May 27, 2019

कंठस्थ


पिछले दिनों उड़ीसा में तूफ़ान आने के बाद हिंदी की ख़बरों में भी 'मिलियन' शब्द कई बार दिखा। आजकल सोशल मीडिया में फ़ालोअर, व्यू इत्यादि की गणना भी मिलियन में ही होती हैं। ये एक छोटा उदहारण है कि पिछले कुछ सालों में भाषा कैसे बदली है।[वैसे ये भी हो सकता है कि हिंदी मीडिया वालों को मिलियन से लाख में बदलना ही नहीं आया हो और कौन रिक्स ले सोच कर वैसे ही टीप दिया हो अंग्रेजी खबरों से] मुझे कॉलेज के दिनों में मिलियन, बिलियन असहज लगता। सुनते ही दिमाग़ में गणना चलती - कितने लाख? कितने शून्य?  दिन भर मिलियन, बिलियन करने वाले व्यवसाय में आने के बाद भी धीरे-धीरे ही तीन अंकों के बाद अल्पविराम लगाने वाली ये पद्धति सहज लगने लगी।

हमने गिनती-पहाड़ा पढ़ा था एक साँस में -

एक इकाई, दो इकाई, तीन इकाई, चार इकाई, पाँच इकाई, छः इकाई, सात इकाई, आठ इकाई, नौ इकाई, दहाई में दस ! 

इकाई-दहाई-सैकड़ा-हजार-दस हजार-लाख-दस लाख-करोड़-दस करोड़-अरब-दस अरब-खरब-दस खरब-नील-दस नील-पद्म-दस पद्म-शंख-दस शंख-महाशंख! कंठस्थ.

अब सोचना भी उसी प्रणाली में होगा! सोचना भला कभी दूसरी भाषा में हो सकता है? मैं ऐसे लोगों को हमेशा शक की दृष्टि से देखता हूँ जो कहते हैं कि वो अपने बचपन में बोली गयी भाषा भूल गए। थोड़ी-थोड़ी याद है।  कैसे भूल सकता है कोई ?! पर हैं ऐसे लोग जो कहते हैं। ख़ैर ! जोड़ घटाव हम आज भी गिनती-पहाड़ा से ही करते हैं। उंगुलियों के इस्तेमाल से। पहाड़े की बात हो तो पंद्रह का पहाड़ा कंठस्थ होने की कतार में सबसे पहले आता है। दो एकम दो, दुदुनी के चार से भी पहले - पंद्रह दूनी तीस तियाँ पैंतालीस चौका साठ पाँचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बीसा नौ पैंतीसा. झमक झमक्का डेढ़ सौ।

फिर अंकों के लिखने का अभ्यास ऐसे होता था - 'लिखो  तो!पांच अरब बीस करोड़ पैतीस हजार दो सौ एकासी.'  रैंडम बड़े बड़े अंक लिखते। स्लेट भर जाने भर के अंक और शाबाशी पाते. एकासी से याद आया नौ के पहाड़े में रटते-रटते - नानावा एकासी, नाना गइले फाँसी। छोडाव ऐ नाती ! 

ये लय में कंठस्थ करने के दिन थे। कंठस्थ यानि विशुद्ध रट्टा - मतलब पता हो ना हो एक साँस और लय में फिट। बिना सोचे समझे। आजीवन। एक बार रटा गया तो देर सवेर समझ में आ ही जाएगा।

गिनती का पहला प्रैक्टिकल एप्पलिकेशन था अनाज तौलने वालों को देखना। फ़्लो में। सुंदर। वो बोरे का बोरा तौलते - रामह जी रामह, दुई जी दुई। या रामह जी रामह, दुई राम दुई - रामनाम का संपुट ज़रूर होता।

ऐसी कितनी बातें याद है। बिन पढ़े। केवल सुनकर। जो कभी पढ़नी नहीं पड़ी वो भी। पाठ्यक्रम के बाहर के  श्लोक। चौपाई। दोहा। कहावतें। मानस की अनेकों चौपाइयां जो किसी पाठ्यक्रम में नहीं थी। और दैनिक पूजा में सुने श्लोक -

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे 
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चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि। 
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कंदर्प अगणित अमित छबि, नव नील नीरज सुन्दरम्। पटपीत मानहुं तड़ित रूचि-शुची, नौमि जनक सुतावरम्
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मजेदार ये है कि कंठस्थ हो गया बिना शब्दों का पता हुए. वैसे ही याद हुआ जैसे सुना. उसी धुन में. गलत उच्चारण सुना तो गलत ही याद रहा. कुछ ज्यादा अच्छे लगते वो जल्दी याद होते। शायद वो जिनके उच्चारण में ज्यादा उतार चढ़ाव होता - कारण सिर्फ उच्चारण ही था।  अर्थ तो क्या ये भी नहीं पता होता कि ये है क्या !  बहुत कुछ ऐसा भी है जिसका अभी भी पूरी तरह नहीं पता - नाचै गोविन्द फनिंद के ऊपर तत्थक-तत्थक-न्हैया। पता नहीं पूरी कविता क्या थी या किसने लिखा.

कितनी कविताएं जो पाठ्यक्रम में नहीं थी... या पुस्तक देखने के पहले से ही याद होता। अंताक्षरी के लिए। किताब में देखकर लगता ... अरे ये तो मुझे याद है !

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था। 
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था। 
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था। 
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था। 
जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था।

और ये सब पूछने वाले बड़े-बूढ़े लोग भी मजेदार होते - प्रेडिक्टेबल - "कई नवा एक सौ बासठ?"

"अब एक बुझौव्व्ल बताओ। अजा सहेली ता रिपु ता जननी भरतार ताके सुत के मीत को बारम्बार प्रणाम".

पहली बार नहीं आया ये हो सकता था, उसके बाद ऐसा कैसे होता कि पता न हो। तेज होने के यही टेस्ट होते थे तो गहराई में जाकर हम उत्तर भी निकालने का प्रयास करते। कहीं चौपाई सुनी तो प्रसंग और स्रोत का पता लगाया जाता। लोग सिखाते भी अच्छी चीजें थे। लघुत्तम, महत्तम बाद में सीखना पहले समहर करना सिख लो. लघुत्तम, महत्तम अपने आप समझ में आ जाएगा। और ये पहली चीज थी जो ऐसे समझ आयी कि उसके बाद सीखने की जरुरत ही नहीं पड़ी। भिन्न देखते ही अंक खुलते चले जाते। गणित में मजा आने लगा। वैसे ही चक्रवाल विधि सीखा दिया था किसी ने... वर्षों बाद पता चला कि ये भास्कर के बीजगणित में वर्णित प्रसिद्द विधि है !

और एक तो ये राम को आम इतना प्रिय था कि वो आम ही खाते रहता... और हमें वो अंग्रेजी में अनुवाद करके बताना होता -

'राम आम खाता है'.
'राम आम खा रहा है'.
'राम आम खा रहा था'
'राम आम खा चूका है.'
'यद्यपि राम ने आम खाया फिर भी उसे भूख लगी थी'  वगैरह, वगैरह.

ये सब अंग्रेजी में बता दिया तो सिद्ध हो गया चलो लड़का बहुत तेज है !   शाबाश !

एक दो बार के बाद समझ आ गया था कि अब अगला सवाल ये होने वाला है - 'राम के आम खाने के पहले रेल गाडी जा चुकी थी'. (इसका जवाब ये क्यों नहीं कि - अब आमे खाये में नशा रही उनकर त गाड़ी छुटबे करी!).

वो चीजें भी सुन कर याद हुई जो हमारे बचपन में समाप्त हो गयी थी -

मन-सेर-छटाक।
रत्ती-माशा-तोला।
रुपया-आना-पैसा-पाई।

यदि किसी बड़े-बूढ़े ने भी कभी पढ़ा हो और हमने सुन लिया किसी चर्चा में तो भी याद हो गया। इन प्रणालियों के बारे में बस इतना ही सुना। एक से दूसरे में परिवर्तित करना रटा नहीं तो आज तक पता भी नहीं। श्रुति परम्परा मज़ेदार थी। पिरीआडिक टेबल तो मुझे लगता है सबने ही ऐसे रटा होता है - हली नाक रब कस फर ! बीमज कासर बारा...

पढ़ाने वाले लोग भी मजेदार थे। गणित के एक शिक्षक थे - ठेठ । उन्होंने जैसे कहा था - बहिष्कोण सुदूर अन्तः कोणों के योग के बराबर होता है। सुदूर माने ? - सटलका से दूर ! 

अब इसके बाद जीवन भर कोई कुछ भी भूल जाए सुदूर का अर्थ कैसे भूल सकता है?  - and now you can't un-listen this - सुदूर माने - सटलका से दूर !

एक दो बातें हो तो लिखी जाएँ... ऐसी कितनी बातें हैं।  त्रिकोणमिति में उन्होंने पहले क्लास में लिखा - 'पंडित भोले प्रसाद बोले हरे हरे'.  इसका कभी इस्तेमाल नहीं करना पड़ा पर देखिये याद अब भी है !

संस्कृत में तो कितनी बातें याद रही. यण संधि - इकोऽयणचि - इई का य उऊ का व ऋ का र तथा लृ का ल हो जाता है। अयादि संधि - एचोऽयवायाव: ये बोलते समय मास्टर साब लटपटा जाते। लगता उनके मुंह में रसगुल्ला अटक गया और अब घुल रहा है। और याद भी वैसे ही है। संधि-विच्छेद से नाता इसलिए भी रहा कि हमारे शिक्षक हर अध्याय के शुरू में ही पहला काम यही कराते - एक एक शब्द का विच्छेद, जहाँ भी संभव हो।  बोलते हर शब्द के संधि को पहचान उसका विच्छेद कर दो फिर विभक्ति। बस ८०% अर्थ समझ में आ जाएगा।  बाकी जो बचा वो प्रत्यय-उपसर्ग इत्यादि से समझ आ जाएगा। संधि दीखते ही विच्छेद करा देते ! पढ़ते समय भी बोलते कि विच्छेद करके पढ़ो। हम उन्हेंएंटी-संधि व्यक्तित्व वाले कहते और अब लगता है इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था संस्कृत पढ़ाने का।

याद तो शम्भू के बाप भी हैं। हिंदी में एक अध्याय था 'सफर से वापसी' जिसके लेखक थे अजित कुमार। हमसे दो साल सीनियर थे - शम्भू कुमार जो अजित कुमार के पुत्र थे। लेखक अजित कुमार और शम्भू के बाप अजित कुमार दो विभिन्न लोग थे। लेकिन किसी शरारती लड़के ने स्कूल में सफर से वापसी के लेखक का नाम बता दिया -  'शम्भू के बाप'. और ये प्रसिद्द हो गया। अब भले ये भूल जाएँ की तोड़ती पत्थर के लेखक निराला थे लेकिन सफर से वापसी - शम्भू के बाप  भला भूल सकते हैं?

भूगोल के शिक्षक ग्लोब पर हाथ फिराते - स्वीडन-फिनलैंड-इंग्लैंड-आइसलैंड... संभवतः अपने जमाने के रटे क्रम में हाथ फिराते दुनिया पर। लगता रैप कर रहे हैं।

वैसे कंठस्थ करने और कंठस्थ रह जाने में संस्कृत ही एक नंबर रही -

शैले शैले न माणिक्यं. मौक्तिकं न गजे गजे. साधवे ना ही सर्वत्रं चन्दनं न वने वने।
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अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् | परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्। वगैरह वगैरह.

और सबसे अधिक मजा आता निबंध में ये सब ठेलते हुए. कहीं से अपने हाई स्कूल के दिनों के परीक्षा में लिखे निबंध पढ़ने को मिल जाते तो खुदा कसम मजा आ जाता. (खुदा कसम वाला प्रसंग इस पोस्ट में है).

संस्कृत कुछ ऐसे ही पसंद बन गयी थी । गणित-भौतिकी-संस्कृत के बाद ही कुछ था। मुझे लगता है इसका सबसे बड़ा कारण थे शिक्षक और उनका प्रोत्साहन। एक अच्छे शिक्षक पर बहुत कुछ निर्भर करता है। किसी विषय में रूचि पैदा करने में। नीरस लगने वाला विषय कोई अच्छा शिक्षक पढ़ा दे तो वही रुचिकर हो जाए। और शिक्षक ऐसे भी जो किसी विषय में कितनी भी रुचि हो तो उसे ही बेकार बना दे।

तृतीया विभक्ति येनांग विकार: पढ़ाते हुए संस्कृत के शिक्षक एक दिव्यांग शिक्षक का उदाहरण देते। वो भी अक्सर जोर जोर से बोलकर उनको सुनाते हुए - 'स: पादेन खंज:' (स: की जगह उदाहरण में वो उन शिक्षक का नाम लिखा देते) ऐसा करना अत्यंत असंवेदनशील था। पर स्वाभाविक है उनका मजे लेकर लिखवाना वैसे के वैसे ही याद है।

किसी ने कहा - 'सर ऐसे नहीं बोलना चाहिए आपको. फलाने सर को बुरा लगता होगा'

तो उन्होंने कहा था - 'अरे वो मित्र हैं हमारे। बुरा क्या लगेगा.' उसके तुरत बाद ही ठहाके लगाते हुए बोले - 'वैसे हैं भी तो वो पुरे अष्टावक्र ! पादेन खंज: तो सम्मान ही हुआ।'

बताइये !

 वे भी दिन थे. लगता है हमने मजे-मजे में पढाई कर ली ! कैसे लोग रोना रोते हैं पढाई का :)

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~Abhishek Ojha~