*इस कैरेक्टर की बात फिर कभी !

Jun 24, 2012

वो सवाल !

 

याद है तुम्हे बचपन के वो सवाल?

वो धूर्त व्यापारी - जो कीमत बढ़ाकर छूट दे देता था.
छूट को बट्टा भी कहते थे न? - अब बस 'डिस्काउंट' कहते हैं.
…हर बार पेट्रोल की कीमतें बढ़कर घटते देख - उसकी याद आती है.

और वो खम्बा?

जब भी किताब पलटा - उसका दो बट्टे तीन हिस्सा पानी में ही डूबा रहा.
हवा में - एक बट्टा तीन.
तब ख्याल आया था - अगर पानी खम्बे के ऊपर चला गया तो?
कितना हिस्सा हवा में रहेगा?
बचपन से ही उटपटांग सोचता था !

और जब नया-नया जोड़ना सीखा था
तब किसी ने कहा था – बुद्धू ! जहाँ भी 'कुल' दिखे उसे जोड़ देना होता है.
सवाल में बस 'कुल' शब्द ढूँढना - कुल माने जोड़, शेष माने घटाव.

बिन समझे शायद पहली बार सवाल हल तभी किया था.
पहला भरोसा भी.
उस समय सबसे ज्यादा अंक लाना ही तो सबकुछ होता था !

पता है तुम्हे? गणित के सवाल कभी भारी नहीं होते.
सवाल बनाने वाले अंकों पर भी ध्यान देते हैं.
बड़े अंक देखते ही लगता कि कुछ गलत हो रहा है.
एक बार रुक जाता.
आज भी कुछ उलझता देख लगता है - कुछ तो गडबड है !

और वो गाय ?

खूंटे में बंधी दिन भर चरती रहती.
हरी घास के लिए जहाँ तक जा सकती - जाती.
रस्सी में तनाव से वृत्त बन जाता.
कितना खूबसूरत था न?
एक क्षेत्रफल के सूत्र से गाय का भाग्य पन्ने पर लिख देना - कितना चर पाएगी !

तब ख्याल आया था - अगर खूंटे से खुलाकर भाग गयी तो?
तब कितना चरेगी?
तब तो सवाल ही नहीं बन पायेगा?
फिर तो वो पूरा खेत ही चर सकती है !
पूरी 'सरेह' भी ! - उसकी मर्जी.

तुम्हे सोचता हूँ तो उसकी याद आती है -

रिश्ते की रस्सी कभी बंधी ही नहीं ना दुसरी तरफ..
कोई तनाव हो भी तो कैसे ?
खींच लूं चाहे जितना…
कोई फर्क तो पड़ेगा नहीं ! - ये बात तो तभी समझ आ गयी थी.
पर एक तरफ से बंधी रस्सी की बेवसी अब समझ आई.
 
बिन केन्द्र के.. वृत्त बने भी तो कैसे ?! Smile 

#रैंडम, #ना गद्य - ना पद्य !

~Abhishek Ojha~

Jun 17, 2012

सदालाल सिंह (पटना १३)

 

उस दिन शाम को जब मैं चाय पीने गया  तो बीरेंदर उर्फ बैरीकूल फोन पर बात करता हुआ कुछ चिंतित सा दिखा. मैंने पुछा – ‘क्या हुआ बिरेंदर? सब ठीक है?’

‘हाँ भईया. आइये. सब ठीके है. ऊ एक ठो मैटर हो गया है' - बैरीकूल ने कहा.

‘चचा ! ई सोनुआ का घर तो पटना एके में पड़ता है न?’ - बिरेंदर ने पास ही फल और जूस की दुकान वाले चचा से पूछा.

‘हाँ त इहे फ्रेजरे रोडवा नु क्रास करना है. एके में होगा' चचा ने खिडकी से जूस बढाते हुए कहा. चचा की दोतरफा दूकान है. खिडकी से बाहर गली में भी बेचते हैं और अंदर कॉम्प्लेक्स में तो बेचते ही हैं.

‘पटना एके?’ - मैंने पूछा.

‘अरे ऊ पटना-एक पिन कोड का बात था. हमलोग कोई जगह केतना दूर है इसके लिए पिन कोड से भी देखते हैं. जानते हैं… नया वाला पोस्ट मैन्वो सब को एतना पता नहीं होता है जेतना चचा को पता है. कौन-कौन घर किस पिन कोड का एरिया में पड़ेगा सब मालूम है इनको’ बिरेंदर ने चचा को खुश किया तो मैं वापस ‘मैटर’ पर आया –‘अरे वाह. वैसे तुम कह रहे थे कि कुछ मैटर हो गया है?’

‘हाँ ऊ एक ठो कांड हुआ है. लरका-लरकी का चक्कर है… अब का कीजियेगा उमरे अईसा होता है. अब सब अपना छोटूआ जैसा त होता नहीं है. का छोटू? बिरेंदर ने कुछ सुनाने के मूड से चाय वाले छोटू की तरफ इशारा किया.

‘बिरेंदर भईया, सादा लाल सिंग !’ छोटू ने सड़क पर जाते हुए एक सज्जन की तरफ आँख से इशारा किया. शायद उसे अपनी कहानी भी नहीं सुननी थी तो बिरेंदर को कहीं और उलझा दिया.

सदा लाल सिंह को देख बिरेंदर बहुत प्रसन्न हुआ. उन्हें सुनाते हुए कहा – ‘अबे सादा-लाल नहीं, सदालाल. नाम का बैंडे बजा दिया तुम तो. लाल लाल होता है उसमें सादा रंगीन का होगा बे?’ फिर तेज आवाज में बोला – ‘ऐ सदालाल ! आओ हिंया तनी.’ सदा लाल सिंह निकल जाने के मूड में थे लेकिन बिरेंदर दौड कर पकड़ लाया – ‘अरे मरदे आओ. दू मिनट में जो तुम्हारा तूफ़ान मेल छूट जाएगा ऊ हमको पूरा मालूम है. वैसे एक बात है तूफ़ान तो हईये हो… नाम तुम्हारा अईसही थोड़े है सदालाल.’

‘सदालाल मने बुझे कि नहीं भईया? सदा माने आलवेज तो सदालाल माने आलवेज रेड. माने इनका जो स्टेटस है ऊ हमेसा लाले रहता है.’ बिरेंदर ने मुझे उनके नाम का अर्थ समझाया.

‘अरे हट रे… सिंघासन खाली कर..’ बिरेंदर ने वहाँ खड़ी मोटरसाइकिल पर बैठे लड़कों को उठाते हुए कहा.

‘देखो बिरेंदर अब जादे बोल रहा है तुम?’ – सदालाल सिंह ने कहा तो बिरेंदर ने बात घुमाई ‘ऐ छोटुआ, ब्रिजकिसोरजी के तरफ से चाय दे तीन ठो त. ईस्पेसल.’

‘ब्रिजकिसोरजी?’

‘अरे यहीं त पूरा पटना मार खा जाता है! इनका असली नाम त ब्रिजकिसोरे है. ऊ त हमलोग प्यार मोहब्बत में नाम रखे हैं - सदालाल. एतना बीजीए रहते हैं कि का करें ! पहिले इनका नाम रखे थे - स्टेटस लाल. हमेशा लाल स्टेटस लगा के रखते हैं थोबडा प. लेकिन ऊ नाम ओतना मजा नहीं दे रहा था. त सदा लाल सिंग रख दिए. अब ‘सदालाल सिंग’ में जो बात है ऊ का बताएं आपको. नामे से अफसर लगते हैं. पर्सनिलिटी त खैर हईये है इनका ! देखिये देखिये… अभी नहीं… जब चलेंगे तब देखिएगा…. … जो तनी बाएं मार के दाहिने पैर घुमा देते हैं न…  चाल नहीं कतल है… कतल ! और सकल त देखिये रहे हैं… ललाटे लाल बत्ती है इनका - भक् भक् बरते चलते हैं !’ बिरेंदर ने जो परिचय दिया, सदा लाल सिंग कुछ बोल नहीं पाए. छोटू तब तक चाय लेकर आया और बात शायरी पर आ गयी.

‘सदालाल कुछ नया सुनाओ यार, आजकल लिख रहे हो कि नहीं?’ - बिरेंदर ने पूछा तो सदालाल जी मुस्कुराते हुए बोले ‘नहीं यार… अब कहा लिख पाते हैं. फिर कभी सुनायेंगे अभी चलने दो’ सदालाल बची चाय पास पड़े ईंट के टुकडो के ढेर पर फ़ेंक कर तेजी में निकल लिए. और बिरेंदर ने मुझे असली बात बतायी -

‘जानते हैं भईया, ई सदलालवा हमको एतना पकाया है कि का बताएं आप से. हम तो गजल-उजल शायरी ई सब में पूरे गोल… आ ई साला आके जो परस्तिस, तसब्बुर जैसा शब्द हमको सुनाता था. हमको लगता था कि बहुते बड़का शायर है. ऊ त बाद में पता चला कि कइसे इधर का उधर करता है. एक दिन दू लाइन सुनाया हमको – “किस्सा हम लिखेंगे दिले बेकरार का, खत में सजा के फुल  हम प्यार का.” हमको लगा कहीं तो सुने हैं… गलती कर दिया ऊ राग में गा दिया. नहीं त हमसे नहीं धराता. लेकिन जब धर लिए कि सब गाना का उठाके हमको सुना रहा है… उसके बाद से तो… देखे नहीं कईसे भागा है आज. साला सुनता पंकज उदास को भी नहीं है आ बात करेगा मेहदी हसन का. पहली बार नुसरत फ़तेह अली खान जैसा नाम हम इसी का मुंह से सुने.  पता नहीं का मजा आता है साले फेकने में. हमको जब कुछो बुझाईबे नहीं करता है तो मेरा सामने फेक के ही का उखाड लेगा. पर उस दिन के बाद से ही ई बीजी बन गया.’

‘अरे कोई  बात नहीं बिरेंदर छोडो क्या करना है.  कब तक बेवकूफ बनाता’ मैंने बैरी को शांत करने के लिए कहा.  छोटू चाय के ग्लास उठाने आया तो बोला ‘बरी गडमी है ! नहीं भईया?’

बैरी ने गुस्सा उगला – ‘कवंची का गर्मी है रे ! जादे रजेसी लगा है तो एक ठो लगवा दे एसी तोराके…  अबे गर्मी में गर्मी नहीं होगा त सीतलहरी चलेगा रे? मौसम बैज्ञानिक के सार… भाग नहीं त पीटा जाएगा दू-चार हाथ'

‘चलो बीरेंदर कहीं घूम के आते हैं… क्या तुम भी ! सदालाल जैसे लोगों पर गुस्सा होते हैं क्या? दया भाव रखो ऐसे लोगों पर तो' – मैंने बैरीकूल को कूल करने की कोशिश की.

बाइक स्टार्ट करते-करते बीरेंदर फिर बोला – ‘जानते हैं भईया जो जेतना गर्मी गर्मी चिल्ला रहा है न, अगर कल को पटना में गलती से बरफ पड़ गया न… त इहे सब आदमीया आपको जीने नहीं देगा कि मौसम का माँ-बहन हो गया !’

‘मैटर’ और छोटुआ का इश्क  पटना १४ में Smile

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~

PS: ऐसे-ऐसे ब्लॉग परिचय हैं कि... मैंने सोचा अपना भी कुछ धाँसू परिचय होना चाहिए। हमने ये लिखा -

"आप हैं न काम के न धाम के. शिक्षा के नाम पर भरपूर टाइम पास करते रहे। कोई प्रकाशित कृतियाँ नहीं। किसी पुरस्कार-सम्मान का सवाल ही नहीं उठता। संप्रति बकबक बहुत करते हैं।" :)

(इसमें सुधार के लिए फेसबुक मित्रों का धन्यवाद.)

May 25, 2012

पुराने बैग से...

यात्रा के पहले... समान पैक करते हुए...

एटीएम के कुछ पुराने रसीद,
म्यूजियम-ज़ू के टिकट और साथ में पाँच-पाँच रुपये के दो बस टिकट,
एक कॉफी बिल – एक हॉट दूसरी कोल्ड,
बिल कॉफी का है पर उस शाम आइसक्रीम भी खाई थी – एक कोण, दूसरी स्टिक।

कुछ पन्नों पर लिखे नोट्स - एक पर बस एक नंबर: 9.28,
एक ब्लूइश गिफ्ट पैकिंग के कागज, इटालिक्स में लिखा मेरा नाम... विथ लव।
एक चॉक्लेट रैपर – लिंट,
डिनर के लिए ‘पोस्ट-ईट’ नोट पर लिखा किसी का एक नोट,
दो आधे भरे फॉर्म्स - जिन्हे भरते हुए कुछ गलतियाँ हो गयी थी,
बेतरतीब तरीके से लिखे कुछ फोन नंबर्स – पता नहीं किसके हैं !

ट्रैफिक पुलिस का काटा एक चालान – 250 रुपये,
और उसी तारीख के फिल्म के दो टिकट – स्क्रीन नंबर 4।
पहला हवाई टिकट, पहले वीज़ा एप्लिकेशन की रसीद – स्विस एम्बेसी नई दिल्ली।

किताब के आखिरी पन्ने पर मेमोरीलेस ‘मार्कोव’ डिस्कस करते हुए बनाया गया ग्राफ,
ग्राफ पर ‘प्रेजेंट मोमेंट’ - 9 पीएम।
हॉस्टल के रूम एलॉटमेंट की पर्ची,
एक किताब का पन्ना जिस पर लिखे नोट्स – किसी और को समझ आ ही नहीं सकते,
वैसे ही जैसे फोन पर बात करते हुए खींची गयी एक दूसरे कागज पर ‘रैंडम’ लाइनें और कुछ शब्द।

ऐसे ही ढेर सारा बेकार, यादों का कचरा -
जैसे - एक दस डॉलर का नोट जिस पर किसी का सिग्नेचर ले लिया था,
उसकी कीमत रुपये के गिरने से नहीं बल्कि वक़्त के बदलने से अब कुछ और ही हो गयी है –
बस एक कागज ही तो रह गया है... नोट तो रहा नहीं,
भगवान पर चढ़ाया फूल हो गया है वो – क्या करूँ उसका? ! Smile

~Abhishek Ojha~

PS: न गद्य, न पद्य। ना सच - ना झूठ ! :)

May 20, 2012

जर गया तेरा बंगला ! (पटना १२)

 

पिछले दिनों भारत आया तो बैरीकूल का फोन आया। हाल खबर की लेनदेन के बाद बोला - "भईया, गाँव आइये त पक्का से मिलते हैं।"

मैंने कहा -  "बीरेंदर,  देख लो गर्मी का दिन है इतनी दूर आना पड़ेगा तुम्हें। वैसे अगर समय मिला तो एक दिन के लिए पटना मैं ही आ जाऊंगा।"

"अरे नहीं भईया, आप आए हैं त हम मिलेंगे कईसे नहीं? मोटरसाइकिल हइए है... एक ठो दोस्त को पकरेंगे आ आजाएँगे। अब आप एतना दूर से आए हैं। कुछ ना कुछ पलान होगा आपका... त अब उसीमें हमसे मिलने कहाँ आईएगा"

"अरे नहीं बीरेंदर, हमें भी तुमसे मिलकर अच्छा लगता है। उसे भी प्लान में ही डाल लेंगे। वैसे प्लान तो कुछ खास है नहीं,  बस घर पर ही पड़े रहना है।"

"उ त हम बुझ रहे हैं भईया लेकिन अब देखिये न मिलने को त सबे बुला लेता है। जब खुद मिलने आना हो तब बुझाता है। आ हमको तो रोजे यहीं रहना है। हम नहीं न कहेंगे आपको आने के लिए। हमको जो काम करने में खुदे बुरा लगता है उ हम आपसे करने को कईसे कह सकते हैं... हमको आपसे थोड़े न कोई लंदर-फंदर बतियाना है। उस सबके लिए बहुत है।"

बीरेंदर को पता है कि कब क्या बोलना है। उसे ये भी पता है कि मुझे कैसी बात अच्छी लगेगी। लेकिन सच बोलता है... बातें नहीं बनाता... कम से कम मुझसे तो नहीं।

बीरेंदर मिलने आया अपने चाचा की उम्र के 'दोस्त' के साथ। सुबह का चला दोपहर को पहुँचा। इधर-उधर की बातें कर रहे थे कि चाचा का फोन बजा - 'एक ऐसी लड़की थी, जिसे मैं प्यार.... '।

'का चाचा, आप कब तक उहे लरकी बजाते रहेंगे? केतना नया लरकी वाला गाना मार्केट में आया और आप.. अरे बदलीये इसको। जानते हैं भईया चाचा का किस्सा सुनेंगे त... का बताएं अब आपको  एकदमें... कालासिक।'

'देखो बीरेंदर, ठीक नहीं होगा' चाचा को अपना भूत-भविष्य दिखने लगा। लेकिन बीरेंदर को तो चाहिए ही यही।

'आरे चाचा, खाली एक ठो उहे आसाम वाला सुनावे द... जानते हैं भईया, चाचा हीरो थे अपना जवानी में। ई जो ढांचा देख रहे हैं इस पर मत जाईयेगा। एक दमे हीरो बुझ जाइए... बेल-बाटम आ सूट-बूट में... आ नहीं त राजेस खान्ना काट कुरता । का चाचा? किसोर कुमार स्टाइल में मूंछ... आपको कभी फोटो दिखाएंगे भईया...'

चाचा थोड़ा सा शरमाये और बीरेंदर ने आगे बताना चालू किया – 'चाचा तब डिबुरुगर्ह में एक ठो डाक्टर के हियाँ काम करते थे'

'डिबुरुगर्ह नहीं तीनसुखिया... डिबुरुगर्ह में त ओके बहुत पहिले रहते थे' चाचा ने सुधार किया।

'एके बात है चचा, असली त मेन बात है। उ ई कि डाक्टर के जो लाइकि थी एक दम सरमीला टैगोर। का चाचा सही बोल रहे हैं न? आ चाचा त हइए थे हीरो... बस हो गया प्यार-मोहब्बत।  चाचा सूट बूट में त रहिते ही थे... आ ओइसे त  हैं अंगूठा छाप लेकिन काँख में अङ्ग्रेज़ी अखबार दबा के चलते थे। सही बात है न चाचा... झूठ मत बोलिएगा'

'देखो बीरेंदर इहे सब बात बनाने के लिए हमको लाये हो' - चाचा थोड़ा झल्लाए।

'चचा, लाये तो हम इसलिए कि बाइक पर बइठे बइठे चुत्तर झनझना जाता है, आपका चाय-खैनी के चक्कर में 10 मिनट का बरेक मिल जाता है। आ आप आए हैं अपना भतीजी से भेंट करे। उहाँ जाना है कि नहीं?'

'बीरेंदर, क्या कर रहे हो?' मैंने टोका।

'आरे भईया, आप कहे सीरियस हो रहे है। चचा से नहीं त किससे मज़ाक करेंगे। अपने चचा हैं। साँच बोलने इहे सिखाये हैं। अभी आपको जानते नहीं हैं न... नहीं त खुदे अईसा रस लेके सुनाते हैं कि... खैर... हाँ त सुनिए न... हिरोइनी को भागा लाये अपना घरे...दानापुर। '

'वाह, क्या बात है' मैंने कहा।

"आपको क्या लगता है ! वैसे आगे त सुनिए... अब बता के त लाये थे कि ई बरका जमींदार हैं, कोठी है, हाथी है, घोरा है...  लेकिन जईसही इनका सुदामा छाप मड़ई देखी है... पहिले त उसको बुझाया नहीं... उसके बाद पहिला डायलोग जो मारी है - जर गया तेरा बंगला। एकदम इहे चार शब्द आ अगला दिन सुबह उठते ही निकल गयी। लेकिन एक बात है उसके बाद चचा भी... जइसे कालिदास अपना बीबी से 'अस्ति कश्चिद' जैसा कुछ सुन के ग्रंथ सब रच दिये ओइसही चचा भी 3 ठो बंगला बना ही लिए" बीरेंदर ठीक मौके पर ऐसी बात बोल देता है कि सामने वाले को समझ में नहीं आता कि वो बड़ाई कर रहा है या मज़ाक। और सामने वाला बेनीफिट ऑफ डाउट हमेशा बड़ाई को ही दे देता है।

'बिरेनदरा पीटा जाओगे, बात बस बांगला का नहीं था आ एके दिन नहीं रही थी। कुछो नहीं बोलना चाहिए अगर मालूम न हो तो' - चचा ने गंभीरता से कहा।

'आरे चचा ठीक है न। भईया कौन सा आपका बात हाला कर रहे हैं। वैसे यूपी-बिहार बाड़र वाला घर का का हाल है? जानते हैं भैया, बोडाफ़ोन वाला रोमिंग में दुह देता है इनको, बाड़र पर घर है कभी यूपी का सिग्नल पकरता है कभी बिहार का।' बीरेंदर ने तुरत बात ही बदल दी।

'आछे चचा एक ठो और बात बताइये - आप सुबह उठते ही भूत पिचास निकट नहीं आवे काहे कहते हैं। सुबहे सुबह भूत-पिचास का नाम लेते है। और कोई लाइन नहीं मिली आपको ? भईया, हम इनको केतना बार टोके हैं इनको... लेकिन इनको उहे लाइन से प्यार  है। उठेंगे आ भूत-पिचास बोलेंगे... आ कहेंगे कि हलुमानजी काम नहीं बना रहे हैं। उधर बजरंग बली भी कहते होंगे कि  मेरा नाम त लेता  नहीं है ई!'

चचा ने इस बार बाजी मारी बोले – 'हम फिलिम का गाना भी बीचे में से गाते हैं... गा दें? ' चचा ने कहा - 'ई पागाला है, समझावे से समझे ना... धिकी चिकी... धिकी चिकी ....'

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~

Mar 31, 2012

अच्छा-बुरा !

 

“आप भी ड्रिंक नहीं करते?” – पहली बार सम्बोधन अक्सर ‘आप’ ही होता है। पर ऋचा मुझे हमेशा आप ही बोलती रही। ऑफिस की पार्टी में जब सभी नशे में धुत थे तब संभवतः ऋचा उस भीड़ में अकेली महसूस कर रही थी। या फिर सबको पता था कि हरीश की गर्लफ्रेंड है तो कोई उससे बात करने की कोशिश भी नहीं कर रहा था। वरना ऐसी पार्टियों में लोग लड़कियों को अकेला कहाँ रहने देते हैं। मुझे तो ऐसी पार्टियों की आदत सी हो चली थी पर ऋचा के लिए संभवतः पहला मौका था। उस चकाचौंध में अकेलापन महसूस कर रहे शायद एक नहीं दो लोग ही थे।

‘हाय! हाऊ आर यू? नहीं मैं नहीं पीता’ – मैंने ऋचा की तरफ मुड़ते हुए कहा था। तब मेरे मन में लीव-इन रिलेशनशिप वाली लड़कियों को लेकर कई तरह के पूर्वाग्रह थे। मरून-ब्लैक सलवार सूट में... ऋचा ऐसी लड़की थी जिसे कोई भी लड़का पहली नजर में खूबसूरत लड़की कहता। खूबसूरत ही नहीं – ‘अच्छी लड़की’ भी। सुलझी हुई, सहज, कम बोलने वाली।

ऋचा और हरीश को साथ रहते हुए तब तकरीबन एक साल हो चुके थे। हरीश हमारे ग्रुप का स्टार हुआ करता था। इंटेलिजेंट, हैंडसम, ऑफिस में जम कर काम करने वाला और फिर सबकी मदद करने वाला एक एक भला लड़का।

‘आप और हरीश एक ही कॉलेज में थे?’ मैंने बात को आगे बढ़ाया।

‘नहीं, हमने साथ इंटर्न किया था। इंडियन ऑयल – मथुरा में। हरीश तब रुड़की में था और मैं बैंगलोर से आयी थी’। मेरी ऋचा से उस दिन पहली मुलाक़ात सी ही बात हुई। बहुत कम फॉर्मल बातें। पर उतनी ही देर में मुझे हरीश की किस्मत से थोड़ी ईर्ष्या तो हुई।

बाद के दिनों में मैं हरीश से कभी-कभी पूछ लेता – ‘ऋचा कैसी है?’। ‘शादी कब कर रहे हो?’ ये सवाल मैंने पुछना धीरे-धीरे छोड़ दिया। मुझे हरीश का हर बार टालना... व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप लगा। मेरे अलावा हमारे ऑफिस के किसी और लड़के से ऋचा ने कभी बात नहीं की थी। तो बाकी लोगों को भी मेरा ये पूछना शायद अजीब लगता था।

एक दिन ऋचा का बैंगलोर से कॉल आया - ‘हरीश कैसा है?’

‘ठीक है... तुम...?’

‘कुछ नहीं... बस इतना ही पूछना था। आप कैसे हैं?‘ इससे आगे बात नहीं हुई। मैंने भी इससे अधिक ध्यान नहीं दिया।

मुंबई में बम ब्लास्ट होने के बाद जब फिर ऋचा का फोन आया तो... ‘हरीश तो लंदन चला गया, तुम्हें नहीं पता?’

‘आपके पास उसका नंबर है?’

‘हाँ. एक मिनट. देता हूँ’

अगले दिन ऑफिस में हरीश ने मुझे फोन किया ‘हे अनुराग, डिड यू टॉक तो ऋचा रिसेंटलि’।

‘यस, शी वाज वरिड अबाउट यू।’

‘या, आई नो। आई हैव बीन अ बिट बीजी लेटली, थैंक्स मैन’

उसके बाद हरीश के उस नंबर पर कभी फोन नहीं लगा। मेरी अब हरीश से बस फॉर्मल बातें होती। बस ओफिसियल बातें कभी किसी वीडियो कॉन्फ्रेंस में दिख जाता... उसकी खबर लेने के लिए ऋचा के कॉल अक्सर आते रहते। धीरे-धीरे ऋचा से बहुत सी बातें पता चलीं।

‘तभी तुमने शादी कर लेनी थी रिचा'– एक दिन मैंने कहा।

‘इतना आसान नहीं था अनुराग। आपको पता है मैं मुंबई कैसे आयी थी? मैं कैसे घर से हूँ? मेरे घर के लोग लीव-इन शब्द सुनकर क्या सोचते हैं? अभी मेरी क्या हालत है? आपको कुछ भी नहीं पता ...और आप सोच भी नहीं सकते। जब मैं पहली बार मुंबई गयी थी तब मैंने अपने घर पर कहा था कि मैं जॉब करने जा रही हूँ। सब कुछ छोड़कर चली गयी थी मैं हरीश के लिए। मैं तो कभी हॉस्टल में भी नहीं रही। यहीं बैंगलोर में घर से पढ़ाई की। मथुरा भी नहीं गयी होती तो... अच्छा हुआ होता। आपने शादी के बारे में पूछा न? क्या बताऊँ मैं आपको !... जब भी हरीश से कहती... उसका एक ही जवाब होता – ‘तुम्हें भरोसा नहीं मुझपर’ ! मैं अब भी नहीं समझ पाती कि कब से हरीश के मन में मुझे छोड़ने की बात थी... मुझे यकीन नहीं होता कि वो एक्टिंग कर सकता है इतने सालों तक। मैं तो बस हमेशा उसका कहा करती गयी... ! मुझे शुरू अपने घर पर कुछ कहने की कभी हिम्मत नहीं थी। बस उसके  लिए हरीश जो उपाय बताता गया मैं करती गयी... आपने कभी सब कुछ समर्पण कर देना जैसा सुना है?... छोड़िए, हरीश का नंबर है आपके पास?’

‘ऋचा, मेरे पास हरीश का ईमेल आईडी है और वही पुराना नंबर... !’

‘आप से क्यों कह रही हूँ मैं ये सब ! अपने आप से भी नहीं कह पाती मैं तो... पर मुझे जीने की इच्छा नहीं बची। क्यों जीऊँ मैं अब...’ - शायद ऋचा को ये भी लगा कि मैं जान बूझकर हरीश का नंबर नहीं दे रहा उसे।

ऋचा की बातों से मुझे डर लगता। कई बार ये भी लगता कि मैं कहाँ फंस गया हूँ इस चक्कर में। मैं उसे घंटो समझाता... पर क्या समझाता मैं? !

‘कैसे जी रही हूँ मैं ये बस मैं ही जानती हूँ। घरवाले, रिश्तेदार... क्या करने चली थी मैं? ! सब कुछ झूठ पर कब तब टिकता अनुराग... शायद शुरू से ही सब कुछ झूठ था या फिर मेरे मुंबई आ जाने के बाद हरीश बदल गया... मुझे नहीं पता... मुझे तो अब भी लगता है कि सब कुछ ठीक हो जाएगा ! मैं जानती हूँ... मैंने कोई गलती नहीं की। समय पीछे चला जाय तो मैं आज भी वही करूंगी... आपको कैसे समझाऊँ अनुराग... मुझे आपकी बातों पर हंसी आ जाती है। आप बहुत अच्छे हैं... लेकिन आपको कभी इश्क़ नहीं हुआ... आप नहीं समझ सकते। मैं क्या करूँ अनुराग?'

एक दिन ऋचा ने कहा - 'मुझे मरना नहीं है अनुराग... पर मैं ऐसे जी नहीं सकती’

‘ऋचा, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी। जिंदगी में एक इंसान... इन्सान ही क्यों? कुछ भी हो जाये हमारे साथ... जब तक हमारा दिमाग चल रहा है... हमें अपने आपको समझा लेना है ऋचा। जिंदगी में बहुत कुछ है... अगर हमारे हाथ-पैर-आँख भी चले जाएँ तो क्या है? हम तब भी जीने का बहाना निकाल सकते हैं ऋचा। और तुम तो किसी ऐसे के लिए ये सब सोच रही हो जो... ‘

‘नहीं अनुराग, मैं तो अब भी समझ नहीं पायी कि ऐसा क्या हो गया! क्या चाहिए था उसे? क्यों उसने अचानक... ! मैं तो उसे दोष भी नहीं दे पाती... कारण ही नहीं पता मुझे तो... और... जीने का बहाना?... मैं भी ऐसा ही कह देती हूँ अनुराग... मैंने कहा न आपको इश्क़ ही नहीं हुआ कभी !’

मेरे न्यूयॉर्क आ जाने के बाद भी कभी-कभी ऋचा के फोन आते रहे। पिछले सप्ताह एक दोस्त ने मुझसे पूछा - ‘हरीश की शादी में नहीं आया तू?’

‘शादी? कब हुई?’

‘व्हाट ? सबको तो बुलाया था उसने? तुझे कैसे नहीं बुलाया ? स्ट्रेंज ! हम्म... 4-5 महीने हो गए’

मैंने अपने फोन का कॉल लॉग देखा ऋचा से तीन महीने पहले बात हुई थी। ‘हरीश कैसा है?’ तब भी उसने बस यही पूछा था।

‘मेरी बात नहीं होती, पर ठीक ही होगा’ तब मेरी तरह उसे भी ये नहीं पता था कि हरीश की शादी हो चुकी है।... तीन महीना शायद सबसे लंबा समय होगा जब ऋचा का कॉल नहीं आया हो मेरे पास। अब... ऋचा का नंबर एकजिस्ट नहीं करता! उसने मुझसे कहा था – ‘अनुराग, कुछ बुरा नहीं होता। लेकिन सब कुछ सबके लिए नहीं होता ! बस मेरी जगह मुझे नहीं होना था...’

हरीश को आज भी सभी एक अच्छे इंसान के रूप में जानते हैं। इंटेलिजेंट तो खैर है ही ! मैं आज भी ऋचा का उदाहरण एक अच्छी लड़की के रूप में देता हूँ। ...आई एम अफरेड शी डजन्ट एकजिस्ट एनीमोर....

...कुछ लोगों के हिसाब किसी बही-खाते में नहीं पाये जाते !

~Abhishek Ojha~

Mar 5, 2012

येनांग विकार: ! (पटना ११)

 

उस शाम रैली के चक्कर में ऑटो न मिलने का डर था तो बीरेंदर (उर्फ बैरीकूल) मुझे ड्रॉप करने आ गया। पाँच किलोमीटर दूर भी बीरेंदर को जानने वाले लोग मिलते गए। बीरेंदर ने जब कहा था कि अपना इलाका है... तो वो गलत नहीं था।

'का हो दमोदर? सुने आजकाल बरा माल कमाई हो रहा है? ई सुई घोंप के जो लौकी-नेनुआ बेच रहे हो। हमको सब मालूम है' बीरेंदर ने सब्जी का ठेला लगाने वाले दामोदर से पूछा।

'काहाँ बीरेंदर भैया... जीए भर के कमाईए नहीं है आ आपको खाली मलाइए दिख रहा है ! ठीके है,... जब खुदे मलाई चाभ रहे हैं त आपको दीखबे करेगा।'

'तुम्हरे बाबूजी आइसही थोरे नाम रखे थे दमोदर... जानते हैं भैया... दमोदर माने जिसके उदर में दाम हो ! बेटा तुम अइसही उदर में लमरी खोसते रहे न त एकदिन हलफनामा दे के तुम्हरा नाम लंबोदर कराना परेगा। आ बाबूजी कइसे हैं तुम्हरे? हेमा मालिनी को भुलाए की नहीं अभी तक?' - बीरेंदर ने दामोदर से पूछा।

हेमा मालिनी की बात पर दामोदर की शकल देख लगा कि उसने बस किसी तरह अपने को गाली देने से रोक लिया और अपने असीस्टेंट से बोला - 'साले ज़ोर ज़ोर से बोल नहीं त...'

बीरेंदर ने मुझे समझाया - 'जानते हैं भैया दमोदर के बाबूजी एयरपोर्ट प नौकरी करते हैं। आ जिस दिन हेमा मालिनी आई पटना... देख लिए... बुझ जाइए कि माने एक दम पास से... जईसे दमोदर है न बस एतने दूरी रहा होगा... है कि नहीं दमोदर? । आ उसके बाद जो हालत हुआ है उनका। शाम को घर आए आ पहिले त खाना-दाना कुछ नहीं खाये... जब चाची पूछी कि का हो गया त जो रोना चालू किए हैं... अरे जवानी के दिन में बड़का फैन थे हेमा मालिनी के'

'देखिये बीरेंदर भैया ठीक नहीं होगा.... बता दे रहे हैं !' आ तू भो** के का कर रहा है बोल ज़ोर से...' दमोदर ने ठहाके लगा रहे अपने असिस्टेंट को घुड़की दी। असिस्टेंट... "4 रुपये पौवा.... ताजा खींचा..." चिल्लाना शुरू हो गया।

'लेकिन दमोदर भाई जो जिंदगी जी लिए हैं न... का बताएं आपको !' बीरेंदर ने मुझसे कहा।

'हाँ अब जिंदगिए जीने का न फल मिल रहा है कि हिहाँ एएन कोलेज कर के सब्जी बेच रहे हैं...नहीं तो आपे जइसे हम भी हीरो होंडा नहीं दौराते आज?!' - दामोदर ने दार्शनिक अंदाज में कहा।

'लेकिन ई बात भी तो मानना परेगा कि आप का जैसा यहाँ केतना आदमी लाइफ जी पाता है ! जानते हैं भैया... दमोदर जब आईए में पढ़ते थे तब इनके बाबूजी पान के गुमटी प कहते – एगो पनामा दीहअ हो। आ 10 मिनट बाद दमोदर कहते - एगो किंगसाइज़ दीजिये त हो। एकदमे गर्दा उड़ान थे दमोदर' - बीरेंदर ने फिर दामोदर की खिंचाई की लेकिन ये बात दामोदर को बुरी नहीं लगी। उन्होने सगर्व स्वीकृति सी दी। बीरेंदर को पता है किसे कौन सी बात अच्छी लगेगी।

उधर दामोदर का असिस्टेंट फिर मजे लेकर बात सुन रहा था। दमोदर ने फिर उसे गालियां दी: 'तोहरी माँ के...बरा मजा आ रहा है तुमको... एक ठो गाहक नहीं आया अभी तक।'

'देखिये दमोदर भैया... एक ठो दस टकिया खातिर हम जेतना गला फार रहे हैं उ कम नहीं है। आ एक बात जान लीजिये हम अपना बाप का भी नहीं सुनते हैं ' - दमोदर के असिस्टेंट ने भी गाली के जवाब में अपनी बात कह दी।

'जीय रे करेंसीलाल... ससुर बाप का त हिहाँ कोई नहीं सुनता है  ! त ना सुन के तू कौन बरका तीरंदाज हो गया ?' - बीरेंदर ने दामोदर के असिस्टेंट से कहा।

इतनी देर में सामने से एक उचकते हुए सज्जन प्रकट हुए। बैरी को जैसे आनंद आ गया। - "का हो 'येनांग विकारः' का हाल? "

'देखिये भैया ये जो है न वो तृतीया विभक्ति का जीता जागता उदाहरण हैं। हम हमेशा परीक्षा में 'पादेन खंज:' ही लिखे हैं उदाहरण। हमेशा इन्हीं का स्मरण करके संस्कृत में पास हुए हैं।' - बीरेंडर ने उन्हें सुनाते हुए मुझसे कहा।

'सही है बीरेंदर तुम्हें अभी तक याद है?' -मैंने पूछा। येनांग को बुरा लगेगा या नहीं ये पूछना मैंने उचित नहीं समझा। बीरेंदर के मिलनसार होने पर मुझे अब कोई डाउट नहीं था । और मुझे ये भी पता था कि लोगों को मेरी अच्छी लगने वाली बातों से कहीं ज्यादा... बीरेंदर की बुरी लगने वाली बातें अच्छी लगती है।

'याद तो कुछ पढ़ा हुआ बात ऐसे है कि भैया अब क्या बताएं आपको - ई का य, उ का व तथा ऋ का र हो जाता है।' एक सांस में बोल गया बीरेंदर।

'क्या हो जाता है?' मैंने पूछा।

'अरे भैया इसे यण संधि कहते हैं। हमको जादे बुझाता तो नहीं था लेकिन जो रटा गया अब उ ई जनम थोरे भुलाएगा... कहिए त अभी का अभी पिरियोडिक टेबल लिख दें ! हलीनाकरबकसफर - बीमजकासरबारा' – फिर एक सांस में बोल गया बीरेंदर। इंप्रेसीव।

येनांग विकार: ने पूछा - 'आरे बीरेंदर ई बात बताओ ई नयेका बसवा गांधी मैदान जाएगा?'

'नहीं ई स्टेशन जाता है'

'लेकिन गांधी मैदान नई जाएगा त जाएगा कइसे ?' - येनांग ने पूछा।

'अब ई तो कोई बैज्ञानिके बता सकता है कि गांधी मैदान नहीं जाएगा त कइसे जाएगा ! हम कइसे बता दें? उर के जाता होगा। नहीं तो आपका चाल से चला जाता होगा। कौन रोकेगा फिर? अहम बैज्ञानिक त हैं नहीं त हम खाली एतना जानते हैं कि गांधी मैदान नई जातई' - बीरेंदर ने अपने लहजे में कहा।

फिर बीरेंदर ने येनांग को सुनाते हुए उनके बारे में बताना चालू किया - 'भैया, एक बात है, येनांग विकार: जहां जाते हैं एकदम अफसर जईसा चलते हैं। देखिये-देखिये...एकदम परफेक्ट हचकते हैं। माने एक दमे चाल बराबर दूरी बटे समय के हिसाब से आप कलकुलेट करके देख लीजिये' - बीरेंदर ने उनकी ओर इशारा कर चिढ़ाते हुए कहा।

इससे पहले कि येनांग कुछ कहते बीरेंदर ने बाइक स्टार्ट की और हम वहाँ से आगे चले गए। Smile

~Abhishek Ojha~

Feb 14, 2012

प्री-स्क्रिप्टेड शो...

 

(मूल पोस्ट... के बाद आए एक ईमेल और उसके जवाब पर आधारित)

अमृत ने जब अगले दिन विजय से बात की... तो विजय ने बताया-

देख अमृत, दारू के झोंके में मैंने जो बोला वो बोला। पर मैं जो बोलता हूँ वो कोई नियम नहीं है। वो बस उतना ही है जितना मेरी समझ में आता है। ये उन बातों पर निर्भर है कि मैंने क्या पढ़ा, क्या देखा और अब तक कैसा जीवन जीया। ऐसा कुछ भी जो मेरी सोच को सही ठहराता है, वो मुझे सच लगता है पर इसका मतलब ये नहीं है कि दुनिया वैसी ही चलती है। केप्लर और कोपरनिकस के पहले सबको पता था कि सूर्य पृथ्वी के चारो ओर चक्कर लगाता है। और सबको पता था कि ब्रह्मांड कैसे बना है !  कोई झमेला नहीं ! उसी तरह क्लासिकल, न्यूटोनियन फिजिक्स और फिर आइन्सटाइन का क्रांतिकारी सापेक्षता सिद्धान्त और फिर क्वान्टम.... और हम अभी भी हो सकता है कि कुछ नहीं जानते !  ...या फिर जो जानते हैं उसके विपरीत ही कुछ सच हो !  एक दिन एक नया सिद्धान्त सब कुछ बदल सकता है।

सारे सिद्धान्त  बस हमारे आस पास की हो रही घटनाओ को बस सही ही तो ठहराते हैं... कितनी ही चीजों की व्याख्या तो हम कर नहीं पाये आज तक... और हम कह देते हैं कि यही संसार के नियम है। जैसे एक रुई के गोले पर गोली चलाने से अगर गोली अपनी दिशा बदल दे... तो हम नियम बनाते हैं कि रुई के अंदर एक वस्तु है जो गोली की दिशा बदल रही है... पर सच्चाई ये हो भी सकता है नहीं भी !  बिन देखे, बिन रुई खुले.... अनुमान ही तो है ! और कोई भी नियम तभी तक सही होता है जब तक आँखों देखी बातों को सही ठहराने के लिए उससे बेहतर नियम नहीं मिल जाते।

अब अपने को ऐसा लगता है कि जो भी होता है वो पूरे ब्रह्मांड के अच्छे के लिए होता है... कई बार हमें ये बात उसी समय समझ नहीं आती। कई बार हम पूरी जिंदगी नहीं समझ पाते कि इसमें अच्छा क्या है ! लेकिन हमारी जिंदगी के बाद शायद कुछ अच्छा हो ... वैसे भी हमारी जिंदगी की समय सीमा ब्रह्मांड के उम्र की तुलना में है ही क्या !  अब इसी को तू ऐसे कह सकता है कि जब सब कुछ अपने आप होना है तो मैं क्यों टेंशन लूँ ! तो फिर ये कहानी सुन जो मैंने अपने बचपन में सुनी थी:

'एक बार नाव से लोग नदी पार कर रहे थे... और तूफान आ गया। अफरा-तफरी मच गयी। उसी नाव में एक महात्माजी भी थे। वो अपने कमंडल से नदी का जल नाव में डालने लगे...लोगों को लगा बुड्ढा पगला गया। थोड़ी देर में तूफान शांत होने लगा तो बाबा वापस पानी नाव से निकाल  नदी में डालने लगे। लोगों  को कुछ समझ में नहीं आया। पूछने पर बाबा बोले: "मुझे नहीं पता भगवान क्या चाहते हैं। पर इतना पता है कि वो हमसे बेहतर समझते हैं। अगर वो हैं तो हम सबके भले के लिए ही कुछ करेंगे। मैं अपने स्तर पर उनकी मदद करने की कोशिश करता हूँ, जैसे भी कर सकूँ। जब मुझे लगा कि वो नाव डुबाना चाहते हैं तो मैं उनकी मदद कर रहा था और जब लगा कि वो बचाना चाहते हैं तब भी।"'

हम सबके जीवन में असहनीय बातें होती हैं... पर एक दिन हमें यह पता चलता है कि वैसा किसी अच्छे मकसद के लिए ही हुआ था। किसी बड़े अच्छे काम के लिए। कभी-कभी हमें ये पता नहीं चल पाता। लेकिन वो तो इसलिए कि...आखिर हम देख ही कितना सकते हैं ! भगवान को बस हमारा परिवेश ही नहीं पूरा ब्रह्मांड संभालना होता है... अनंत तक फैला हुआ ! और एक सुदूर ग्रह/तारे से जो हम आज के विज्ञान की मदद से देख भी पाते हैं... वो घटनाएँ तक तो भूतकाल की होती है ! 

अब जो कुछ भी होता है उसे टाइम-स्पेस को-ओर्डिनेट्स में होने वाले इवैंट कह लो या भगवान की मर्जी कह लो। जब भी हमें समझ में नहीं आता कि जो कुछ हमारे साथ हुआ उसमें क्या अच्छा था... तो इसका मतलब ये भी तो हो सकता है कि एक इवैंट हुआ टाइम-स्पेस में जिसका असर किसी ऐसे टाइम-स्पेस में होगा जो हमारी जिंदगी के को-ओर्डिनेट्स के बाहर है।

अब देख फेसबूक का आविष्कार हो सकता है कि भगवान ने बस इसलिए कराया हो कि एक दिन कोई मिस्टर लल्लूलाल किसी स्पेसल चमनबहार से मिलें ! जो बिना फेसबूक के संभव नहीं होता। अब इसके साइड इफैक्ट के रूप में जुकरबर्ग फोकट में ही अरबपति बन गया ! ऐसे ही हो सकता है कि किसी छोटे से काम के लिए ही बाकी सारे आविष्कार भी हुए हों !  केओस थियरि में छोटी सी घटना बड़े घटनाओं को अंजाम देती है। ये दरअसल ऐसा है कि छोटी घटनाओं से बड़ी घटनाएँ होती हैं, बड़ी घटनाएँ छोटी घटनाओं के लिए होती हैं... और कई छोटी-बड़ी घंटनाएँ होती रहती हैं जो एक दुसरे को प्रभावित करती रहती हैं.... और ये सभी घटनाएँ अंततः ब्रह्मांड के 'नेट बेटरमेंट' के लिए ही होती है। कई बार ये बातें हमारी समझ में आती हैं...अक्सर नहीं आती।,

देख! हमेशा इसकी संभावना है कि एक घटना के होने से दूसरी कोई घटना ना हो। लेकिन अगर कुछ हुआ है तो इसका मतलब ये है कि पूरे ब्रह्मांड में उसके होने के लिए घटनाएँ हुई। हर लमहें हम और हमारे आसपास के लोग कई काम ना करके... सिर्फ वही काम करते हैं जो हमें हमारी आज की अवस्था तक ले आते है ।  और रही बात प्री-स्क्रिपटेड की तो मानने की बात है... साबित तो तभी हो सकता है जब हम भविष्य देख सकें और ये साबित कर पाएँ की सबकुछ प्री-स्क्रिपटेड नहीं है ! Smile

(last paragraph by Ajit Thumbs up)

~Abhishek Ojha~

Jan 23, 2012

पाँच लीटर दूध और आधा किलो चीनी (पटना १०)

 

बैरीकूल से अक्सर चाय की दूकान पर ही मिलना होता था. चार बजे के आस पास, ४ रुपये की चाय. नियमित फोन करता था बैरी – ‘आइये भैया नीचे, चाय पी कर आते हैं’. मुझे उस दूकान की चाय अच्छी लगने लगी थी. बिरेंदर को अच्छी नहीं लगती.

‘अबे ! फिर तीता बना दिया है? है न भैया?’ - मेरी तरफ देखते हुए बिरेंदर ने पूछा.

‘हम्म…. हाँ, पर ठीक है' - मुझे ताज़ी पत्तीयों की खुशबू लिए कम देर तक उबली चाय अच्छी लगती. मैं चाय का शौक़ीन तो नहीं पर मुझे लगता है कि चाय अच्छी-बुरी नहीं होती. पीने वाले पर निर्भर करती है. कितना दूध, कितनी पत्ती और कितनी देर तक उबाली जाय. इन सबका अपना व्यक्तिगत पैमाना होता है  ! चाय बनाने के सबके अपने-अपने तरीके भी होते हैं. चाय के शौकीनों को एक-दूसरे की बनाई चाय अच्छी नहीं लगती ! वैसे बैरी कहता है कि लोग जैसे-जैसे ‘बड़े आदमी' बनते जाते हैं – ‘ब्लैक टी' की तरफ बढते जाते हैं. चीनी और दूध दोनों की मात्रा कम करते जाते हैं. ज्यादा बड़े लोग बिना शक्कर बस ब्लैक ही ‘परेफर’ करते हैं.

उस दिन मुझे जुकाम हुआ था.  जुकाम हो तो मेरी आँखें ज्यादा परेशान होती हैं…. सूजी हुई, लाल और अनवरत आंसू !  कुल मिला कर हालत ऐसी होती है कि जो भी मेरी हालत देख ले उसे चिंतित होने का अभिनय तो करना ही पड़ता है. और फिर बैरी तो… जान लड़ा देने वाला इंसान है.

बैरी ने कहा ‘भैया, आज कॉफी पी लीजिए. छोटू, एक अच्छी कॉफी बना के ले आ’.

‘… दूध ज़रा कम डालना.’ - मैंने चाय वाले से कहा. उससे दो दिन पहले कॉफी किसी तरह पी पाया था.

‘सर ! त काफी बनेगा कैसे? काफी त दूध में ही नू बनता है ?!’ - चाय वाले ने कहा.

बैरी ने उसे मना कर दिया. ‘चलिए भैया… आज आपको बढिया काफी पीला के लाते हैं.’ बैरी अपनी बाइक ले आया और ५ मिनट में हम मोना सिनेमा पंहुच गए.  और… यहाँ भी सभी बैरी को पहचानते थे. बीच में एक लड़का दिखा तो बैरी चला गया. २ मिनट बाद आया तो हंसते-हंसते लोट-पोट. मैंने पूछा ‘क्या हुआ?’

‘कुछ नहीं भैया, उ जो लड़का था न, मेरा दोस्त है. यहीं मोना में टिकट काउंटर प रहता है, बोलता है कि भैया को बोलो… काहे पहने हैं इ सब फूटपाथ वाला कपरा… आ इ चाइना मोबाईल काहे लिए हैं?’

‘हा हा' - मुझे बात समझ में नहीं आई. और कई बार ना समझ में आये तो साथ हंस देना एक अच्छा उपाय होता है.

बैरी ने समझाया ‘इ जो ए एक्स लिखा है न आपके टी-शर्ट पर इ यहाँ फूटपाथ पर ही मिलता है. इ हो गया… फिर से… केल्विन क्लेन हो गया… इ सब फूटपाती कपरा है पटना का. आ फोन तो टच स्क्रीन बड़ा… माने चाइना मोबाईल ही होगा.’

तब तक हमारी कॉफी आ गयी. ‘आछे, एक ठो बात का बुरा मत मानियेगा भैया. लेकिन ऐसा नहीं है आजकल ऑफिस में सब काफी इसलिए पीता है कि इसी बहाने एक ठो ब्रेक मिलेगा?’

‘नहीं नहीं, ऐसा नहीं है. कई लोग तो अपने डेस्क पर ही कॉफी पीते हैं.’

‘अरे ! लेकिन लाने त जैबे करेगा. अब देखिये… मजदूर सब एतना खैनी काहे खाता है?’

‘नशा है !’

‘अरे नहीं भैया. नशा तो खैर हैये है. लेकिन इसी बहाने उसको दस-पन्द्रह मिनट का बरेक मिल जाता है. पाँच मिनट बनाएगा, बांटेगा… ऐसे करके सब मटिया लेता है… वइसेही आजकल काफी का फैसन है. अपना ऑफिस से निकले १० मिनट टाइम पास किये… काफी बरेक !’

‘बात तो सही है  तुम्हारी'

‘आछे , एक ठो और बात है. इ वाला काफिया आप पी कैसे लेते हैं?’

‘क्यों?’ मैंने पूछा.

‘एक बार हम भी पीये हैं… यही वाला. बहुते कड़वा होता है. एकदम जानलेवा… अइसा जहर जैसा चीज कोई काहे पीता है. हमको तो नहीं बुझाता है.'

‘अरे चीनी-दूध डाल लेते’ - मैंने हंसते हुए कहा.

‘चीनी-दूध? देखिये भैया ! एक ठो बात बोलें? इसमें पांचो लीटर दूध आ एको पौवा चीनी डाल दीजियेगा त आपको लगता है कि ई पीने लायक बन पायेगा? लेकिन अब कड़वाहट के लिए ही पीते हैं, यही कह दीजिए. सब कहता है कि नींद भाग जाता है, सर दर्द ठीक हो जाता है. अरे इहे नहीं कवनो जहर जैसा कड़वा चीज पी लीजिए…. त पीने के बाद १० मिनट तक तो अइसही माथा झनझनाते रहेगा… अईसा कड़वा मुंह में गया त कोई और टेंसन बचेगा? !  अरे यही काम नीम का पत्ता  भी कर सकता है, करेला भी… नहीं तो दुई ठो मिर्ची चबा लीजिए… गारंटी है नींद भाग जाएगा. हा हा हा. है कि नहीं भैया ? लेकिन अब फैसन है तो है.’

‘हे हे हे. बोल तो तुम बिल्कुल सही रहे हो' मैंने हंसते हुए कहा.

‘ऐ जिम्बाज ! इधर आओ तनी...’ बैरी ने एक लड़के को बुलाया.

‘देख रहे हैं भैया. इ जिम्बाज है पटना का. अरे आओ न इधर… सर्माता काहे है, परनाम कर भैया को’ बैरी ने कहा. ‘दो मिनट में आया बीरेंदर भैया’ कहकर जिम्बाज कहीं चला गया तो बैरी ने आगे सुनाना शुरू किया ‘लौंडा बड़ा जिम्बाज है? जिम्बाज समझते हैं? जांबाज नहीं - जिम बाज. साला काम करेगा नहीं. आ जिम जाएगा. हमको देखिये… हम जानते ही नहीं है जिम होता क्या है !’ बैरी ने सगर्व बताया.

‘ज़माना बदल गया है भैया… अब देखिये न पहिले बाबूजी भोरे-भोर गाते थे. ‘जागिये ब्रजराज कुंवर पंछी बन बोले’… अब साला फोन का अलारम ही भजन कीरतन है. ‘जागिये ब्रजराज कुंवर घंटी टन-टन बोले’… सब जगह वही हाल है. हमरा मनेजर है…. जानते हैं… नहैबो करता है त फोन बगल में रखता है. सबसे पहिले खाली हाथ पोछ के एक बार फोनवा देख लेगा तब जाके बाकी देह पोछता है. पता नहीं साले को अइसा का चेक करना होता है हर दू मिनट में फोन जरूर देखेगा. और इ लईका सब तो एतना मेसेज करता है कि… मूतने भी जाएगा त एक हाथ से एसेमेस करते रहेगा… दूसरा हाथ त… हा हा… . सच्ची बोल रहे हैं भैया… अभीये इंटरवल में यहीं मोने में आपको दिख जाएगा…’ बैरी ने फोन पर कुछ टाइप करते हुए कहा.

‘लेकिन तुम भी तो इसी जमाने के  हो?’ मैने हंसंते हुए पूछा.

‘नहीं भैया. हमलोग अभी भी…’ बैरी ने विस्तार से बताया कि वो कैसे नहीं है अपनी उम्र के बाकी लड़कों के जैसा.

‘यार बिरेंदर कुछ भी हो तुम बात बहुत सही कहते हो, एकदम ज्ञानी की तरह' मैंने कहा.

‘अरे नहीं भैया, हमलोग जमीन से जुरे आदमी हैं. और जहाँ तक ज्ञान का बात है तो एक बात जान लीजिए इ बिहार है यहाँ किसी को ज्ञान हो जाएगा. आपको क्या लगता है बुद्ध को यहीं ज्ञान क्यों मिला? आये अपना… इधर कुछ दिन… राजा आदमी थे… इधर आके लूटे-पीटे होंगे आ जब भूख से पटपटाये… हो गया ज्ञान !’ बैरी ने हंसते हुए कहा.

हम वापस आ गए. अभी बैरी की कई बातें याद आ रही हैं… नींद से उठते ही आँखों के सामने पहली चीज मोबाईल स्क्रीन  होती है तो बैरिकूल की बातें याद आती हैं. और ये नया प्रभात मन्त्र:

फोनाग्रे वसते ट्विटर: फोनमध्ये जीमेलः| फोनमुले तू फेसबुक: प्रभाते कर फोन* दर्शनं ||

मुझे पूरा भरोसा है कि आप भी किसी ऐसे ‘आजकल के लोग’ को जानते हैं जो फोन में घुसे रहते है. लेकिन आप खुद ऐसा नहीं करते होंगे. …कई बार मुझे समझ में नहीं आता कि ये ‘आजकल के लोग' होते कौन हैं. Smile क्योंकि सभी तो दूसरों को ही आजकल के लोग कहते हैं… खुद तो वैसे होते नहीं Smile

~Abhishek Ojha~

बहुत दिन हो गए पटना से लौटे हुए. पटना सीरीज को १० तक ले जाने के लिए आज फिर बैरी को खींच लाये. संभवतः पटना सीरीज की आखिरी पोस्ट हो.

*सुधार के लिए आभार: आराधना चतुर्वेदी.

Jan 9, 2012

२०११...

 

साल 2011 का कुछ-कुछ अपने पास पड़ा रह गया है... वो तो अब वापस लेने आएगा नहीं... ये अब अपने साथ ही रह जाएँगे। हमारा कुछ अगर किसी के पास रह गया होगा तो ये उन्हें पता होगा... हमें याद नहीं। हाँ, हमारे पास जमा हो गए हैं... - कुछ अनुभव – कुछ यादें – कुछ किताबें – कुछ तस्वीरें - कुछ अपेक्षित - कुछ अनापेक्षित – कुछ लोगों से मिलना - कुछ जगहों से ।

कुछ जगहों और लोगों से लगभग एक दशक बाद मिलना हुआ। बचपन के चौराहों और मुहल्लों से गुजरना हुआ। बस स्टैंड, मंदिर, चौक... वो हर हर टूटी फूटी चीजें जिनसे यादें जुड़ी हुई हैं।  ऐसी जगहों पर भी जाना हुआ जहां शायद योजना बनाकर कभी नहीं जा पाता। कुल मिलाकर वैसे ही जैसे एक मानव के जीवन के दिन गुजरते हैं...

पटना – रांची - मुंबई - दिल्ली - सुंदरबन - कोलकाता - बोध गया - राजगीर - नालंदा - पावापुरी - वाराणसी - सारनाथ - बैंगलोर - न्यू यॉर्क –

बहुत सारे अच्छे लोग... और कुछ... हम्म... अच्छे लोग। बाकी अनुभव और ज्ञान सिखा देने वाले लोग। ऐसे अनुभव देने वाले चंद लोगों को (एक ही) जब मैं याद कर रहा हूँ... तो...  दरअसल मेरा कुछ बिगड़ा नहीं  ! बल्कि एक बात सीखने को ही मिली और ये कि मैं किसी और के साथ उनके जैसा कभी कर नहीं पाऊँगा। बिन उनके ऐसे कहाँ से सीख पाता जी !  मैं उनसे जीवन में शायद दुबारा नहीं नहीं मिलूँ... मुझे तो लग रहा है कि वो बस मिले ही थे मुझे सीखाने के लिए :)

बहुत कुछ लिखने का मन हो तो समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करें। वो सारे शिक्षक जो एक दशक बाद पहचान गए और... या फिर वो जिनसे मिलना था और... ! वो अनजाने लोग जो  आपके लिए कुछ भी करने को तैयार होते हैं... निःस्वार्थ-अकारण प्रेम करने वाले... या वो जिनके लिए बिन वास्तविकता जाने जाने मन गुस्से से भर जाता हो और अंत में आपको वो कुछ भी बोलने का मौका ही नही देते ! दुनिया भले लोगों से भरी हुई है। इतने अच्छे लोगों से कि उनसे मिल कर लगता है... 'इनसे अच्छे लोग भी होते हैं क्या? अगर होते हैं तो कैसे होते होंगे  !'

ऐसी जगहों से गुजरना हुआ जहां से गुजरना अपने आप में एक अजीब अनुभव था। कई जगहें तीर्थंकर महावीर और तथागत दोनों से जुड़ी हुई हैं.... एक विचार अक्सर आता कि क्या दोनों कभी मिले होंगे? संभव है ! अगर हाँ, तो कैसा रहा होगा ? मैं अक्सर तुलसी और सुर सूर को लेकर भी ऐसा सोचता हूँ... अक्सर एक कहानी सी चल उठती है मन में... कैसा अद्भुत रहा होगा ! क्या बातें की होंगी उन्होने ? हिन्दू-बौद्ध-जैन ये धर्म सहिष्णुता के अद्भुत मिसाल  हैं !  राजगीर, बराबर की गुफाएँ और एलोरा इन जगहों पर ये सोच कर रोमांच हो उठता है कि कैसे इन तीनों धर्मों के लोग एक साथ मंत्रणा करते होंगे ! खैर...

इस साल की साथ रह गयी यादें... कभी न कभी, कहीं न कहीं... किसी बात में, किसी पोस्ट में, किसी कहानी में, किसी से बात करते हुए जाने-अनजाने आते रहेंगे। मैं अक्सर लोगों की तस्वीरें नहीं लेता... शायद जरूरी नहीं। वो अपने साथ रह गए हैं... वो याद रहें ना रहें उनकी बातें अचेतन मन पर अपना असर छोड़ जाती हैं। डायरी पलटता हूँ तो कितनी बातें हैं...

फिलहाल कुछ तस्वीरें...

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वणावर (बराबर) गुफाएँ, जहानाबाद बिहार। तीसरी शताब्दी पूर्व तक की गुफाएँ। हिन्दू, बुद्ध, और जैन तीनों धर्मों से जुड़ी हुई धार्मिक सहिष्णुता की प्रतीक, संभवतः भारत की प्रथम ज्ञात मानव निर्मित गुफाएँ हैं। गुफाओं  की अद्भुत चिकनी भीतरी दीवारें मौर्यकालीन कला की उत्कृष्टता दर्शाती हैं।

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बोधगया। अद्भुत शांति !

bronx zoomanhattan

मैनहट्टन -मेरे अपार्टमेंट से, और ब्रोन्क्स ज़ू में रॉयल बंगाल टाइगर।

microfinancepatna

पटना में एक माइक्रोफाइनान्स ग्राहक और गोलघर से पटना।

nalandapawapuri

नालंदा विश्वविद्यालय अवशेष और जल मंदिर पावापुरी।

rajgirranchi

विश्व शांति स्तूप राजगीर और रांची में मेरी पसंदीद जगह - जगन्नाथ मंदिर।

sundarbankolkata

सुंदरबन और कोलकाता।

varanasisarnath

वाराणसी और सारनाथ।

mumbai

मुंबई में एक दिन।

~Abhishek Ojha~