Jun 25, 2009

हिंदी ही बेहतर है भाई !

यूँ तो ऐसी बातें मैं नहीं करता. क्योंकि (लगभग) सभी के लिए अपना देश और अपनी भाषा ही सबसे अच्छे होते हैं. और वो भाषा जिसमें आप बोलना सीखते हैं उसकी तो बात ही क्या है ! तो किसी एक को बेहतर कहना सही नहीं लगता. पर अपने साथ एक ऐसी घटना घटी कि... जब भी याद आती है लगता है 'हिंदी ही बेहतर है !'

अब अंग्रेजी तक तो हम लोग मैनेज कर लेते हैं. इसमें तो ‘लिखने कुछ और बोलने कुछ’ तक ही समस्या सीमित है. पर जब बात आती है अन्य भाषाओँ की तो बंटाधार हो जाता है. अब फ्रेंच ही ले लीजिये. लिखते कुछ हैं बोलते कुछ और सुनने वाले समझ कुछ और लेते हैं. बोलने वाले भी पता नहीं क्यों कंजूसी करते हैं, अरे बोलो न भाई मुक्त कंठ से इसमें कैसा परहेज ! [वैसे सुना है जर्मन भी अपने हिंदी जैसे ही होती है जो लिखो वही बोलो, पर सीख नहीं पाया तो कन्फर्म कह नहीं सकता. वैसे तो ऐसा स्टेटमेंट देने का अधिकार नहीं बनता जानता ही कितनी भाषाएँ हूँ :)]. खैर घटना सुनिए...

अब देखिये स्विट्जरलैंड में एक जगह है Rennes, अब लिखा है तो पढेंगे भी वही न? रेन्नेस. अब मैंने लोज़न (Laussanne) स्टेशन काउंटर पर पूछा कि मुझे रेन्नेस जाना है ट्रेन कब आएगी. तो बताने वाले को पता नहीं कैसे समझ में आ गया कि ये वेनिस (Venice) पूछ रहा है. लो भाई हो गया काम... बैठो ६ घंटे. क्या करता उसने तो यही बोला: 'द नेक्स्त त्रैन तू वेनिस विल दिपार्त ऐत त्वेन्ति आफ्त्र इलेवन फ्रॉम त्रैक तू' (The Next train to Venice will depart at twenty after eleven from track two) अब कहाँ 'ट' कहाँ 'द' और कहाँ 'ड' सब खिचडी.

हम तो हार मान के बैठ गए. समझ में नहीं आया कि ५ मिनट की दूरी है और छः घंटे तक कोई ट्रेन ही नहीं. तब तक एक ट्रेन दिख ही गयी, जिसे देखते ही शक हुआ कि ये तो जायेगी. हम कहाँ चुप बैठने वाले थे फिर धर लिया उसी महोदया को. अब आप परेशानी में हैं और अच्छे से काउंटर पे कोई प्यार से बताने वाली हो तो बार-बार पूछने में कुछ बुराई है क्या? एक बार फिर पूछा… और फिर मुझे समझ में नहीं आया कि वो रेन्नेस बोल रहा है या वेनिस और तो और इस बार और अड़ंगा.

'द नेक्स्त त्रैन तू वेनिस विल दिपार्त ऐत त्वेन्ति आफ्त्र इलेवन फ्रॉम त्रैक तू... दू यू हैव अ रिज़र्वेशन? यू नीद अ रिज़र्वेशन तू त्रवेल इन दैत त्रैन' (The next train to Venice will depart at twenty after eleven from track two... do you have a reservation? You need a reservation to travel in that train).

लो भाई १० मिनट के लिए रिज़र्वेशन. हमने कहा नहीं भाई हम तो ऐसे ही चले जायेंगे. हमारे पास तो टिकट भी नहीं बस ये पास है !

'नो सर, दिस पास इस नोत वैलिद फॉर वेनिस'. (No Sir, This pass is not valid for Venice). अब माथा ठनका मन तो किया कि हिंदी में मुस्कुराते हुए कुछ गालियों के साथ बोल दूं 'अरे मोहतरमा ! अभी पिछले सप्ताह ही तो हम गए हैं और कह रही हो कि नहीं जा सकते'. लेकिन लगा जरूर कुछ लोचा है. तब पेपर और पेन के सहारे लिख के दिया.

'आई वान्त तू गो तू दिस प्लेस'. तुरत बोल पड़ी: 'ओ ! यु वान्त तू गो तू रेनो'. लो यही बाकी था अब ! Rennes से Venice से रेनो. Renault को भी सुना है रेनो ही बोलते हैं. मैं सोच में पड़ गया कहीं ये Renault कार की बात तो नहीं कर रही ! रिज़र्वेशन तो पहले ही पूछ चुकी है.

तब तक एक ट्रेन पर Rennes लिखा दिख गया और मैं भाग कर उस ट्रेन में बैठा जैसे किसी भूत से पीछा छुडाकर भागा हुआ इंसान ! ओह ! हिंदी इज बेस्त सॉरी बेस्ट.





श्यामसखा‘श्यामजी ने अपने संस्मरण जानकारी और चित्र सहित कुछ यूँ भेजे हैं: हम आज जेनेवा से ४५ किलोमीटर दूरी पर बसे फ़्रेंच कस्बे अन्सी की सैर पर आए हैं! यह कस्बा एक विस्तृत झील के किनारे पर बसा है और यह झील एक नहीं कई झीलों से मिलकर बनी है या कह सकते हैं कि एक ही झील को अलग अलग जगह कई नाम दे दिये गये हैं! कारण कई जगह इस झील का पाट संकरा हो जाता है और इस संकरे पाट के दोनो ओर के हिस्सों को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है! कसबे की खासियत इसका ३०० साल पुराना बाजार है जो संकरी गलियों मे बसा है! बिल्कुल हमारे पुराने शहरों जैसा, बस इन लोगो ने अपने आर्किटेक्चर को बिल्कुल २००-३०० साल पुराना ही रहने दिया है वही ईंटो वाली दुकाने,यहां तक की बाजार की सड़कें भी कोबल स्टोन हमारी छोटी इंटो जैसे पत्थर की बनी हैं बाजार के दोनो तरफ़ झील से निकली एक नहर है! यह नहर पहले खेत सींचती थी ! अब सैलानियों हेतु इस पर होटल हैं कुछ व्यापारिक संस्थान भी हैं तथा कुछ रिहाइश भी!
आज जिस बात ने सबसे पहले ध्यान खेंचा वह था इस नहर पर बने एक छोटे पुल पर जाने वाले रास्ते पर लगे बोर्ड ने आप भी देखें चित्र.
फ़्रेंच भाषा में लिखा है -फ़्रेंच भाषा में अगर शब्द के अंत में व्यंजन आजाए तो वह मूक रहता है जैसे restorent को फ़्रांसिसी रेस्तरां बोलते हैं ज़ानि अन्तिम अक्षर टी t मूक रहता है अब आप चित्र को दोबारा देखें और पढें /यह बनेगा पिद आ त्रि और इसे हिन्दी में देखें पदयात्री ऐसे अनेक शब्द है जो लगता है संस्कृत भाषा से मिलते जुलते हैं और इनका अर्थ भी वही है!

धन्यवाद श्यामजी.


~Abhishek Ojha~

Jun 16, 2009

स्वाइन फ्लू पर सूअर महासभा की बैठक !

जब से स्वाइन फ्लू ने महामारी का रूप लिया सूअर परेशान ! आनन फानन में सूअर महासभा की इमरजेंसी मीटिंग बुलाई गयी.  तमाम तरह के सुरक्षा साधनों की समीक्षा की गयी.

एक सूअर बोल उठा 'ये सब मानव जाति की चाल है हमें बदनाम करने की. ये फ्लू-व्लू तो हमारे अन्दर सदियों से चला आ रहा है. ये हमारा आतंरिक मामला है. किसी का भी हस्तक्षेप बर्दास्त नहीं किया जाएगा. हम सदियों से मनुष्य के लिए जान देते रहे लेकिन मनुष्य को कभी फ्लू नहीं दिया.'

दुसरे ने कहा 'बिलकुल सही बात है, ये दवाई बेचने वाले कंपनियों की साजिश है. कल ही मैंने सिन्डिया टीवी पर देखा है !' 

उसी में एक ने कहा 'अबे धीरे बोलो कहीं किसी को खबर लग गयी कि एक साथ इतने सूअर एक जगह हैं तो एक और जीनोसाइड हो जाएगा. इंसान को ज्यादा दिमाग-विमाग तो होता नहीं है. हम बात करे या छींके इंसान को तो सब एक ही लगता है'.

ये फैसला हुआ कि जो भी बोलना है धीरे-धीरे. अब आदमी का कोई भरोसा तो हैं नहीं कब सनक जाय. 'हाँ तो मैं कह रहा था कि ये हमें बदनाम करने कि साजिश है. वाइरस खुद इंसानों ने बनाया है. हमारे अन्दर तो पहले से ही ऐसे वाइरस हैं. हमें कहाँ कुछ होता है? ये नया बनाकर हमें भी मार रहे हैं और खुद भी मर रहे हैं.' 
'क्या बात कर रहे हो?'
'और नहीं तो क्या? सिन्डिया टीवी वाले कभी गलत नहीं दिखाते. और-तो-और हमें बदनाम भी किया जा रहा है. कई ऐसे जगहों पर भी स्वाइन फ्लू हुआ है जहाँ सूअर ही नहीं है. आदमी से आदमी में ही फ़ैल रहा है. और आदमी से सूअर में. ये अलग बात है कि हम झेल जाते हैं और जल्दी ही इसके भी अनुकूल हो जायेंगे. अरे ये वाइरस तो प्रयोगशाला में बना है. इसमें भला हमारा क्या दोष? हम फ्लू के विक्टिम है स्पोंसर नहीं.' खुफिया विभाग वाले ने ये अन्दर की बात बताई.

'अबे तू पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी वालों से मिला था क्या? वो भी आजकल रोज यही कह रहे हैं हम टेररिज्म के विक्टिम हैं स्पांसर नहीं. अरे मैं तो कहता हूँ कि ये दुसरे जानवरों कि साजिश है. हमारी शांतिप्रियता उनसे सहन नहीं होती.'

'नहीं-नहीं उनकी साजिश से क्या होगा. मुझे पक्का पता है आदमी बस अपने मन की करता है. मुझे तो ये ओसामा-बिन-लादेन का किया लगता है. सिन्डिया टीवी पर स्पेशल रिपोर्ट आने वाली है. वो क्या है कि ओसामा इस बार दिखाना चाहता है कि वो केवल उन्ही का दुश्मन है जो सूअर खाते हैं.' सिन्डिया टीवी देखने वाला एक बार फिर बोल पड़ा.

'लेकिन ये  बीमारी खाने से तो फैलती नहीं? मैं तो कहता हूँ कि स्वाइन फ्लू को छोडो और इस साले सिन्डिया टीवी के भक्त को पीटते हैं. साला कुछ भी नमक मिर्च लगा  देखता है. और हमें भी गुमराह कर रहा है. और सिन्डिया टीवी वाले कुछ दिखाने के पहले ये तय करते हैं क्या कि दिखाई जा रही चीज से कुछ भी सेंस ना बने?'

सारे सूअर सिन्डिया टीवी के भक्त पर टूट पड़े. अब भारतीय जनता तो थे नहीं जो कोई कुछ भी दिखाए देखते रहते. उन्हें तो सुनना भी पसंद नहीं आया.

इधर आदमी को खबर लगी कि एक साथ कई सूअर आपस में लड़ रहे हैं. और इस तरह एक और जीनोसाइड हो गया.




पोस्ट-पब्लिशोपरांत अपडेट बनाम 'ब्रेकिंग न्यूज़': अभी-अभी हमारे वरिष्ठ संवाददाता से खबर मिली है कि सूअरों के बढ़ते आन्दोलन को देखते हुए अफगानिस्तान में सूअर महासभा के एकमात्र सूअर सदस्य को नजर बंद कर दिया गया है. विस्तृत खबर आप यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं.





~Abhishek Ojha~

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*सिन्डिया टीवी के भक्तों से क्षमा याचना सहित. ऐसा ही 'खबर' के नाम पर कुछ भी तो दिखा देते हैं !

Jun 1, 2009

जूतम् शरणम् … !

मैं चरण पादुका !

अब ये मत कहना कि स्टाइल मार रहा हूँ नाम तो यही है अब बदल के लोगों ने जूता कर दिया. वैसे अब मुंबई और चेन्नई की तरह मैं भी फिर से चरण पादुका ही कहलाना पसंद करूँगा. वैसे एक एक बात है मेरा इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है. अब आप भी तो अपने बीते इतिहास को गौरवशाली कह कर फूले नहीं समाते. तो मैं कौन सा कुछ ज्यादा कर रहा हूँ. मैंने तो कभी इस देश पर राज किया है. अरे याद नहीं आया? तब अयोध्या राजधानी हुआ करती थी और लगातार चौदह सालों तक मैंने राज किया था. मेरी बराबरी तो श्रीराम के अलावा आजतक कोई शासक कर ही नहीं सका. ये आजाद भारत वालों की कौन कहे... ये तो मेरे तलवे के बराबर भी नहीं. अरे उस जमाने में क्या शासन किया था मैंने ! क्या कहा? मैंने शासन नहीं किया ! ये तुम जनता की आदत है फोकट का हीरो बनने की, ये बात मुझे क्या तुलसी बाबा को भी पता थी. तभी वो क्लियर कर गए. लो देखो किससे पूछ के राज-काज चलता था:

'नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।

मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥'


तो असली राजा कौन? मैं !
अब ये मत कह देना कि करूणानिधि ने कहा है ये कोई प्रमाण नहीं है. नहीं तो मारूंगा दो ... खींच के. चुपे-चाप सुनो ! एक जूते तक का सुख नहीं देखा जा रहा तुमसे ! मनुष्य कहीं के.

पर सब दिन एक समान कहाँ होते हैं. तुम्हारे इतिहास की ही तरह मुझे भी
बहुत दुर्दिन देखने पड़े. बस पाँव का तिरस्कृत जूता बनकर रह गया मैं. बाकी सब लुट गया. वैसे आज सच्ची बात बता ही देता हूँ दरअसल बात ये है कि जब मैं अयोध्या का राजा था तभी मुझे घमंड हो गया था. तो अब फल तो भुगतना ही था. वर्ना पहले तो क्या दिन थे ! राजा तो मैं था ही और गुरु के पैर में पड़ गया तो गुरु-गोबिंद सबसे ज्यादा इज्जत मेरी ही होती थी. सारे दान मेरे ऊपर ही चढ़ते थे. पर कालांतर में मुझे अपने घमंड के पापों का फल भोगना पड़ा. उन गर्दिश के
दिनों में मरुस्थल में पड़ने वाले दो बूंद की तरह बस कभी-कभी लैला के कोमल
हाथों का शस्त्र बन मजनुओं के सिर और गालों पर पड़ता रहा. बाकी तो मत पूछो !

पर सदियों तक पाँव तले घिस-घिस कर मैं विनम्र हो गया. इतिहास ने एक बार फिर रुख पलटा और मेरी सदियों की विनम्रता का फल मिला. मैं रातों रात स्टार बन गया. जोर्ज बुश पर क्या फेक दिया गया मेरे तो दिन ही बदल गए. मेरे धकाधक क्लोन बनाए गए. एक बार फिर किसी म्यूजियम में प्रतिष्ठा देने की बात चली. और अब तो मैं उत्कृष्ट पत्रकारिता का प्रतीक बन गया हूँ. जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती उनका प्रतीक... क्रांति का प्रतीक.

अगर आप पत्रकार नहीं बन पा रहे, बन गए हो और कोई जानता नहीं या फिर आपकी आवाज़ कोई नहीं सुन रहा तो फिर एक ही उपाय है: मेरी शरण में आ जाओ. अब तो मैं संसद में चलाया जाऊँगा, कर्मचारी अपने बॉस के ऊपर, छात्र शिक्षक के ऊपर और प्रेमी-प्रेमिका के बीच तो मैं पहले से ही हूँ. सड़क के आशिक तो वैसे ही शुरू से सॉफ्ट टारगेट रहे हैं. अगर आपने किसी बड़े आदमी पर मुझे फ़ेंक दिया तो और कुछ हो ना हो आपको लाखो तो मेरे लिए ही मिल जायेंगे. किसी पार्टी से आपको टिकट मिल जायेगा या फिर आपको किसी चैनल में नौकरी मिल जायेगी. मेरी व्यापकता बढती जा रही है. जैसे मेरे दिन फिरे वैसे भगवान सबके दिन फेरे, अगर नहीं फेर रहा तो मेरी शरण में आ जाओ ! नहीं तो खाते रहो … !

~Abhishek Ojha~

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जब ऐतिहासिक हनाहन च दनादन जूता फ़ेंक प्रक्रिया चल रही थी तब से ये डायरी में पड़ा था. पहले तो ब्लॉग पर ठेलने की हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर लगा हुर्र ! ब्लॉग पर ठेलने में काहे का सोचना अपने ही लोग हैं... पढ़ा देते हैं. झेल ही लेंगे :)