Dec 31, 2020

छपना ‘लेबंटी चाह’ का

मेरे ब्लॉग की सबसे चर्चित पोस्टें हैं - पटना वाली। लोकप्रिय भी*। इन्हीं में से एक पोस्ट लेबंटी चाह भी है। लेमन-टी से बना लेबंटी और चाय से बना चाह। इसी नाम से अब उपन्यास छप कर आ रहा है। 

    पटना डायरी से उपन्यास बनने तक की प्रक्रिया ‘इवोल्यूशनरी’ रही – क्रमिक विकास। ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था तो हर तरह के पोस्ट लिखा, पर पटना डायरी के मामले में पोस्ट दर पोस्ट ‘सरवाइवल ओफ़ फिटेस्ट’ की तरह लिखने की एक शैली बनती गयी। इस दौरान निरंतर अच्छी प्रतिक्रियाएँ भी आती रही। ब्लॉग पर आयी टिप्पणियों के परे भी। ईमेल, फ़ोन इत्यादि से भी कई लोगों ने सम्पर्क किया। ऐसे लोग भी जो ना तो ब्लॉग लिखते-पढ़ते हैं ना सोशल मीडिया पर ही हैं। किसी अख़बार में कहीं कुछ छप गए से ढूँढते पहुँच गए तो किसी के बताए पढ़ लिए। 

    ब्लॉगिंग के अन्य कई मित्रों की तरह मैं भी कभी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा। इससे एक अच्छी बात ये हुई कि किसी विधा की परवाह किए बिना मुक्त रूप से लिखा। लिखने की शैली (यदि कोई होती है तो) अपनी खुद की ही रही/बनी। 

    मेरे ब्लॉग से परिचित लोग बातचीत होने पर पटना डायरी का ज़िक्र करना नहीं भूलते। पहली पोस्ट से ही। मुझे याद है ढाई महीने के पटना प्रवास के दिनों में गिरिजेश राव फ़ोन कर पूछते कि अगली पोस्ट कब आ रही है? पटना के लोग भी बड़ी आत्मीयता से टिप्पणी करते। धीरे-धीरे प्रतिक्रियाओं और सुझावों में एक बात नियमित रूप लेती गयी कि इसे छपना चाहिए। पुरानी पोस्टें अभी भी लोग पढ़ते रहते हैं, याद दिलाते रहते हैं। कहने वालों ने ये भी कहा कि वो पोस्ट का प्रिंट आउट निकाल कर पढ़ते-पढ़ाते हैं। कितना सच है वो नहीं पता पर जिन लोगों ने कहा वो झूठ बोलने वाले लोग नहीं हैं। शिव कुमार मिश्र, ज्ञानदत्त पांडेय, पूजा उपाध्याय, रवि रतलामी, अनुराग शर्मा, गिरिजेश राव, अनूप शुक्ल, रंजना सिंह… दर्जनों श्रद्धेय एवं भले लोगों की कुछेक टिप्पणियाँ/बातें तो याद रह गयी। सागर ने उन दिनों बड़ी प्रेरित करने वाली टिप्पणियाँ की थी। 

    एक बार देव झा मिले तो बोले - “वाह! पटना सीरीज क कितबिया कब बन रही है!” मुझे लगा कि ये तो पहले भी सुनी हुई बात लग रही है। तो उन्होंने बताया कि अरे ज्ञानदत्तजी ने टिप्पणी की थी आपके पोस्ट पर वही याद दिला रहा हूँ। लिख दीजिए।

    पूजा उपाध्याय तो नियमित रूप से पहले कहती रही कि लिखो फिर पूछती रही कि कितना लिखा? मैंने एक बार कह दिया था कि सरस्वती पूजा तक लिख दूँगा। साल बताया नहीं था तो उसके बाद कितने भी साल निकल गए हो वादा टूटा हुआ नहीं कहेंगे। रविजी ने भी एक से अधिक बार कहा कि इसे संकलित कर भेजिए किसी को छापने के लिए। मैंने शंका दिखायी की छापेगा कौन तो लोगों ने ये भी कहा कि तुम लिख दो हम छपवा देंगे। 

पर बात आयी-गयी होती रही। 

    अनूप जी पिछले साल न्यूयॉर्क आए तो मिले। उन्होंने फ़ोन पर किसी को परिचय दिया - “अभिषेक ओझा के साथ हूँ, वही जो फ़ंक्शन फाड़ देते हैं। जो पटना लिखते थे।” फिर उन्होंने कहा - “बड़ा मज़ेदार लिखते थे तुम, छपवाओ उसे।” मैंने कहा समय का बहुत अभाव है। कभी छुट्टी लेकर लिखूँगा। तो उन्होंने कहा कि ऐसे नहीं होता। छुट्टी लेकर तो नहीं हो पाएगा लिखना। उसी में लिख दो। पर समय का अभाव ऐसा था कि दिनचर्या में ऐसा कोई काम ही नहीं था जिसमें कटौती कर समय निकाला जाय। ऐसा भी कोई काम नहीं था जिससे ज़्यादा ज़रूरी काम किताब लिखना लगे। 

    इसका एक कारण ये भी था कि सुनता हूँ लिखने वाले पढ़ने वाले से अधिक हो गए हैं। और बहुत कुछ अपठनीय भी लिखा गया है। सुनी सुनाई इसलिए बात कह रहा हूँ क्योंकि मैंने हिंदी के नए लेखकों का कुछ पढ़ा नहीं - ना अच्छा ना बुरा। मैं महीने में औसतन डेढ़ से दो किताबें पढ़ता हूँ। लेकिन हिंदी में ब्लॉग के अतिरिक्त पिछले २०-२५ वर्षों में छपी किताबें मैंने लगभग नहीं पढ़ी। ब्लॉगिंग के दोस्त-मित्रों की दो-चार किताबों को छोड़ दें तो। अपठनीय के विपरीत हिंदी में मैंने जो पढ़ा वो इतना अच्छा पढ़ा है कि पढ़ते हुए हमेशा लगा कि इतना अच्छा नहीं लिख सकते तो लिखने का कोई मतलब नहीं। और इसलिए भी हम छपने के लिए नहीं लिखते रहे। बचपन में लेखकों के बारे में जानना बड़ा अच्छा लगता। अख़बार में छपने वालों से लेकर पाठ्यक्रम की पुस्तकों के लखकों तक। हर पुस्तक की भूमिका और लेखक के बारे में भी ज़रूर पढ़ता कि ये कौन लोग होते हैं जो किताबें लिखते हैं। अक्सर बड़ा ख़तरनाक टाइप का परिचय भी होता लेखकों का -“कट्टा थे, तमंचा थे, सम्प्रति तोप हैं”। सम्प्रति शब्द का मतलब ही लेखक परिचयों से पता चला था। पर छपने वालों के प्रति जो बचपन से सम्मान था वो भी धीरे-धीरे कम होता गया। बहुत दिनों से मैंने अपना एक ट्वीट पिन किया हुआ है - “पढ़े लिखे, अखबार में छपने वाले, किताब लिखने वाले, टीवी पर दिखने वाले... बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट वगैरह वगैरह बचपन में सही में लगता था तोपची लोग होते होंगे ! धन्य हो ट्वीटर की बारिश सारे रंगे सियार हुआँ-हुआँ करते दिखने लगे !” 

    एक बात ये भी थी कि किताब से अधिक ब्लॉग की अहमियत लगती। ये वो जान सकता है जिसने उस समय से ब्लॉग लिखना शुरू किया हो जब सोशल मीडिया ऐसा नहीं था। पढ़ना इतना त्वरित नहीं था। हिंदी के ब्लॉग लोग बड़ी आत्मीयता से पढ़ते और टिप्पणी करते। (स्माइली के साथ नाइस और अप्रतिम लेखन के लिए साधुवाद जैसी टिप्पणियाँ भी थी!)। अपने तरह के लोग मिले। बड़ी अच्छी दोस्तियाँ हुई। वैसे लोग किसी और तरीक़े से कहाँ ही मिले होते! गर्व सा होता है कि हम ऐसे लोगों को जानते हैं। कुछ लिखने के बाद यदि उसकी कुछ जमा पूँजी है तो तो वो है उस पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ। ये जानना कि लोगों को वो अच्छा लगा। ये जानना कि पढ़ते हुए लोगों को लगा कि वो साथ चल रहे हैं। उनकी अपनी बात लिख दी हो जैसे किसी ने या कोई और भी ऐसे सोचता है। पढ़ कर किसी को किसी उलझन का हल मिल जाए। पात्रों के संवाद में अपनी बात झलक जाए। और ये सब पटना डायरी से भरपूर मिला। कई लोग हैं जिनसे बात कर मुझे आश्चर्य हुआ कि लोगों ने इतने अच्छे से पढ़ा है जितने अच्छे से मैंने लिखा नहीं! 

    पर स्वाभाविक है मुझे पटना डायरी पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ हमेशा अच्छी लगी तो लिखना टलता तो रहा पर ये भी था कि कभी तो लिखना होगा ही। और ये भी स्पष्ट हो गया था कि पहली किताब होगी तो पटना डायरी की शैली में ही। और अभी भी लोगों को लगता है कि किताब का अपना ही जलवा है। इंटरनेट-ब्लॉग अपनी जगह है। तो लोग कहते रहे कि किताब छपवाओ।

    चार साल पहले एक सम्पादक से मिलना भी हुआ पर उसके बाद भी आलस में बात वहीं की वहीं रह गयी। संपदाकजी की सुझाई एक बात याद रह गयी उन्होंने कहा था कि तुमने लिखा बहुत अच्छा है पर ब्लॉग तो लोगों ने पढ़ लिया है। ऐसा ही उपन्यास के रूप में लिखो, डायरी के रूप में नहीं। विचार अच्छा था पर समय के अभाव और आलस में गुम सा हो गया। 

     ऐसे कामों के लिए मुझ जैसे व्यक्ति को धक्का (nudge) चाहिए होता है। एक बार नहीं निरंतर। इसका एक उदाहरण तो यही है कि जिन समाचार पत्रों ने लिखने के पैसे भी दिए, जिन्हें पढ़ते भी बहुत लोग हैं पर कह कर भूल गए कि हर सप्ताह लिख कर भेज दीजिए वहाँ दो-चार लेखों से आगे नहीं लिख पाया। पर जिन्होंने निरंतर कहा कि अगला आलेख भेजिए। "इस बार अभी तक नहीं भेजा" कह याद दिलाते रहे वहाँ लिखता रहा। कोई करवा ले तो हो जाता है। वो धक्का (nudge) मिलता भी रहा (भगवान ऐसे दोस्त सबको दें!) तो बस पिछले साल (२०२० नहीं १९ में ही) लिख दी गयी, अनूप जी के जाने के कुछ दिनों बाद। लिखना कठिन नहीं था क्योंकि बहुत दिनों से एक कहानी मन में चलने लगी थी। किरदार बन गए थे। तो किताब पूरी हो गयी। प्रकाशक को भेजते ही उम्मीद से जल्दी उसी रूप में स्वीकार भी हो गयी। पर किताब का कवर, डिज़ाइन, सम्पादन और इन सबके साथ कोरोना। लिखी लिखाई किताब का काम धीमी गति का समाचार हो गया। हमें लगा था किताब लिखना ही सबसे धीमा काम होता है पर छपना उससे कम धीमा नहीं निकला। ख़ैर हम अपना काम कर दिए थे और जब काम किसी और के पास अटका हो तो मज़ा ही होता है। दफ़्तरों में जैसे ही लोगों को पता चलता है कि किसी और टीम के पास काम अटका है तो वो एक दम से चौड़े हो जाते हैं! - हम कर ही क्या सकते हैं फलाने टीम के पास जाइए! डीपेड़ेंसी है उनके काम पर। तो हम भी लिखने के बाद मज़े में हो गए। 

पर अब किताब आ जाएगी। जनवरी अंत तक निर्धारित है। तो एकाध सप्ताह इधर तो नहीं पर शायद उधर हो जाए।

        जब आ जाए तो पढ़ा जाए। पढ़ाया जाय। और अच्छी लगे तो लोगों को बाताया जाय। गिफ़्टित किया जाय। कोई कहे कि बहुत दिनों से हिंदी में कुछ अच्छा नहीं पढ़ा हो तो जवाब के रूप में भी बताया जाय। और हमें ज़रूर बताया जाय कि कैसी लगी। छपने के पहले सम्पादक मंडली के अतिरिक्त पाँच लोगों ने किताब का ड्राफ़्ट पढ़ा। उन्होंने तो कुछ ज़्यादा ही अच्छा-अच्छा कह दिया। पर उस पर नहीं जाना चाहिए। हाँ एक बात तो है कि पढ़ने वालों की पृष्ठभूमि बड़ी अलग-अलग थी। हिंदी पढ़ने वालों से लेकर ऐसे जिन्होंने एक दशक या उससे भी बाद हिंदी पढ़ी। और सभी पढ़ने वालों की ‘मुझे सबसे ज़्यादा अच्छी बात ये लगी’ वाली बातें अलग-अलग थी। पात्र, संवाद और अध्याय भी सबको अलग-अलग पसंद आए। मुझे बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें बतायी गयी पर उन्हें बताने पर लगेगा कि किताब बेचने के लिए कह रहा हूँ। पर …मुश्किल है कि पढ़ते हुए किसी को ऐसा ना लगे कि वो किरदारों के साथ नहीं चल रहे हैं। या कहीं ना कहीं उन्हें पढ़ते हुए खुद की बात ना मिल जाए। है तो उपन्यास ही पर पढ़ने वालों को पढ़ते हुए व्यंग, रोमांटिक, नोस्टालज़िया, भाषा, समाज से लेकर गम्भीर बातें तक भी मिली। 

    ख़ैर कैसी किताब होगी ये तो आप पढ़ने वाले बताएँगे वो बताना या सोचना मेरा काम नहीं है। मेरा काम था लिखना। बेचने के लिए मेहनत करना तो मुझसे होने से रहा। तो पढ़ कर बताया जाय। ईमानदार प्रतिक्रिया/आलोचना/समीक्षा ज़रूरी है। क्योंकि एक लिखने के बाद अब और लिखने का प्रस्ताव और विचार दोनों है। 

    जिन टिप्पणियों/बातों ने लिखने को प्रेरित किया उन्हें भी यहाँ संकलित करना ऐसे हो जाएगा जैसे किताब बेचने के लिए लिख रहे हैं। पर हैं कम से कम दो दर्जन टिप्पणियाँ और ईमेल हैं जो इस वारदात के लिए क़सूरवार ठहरायी जा सकती हैं। उन्हें किताब के लिए जल्दी ही वेबपेज बनेगा तो वहाँ संकलित किया जाएगा।  

किताब राजपाल एंड संस से आएगी। 

    बाकी कवर, किताब ख़रीदने के पते-ठिकाने, लिंक वग़ैरह की जानकारी जैसे ही आएगी दी जाएगी। किताब आने के पहले सोशल मीडिया वग़ैरह पर जानकारी तो दिखेगी ही। मेरे पेज पर भी और अन्यत्र भी। तो उसे अनदेखा नहीं करना है। किसी और कि बात होती तो चल जाता यहाँ तो मामला अपने घर जैसा है। बात आप समझ ही रहे हैं :)

 नव वर्ष की शुभकामनाएँ। मंगलमय हो। 

 *चलते-चलते:वैसे एक प्रेमपत्र और एक कविता वाली (दोनों ही मैं लिखता नहीं गलती से कभी लिख दिया था) पोस्ट एकाकी रूप में सबसे अधिक पढ़ी गयी पोस्ट हैं। पर अपवादों के लिए कब नियम रुकें हैं।

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~Abhishek Ojha~

Dec 14, 2020

झाल कूटना

‘झाल’ अर्थात् झाँझ (झाल मुरी वाला झाल नहीं)। काँसे का बना हुआ ताल देने का वाद्य यंत्र जिसे मंजीरा भी कहते हैं। 

अब झाल वाद्य यंत्र है तो इसके साथ क्रिया होनी चाहिए बजाना अर्थात् ऐसे - झाल बजाना। वो होती भी है लेकिन झाल के लिए कूटना भी एक क्रिया होती है। हमने इसे कैसे जाना वो बता देते हैं। आशा है अर्थ भी स्पष्ट हो जाएगा। 

हमारे पड़ोस में एक सज्जन (ऐसा ही कहा जाने का चलन है तो इसे उनका कैरेक्टेर सर्टिफ़िकेट ना समझा जाय) रहते थे। वो ‘झाल-कूटने’ का वाक्य में बड़ा अद्भुत प्रयोग करते। एक उम्र तक हमें लगता रहा ये कोई मुहावरा होता है, हो सकता है होता भी हो हमें
ठीक-ठीक नहीं पता। उनके बच्चे नहीं पढ़ते या लड़ाई-झगड़ा करके आते तो वो कहते – “नालायक कहीं के, यही सब करो फिर झाल कूटना”। 

गुस्साते तो कहते – “जाओ झाल कूटो”। 

 इस वैधानिक चेतावनी का मतलब हम वही समझते रहे जो आप समझे। उनके बच्चों पर भी इसका वैधानिक चेतावनी सा ही असर होता। उन्हें घंटा फ़र्क़ नहीं पड़ता था। मतलब एक घंटे तक भी उन पर इस बात का कोई असर नहीं होता। पर झाल कूटने का अर्थ इतना भी सरल नहीं। एक दिन उन्होंने किसी व्यक्ति के झाल कूटने का वर्णन किया तो लगा कि इसका अर्थ इतना हल्के में भी नहीं लिया जा सकता। वो बोले – “फलाना आदमी क्या झाल कूटता है! ग़ज़ब। दिल से। बाकी लोग झाल बजाते हैं वो कूट देता है। समझिए कि जब धुन में होता है तो दुरमुस देता है। जब लय जमती है तो वो तो जैसे वहाँ होता ही नहीं है। अपना शरीर झँझोड़ के रख देता है। सिर, कंधे और हाथ एक्के फ़्रीक्वेंसी में झूमता है उसका। कैसे बताएँ – एकदम ग़ज़ब। आपको देखना चाहिए कभी। उस समय बग़ल में आग भी लग जाए तो वो ताल और लय छोड़ कर नहीं हिल सकता। उस समय उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अग़ल-बग़ल क्या हो रहा है। जब ढोलक, मृदंग वग़ैरह का लय सुस्त होता है तब जाकर कहीं वो कूटना बंद करता है।” 

 किसी ने कहा – “अरे चिल्लम का ज़ोर रहा होगा”। 

 तो बुरा मान गए। बोले “चिल्लम से वो काम नहीं हो सकता भई, आप देखे नहीं हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं।” 

तब हमें ये भी लगा कि फिर झाल कूटने को ये इतना बुरा क्यों मानते हैं? बड़ी पावरफुल चीज लगती है। पर अक्सर उनकी नज़र में इसका अर्थ एक दम घास काटने वाले हिसाब जैसा ही होता। घास काटने को तो हम बचपन से ही इज्जत देते आए हैं जिसे हम पहले बता चुके हैं कि जबसे सुना कि घास भी काटो तो ऐसे कि गोल्फ़ कोर्स का ठीका मिले, तब से तो हमें लगा घास काटना भी नायाब काम है। फ़र्ज़ी बदनाम है। पर झाल कुटाई ठीक-ठीक समझ नहीं आ पायी। अर्थ अभी भी वही रहा – एकदम बेकार। निकम्मा। किसी काम का आदमी नहीं। (वैसे पिछले तीनों का अर्थ एक ही होता है लेकिन बात में वजन लाने के लिए लिखा।) 

 “तबाह कर के रख दिया है, संतान है कि दुश्मन! जाओ झाल कूटो तुम लोग।” कूटना हमेशा बजाने से बहुत ऊपर की चीज लगती। हमने स्वयं भी देखा एक दो बार किसी मंदिर में, तो किसी मंडली में झाल बजाने में रमें लोगों को पर उससे भी अर्थ पूरी तरह समझ नहीं आया। क्लीयर भी नहीं हुआ कि ये बजाना है या कूटना।

 जब उनके बच्चे बड़े हुए तो एक ने बड़ी मेहनत की। उन्होंने भी मेहनत की कि बेटा गुमटी लगा देते हैं, टेम्पो चला लो। बेटा लेकिन बाप की बात का गाँठ बांध लिया था। कहता कि बाबूजी हम झाल नहीं कूटेंगे। अब जो भी मतलब होता हो। हमने पारिवारिक मुहावरा समझ लिया था। हमारे लिए सुनी-सुनाई बात थी। किसी व्याकरण की किताब में तो पढ़े नहीं थे। बस वाक्य में प्रयोग किया ही सुनते आए थे अर्थ पता नहीं था। उनके लड़के की सरकारी नौकरी की उमर निकलने लगी तो दसवीं की परीक्षा फिर से देकर उसने उमर का नया सर्टिफ़िकेट रोप दिया। उसे झाल जो नहीं कूटना था। नए उमर का पौधा भी कहाँ एक दिन में बड़ा होता – कम उमर करवा के फिर से दसवीं दिया। बारहवीं दिया। इस सबके बाद अंततः लड़के ने सरकारी परीक्षा निकाल ली। नए काग़ज़ों में उमर अभी भी लड़के की ही थी तो लड़का ही कहेंगे वैसे उसके बाल बच्चे भी अब स्कूल जाने लगे थे। ख़ैर मूल बात ये कि सरकारी नौकरी मिल गयी। 

 स्वाभाविक है बेटे की नौकरी से वो बड़े प्रसन्न हुए। साक्षात भगवान के दर्शन जैसी बात थी। मुहल्ले के चौराहे पर खड़े होकर (दरअसल तिराहा था पर आपको कौन सा उसका दाखिल-ख़ारिज कराना है।) दोनों हाथ ऊपर कर आशीर्वाद देते हुए बोले – “जाओ बेटा अब तो सरकारी नौकरी हो गयी। तुम बहुत मेहनत किए। तार दिए हमको। अब क्या? मन करे काम करो, नहीं मन करे तो झाल कूटो।” 

 मामला और अटक गया। अब तक का समझा सब गोल हो गया! हमारा दिमाग़ चकरा गया। ये क्या माजरा है! लगा ये तो बड़ा व्यापक मुहावरा है। आशीर्वाद भी झाल कूटो, गाली भी झाल कूटो! जब यही था तो ज़िंदगी भर बच्चों को गलियाते किस बात का रहे? बात समझ नहीं आयी। समय अपनी गति से चलता रहा (वो थोड़े ना झाल कूटेगा!)। हमें ज़िंदगी कहीं का कहीं ले गयी। लेकिन संयोग से कुछ सालों बाद एक बार उनसे सामना हुआ। हमने अच्छा मौक़ा देख विनम्रता से पूछ ही लिया - “चाचा आप झाल कूटने का बड़ा सुंदर उपयोग करते हैं। ज़रा उस पर प्रकाश डालिए। हम दर्जन भर देश गए लेकिन ऐसी व्यापक बात किसी से नहीं सुनी।”

बहुत खुश हुए। बहुत ही। तीसरी बार भी लिख दे रहा हूँ उन्हें इतनी ख़ुशी हुई कि उन्हें थोड़ी देर तक समझ नहीं आया कि इतनी ख़ुशी फूट के आ रही है कि उसका करें क्या। जैसी किसी कवि की कविता कोई सुनने को तैयार ना हो और कोई आकर ऐसा कहे कि कवि से बेहतर वो समझ गया हो। आराम से चौड़े होकर बताए। लेकिन उमर हो गयी थी उनकी। उतनी की उस उमर में इंसान बातें अक्सर मिश्रित कर देता है। बोले- “देखो बेटा हम ज़िंदगी भर सरकारी नौकरी किए। उदाहरण तो बहुत है हमारी ही ज़िंदगी में। लेकिन हम बता दें तुमको कि हम रात के शिफ़्ट में फ़ैक्ट्री कम्बल लेकर जाते थे। क्योंकि दिन भर घर का काम करते।” 

 हमें कर्मठता और कम्बल का सम्बन्ध समझ नहीं आया, इसमें झाल कुटाई का ज़िक्र भी कहीं नहीं था। पर हमारे पूछने के पहले ही वो बोले - “हम शिफ़्ट में आठ घंटा कम्बल तान के सोते थे। फ़ाउंड्री से लेकर हेभी मशीन सब विभाग था वहाँ। बग़ल में भट्ठी भी थी तो हर कुछ दिन पर मशीन का एक आध नट खोल के उसीमें स्वाहा कर देते। मशीन बंद रहती तो हम कैसे काम करते? मशीन को भी आराम हम को भी आराम। निर्भेद सोते। और उसी से हम ये भी सीखे कि नींद का शोर से कोई लेना देना नहीं। जो आदमी नहीं सो पाता है शोर उसके दिमाग़ में होता है। बाहर का शोर होता तो हम कभी फ़ैक्ट्री में सो पाते? अरे जैसे चलती ट्रेन में हड़-हड़-गड़-गड़ में आदमी सो ही जाता है। है कि नहीं? वही घर में बोलता है कि शोर से नींद नहीं आयी।” 

“कभी कोई दिक़्क़त”

“दिक़्क़त? सरकारी नौकरी थी। कोई झाल थोड़े कूट रहे थे? प्रमोशन भी टाईम से हुआ। एक बार हमसे हमारे बॉस, बड़े साहब, बोले कि आपको फलाने विभाग में डाल रहे हैं वहाँ काम ठप पड़ा है। आपको जाकर चालू करना है।” 

हम बोले – “ठप पड़ा है? तो हमको क्यों भेज रहे हैं सर? आपको नहीं पता कि हमारा स्पेसलाइज़ेशन ठप कराने में हैं। चालू कराना है तो किसी और को भेजिए? और देखो बेटा, नहीं हुआ हमारा तबादला। कोई क्या उखाड़ लेगा। सरकारी नौकरी के लिए आदमी ऐसे ही थोड़े ना जान देता है। और अब समझे तुम ? हम क्यों बोले अपने लड़के को कि काम करने का मन हो तब तो भाई कोई क्या कर सकता है, नहीं तो झाल कूटो! काम ही करना होता तो बताओ बेटा उससे अधिक पैसा किस नौकरी में नहीं मिलता है? जितना साल मेरा बेटा गँवा दिया उतने में कहाँ पहुँचा होता। मेहनत करके आदमी कहाँ से कहाँ जाता है। उतनी ही योग्यता और कर्मठता पर भला कौन आदमी सरकारी नौकरी में उतना सफल होगा जितना मेहनत करके किसी और क्षेत्र में? लेकिन सरकारी नौकरी का इतना चार्म क्यों है? हम ऊपर-नीचे की आमदनी की बात नहीं कर रहे हैं। वो छोड़ के तुम्हीं बताओ कहाँ जीवन भर का ऐसा गारंटी मिलेगा झाल कूटने वाले आदमी के लिए।” 
 
“पर ज़माना बदल रहा है अब वही बात नहीं रही। और मेहनत तो सरकारी नौकरी में भी लोग करते हैं।” 
 
“तुम लोग ख़ुशक़िस्मत हो बेटा, जिसे कभी सरकारी दफ़्तर में किसी काम से जाना नहीं पड़ा। तुम लोग इधर-उधर निकल गए। तुम्हारी बात से पता चलता है कि तुम्हें इस विषय में कुछ नहीं पता। बस विज्ञापन और फ़ेसबुक-ओसबूक देख के तुम्हें लगता है कुछ बदल गया है। देखो बेटा, आग लग के भस्म हो जाए और तुम सरकारी ऑफ़िस में एक आदमी को नहीं ढूँढ पाओगे कि पानी डालना किसकी ज़िम्मेवारी थी। किसी की नहीं होती। आजतक एक इंसान की ग़ैर-ज़िम्मेदार होने के लिए या परफ़ोर्मेंस ख़राब होने लिए सरकारी नौकरी नहीं गयी। गयी भी तो कोर्ट से जीत के वापस ले लेगा। बस एक बार मिल जाए। जर-जोरू-ज़मीन किसी का ऐसा गारंटी नहीं जैसा सरकारी नौकरी का।”

“फिर चल कैसे रहा है? ऐसा थोड़े होता है कि कोई काम ही नहीं करता।”

“चल कैसे रहा है मतलब? भगवान को मानते हो? दुनिया कैसे चल रही है? वैसे ही।”

“अरे लेकिन…”

“लेकिन क्या? एक साथ कई निकम्मे बैठा दो तो एक सिस्टम बन जाता है और लगता है काम हो रहा है और… समझोगे नहीं पर काम होता भी है। और एकाध अपवाद तो हर जगह मिल ही जाएँगे। तुम्हें क्या लगता है प्राइवेट में झाल कूटने वाले लोग नहीं होते? कहीं कम कहीं ज़्यादा हर जगह होते हैं।”

“लेकिन झाल कूटने का मतलब?”

“अरे हम क्या बता रहे थे कि एक बार हम कम्बल ओढ़ के सो रहे थे…” 

थोड़ी देर में बात ऐसी घूम गयी कि हमें लगा जैसे एफ़ेम के पहले के जमाने के रेडियो ने शॉर्ट वेव में किसी और फ़्रेकवेंसी का स्टेशन पकड़ लिया हो और रसियन में कुछ बजने लगा हो। सच कहूँ तो मुझे अभी भी पूरी तरह झाल कूटने का मतलब समझ आया नहीं। पर कई बार कुछ देख मेरे मन में ज़रूर आया कि शायद यही मतलब रहा होगा उनका। 

 मेरे एक मित्र हैं ग्रीस के। उनकी बातें सुन लगता है ग्रीस यूरोप का बिहार है। अरे बिहार से मेरा मतलब वो नहीं है कि इधर मगध-पाटलिपुत्र-चाणक्य-बुद्ध और उधर सुकरात-प्लेटो-अरस्तु-एथेंस वग़ैरह वग़ैरह इधर भी स्वर्णिम उधर भी स्वर्णिम। मेरा मतलब वही था जो आपको पहली बार पढ़ते ही लगा। वो बताते हैं कि उनके पिता बचपन में उन्हें धमकाते कि पढ़ो नहीं तो कंस्ट्रक्शन में काम करना। उन्होंने बताया कि पिता ये भी बताए होते कि किस देश के कंस्ट्रक्शन में काम करना पड़ेगा तो थोड़ा अच्छा होता। अमेरिका में करना होता तो अच्छा ही होता। वो ये बता रहे थे तो मेरे कान में बजा – "पढ़ो नहीं तो झाल कूटना। ये वाला ज़्यादा व्यापक है।"

 वो बताते हैं ग्रीस में सरकारी नौकरी का पागलपन। बाकी यूरोप में ऐसा नहीं है। उनसे बात कर मुझे पहली बार लगा कि जिस देश में सरकारी नौकरी का चार्म जितना अधिक हो वहाँ झाल कुटाई उतनी अधिक है – निकम्मापन भी उसी हिसाब से है। किसी देश में भ्रष्टाचार, विकास, एफ़िसीएंसी-फ़लाना-ढिमाका ...किसी भी इंडेक्स से अच्छा माप ये होगा कि किस देश में लोग सरकारी नौकरी के लिए कितने पागल हैं। किसी देश में बच्चे सपना देखते हैं कि बड़े होकर कम्पनी खोलेंगे, फ़िज़िक्स में नोबेल जीतेंगे और किसी देश में ये कि बड़े होकर किसी सरकारी दफ़्तर में लाल बत्ती लगा क्लर्क का काम करेंगे। 

...और तब मुझे लगा झाल कूटना कहने से उनका मतलब क्या होता रहा होगा। 

मुहावरा हो ना हो उसकी व्यापकता मन में बढ़ती गयी। और जब मैं सुनता हूँ किसी योग्य सरकारी कर्मचारी को ये कहते कि उन्हें अन्य क्षेत्र में काम कर रहे उनके दोस्तों की तुलना में बहुत कम पैसा मिलता है, तो दिमाग़ में प्रश्न उठता है कि फिर क्या मजबूरी है? पहले नहीं पता था क्या मिलेगा? अभी ही छोड़कर कुछ और कर लें। लेकिन आनंद फ़िल्म के ईसा भाई सूरतवाला की तरह वास्तविकता तो ये हैं कि जब राजेश खन्ना आनंद के किरदार में कहते हैं - मैंने तो छोड़ दी!तो ईसा भई कहते हैं - "छुटती कहाँ है ये काफ़िर मुँह से लगी हुई।" तो समझ में आता है कि झाल कूटना से उनका शायद ऐसा कुछ मतलब रहा होगा। 

 एक बार एयर इंडिया से मैंने यात्रा की थी। कुछ साल पहले। मुंबई में रात को समय से बैठ गए। जहाज़ को आधी रात के लगभग उड़ना था। फ़ोन बंद करवा दिया गया। कुर्सी की पेटी भी बँधवा दी गयी। घोषणा के अनुसार जहाज़ उड़ान के लिए तैयार थी। जब लगा कि कुछ ज़्यादा ही देर से उड़ान के लिए तैयार है, हिल-डुल तो रही नहीं। फिर तैयार किसलिए करवा दिए बिना बात मेकअप ख़राब हो रहा होगा? तो बताया कि रनवे ख़ाली नहीं है। लोग बैठे रहे, हम भी बैठे रहे। लोग मान लेते हैं कि कह रहे हैं तो सही ही कह रहे होंगे, अब कोई कुर्ता (जींस-टी-शर्ट वग़ैरह भी सोच लजिए नहीं तो डिसक्रिमिनेशन का केस बन सकता है) फाड़ के थोड़े ना चिल्लाने लगता है ऐसी बात पर? सुबह पाँच बजे के लगभग बोले कि इस विमान में तकनीकी ख़राबी है। किसी ने पूछा नहीं कि रनवे बिजी होना और तकनीकी ख़राबी एक ही परिवार से हैं या आज संयोग से एक साथ मिल गए? अब जिस चीज़ का कोई उत्तर नहीं हो उसे तकनीकी कहा जाता है ऐसा तो चलन है ही - तकनीकी ख़राबी भी व्यापक है। बताया गया कि आपलोग दूसरे विमान से जाएँगे। सब लोग दूसरे में चले गए। सब लोग में हम भी थे। इसी सब में सुबह आठ बज गए और हम रनवे तक नहीं पहुँच पाए। हमने हमें एयर पोर्ट लेने आने वाले को फ़ोन किया कि अभी तक मुंबई में ही हैं - इधर कार्यक्रमात थोड़ा राडा हो गेला आहे। बताइए मुंबई की सुबह और हम कुर्सी की पेटी बांधकर बैठे थे! ना वड़ा पाव, ना पोहा, ना कटिंग। मुंबई में इसके अलावा ऐसी मनहूस सुबह हमने नहीं बितायी। (साला जतरा ख़राब था ये हम सोचे नहीं थे अब ध्यान आ रहा है! जतरा समझते हैं ना आप लोग?)

 पौ फटने के बाद ही जहाज़ उड़ पायी। घोषणा हुई कि सारा खाना इस जहाज़ में लोड नहीं हो पाया तो एक बार ही भोजन मिलेगा। हमारी भोजन की आवश्यकता बहुत नहीं होती तो हमने इसके लिए भी कुछ नहीं किया। कुछ लोगों की काँय-कूँय ज़रूर सुनाई दी पर कोई क्रांति नहीं हुई। 

असली मज़ा तब आया जब लगभग निर्धारित समय के दस घंटे बाद हम अपने समान के लिए खड़े थे। एक आदमी एक लिस्ट लेकर आया और बोला कि लगभग आधे लोगों का समान नहीं आया है। उसने कहा कि इस लिस्ट में अपना नाम देख लीजिए। बिना माइक पर घोषणा हुए भी बात जंगल के आग की तरह फैल गयी। उन्होंने कहा कि अगर आपका नाम इसमें है तो वहाँ जाकर फ़ॉर्म भर दीजिए आपका सामान नहीं आया है। अब हमारा नाम ऐसे किसी लिस्ट में कैसे नहीं रहेगा? जहां योग्यता से नहीं रहे वहाँ भी अलफाबेटिकल से टॉप पोजिशन कौन छीन सकता है (फ़ैशन के दौर में ये गारंटी भी नहीं रही, डबल ए से नाम लिखने वाले खेल ख़राब कर दे रहे हैं)। पर हमने सबसे पहले गोरों की शक्ल देखी, अपना क्या हम तो फिर भी समझते हैं! एक गोरे ने सू-सू करने की धमकी दी (दो बार गलती से लिखा गया एक बार ही पढ़ा जाय)। उसे विश्वास नहीं हुआ कि जब लिस्ट है, पहले से पता था तो इतनी लम्बी फ़्लाइट में बताए क्यों नहीं? सात समंदर पार करने में एक बार इन्हें ये बताने का नहीं सूझा?! उसे भी किसी ने बताया कि वहाँ काउंटर पर फ़ॉर्म भरना है। मुझे पता था वहाँ भी लाइन लगेगी तो मैं पहले से ही वहाँ था। मेरे लाइन में मेरे पीछे खड़े होकर उसने मन भर गालियाँ दी। (एक मन में चालीस किलो होता है अगर कोई शंका हो तो)। मुझे नहीं एयर इंडिया को।

 मैंने फ़ॉर्म भरते हुए काउंटर पर बैठी लड़की से पूछा कि ऐसे कैसे हो जाता है? और मेरा सामान कब तक आएगा। उसने बोला सर आप इस नम्बर पर फ़ोन करके पूछ लीजिएगा हमें कोई जानकारी नहीं है।

 हमने अपने पीछे के लोगों का मूड देखकर छोड़ दिया। मन में तपोबल जैसा जो भी होता हो उसे पूरा बटोर कर शाप देते हुए कि तुम्हारी खड़ूसियत का बदला मेरे बाद आने वाले तुमसे ज़रूर लें। भला आदमी इसके अलावा और कर भी क्या सकता है। 

 कई दिन तक मैं फ़ोन करता रहा। उस नम्बर पर नहीं। इंटर्नेट से ढूँढे नम्बर पर। क्योंकि उस नम्बर पर कभी किसी ने फ़ोन नहीं उठाया। कॉल सेंटर पर ये दबाएँ, वो दबाएँ होने के बाद कभी-कभार बात हो जाती तो मुझे इतना समझ आ गया कि उधर बैठा प्राणी उसी वेबसाइट को देखकर मुझे स्टेटस बता रहा है जहां मैं भी देख लेता हूँ। मैंने एक दिन सुकून से पूछा कि भई तुम्हें हिंदी आती है? वो बोला हाँ। मैंने कहा फ़ोन मत रखना और कट जाए तो मुझे फ़ोन करना। बड़ी ज़रूरी बात है। अपनी भाषा में आराम से की जाएगी बात। अंग्रेज़ी में गाली भी दो तो वजन नहीं आता। 

मैंने आराम से सारी कहानी सुनाई और पूछा कि ये बताओ किससे बात करूँ? कौन ज़िम्मेवार है? कौन है जो कुछ कर सकता है उसी से बात की जाएगी? वो बोला सर मैं समझ गया। आप क्लेम कर दीजिए। आपके समान का पैसा भी मिल जाएगा। देरी के लिए भी आपको पैसे मिलेंगे। मैंने कहा भई वो मेरे क्रेडिट कार्ड वाले ने भी कहा कि वो पैसे दे देंगे पर उन्होंने कहा कि एक फ़ॉर्म पर एयर इंडिया से किसी का साइन चाहिए तो मैंने कह दिया कि फिर रहने दो नहीं चाहिए पैसे। तुम इतना सुनने के बाद भी मुझे बता रहे हो कि पैसे मिल जाएँगे? समान ही भिजवा दो पैसे रहने दो। 

 इसके बाद उस भले आदमी ने मेरी आँखें खोल दी। बोला सर आपकी परेशानी मैं समझ रहा हूँ पर मेरा काम यहाँ लिखे लिखाए उत्तर पढ़ के सुनाना है। और ये बताना है कि एयर इंडिया आपकी सेवा में है। आपका सामान सुरक्षित आप तक पहुँचना हमारा काम है - ये बताना मेरा काम है पहुँचाना नहीं। आप समझ ही गए मैं किस वेबसाइट से देखकर बताता हूँ। इससे अधिक मेरे हाथ में कुछ है नहीं। आप फिर फ़ोन करेंगे मैं फिर वही पढ़कर सुना दूँगा। और ज़िम्मेवारी तो सर किसी की नहीं है। मैं आपको किसका नम्बर दूँ? एक आदमी होता तो मैं नम्बर नहीं भी देता तो बता देता कि किसकी गलती है। कोई ज़िम्मेवार है ही नहीं तो मैं किससे बात करने को कहूँ। और कोई कुछ नहीं कर सकता। रोज होता है ये। और एयर इंडिया की मुंबई नूअर्क फ़्लाइट में तो हर दूसरे दिन क्योंकि उसमें इतना समान आता ही नहीं। वो एयर क्राफ़्ट ही नहीं है इतनी दूरी तक उड़ाए जाने वाला। अक्सर आधा समान इधर ही रह जाता है। बाद में कार्गो से जाता है। आप न्यूज़ सर्च कर लीजिए मिल जाएगा। अब आप ही बताइए कौन ज़िम्मेवार है? और कौन करा सकता है आपका काम? हम तो बस पढ़ के बता देते हैं आपको। न्यूज़ पढ़ने वाले की तरह कई बार ये भी नहीं पता होता कि हम क्या पढ़ रहे हैं। मैंने कहा - "यार चलो कोई बात नहीं तुम झाल कूटो। एयर इंडिया चुनने के लिए आपका धन्यवाद वाली लाइन आज मत बोलना।"

(पोस्ट लम्बा ना हो जाए पर घटना इतनी छोटी नहीं थी। मैंने ये उदाहरण यूनिवर्सिटी के मास्टर्स की क्लास के स्टूडेंट्स को सुनाया था जब किसी ने पूछा था कि आन्साम्बल लर्निंग में कई वीक लर्नर को मिला देने से स्ट्रॉंग लर्नर कैसे बन सकता है! मैंने सोचा उदाहरण सटीक है वो भूलेंगे नहीं। ख़ैर बात कहीं और निकल जाएगी।)

अंततः मेरा सामान आया दस दिन बाद। और तब मुझे थोड़ा और समझ आया कि सरकारी काम में झाल कूटना क्या होता है। मैं सोशल मीडिया पर देखता हूँ तुरत जवाब आता है कि हम आपकी समस्या देख रहे हैं। हमसे भी एयर इंडिया ने पीएनआर और टैग नम्बर माँगा था ट्विट्टर पर। जैसे सामान लेकर घर के बाहर ही खड़े हैं। हमें डीएम कीजिए, कभी ये भी कह देते हैं कि आपकी समस्या हल हो गयी है - हमें जानकारी भी नहीं होती। उनका बस इतना काम होता है कि ट्विट्टर पर तुरत जवाब दे देना है। और उसके बाद कम्बल तान के सो जाते हैं। मशीन का नट खोलकर भट्ठी में डालकर। तो थोड़ा समझ आता है कि वो झाल कूटना शायद इसे कहते थे। 

 मुझे सरकारी दफ़्तरों से अधिक पाला नहीं पड़ा। गिने चुने बार। पासपोर्ट, पैन, ड्राइविंग लायसेंस जैसे काम के अलावा कभी चक्कर नहीं लगाया मैंने किसी सरकारी दफ़्तर का। एक सुख का पैमाना ये भी हो सकता है कि जितना कम इस चक्कर में पड़ना पड़े। लेकिन जब भी कभी थोड़ा बहुत काम पड़ा – थोड़ा सा समझ आया कि चाचा क्या कहते थे जब कहते थे कि झाल कूटो। वैसे ये तो नहीं कह सकता कि पूरा समझ आया। आपको समझ आया हो तो बताइएगा। अब वो रहे नहीं कि उनसे और क्लीयर किया जाय।* 

* और लिखा तो झाल कूटने वाले मिल के मुझे कूट देंगे :)

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~Abhishek Ojha~