Nov 30, 2016

न चोरहार्यं न च राजहार्यंन...


मैं लगभग कैशलेस इंसान हूँ. मुद्राहीन - चैन से रहने वाला !*
(*शर्ते लागू)

पिछले कई सालों से कभी मेरे जेब में नोट या सिक्के रहे हो... और वो भी एक दिन से ज्यादा के लिए - मुझे याद नहीं. यात्राएं अपवाद रही. इस अपवाद के दिनों में नोट को लेकर कई अनुभव हुए (जिंदगी में लोग हो या घटनाएं अपवादों का बहुत महत्त्व है - इस पर फिर कभी). कुछ अनुभव सामान्य लेकिन याद रह गए. वैसे तो मुझे बहुत कुछ याद नहीं रहता लेकिन कुछ बातों में कुछ बात होती है जो याद रह जाती है. 'नोट' सामयिक बात है तो ऐसी ही कुछ याद रह गयी बातों से कुछ नोट्स

दृश्य १: (पटना)

उन दिनों मैं एटीम से पांच हजार रुपये निकालता, जब-जब जेब में पांच सौ से कम हो जाते.* जिस दिन की बात है उस दिन मेरे पास छुट्टे नहीं थे और मुझे अपने कपडे वापस लेने थे. दुकानदार ने कहा - "अरे ले जाइए. आपका कौन सा एक दिन का है. फिर त ऐबे करियेगा. तब दे दीजियेगा. कहाँ रहते हैं? नया आये हैं इधर?" मैंने कभी खाता नहीं लिखवाया. पर ये बात कभी भूल नहीं पाया. पहली बार मैंने कपडे दिए थे उस दूकान पर. कुल ढाई महीने के लिए था मैं उस शहर में, रोज का जाना नहीं था मेरा. और कोई मुझे बिना मांगे उधार देने को राजी हो गया था.

जो कह रहे हैं कि... नोट की कमी से किसानों की बुवाई नहीं होगी मुझे नहीं समझ उन्होंने किस तरह के भारत को देखा है ! एक तो किसान की बुवाई में लाखों रुपये नहीं लगते. फिर बीज बेचने वाला, ट्रैकर वाला... ट्रैक्टर का तेल बेचने वाला. सबको एक दुसरे के साथ ही उठना बैठना होता है. सब एक दुसरे के यहाँ खाते हैं और सबके यहां सबके खाते चलते हैं. अगर आपको लगता है कि विमुद्रीकरण से किसी का खेत बंजर रह गया होगा तो पता नहीं आप किस हिन्दुस्तान में पले बढे हैं ! शायद आपको लगता है कि खेती और फैक्ट्री का प्रोडक्शन एक ही बात है. और जिन्हें लग रहा है कि कुछ दिन ५०० और १००० के नोट नहीं रहने से बार्टर सिस्टम हो गया है. उन्हें एक बात बता दें... दुनिया में कभी भी शुद्ध वस्तु-विनिमय (बार्टर सिस्टम) रहा ही नहीं. भरोसा रहा. उधार रहा. और वो हमेशा मुद्रा से ज्यादा चलन में रहा. आज  भी है. सालभर कोई आपको आपकी जरुरत का सामान दे और साल में एक बार या दो बार जो आपके पास है वो आप उसे दे दें- इसे वस्तु विनिमय नहीं कहते. भरोसा कहते हैं या उधार (डेट). ये दुनिया में मुद्रा के आने के बहुत पहले से है. पर बाते ये है कि जिन्होंने कभी गाँव देखा ही नहीं वो गाँव वालो की समस्या से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.

*दो लाइने लग रहा है कंप्यूटर प्रोग्राम है. :)
इफ (मनी_इन_जेब < ₹५००){
विदड्रा ₹५०००
}


दृश्य २: (बलिया)

मेरे हाथ में ₹५०० के कुछ नोट थे. किसी ने मुझसे कहा  - "क्यों लहरा रहे हो? ढेर पैसा हो गया है? रुपया दिखाने का चीज नहीं होता है. कोई ठाएँ से मार देगा तो आज ही सब काम हो जाएगा. गंगाजी भी बगले में हैं".
"इतने से रुपये के लिए?"
"इतने से? पैसठ रूपया का कारतूस आता है. सौ रूपया के लिए भी कोई मारेगा तो पैंतीस रूपया का शुद्ध मुनाफा. जोड़-घटाव आता है कि नहीं?"

इस पर कोई टिप्पणी नहीं.

दृश्य ३: (स्विट्ज़रलैंड)

आपको लगेगा कि जरूर कोई राजनितिक बात करने जा रहा है. सारी बातें बना कर बोल रहा है, ज़माना ही वही है. तो २००५ में घटी एक घटना, जो २००८ में पोस्ट की गयी थी - ब्लॉग्गिंग वाले दिनों की पोस्ट है - यहाँ जाकर बांचा जाय - वो लोग ही कुछ और होते हैं ... (भाग II)

दृश्य ४: (रोम)

कॉफ़ी का बिल और साथ में रखा नोट उठाकर  पुनः वापस रखते हुए वेट्रेस बोली  - "इत इज ब्यूयूयूऊऊतीफुल ! बट नोत यूरो माय फ्रेंड" मुझे कुछ समझ नहीं आया कि बोला क्या उसने. और मैं वैसे हँसा जैसे... कुछ ढंग से नहीं सुनाई देने पर या समझ में न आने पर हम फर्जी ही ही करते हुए मुस्कुराते हैं. और वैसे ही मुस्कुराते हुए मैंने धीरे से हिंदी में पूछा - 'क्या बोल रही है? ले क्यों नहीं गयी? बीस का नोट ही तो रखा है'
"ये बोल रही है कि यूरो नहीं है. फिर से देखो तुमने क्या रखा है".

 
हमारे पास एक छोटा सा बैग है. पासपोर्ट रखने भर का. उसमें बची खुची विदेशी मुद्रा पड़ी रहती है. वो तभी निकलता है जब कहीं पासपोर्ट लेकर जाना होता है - माने अंतरराष्ट्रीय. वापस आकर फिर वैसे ही रख दिया जाता है. भूले भटके, मज़बूरी में जिन नोट और सिक्को को देखना हो... क्या समझ में आएगा किस देश की चवन्नी-किसकी अठन्नी, क्या यूरो-क्या फ्रैंक !. हमने यूरो की जगह स्विस फ्रैंक रख दिया था. गांधीजी पहचान में आते हैं और वाशिंगटन, हैमिल्टन, लिंकन धीरे धीरे आ गए है. बाकी सब बिन पढ़े थोड़े पता चलेगा. एक रुपये के नोट का बॉम्बे हाई या पांच रूपये के नोट वाली ट्रैक्टर थोड़े न है कि जीवन भर के लिए छप जाएगा दिमाग पर. (वैसे नोटों की खूबसूरती/डिजाइन और जारी करने वाले देश के विकसित होने में क्या संबंध है ये भी एक रिसर्च की बात हो सकती है. लेकिन खूबसूरती आते ही परिभाषित करने की समस्या आ खड़ी होती है. खूबसूरती न सिर्फ देखने वाले इंसान की आँखों में होती है वक़्त के साथ उन आखों का नंबर भी बदलता रहता है!).

दृश्य ५: (सेंटोरिनी)

एक और पुरानी पोस्ट पढ़ा जाए. वैसे कैश इतना बुरा भी नहीं है. देखिये कैसी कैसी बातें हो जाती हैं छुट्टा न होने से. - ग्रीक म्यूजिक.

दृश्य ६: (न्यू यॉर्क)

बात उन दिनों की है जब हम नए नए अमेरिका में आये थे. बिल था $८.२५. मैंने दस डॉलर का नोट दिया और साथ में २५ सेंट का सिक्का. मतलब अब आदत थी तो थी. और ये तो फर्ज बनता है कि छुट्टा आपके पास है तो सामने वाले का काम आसान बनाइये. ₹४१० देना है तो सामने वाले को ₹५०० की जगह ₹५१० दीजिये. इतना गणित तो सबको आता है. पर यहाँ न टॉफ़ी पकडाते हैं न उन्हें छुट्टे का खेल समझ आता है -
काउंटर पर खड़ी लड़की ने ऐसे देखा जैसे... किसी महामूर्ख अजूबे को देख रही हो. "व्हाई वुड यू गिव मी दिस?" अमरीकी चवन्नी दिखाते हुए उसने मुझसे पूछा.
"आई थोट.... हम्म.. सॉरी" मुझे लगा अब इसको समझाने का क्या फायदा कि व्हाट आई थोट और कैसे करना होता है लेन देन. न ही वो ज्ञान इस देश में किसी के काम आता. लम्बी कहानी अलग होती. अजीब भी लगा कि इस देश में इतनी साधारण बात नहीं पता लोगों को ! उसने मुझे वापस एक मुट्ठी सिक्का पकड़ा दिया. एक एकसेंट लौटा देते हैं लोग ! और हर चीज की कीमत डेसीमल में ही रखेंगे. शुरू के दिनों में इतने सिक्के जमा हो जाते और सिक्के किसी को देने में गिनने का झंझट. ये झंझट मेरे कैशलेस होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण था.

..आजकल अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का हवाला देकर जो कुछ भी किसी के मन में आये लिख दे रहे हैं वे सारे सिद्धांत ऐसी ही मूलभूत बातों पर आधारित है. जिनमें से कई भारतीय परिवेश में लागू नहीं होते. उनके तर्क आपको सही लगेंगे पर... जिन बातों को आधार बनाकर वो तर्क देना चालु कर पूरा लेख लिख मारते हैं. जिसे पढ़कर आपको लगता है अरे इतना बड़ा आदमी इतने बड़े बड़े सिद्धांतों की बात कर रहा है.. उसकी बात अगर आप ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा सिर्फ राजनितिक कचरा है ! किसी का भी  लिखा हो उसे दिमाग लगाकर पढ़िए - हाल फिलहाल में जितना पढ़ा ये बात और दृढ होती गयी. इतनी गलत बातें ! अखबार में लिखने और टीवी पर एक्सपर्ट बने सभी विशेषज्ञ निष्पक्ष नहीं होते. विशेषज्ञ तो खैर शायद ही होते हैं. उनके पूर्वाग्राह आपसे बड़े हैं. उनका एजेंडा भी. आँखे खोल कर दुनिया देखना सीखिए. आप किसी को ८.२५ की जगह १०.२५ देकर गलत नहीं कर रहे. ज्यादातर तथाकथित बुद्धिजीवी विशेषज्ञों को पता ही नहीं ये कैसे काम करता है और वो आपको मुर्ख कह दे रहे हैं !

दृश्य ७: (राँची)

"आपको सुखी कहते हैं? आपको ज्यादा पता है कि हमको? अमीर कहते हैं सेठ-मारवाड़ी को ! आप जैसे लोगों को नहीं. आपके कहने से हम आपको अमीर कह देंगे और मान लेंगे कि आपको कोई तकलीफ नहीं है?"

सड़क के किनारे हाथ देखने वाले और साथ में अंगूठी बेचने वाले ज्योतिषी ने एक आदमी को बिल्कुल डांटने वाले अंदाज में कहा था. उस आदमी का गुनाह ये था कि... अंगूठी बेचने वाले की बतायी गयी बात -

 "आप तकलीफ में तो हैं..., आपकी आमदनी से ज्यादा खर्चा हो रहा है. आप दिल के तो बहुत अच्छे हैं लेकिन लोग आपको समझ नहीं पाते हैं. गरीबी आपको परेशान कर रही है"

के जवाब में उसने कह दिया - "नहीं, ऐसा तो नहीं है. हम तो बहुत सुखी हैं. भगवान का दिया सब कुछ है".

मैं तब ग्यारहवीं में पढता था. और ये बात मैंने इतने लोगों को सुनाई है कि मैं क्या मुझे जानने वाले कई लोग भी ये बात नहीं भूलेंगे. वे दिन थे कि पैदल चलते-चलते कहीं रुक कर ऐसी बाते सुन लेते. कभी भटकिये ऐसे... बहुत मजेदार बातें सीखने को मिलेंगी :)

तो.. ये विशेषज्ञ ऐसे ही हैं. अगर आप कहेंगे कि आपको तकलीफ नहीं है तो वो आपके मुंह में ठूस कर उगलवा लेंगे कि आपको तकलीफ है. वो विशेषज्ञ हैं कि आप? आप कौन होते हैं फैसला करने वाले कि आपको तकलीफ है या नहीं? आप कैसे बता सकते हैं कि आपके लिए क्या अच्छा है? बस यही हो रहा है और कुछ नहीं. आप खुद सोचिये और फैसला लीजिये. क्यों अंगूठी बेचने वाले के चक्कर में पड़े हैं. अखबार वाला भी अंगूठी ही बेच रहा है. टीवी वाला भी. चलिए वो तो कुछ बेंच रहे हैं... पर वो जो उनके कहे को ब्रह्मसत्य मान तर्क पर तर्क दिए जा रहे हैं. व्हाट्सऐप पर फॉरवर्ड किये जा रहे हैं उनका क्या?

गाइड सिनेमा में जब राजू के पास एक व्यक्ति रोजी के हस्ताक्षर लेने आता है... वो सीन याद है आपको?
राजू: 'तो मार्को रोजी के जेवरात हडपना चाहता है?'
'जी नहीं, बल्कि वो तो चाहते हैं कि... सारे गहने रोजी को ही दे दिये जाएँ.'
राजू: 'तो मार्को ये दिखाना चाहता है कि वो बहुत अमीर है" (संवाद अक्षरशः नहीं है, बात याद रह गयी संवाद भूल गया)

दोनों ही निष्कर्षों में गलत तो कुछ नहीं है! पर उदहारण का मतलब ये है कि विशेषज्ञ ऐसे ही दुनिया देखने लगे हैं. वो फैसला  पहले ही कर के बैठे हैं मुद्दा जो भी हो. सामाजिक विज्ञान के बारे में हमारे एक सांख्यिकी के प्रोफ़ेसर कहा करते कि - "सोसिओलोजी के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट आकर बोलते हैं. सर, एक बहुत अच्छा पेपर लिखा है. कोई अच्छा सा मॉडल बताइये जो उस पर फिट हो जाए. डाटा है बस एक अच्छा मॉडल चाहिए.क्वांटिटेटिव हो जाएगा तो आराम से छप जाएगा और थोडा वजन भी आ जाएगा." खैर इस बात को कहने से जो बात आपके दिमाग में आई वो तो आप समझ ही गए होंगे? आप बोलिये किस बात पर किस पक्ष में लिखना है. हम लिख देते हैं - आंकड़ा, सिद्धांत सब फिट करके।**

बात चली थी कैशलेस होने के फायदे से और कहीं और निकल गयी. खैर शीर्षक से याद आया - कोई भी और धन विद्याधन तो कभी नहीं हो सकता. लेकिन... कैशलेस होने से.. वो क्या है कि..  विद्या के कुछ गुण तो उसमें आ ही जाते हैं जैसे विदेश में इन्सान की बंधु - न एक्सचेंज रेट की समस्या न कमीशन की, न ही अनजान मुद्रा पहचानने-गिनने की (वैसे आपके पास अच्छे वाले कार्ड न हो तो बैंक कमीशन  लेते हैं), धन जिसे कोई चुरा नहीं सकता, राजा नहीं ले सकता, उसका भार नहीं होता और उसका कभी नाश नहीं होता... विद्याधन पर ये सारे श्लोक तो आपने पढ़े ही होंगे?. डिजिटलधन के लिए भी सही है.*

दिमाग अच्छे कामों में लगाइए...अन्यत्र हमने कहा कि दिमागी व्यायाम होना जरूरी है सोच अच्छी रहती है.
बाकी तो भावना अच्छी हो तो दुनिया खुबसूरत ही खुबसूरत है. जाकी रही भावना जैसी -

--
~Abhishek Ojha~

पुनश्चः एक और बात - आजकल लोग लिखना शुरू करते हैं - मेरी काम वाली बाई, मेरा  ड्राइवर, मेरा दोस्त, मजदूर, मेरा पलम्बर, किसान फिर बताते हैं कि उसे विमुद्रीकरण से कितनी तकलीफ है. पढ़े लिखे लोग आजकल ऐसे ही बात करते हैं. संभवतः ऐसे लोगों को खुद कभी कोई परेशानी नहीं होती, खासकर जब पैसे की बात हो. काम करने वाले और गरीब लोगों को क्या आप इंसान नहीं समझते? वो क्या बेवकूफ हैं? अशिष्ट हैं. हमें लगता था दासप्रथा अंत हुए कुछ साल हो चुके हैं - आपके ड्राइवर? खैर हमें व्यक्तिगत रूप से न तो ड्राइवर रखने का अनुभव है न काम वाली बाई का. पर जो शुरू ही ऐसे करते हैं उनकी बात आगे क्या पढ़ी जाए ! आप बताएंगे कि उनको तकलीफ है क्योंकि उन्हें खुद नहीं पता? और आपको कोई तकलीफ नहीं?... उनके पास इफरात में ५०० और १००० के नोट हैं जो ख़त्म ही नहीं हो रहे, ये कह कर आप गरीब का अपमान नहीं कर रहे? और आपके पास तो कुछ था नहीं? और उनको तकलीफ है तो मदद करने की जगह आप उसे ट्वीट करते हैं? अंगूठी बेचने वाले विशेषज्ञ! - जो कह रहा है मुझे कोई तकलीफ नहीं उसे तो जीने दो. मेरी मानो तो गया चले जाओ - बहुत स्कोप है. वहां मुर्दे को भी तकलीफ में दिखा देने वाले लोग होते हैं :)

**पता चला किसी ने खुले में शौच के समर्थन में लेख लिख दिया. उसके बाद लगा अपने इस स्टेटमेंट पर भी स्टार लगा देना चाहिए. मुझमें उतनी योग्यता नहीं. :)

Oct 2, 2016

एथेंस (यूनान ४)


किसी नई जगह जाने पर सबसे पहले वो बातें ध्यान में आती हैं जो बाकी जगहों से थोड़ी अलग होती हैं. उन बातों से फ़टाफ़ट किसी देश के बारे में धारणा बनानी चाहिए या नहीं वो तो पता नहीं  पर...

चर्च, सुट्टा और राष्ट्रीय झंडा  ग्रीस में ये तीनों बाकी देशों (जितनी दुनिया हमने देखी है) की तुलना में ज्यादा दीखते हैं - हर जगह. और एक बात अलग लगी वो है रेस्टोरेंट में आप आराम से बैठे रहिये. किसी को जल्दी नहीं होती ...न आर्डर लेने की ना बिल लाने की. जब तक आप खुद बुला कर ना बोलें. बिल आता है... रोल करके, छोटे से शॉट ग्लास में, टोकरी में या ऐसे ही किसी चीज में. छोटी सी बात है पर अलग होती है तो ध्यान में आ जाती है. देश भी इंसानों की तरह होते हैं - संस्कार कह लीजिये या अदा ! एथेंस में एक और बात अजीब लगी वो ये कि देर रात बच्चे पार्क में खेलते मिल जाते। जब डिनर का टाइम होना चाहिए तब शाम की कॉफ़ी का टाइम होता। जब सब कुछ इतनी रात ख़त्म होता तो स्वाभाविक है सुबह सब कुछ देर से शुरू होता। मुझे किसी की बतायी एक जापानी मान्यता याद आयी..  जिसके अनुसार सूर्य से सृष्टि चलती है. जीवन चलता है. इसलिए सूर्य का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। हर सभ्यता में सूर्य की पूजा की जाती रही है.  और सूर्य की पूजा मंदिर में नहीं होती सूर्य के साथ अपने को एकाकार कर होती है... जिस सभ्यता में लोग सूर्योदय के बाद उठते हैं वो सूर्य का अपमान करते हैं. सूर्य को पैर नहीं दिखाना चहिये। एक जापानी वर्ग ऐसे लोगों के साथ व्यापार नहीं करते थे जो देर से सोकर उठते। मान्यता भले अंधविश्वास हो लेकिन कहने का मतलब ये कि - ग्रीस इस मामले में जापान नहीं है. वैसे कुछ दिन रह कर किसी देश के बारे में कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। पर लोगों की तरह देश भी आलसी और देर से उठने वाले तो हो ही सकते हैं?

ग्रीक इतने सपाट जवाब देते हैं कि कई बार (कम से कम बाकी यूरोप के तहजीब की तुलना में) थोडा रुखा लग सकता है.  जैसे -

"कैन वी हैव ग्रीक कॉफ़ी?"

"ग्रीक कॉफ़ी?  इट्स नॉट गुड. इट्स फॉर ग्रीक पीपल. यू विल नॉट लाइक. ट्राई फ़िल्टर कॉफ़ी ऑर कैपेचीनो" मैंने सोचा भाई ये अजीब है. मुझे अच्छी नहीं लगेगी तो नहीं दोगे?  (फ़िल्टर कॉफ़ी से मद्रास ही दिमाग में आता है उसके अलावा यहीं सुना). वैसे बाद में लगा सही ही कहा था उसने. मुझे पसंद नहीं आई ग्रीक कॉफ़ी. जो है वो मुंह पर ही बोल देते हैं.

झंडे और सुट्टे का तो पता नहीं। पर चर्च का ऐसा है कि ईसाई धर्म का 'इस्टर्न (ग्रीक) ऑर्थोडॉक्सी' सम्प्रदाय ग्रीस का सवैधानिक धर्म है. (अगर आपको लगता है कि पूरा यूरोप संवैधानिकली धर्मनिरपेक्ष है तो ऐसा नहीं है). रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ईस्टर्न ओर्थोडोक्सी इसाई धर्म के तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं. ये विभाजन धार्मिक कम राजनितिक ज्यादा थे - रोमन, बीजान्टिन साम्राज्य और मार्टिन लूथर से बने. आगे बात करने पर ये पोस्ट इसाई धर्म के इतिहास की क्लास लगने लगेगी. वैसे घुमने का ये सबसे बड़ा फायदा होता है - क्रैश कोर्स हो जाता है इतिहास का. कुछ देखकर, कुछ सुनकर बाकी पढ़कर. मजेदार गाइड मिल जाए तो मिर्च मसाले के साथ. खैर हम अभी इतिहास के इस कोने में नहीं जा रहे.

एथेंस ऐतिहासिक जगह है. वैसे इतिहास में जिस स्वर्णिम काल के लिए एथेंस का इतना नाम है वो बहुत कम समय के लिए था. सौ साल से भी कम. ऐसे समझ लीजिये कि एथेंस सौ साल से भी कम पाटलीपुत्र  रहा बाकी समय पटना. वैसे निष्पक्ष विश्व इतिहास पढ़ें तो पता चलेगा कि एथेंस-स्पार्टा का इतिहास और उससे प्रेरित ३०० फिल्म वगैरह वगैरह में वर्णित गौरव बहुत हद तक पश्चिमी इतिहासकारों का पक्षपात है. हर पैमाने पर इससे अच्छी, सभ्य और विकसित सभ्यताएं संसार में अन्यत्र रही. उस काल में भी और उससे पहले भी. पर इतिहास ऐसे लिखा गया कि... जैसे - बारबेरियन का मतलब था वो कोई भी जो रोमन या ग्रीक भाषा न बोलता हो. वास्तव में भले वो हजार गुना सभ्य रहा हो - कहते हैं कि बारबेरियन शब्द बना ही ऐसे कि... जिनकी भाषा सुनकर समझ में न आये. सुनने में  - बार्ब-बार्ब-बार्ब लगे वो हो गया बारबेरियन - असभ्य. उसी तरह ग्रीक-रोमन गौरव काल की अच्छाई वालीं बातें बढ़ा चढ़ा कर लिखी गयीं. उस समय की सैकड़ों कुरीतियों को नजरअंदाज करते हुए. इतिहास लिखने (और पढने) का तरीका आने वाले समय का बहुत कुछ निर्धारित करता है ! ... वैसे हम भी पश्चिमी इतिहासकारों का लिखा इतिहास ही पढ़ते हैं. खैर हम अभी इतिहास के इस कोने में भी नहीं जा रहे.

इतिहास जानने से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. जो जगह आज जैसी है वैसी क्यों है. वहां के लोग, उनकी सोच और उनकी मान्याताएं। जगहों के चरित्र उनके इतिहास से बनते हैं. क्यों जगहों के हजारों सालों के इतिहास में 'वो भी क्या ज़माना था' वाले कुछेक साल ही बस हर जगह देखने को मिलते हैं. बाकी जगहों की कोई चर्चा ही नहीं मिलती। अगर ज्यादा नहीं सोचना है तो किसी शहर में बिकने वाला सूवनिर किस काल से आता है देखकर समझ लीजिये वो उस शहर का गौरवशाली काल था - एथेंस में एक्रोपोलिस, रोम में कोलोसियम, फ्लोरेंस में डेविड, वेनिस में मास्क, न्यू यॉर्क में एम्पायर स्टेट और लिबर्टी।

एथेंस और डेल्फी के खंडहर की बात करने से पहले  बात करते हैं एक कम प्रसिद्द जगह की. एथेंस में सुकरात की जेल के नाम से जानी जाने वाली एक लगभग अज्ञात सी जगह है. एक पहाड़ी पर गुफा जैसी. विश्वप्रसिद्ध एक्रोपोलिस से थोड़ी ही दूर. पेंड़ों के बीच - उपेक्षित. स्वाभाविक उत्सुकता थी उस जगह पर जाने की. थोड़ी मुश्किल से ढूंढते ढूंढते मिली. वहां जाकर पता चला कि - ये स्थानीय लोगों की बस एक मान्यता है कि सुकरात को यहाँ स्थित एक जेल में रखा गया होगा. पर ऐतिहासिक प्रमाण कुछ नहीं है... जितना है वो उल्टा ये है कि ये जगह सुकरात की जेल नहीं रही होगी. भूले भटके कुछ लोग पंहुच जाते हैं. हम ये सोचते लौट आये कि.... यहाँ ऐसी कोई बात नहीं लिखी होती तो हम थोडा ज्यादा सोचते और खुश होते। इस बोर्ड को यहाँ से हटा देना चाहिए. सुकरात ने ही कहा था - “The only true wisdom is in knowing you know nothing.”. खैर इस जगह से एक्रोपोलिस का अच्छा व्यू दीखता है.

एक्रोपोलिस  - देख कर लगता है. क्या अद्भुत मंदिर रहा होगा ! वास्तुकला, इतिहास, इंजीनियरिंग. देखने के पहले हम काल्पनिक मॉडल देख आये थे म्यूजियम में - आलिशान. पर वहां जाते हुए अब कहीं से मंदिर जाने वाली अनुभूति नहीं आती. अब सिर्फ खंडहर है. कितना कुछ बदल देता है वक़्त. हमें कभी महसूस नहीं हो सकता जैसा यहाँ आने वालों को कभी हुआ करता होगा. ना उन दिनों किसी ने सोचा होगा कि कभी एक दिन ऐसी हालत होगी उस आलिशान मंदिर की. अब मंदिर वाली भावना की जगह ये ध्यान आता है कि बनाया कैसे होगा. बिना विकसित गणित-कंप्यूटर के सिविल इंजिनियर काम कैसे करते होंगे? वगैरह वगैरह. और ये कि कैसे एक सभ्यता ने दूसरे का बेरहमी से विनाश किया। वैसे कुछ चीजों को पुनर्जीवित करने के प्रयास अच्छे लगे. जैसे एक थियेटर हैं जिसे फिर से इस हालत में लाया गया है जहाँ अब भी वहां कलाकार परफॉर्म करते हैं.

एथेंस - एथेना देवी के नाम पर बना शहर है. उल्लू प्रतीक-विजय-ज्ञान-बुद्धि की देवी यानि सरस्वती-लक्ष्मी-काली जैसी देवी। अनगिनत समानताएं।

एथेंस का ज्ञात इतिहास सिर्फ २५०० सालों में बिखरा है. अगर एक पैराग्राफ में नाप लेना हो तो कुछ यूँ होगा -

एथेंस २५०० साल पहले एक साधारण महाजनपद (शहर-राज्य) था. जिसे ईपू ५००-४८० में फारसी बादशाह ने ध्वस्त किया. पर उसके बाद फारस के खिलाफ युद्ध में एथेंस कई ग्रीक महाजनपदों का नेता बना.  ईपू ४५०-४०० का काल - स्वर्णिम काल. फारसियों पर विजय के बाद एक्रोपोलिस बना. वहां एथेना देवी की विशाल मूर्ति बनी. हम जो भी पढ़ते हैं वो अधिकतर इसी काल से आता है. कला-थियेटर-वास्तु-सुकरात-प्लेटो-एक्रोपोलिस-पार्थेनन-गणित-दर्शन-वगैरह. उसके बाद ईपू ३३८ में सिकंदर ने जीता. ईपू १४६ में रोमन साम्राज्य ने. पर जीतकर वो यहाँ की संस्कृति से प्रभावित ही हुए, उसे अपनाया और बाकी दुनिया में फैलाया भी. रोमन साम्राट कॉन्सटेंटाइन ने जब ईसाई धर्म को मान्यता दी और खुद भी धर्म परिवर्तन कर लिया। उसके बाद पेगन के नाम पर उस समय तक के सारे मंदिर या तो चर्च बन गए या तोड़ ताड़ दिए गए. पार्थेनन चर्च बन गया. सारे पेगन प्रतीक मिटा दिए गए. उधर रोमन साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हुआ और इधर एथेंस पर 'बारबेरियन' हमले. एथेंस ४७६ ई के बाद एक हजार साल तक बीजान्टिन साम्राज्य के अधीन रहा (इसी काल में इस्टर्न ऑर्थोडॉक्सी यहाँ हमेशा के लिए जम गयी). बीजान्टिन यानी पूर्वी रोमन साम्राज्य जिसकी राजधानी थी कुस्तुन्तुनिया (आज का इस्ताम्बुल). १४५३ में जब कुस्तुन्तुनिया का पतन हुआ तब अगले ४०० सालों के लिए एथेंस तुर्कों (ओटोमन साम्राज्य) के अधीन रहा. कुस्तुन्तुनिया का पतन (बीजान्टिन के लिए) कहिये या कुस्तुन्तुनिया विजय (ओटोमन के लिए). ...स्कूल में कुछ चीजें ऐसी थी जिन्हें पढ़ कर या सुनकर बहुत मजा आया. जैसे पंद्रह का पहाडा ! आपने पढ़ा है तभी जान सकते हैं क्या स्पेशल होता है उसके बारे में - पंद्रह दूनी तीस तियान पैतालिस... वैसे ही था 'कुस्तुन्तुनिया का पतन'. नौवी के इतिहास में था. Fall of Constantinople पढ़ के भी क्या पढ़े होते ! 'कुस्तुन्तुनिया का पतन' सुन कर लगता था कुछ भारी भरकम बढ़िया सी चीज पढ़ रहे हैं ! खैर... तो यही था मोटा-मोटी एथेंस का इतिहास. एक्रोपोलिस पर एक के बाद दूसरी सभ्यता ने अपना कब्ज़ा किया. पार्थेनन पैगन मंदिर से मिटाकर चर्च, चर्च मिटाकर मस्जिद, उसे मिटाकर संग्रहालय और यूनेस्को हेरिटेज बना. वहां की सबसे अच्छी मूर्तियाँ और पत्थर कोहिनूर गति को प्राप्त हुए. यानी अब ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में पड़े हुए हैं. ग्रीक जिसपर अपना हक़ और वापस लाने की बात करते रहते हैं. [ब्रेक्जिट नहीं हुआ होता तो कुछ उम्मीद भी होती :)]. १८२१ में ग्रीक में आजादी आन्दोलन/क्रांति हुआ.. वैसे इस आजादी के बाद लोकतंत्र नहीं आया. लम्बे समय तक राजशाही रही. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नाज़ी कब्ज़ा... फिर मार्शल प्लान.  (मुझे नहीं पता बाकी लोगों को कितना अच्छा या पकाऊ लगा होगा ये पढ़ना. तो एक पैराग्राफ में बात ख़त्म.)


अब एथेंस का केंद्र है सिंतागमा स्क्वायर. जो एक साथ ग्रीस का संसद, धरना के लिए जंतर मंतर और अमर जवान तीनो है. नो डिसृस्पेक्ट पर वहां जैसे ड्रेस में गार्ड खड़े होते हैं - फैंसी ड्रेस लगता है (अगर मैं नौटंकी कहने से अपने को रोकूँ तो). वैसे वो बहुत ही अच्छी मद्धम चाल और भाव भंगिमा में अपनी जगहें बदलते हैं. माने बहुत ही अच्छा. एक और जानकारी - उनके ड्रेस में ४०० चुन्नट होते हैं. तुर्कों के हर एक साल की गुलामी के लिए एक चुन्नट.

डेल्फी... खुबसूरत जगह पर है. पहाड़ों में बसा. अच्छी चढ़ाई होती है. ऐसा लगा जैसे ओरेकल (पुजारन कह लीजिये) ने जान बुझ कर बनाया होगा ऐसी जगह कि कठिन चढ़ाई कर वही आ सकें जिन्हें सच में श्रद्धा/उत्सुकता हो. फिर वहां खड़े खड़े एक बार को जरूर ये ख़याल आता है कि कैसे घोड़े पर या पैदल थके-हाँफते एथेंस, स्पार्टा, ओलंपिया वगैरह से लोग पहाड़-घाटियां पार करते आते होंगे अपना भविष्य जानने. बहुत मुश्किल होता होगा तब आना.

लिखते लिखते लगता है बहुत इतिहास लिखा गया... डेल्फी में अपोलो का मंदिर था. और साथ में उन दिनों पूजे जाने वाले कई देवताओं के मंदिर. एक थियेटर और खेलों का एक प्रसिद्द स्टेडियम. (ओलंपिक की तरह यहाँ पिथियन  गेम्स होते थे). रोमन जमाने में एक रोमन अगोरा। पर इस जगह को सबसे अधिक प्रसिद्धि दिलाई ओरेकल और अपोलो  के मंदिर ने. ओरेकल यहाँ की पुजारन होती थी. मंदिर प्रांगण में एक जगह धुंआ जैसा कुछ निकलता जहाँ बैठकर वो भविष्यवाणी करती. माने साधारण भाषा में कहें तो गांजा जैसे कुछ फूंक के बता देते रहे होंगे। एक समय ऐसा था कि कोई भी राजा बिना ओरेकल से सलाह लिए बिना फैसला नहीं करता था. क्या और कैसे इस पर बहुत कहानियाँ और थियरिस  हैं.

पुराने जमाने में ग्रीक ये भी मानते थे कि डेल्फी दुनिया का केंद्र है. इसीलिए वहां पर अपोलो का मंदिर बना. कहते हैं कि दुनिया का केंद्र पता करने के लिए जीयस ने दुनिया के दो छोरों से दो बाज उडाये. एक ही समय पर, विपरीत दिशा में, एक ही गति से. [अपने युग का विज्ञान !] दोनों बाज जहाँ मिले वहां से जीयस ने एक पत्थर फेंका. वो पत्थर जहाँ गिरा वही हुआ संसार का केंद्र और वहां बना अपोलो का मंदिर !

खैर... पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हुई. लिखने के पहले लगता है क्या लिखें... लिखना शुरू करो तो जो बात लिखनी थी उसके पहले ही पोस्ट पूरी हो जाती है. ना ना करते इतना इतिहास ही लिख गए. अपोलो के मंदिर के स्थान पर जो वर्णन लिखा हुआ है उसमें लंबी सी कहानी के अंत में ये भी लिखा हुआ है कि पत्थरो पर सात ऋषियों के ज्ञान का सार लिखा हुआ था - γνῶθι σεαυτὸν - "know thyself". और μηδὲν ἄγαν- 'Nothing in excess'. बात तो सुनी हुई लगी. सप्तर्षि  एक ही रहे होंगे?


एक बात कुलबुला रही थी दिमाग में. ग्रीस में हमें लोग समझाते कि वॉलेट सामने की जेब में रखना. मैं अभी कहीं और गया था वहां भी लोगों ने यही कहा. मैं सोच रहा था पश्चिम के पॉकेटमार बिलकुल ही पगलेट होते हैं क्या? सलाह देने वाले सबको पता है सिर्फ उन्हें नहीं पता कि आजकल लोग वॉलेट कहाँ रखते है? गया-मुगलसराय जाके ट्रेनिंग लेनी चाहिए उन्हें !

लोगों से की गयी बातों वाली पोस्ट ज्यादा रोचक होती है. इतिहास सुनाने की चीज है तभी अगर कोई सुनने वाला हो. लिखते हुए बार बार लगता है कौन पढ़ेगा? ! पोस्ट लिखने में न्याय नहीं हो पाता। सुनाने में पता होता है सुनने वाला कितने चाव से सुन रहा है... सुनाने में फिर वही चाव आ जाता है.

और... आप जो करते हैं वो नहीं कर रहे होते तो क्या करते के जवाब में बहुत कुछ आता है दिमाग में. उन्हीं में से एक 'टूर गाइड' बनना भी बहुत दिलचस्प लगता है. पर फतेहपुर-सिकरी, आगरा में शेर सुनाने वाले टूर गाइड याद आते हैं तो लगता है हममें ना तो वो हुनर है न वो करना चाहते ! आपने झेला है तो आप जानते हैं :)

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~Abhishek Ojha~


Sep 3, 2016

...उसको जल जाना होता है !


पिछली पोस्ट ख़त्म हुई थी ... इस बात पर कि हमें क्यों फर्क पड़ता है ऐसे लोगों के सामने भी जो न तो हमें जानते हैं, न ही हमें उनसे कभी दुबारा मिलना होता है. एवोल्यूशनरी साइकोलोजी पढने से ऐसे सवालों का उत्तर मिलता है. वैसे एक मजेदार बात ये है कि... ये एक ऐसा विषय हैं जहाँ हर सवाल का एक ही उत्तर होता है. कई बार ऐसा लगता है जैसे.. उत्तर पता है और बस फिट करना है उसे... आप सवाल तो ले आओ !

एवोयुश्नरी साइकोलोजी के अलावा बिहेवियरल इकोनॉमिक्स भी ऐसा ही विषय है. जो पढने-सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं. इसलिए भी कि... जिन बातों का हमारे पास आसान सा उत्तर नहीं होता.. उनका बिन दिमाग खपाए एक सरल उत्तर मिल जाता है. भले समझ के यही समझ में आये कि इस समझ से कुछ फायदा होना नहीं है. समझ से सिर्फ दूसरों को ज्ञान दिया जा सकता है. ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं. समझ कर खुश हुआ जा सकता है कि हमें समझ में आ गया कि दुनिया ऐसी क्यों है. भले ही समझ के हम फिर वही काम करें - 'शिकारी आयेगा जाल बिछाएगा'... क्योंकि ये पढ़ कर समझ यहीं पंहुचती है कि - हमें खुद नहीं पता हम क्या कर रहे हैं. खूब सोचा तो यही सोचा के सोच के कुछ नहीं होना !

खैर - एवोल्युश्नरी साइकोलोजी के हिसाब से हर बात का उत्तर होता है - '... क्योंकि हमारे पूर्वज कभी शिकारी-संग्रहकर्ता (हंटर-गैदरर) थे जो कबीलों में रहते थे.'  - हर समस्या-उत्सुकता का एक ही उत्तर - सरल सपाट. ऐसे सोचिये कि अगर हम आज भी शिकारी-गुफा-कबीला युग में रह रहे होते तो क्या करते? गुस्सा.नफरत.प्यार. आलस.आतंक.दोस्त.दुश्मन.गर्व. कब, क्यों और कैसे ! - माने सब कुछ. हम कब कैसा बर्ताव और महसूस करते हैं और क्यों !  उस समय सबसे जरूरी क्या था? सबसे अधिक क्या चाहिए था? सबसे अधिक डर किस बात का था? तब जीवन के लक्ष्य क्या थे?

उस युग की वो बातें फिट हैं हमारे अन्दर. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं. कोई नहीं भी हो सिखाने वाला तो भी बहुत कुछ जीवों में इनबिल्ट ही आता है.  हँसना-रोना से लेकर ऐसा पाया गया कि जिन्होंने कभी बचपन से सांप नहीं देखा-सुना.. वो भी पहली बार जब सांप देख ले तो डर जाते हैं. लडकियां मकड़ी, छिपकली, तिलचट्टा वगैरह से ज्यादा डरती हैं. वगैरह. वगैरह. बहुत काम किया है लोगों ने इस क्षेत्र में. लेक्चर नोट्स थोड़े न है जो सब रेफेरेन्स के साथ  लिखा जाय. एक लाख २५ हजार सालों से भी अधिक समय से हमारा विकास चल रहा है. संभवतः एक लाख साल तक हम शिकारी-गुफा वाला जीवन ही जीते रहे. सब ठीक चल रहा था. विकासवाद के हिसाब से अभी दस हजार साल भी नहीं हुए खेती का आविष्कार हुए. फिर इन दस हजार सालों में सभ्यता के विकास का पहिया ऐसा घुमा कि... धड़ाधड़ एक के बाद एक विकास होते गए... विज्ञान... गाड़ी, बिल्डिंग, फैक्टरी...सैटेलाईट. एटम बम, फ़ोन, इंटरनेट. सभ्यता कहाँ से कहाँ पंहुच गयी. लाखों सालों में धीरे धीरे बढ़ने वाले हम दस हजार साल में कहाँ से कहाँ आ गए. माने भगवान का बनाया उनके हाथ से निकल गया. प्रकृति ने सोचा था कि उसी रफ़्तार से चलेगी सभ्यता. उस हिसाब से हमें तैयार किया... नेचुरल सेलेक्शन। फिर तुम्हारी है तुम्ही संभालो ये दुनिया कह के बनाने वाला निकल लिया.

कहने का मतलब ये कि...

हमारी जो बायोलोजी है वो बहुत धीमी गति से सीखती और बदलती है... पर दुनिया बदल गयी - सभ्यताएं बदल गयी. हमारे अन्दर की वायरिंग वैसी ही रह गयी. कायदे से दोनों को एक साथ चलना था पर एक घोघा की चाल से चला और दूसरा चीते की चाल. हमारे शरीर और दिमाग का बहुत कुछ अब भी तकरीबन तीस चालीस हजार साल पहले के हिसाब से काम करते है. उसी हिसाब से सोचते है. उसमें वही फिट है जो हमारे लिए उस युग में सही होता. माने अब जा रहे हैं और सामने शेर दिख गया तो दिमाग ने फिट कर दिया ... सोचो मत. पहले भाग लो, उसके बाद सोचना. पका फल देखा तो वायर हुआ ये रंग हमारे लिए अच्छा है. जिससे दुर्घटना हुई उससे डरना सीखाया. औरत को माँ बनना होता है तो उसे किस चीज से डरना चाहिए. उसे कब कैसा सोचना चाहिए. पुरुष का प्यार कब चरम पर होगा औरत का कब. वगैरह वगैरह.  उस जमाने की वायरिंग का दो बड़ा काम था..  'मरो मत और कुटुंब बढाओ' - सर्वाइवल एंड रिप्रोडक्शन! जो सीखता गया बचता गया और बढ़ता गया. इसके लिए समय के हिसाब से जो हो सकता था धीरे धीरे प्रकृति ने इंसान में बनाया. क्या देख खुश होना है. क्या देख डरना है, कब गुस्सा करना है. कब भागना है. कब अपने कबीले को बचाना है. कैसे पार्टनर की ओर आकर्षित होना है. उसमें क्या देख के आकर्षित होना है. कब तक होना है. कौन से अंग-रंग-रूप-अदा-ज्ञान. कौन अपना है. कौन पराया. सब की वायरिंग की. माने हमें लगता है हम दिमाग लगा रहे हैं उधर न्युरोंस प्रोग्राम कर दिए गए हैं धड़ाधड़ देख के फैसला कर लेने को.

इस बीच सभ्यता इतनी आगे बढ़ गयी कि... अब उनमें से कई चीजों की जरुरत नहीं रही - जैसे सर्वाइवल का मतलब अब कुछ और है. अब हम गुफों और जंगलों में नहीं रहते. अब जंगली जानवर नहीं होते. कीड़े-मकोड़े-इत्यादि. पर हम व्यवहार अब भी वैसे ही करते हैं. हमारी वायरिंग को नहीं पता कि अब उसकी जरुरत नहीं. उसे नहीं पता कि अब किसी और कबीले का आदमी है तो उससे कभी नहीं मिलना. तो अगली बार कोई ओवरटेक करके जाए तो आपको गुस्सा आना लाजिमी है. वायरिंग सोचेगी कि दुसरे कबीले का आकर ऐसे करके चला जाएगा तो अगली बार फिर आएगा, उसे सबक देना चाहिए ! हमारे दिमाग को नहीं पता कि दुनिया यहाँ आ गयी है कि कबीले की जगह फेसबुक से जुड़ गए हैं लोग. वैसे ही वो डिप्रेस हो जाता है क्योंकि उसे लोग चाहिए... घर, सामान, गाडी, घोड़े का भूखा नहीं है वो.. उसके लिए वायर होने में अभी कुछ हजार साल और लगेंगे. इसे इरेशनल बेहवियर कह लें या चेतना जैसा कुछ... हम एक हद तक गुलाम है उस प्रागैतिहासिक वायरिंग के. जो हमें खुद भी नहीं पता. फेमिनिस्ट माफ़ करेंगे लेकिन दिमागी वायरिंग कोफेमिनिस्ट आन्दोलन का नहीं पता ! पुरुष पुरुष की तरह क्यों होते हैं और महिलाएं महिलाओं की तरह क्यों होती है - उसके भी कारण हैं.फेमिनिस्ट और एवोल्यूशन वालों की कभी ठनती कैसे नहीं है? ठनती भी होगी शायद मुझे पता नहीं.

छोडिये... ये तो सुना ही होगा आपने - 'शमा कहे परवाने से... वो नहीं सुनता उसको जल जाना होता है. हर खुशी से, हर ग़म से, बेगाना होता है'. शमा-परवाना से ज्यादा शायरों को कुछ पसंद नहीं - इश्क ! इससे ज्यादा मानव सभ्यता को किसी और चीज ने प्रभावित नहीं किया. बदला नहीं - इतिहास उठाकर देख लीजिये. और जो मैं लिखने जा रहा हूँ इससे अच्छा उदहारण मुझे नहीं सुझा. परवाने को जल जाना नहीं होता. उसे नहीं पता इश्क किस चिड़िया का नाम है. दरअसल परवाने के दिमाग की जो वायरिंग है वो उस ज़माने की है जब शमा हुआ नहीं करती. तब प्राकृतिक रौशनी हुआ करती और परवाने को एंगल-वेंगल का पता चलता रौशनी से कि किधर उड़ना है. उसके दो ही काम थे - सर्वाइवल और रिप्रोडक्शन ! रौशनी देखकर उड़ना भी इसी का हिस्सा था. सभ्यता के विकास ने इंसान को ही नहीं परवाने को भी ऐसे उलझाया कि... उसे नहीं पता चलता कि जिस चीज से उसे जीवन मिलना था उसी से वो मर क्यों जाता है! वहीँ पर हजारों परवाने मरे होते हैं तब भी उसे नहीं समझ आता कि ये शमा वो चीज नहीं जो... और वो समझ भी कैसे सकता है. दिमाग को ही तो सोचना है और उसीकी वायरिंग में लोचा है. जैसे माइग्रेटरी बर्ड्स फँस जाती हैं मैनहट्टन के इमारतों की रौशनी में. तारे की जगह रौशनी देख उन्हें लगता है अब इस दिशा में जाना है ! परवाने भी वही करते हैं. यकीं मानिये उनको जलना नहीं होता. वैसे उपमा सही है. ठीक उसी तरह हम भी अक्सर समझ ही नहीं पाते कि हम कर क्या रहे हैं... 'वसीयत 'मीर' ने मुझको यही की, कि सब कुछ होना तो, आशिक न होना' टाइप। पर... समझ ही गए होंगे आप ! शमा-परवाना-मीर-एवोल्यूशन. हमारी भावनाएं हमें वैसे ही छलती हैं. वो  किसी और युग और काम के लिए बनी हैं. अगली बार आग का दरिया टाइप शायरी पढ़ते समय एक बार सोचियेगा कि क्यों है जो है सो. जीसस ने जिसे कहा - माफ़ करना ऐ भगवान, इन्हें नहीं पता ये क्या कर रहे हैं. या जिसे कहते हैं - माया, लीला, ब्रेन-वायरिंग, एवोल्यूशन.

कबीलाई सोच पर आगे - क्यों कुछ लोग हमारे अपने होते हैं? -दोस्त. और क्यों कुछ लोगों से हम दूर-दूर रहते हैं. -दुश्मन। फिर जो लोग हमें अच्छे नहीं लगते उनका भी एक दोस्तों और अच्छे लोगों का समूह होता है. आप जिसे सबसे ज्यादा बुरा मानते हैं उसका भी एक सबसे अच्छा दोस्त होगा जो उसे बहुत अच्छा आदमी मानता होगा. तो ऐसा क्यों है? रामबाण उत्तर तो आपको पहले ही बता दिया है. बस उसे फिट करना है ! हमारी वायरिंग ऐसी है कि हम खुद के और अपनों के गुण ज्यादा देखते हैं. लक्ष्य ही वही है. हमारी अच्छाई हमारा कोर (असलियत) है. हमारी विफलता के कारण होते हैं. हम जिन्हें पसंद नहीं करते उनकी बुराई उनकी असलियत होती है और उनकी अच्छाई के कारण होते हैं. उन्हें थाली में सजा के मिल गया हमने मेहनत की. बुरा हमारे साथ हो गया - उन्होंने बुरा किया. हमारे अपने रिश्वत लें तो 'उन्हें लेना पड़ता है' तक कहते सुना है मैंने !! और जो अपने नहीं है वो तो आप जानते ही हैं वही देश बेच रहे हैं. हमारे दोस्त के भी दुश्मन होते हैं, हमारे दुश्मनों के भी दोस्त. दोनों एक साथ सही हो सकते हैं?  - सोच हमारी रह गयी कबीले में रहने वाली - मैं और तुम वाली. मैं और तुम को बड़ा करते जाइए. परिवार-कबीला- -देश-धर्म. मेरा कबीला अच्छा, तुम्हारा बुरा. प्रकृति ने मुझे भी वही सोचने के लिए बनाया, तुम्हे भी. मेरा अपना 'मैं' हैं तुम्हारा अपना 'मैं'. सही पकड़ा उन ऋषियों ने जो 'वसुधैव कुटुम्बकं' कहते रहे ! 'मैं' का त्याग करने को कहते रहे.एवोल्युश्नरी साइकोलोजी कहती है - हम बने ही नहीं उसके लिए. यानी हमें वो करना पड़ेगा जिसके लिए हम बने नहीं ? -आत्म-नियंत्रण।

माया, लीला ! - ऋषि ने कहा.
एवोल्यूशन - बायोलोजिस्ट ने.

दिमाग ने सीखा है... कबीले में कैसे किसी को इम्प्रेस करना है. उसके लिए कैसे और किस हद तक जाना है. इंसान ही नहीं आप किसी जीव को उठा कर देख लीजिये. ये भी सिखाया कि कब मुड़ जाना है. कब तक पलट के देखना है. कब से नहीं देखना है. किस चीज से घृणा हो जानी है. कब तक वफ़ा, कब से बेवफा. कैसे अपने कबीले को बचाना है. मर्द ऐसे क्यों होते हैं. औरत वैसी क्यों.  प्रकृति ने पचास हजार साल पहले ठोक पीट के बनाया. फेसबुक-व्हाट्सऐप के जमाने को आत्मसात करने में उस गति से उसे पचास हजार वर्ष और लग जायेंगे और तब तक सभ्यता कहाँ पंहुच जायेगी?  ऐसा खेल है - माया-लीला-वायरिंग. जेनेटिक के साथ नॉन-जेनेटिक एवोल्यूशन भी हुआ।  विचारों का - सब माया है - वसुधैव कुटुम्बकम - आत्म नियंत्रण - बुद्ध - कितना दर्शन हमें रेडीमेड मिलता है. कृत्रिम एवोल्यूशन - बाहरी वायरिंग. पर दिमाग अब भी शिकारी के युग का है. उसका एक ही काम है स्वार्थी जीन को अगली पीढ़ी तक पंहुचाने का. झमेला बनाए रखने का. सभ्यता के साथ हुए  विचारों के विकास के बारे में प्रकृति ने नहीं सोचा था. कृत्रिम रौशनी बन गयी इंसान उड़ कर उसमें उलझने लगा.

प्रकृति ने बनाया सुख की मरीचिका  - है वो मरीचिका. पर उसे स्थायी न सोचे तो फिर उसके पीछे भागेगा कौन? ख़ुशी का काम है सिर्फ प्रोत्साहित करना. उसका तत्व ही है अनित्यता - बुद्ध काइम्पर्मानेंस ! प्रकृति का लक्ष्य ही नहीं हमेशा के लिए ख़ुश करना. 'ह्यूमन्स आर नॉट वायर्ड टू बी हैपी'. दुखी रहो अगर उससे प्रकृति के लक्ष्य पुरे हो रहे हैं तो. ख़ुशी इतने के लिए है कि लगे रहो काम में. रिवार्ड बेस्ड सिस्टम ! ख़ुशी का काम सिर्फ इतना है -रिवार्ड की ललक में बझाए रखना. प्रकृति की प्रकृति है कि एक सफलता की ख़ुशी के बाद और बड़ी सफलता चाहिए पिछली सफलता जितनी ख़ुशी के लिये - हेडोनिक ट्रेडमिल. उलझे रहो. जिंदगी में कुछ अच्छा होने के बाद  अगर इंसान को लगने लगे कि अब बस हो गया ! - हमेशा के लिए खुश ! बस अब और नहीं करना कुछ. तो जो वायरिंग है -  'सरवाइव एंड रिप्रोड्यूस' उसका क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा रिप्रोड्यूस ज्यादा से ज्यादा सरवाइव - और इस बात कीमैक्सिमम प्रोबबिलिटी तभी होगी जब... ख़ुशी - इम्पर्मानेंट हो, मरीचिका हो - हमें उस मरीचिका की ललक हो. प्रकृति को सृष्टि चलाना है. उसका काम हमें खुश करना नहीं है.

एवोल्युश्नरी बायलोजी को इस एंगल से पढो तो लगता है सब कह गए हैं ऋषि-मुनि बस जार्गन अगल हैं :)

खैर बात यहाँ से चली थी कि हमको फ़िक्र काहे को हो रही थी... उस घटना के बाद - कबीलाई सोच !

हरी ॐ तत्सत् !

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~Abhishek Ojha~

[बोलने पर ये टॉपिक ज्यादा स्पष्ट होता है. लिखने में वो बात नहीं]

Aug 24, 2016

ग्रीक म्यूजिक (यूनान ३)


यादें धुंधली पड़ती जाती हैं. अच्छी-बुरी सब. कुछ यादें स्थायी जैसी होती तो हैं - पर स्थायी नहीं. कुछ उड़ते समय अवशेष छोड़ जाती हैं - रसायन में जिसे अवक्षेप कहते हैं - प्रेसिपिटेट. जिन बातों के होते समय लगता है कि ये अनुभव तो कभी नहीं भूल सकते - सवाल ही नहीं उठता ! ... वो अनुभव भी धुंधले हो ही जाते हैं - एवरी एक्साइटमेंट हैज अ हाफ लाइफ !  

कई बार खुद की डायरी में लिखे नोट्स पढ़ते हुए लगता है कि लिखना क्या चाहा था? लिखावट उतनी बुरी भी नहीं कि खुद का लिखा न पढ़ पाएं पर लिखते समय अक्सर बस एक दो शब्द लिख जाता हूँ...  क्योंकि उस समय तो ऐसा लगता है जैसे ये घसीट कर लिखे हुए शब्द देखते ही सब कुछ आँखों के सामने घूम जाएगा. पर बहुत दिन बीत जाए तो कई बार खुद ही नहीं जोड़ पाता उन शब्दों को !  डायरी पलटा तो  "ग्रीक म्यूजिक? :)" सिर्फ इतना ही लिखा है एक पन्ने पर. पर ये दो शब्द बहुत हैं याद दिलाने को कि हुआ क्या था. वैसे यात्रा में जो बुरे अनुभव होते हैं वो याद रह जाते हैं कोई बचकानी हरकत, कोई समस्या, शर्मिंदगी, फँस जाना - वगैरह. ऐसी बातें हर यात्रा में होती हैं. और जैसे जिंदगी का हर सपना पूरा हो जाने के बाद ओवररेटेड लगने लगता है, वैसे ही हर उलझन से निकल जाने के बाद वो परेशानी हलवा लगती है और हम बाद में उसे चाव से सुनाते हैं. वैसे ये बहुत छोटी सी बात थी.

कहीं जाने के पहले बजट-टाइम कन्स्ट्रेन्स के साथ सोचना पड़ता है कि कहाँ-कहाँ जाएँ. गूगल अपनी जगह है पर किसी जगह के बारे में वहां के लोगों से पूछो तो वो बड़ी ख़ुशी से बताते हैं. किसी को उसकी 'अपनी' जगह के बारे में बताते हुए सुनने में एक अलग खूबसूरती होती है. इतनी ख़ुशी और गर्व होता है बताने वाले के चेहरे पर कि...

मुझे भी एक ग्रीक-दोस्त ने जगहों का विस्तृत ब्यौरा पहले बताया फिर लिखकर भी भेजा. कहाँ जाना, क्या देखना, कहाँ रुकना, क्या खाना, क्या करना, क्या नहीं करना... पर उसने सब कुछ कुछ इस तरह बताया मानो ऑप्टिमाइजेशन बिना किसी कन्स्ट्रेन सोल्व करना हो. बजट और टाइम की फ़िक्र किये बिना !  मुझे उनका विस्तार से बताना और फिर काट-छांट के बनायी गयी यात्रा ! ऐसे याद रहा कि कुछ दिनों पहले जब किसी ने मुझसे पूछा 'भारत देखने के लिए कितने दिन चाहिए'. तो मुझे समझ नहीं आया क्या जवाब दूं. बताने बैठो तो पुराण लिखना पड़ जाए. मैंने कहा 'सवाल गलत है - तुम बताओ तुम्हारे पास कितने दिन हैं और तुम्हें कैसी जगहें पसंद हैं'. ये बात दुनिया के हर जगह के लिए सच है. मुझे नहीं पता लोग कोई भी देश या पूरा यूरोप कैसे देख आते हैं एक सप्ताह में। ग्रीस में भी दो सप्ताह जैसी समय सीमा में बहुत कम देखा जा सकता है. जगहें भी अलग अलग तरह की. हर कदम - इतिहास और मिथ नहीं तो प्राकृतिक खूबसूरती - क्या देखें-क्या छोडें ! फिर जैसे कोई पूछे कि... गोवा के अलावा कहाँ कहाँ जा सकते हैं भारत में. तो अक्सर हम कहेंगे ही कि... 'और भी अनगिनत अच्छी जगहें हैं ! गोवा खुबसूरत है - पर उससे भी अच्छी जगहें हैं'. एक ही जगह के लिए - 'इट्स अ मस्ट सी' से लेकर '... 'वी हैव बेटर प्लेसेस...' जैसे सुझाव दिए थे लोगों ने. पर कुछ जगहें हर लिस्ट में निर्विवाद थी तो वहां जाना ही था! -जब बहुत सारे कंस्ट्रेन हों तो कॉमन मिनिमम एजेंडा टाइप कुछ निकल ही आता है.

मिथ और खंडहरों से भरा पड़ा है ग्रीस - संरक्षित और जानकारी से भरपूर. ग्रीक के द्वीप दुनिया के सबसे खुबसूरत द्वीपों में आते हैं. ये दो सबसे बड़े कारण हैं जिससे ग्रीस हर साल अपनी जनसँख्या के दोगुने से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है. इसके बाद भी अर्थव्यवस्था... :)  इकॉनमी फिर कभी.

अगर आप कहीं घुमने जा रहे हैं तो कोई होना चाहिए जो आपको खंडहरों से खींच कर खूबसूरत जगहों पर भी ले जाए. और अगर आप खुबसूरत जगहों के शौक़ीन हैं तो कोई चाहिए जो आपको खींच कर खँडहर और संग्रहालयों में ले जाय. समुद्र-झील-पहाड़-घाटी श्रेणी की खुबसूरत जगहें प्रेमचंद की कहानियों की तरह होती हैं - सदाबहार -सुपरहिट. मुझे अब तक कोई नहीं मिला जिसे पसंद न हो. पत्थरों, खंडहरों और म्यूजियम कुछ लोगों को ही पसंद आ पाते हैं 'घुमने जाते हो कि पढने?' टाइप के लोग. अपनी-अपनी पसंद. और बहुत प्रसिद्द जगह हो तो भी ये जरुरी नहीं कि वो वहां के निवासियों की भी पहली पसंद हो. कई जगहें पर्यटकों के लिए खूब विकसित की गयी हैं . सब कुछ वैसा ही जैसा पर्यटकों को चाहिए - एक तो खूबसूरत ऊपर से सिंगार !  - संतोरिणी.

यूनान - डेमोक्रेसी, रोमन लिपि, गणित, दर्शन, खगोल, ट्रेजेडी, कॉमेडी, खेल, युद्ध, जीयस, वीनस, अपोलो, ओरेकल, अगोरा, अकिलीस, ओडीसस, सिकंदर, पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, ओलंपिक, मैराथन, काठ का घोडा  - अनगिनत - पश्चिमी सभ्यता का सबकुछ. पढ़ते रहो तो ख़त्म न हो घूमते रहने से कहाँ हो पायेगा !

खैर.. लोगों से उनके देश के बारे में पूछने से होने वाली ख़ुशी की ही तरह एक और ख़ुशी होती है  जब आप उस देश की भाषा (अंग्रेजी छोड़कर) बोलने की कोशिश करते हैं. टूटी फूटी ही सही. मुझे ग्रीक नहीं आती पर...  मैंने बस स्टैंड पर जोड़-जाड के पढ़ा ΚΤΕΛ क्टेल? Δρομολόγια - डेल्टा-रो-ओ-म्यु-लैम्ब्डा-गामा-आयोटा-अल्फा - ड्रोमो... ड्रोमो-लोगिया.... ड्रोमोलोग्या ?

'यू स्पीक ग्रीक?'

मैंने कहा नहीं... पर अक्षर पढ़ लूँगा (इस कार्टून की तरह) - ग्रीक लिपि में
एक अक्षर नहीं जो गणित-विज्ञान में इस्तेमाल न होता हो - एक भी नहीं. सिग्मा, थीटा, अल्फा, बीटा, पाई, टाऊ, ओमेगा... वगैरह वगैरह. ग्रीक लिखा हुआ देखकर लगता है किसी नौसिखिये ने फार्मूला लिखने की कोशिश की है. और सारे सिंबल की खिचड़ी बना दी है. पता नहीं बस स्टैंड पर खड़े उस आदमी को पता था या नहीं कि दुनिया में कहीं भी मैथ-फिजिक्स-इंजीनियरिंग के सिंबल ग्रीक अक्षरों में ही लिखे जाते है. पर वो खुश बहुत हुआ. उसने बताया - कटेल यानि बस. और द्रोमोलोग्या माने टाइम टेबल. मुझे ग्रीक पढने में मजा आता. जैसे नया नया पढ़ना सीखे बच्चे सब कुछ पढ़ डालते हैं - बिना मतलब पता हुए. सारे अक्षर पहचान के थे, मतलब कुछ नहीं पता था. κέντρο मैंने एक बोर्ड देखकर पढ़ा - केंत्रो. टैक्सी वाले ने सुधारा -  केद्रो जैसा कुछ कहा उसने. मतलब बताया सेंटर. तब चमका मुझे - केन्द्रो-केंद्र-सेंटर. यूँही तो नहीं हो सकता एक ही शब्द. ॐ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती. नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरू टाइप लगा ॐ संस्कृते च ग्रीके चैव लैटिनं ... टाइप कभी रहा होगा. वीनस सरस्वती हों न हों, इंद्र जीयस हो न हो... केंद्र तो केंद्र होगा ही ! यहाँ से वहां गया हो या वहां से यहाँ आया हो.

 'ग्रीक म्यूजिक?'  - इन दो शब्दों में छुपी कहानी पर वापस आते हैं.  इटरनल, स्पिरिचुअल, खुबसूरत - वगैरह वगैरह कैप्शन वाली जगहें हम भूल सकते हैं पर ऐसे अनुभव नहीं. हुआ यूँ कि इतिहास-खँडहर-पत्थर वाले इंसान को 'व्यू' वाली हाई-फाई जगहों का अनुभव तो वैसे ही नहीं. तो ऐसी जगह जाने पर हर चीज देखकर हम मान लेते हैं -  बड़े लोग हैं  ऐसा ही करते होंगे !  और फिर जितनी सभ्यता-शिष्टता से अपने आप को समेट कर रख सकते हैं रखते हैं. तो ऐसा ही कुछ हुआ एक बड़े लोगों वाले रेस्टोरेंट में. मद्धम मद्धम रौशनी. अभी अभी सूर्यास्त हुआ था. व्यू के साथ सिंगार-पटार वाली जगह. दो संगीतकार टाइप के लोग संगीत बजा रहे थे. अब अच्छा संगीत तो वैसा होता है जो सबको ही अच्छा लगता है. कोई भी बाजा हो - देश-काल-भाषा के इतर. अच्छा संगीत बस अच्छा संगीत होता है.  हमें भी बहुत अच्छा लग रहा था. नाचने-गाने-थिरकने वाली कैटेगरी वाले तो नहीं हैं पर बैठे बैठे पैर वैसे हिल रहे थे.. जैसे हिलाने पर डाँट पड़ती है - 'पैर मत हिलाओ'. थोड़ी देर में वो घूम घूमकर बजाने लगे. हमें देख उन्हें शायद कुछ ज्यादा अच्छा सा लगा होगा. स्पेशल टाइप. सो वो आ गए हमारे टेबल के पास.  बजाने लगे... हम बहुत खुश हुए. माने... बता नहीं सकते. हर टेबल से तुरत ही चले जाते। हमारे यहाँ जम से गए. हम विडियो भी बनाए. ताली भी बजाये. वो भी एक दम लीन होकर  भाव भंगिमा के साथ बजाये. फिर उन्होंने फरमाइसी संगीत का कार्यक्रम टाइप भी किया और पूछा - 'ग्रीक म्यूजिक? ग्रीक म्यूजिक?' सर हिलाते हुए - सिर्फ दो शब्द। और सर ऐसे गिरगिट की तरह हिलाते रहे...  मानों उनको उतनी ही अंग्रेजी आती हो जितनी हमें ग्रीक.

हम भला क्यों मना करते !

थोड़ी देर बाद हमें लगा अब कुछ ज्यादा हो रहा है. हमारे पास ही ये क्यों बजाये जा रहे हैं ! उनकी मुस्कान भी तल्लीनता से लेफ्ट टर्न लेकर इस मुद्रा में आ गयी थी कि ...वो भी कुछ वैसा ही सोच रहे थे जैसा हम. तब मुझे पहली बार लगा कि इन्हें कुछ देना होगा. तब लगा कि शायद बाकी जगह लोगों ने उतना भाव नहीं दिया या तुरत कुछ दे दिया होगा ! इन दो बातों का उनका इतनी देर तक बजाने और इतने अच्छे से बजाने में जरूर ज्यादा योगदान रहा होगा. हम कितने स्पेशल लग रहे थे वो दिल बहलाने का ग़ालिबी  ख्याल साबित हो गया. खैर ये कोई बात नहीं जो याद रह जाए... बात तब हुई जब हमने जेब टटोला.

जेब खाली तो नहीं थी पर...

ग्रीस हम गए थे ये सोच कर कि - यूरोप है ! हर जगह कार्ड चलेगा. ग्रीस ऐसा है कि एक तो कार्ड कोई नहीं लेना चाहता (कैपिटल कण्ट्रोल भी था तब पर लोगों ने बताया कि बिना उसके भी यही हाल रहता है). जहाँ कार्ड लेते भी वहां - कार्ड से इतना, कैश से उतना का हिसाब. और ये उतना इतने से हमेशा कम. अब दुनिया का कोई भी कोना हो दिमाग एक्सचेंज रेट लगा तुरत जोड़-घटाव कर लेता है  कि कितना घाटा-फायदा हो रहा है. तो हमने उसी शाम कैश तो निकाल लिया था. लेकिन 'जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि' की तरह हमारे  पास १०० यूरो से नीचे कुछ था नहीं. अमेरिका में २० डॉलर से ज्यादा के नोट कभी एटीम से निकलते देखा नहीं. या कभी सौ से ज्यादा कैश निकाला हो ये भी याद नहीं. भारत होता तो वैसे ही कोई जुगाड़ निकल आता. खैर... ऐसे मौके पर दिमाग तुरत हिंदी पर आ जाता है. जीटा-थीटा थोड़े करोगे आपस में अब. हमने अपने साथी से पूछा तो वहां भी यही हाल था. हाथ में वॉलेट लिए.. अब हम बेशर्मी वाली मुस्कान के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे. छुट्टा भी नहीं पूछ सकते थे -कलाकार की बेइज्जत्ती हो जाती. हमने एक बार मुस्कुराया.. वो दोनों जो एक वायलिन सरीखा और एक कोई ग्रीक बाजा लिए थे.. मेरे हाथ में बटुआ देख और जोश में बजाने लगे. वो हमें देख मुस्कुराते, हम उन्हें.. ये सिलसिला कुछ देर तक चला. माने हमारे ऊपर थोड़ी देर तक पानी पड़ा जब तक उन्हें समझ आया... अब उन्हें जो भी समझ आया हो.  थोडा बहुत हमें भी समझ आया और हम उठकर काउंटर पर छुट्टा पूछने गये. पर वो अपनी समझ से दूसरी तरफ निकल लिए. मुझे लगा वो इसी  रेस्टोरेंट में काम करते होंगे पर वो निकल कर चले ही गए. माने अब... हम लिखने में इतने सिध्हस्त तो हैं नहीं कि वोसीन लिख सके. यूँ समझ लीजिये... दोनों पार्टियों की ख़ुशी परवर्तित हो रही हो दिमाग की झुंझलाहट में और चेहरे पर मुस्कान बनी रहनी चाहिए! बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ. तो कैसा दृश्य रहा होगा. इससे ज्यादा मैं नहीं लिख सकता. :)

आप  कहेंगे ये भी कोई सोचने की बात हुई.. उनसे अब कौन सा फिर से मिलना है. पर वो क्या है न कि... इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी कहती है... किसी और पोस्ट में.

ये पोस्ट भूमिका में ही ख़त्म होने की सी लंबाई को प्राप्त हो गयी !

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~Abhishek Ojha~

Feb 9, 2016

...उस पार


ज्ञान देना (भाषणबाजी) बहुत मस्त काम है।

ज्ञान देने वाला खुद वैसा ही हो या नहीं इस बात से इसका कोई लेना देना नहीं. और फिर गूगल-फेसबुक-ट्विट्टर-विकिपीडिया के जमाने में जिसे देखिये वही घनघोर ज्ञान और संवेदना से लबालब भरा बैठा है. इतना कि उसे छलकाने के लिए मुद्दे-मौके कम पड़ जा रहे हैं ! भाषणबाजी से  याद आया कि जो लोग असल जिंदगी में चंद लोगों के साथ भी ढंग से न रह पाते उनसे अच्छा रिश्तों पर कोई नहीं बोलता ! घर में अँधेरा हो तो हो महफ़िल में चराग-ए-भाषण जरूर जलाते है. और ये तो खैर फैक्ट ही है कि लभ-गुरु बनने का सबसे ज्यादा पोटैन्श्यल होता है असफल प्रेमियों में।

पहले का पता नहीं पर आजकल ज्ञान देते-देते लोग लड़ने पर उतर आते हैं. ये कैसा अद्भुत ज्ञान? ! जैसे कोई कहे.... मैं बहुत अहिंसक हूँ और सामने  वाला  न माने तो उसकी गर्दन ही तोड़ दो - बोला था अहिंसक हूँ ! समझते ही नहीं हों लोग ! और एक लेवल के बाद दोनों ही पक्ष एक दूसरे को मुर्ख करार देते हैं! मुर्ख को उपदेश देना क्रोध को बढ़ाना है, मूरुख हृदयँ नहीं चेत , नेवर आर्ग्यु विथ स्टुपिड पीपल... वगैरह वगैरह कोट तो वैसे ही बरसाती मेंढक हैं इंटरनेट के.  वैसे आप विवाद का हिस्सा नहीं हैं तो कई बार मुश्किल होता है समझ पाना कौन बुद्धिमान वाला पक्ष है कौन मुर्ख वाला। लड़ते हुए देख लेने के बाद लगता है बुद्धिमता और मूर्खता अन्योन्याश्रित हो चली है। अगर आप एक पक्ष के साथ हैं तब तो मुर्ख ऑब्वियस्ली सामने वाला ही होगा।

खैर.. भाषणबाजी सुनकर अक्सर लगता है... कि भाषणबाजी अगर इस पार का काम है तो उसे जीना उस पार का। ज्ञान सुनाने वाले को समस्या हलवा लगती है और संसार बेवकूफ ! वहीँ सुनने वाले को लगता है - मेरी जगह होते तो इन्हें पता चलता ! सही भी है जब तक आप इस पार रहते हैं तब तक उस पार का सोच पाना कठिन सा होता है - एक अलग डाइमेन्शन में सोचने जैसा

पर अक्सर लोग उस पार जाकर भी कुछ ज्यादा सीख नहीं पाते। छात्र जीवन में शिक्षकों को खडूस कहते रहे, शिक्षक बने तो छात्रों को नालायक करार दिया. उस पार गए तो इस पार का भूल गए - याद नहीं रहती खुद की अनुभव की हुई सारी बातें। डिस्टोर्टेड वर्जन याद रह जाता है। वैसे भी जो झेल चूका होता है उससे उम्मीद करना कि जो आप झेल रहे हैं वो बेहतर समझेगा तो आप भोले हैं - मैं ही नहीं कह रहा बड़े लोग भी ऐसा कह रहे हैं  - It’s Harder to Empathize with People If You’ve Been in Their Shoes

 - भाँति-भांति के लोग !

...भूमिका ख़त्म. बात पर आते हैं।

ज्ञान के नाम पर गर्दन तोड़ देने वाली चीज देखने को मिली पिछले दिनों। न्यू यॉर्क में एक प्रतियोगिता हुई जिसमें कई विश्वविद्यालयों के पढ़ने लिखने वाले छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया। (यहाँ ध्यान दीजिएगा कि सारे छात्र पढ़ने लिखने वाले नहीं होते हैं - दंगा, धरना-प्रदर्शन, मार पीट, लफंगई  वगैरह वगैरह करने वाले भी छात्र होते हैं) न्यू यॉर्क ही नहीं छः-आठ घंटे दूर तक से छात्र छात्राएं आए थे...  (कभी कभी दूरी में वजन डालने के लिए उसे घंटे में भी नाप दिया जाता है)। छात्रों को एक 'केस' सोल्व करना था-एक कंपनी का केस।

अब छात्र माने बैचलर से पीएचडी तक। कुछ बिलकुल ही नवा-नवा कॉलेज में नामांकन कराये ... जिन्होंने कभी जेब खर्च के लिए भी नहीं सोचा होगा कि कहाँ से आ रहा है कहाँ जा रहा - उन्हें भी उसी केस के बारे में सोचना था। जिसके बारे में एमबीए, पीएचडी वाले भी सोच कर आए थे। पाँच-सात साल अनुभव वाले भी थे!  बोली भी अंग्रेजी होते हुए भी सबकी अलग (वैसे बहुमत - चाइनीज अंग्रेजी) । फिर ऐसे भी थे जो जबान से दनादन 'जार्गन' उगलते हैं - प्रति मिनट सौ-डेढ़ सौ की रफ्तार से - भले उसका केस से कोई लेना देना नहीं हो। वैसे मुझे लगता है दुनिया में मैं अकेला तो नहीं ही होऊंगा जिसे मीटिंग, कॉन्फ्रेंस  में काम के बात की जगह 'जार्गन' की दवनी होता सुनकर लगता है... छोड़िए फिर कभी :)

बहुत मेहनत की थी सबने... लेकिन प्रेजेंट करने वाला जैसा भी हो 'जज' (अक्सर) होता है - बेशर्म - भाषणबाज -  ज्ञान झाड़ने वाला- गर्दन तोड़ने वाला अहिंसक। सवाल पूछने से पहले ये भी नहीं सोचता कि... जिसे क, ख, ग ढंग से नहीं पता हो उससे उपनिषद एक्सप्लेन करने को कहना - मतलब क्यों? ! ... जज का एक काम शायद सामने वाले को बेइज्जत करना भी होता है! वो प्रजेंट करने वाले से प्यार से बात नहीं कर सकता।

मुझे उस पार ...यानी जज वाले साइड बैठना था. मेरे बगल में बैठे एक सज्जन बार बार - "व्हाट द [अगला शब्द आप समझ ही गए होंगे]" - और बार बार टीम्स के किये कराये को "[बैल का गोबर]" करार दे रहे थे। खैर इट्स कूल टु टॉक लाइक दैट दीज डेज। मैं उस पार बैठने वाला नवा-नवा मैं क्या ही बोलता ज्यादा कुछ.  सोचा पूछ लूँ - "आपको उस उम्र में पता था कि जो पढ़ रहे हो वो इंडस्ट्री में इस्तेमाल नहीं होता?" फिर ये सोच रहने दिया कि हो सकता है वो अभिमन्यु रहे होगे !

हमारा दिल पिघल रहा था.. हम उस पार होके भी नहीं थे. हम सोच रहे थे किस किताब की लाइन उठा के लाये हैं... जो बोल रहे हैं वैसा क्यों बोल रहे हैं? कहाँ से सीखा होगा? हंसी नहीं आई मुझे कॉपी-पेस्टीय अनभिज्ञता पर - जहाँ हो सकता था ज्ञान से प्रभावित जरूर हुआ। पता तो वैसे भी चल ही जाता है जो रट के बोल रहे होते हैं ...जिनका मतलब भी नहीं पता उन्हें ! पर मैं ये सोच रहा था कितनी मेहनत की है एक एक शब्द पर...  कितना तैयार होकर आए हैं... बाहर गया तो देखा... लड़के-लडकियां रट रहे थे टहलते हुए। आखिरी मिनट तक।  स्लाइड देख कर न बोलना पड़े... सूट, जूते, घड़ी, बाल... सब एक दम चकाचक। एक बाल इधर की जगह उधर नहीं... जैसे चमको छाप डिटर्जेंट के एजेंट हों ! कब स्माइल करना है, कैसे अभिवादन करना है. कब तक किसे बोलना है. हमें अपने दिन याद आ रहे थे - प्लेसमेंट सीजन के पहले दो चार लोगों को छोड़ दें तो सूट और जूते क्या बेल्ट भी उधार का होता था - "अबे जल्दी जाओ तैयार होके... आधे घंटे में इंटरव्यू है"। खबर हॉस्टल में आती तो लोग अभियान शुरू करते कपड़े ढूंढने का..."..."अबे जल्दी जाओ, इसी के ऊपर पहन लो !"। कितनी बार सब कुछ आते हुए भी नहीं बोल पाना...

मैं ये भी सोचता रहा कि किसका बैकग्राउंड क्या होगा। उनसे पूछ भी लिया   - सही ही सोचा हर बार। फाइनन्स, मैथ, कम्प्युटर साइंस, एकोनोमिक्स, मार्केटिंग... फर्क दिखता है कौन क्या पढ़ा है। कौन कैसे तर्क देता है. किसने कितनी मेहनत की है वो भी दिखता है। हमेशा एक दो टीम ही बहुत अच्छी होती है... वो ऐसे ही दिख जाता है। पर एक बात मुझसे देखी नहीं जा रही थी  - जजों द्वारा तौहीन ! - [बैल का गोबर]

एक दो ग्रुप से सवाल पूछे जाने के बाद लड़के-लड़कियों की शक्ल देखने लायक हो गयी ! घोर हताशा... जैसे एक पल में सारी मेहनत चली गयी हो ! दिल टूटता हुआ दिखता है चेहरे पर। उम्मीद का टूट जाना. बोलने से पहले काँपती है आवाज। गया सब कुछ... करुणा टाइप का हो जाता है।  ...उनका गला सुखने लगा हो जैसे... और मेरे बगल में बैठे सज्जन ने भकोसी हुई कुकी को कॉफी से गले के नीचे उतारते हुए कह दिया  - [बैल का गोबर] - राम राम !

मैं सोच रहा था क्या चल रहा होगा उनके दिमाग में वैसे सवाल पर जो उन्हें ढंग से समझ भी नहीं आया?

- क्या होगा इसका सही उत्तर? सुना हुआ तो लग रहा है... जैसे दिमाग के सारे न्यूरॉन एक साथ चमक गए हों... - ओह ! तो ये बोलना था? आसान था यार पर समझ ही नहीं आया। ...क्या पूछ रहा था यार वो मैंने तो कभी सुना ही नहीं था... फिर से सवाल रिपीट करने को बोला तो जो थोड़ा बहुत समझ आया था वो भी हवा हो गया. विनिंग टीम को देखा तुमने? अबे यार इतने सीनियर लोग आएंगे तो क्या ही होगा। लेकिन क्या ही प्रेजेंटेशन था यार उनका - फ्लॉलेस! हमने तो कुछ किया ही नहीं। मुझे तो अब सोच के ही शर्म आ रही है, हम क्या ही बोल रहे थे ...हम कहीं नहीं टिकते। अबे यार पर उस खडूस जज को कुछ नहीं आता ! पता नहीं किसने बना दिया उसे जज।  कितना समझाया मैंने उसे... उसे समझ ही नहीं आया कि हमने किया क्या है। पता नहीं क्या पूछ रहा था। उस बात का  इस केस से क्या लेना देना ?- पकड़ के बैठ गया एक ही बात। इतना कुछ किया था किसी ने कुछ सुना ही नहीं, सब बेकार हो गया! हड़बड़ी में जो एक कोट रट के गया था वो तो बोल ही नहीं पाया। छोड़ यार अब... ...वैसे हमारा तो उनसे अच्छा ही था... मेहनत तो की ही थी हमने. बस लटके झटके अच्छे थे उस टीम के  हमने कितना काम किया था।  उन्होने तो कुछ किया भी नहीं और जीत गए.

हमेशा अंत में बात यहीं रुकती है... एक टीम का प्रेजेंटेशन अच्छा था और एक का काम अच्छा था। और एक टीम हमेशा होती है जो अच्छी होकर भी नहीं जीतती।... मेरा दिल और वोट हमेशा उनको जाता है। ये अनुभव हुआ कई बार... पहले भी और इस  बार भी.

खैर... बात जब दूसरे पार की हो तो थोड़ा मुश्किल भी होता है समझना... जैसे मान लीजिये पढ़ाने वाला निश्चय कर ले कि मैं किसी को फेल नहीं करूंगा और ये कि... जिसे मन हो वो पढे नहीं तो क्लास आने की जरूरत नहीं है। पढ़ाने वाले को लगेगा कि इतना रोचक है, मैं इतना अच्छा समझाता हूँ... कैसे नहीं पढ़ेगा कोई ? और स्टूडेंट को लगे... अबे एक दम गाय है प्रोफेसर... एक दम कूल। इस कोर्स में कोई टेंशन नहीं... दूसरा वाट लगा देगा उसीका पढ़ते हैं !

पटना में राजेसजी से हुआ वार्तालाप याद आया - मैंने कहा था- ‘जूनियर इम्प्लोयी से बड़े बुरे तरीके से बात करते हैं वो. प्यार से बात करने से सब काम हो जाता है लेकिन….’
‘अरे नहीं सर ऊ त ठीके है. बिना उसके इहाँ काम चले वाला है? इहाँ नहीं चलेगा आपका परेम-मोहबत. आप नहीं समझेंगे यहाँ का मनेजमेंट… यहाँ परेम देखाइयेगा त जूनियर एम्प्लाई आपका बेटीओ लेके भाग जाएगा’।...एक ये पहलू भी है जो अनुभवी लोग बताते हैं, मैं सहमत होऊं या नहीं!

 ...खैर अंत में हुआ यूं कि उस पार  बैठे हुए भी मेरी इस पार वालों से खूब दोस्ती हुई. भाषणबाजी ही कहेंगे पर मैंने जो टीम रोने-रोने सी हो गयी थी और वो एक टीम जो अच्छी होकर भी नहीं जीतती। उनसे बहुत देर बात की... अच्छा अनुभव रहा. बहुत कुछ सीखने को मिलता है खासकर उस पार बैठने पर जब आपको हार जीत की फ़िक्र नहीं होती !

और सबसे अंत में हुआ यूँ कि... किसी ने एक फोटो शेयर की कैप्शन था - 'विनिग टीम विथ जजेस'... उसमें एक चेहरा हमारा भी था. हमें विनर होने के बधाई के कुल छःमेसेज आये । हम विनर तो थे नहीं ...उस पार वाले हो चुकने के बाद यही सोच खुश हो लिए कि... शायद हमारी त्वचा से हमारी उम्र का पता ही नहीं चलता होगा ! :)

~Abhishek Ojha~