बचपन में सुनी हुई एक बोध कथा याद आ रही है। आपने भी सुना ही होगा।
एक राजा को अपने राज्य में दूध का तालाब बनवाने का मन हुआ । अब राजा ही थे तो मन तो कुछ भी करने का हो ही सकता है ! जैसे एक बादशाह को मन हुआ और टैक्सपेयर्स के पैसे से उन्होने ताजमहल बनवा दिया... साइड इफैक्ट में - अमर हुआ इश्क़ ! बैरीकूल से पूछूंगा तो कहेगा - अर्थशास्त्र पढे हो? साला इश्क़ का फैक्टर कहाँ से आया बे? हमें भी इफ़रात के पैसे दे दो तो हम भी चाँद पर दस गुना बेहतर ताजमहल बनवा दें खैर...
राजा ने तालाब खुदवाकर घोषणा कर दी कि आज की रात सब लोग अपने घर से एक-एक लोटा दूध लाकर तालाब में डालें। जनता ने फरमान सुन लिया पर जनता तो जनता है – सॉरी जनार्दन भी है। जो भी हो फिलहाल हुआ कुछ यूं कि लगभग सभी जनार्दनों ने सोचा - इतने बड़े तालाब में अगर मैं एक लोटा पानी ही ड़ाल दूँ तो किसको पता चलेगा ! शायद हाजिरी लगानी हो नहीं तो लोग डालने भी नहीं गए होते । जैसे भी रहा हो हम वहाँ मौजूद तो थे नहीं तो विथाउट लॉस ऑफ जेनेरालिटी मान लेते हैं कि अंततः लगभग सभी ने एक-एक लोटा पानी ही डाल दिया और अगले दिन सुबह पानी से लबालब तालाब तैयार ! एक दो लोगों ने दूध डाला भी हो तो न तो वो भरे तालाब में दिखना था। ना ही किसी का कहना कोई मानता। तो सर्वसम्मति से यही मान्यता बनी कि राज्य की सारी जनता ने तालाब में दूध की जगह पानी ही डाल दिया !
और राज्य की जनता? (यहाँ से मेरी व्याख्या है) सब एक दूसरे से कहते कि यार गज़ब हो गया ! हमने तो दूध ही डाला था ! कोई ईमानदार बचा ही नहीं इस राज्य में – भ्रष्ट शासन, झूठे लोग... आपको पता ही है बाकी बातें जो जनता ने कही होगी । नहीं पता तो किसी दिन ‘एलिटनेस’ [ब्लॉगिंग में कुछ लोग इस शब्द से भड़कते हैं, उस संदर्भ में इसे ना लें ] छोड़िए और किसी भी पान-कम-चाय की दुकान पर सुन आइये। मन न भरे तो भारतीय रेल के द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर आइये एक बार।
तब से लेकर आज तक तालाब में पानी डालने वाले किसी को मिले नहीं ! सभी पूछते और ढूंढते रह गए – पानी डाला किसने? जमाना खराब किया किसने। राज्य का नाम चौपट कैसे हुआ? गज़ब है !पूरा तालाब ही पानी का और पानी डालने वाला मिलता ही नहीं। एक मिनट-एक मिनट... सोचने दीजिये। एक सेट (समुच्चय) है। कायदे से सभी उसके सदस्य हैं... लेकिन हर सदस्य उस सेट का सदस्य होने की शर्तें पूरी ही नहीं करता। माफ कीजिएगा ये बहुत साधारण है लेकिन इतना कठिन कि आदतन गणित के बार्बर पैराडॉक्स की याद आ गयी। बर्ट्रांड रसेल ना हल कर पाये तो हम क्या घंटा कर पाएंगे ! (बाई दी वे ‘घंटा’ शालीन शब्द है न? मंदिर में होता है जी ! नहीं तो एडिट करवा दीजिएगा। कर देंगे। हम बाकी ब्लॉगरों जैसे नहीं हैं।)
अब ये जो सेट है अक्सर दिखता है। माने रोज ही ! दिन में दो-चार बार भी। और गारंटी है कि आपको भी दिखता ही होगा। नहीं? फिर से देखिये । अपने देश में देखिये। पूरा देश भ्रष्ट है। और हम सभी ढूंढते जा रहे हैं कि भ्रष्टता हैं कहाँ? खतम कैसे हो ! पानी डालने वाला मिले तो गोली मार दें ! साला जो सिस्टम है... वही भ्रष्ट है पर इंडिवीजुअली कोई नहीं – अब ये कैसे संभव है जी?। हमें तो नहीं समझ आ रहा – कुछ कोंट्राडिकशन सा हो रहा है। बाबा रसेल हल इससे साधारण समस्या हल नहीं कर पाये तो... [बाबा रसेल को हल्के में मत लीजिएगा। गणितज्ञ समझकर हिला हुआ इंसान समझ रहे हैं तो... नहीं भी समझ रहें हैं तो एक बार प्लीज़ लिंक पर पढ़ आइये बाबा खतरनाक किस्म के प्राणी थे साहित्य में भी नोबल ले गए। बाकी क्या-क्या किया वो... पढ़ ही आइये जरा। ]
जैसे अमेरिका में अपने भारतीय लोग खुद ही कह देते हैं ‘देसीस आर...’ आगे जो भी कहें क्या फर्क पड़ता है? कहने वाले को अब हम क्या कहें इसके अलावा कि आप भी तो उसी समुच्चय के सदस्य हैं? अगर कोई एक बात ‘देसी’ कम्यूनिटी के लिए सच है तो आप भी तो वही हैं? और अगर सभी यही कहते हैं तो... ये बात आई कहाँ से ? आप भी वैसे नहीं, हम भी वैसे नहीं। फिर ये हो कैसे गया? बेवफा तुम नहीं, बेवफा हम नहीं फिर ये क्या सिलसिले हो गए... ऐसा कोई गाना है न? खैर... !
अब देखिये न मैं जितनी लड़कियों को जानता हूँ [नियम नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि बहुत कम लड़कियों को जानता हूँ। ...पर फिर भी :) ] – लगभग सब कहती हैं। मैं बाकी लड़कियों जैसी नहीं। मेकअप... बस एक दो कैटेगरी...बाकी लड़कियों जैसे नहीं । शॉपिंग... उतना भी नहीं। लड़कियों जैसी बातें – मैं नहीं करती! अब जब कोई लड़की वैसी होती ही नहीं... तो लड़कियों का वैसा होना ये अवधारणा बनी कैसे? किस लड़की ने तालाब में पानी डाला ? लड़को के लिए भी ऐसी ही बातें हैं... धर्म, देश, राज्य, महिला, पुरुष… वॉटएवर... सभी कह देते हैं - ‘मैं वैसा/वैसी नहीं जैसे हम’। जहां तक मुझे लगता है ‘हम’ की परिभाषा हर एक ‘मैं’ को आपस में रखकर ही बनती है या मैं कुछ गलत हूँ?
अब क्या कहें? इससे आगे समझ नहीं आ रहा -
हे प्रभो ! आनंद दाता ! ज्ञान हमको दीजिये...
बाईदीवे माई लवली रीडर फ्रेंड -आप भी 'वैसे' नहीं न? अरे आप तो नहीं ही हैं इतना तो पता है मुझे :) । ये 'वैसे' टाइप के लोग हैं कौन? ....ढूँढने का कोई फायदा नहीं.
बाबा कबीर ने कहा ही है - बुरा जो देखन मैं चला तुझसे बुरा न कोय...ऐसा ही कुछ कहा था। मुझसे, तुझसे में थोड़ा कन्फ़्यूजन है।
हे प्रभु !
--
~Abhishek Ojha~
- मेरा मुझ में किछ नहीं, जो किछ है सो तेरा ...
ReplyDelete- तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा
- पत्रम पुष्पम फलम तोयम ...
आपने अभी सही कहा, हमने तब सही कहा था जब कहा था कि "हम में अकेला अपवाद मैं ही होता है।" वैसे आपके इस ब्लॉग में भी जिस तरह चुपके से सैट थेयरी आदि आकर सैट हो जाते हैं, उससे लगता है कि अपुन कोशिश करके भी गणित से बहुत दिन तक बच नहीं पायेंगे। थोड़े दिन जुगराफ़िया छोड़कर हिन्दसे पढने बैठते हैं। बाय द वे तालाब में पानी वाली कथा भारत प्रायद्वीप के भीतर की है या बाहर की?
:)
Deleteतालाब वाली कथा का लोकेशन नहीं पता। बस 'एक राजा था' कहकर ही माताजी ने सुनाया :)
ओ झा जी, वो क्या है न कि अपनी बुद्धि और दूसरे का पैसा सबको जियादा लागे है और एही वजह से, भले ही 'हम' हर 'मैं' को अपने मे समाहित किए हुए है, हर मैं अपने आप में एक 'अपवाद' हो जाता है...और उस जमाने में लोग कम से कम लोटा भर पानी डाल दिए और तालाब लबालब भर गया, भले ही पानिये से. आज के डेट में मुनादी कराईए तो सही? लोग पनियो नही डालेगा,बल्कि आधा माटी से भर देगा... हाँ, यह सही तस्वीर है आज के 'हम' की जिसमे कि हर एक 'मैं' एक अपवाद है.
Deleteपुनश्च:, बैरिकूल से मुलाकात हुए बहुत दिन हो गया... मुलाक़ातों का सिलसिला जारी रखिए...
सादर
ललित
सत्य वचन. !
Deleteबैरिकूल से मिलते हैं किसी दिन जल्दी ही. :)
...सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि दूधवाला बंद कौन है ?
ReplyDeleteसही मारे हो गुरु,लेकिन ढूँढने वालों को कौन बताये ?
'मारना' सही नहीं होना चाहिए. लेकिन अब है तो बढ़िया है. :)
Deleteहम औरों जैसे नहीं हैं जी। पूरी पढ़ के टिपिया रहे हैं। :)
ReplyDeleteयह भी कह रहे हैं कि अच्छा लिखा। :) :)
'अच्छा' लिखा पर थोडा डाउट है. पर अब आप 'वैसे' ब्लॉगर नहीं है तो मान लेते हैं की 'वैसे' ही नहीं कह रहे हैं :)
Deleteजब सब अपने को अनोखे समझते हैं तो दूसरों की बुद्धि से चलना क्यों गवारा हो उन्हें। व्यक्तिगत से सामाजिक होने का सलीका न आया हमें अब तक।
ReplyDeleteअन्ना और टीम अन्ना को पूरे देश के जनता-जनार्दन का समर्थन क्यों न हो.
ReplyDeleteएक चौथाई लोग भी दूध डालते तो पूरा तालाब 'दूध का तालाब' दिखता। लेकिन हाय1 हम एक चौथाई भी नहीं हुए।:(
ReplyDeleteएक चौथाई ? सरजी, हम तो जो खाली लोटा ले जाकर वापस भर लाने वाले हुए :)
Delete[वाणीजी की टिपण्णी से साभार :)]
जी,यह वाला आइडिया तो हमे भी नहीं सूझा।:)
Deleteहम भी नाम से राजा हैं, सोच रहे हैं दूध का तालाब बनवाने की, दूध भरा लोटा ही लाना ...
ReplyDeleteअरे आप बनवाइए तो सही. हम बाल्टी लेकर आयेंगे. बस सीसीटीवी मत लगवाइएगा :)
Deleteदूध-पानी वाली यह घटना तो हमारे पैतृक शहर के नामकरण इतिहास में दर्ज है।
ReplyDeleteसच है आज एक लोटा पानी का भार कोई भी उठाकर पानी-पानी नहीं होना चाहता।
अरे वाह ! शहर का नाम तो बता दीजिये ?
Deleteप्राचीन नाम तो 'सत्यपुर' था, कुण्ड में बस्ती द्वारा दूध की जगह लोटा भर पानी डालने पर 'सांचोर' दिया गया जो आज भी प्रचलित है। प्रमाणिक कथा तो नहीं है पर इसका उल्लेख 16 वी शताब्दी में हुए मुहता नैणसी ने किया है। ………देखें कि मेरा शहर बदनाम न हो :) हम तो स्वीकार करते है वो लोटा भर पानी वाले हम लोग ही थे :)
Deleteजय हो ! :)
Deleteजय हो!
Deleteबहुत बढ़िया!
ReplyDeleteमुझे तो स्वीकार है कि मैं 'हम' का ही हिस्सा हूँ।
झकास पोस्ट ! बीच में स्माइली लगाने का जुगाड़ ओर पूछना है ..
ReplyDeleteसरजी, विंडोज लाइव राइटर से लिखी गई पोस्ट है. शाम को आपको ईमेल करता हूँ.
Deleteआज कोई एक लोटा पानी भी नहीं डालेगा , कुंए में ले और आएगा कि किसको पता चलेगा !
ReplyDelete:) सत्य वचन!
Deleteयथा राजा तथा प्रजा!
Deleteये आइडिया हमें क्यूँ नहीं आया ! :)
Deleteबिलकुल सच !
बातों बातों में इत्ती सारी ज्ञान की बातें भी कह डालीं...आप तो वैसे नहीं थे ..:)
ReplyDelete:)
Deleteज्ञान की बातें तो आप जैसे पढने वालों को मिल जाती हैं. हमने तो बकवास ही टैग किया है :)
कुछ वे लोग भी तो पढ़ेगें ही न इसे -सार्थकता तभी होगी इस बहुत सार्थक सटीक और सामयिक पोस्ट की .....
ReplyDeletepaani ab bikata hai ... ab talaab sookhe hi pade rahenge ....
ReplyDeleteसंकेतों में कही वाजिब बातें सन्दर्भों में समझी जानेवाली गहरी बातें
ReplyDeleteमुझे तो ये लगने लगा है कि 'मैं' ही हूँ जो 'हम' हो चुका हूँ, बोले तो मेरी प्रोमोशन और हमारी डिमोशन| स्माईली खुद लगा लीजियेगा, कौन सा लगेगा ये समझ नहीं आ रहा|
ReplyDeleteऊपर कविवर अविनाश ने भी स्वीकार किया है.
Deleteहम भी कुछ ऐसे ही हैं. अब क्या स्माइली बनाया जाय इस पर !
न जी, मेरा 'मैं' बड़ा है:)
Deleteसामयिक मुददों को लेकर सार्थक चिंतन। और हां, बाबा कबीर का सही उपयोग। :)
ReplyDeleteहम तो दूध की जगह पानी के तालाब में डूबते उतरा रहे थे कि आपने इतनी दार्शनिकता उड़ेली की पूरी तरह ही डूब गए। भाई अपने पाठकों की जान लेंगे क्या :)
ReplyDeleteमालिक !!! गुरुवार !!!!
ReplyDeleteअब क्या कहें आपक, ऐसा सटा के खींच के मारे हैं| बहुत ही शानदार |
बदलना हमें होगा नहीं, अब ही होना है| कोई एक कदम कोई एक राह बस तुरंत पकड़नी है | कौन सी राह ये भी खुद ही डिसाइड करना है |
सत्य वचन प्रभो!!!
सही कहा पानी तो हमने ही डाला था पर सबने जब दूध डाला तो ग्वाले जैसा दूध तो बनना बनता है ना ।
ReplyDeleteसत्य वचन !!
ReplyDelete