Aug 28, 2018

किस्सा-ए-बागवानी

[सत्य घटनाओं पर आधारित. इस पोस्ट के सभी पात्र और घटनाए लगभग वास्तविक हैं. यदि किसी भी व्यक्ति से इसकी समानता होती है तो ये और कुछ भी हो संयोग तो नहीं ही है. वैसे हमें कौन सा फर्क पड़ता है ! 😊]


कुछ दिनों पहले हमसे किसी ने कहा – ‘थोड़ा गार्डनिंग पर ज्ञान दो. तुम तो कितना कुछ लगाते हो. लकी हो, तुम्हारे हाथ से पौधे लग जाते हैं’.

पहले तो सवाल ही गलत था अपार्टमेंट में रहने वाला व्यक्ति क्या जाने गार्डेन का हाल ! फिर भी हमने बहुत कोशिश की कि अपने को और अपने हाथ को श्रेय दे ही लूं. पर हो नहीं पाया क्योंकि... इस बात को समझने के लिए...

पहले एक कथा -
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 बात बहुत पहले की है. जब लोग पैदल यात्रा किया करते थे. सड़कों के किनारे छायादार और फलदार वृक्ष हुआ करते थे जिनकी छाँव में पानी पीने की व्यवस्था होती थी. एक सज्जन यात्रा पर निकले... सुदूर किसी देश में कहीं एक दिन उन्हें एक फुलवारी दिखी। फल-फूलों के भार से झुके पेंड़-पौधे जिनपर भौरें मड़रा रहे थे... वगैरह वगैरह. माने भीषण मनोरम - इतनी मनोरम की यात्री ठहर गया. फुलवारी की सुन्दरता का अनुमान आप इस बात से लगाइए कि न तो उस जमाने में फेसबुक था. न इन्स्टाग्राम .न स्नैपचैट (ट्विट्टर भी नहीं !) फिर भी यात्री ठहर गया !

फुलवारी का मालिक दिखा तो यात्री ने मंत्रमुग्ध होने वाला एक्सप्रेशन देते हुए कहा – ‘भाई ! क्या अद्भुत बगिया है आपकी। मैं कितने ही नगर-राज्य-महाजनपद-देश घूम आया पर ऐसी खुबसूरत बगिया मैंने नहीं देखी !’

लहलहाती फुलवारी के मालिक अति प्रसन्न हुए और गर्व से बोले – ‘भाई, आखिर क्यों नहीं होगी ! इतनी मेहनत करता हूँ. खून-पसीना एक कर रखा है. ऊपर से... देखिये उन्नत किस्म के बीज और सिंचाई और.. ये और वो... जिंदगी लगा रखी है इसमें. ऐसे ही नहीं हो गयी!’.

वो इतना बोल गए जितने में बागवानी का मैनुअल छप जाता. विद्वानों की इसमें एक राय है कि मीडिया का युग होता तो वो जरूर पैनल एक्सपर्ट बने होते. चुनावी एक्सपर्ट तो बन ही गए होते जो परिणाम आने के बाद तुरत ही उसका कारण बता देते हैं ! (पत्रकार भी हो सकते थे पर संभवतः उतने भी हांकने वाले नहीं थे... पत्रकारिता के लिए तो धान के खेत में खड़े होकर उसे गेंहू कह देना भी विशिष्ट ओवरक्वालिफिकेशन होता है.) खैर ... कुछ महीने या हो सकता है वर्ष बाद... (अब समय तो लगता था पैदल आने-जाने में) वही सज्जन यात्री वापस आ रहे थे (अब देखिये प्रूफ तो नहीं है कि सज्जन ही थे लेकिन ऐसा ही कहने का चलन है). इस बार उन्होंने देखा कि बगिया उजाड़ पड़ी है. उन्हें बड़ी निराशा हुई. अब सेल्फी वगैरह का युग तो था नहीं लेकिन बगिया की खूबसूरती देखकर हो सकता है यात्री के दिमाग में आया हो कि आते समय एक चित्र ही बना लूँगा ! या उस जमाने में हो सकता है लोग सच में खूबसूरती आँखों से देखते हों और आनंदित होते हों. जो भी कारण रहा हो उन्हें लगभग बंजर पड़ी जमीन और सूखे पौधे देख बड़ी निराशा हुई. संयोग से बगिया के मालिक फिर दिख गए.

यात्री ने इस बार दुःख प्रकट करते हुए पूछा – ‘भाई, हुआ क्या? मतलब कैसे? आप तो इतनी मेहनत ?’

एक जमाने में लम्बी लम्बी हांकने वाले बगिया के मालिक बोले – ‘भाई, क्या बताएं अब. सब भगवान की लीला है. जैसी प्रभु की इच्छा.’

 कथा समाप्त.
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अरे रुकिए अभी आगे और पढना है. केवल कथा समाप्त हुई है बात नहीं.

तो ... कथा से शिक्षा वगैरह जो मिली वो तो आप समझ ही गए होंगे. उसे बताने का पांच नंबर तो मिलना नहीं जो सोदाहरण लिखा जाय और शिक्षा भी थोड़ी गहरी सी है जितना सोचेंगे उतनी खुलेगी. तो हम क्या लिखें अपनी समझ ! पर ऐसा है कि... बचपन में कहानियाँ लाखों में नहीं तो हजारों में तो सुनी ही... लेकिन उनमें से कुछ ऐसी रहीं जिनका उदाहरण जिंदगी में हर मोड़ पर मिला. ये कहानी भी वैसी ही कहानियों में से एक है. छोटी, गंभीर और सटीक.

 अब फ़ास्ट फॉरवर्ड करके आ जाते हैं वर्तमान में. अपनी बात. लोग कहते हैं कि हमारा अपार्टमेंट ‘बोटैनिकल गार्डन’ लगता है. लोगों को अजूबा इसलिए लगता है कि पचास तल्ले की बिल्डिंग के कबूतर खाने जैसे अपार्टमेंट में - कैसे इतने पौधे ! देशी-विदेशी जो भी आते हैं वो पूछते जरूर हैं पौधों के बारे में. लेकिन अब ये कथा तो बचपन से ही वायर्ड हैं दिमाग में तो हम क्या बोलेंगे.. मुस्कुरा भर देते हैं. कुछ हांकने से पहले ही कथा दिमाग में कौंध जाती है. वैसे हम करेंगे भी क्या. गमले, मिट्टी, बीज सब कुछ तो मिलता है बस हम इतना करते हैं कि लगा देते हैं. और सर्दियों में जब हिमपात का मौसम होता है. सूर्य दक्षिणायन होते हैं जब कुछ नहीं उगने का समय होता है तब मिट्टी में कोई भी बीज दबा देते हैं. कुछ दिनों में हरा-भरा निकल आता है – आलू, चना, सरसों, मुंग, उड़द. उसमें भी फूल लगता है. खुबसूरत भी दीखता है. और जब मौसम हो तब तो बीज मिलते ही हैं बाजार में.

पर लोग तो लोग - एक मित्र पहले तो दुखी हुए कि उन्होंने बहुत कोशिश की पर लगता ही नहीं. - कैसे लगाते हो? हमारे तो दिमाग के बैकग्राउंड में कथा ! तो हम माहौल में स्माइली बना देने के सिवा क्या कहते. पर कुछ देर के बाद वो पलटी मार कर खुद ही ज्ञान देने लगे - ‘अभिषेक एक गड़बड़ है. ये दो पौधों को तो तू प्रून कर दे. छंटाई करने से और फनफना के बढ़ेंगे.' दो में से एक तुलसी. हम अपने पौधों के पत्तों को कभी हाथ नहीं लगाते और वो काट-पीट के धर दिए. ‘अभिषेक, तू बेकार मोह कर रहा है ऐसे ही बढ़ते हैं! देखना.’ हम तिलमिला कर रह गए लेकिन थोडा तो समझ में आ गया कि उनके पौधे क्यों नहीं लगते ! लहलहाती फुलवारी वाले जब एक्सपर्टई करने लगे तब ‘भगवान की लीला’ हो ही जाती है और यहाँ तो बिना कुछ लगाये भी ..एक तो एक्सपर्ट ऊपर से बिन मोह दया - पौधे कहाँ से लगेंगे !

 हमारा पौधे लगाने का सिलसिला शुरू हुआ था तुलसी लगाने के प्रयास से. उसके पहले लगे लगाए रेडीमेड गमले ही लाते थे. कृष्ण-तुलसी के बीज ऑनलाइन मिल गए तो गमले और मिट्टी सुपर मार्केट में. उसके बाद तो एक से दो होते हुए दर्जन भर गमले हो गये. मन बढ़ा तो और भी पौधे लगाते गए... एक दक्षिण भारतीय मित्र से ओमवल्ली (कर्पुरावल्ली) का डंठल मिला और फिर... बैम्बू, मनी प्लांट, गेंदे के फूल, सूरजमुखी, आलू, टमाटर, पुदीना... हमारे अपार्टमेंट में फर्श से लेकर छत तक खिड़की है और वो भी दक्षिण-पूर्व दिशा में जिससे सर्दियों में दिन भर धूप रहती है. जो इस देश के लिए ग्लास-हाउस की तरह काम कर देती है और पौधे लहलहा उठते हैं – बाकी आगे कहने को तो बहुत मन हो रहा है लेकिन – कथा !. वैसे कभी-कभी गड़बड़ भी हो जाती है. जैसे - टमाटर ! हमने बचपन में जो देखा था वो टमाटर का पौधा छोटा ही होता है. लगाने के बाद पता चला कहने को चेरी टोमेटो लेकिन हो गया आठ फीट का. धागे और टेप से खिड़की के शीशे पर किसी तरह उसे सहारा मिल पाया !


 एक अन्य मित्र हमारे घर आ चुके थे और उन्होंने अपने एक अन्य मित्र को हमारे पौधों के बारे में बताया. और बात मित्र से मित्र तक जाते जाते थोड़ी तो बदलती है ही. ये मित्र के मित्र एक बार मिले तो कहने लगे (फेक अमेरिकी एक्सेंट में पढियेगा) – ‘आई हर्ड आप तो सब्जी एंड आल भी उगा लेते हैं अपने अपार्टमेंट में ! आपको तो खरीदना भी नहीं पड़ता होगा. कैसे लग जाता है यार.. मैं तो... कितने प्लांट्स लेकर आया. दे जस्ट डाई ! मैं तो मिनरल वाटर डालता था एंड यू नो प्लांट फ़ूड  वो भी खरीद के लाया. आप बताओ कुछ.’

 ...हम तो सही में कुछ नहीं करते हैं तो क्या बताते. लेकिन हमें पहले तो ये लगा कि इसके तो एक्सेंट सुन कर ही पौधे मर जाते होंगे ! दूसरी ये कि जिसे लगता है कि गमले में उगा कर खाने लायक हो जाएगा उसको कैसे समझाया जाय. हमें समझ ये नहीं आया कि ये लड़का चार साल से अमेरिका आया है और इतना एक्सेंट !वो भी हाथ मुंह टेढ़ा कर कर के ! देखिये हम जजमेंटल तो नहीं हैं लेकिन अब ऐसा भी नहीं हैं कि राजस्थान में पला बढ़ा व्यक्ति इतने एक्सेंट में अंग्रेजी बोलने लगे. बहुत से राजस्थानी दोस्त हैं अपने भी. और हम ठहरे फैन उन बनारसी के जो बीस साल से रह रहे हैं अमेरिका में. उनकी बीवी रसियन. (८०% फैनता तो यहीं हो जाती है वो ठेठ बनारसी और उनकी पत्नी .. खैर !) और आज भी जब वीजा को भ पर जोर लगाकर भीजा कहते है तो लगता है दुनिया में इंसानियत अभी ख़त्म नहीं हुई. वो चार महीने की गर्मी में लौकी नेनुआ उगा लेते हैं - उगा ही लेंगे ! खैर मिलने को  तो ऐसे लोगों से भी मिल चुका हूँ जो कह देते हैं कि वो भूल ही गए अपनी भाषा ! मुझे अभी तक ये बात समझ नहीं आई कि कोई अपनी भाषा कैसे भूल सकता है !

 खैर... इसी बात पर एक और प्रसंग –

ये उन दिनों की बात है जब खलिहान में कटी फसल पर बैलों से रौंदवाकर दवनी होती थी. एक व्यक्ति दो साल के बाद कलकत्ता से लौटकर अपने गाँव आया था. खलिहान पहुंचा तो मसूर की दवनी चल रही थी. एक तरफ अनाज ओसाकर रखा हुआ था. उसने स्टाइल (अर्थात उस जमाने का कलकत्ता रिटर्न एक्सेंट) में पूछा – ‘इत्ते इत्ते दाना क्या है?’

खलिहान में सन्नाटा पसर गया. बैल तक ठहर गए ! ऐसी विचित्र बात ही हुई थी. दो साल कलकत्ता में रह कर आया व्यक्ति मसूर भूल गया ! खलिहान में ही गाँव के एक चटकवाह (तेज तर्रार) बुजुर्ग भी बैठे थे – अनुभवी. छाया में बाल सफ़ेद किये हुए (मतलब वही कि बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये थे). उन्हें ये वाला भूत भगाना बखूबी आता था. बैठे-बैठे दो नौजवानों को उन्होंने इशारा किया. दोनों नौजवान लठ्ठ लेकर टूट पड़े. जब दो चार लट्ठ सही से पड़ गए तब कुटाया हुआ व्यक्ति चिल्लाया – ‘अरे मसूर है मसूर. याद आ गया.’ !

प्रसंग समाप्त.

 मन तो हमें भी वही हुआ लेकिन... हम ऐसी हिंसा के बस सैद्द्धान्तिक समर्थक है. इस विषय में मेरे पास लालू की सुपुत्री मिसा भारती वाली डिग्री है... प्रैक्टिकल का कोई अनुभव नहीं - फेल पास तो तब होते जब कभी कोशिश किये होते. अब हम क्या बताते इस मित्र के मित्र को, सोचें कि इसको इसीकी भाषा में समझाना ठीक रहेगा तो हमने कहा – ‘तुम्हारे प्लांट्स ओबेसिटी से मर रहे हैं. वो ठहरे.. जंगल में रहने वाले जीव. वाइल्ड. यु नो. उन्हें मिनरल वाटर और प्लांट फ़ूड खिलाओगे तो फिट कैसे रहेंगे’.

 उन्हें ये बात तुरत समझ आ गई. पर ‘जीव’ वो सुन नहीं पाए. पौधे जीव हैं. जीवन - पूरा जीवन चक्र होता है पौधों का. अगर कुछ दिन पानी न दीजिये तो देखिये वो कैसे जीने के लिए छटपटा कर परिवर्तत होते हैं. जीजिविषा से भरपूर ! सूर्य की तरफ झुके... और यदि टमाटर के पौधे को कुछ दिन पानी नहीं मिला तो फटाफट फल लग कर पक जाता है. धीरे धीरे होने वाली प्रक्रिया त्वरित हो जाती है क्योंकि उन्हें लगता है कि अब जीवन समाप्त होने वाला है अपने गुणसूत्र संचित करते चलें – वनस्पति शास्त्र ! यदि पौधे सूखने लगें तो थोडा तो सोचो कि क्या कारण हो सकता है. पानी ज्यादा है तो कम डालो. अगर जडें ज्यादा हो गयी हो तो बड़े गमले में ट्रांसफर कर दो. मत्स्यावतार की तरह बढाते जाओ गमलों का आकार.

पर यदि आप ऐसे व्यक्ति है जो खुद कुछ ठीक करने के पहले कस्टमर केयर को फ़ोन करते हैं तो आपसे पौधे क्या ही लगेंगे. हम उस वर्ग के जो यहाँ टूलबॉक्स खरीद के ले आये और निराशा होती है कि इस देश में कुछ खराब होने जैसा है ही नहीं जिसे खोल खाल के थोडा कसा जाता! कहानी का असर नहीं होता तो कह देते कि बावन बीघा में पुदीना उगता है हमारे घर ये गमलों में उगाना कौन सी बड़ी बात है लेकिन हम ऐसा कभी नहीं कहेंगे. 😊


 पौधे जीव हैं. और जीव के प्रति ...पौधों को जीव समझिये बस लग जायेंगे. और हाँ फर्जी एक्सपर्टई से बचिए.

 किसी ने कह दिया ‘ये तो बात करता है अपने पौधों से.. प्यार से रखता है.’ कथा दिमाग में आई और मैंने तुरत रोका बस-बस. यदि आपको शौक है तो लगाइए. हाथ अच्छा-बुरा नहीं होता.. पौधों में जीजिविषा होती है. वो खुद लगते हैं. (नहीं लगे तो ऊपर वाली कथा का पांच बार जाप कीजिये.)

 हमारे घर के पास ही एक सप्ताहांत किसी ने मुफ्त में ढेर सारी किताबें रखी थी (होते हैं भले लोग) उनमें से एक उठाकर ले आया. पूरी किताब में जीने की कला जैसी कुछ बात थी. पर हाय रे फर्स्ट वर्ल्ड. उसमें जो बातें लिखी थी... ऐसी थी - एक दिन गाना गाओ, एक दिन दूर तक पैदल चलो, एक दिन एकांत में जाकर चिल्लाओ, पौधे लगाओ, किसी मशीन को खोलो और उसे वापस कस दो, मिटटी खोदो और उसमें लेट जाओ, पेंटिंग बनाओ... माने कुल मिला के उसमें ये था कि आदमी इतना न सुकून की जिंदगी जीने लगा है कि जीना ही छोड़ दिया है. लेकिन पढ़ते हुए ये भी लगा कि ये सब तो वैसे ही होता है रोज जिंदगी में.. और जो ऐसा नहीं है या जिसे ये सब भी सिखाना पड़ रहा है... वो यदि ये सब करने भी लगे तो वो पगलेट जैसा ही तो दिखेगा. उसे इन बातों में जो आनंद आता है वो करने से भी न मिले शायद. किताब ‘पीड़ित रे अति सुख से !’ लोगों के लिए थी. उन्हें ये याद दिलाने के लिए कि जिंदगी ऐसी ही होती है ...जैसी होती है.  बस वैसे मत बन जाइये.

 जीवन अपना रास्ता खोज लेता है... वही जीवन, वही जीजिविषा - जो आपमें है ! वही पौधों में भी होती है... या कोई भी काम कीजिये. मन से कीजिये. लहलहाएंगे पौधों की तरह ही. आपको आनंद आएगा हर उस काम में. लेकिन कथा जरूर ध्यान में रखियेगा नहीं तो...

और  अंत में कुछ तस्वीरें. ये कैसे लगे मत पूछियेगा.  वैसे उत्तर तो आपको पता ही है – प्रभु की इच्छा !

हरी ॐ तत्सत ! 😊





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~Abhishek Ojha~

Aug 11, 2018

मेंटल (पटना २२)


चाय की दुकान पर आना जाना होने से धीरे-धीरे दो चार अजनबी लोग भी चेहरे से जानने लगे थे और उन्हीं में से एक सज्जन ने एक दिन हमें निमंत्रण दे दिया - 'आप भी आईयेगा'। यूँ तो मैं जानने वालों के यहाँ भी निमंत्रण पर नहीं जाता पर जिन लोगों के साथ ‘ज्वाइंट निमंत्रण’ मिला था वो खीँच कर ले गए. जॉइंट निमंत्रण जैसे स्विस जर्मन में अनजान लोग मिलें तो उन्हें ‘ग्रुएत्सी’ कहकर अभिवादन करते हैं और एक से ज्यादा हों तो सामूहिक ‘ग्रुएत्सी मितेनांत’ कह देते हैं. वैसे ही ‘निमंत्रण मितेनांत’ जैसा कुछ था ये. तो ‘मितेनांत’ लोगों के साथ मैं भी चला गया। अवसर था बड्डे पार्टी-कम-सत्यनारायण कथा. और आप समझ ही गए होंगे कि साथ जाने वाले चार लोगों में एक बीरेंदर उर्फ़ बैरीकूल भी था।

 हम पहुंचे पौ बंद होने के समय (पौ फटने के विपरीत वाले समय) - गोधुली का समय। मेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा लोग आए थे. महानगर का टैग होने के बाद भी है तो पटना ही. बच्चो को डिस्काउंट न करें तो कुल पचास से अधिक प्राणी तो होंगे ही. फूल-झालर भी लगा था. हम जहाँ खड़े थे वहां थोड़ी देर पहले ही पानी छिड़का गया था जिससे धुल की सोंधी गंध अभी भी उठ रही थी और बच्चे उछल कूद कर रहे थे.  कुल मिलाकर व्यवस्था टंच थी. ऐसे अवसर पर मुझ जैसे लगभग असामाजिक व्यक्ति की थोड़ी देर इधर उधर मुस्कुराने के बाद 'अब क्या करें' की अवस्था हो जाती है. पर ‘मितेनांत’ समूह के दो चार लोग थे तो माहौल इस स्तर पर नहीं जा पाया। इसी बीच किसी को कहते सुना कि जेनेरेटर किये तो थे पर आया नहीं और लाइन का क्या भरोसा? रहा तो रहियो जाएगा और गया तो कोई भरोसा नहीं ! सिलेन्डर में गैस तो है लेकिन ‘मेंटल’ नहीं है। किसी को भेज कर ‘मेंटल’ मंगा लेने की बात हुई। किसी ने अपनी मोटर साइकिल ऑफर की और एक लड़का लपक के तैयार हो गया। ‘मेंटल’ माने वही पंचलाईट में लगने वाली जाली जो जल कर गोल हो जाने के बाद दुधिया रौशनी करती थी. किरोसिन वाले पंचलैट की जगह अब एलपीजी से चलने वाले गैस पर मेंटल बाँधा जाता है. किरोसीन वाला पंचलाईट जलाना एक कला थी पिन, पम्प से हवा भरना और फूंक फूंक कर रौशनी लाना (पंचलाईट रेणुजी की प्रसिद्ध कहानी है आपने नहीं पढ़ी तो ‘पिलिच’ यहीं से क्लिक-टर्न लेकर पढ़ आइये! वही जिसमें गोधन मुनरी को देखकर सलम-सलम वाला सलीमा का गीत गाता था.)


हड़बड़ी में जा रहे उस लड़के को बीरेंदर ने बुलाया - 'अबे, इधर आ। किधर? इतना जोश में? सिंघासन खाली करो वाला पोज में?'

'अरे भईया. सब कामे अइसा कर देता है। रुकिए लेके आने दीजिये त बतियाते हैं लाइन कट गया त अंधेरा हो जाएगा। मेंटल लाने जा रहे हैं' - बाइक की चाबी हाथ में थी इसलिए ज्यादा उत्सुक था या सच में उसे चिंता थी ये समझना थोड़ा मुश्किल था। उम्र से १४-१५ साल, हाई-स्कूल का विद्यार्थी रहा होगा. पर बाइक चलाने की कोई उम्र-लायसेंस वगैरह तो होती नहीं. उसके नाटकीय भाव से ज़िम्मेदारी जरूर ऐसे टपक रही थी जैसे एक्सट्रा चीज – फ़ालतू। एक हाथ से कपार खुजाते और दुसरे में चाभी फंसाए... मुद्रा उसके उम्र से कहीं ज्यादा गंभीर थी। ( ‘एक्स्ट्रा चीज’ से एक और बात याद आई – बीरेंदर बोला था – ‘अरे महाराज पिज्जा के पागलपन का क्या कहियेगा. मोटा लिट्टा सेंक के उसके ऊपर पियाज छिड़क देता है – लिट्टा भी अधपका आ उसके ऊपर का पियाज भी. आ आदमी सब पांच सौ – हजार रुपया देके लूट लूट के खाता है?! आ जिसको अच्छा नहीं लगता है वो भी बोले कैसे? गंवार घोषित होने का रिक्स है तो सब यही बोलता है कि मजा आ गया! माने अब क्या कहियेगा रोटला के ऊपर रबड़ जैसा चीज और आधा भूंजा पियाज ! ऊपर से अच्छा नहीं लगे तब भी आदमी पैसा देकर भी अच्छा कहता है.’)

'मेंटल? मेंटल तो हमरे पास ही है एक ठो। केतना चाहिए?' बीरेंदर ने पूछा। 'आ स्टाइल थोड़ा कम कर। कुल वजन मात्र एक पौवा के हिसाब से ढेर भारी लग रहा है तोर सीरियसनेस'

'आप भी न भईया, दीजिये न है त... हमको कौन सा सौक है जाने का' लड़के ने झिझकते हुए कहा।

'एक मिनट रुक बुलाते हैं, इधरे त थी अभी।'

'का भैया आप भी ! ई मज़ाक का टाइम है?'

'अरे मेंटले न चाहिए था तुमको? दिलाते हैं।'

वो लड़का झिड़क कर निकल गया। ये 'मेंटल' तब समझ आया जब बीरेंदर ने अपनी दोस्त का परिचय कराया - 'भईया मिलिये हमारी दोस्त से - मेंटल !'

“जानते हैं भैया हुआ क्या? हम भगवान से मांगे थे मानसिक शांति। आ उ का हुआ कि अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी का चक्कर में थोड़ा गरबरा गया। हमारा उच्चारन भी तो वही है तो भगवानजी हमको ‘मेंटल पीस’ का जगह एक ठो 'मेंटल पीस' दे दिये।"

 मेंटल बोली - 'मारेंगे न रे तुमको चोट्टा। हम केतनों त चोट्टा से ठीके है।'

'चलो ठीक है लेकिन ये ठेप्पी-ड्रेस काहे पहनी हो तुम?’ बीरेंदर ने मेंटल से पूछा. मेंटल का ड्रेस दोनों कंधो पर गोल कटा हुआ था.

‘ठेप्पी?’ मैंने और मेंटल दोनों ने एक साथ बीरेंदर को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा.

‘अरे ठेप्पी माने... नहीं समझे? कहाँ से सब अंग्रेज हो गया है मेरा दोस्त सब भी. ठेप्पी माने - सैम्पल. कभी तरबूज खरीदे हैं कि नहीं? माने ऐसे घुर रहे है जैसे लैटिन-उयटिन का कोई शब्द बोल दिए हम. तरबूज बेचने वाला सब ठेप्पी मार के एक ठो छोटा सा पीस निकाल के दिखाता है. वैसा ही लग रहा है कि दरजी यहाँ काट के ठेप्पी निकाल दिया है. माने पूरे कटा हुआ होता तो बात अलग था. पूरा होता तब भी. ये बीच में ठेप्पी मारा हुआ ही तो है. ये आईडिया हम बता रहे हैं वहीँ से आया है दरजी को.’

‘तुमको फैशन का समझ तो है नहीं. तो तुम चुप्पे रहो. दरजी से कौन सिलवाता है कपडा आजकल’ मेंटल ने बुरा नहीं मानते हुए कहा.

‘अरे वही फैसन डिजाइनर भी दर्जिये तो हुआ. और अब हमको फैसन का समझ कहाँ से होगा... हमारे लिए तो फैसन ये था कि होली, दिवाली पर सारा भाई बैंड पार्टी लगते थे. एक्के थान में से काट के सबका शर्ट सिलाता था. हमको फैसन से वही याद आता है. और नया सिलाता भी था होलीये-दिवाली पर. एक्के दिन एक्के साथ सब भाई पहन एके शर्ट पहन लेते. क्या बताएं बाहर निकलने में भी सरम आता था’ बीरेंदर ने अपने बचपन के फैशन में शर्मिंदा होने की बात की और बात घुमा फिरा के पार्टी पर आ गयी.

मैंने कहा – ‘बहुत लोग आये हैं बड्डे के हिसाब से.’

‘हाँ तो आयेंगे ही. लड़के का जन्मदिन है. अन्तिमा नाम की बहन के बाद वाले भाई का’ बीरेंदर बोला और मेंटल थोड़ी गंभीर हुई.
‘मतलब?’
‘मतलब ये कि... शो स्टोपर.’
‘अब तो कौन ही फर्क कर्ता है लड़का-लड़की में’
‘लड़का-लड़की में फर्क नहीं करता है मत कहिये. डायलोग मारने में फर्क नहीं करता है कहिये. यहाँ सब डैलोगे मारते हैं कि हम अपनी बेटियों को बेटों की तरह ही रखे हैं लेकिन कभी बेटियों से बात कीजिये तो पता चलेगा. पर भईया उसीमें लड़ के, डूब के करने वाली जुझारू लडकियां हैं तो.. मेंटले को देखिये. हमेशा से तेज ! कोलम्बिया गयी थी अभी. हमको तो नक्सा में भी नहीं मालूम था कि कौन देस है !’

‘बस-बस और कुछ बोला न रे चोट्टा तो यही मारेंगे.’ मेंटल बोली.

‘देखिये भईया वो क्या है कि मेंटल दिमाग की तेज. भर-भर के इसको नंबर आता था. आ हमलोग का क्या है कि जेतना मेहनत कर सकते थे किये. जरुरत भर का आ जाता था.’

‘ये गलत बात है तुम खुद का मेहनत करते थे और उसके लिए दिमाग ही तेज था. अरे उसने भी मेहनत किया होगा. और नंबर से सब कुछ थोड़े होता है’

‘आप धर लिए हमको. नहीं... सही बात है.  पर नंबर से कुछ नहीं होता है ये हम कहेंगे तो सोभा नहीं देगा काहेकी हमको उतना नंबर कभी आया नहीं. मेंटल कह सकती है काहे कि उ लायी है तो वो कहे. मेहनत तो बहुत की ही. और आजकल जो एक नया फैसन चला है कि ‘स्क्रू योर मार्क्स’. माने सब खोज खोज के एक्जाम्पल देता है कि फलाने अनपढ़ थे आड्राप आउट थे और आज तीरंदाज हैं... अबे तो एक तीरंदाज हैं तो एक लाख ड्राप आउट पंचर भी तो साटता है? अरे तुमको नहीं पढना है कोई बात नहीं लेकिन पढाई को ही खराब नहीं कहना चहिये. और सब साला जेतना लफुआ सब है... उ जूस वाले मिसिर चाचा बताते हैं कि फेल होने के बाद उ सबेरे से ही दिन भर पता लगाने निकल जाते थे कि और कौन कौन फेल हुआ है. वही आजकल इन्टरनेट पर होने लगा है सब ड्राप आउट का फोटो ढूंढ के सब कोट लगाता है कि स्क्रू योर मार्क्स. अरे भाई जो मेहनत करके ला रहा है उसकी बेइज्जती तो मत करो. नंबर नहीं आया तो नंबरे को बुरा कह दो ? हम ये काम कम से कम नहीं करते हैं भईया. इ सब साला आतंकवादी जमात हो गया है आजकल नंबर नहीं आया तो पूरा दुनिए को दोष दे देगा खाली अपने को छोड़कर कि खुद पढाई नहीं किया. खैर... सही भी है आंकड़ा भी तो बनना चाहिए. ये नहीं गया अभी मेंटल लाने उ आंकड़े परसाद है. ५ प्रतिशत का सिलेक्शन होता है त ९०% आंकड़ा बनने के लिए भी तो कोई चाहिए न. आंकड़ा परसाद लोगों का भी महत्तव कम नहीं है'


'तुम्हे स्क्रू योर मार्क्स वाले से दिक्कत है कि मेंटल का बड़ाई कर रहे हो’ मैंने पूछा.

‘अरे भईया, आप भी न. हम तो स्क्रू शब्द का मतलब भी स्क्रू-पिलास-नट-बोल्ट ही समझते थे तो ये सब मन्त्र बोलते भी क्या! थप्पडिया और दिए जाते थे बात बिना बात. स्क्रू से याद आया एक बार सुने थे एक चाचा को बोलते हुए कि गुप्ताजी के लड़का अंग्रेजी मीडियम में पढता है उसके पास जो जेस्चर है ! क्या अंग्रेजी बोलता है गुड मार्निंग, गुड इवनिंग करता है.. हम सुने त अपने लंगोटिया यार सब का मंडली में अलगे दिन बोले कि बेट्टा कहीं से जुगाड़ लगाओ जेस्चर का. जब तक जेस्चर नहीं मिलेगा ऐसे ही थुराते रहेंगे हम लोग. हमको पता लगा है कि गुप्तवा के पास है जेस्चर. बहुत दिन तक फेरा में रहे कि कहीं से जेस्चर मिल जाए. किस दुकान में मिलता है पकड़ नहीं पाए ! हमको इतना त अंग्रेजी आता था. हम क्या स्क्रू, फक और शिट वाला मंतर पढ़ते. वैसे अच्छा था थप्पडियाए गए तभी त सीखे कि जो हर बात में दुसरे को ही गलत घोषित कर दे उ आदमी एक दम फर्जी उससे दुई लट्ठा का दूरी बना के चलना चाहिए !’

‘अरे चलिए शंख बज रहा है चलते हैं नहीं तो सब कहेगा कि खाली खाने आये थे. परसाद बटेंगा अब. केक उक भी कटाएगा लगता है. हमलोग का तो ऐसा था कि पूड़ी-खीर और सीजन में पड़ता है जन्म दिन त आम मिलता था बड्डे पर.’

‘केक के बिना बड्डे कैसे होता है?’ मेंटल ने पूछा.

‘देखिये अब यहीं मार खा गया न पटना. माने केक नहीं काटेंगे तो बड्डे क्या कहेगा कि हम नहीं होंगे?  कैसे होता है मतलब क्या ! हो जाता है बस. नहीं होता तो हम आज तक एक्के बरस के होते? माने गजब है अब कैसे समझायें कि कैसे हो जाएगा बड्डे बिना केक के’ बीरंदर ने कहा. ‘किसी वैज्ञानिक से पूछना पड़ेगा.’

‘बस बस हो गया’ मैंने बीच बचाव किया. प्लेट में परसाद मिला और साथ में छोटे से प्लास्टिक के कप में चरणामृत.

‘संतृप्त घोल बना दिया है’ बीरेंदर ने बोला.

‘अब इसमें कौन सा खुराफात सुझा तुमको? जब देखो बकर-बकर. चैन नहीं रहता है तुमको नहीं? जीभ में चक्कर है तुम्हारा हम बता रहे हैं’ मेंटल ने कहा.

‘अरे माने इतना न मीठा है. हमलोग हिंदी में केमेस्ट्री पढ़े थे त उसमें मिश्रण वाला अध्याय में एक ठो होता था कुछ संतृप्त घोल. माने पानी में इतना चीनी हो जाए कि उसके बाद और घुलने का जगह नहीं बचे. तो ये ‘चनैमृत’ वही वाला चीज है – संतृप्त घोल.’

 चरणामृत प्लास्टिक के कम में मिला था तो उसके लिए भी बीरेंदर बोल उठा – ‘इ बढ़िया हिसाब है हाथ नहीं धोना पड़ेगा. हम जो पूजा देखे हैं उसका तो पूरा बजटवे कप का खर्चा भर का होता है’

थोड़ी देर बाद हमने निर्णय लिया कि अब शकल तो दिखा ही दी है... अब वहां से निकल लिया जाय और बिस्कोमान भवन पहुँच के डोसा दबाया जाय.

जब चलने लगे तो बीरेंदर बोला – ऐ मेंटल, तुम्हारा ड्रेस तो ठेप्पी से प्रेरित था. वो देखो उ जो पहनी है उ बला ड्रेस बनाने के लिए मच्छरदानी से प्रेरित हुआ होगा फैसन डिजाइनर.’

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~Abhishek Ojha~

Mar 2, 2018

फगुआ


- फगुआ क्यों बोल रहे हो. कैसा तो लगता है सुनने में. चीप. होली बोलो.

- चीप? 'चीप' भी  कैसा तो चीप लगता है सुनने में फूहड़ बोलो. फगुआ इसलिए क्योंकि बात फगुआ की हो रही हो तो उसे होली कैसे कहें?
- दोनों एक ही तो होता है?
- एक  ही कैसे होता है? माने गुझिया और पुआ एक ही होता है? अगर होता है तो फिर फगुआ और होली भी एक ही होता है. वो बात अलग है कि गुझिया ने पुआ को पीछे ठेल कब्ज़ा कर लिया है इस त्यौहार पर.
- मतलब?
- अरे पुआ माने पुआ. गुझिया.. नाम से ही शर्माती इठलाती. सोफिस्टिकेटेड.
- पर उससे क्या फर्क पड़ता है? दोनों ही मिठाई है जिसको जो मन बनाए.

- कैसे फर्क नहीं पड़ता ! अब पहसुल और चाक़ू भी तो दोनों सब्जी ही काटते हैं. पर एक से काटने वाला दुसरे से काटे तो हाथ उतर जाए ! फगुआ पहसुल है. होली शेफ'स नाइफ. झुलनी (ईअर रिंग - कर्णफूल ) लगा वाला पहसुल देखी हो कभी? उस पर काटने वाले अलीबाबा की कहानी के मुस्तफा दरजी की तरह अँधेरे में  भी काट के धर दे.  और तुम्हे तो उन्हें काटते देख के ही गर्मी छुट जाए - ओ माई गोड इट्स सो डेंजरस ! चाक़ू से क्यों नहीं काटते ये लोग ! (पहसुल तो पता है न ?)

-  लेकिन फगुआ और होली का उससे क्या लेना देना?

- अरे वही जैसे सब्जी और तरकारी. सिलबट्टा और मिक्सर।
- कहाँ की बात कहाँ ले जा रहे हो? सब्जी और तरकारी कहाँ से आ गयी?.
- अरे.. उनमें भी वही अंतर है जो होली और फगुआ में है.

- व्हाट्? दोनों एक ही तो होता है.

- वही तो .. एक ही होता है. तरकारी माने... भरपूर. फ़ेंक-फ़ेंक के खाने जैसा. घर का. मन उब जाने तक. और सब्जी माने बाजार से ठोंगे में लाया गया. तरकारी माने घर की मुंडेर और खेत में से तौला के लाया गया बोरा नहीं तो कम से कम झोला भर - आलू टमाटर, धनिया... खेत में लगा धनिया देखा है कभी? बोझा में से तोड़ने को इफरात में मटर की छेमी. सब्जी माने प्लास्टिक के झिल्ली में लाया गया एक पौउवा आलू- एक मुट्ठी धनिया, फ्री का दो मिर्ची और फ्रोजेन मटर. एक टोकरा-बोरा में रखाता है दूसरा रेफ्रिजेरेटर में.

- लेकिन बात तो वही है? अब बावन बीघा पुदीना जैसी बात मत करो.

- बावन बीघा वाली बात में दम है. पर अब भी क्लियर नहीं हुआ ? उस रंग को क्या जाने वाला मामला हो रहा है. फगुआ और होली में वही अंतर है जो चिट्टी और व्हाट्सऐप में. पुरे मौसम बाल्टी भर के जामुन खाने वाले में और साल में एक बार ठोंगा का दो जामुन खा के 'इट इज वैरी गुड टू कण्ट्रोल डायबिटीज' कहने वाले में. फगुआ अभाव में भी इफरात का पर्व है. जो बाल्टी में जामुन खाता है उसको पता ही नहीं डायबिटीज क्या होता है ! बेपरवाह. मस्तमौला. जामुन पेंड पर होता है, खाने में अच्छा लगता है इसलिए खाता है. उसमें कितना कैलोरी है और कितने विटामिन इससे उसको क्या ! तो बस वही फर्क है - रगड़ के रंग खेलने और सिर्फ अबीर का टीका लगा लेने का फर्क जैसा. इ ब्लैके पीते हैं वो भी डीप वाला और मलाई मार के घोट के बनायी गयी चाय का फर्क. बैठ के वाटरलेस और रंग से हार्म हो जाएगा सोचने बनाम उन्मुक्त प्रवाह का फर्क है.

- व्हाटेवर !

- होली का नेशनल एंथम रंग बरसे फ़ोन पर देखने और भांग चढ़ाए ढोल-जाँझ लेकर फाग-चैता गाने वालों में घुल  जाने का अंतर है. अंतर है ... हुडदंग का और 'ओ माय गॉड ! हाउ कैन..' का. अंतर है उन्मुक्त प्रवाह में शामिल होने का और दूर से उसमें मीन-मेख करने का.

[ट्विटर पर पता चला होली को महिला विरोधी और पता नहीं क्या क्या विरोधी करार दिया गया ! फेमिनिस्ट तो खैर वैसे ही एक स्तर के बाद दिमाग से वैर पाल लेते हैं. फेमिनिस्ट ही नहीं किसी भी 'वाद' वाले. पिछले दिनों एक महिला मित्र ने हार्वर्ड क्लब में एक फेमिनिस्ट समूह में कह दिया कि मेरा पति तो... तो बात सुन कर ही सबका मुंह लाल हो गया. उनके गले ही नहीं उतरा कि एक तो पुरुष ऊपर से पति अच्छा हो कैसे सकता है ? ! ऐसा भी होता है क्या !  क्योंकि ये तो फेमिनिस्ट-वाद की मूल धारणा के खिलाफ ही बात हो गयी ! खैर. अपनी अपनी  सोच। अपने अपने संस्कार! ये सब बात नहीं करनी चाहिए देखिये असली बात ही डीरेल हो गयी इनके चक्कर में]

- फगुआ माने मदमस्त मादक (ये भी चीप?) और होली माने.. सेक्सी कह लो अगर वो चीप नहीं लग रहा तो. निराला का प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक पढ़ा है? वैसे ...घुमा फिरा के दोनों एक्के है.

- मतलब दोनों एक ही है?.

- अब जो है सो है. अब कहो कि आम पर फूल लगे हैं और कहो कि आम बौरा गये हैं तो एक ही बात तो नहीं होगी ? कुछ तो कारण है कि उसे बौराना कहते हैं ?

- तुम बौरा गए हो.

- अब तो बात ही ख़त्म !  हद हो ली.


~Abhishek Ojha~

Feb 14, 2018

तीन सामयिक बातें

तीन बातें का मतलब तीन ही नहीं, अब शीर्षक कुछ तो रखना पड़ेगा न ...बातें निकलेगी तो एक दुसरे से लिंकित होते दूर तलक जाए या आस-पास ही मंडराती रहे ...तीन पर तो नहीं ही रुकने वाली। पढ़ते हुए जहाँ भी लिंक मिले लपक के (क्लिक कर के) पढ़ आइयेगा क्योंकि असली बात वहीँ है. -


१. जेएनयू

आधी बात तो आपको जेएनयू पढ़ते ही समझ आ गयी होगी. अब ये कहने को तो यूनिवर्सिटी ही है पर न्यूज में हर बात के लिए आता है ...केवल पढाई-लिखाई से जुड़ी बातों को छोड़कर. किसी नाम को एक विचारधारा विशेष का पर्याय बन जाने के लिए प्रयास तो बहुत करना पडा होगा, नहीं ?

मेरी आदत है वहां टांग नहीं घुसाने की जहाँ का कोई आईडिया नहीं पर यहाँ आइडिया था तो...

एक व्हाट्सऐप ग्रुप पर जब जेएनयू के प्रोफ़ेसरों के लिखे कुछ (अटेंडेंस के मुद्दे पर)आर्टिकल आये तो हमें लगा कि लोग कुछ भी लिख दे रहे हैं ! अखबार में छपे और टीवी पर दिखने वाले विद्वताझाड़कों (शब्द सोर्स) से हम प्रभावित होना बहुत पहले छोड़ चुके। उसके कई कारण है. एक कारण ये भी है कि खुद भी थोड़ा बहुत तथाकथित विशेषज्ञ की हैसियत से छप चुके हैं (अब बताइये आज से तीन साल पहले जो बिटकॉइन पर लिखता था उसे तो भर-भर के पैसे बना लेने चाहिए थे, नहीं? ☺) और हार्वर्ड, स्टेंफर्ड, एमआईटी जैसे भारी-भारी डिग्री और प्रोफाइल वाले लोगों के साथ उठाना बैठना कुछ यूँ है कि (बैरीकूल की भाषा में कहें तो -) घंटा हम अब उससे इम्प्रेस नहीं होते☺ ... प्रोफ़ेसरी का भी आईडिया है. और फिर ‘धन्य धन्य ट्विट्टर कुमारा, तुम समान नहि कोउ उपकारा’. ट्विट्टर न होता तो हम बहुत से बे सिर पैर के बात करने वाले विद्वताझाड़कों को सीरियसली ही लेते रह जाते.


तो कुल मिला के हमें लगा कि आर्टिकल लिखने वालों की बात में टांग घुसाने भर का आईडिया हमें है. और ये लिखने वाले लोग कोई तोप-तमंचा नहीं है. तो हमने एक बड़ा संयमित सा जवाब लिखा. कॉलेज के दोस्तों ने कहा ‘चापे हो’ (माने अच्छा है). लेकिन ऐसा है कि विचारधारा विशेष के लोग अपनी बात कह के निकल लेते हैं. आपके तर्क सुनते हैं या नहीं ये आप सोचिये. खैर... तो वो बात यूँ थी. पढ़ा जाय - JNU Attendance Row (वैसे हम बोरिंग बात तो नहीं करते पर पढ़ते-पढ़ते आप पर अगर बोरियत माता सवार हो जाएँ तो अगली बात पर चले जाएँ, शायद उसमें कुछ मजे की बात मिल जाए. फिर से वापस आकर पढ़ने का विकल्प कहीं गया थोड़े है). सोचा हिंदी में अनुवाद किया जाय पर अंग्रेजी में ही पढ़ आइये.


२. आँख मारने वाली लड़की


वायरल, एपिडेमिक, मारक सब हो चूका तो ऐसा तो नहीं है कि आपने क्लिप नहीं देखा होगा. और मौसम भी है फगुआ का तो वैसे भी भूगोल, कर्व, तरंग, एपिडेमिक सबका मतलब और इक्वेशन बदल जाता है. सब कुछ ऐसे पढ़ा जाता है -

तन्वी श्यामा शिखरि दशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी. मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभि।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां. या तत्रा स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः।

इसका अर्थ गूगल करके पढ़िए. (मघा पर लिखने का साइड इफ़ेक्ट है).

पर सच बताएं तो हमें इस क्लिप में कुछ अलौकिक सा नहीं नहीं लगा (अपना अपना स्टैण्डर्ड है भाई ☺). ये जरूर लगा कि लोग फ़ोन, फ़िल्टर और स्क्रीन में कुछ यूँ घुसे होते हैं कि भूलने लगे हैं अदा होती क्या है ! नैन नक्श, चाल-ढाल, मुस्कुराना, शर्माना ... धीरे-धीरे साधारण बातें भी अद्भुत हो ही जानी है. जैसे फसलें कौन पहचान पाता है? आलू, टमाटर, गेंहू, बैगन, चना इन्हीं को खेत में लगा दिखा दो... कितने लोग पहचान पायेंगे? और एवोल्युशनरी बायोलॉजी की मानें तो इन्हें पहचानना तो हमारे जींस (पहनने वाला नहीं गुणसूत्र वाला) में हो जाना चाहिए था अब तक. वैसे ही... फेसबुक पर फ़िल्टर के पीछे के चेहरे लाइक करते करते हम भूल ही गए हैं कि ‘अदा’, हाव भाव, एक्सप्रेशन होता क्या है ! ज्यादा छोड़िये पिछली बार आपने किसी को सुकून से सोते हुए कब देखा था? किसी को प्यार से कब जगाया था? धुप्प अँधेरी रात में आकशगंगा कब देखा था? किसी के साथ सुकून से बैठ के बात के अलावा और कुछ भी नहीं किया हो... ऐसा कितना समय बिताया.? कभी किसी के साथ बैठकर आकाश में सप्तर्षि और ध्रुव तारा के साथ मृग-लुब्धक-व्याध देखते हुए दिशा और समय का अनुमान लगाया? (एक उम्र में मैंने घडी के साथ साथ इनसे भी देखा है कि रात को पढ़ते पढ़ते कितना समय हो गया!) कितने काम हैं जी.... जो आपने कभी नहीं किया? या अब नहीं करते? खाली पैर चले किसी के साथ? किसी की धड़कन सुने हैं क्या कभी? भारी काम नहीं है ये सब. विशेषज्ञता नहीं चाहिए. लेकिन पता नहीं क्यों मुझे चेतावनी दी जाती है कि तुम रोजमर्रा का काम लिख दो तो “रोमांटिक होने के १००१ तरीके” की किताब हो जायेगी. पर उसके बाद लड़के सब मिले के तुम्हें कूट देंगे और लडकियां तो वैसे ही पीछे पड़ी रहती हैं तुम्हारे”.

हमें नहीं पता था कि ये सब पुरातन काम भी रोमांटिक होना है – बताया गया तो लगा होता होगा. शायद नेचुरले रोमांटिक होते हैं कुछ लोग. जो कर दें वही रोमांटिक हो जाता है. वैसे क्लिप पर लौटें तो। ...हमको कुछ भी समझना-समझाना-पढ़ाना बहुत अच्छा लगता है और जब भी किसी लड़की को फिजिक्स और गणित का ‘तत्व’ समझाने की कोशिश किये... खुदा कसम (खुदा कसम की व्याख्या सीट नंबर ६३ वाली पोस्ट में है) उसके बाद वो हमें जिस नजर से देखी ...उसके सामने ये क्लिप कुछ नहीं है! किसी ने दुनिया में सोचा होगा कि ये भी रोमांटिक होता है? – स्ट्रिंग थ्योरी?! खैर अब और नहीं... बहुत लोग मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं ईमेज का बंटाधार हो जाएगा. अब श्री श्री १००८ तरीके में ही लिखा जाएगा डिटेल में. ये सब इसलिए भी कि वायरल होने में तो अदा वगैरह जो था सो तो था ही... पता चला एक फतवा भी आ गया (सही न्यूज़ है न?. नहीं भी है तो ये क्या कम है कि पढ़ के लगा जरूर ऐसा हो सकता है !). फतवा के ऊपर एक लतवा भी जारी होना चाहिए. फतवा जारी करने वाले को देखते ही लतिया देने का. ऐसा फतवा वही जारी कर सकता है जिसने कभी “चकित-हरिणी-काम-कमान” जैसा कुछ देखा ही नहीं. या फिर जिसे कभी किसी ने उस नजर से नहीं देखा जैसे बिल्ली कबूतर को देखती है (ये वाला मेरा अपना ओरिजिनल है). नैन तो बुरखे (ख होता है कि क?), हिजाब में भी दीखते हैं, माने अब क्या? ! खैर... सौंदर्य रस पर कभी और लिखा जाएगा. और वैलेंटाइन से इस पोस्ट का कोई लेना देना नहीं है. वो क्या है कि - सदा भलेनटाईन प्रेमी का, बारह मास वसंत. पर पोस्ट लिखने का मुहूर्त आज ही बन गया. आप वैलेंटाइन की पोस्ट मानकर पढ़ रहे हैं तो भी हमें कोई आपत्ति नहीं. जो बारह मास वसंत वाले नहीं नही उनके लिए एक दिन ही सही ☺


३. पकौड़े बेचना

पकौड़े बेचने का बड़ा हौव्वा रहा आजकल. मेरा एक गुजराती दोस्त है. सिविल इंजिनियर. वो पिछले पांच साल से कह रहा है – “बाबा, बहुत हुई नौकरी. अब एक फ़ूड जॉइंट खोलते हैं. डॉलर छापेंगे. देख दीप फ़ूड वाले को”. वो बस इसीलिए नहीं खुल पा रहा क्योंकि सारी रेसिपी मेरी है. और भगवान ने गिने-चुने लोगों के भाग्य में लिखा मुझ जैसे आलसी के हाथ का खाना ! नौकरी की इतनी तौहीन और पराठा बेचने की ऐसी इज्जत उससे ज्यादा कोई और नहीं कर सकता. पर लोग साधारण सी बात को भी अपनी विचारधारा में लपेट के उलझा देते है. एक लाइन की बात है – मज़बूरी और शौक का फर्क. मैकडोनाल्ड्स भी अमरीकी वडा पाव बेचने वाला रहा होगा कभी. दीप फ़ूड वगैरह वगैरह तो खैर पकौड़ा ही बेचते थे. अगर आपको रूचि हो तो पूछियेगा हम सुनायेंगे दो चार सक्स्सेस स्टोरी.

हमको जिंदगी में सबसे अधिक प्रभावित करने वाली बातों में से एक सीख मिली थी – ‘जो काम करो अच्छे से करो, घास ही छिलो तो ऐसे कि उधर से जाने वाला देख के कह उठे ...कौन है जो ऐसा काट के गया है? ! (प्लीज नोट दैट घास काटने की बात है कुछ और नहीं.)’ कालान्तर में हमने उसे थोड़ा मॉडिफाई कर दिया कि ‘जिंदगी में घास ही छिलो तो ऐसे कि कम से कम दो चार गोल्फ कोर्स का कॉन्ट्रेक्ट तो मिले ही!’ काम छोटा बड़ा नहीं होता. मैं जहाँ भी रहा वहां किसी न किसी चाय वाले की आमदनी जरूर जोड़ा और हमेशा लगा कि उसकी आमदनी ज्यादा है. मार्जिन-रेवेन्यु-प्रॉफिट हम जोड़ते ही रह गए वो आगे बढ़ते चले गए. दुनिया-जहाँ के तर्क-कुतर्क पढ़े. चिदंबरम साहब को कहते सुना कि मैं आपको देता हूँ ४५,००० रुपये - करके दिखाओ बिजनेस.

इससे पता चलता है कि किस दुनिया में जी रहे हैं लोग ! जब लोग कहते हैं कि पचास हजार महीने में बहुत मुश्किल है आज के टाइम में सरवाइव करना. सरवाइवल शब्द की बेइज्जती लगती है मुझे. मुझे पचास हजार वाली मुद्रा योजना का कुछ नहीं पता. उससे किस किस ने क्या किया वो भी मुझे नहीं पता. कितना सफल होगा... नहीं पता.

दो बातें जो पता हैं –

पहली ये कि मैं जानता हूँ ऐसे व्यक्ति को जिन्होंने किसान क्रेडिट के लोन से गाडी खरीद लिया एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी. लोन माफ़ होता गया...  किसान जो हैं.

ये करप्शन है? - हाँ.
इससे किसी को फायदा हुआ – हाँ.
जैसे होना था हुआ - नहीं.

पर वो क्या है कि चीजें इतनी साधारण नहीं होती कि जिसे भी ५०,००० रुपये मिलेंगे वो बिजनेस ही खड़ा कर देगा. वो उससे अपनी बेटी की शादी भी कर सकता है. करेगा भी. गरीबी के उस स्तर पर विचारधारा और अर्थशास्त्र नहीं चलता. और आपको लगता है कि पचास हजार में बेटी की शादी नहीं होती तो.. पचास हजार में पाँच भी होती है. आपने बस वो भारत देखा नहीं. जिसने देखा है वो जानता है. योजना की बात है तो स्वच्छ भारत योजना में बने टॉयलेट में गोईठा रखाएगा। हमने देखा है रखाते. लेकिन... कोई तो जाना चालु करेगा. आपका तर्क वैसे ही है जैसे... मनी कैन’ट बाई हैप्पीनेस सो तो ठीक है लेकिन व्हाट द हेल कैन पॉवर्टी बाई?

क्या ५०,००० से बिजनेस खड़ा हो सकता है?

इस पर दूसरी बात. स्वयं का अनुभव –

ये २०११ की बात है. इस लिंक पर इस नाचीज का लिखा. पेज नंबर ५. पढ़िए इसमें कितने रुपये के लोन की बात है और कितने रुपये के रिचार्ज कूपन का. किराए पर लेकर रिक्शा चलाने वाले के लिए ५०,००० नहीं... सिर्फ उतना जो वो रोज किराए के लिए देता है वो अपने खुद के रिक्शे के लिए क़िस्त में भरने लगता है तो उसकी जिंदगी बदल जाती है. जब मैंने माइक्रोफाइनांस में काम किया था (खाली पटना सीरीज  लिखने नहीं गया था, कुछ काम भी किया था).. लोन ५०००, १०००० के होते थे. ५०,००० के तो सबसे बड़े लोन थे. किश्तें ... २०, ५०,१००... आश्चर्य है कहाँ रहते हैं लोग? किस दुनिया में? जब किरोसिन को सोलर से रिप्लेस करने के प्रोजेक्ट पर काम किया था तो आईडिया था कि जितना एक परिवार किरोसिन के लिए महीने में खर्च करता है अधिक से अधिक उतनी ही क़िस्त होनी चाहिए सोलर लैम्प की.

क्या ये जो भी मुद्रा योजना है उसी तरह काम करेगी जैसे माइक्रोफाईनांस? –संभवतः नहीं. माइक्रोफिनांस में ब्याज दर सुन कर आपके होश उड़ जायेंगे. पर वहां स्वार्थ (इन्सेन्टिव) होता है पैसे देने वाले का कि वो सही बिजनेस में लगे. ताकि पैसे वसूल हो सके... सरकारी बाबुओं के पास ऐसा कोई इन्सेन्टिव नहीं. पर बिल्कुल ही बेकार, व्यर्थ या ये कह देने वाले कि ४०-५०,००० रुपये में कुछ हो नहीं सकता ! बिडम्बना है कि आपने कभी देखा ही नहीं भारत ढंग से. खाए पीये अघाए लोग कुछ भी लिखते-कहते हैं. और उसी तरह के लोग फिर बिना सोचे समझे जो दीखता है बिना पढ़े, सोचे फॉरवर्ड कर देते हैं. कम से कम सिर पैर तो देख लेना चाहिए ! आपके लिए पचास हजार कुछ नहीं. लेकिन आपके एक कॉफ़ी के पैसे से कम में दिन भर का खर्चा चल जाता है किसी का !

चलिए अब जाइए मौज कीजिये. पहले ही बोला था तीन पर नहीं रुकने वाली बात J

वैलेंटाइन हैं आज. तो अमेरिका में प्यार ‘सेल’ पर होता है – सुपर मार्किट, रेस्टोरेंट – हर जगह. और फ्लावर की तो खैर महिमा अपरम्पार है ही.  बाकी १००८ वाली किताब कभी आयी तो पढियेगा जरूर :)

~Abhishek Ojha~