Sep 3, 2016

...उसको जल जाना होता है !


पिछली पोस्ट ख़त्म हुई थी ... इस बात पर कि हमें क्यों फर्क पड़ता है ऐसे लोगों के सामने भी जो न तो हमें जानते हैं, न ही हमें उनसे कभी दुबारा मिलना होता है. एवोल्यूशनरी साइकोलोजी पढने से ऐसे सवालों का उत्तर मिलता है. वैसे एक मजेदार बात ये है कि... ये एक ऐसा विषय हैं जहाँ हर सवाल का एक ही उत्तर होता है. कई बार ऐसा लगता है जैसे.. उत्तर पता है और बस फिट करना है उसे... आप सवाल तो ले आओ !

एवोयुश्नरी साइकोलोजी के अलावा बिहेवियरल इकोनॉमिक्स भी ऐसा ही विषय है. जो पढने-सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं. इसलिए भी कि... जिन बातों का हमारे पास आसान सा उत्तर नहीं होता.. उनका बिन दिमाग खपाए एक सरल उत्तर मिल जाता है. भले समझ के यही समझ में आये कि इस समझ से कुछ फायदा होना नहीं है. समझ से सिर्फ दूसरों को ज्ञान दिया जा सकता है. ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं. समझ कर खुश हुआ जा सकता है कि हमें समझ में आ गया कि दुनिया ऐसी क्यों है. भले ही समझ के हम फिर वही काम करें - 'शिकारी आयेगा जाल बिछाएगा'... क्योंकि ये पढ़ कर समझ यहीं पंहुचती है कि - हमें खुद नहीं पता हम क्या कर रहे हैं. खूब सोचा तो यही सोचा के सोच के कुछ नहीं होना !

खैर - एवोल्युश्नरी साइकोलोजी के हिसाब से हर बात का उत्तर होता है - '... क्योंकि हमारे पूर्वज कभी शिकारी-संग्रहकर्ता (हंटर-गैदरर) थे जो कबीलों में रहते थे.'  - हर समस्या-उत्सुकता का एक ही उत्तर - सरल सपाट. ऐसे सोचिये कि अगर हम आज भी शिकारी-गुफा-कबीला युग में रह रहे होते तो क्या करते? गुस्सा.नफरत.प्यार. आलस.आतंक.दोस्त.दुश्मन.गर्व. कब, क्यों और कैसे ! - माने सब कुछ. हम कब कैसा बर्ताव और महसूस करते हैं और क्यों !  उस समय सबसे जरूरी क्या था? सबसे अधिक क्या चाहिए था? सबसे अधिक डर किस बात का था? तब जीवन के लक्ष्य क्या थे?

उस युग की वो बातें फिट हैं हमारे अन्दर. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं. कोई नहीं भी हो सिखाने वाला तो भी बहुत कुछ जीवों में इनबिल्ट ही आता है.  हँसना-रोना से लेकर ऐसा पाया गया कि जिन्होंने कभी बचपन से सांप नहीं देखा-सुना.. वो भी पहली बार जब सांप देख ले तो डर जाते हैं. लडकियां मकड़ी, छिपकली, तिलचट्टा वगैरह से ज्यादा डरती हैं. वगैरह. वगैरह. बहुत काम किया है लोगों ने इस क्षेत्र में. लेक्चर नोट्स थोड़े न है जो सब रेफेरेन्स के साथ  लिखा जाय. एक लाख २५ हजार सालों से भी अधिक समय से हमारा विकास चल रहा है. संभवतः एक लाख साल तक हम शिकारी-गुफा वाला जीवन ही जीते रहे. सब ठीक चल रहा था. विकासवाद के हिसाब से अभी दस हजार साल भी नहीं हुए खेती का आविष्कार हुए. फिर इन दस हजार सालों में सभ्यता के विकास का पहिया ऐसा घुमा कि... धड़ाधड़ एक के बाद एक विकास होते गए... विज्ञान... गाड़ी, बिल्डिंग, फैक्टरी...सैटेलाईट. एटम बम, फ़ोन, इंटरनेट. सभ्यता कहाँ से कहाँ पंहुच गयी. लाखों सालों में धीरे धीरे बढ़ने वाले हम दस हजार साल में कहाँ से कहाँ आ गए. माने भगवान का बनाया उनके हाथ से निकल गया. प्रकृति ने सोचा था कि उसी रफ़्तार से चलेगी सभ्यता. उस हिसाब से हमें तैयार किया... नेचुरल सेलेक्शन। फिर तुम्हारी है तुम्ही संभालो ये दुनिया कह के बनाने वाला निकल लिया.

कहने का मतलब ये कि...

हमारी जो बायोलोजी है वो बहुत धीमी गति से सीखती और बदलती है... पर दुनिया बदल गयी - सभ्यताएं बदल गयी. हमारे अन्दर की वायरिंग वैसी ही रह गयी. कायदे से दोनों को एक साथ चलना था पर एक घोघा की चाल से चला और दूसरा चीते की चाल. हमारे शरीर और दिमाग का बहुत कुछ अब भी तकरीबन तीस चालीस हजार साल पहले के हिसाब से काम करते है. उसी हिसाब से सोचते है. उसमें वही फिट है जो हमारे लिए उस युग में सही होता. माने अब जा रहे हैं और सामने शेर दिख गया तो दिमाग ने फिट कर दिया ... सोचो मत. पहले भाग लो, उसके बाद सोचना. पका फल देखा तो वायर हुआ ये रंग हमारे लिए अच्छा है. जिससे दुर्घटना हुई उससे डरना सीखाया. औरत को माँ बनना होता है तो उसे किस चीज से डरना चाहिए. उसे कब कैसा सोचना चाहिए. पुरुष का प्यार कब चरम पर होगा औरत का कब. वगैरह वगैरह.  उस जमाने की वायरिंग का दो बड़ा काम था..  'मरो मत और कुटुंब बढाओ' - सर्वाइवल एंड रिप्रोडक्शन! जो सीखता गया बचता गया और बढ़ता गया. इसके लिए समय के हिसाब से जो हो सकता था धीरे धीरे प्रकृति ने इंसान में बनाया. क्या देख खुश होना है. क्या देख डरना है, कब गुस्सा करना है. कब भागना है. कब अपने कबीले को बचाना है. कैसे पार्टनर की ओर आकर्षित होना है. उसमें क्या देख के आकर्षित होना है. कब तक होना है. कौन से अंग-रंग-रूप-अदा-ज्ञान. कौन अपना है. कौन पराया. सब की वायरिंग की. माने हमें लगता है हम दिमाग लगा रहे हैं उधर न्युरोंस प्रोग्राम कर दिए गए हैं धड़ाधड़ देख के फैसला कर लेने को.

इस बीच सभ्यता इतनी आगे बढ़ गयी कि... अब उनमें से कई चीजों की जरुरत नहीं रही - जैसे सर्वाइवल का मतलब अब कुछ और है. अब हम गुफों और जंगलों में नहीं रहते. अब जंगली जानवर नहीं होते. कीड़े-मकोड़े-इत्यादि. पर हम व्यवहार अब भी वैसे ही करते हैं. हमारी वायरिंग को नहीं पता कि अब उसकी जरुरत नहीं. उसे नहीं पता कि अब किसी और कबीले का आदमी है तो उससे कभी नहीं मिलना. तो अगली बार कोई ओवरटेक करके जाए तो आपको गुस्सा आना लाजिमी है. वायरिंग सोचेगी कि दुसरे कबीले का आकर ऐसे करके चला जाएगा तो अगली बार फिर आएगा, उसे सबक देना चाहिए ! हमारे दिमाग को नहीं पता कि दुनिया यहाँ आ गयी है कि कबीले की जगह फेसबुक से जुड़ गए हैं लोग. वैसे ही वो डिप्रेस हो जाता है क्योंकि उसे लोग चाहिए... घर, सामान, गाडी, घोड़े का भूखा नहीं है वो.. उसके लिए वायर होने में अभी कुछ हजार साल और लगेंगे. इसे इरेशनल बेहवियर कह लें या चेतना जैसा कुछ... हम एक हद तक गुलाम है उस प्रागैतिहासिक वायरिंग के. जो हमें खुद भी नहीं पता. फेमिनिस्ट माफ़ करेंगे लेकिन दिमागी वायरिंग कोफेमिनिस्ट आन्दोलन का नहीं पता ! पुरुष पुरुष की तरह क्यों होते हैं और महिलाएं महिलाओं की तरह क्यों होती है - उसके भी कारण हैं.फेमिनिस्ट और एवोल्यूशन वालों की कभी ठनती कैसे नहीं है? ठनती भी होगी शायद मुझे पता नहीं.

छोडिये... ये तो सुना ही होगा आपने - 'शमा कहे परवाने से... वो नहीं सुनता उसको जल जाना होता है. हर खुशी से, हर ग़म से, बेगाना होता है'. शमा-परवाना से ज्यादा शायरों को कुछ पसंद नहीं - इश्क ! इससे ज्यादा मानव सभ्यता को किसी और चीज ने प्रभावित नहीं किया. बदला नहीं - इतिहास उठाकर देख लीजिये. और जो मैं लिखने जा रहा हूँ इससे अच्छा उदहारण मुझे नहीं सुझा. परवाने को जल जाना नहीं होता. उसे नहीं पता इश्क किस चिड़िया का नाम है. दरअसल परवाने के दिमाग की जो वायरिंग है वो उस ज़माने की है जब शमा हुआ नहीं करती. तब प्राकृतिक रौशनी हुआ करती और परवाने को एंगल-वेंगल का पता चलता रौशनी से कि किधर उड़ना है. उसके दो ही काम थे - सर्वाइवल और रिप्रोडक्शन ! रौशनी देखकर उड़ना भी इसी का हिस्सा था. सभ्यता के विकास ने इंसान को ही नहीं परवाने को भी ऐसे उलझाया कि... उसे नहीं पता चलता कि जिस चीज से उसे जीवन मिलना था उसी से वो मर क्यों जाता है! वहीँ पर हजारों परवाने मरे होते हैं तब भी उसे नहीं समझ आता कि ये शमा वो चीज नहीं जो... और वो समझ भी कैसे सकता है. दिमाग को ही तो सोचना है और उसीकी वायरिंग में लोचा है. जैसे माइग्रेटरी बर्ड्स फँस जाती हैं मैनहट्टन के इमारतों की रौशनी में. तारे की जगह रौशनी देख उन्हें लगता है अब इस दिशा में जाना है ! परवाने भी वही करते हैं. यकीं मानिये उनको जलना नहीं होता. वैसे उपमा सही है. ठीक उसी तरह हम भी अक्सर समझ ही नहीं पाते कि हम कर क्या रहे हैं... 'वसीयत 'मीर' ने मुझको यही की, कि सब कुछ होना तो, आशिक न होना' टाइप। पर... समझ ही गए होंगे आप ! शमा-परवाना-मीर-एवोल्यूशन. हमारी भावनाएं हमें वैसे ही छलती हैं. वो  किसी और युग और काम के लिए बनी हैं. अगली बार आग का दरिया टाइप शायरी पढ़ते समय एक बार सोचियेगा कि क्यों है जो है सो. जीसस ने जिसे कहा - माफ़ करना ऐ भगवान, इन्हें नहीं पता ये क्या कर रहे हैं. या जिसे कहते हैं - माया, लीला, ब्रेन-वायरिंग, एवोल्यूशन.

कबीलाई सोच पर आगे - क्यों कुछ लोग हमारे अपने होते हैं? -दोस्त. और क्यों कुछ लोगों से हम दूर-दूर रहते हैं. -दुश्मन। फिर जो लोग हमें अच्छे नहीं लगते उनका भी एक दोस्तों और अच्छे लोगों का समूह होता है. आप जिसे सबसे ज्यादा बुरा मानते हैं उसका भी एक सबसे अच्छा दोस्त होगा जो उसे बहुत अच्छा आदमी मानता होगा. तो ऐसा क्यों है? रामबाण उत्तर तो आपको पहले ही बता दिया है. बस उसे फिट करना है ! हमारी वायरिंग ऐसी है कि हम खुद के और अपनों के गुण ज्यादा देखते हैं. लक्ष्य ही वही है. हमारी अच्छाई हमारा कोर (असलियत) है. हमारी विफलता के कारण होते हैं. हम जिन्हें पसंद नहीं करते उनकी बुराई उनकी असलियत होती है और उनकी अच्छाई के कारण होते हैं. उन्हें थाली में सजा के मिल गया हमने मेहनत की. बुरा हमारे साथ हो गया - उन्होंने बुरा किया. हमारे अपने रिश्वत लें तो 'उन्हें लेना पड़ता है' तक कहते सुना है मैंने !! और जो अपने नहीं है वो तो आप जानते ही हैं वही देश बेच रहे हैं. हमारे दोस्त के भी दुश्मन होते हैं, हमारे दुश्मनों के भी दोस्त. दोनों एक साथ सही हो सकते हैं?  - सोच हमारी रह गयी कबीले में रहने वाली - मैं और तुम वाली. मैं और तुम को बड़ा करते जाइए. परिवार-कबीला- -देश-धर्म. मेरा कबीला अच्छा, तुम्हारा बुरा. प्रकृति ने मुझे भी वही सोचने के लिए बनाया, तुम्हे भी. मेरा अपना 'मैं' हैं तुम्हारा अपना 'मैं'. सही पकड़ा उन ऋषियों ने जो 'वसुधैव कुटुम्बकं' कहते रहे ! 'मैं' का त्याग करने को कहते रहे.एवोल्युश्नरी साइकोलोजी कहती है - हम बने ही नहीं उसके लिए. यानी हमें वो करना पड़ेगा जिसके लिए हम बने नहीं ? -आत्म-नियंत्रण।

माया, लीला ! - ऋषि ने कहा.
एवोल्यूशन - बायोलोजिस्ट ने.

दिमाग ने सीखा है... कबीले में कैसे किसी को इम्प्रेस करना है. उसके लिए कैसे और किस हद तक जाना है. इंसान ही नहीं आप किसी जीव को उठा कर देख लीजिये. ये भी सिखाया कि कब मुड़ जाना है. कब तक पलट के देखना है. कब से नहीं देखना है. किस चीज से घृणा हो जानी है. कब तक वफ़ा, कब से बेवफा. कैसे अपने कबीले को बचाना है. मर्द ऐसे क्यों होते हैं. औरत वैसी क्यों.  प्रकृति ने पचास हजार साल पहले ठोक पीट के बनाया. फेसबुक-व्हाट्सऐप के जमाने को आत्मसात करने में उस गति से उसे पचास हजार वर्ष और लग जायेंगे और तब तक सभ्यता कहाँ पंहुच जायेगी?  ऐसा खेल है - माया-लीला-वायरिंग. जेनेटिक के साथ नॉन-जेनेटिक एवोल्यूशन भी हुआ।  विचारों का - सब माया है - वसुधैव कुटुम्बकम - आत्म नियंत्रण - बुद्ध - कितना दर्शन हमें रेडीमेड मिलता है. कृत्रिम एवोल्यूशन - बाहरी वायरिंग. पर दिमाग अब भी शिकारी के युग का है. उसका एक ही काम है स्वार्थी जीन को अगली पीढ़ी तक पंहुचाने का. झमेला बनाए रखने का. सभ्यता के साथ हुए  विचारों के विकास के बारे में प्रकृति ने नहीं सोचा था. कृत्रिम रौशनी बन गयी इंसान उड़ कर उसमें उलझने लगा.

प्रकृति ने बनाया सुख की मरीचिका  - है वो मरीचिका. पर उसे स्थायी न सोचे तो फिर उसके पीछे भागेगा कौन? ख़ुशी का काम है सिर्फ प्रोत्साहित करना. उसका तत्व ही है अनित्यता - बुद्ध काइम्पर्मानेंस ! प्रकृति का लक्ष्य ही नहीं हमेशा के लिए ख़ुश करना. 'ह्यूमन्स आर नॉट वायर्ड टू बी हैपी'. दुखी रहो अगर उससे प्रकृति के लक्ष्य पुरे हो रहे हैं तो. ख़ुशी इतने के लिए है कि लगे रहो काम में. रिवार्ड बेस्ड सिस्टम ! ख़ुशी का काम सिर्फ इतना है -रिवार्ड की ललक में बझाए रखना. प्रकृति की प्रकृति है कि एक सफलता की ख़ुशी के बाद और बड़ी सफलता चाहिए पिछली सफलता जितनी ख़ुशी के लिये - हेडोनिक ट्रेडमिल. उलझे रहो. जिंदगी में कुछ अच्छा होने के बाद  अगर इंसान को लगने लगे कि अब बस हो गया ! - हमेशा के लिए खुश ! बस अब और नहीं करना कुछ. तो जो वायरिंग है -  'सरवाइव एंड रिप्रोड्यूस' उसका क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा रिप्रोड्यूस ज्यादा से ज्यादा सरवाइव - और इस बात कीमैक्सिमम प्रोबबिलिटी तभी होगी जब... ख़ुशी - इम्पर्मानेंट हो, मरीचिका हो - हमें उस मरीचिका की ललक हो. प्रकृति को सृष्टि चलाना है. उसका काम हमें खुश करना नहीं है.

एवोल्युश्नरी बायलोजी को इस एंगल से पढो तो लगता है सब कह गए हैं ऋषि-मुनि बस जार्गन अगल हैं :)

खैर बात यहाँ से चली थी कि हमको फ़िक्र काहे को हो रही थी... उस घटना के बाद - कबीलाई सोच !

हरी ॐ तत्सत् !

--
~Abhishek Ojha~

[बोलने पर ये टॉपिक ज्यादा स्पष्ट होता है. लिखने में वो बात नहीं]

5 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "प्रेम से पूर्वाग्रह तक “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर । बढ़िया पोस्ट :)

    ReplyDelete
  3. पढते ही अकल आ गई, ज्ञान-चक्कू (मेरा मतलब, ज्ञान चक्षु) खुल गये. निष्कर्ष जे निकला कि ज्ञान भविष्यवादी है और जीव-विज्ञान भूतवादी. मतलब ये कि जो आगे जायेंगे वो कूटे जायेंगे. वक़्त से पीछे रहने वाले मज़े करेंगे. करेंगे क्या कर ही रहे हैं. जो हिंदुस्तान काटते हैं वो क़ायदे-आज़म कहलाते हैं. जे ठीक नहीं हुआ भई, लेकिन जब तक समझ में आया, ज़िंदगी कट गई ... मेरे ख्याल से संसार को बेहतर बनाना है तो जीवनकाल बढाना ही पडेगा.

    ReplyDelete
    Replies
    1. जीवनकाल बढाकर तकनीक और मूलभूत (या केवल भूत) कमियों के गैप को कम किया जा सकता है

      Delete
  4. बहुत रोचक पोस्ट..

    ReplyDelete