मैं चरण पादुका !
अब ये मत कहना कि स्टाइल मार रहा हूँ नाम तो यही है अब बदल के लोगों ने जूता कर दिया. वैसे अब मुंबई और चेन्नई की तरह मैं भी फिर से चरण पादुका ही कहलाना पसंद करूँगा. वैसे एक एक बात है मेरा इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है. अब आप भी तो अपने बीते इतिहास को गौरवशाली कह कर फूले नहीं समाते. तो मैं कौन सा कुछ ज्यादा कर रहा हूँ. मैंने तो कभी इस देश पर राज किया है. अरे याद नहीं आया? तब अयोध्या राजधानी हुआ करती थी और लगातार चौदह सालों तक मैंने राज किया था. मेरी बराबरी तो श्रीराम के अलावा आजतक कोई शासक कर ही नहीं सका. ये आजाद भारत वालों की कौन कहे... ये तो मेरे तलवे के बराबर भी नहीं. अरे उस जमाने में क्या शासन किया था मैंने ! क्या कहा? मैंने शासन नहीं किया ! ये तुम जनता की आदत है फोकट का हीरो बनने की, ये बात मुझे क्या तुलसी बाबा को भी पता थी. तभी वो क्लियर कर गए. लो देखो किससे पूछ के राज-काज चलता था:
'नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥'
पर सब दिन एक समान कहाँ होते हैं. तुम्हारे इतिहास की ही तरह मुझे भी
बहुत दुर्दिन देखने पड़े. बस पाँव का तिरस्कृत जूता बनकर रह गया मैं. बाकी सब लुट गया. वैसे आज सच्ची बात बता ही देता हूँ दरअसल बात ये है कि जब मैं अयोध्या का राजा था तभी मुझे घमंड हो गया था. तो अब फल तो भुगतना ही था. वर्ना पहले तो क्या दिन थे ! राजा तो मैं था ही और गुरु के पैर में पड़ गया तो गुरु-गोबिंद सबसे ज्यादा इज्जत मेरी ही होती थी. सारे दान मेरे ऊपर ही चढ़ते थे. पर कालांतर में मुझे अपने घमंड के पापों का फल भोगना पड़ा. उन गर्दिश के
दिनों में मरुस्थल में पड़ने वाले दो बूंद की तरह बस कभी-कभी लैला के कोमल
हाथों का शस्त्र बन मजनुओं के सिर और गालों पर पड़ता रहा. बाकी तो मत पूछो !
पर सदियों तक पाँव तले घिस-घिस कर मैं विनम्र हो गया. इतिहास ने एक बार फिर रुख पलटा और मेरी सदियों की विनम्रता का फल मिला. मैं रातों रात स्टार बन गया. जोर्ज बुश पर क्या फेक दिया गया मेरे तो दिन ही बदल गए. मेरे धकाधक क्लोन बनाए गए. एक बार फिर किसी म्यूजियम में प्रतिष्ठा देने की बात चली. और अब तो मैं उत्कृष्ट पत्रकारिता का प्रतीक बन गया हूँ. जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती उनका प्रतीक... क्रांति का प्रतीक.
अगर आप पत्रकार नहीं बन पा रहे, बन गए हो और कोई जानता नहीं या फिर आपकी आवाज़ कोई नहीं सुन रहा तो फिर एक ही उपाय है: मेरी शरण में आ जाओ. अब तो मैं संसद में चलाया जाऊँगा, कर्मचारी अपने बॉस के ऊपर, छात्र शिक्षक के ऊपर और प्रेमी-प्रेमिका के बीच तो मैं पहले से ही हूँ. सड़क के आशिक तो वैसे ही शुरू से सॉफ्ट टारगेट रहे हैं. अगर आपने किसी बड़े आदमी पर मुझे फ़ेंक दिया तो और कुछ हो ना हो आपको लाखो तो मेरे लिए ही मिल जायेंगे. किसी पार्टी से आपको टिकट मिल जायेगा या फिर आपको किसी चैनल में नौकरी मिल जायेगी. मेरी व्यापकता बढती जा रही है. जैसे मेरे दिन फिरे वैसे भगवान सबके दिन फेरे, अगर नहीं फेर रहा तो मेरी शरण में आ जाओ ! नहीं तो खाते रहो … !
~Abhishek Ojha~
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जब ऐतिहासिक हनाहन च दनादन जूता फ़ेंक प्रक्रिया चल रही थी तब से ये डायरी में पड़ा था. पहले तो ब्लॉग पर ठेलने की हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर लगा हुर्र ! ब्लॉग पर ठेलने में काहे का सोचना अपने ही लोग हैं... पढ़ा देते हैं. झेल ही लेंगे :)
अभिषेक भाई ,थोडा देर से आये अपना जूता महात्म्य संस्करण लेकर -इष्टदेव सांकृत्यायन ने कुछ भी नहीं छोडा जूता पुराण पर -दरअसल वे जूता पुराण के प्रवर्तक हैं -ईयत्ता पर उनके पद चिह्नों की जरा खोज तो कर लें !
ReplyDeleteश्री रामचँद्र जी की चरण पादुका को सम्मान सदीयोँ पहले भरत लाल जी ने दिया और आज आपने दिया है अभिषेक भाई :)
ReplyDelete--- लावण्या
जय हो प्रभु, हम तो धन्य हुये. आज के इस कलयुगई समय मे एक यही तो तारणहार और दमित लोगों का सहारा है. इस माहात्म को कहने सुनने वाले स्वर्ग के सुखों के भागीदार होंगे.
ReplyDeleteबडी ही मोक्ष दायिनी कथा कही जी.
रामराम.
आपका सद् विचार भी ग्राह्य है ,अच्छी पोस्ट .
ReplyDeleteआहहा...क्या लिखते हो हुजूर! अथ श्री जूता-कथा...इससे पहले इष्टदेव सांकृत्यायन का अनूठा जूता पुराण जो जाने कितनी किश्तों तक चला और अब आपने भी अपने अनूठे अंदाज़ में जो इसकी महीमा का बखान किया है...
ReplyDeleteवो ’मनुष्य कहीं के’ वाली धिक्कार खूब भायी
लो जी ...अआप भी इसके भक्त हो गए .वैसे हमने पूरी जूता कथा .इयाता पर पढ़ ली है .एक एक्टेंशन यहाँ भी......करूणानिधि के नाम से आगे दुनिया के सारे बेटे बेटी अपने बापों को धमकाएंगे .एक वो थे ......ओर एक आप है .
ReplyDeleteचलिये आप की गाथा भी रोचक लगी, अजी बहुत सुंदरमं
ReplyDeleteधन्यवाद
वाह वाह तुम्हारी लेखनी तो पूरी धार में है आजकल !
ReplyDeleteबहुत देर कर दी ब्लाग पर ठेलने में। इसे वक्त पर ही आ जाना चाहिए था। इस तरह के एक आलेख से तो जिन्दगी भर के लिए कई लोग व्यंगकार हो चुके हैं। आप हैं कि छुपाए बैठे थे।
ReplyDelete'पादुका' शब्द में 'पद' जुड़ा होने से 'पैर' स्वत: संलग्न है। विश्वास न हो तो 'अजित जी' से पूछ लें।
ReplyDeleteपादुका पैरों में ही तो पहनी जाएगी, अलग से चरण लगाने की क्या आवश्यकता? हाँ, जूते की बात ही निराली है।
उम्दा और नायाब पोस्ट। बधाई।
bare hi rochak andaaz mai likha apne ye joota puran...
ReplyDeleteper ke achha laga...
राजनीति के चेहरे पर बडा जोरदार मारा है, जूता और क्या।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
Wah wah, kya mahima bakhan ki hai juto ki bhai ne
ReplyDeleteBhai ko juto ki mala se sammanit karna chahiye :D :D :D
Par kuch bhi ho aajkal ke faishon ke daur mein jute bhi kuch kam nahi hai.
I read ur article in Todays i-neXt paper...Congts.
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विश्व पर्यावरण दिवस(५ जून) पर "शब्द-सृजन की ओर" पर मेरी कविता "ई- पार्क" का आनंद उठायें और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँ !!
@KK Yadav: धन्यवाद कृष्णजी ! मुझे भी आपके माध्यम से ही पता चला. आभार !
ReplyDeleteचरणपादुका से कठपादुका तक सब चल चुकी हैं...
ReplyDeleteखड़ांऊराज से लेकर अब तो जड़ाऊराज का जमाना आ गया। जड़ाऊ, बोले तो जो जन्म से जड़े हुए हैं...
kya baat hai..... kaee tarah juta puran padh liya.....yah bhi ek achchhi jaankari
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