Dec 31, 2021

सरल करें!

बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि किस बात पर ये बात कही गयी थी वो अब याद नहीं, पीठिका शब्द किस संदर्भ में आया था वो भी याद नहीं। पर ये बात अब भी याद है। 


ऐसी कई बातें होती हैं जिनकी वास्तविक समझ बिना अनुभव नहीं हो पाती। ऐसी ही एक बात है परीक्षा में किसी को चोरी करते हुए देखना। जब तक आप विद्यार्थी होते हैं ऐसा लगता है कि कोई थोड़ी सी चोरी कर ही ले तो कौन सी दुनिया इधर की उधर हो जाएगी। पता नहीं क्यों इस बात पर प्रोफेसर हलकान होते हैं? या ये भी कि कोई थोड़ा सा इधर-उधर देख ही ले तो कौन सा किसी को पता चल रहा होगा। पर ये एक ऐसी चीज है जिसका पता लगाने के लिए कुछ करना ही नहीं होता। चोर की दाढ़ी में तिनका की तरह जो विद्यार्थी ताक-झाँक कर रहे होते हैं वो अक्सर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी बहुत गम्भीर विषय पर सोच रहे हों। अपने बगल वाले की उत्तर पुस्तिका में झाँकते हुए कोई दिख जाए तो तुरंत सोचने की मुद्रा में आकर छत की तरफ देखने लगता है। कुछ तो हवा में हाथ से ऐसी-ऐसी मुद्राएँ बनाने लगते हैं जैसे हायर ड़ाइमेशन की किसी वस्तु को देखने की कोशिश कर रहे हों। जिन्हें लगता है कि वो आसानी से चोरी कर लेते हैं उन्हें कहाँ पता होता है कि वो इसलिए कर लेते हैं क्योंकि जिसे पकड़ना है वो करने देता है, इसलिए नहीं कि वो स्मार्ट चोर हैं।

एक शिक्षक के लिए इसे नजरंदाज करना बहुत कठिन होता है। असली दिक्कत ये होती है कि एक ईमानदार विद्यार्थी से अधिक अंक यदि चोरी वाले का आ जाए ऐसा होते तो नहीं देखा जा सकता। जब ग्रेडिंग रिलेटिव हो तब तो ये और कठिन हो जाता है। और अगर कुछ विद्यार्थी सामूहिक रूप से कोई प्रश्न हल कर दे तब तो ईमानदार सामान्य विद्यार्थियों की बैंड ही बज जानी है। 

एक बार हमारे एक क्लास में भी ऐसा ही हुआ। एक असाइनमेंट का हल कई विद्यार्थियों का एक जैसा ही निकला! अब सबको अंक मिल जाए इस बात से तो मुझे कोई दिक्कत नहीं थी पर उस समाजवाद में जिन्होंने मेहनत कर ईमानदारी से हल करने की कोशिश की थी उन्हें ही कम नम्बर मिल जाते। ग्रेडिंग करते हुए पंच परमेश्वर कहानी की तरह लगा… ग्रेड का फैसला तो बिना भेदभाव वाला और न्यायप्रिय ही होना चाहिए। 

हमने एक दो विद्यार्थियों से बात की तो वो साफ मुकर गए!  एक ने तो ये भी कहा कि आपने ही तो कहा था कि पढ़ाई में एक दूसरे की मदद करो। तो एक दूसरे की थोड़ी मदद कर दी है। जमाना ही ऐसा है। मुझे ऐसे लगा जैसे किसी व्यक्ति को डॉक्टर सलाह दे कि स्वास्थ्य के लिए थोड़ा वजन कम करो और वो उसी पर चढ़ बैठे*: “मेरे बारे में ऐसे कैसे बोल दिया आपने? हम तो body positivity प्रैक्टिस कर रहे थे! बड़ी मेहनत से अपने शरीर को प्यार करना सीख रहे हैं।…” वगैरह. (*बीरेंदर ने लेबंटी चाह में बताया है कि चढ़ बैठने का अर्थ ये नहीं होता है कि कहीं चढ़ के कोई बैठ जाएगा। माने मुहावरा है।)

ऐसे में जब चीजों को क्वांटिफाई कर दिया जाए तो अक्सर (लगभग) दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। यदि समस्या को गणितीय रूप दे कर कह दिया जाए – “सरल करें” तो गणित का आदमी कर ही देगा। (जिन्होंने बचपन में गणित हिंदी माध्यम से पढ़ा हो वो ‘सरल करें’ का अर्थ समझ गए होंगे। हमारे एक गणित के शिक्षक कहा करते – सरल करने को कहा गया था तुम लोग सड़-ल कर दिए हो।) हम पढ़ाते भी मशीन लर्निंग हैं तो हमने सोचा मशीन लर्निंग से ही पता लगाया जाय कि किसके असाइनमेंट में कितना प्रतिशत किसके असाइनमेंट से चोरी है। 


जब ये पता लग गया तो मैंने क्लास में नम्बर देने का फ़ॉर्म्युला बता दिया। कोड दे दिया और कहा कि किसी को फ़ॉर्म्युले से आपत्ति हो तो सुधार करे। परिणाम लगभग सटीक था। उम्मीद से बेहतर। पूरी क्लास ने कहा कि ये तो शत प्रतिशत सच निकल आया! अब किसी को आपत्ति भी नहीं रही। इस तस्वीर में ४० विद्यार्थी हैं। १०० मतलब पूरा ही नकल, शून्य अर्थात् कुछ भी एक जैसा नहीं। जो लाल क्षेत्र में आए थे वो सन्नाटे का छंद हो गए। जो पीले में थे उनमें से कइयों ने बताया कि उन्होंने हल तो खुद से ही किया पर कुछ हिस्से में उन्होंने दूसरों से भी लिए। हरे वाले प्रसन्न!

वैसे अक्सर दो तरह के विद्यार्थियों पर ही पढ़ाने वालों का समय जाता है – एक जो पीछे पड़कर सीखते हैं। दूसरे वो जिनके पीछे पड़ना पड़ता है कि वो किसी तरह पास हो जाएँ। इस चार्ट के बाद भी यही हुआ।

ऐसा होना चाहिए ...जिससे हवा में उड़ने वालों को आइना दिखे! आजकल सोशल मीडिया पर जब रोज कुछ चीजें दिखती हैं तो अक्सर लगता है दुनिया कुछ तो सरल हो जाएगी जब चीजों को ऐसे हल किया जा सकेगा। जब लोगों को उनका पाखंड (हिपाक्रसी) स्पष्ट दिखने लगे। किसी के ट्वीट्स पर मॉडल लगा दो और वो बता दे कि ये आदमी ९० प्रतिशत पाखंडी है! 😊

जैसे एक तो मीडिया/बुद्धिजीवियों की दुनिया रसातल को जा रही है वाली बात। अभी पिछले दिनों ट्वीटर पर एक कविता दिखी। खूब पसंद की गयी। अर्थ कुछ ऐसा था जैसे …बचपन में इतना तो साफ पानी होता था। आने वाली पीढ़ियों को यकीन नहीं होगा कि संसार में कभी पीने को साफ पानी ऐसे मिलता था इत्यादि। वैसे कवियों के पास बिम्ब के नाम पर कुछ भी कहने का पेटेंट है तो हो सकता है कोई कह दे कविता में पानी का अर्थ पानी नहीं यूरेनियम हो। पर पानी को पानी ही माने तो आँकड़े ढूँढने पर पता चला बीते साल दुनिया में सबसे अधिक लोगों को स्वच्छ पीने लायक पानी मिला। पिछले कई वर्षों से हर वर्ष ही इस मामले में ऐसे रहे हैं  – हर बीते साल से बेहतर। पानी से होने वाली बीमारियों का लगभग उन्मूलन हो चला धरती से। पर… अब कवि ही क्या जिसकी बात सीधी और सरल हो! 

वैसे हर अच्छी बात की तरह डेटा अनालिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी करने लगे हैं। तीन लोगों से पूछ कर लोग डेटा अनलिसिस कर उसमें पैटर्न भी निकाल देते हैं! जैसे 'गीता में लिखा है' कह कर लोग कुछ भी अंट-शंट कह देते हैं वैसे ही आजकल डेटा अनलिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी कर देते हैं! इसमें एक समझदारी वाला काम इजराइल ने किया है कि विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर में किसी का विषय कुछ भी हो अब एक विषय सांख्यिकी का जरूर पढ़ाते हैं। 


वैसे जो दिन भर प्रॉपगैंडा फैलाते हैं ये कहते हुए कि हम तो निष्पक्ष हैं उन पर तो कोई भी मॉडल लगा दिया जाय तो उनकी सच्चाई के उजाले का अलकतरा निकल जाएगा। कितनी बातें बिना देखने की कोशिश किए भी दिख जाती है – कई बार कहने वाले कहने को तो सच ही कह रहे होते हैं (महीन चोर) पर …जैसे किस घटना के लिए कैसे एक व्यक्ति विशेष स्पष्ट रूप से ज़िम्मेवार होता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना इसलिए हो जाती है क्योंकि पूरा समाज ही घटिया है। कौन सी बात में आपको कड़वी सच्चाई दिखती है और कौन सी बात ‘फनी’ लगती है! किस बात पर आश्चर्य चकित फील करना होता है किस पर ‘फकित’ (तुक बंदी नहीं किए हैं वो क्या है कि बिना इन सब शब्दों के ना तो कूल लगता है ना ही बुद्धिजीवी जैसा)। और कैसे किसी न्यूज़ पोर्टल के आलेख पर लिख दिया जाता है कि ये लेखक के निजी विचार हैं पर ये भी दिखता है कि पोर्टल को केवल एक ही प्रकार के निजी विचार वाले मिलते हैं। इनके पोर्टल की मानें तो भिन्न-भिन्न खोपड़ी में एक प्रकार की ही मति होती है। कम बुद्धि के लोग मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना का ग़लत संधि विच्छेद कर देने से भिन्न का अर्थ अभिन्न मान ही सकते हैं। 


और वो लोग जो दुःख, दर्द और हताशा पर लिखते हैं – कट्टर नमाज़ी के पांच वक्त की नमाज़ से भी ज़्यादा नियमित। उनकी लाइनें क्या गजब होती हैं! जैसे – जिस वक्त में हम जी रहे हैं।… ये जो आजकल का दौर है।… एक नाउम्मीद, और हताश पीढ़ी है…। ये जो वर्तमान की सच्चाई है!... एक समाज के रूप में हमें शर्मिंदा होना चाहिए। …वगैरह, वगैरह। लगता है बुद्धिजीवी वर्ग ऐसी ही लाइनों पर जीवित है। दुनिया बदलने से ये नहीं बदलने जा रहा। मज़े की बात ये है कि ऐसे बुद्धिजीवी अक्सर जीवन में कभी स्वयं दुःख देखे ही नहीं होते। ये अक्सर बड़े घरानों के निकम्मे होते हैं जिनका कैरियर व्हिस्की पर बकर काटते हुए अंततः इसी फ़ील्ड में बनता है। खुद दुःख देखे होते तो उन्हें पता होता कि दुनिया किस प्रकार से बदल रही है। ये लोग जीवन भर दुःख को धंधे के रूप में सुनते-पढ़ते हैं और उसे उसी के लिए देखना-बेचना भी सीखते हैं। दुःख लिखने का धंधा – जिससे उनकी रोजी चलती है। अकादमिक गलियारों में गरीबी पर चर्चा करने वालों को बदलती दुनिया कैसे दिखे? जिनके धंधे का रॉ मटीरीयल प्रदूषण हो उसे ग्रीन एनर्जी से क्या मिलेगा? 

(राजनीतिक बात नहीं है) यदि प्रश्न कर दिया जाए कि दुर्घटना, स्वास्थ्य इत्यादि व्यक्ति विशेष कारणों को छोड़ दें तो किस पैमाने पर तुम्हारे किसी भी जानने वाले का जीवन स्तर पिछले बीस सालों में खराब हुआ है? तो उनके पास उत्तर नहीं होगा। 

हमारे यहाँ फैक्टफुलनेस और एन्लाइटन्मन्ट नाउ जैसी पुस्तकें लिखी-पढ़ी नहीं जाती। उन पुस्तकों को पढ़िए यदि आपको दुनिया के परिवर्तन का यथार्थ समझना है तो।

पिछले दिनों डार्टमाउथ के एक प्रोफेसर ने इस बात की अनालिसिस की कि कोविड से जुड़े समाचार मीडिया वाले कैसे दिखाते हैं। मशीन लर्निंग लगाकर अनालिसिस की। निष्कर्ष - सभी वास्तविकता से कई गुना अधिक बुरा दिखाते हैं। जब कोविड बढ़ा तब उस पर फोकस। जब घटा तो उन जगहों पर फोकस जहाँ बढ़ रहा हो, जहाँ लोग मर रहे हों। जब वैक्सीन नहीं थे तो विफलता थी, जब दिए जाने लगे तो उसकी महत्ता ही कम! इसी प्रकार एक डेटा साइंटिस्ट ने १९४५ से २००५ तक साठ वर्षों के न्यू यॉर्क टाइम्स के न्यूज का अनालिसिस किया। और उसी मॉडल से १९७९ से २०१० के  बीच दुनिया के १३० देशों के न्यूज का। मशीन लर्निंग है तो कौन सा बैठ कर एक-कर न्यूज पढ़ना है – तो कर दिए। यहाँ भी नतीजे वही! न्यूज और सम्पादकीय की माने तो – दुनिया निरंतर रसातल को जा रही है। मीडिया ने इसे हर साल पहले से ज़्यादा बढ़ा चढ़ाकर पेश किया है। साल दर साल न्यूज के हिसाब से दुनिया पहले से अधिक बुरी होती गयी है। और मज़े की बात ये कि उनमें से किसी भी पैमाने पर (जिनके लिए मीडिया वाले और बुद्धिजीवी निरंतर लिखते हैं की वो चीजें बुरी होती जा रही है), इन वर्षों में दुनिया की हालत बुरी तो छोड़िए, उन हर एक पैमाने पर दुनिया के हर देश के व्यक्तियों के जीवन स्तर और स्वतंत्रता में अप्रत्याशित सुधार हुआ है। पर ऐसा होने के बावजूद मीडिया उसका विपरीत लिखता गया है। इस निष्कर्ष को देखने की एक दृष्टि ये भी है कि जब भुखमरी थी, जीडीपी पर कैपिटा ५०० डॉलर से भी कम था तब निराशावादी लेखन के साथ आशावादी लेखन भी था। पर निराशावादी लेखन महान था, यथार्थ था। समय बदला। दुर्भिक्ष समाप्त हो गया। जीडीपी पर कैपिटा २००० डॉलर से अधिक हो गया। पर निराशावादी लेखन काम होने की जगह  कई गुना बढ़ गया। धीरे-धीरे ये हो गया कि बुद्धिजीवी आशवादी कैसे लिख सकता है! कोई लिख दे तो बुद्धिजीवी गलियों में उसे सीआईए एजेंट, जो उन गलियों की सबसे बुरी गाली होती है, कह दिया जाएगा!  यथार्थ भले बदलता गया हो पर यथार्थवादी लेखन का अर्थ ही हो गया - निराशावाद। अगर परिवर्तन का यथार्थ देखें तो कई बार ऐसा लेखन वैसे ही हास्यास्पद नज़र आता है जैसे चेचक के उन्मूलन के बाद भी उसे दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते रहना! 


परिवर्तन कैसे होता है ये देखना कठिन नहीं है – मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के लेंस से दृष्टि हटा कर देखें तो। जिस गाँव में एक पक्का मकान नहीं होता था वहाँ अब एक भी कच्चा नहीं बचा। लोग क्या पहनते थे और अब क्या पहनते हैं। हमने देखा तो नहीं पर सुना है जब शादी तक लोग माँगे हुए कपड़ों में करते थे। झोले और टूटे चप्पलों की जगह बैग और हाथ में मोबाइल। जिस पूरे गाँव में एक फोन नहीं होता था अब हर-घर में कई मोबाइल होते हैं। गाँव के अस्पताल में व्यवस्था नहीं है का आलेख लिखने वाले ये नहीं देखते कि पिछले दस-बीस वर्षों में जहाँ एक टूटा कमरा हुआ करता था वहाँ एक विशाल भवन और एम्बुलेंस खड़ी रहती है। और ये लगभग हर जगह की ही कहानी है। आपके गाँव में दूसरे से साइकिल माँग कर चलने वालों के पास अब मोटर साइकिल अगर आपको नहीं दिखती तब तो आपको ये कोई मशीन लर्निंग नहीं दिखा सकता। एक जमाना था जब प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर पैसे फूंके जाते थे उससे कुछ ना हो पाया और वही लोग बुढ़ापे में फोन चलाने के लिए पढ़ना लिखना सीख गए! जिस उमर के आधे लड़के अनपढ़, गाय-भैंस चराते घूमते थे अब कितने रुपए में कितना जीबी डेटा मिलता है और कौन सी फ़िल्म कहाँ देखनी है सब एक साँस में नाप देते हैं। कौन सी परीक्षा में किस कटेगरी में कितना कट -ऑफ गया है। किस देश में कोरोना कितना फैला है आपसे कम नहीं जानते हैं। आप भले आज भी वही घिसी-पिटी कहानी गढ़ते रहो कि एक सब्जी बेचने वाले ने आपसे ऐसा कहा – वैसा कहा! बुद्धिजीवी लोगों का चूँकि पेट बिना मेहनत भरने लगता है तो उन्हें लगता है कि उनका दिमाग भी आम आदमी से ज्यादा हो गया है! वो कैसे मान लेंगे कि एक गाँव-देहात का आदमी, एक ऑटो-टैक्सी चलाने वाला, सब्ज़ी बेचने वाला भी स्मार्ट हो सकता है? उसे तो दुखियारा, बेसहारा, और हताश होना चाहिए। वो कैसे सुखी हो सकता है? वो कहे भी तो हम बता रहे हैं कि वो हमारे पैमाने पर दुखी है!

(पिछले दिनों मैं गाँव गया था और) एक दिन सुबह दूध लाने गया तो देखा कि एक बच्चा फोन पर वही कार्टून/राइम देख रहा है जो दुनिया के सबसे बड़ी कम्पनियों के सीईओ के बच्चे भी देखते हैं – वही यूट्यूब। असमानता, समाजवाद, और दुःख पर भारी भरकम लिखने (रोने) वाले दुःख का धंधा करते रह जाएँगे और दुनिया उनकी परवाह किए बिना बदलती रहेगी। सब हरा-हरा नहीं है, दुनिया वैसे हो जाने के लिए बनी ही नहीं है। लेकिन पिछले कई वर्षों से हरियाली बढ़ती ही गयी है। अद्भुत रूप से। लिखते हुए लग रहा है एक डायलोग लिख दिया जाय - ‘निराशा का दौर है’ का धंधा करने वालों से बिगाड़ के डर से आँकड़े की बात नहीं करोगे?! 😊


हिंदी किताब लिखने के बाद कुछ अकादमिक हिंदी के लोगों से बात हुई तो ये भी पता चला कि विश्वविद्यालयों में हिंदी के पठन-पाठन में भी ऐसा है कि एक ही प्रकार के शिक्षकों-विद्यार्थियों का गुट है! जो एक ही विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, उन्हें ही शैक्षणिक नौकरीयाँ मिलती है। इस प्रकार एक लेंस से ही दुनिया को देखने को जो विद्वता कहा जाता है उसका क्रम चलता रहता है। वो आज भी दुनिया वैसे ही देखते हैं जैसे सौ साल पहले कुछ लोग देख गए थे। अरे भई, शोध कर रहे हो तो “फलानेवाद के परिपेक्ष्य”  की जगह कभी वैसे भी दुनिया देख लिया करो जैसी वास्तव में है! 

पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हो रही है। इससे लम्बा लोग पढ़ेंगे नहीं। आप ये पढ़िए, ज़ोरदार बात है, याद रहेगी। कई किताबों में उद्धृत हो चुकी है: 

A few years ago, The New York Times did a story on the working conditions of Foxconn, the massive Taiwanese electronics manufacturer. The conditions are often atrocious. Readers were rightfully upset. But a fascinating response to the story came from the nephew of a Chinese worker, who wrote in the comments section:

My aunt worked several years in what Americans call “sweat shops”. It was hard work. Long hours, small wage, poor working conditions. Do you know what my aunt did before she worked in one of these factories? She was a prostitute.

जो रोना रोते हैं कि दुनिया बड़ी खराब होती जा रही है। उन्हें पन्ने काले करने दीजिए - उनका धंधा है। आप अपना काम मन से कीजिए। सरल कर के दुनिया को देखिए। खुश रहिए। 

नया वर्ष मंगलमय हो।

~Abhishek Ojha~

Jul 27, 2021

रिटायरमेण्ट@45

[आदरणीय ज्ञानदत्त जी की पोस्ट रिटायरमेण्ट@45 पोस्ट पढ़ने के बाद लगा कि दो-चार बातें कहनी चाहिए। तो उन बातों को … पढ़ा जाय।] 


१ पिछले कुछ वर्षों से मैं न्यू यॉर्क के दो विश्वविद्यालयों में ‘मशीन लर्निंग फ़ॉर फ़ाइनैन्स’ नाम का कोर्स पढ़ाता रहा हूँ। मास्टर्स के विद्यार्थियों को। सप्ताह में एक दिन। अक्सर शाम ६ से ८ या ७ से ९। बड़ा मजेदार अनुभव होता है। 

वर्ष २०१९ की बात है। नए कोर्स की पहली ही क्लास थी। क्लास में लगभग ७० की अवस्था के एक वृद्ध भी दिखे। सामने से आकर उन्होंने अपना परिचय दिया - एक अवकाश प्राप्त (अमेरिटस) प्रोफेसर। अपना कार्ड दिया और बताया कि यदि मुझे आपत्ति नहीं हो तो वो ये कोर्स करना चाहेंगे। उन्होंने ये भी बताया कि उनका घर शहर से दूर है और रात को ट्रेनें देर-देर से जाती हैं इसलिए क्लास समाप्त होने के थोड़े पहले ही वो निकल जाया करेंगे। पहली बात मैंने उनसे ये कही कि मुझे भला क्या आपत्ति होगी। ये तो सम्मान की बात है… पर उन जैसे अनुभवी व्यक्ति जब क्लास में होंगे तो शायद मैं थोड़ा असहज हो जाऊँगा। उन्होंने भरोसा दिलाया कि ऐसा नहीं होगा और पूरे सेमेस्टर वो मुझे प्रोत्साहित करते रहे। उन्होंने ना केवल कोर्स किया पर सारे असाइनमेंट और प्रोजेक्ट भी समय पर किया। प्रश्न पूछते, ईमेल करते …सब कुछ किसी भी अन्य विद्यार्थी से कहीं अधिक तन्मयता से। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। ना उन्हें किसी परीक्षा के लिए पढ़ना था, ना किसी नौकरी के लिए साक्षात्कार देना था। आधी दर्जन किताबों और सौ से अधिक शोधपत्र उनके नाम से छप चुके हैं। भला वो किसी रैट रेस में हैं ना ही उन्हें रिटायरमेंट लेने के लिए पैसों की कमी है। 

२ एक कहानी (*content has been modified for modern audience) – प्राचीन काल की बात है। चिचिलाती धूप में राजमहल के बाहर न्याय पाने वालों की लम्बी लाइन लगी थी। (कोर्ट में हमेशा से ऐसे ही पेंडिंग मुकदमे रहते रहे होंगे। पर मुद्दा वो नहीं है।) लाइन में एक साधु बाबा भी थे। गर्मी का दिन था और सूरज आग उगल रहा था। अचानक साधु बाबा ने अपनी लंगोट खोल दी। नंगे हो गए। लंगोट जमीन पर फेंक नाचने लगे। जैसे कन्हैया कालिया नाग के फन पर नाच रहे हों। शरीर पर और कोई वस्त्र था नहीं, ये दृश्य देख लोगों को वही लगा जो लगना चाहिए था - बाबा सटक गए! पर भले लोग थे, एक नीम के पेंड के नीचे बाबा को ले गए। कोई पानी ले आया तो कोई पंखा। भीड़ भी उत्सुक होकर उधर ही चली गयी! 

इसी बीच किसी सस्ते पत्रकार टाइप के खुरपेंची आदमी ने पूछा – “बाबा, अब कैसा फील हो रहा है? ऐ लंगोट ला के दो कोई बाबा का।”

बाबा बोले – “देखो बच्चा, अब हम एकदम मस्त हैं! तुम लोग जाओ अपना काम करो। अब हमें कोई टेंशन नहीं है। और हाँ, लंगोट रहने दो क्योंकि वही तो सारे समस्या की जड़ थी।” 

मामला रोचक हुआ। किसी ने पूछा – “वो कैसे?”

बाबा बोले – “हम एर्ली रिटायरमेंट लेकर साधु हो गए थे। सोचे थे अब आराम से जप-तप करेंगे। सोलो ट्रिप करेंगे। लद्दाख जाएँगे। अब हम राजा जनक तो हैं नहीं कि सब झमेले के साथ भी विदेह हो जाते। मन का कुछ कर नहीं पाते थे। नौकरी में घिस रहे थे। ख़ैर… साधु बनने के बाद बस एक लंगोट का ही झंझट बचा था सो रिटायरमेंट फंड से ढेर सारा सिला लिए थे। बाकी व्यवस्था रोज के रोज पर मजे में चल रही थी।...एक दिन चूहों ने हमारी झोपड़ी में टंगी लंगोट कुतर दी। लंगोट तो आवश्यक था। तो अब चूहे को भगाने के लिए एक बिल्ली पोस लिए। बिल्ली के पोषण के लिए दूध कहाँ से आता? तो गाय पोस लिए।”

खुरपेंची ने पूछा – “बाबा, बिल्ली चूहा नहीं खा लेती?”

बाबा बोले – “यार पहले इसको चुप कराओ कोई। चूहे के सप्लाई का ठेका लेते हम? साधु आदमी हैं।” इस तरह बात आगे बढ़ी।

“अब गाय लोगों के खेत चरने लगी! तो लोग गरियाने लगे। एक आन्ट्रप्रनर टाइप के आदमी ने सलाह से दी कि आजकल फडिंग, लोन इत्यादि मिलना बड़ा आसान है राजाजी से जमीन ले लो। गाय उसी में चर लेगी। सो हम लिखा-पढ़ी करा के जमीन ले लिए। वो लोग जहाँ-जहाँ बोले थे हम साइन कर दिए – टर्म्ज़ एंड कंडीशनस पढ़े नहीं। (समय से आगे चल रहे थे वैसे ही साइन कर दिए थे जैसे आजकल लोग क्रेडिट कार्ड के फ़ॉर्म पर करते हैं)। दिन मजे में कटते रहे। पर कुछ दिनों पहले एक नोटिस आ गया कि जमीन पर टैक्स नहीं भरे हैं! राज दरबार में आइए। तो हम इधर आ गए। साधु आदमी का कोई क्या बिगाड़-उखाड़ लेगा! लेकिन आज जब धूप लगी और जब खड़े-खड़े हम तिरमिरा गए तो सोचे कि ...हम लिए थे रिटायरमेंट आराम के लिए और यहाँ धूप में कर क्या रहे हैं? कहाँ सोचे थे कि सोलो ट्रिप मारेंगे और यहाँ लगा खड़े-खड़े ही घुटने बोल जाएँगे! लंगोट का झमेला तो अपनी जगह लेकिन तब ये भी तो  नहीं सोचे थे कि घुटनों में दर्द हो जाएगा? जब जामवंत जैसे वीर बुढ़ापे के कारण समुद्र नहीं लाँघ पाए और हम देखो सोचे बैठे थे कि इस उम्र में मौज करेंगे! लेकिन ये तो स्पष्ट ही था कि अभी के लिए तो सारे समस्या की जड़ लंगोट है। ना लंगोट होता, ना ये सब झमेला होता। एक लंगोट हो या संसार का बाकी अन्य कोई भी काम झमेला उतना ही हो जाना है। सच पूछो तो इतना परेशान तो हम अपनी नौकरी में भी नहीं होते थे जितना इस लंगोट… और अब हाल ये है कि एर्ली रिटायरमेंट के नाम पर यहाँ नंगे बैठे हैं।”

खुरपेंची आदमी फिर पूछा – “बाबा, अब करेंगे क्या आप?”

बाबा एक ठंडी आ लेकर बोले – “ये तो कह नहीं सकते कि एर्ली रिटायरमेंट बकवास है... तो अब यहीं चबूतरा मिल ही गया है बैठ कर अर्ली रिटायरमेंट प्लानिंग  पर ज्ञान देंगे। हमें तो अनुभव भी है। बताएँगे कैसे बिना कुछ किए मस्त ज़िंदगी चल रही है। बहुत स्कोप है इस प्लानिंग वाले फिल्ड में आजकल”।

३ हमारे पुराने ग्रूप में एक सज्जन काम करते थे। लिजेंड। हाई स्कूल के बाद दस साल एमआईटी में बीताकर पीएचडी करके ही निकले थे। उन्हीं दिनों में लिखी उनकी किताब इंजीनियरिंग के एक विषय विशेष में अथोरिटी मानी जाती है। फिर कुछ साल वॉलस्ट्रीट में काम किए। वॉलस्ट्रीट में उन जैसे सफल लोगो के लिए पाँच-सात साल रिटायर होने के लिए पर्याप्त होते हैं। उनकी जरूरतें भी कुछ ज़्यादा नहीं थी। तो छोड़ कर कुछ दिन दुनिया घूमे। फिर एक हाई स्कूल में गणित पढ़ाने चले गए। उन्हें कोई भी विश्वविद्यालय रख लेता पर – शौक! चार-पाँच सालों के बाद उन्हें उनके पुराने बॉस ढूँढकर वापस ले आए। लगभग दस सालों तक उन्होंने फिर उन्हीं लोगों के साथ काम किया। 

मैंने उनसे एक बार पूछा कि वो वापस क्यों चले आए – तो उन्होंने कहा “बच्चों को अच्छा जीवन देना था, लगा मास्टरी से नहीं हो पाएगा। और ये काम भी मैं मिस करने लगा था – चैलेंज नहीं रह गया था”। मज़े की बात ये कि लगभग दस सालों के बाद जब उनका ग्रूप बंद हो गया तो जहाँ बाकी लोग दूसरी कम्पनियों में बड़े पदों पर आराम की नौकरियों में चले गए उन्होंने अपने एक मित्र के साथ मिलकर फिर से नया उद्यम शुरू किया। शून्य से। जिन कामों के लिए कभी उनके नीचे दर्जन भर लोग होते थे वो काम भी वो स्वयं करने लगे। उनके जो दूसरे सहयोगी हैं उन्होंने तो कुछ मिलियन डॉलर अमेरिका के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को दान में दिए हैं। स्पष्ट है ये लोग पैसे के लिए तो नहीं ही कर रहे कुछ।


४ एक अन्य पुराने सहकर्मी कुछ सालों का ब्रेक लेकर लौटे। मैंने उनसे भी पूछा था तो बोले – “मैराथन दौड़ना था, बच्चों को ग्रेजुएट होते देखना था। अब बच्चे नौकरी करने लगे तो वापस आ गया”। वो नयी नौकरी करने के साथ-साथ एक ऐसे विषय में मास्टर्स भी कर रहे हैं जो पिछले कुछ वर्षों में ही बना है। उम्र साठ से कम नहीं है। यदि धन रिटायरमेंट ले लेने का पैमाना हो तो …वो क्या उनकी अगली पीढ़ी को भी रिटायर हो जाना चाहिए। वो लगभग पाँच साल का रिटायरमेंट तो उस उम्र में ही ले चुके जब आवश्यकता भी थी और उम्र भी। 

५ हमारी बिल्डिंग में एक ऑफिस-स्पेस जैसी जगह  है। वर्क फ्रोम होम होने से वहाँ एक सज्जन अक्सर मिल जाते हैं। धीरे-धीरे परिचय हुआ। अकेले रहते हैं। दो बेटियाँ हैं जो अब दूसरे शहरों में नौकरी करती हैं। लड़का कॉलेज में। पत्नी से तलाक़ हो गया। अब एक बिल्ली है जो साथ रहती है और एक गर्ल फ़्रेंड जो कभी-कभी आती है। एक दिन बोले – “अभी कुछ वर्ष अपने कैरियर पर फोकस करना है मुझे। जो करना चाहता था उसके लिए पहले समय नहीं मिल पाता था।” वो मुझे पैंसठ साल के नौजवान लगते हैं। इस उमर के आदमी को कैरियर पर फोकस करना है? पाठक इस बात की व्याख्या स्वयं करें।

६ एक भारतीय प्रोफेसर ने एक दिन मुझसे कहा – “हमारे स्टूडेंट तुम्हारी बड़ी तारीफ करते हैं।… मुझे लगता है तुम बड़ा मन से पढ़ाते हो। मेरे क्लास में एक दिन गेस्ट लेक्चर देने आ जाओ।” यहाँ से शुरू हुई बात आगे चली तो एक दो मोड़ से कहीं और ही निकल गयी। उन्होंने बताया कि जब वो आईआईटी से निकले थे तब सरकारी नौकरी के अलावा भारत में ज़्यादा कुछ था नहीं। कुछ वर्ष उन्होंने एक केमिकल फैक्ट्री में काम किया। मन नहीं लगा। आईआईएम गए। वहाँ से निकल फिर वही मन नहीं लगने वाली बात हुई। अमेरिका आ गए पीएचडी करने। प्रोफेसर बने तो लगा वो इसी के लिए बने थे। लेकिन इतने वर्षों बाद अब उन्हें लगता है कि अब जोश नहीं रहा। ना पढ़ाने का, ना शोध करने का। अब हर साल लगभग वही पढ़ा देते हैं। “तुम शौक़ से पढ़ाते हो, मेरा अब ये काम हो गया है!” 

मैंने कहा अब कुछ और कर लीजिए तो बोले – “अब जो करना था कर लिए। अब बस।”

७ कम उम्र में रिटायरमेंट लेने का सोचने के दो ही कारण हो सकते हैं – पहला तो ये कि जो कर रहे हैं वो काम घटिया लगता है। मजबूरी में करते हैं। दूसरा ये कि यदि पैसों कि चिंता नहीं होती तो आप कुछ और करते या कुछ भी नहीं करते। दोनों में मजबूरी ही प्रमुख है।

मेरे पास अनेकों किस्से-कहानियाँ हैं। वो ज़्यादातर एक जैसे लोगों की हैं। मुझे ऐसे लोगों की जीवन यात्रा अच्छी लगती है। जिन्हें जब लगा कि ये काम मेरे लायक नहीं है वो छोड़कर दूसरे काम में लग गए। जो किया मन से किया। किसी लक्ष्य को पाने के लिए नहीं क्योंकि लक्ष्य को पा लेने पर अक्सर उससे मोहभंग हो जाता है। दुनिया की हर चीज मिल जाने के कुछ समय बाद ओवररेटेड लगने लगती है।

ख़ैर …यदि २०२१ में आप मजबूरी में नौकरी कर रहे हैं तो गलती आपकी भी है। वो काम अभी कीजिए जिसमें मन लगता है। मेरी किताब (लेबंटी चाह) में बीरेंदर पहले आईटी की नौकरी छोड़ देते हैं। अधिक पैसा मिलने पर भी। ये कहते हुए कि जीवन भर ये तो नहीं किया जा सकता। और उसके बाद सरकारी नौकरी भी छोड़ देते हैं ये कहते हुए कि पैसे का क्या है मन का काम करेंगे तो वो तो बाई प्रोडक्ट है, आ ही जाता है। 

यदि आपको लगता है कि आप पैंतालीस की उम्र में दुनिया की सैर करेंगे तो …ज़िंदगी में एक दम से फ़्री नहीं होने जा रही है। ना आप इतने फिट ही रहने वाले हैं। जो पहाड़ आप अभी चढ़ सकते हैं वो तब नहीं चढ़ पाएँगे। आप जिन जगहों पर जिस प्रकार से बीस की उम्र में जा सकते हैं उस प्रकार से पैंतालीस की उम्र में नहीं। अब पचास की उमर में भी हनीमून के लिए प्रसिद्ध जगहों पर क्यों नहीं जा सकते? कोई मना थोड़े करेगा। पर इस बात का अर्थ आप समझ ही रहे हैं। अमेरिका में हर वैकेशन वाली जगह, क्रूज जहाजों और कैसिनों में रिटायरमेंट के पैसे फूंकते वृद्ध लोग दिखते हैं। बहुतायत में। वो बुरा नहीं है लेकिन अभी साँस रोक कर जमा करना कि उस उम्र में… मौज करेंगे… आप समझ ही रहे हैं। 

और यदि यात्रा करना है या कोई और ही काम तो साल में लगभग महीने भर की छुट्टी तो हर नौकरी में होती है। 
[जो व्यक्ति पैंतालीस की उम्र में रिटायरमेंट की सोच रहा हो उसके लिए मैं ये मान कर चल रहा हूँ कि उसकी आय इतनी तो होगी कि उसे जो करना हो अभी उसके लिए अभी पैसे कम नहीं होंगे। जो फटेहाल होगा वो कमाने का सोचेगा रिटायरमेंट का नहीं।]

पिछले दस सालों में २०२० को छोड़कर एक भी साल ऐसा नहीं रहा जब मैं साल में एक या एक से अधिक देश नहीं गया। काम के लिए नहीं, घूमने के लिए। और मुझे पता है अब वैसी यात्राएँ नहीं हो सकती। दुनिया सामान्य हो जाए तब भी। वही बात कि जो आप बीस के उम्र में कर सकते हैं वो बीस के लिए ही बनी होती है - पैंतालीस के लिए नहीं। और यदि आप सोचते हैं कि जब ग्रह नक्षत्र एक होंगे और फ़ुरसत के दिन रात होंगे तो - वो दिन निकल गया। वो कल था। और आज है, जैसा भी है। आने वाला कल वो दिन नहीं है। 

मुझसे जब मेरे करीबी दोस्त कहते हैं (करीबी इसलिए क्योंकि बाकी कोई कुछ भी कहें क्या फर्क पड़ता है!) कि हम भी जाएँगे एक दिन। तो मैं कहता हूँ “बुरा मत मानना, पर जा चुके तुम। क्योंकि तुम यदि अभी नहीं जा सकते कि व्यस्त हो तो… वो दिन आने से रहा जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होगा।” 

और कोरोना के प्रकोप के बाद भी यदि आप को लगता है कि रिटायरमेंट और उसके बाद की योजना वर्तमान के कीमत पर करनी चाहिए तो वो भी ठीक ही है। युधिष्ठिर ने ‘किं आश्चर्यम’ ऐसे ही थोड़े ना कहा था। 

आने वाले कल को ना तो रिस्क टेकिंग ज़्यादा होगी ना जिम्मेदारियां कम होंगी, ना मन तथा शरीर ही ऐसा रहेगा। जैसे कुछ लोगों के दुःख का कारण बदलता है, दुःख नहीं - वैसे ही व्यस्तता यदि अभी है तो कल को समाप्त नहीं होने जा रही। व्यस्तता का कारण भले बदल जाएगा। मैं इस बात की गारंटी लेने को तैयार हूँ। जो मजे में होते हैं वो अपने हर काम के साथ मजे में होते हैं! मुझे ऐसा लगता है कि अभी जमा कर रखना कि जल्दी रिटायरमेंट लेकर आनंद करेंगे सोचने पर आप ना अपने काम के साथ न्याय कर पाएँगे ना अपने व्यक्तिगत जीवन के साथ। 

पढ़ाई इसलिए की कि नौकरी लग जाए, नौकरी इसलिए कि पैसा हो जाएँ, और तब अंत में रिटायर होकर कुछ मन का करेंगे? ये है रैट रेस में पड़े रहना। अभी ही करने लगो मन का। हर काम के साथ। फुलटाईम नहीं तो थोड़ा ही सही। क्योंकि अभी हर काम आने वाले कल के सारे कामों से कम ही है। (अनलेस, ओफ कोर्स, लंगोट उतार कर नाचना हो।) काम में पिस रहे हों तो वो छोड़ कर भी मन का करें। मुझे सरकारी नौकरी वालों का समझ में आता है। वो नहीं छूटती है। पर समय के साथ वो भी धीरे-धीरे बीते जमाने की बात हो रही है। मेरे कई आईएएस मित्र हैं जिनका करोड़ में सैलरी सुनकर मन लपलपाता रहता है। उनके लायक काम भी प्राइवेट सेक्टर में होने लगा है।

वॉरन बफ़ेट का नाम तो सुना ही होगा आपने? नब्बे साल के हैं - पैंतालीस गुना दो होता है वो। पिछले दिनों उन्होंने कहा कि उनकी कोई मंशा नहीं है रिटायर होने की। अब ये तो नहीं ही बताना पड़ेगा कि ना वो किसी रैट रेस में हैं, ना उन्हें रिटायर होने के लिए पैसे जमा करने हैं। यदि आप सोच रहे हैं कि वैसे तो शताब्दियों में एक होते हैं तो अब उदाहरण वैसे ही लोगों का तो दिया जाता है? (इस मुद्दे पर मंगलदास उर्फ़ लँगड़ परसाद का उदाहरण तो नहीं दिया जाएगा ना।)

मुझे ये भी लगता है कि जो इस इंतज़ार में हों कि शीर्ष पर पहुँच कर काम छोड़ देंगे वो शायद ही शीर्ष पर पहुँचते हैं। शीर्ष पर वो पहुँचते हैं जिन्हें शीर्ष पर पहुँचने से घंटा फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने पहले से नहीं सोच रखा होता है कि शीर्ष क्या है। वो आज से बीस साल पहले सोच भी कैसे पाते कि एक दिन दुनिया ऐसी होगी? सोचें तो बीते दिनों का शीर्ष आज का साधारण है!

इसी से जुड़ी एक और बात मुझे दिखती है वो है संतोष की गलत अवधारणा। उसके गलत अर्थ ने अपने समाज का बड़ा अनर्थ किया है। अपने समाज में निष्काम कर्मयोगी होने और निकम्मा होने में बस एक इंटरप्रिटेशन भर का फर्क होता है। (जब ना हो पाए तो कह देना कि अरे क्या करना है एक दिन तो सबको मरना ही है जैसी बातें! कुछ करना हमेशा विलासिता के लिए ही नहीं होता। मैं मानता हूँ कि उपभोक्तावाद भुखमरीयतवाद से बेहतर है। और सर्वश्रेष्ठ है वो जो राजा होकर भी निराला है – विदेह। राजा जनक।) फिर ये भी एक कारण है कि एक उम्र के बाद कई लोग (काम से हों ना हों) मन से रिटायर हो जाते हैं। - “अब हो गया जो होना था। अब अपना क्या है बाल-बच्चे कुछ कर जाएँ। हम तो हो गए जो होना था” - मन से रिटायर।

मैं मिला एक व्यक्ति से जो भारत में अस्सी के दशक में इंजीनियरिंग पढ़े, आज आईबीएम के शीर्ष एक्जेक्यूटिव हैं। वो उन चीज़ों के सेल्स में हैं जो पिछले पाँच-दस वर्षों की उपज हैं। उनके बारे में सोचता हूँ तो एक ही बात कि दिमाग में आती है कि उस आदमी ने कितना अपडेट रखा है अपने को! इसी प्रकार मेरे एक पुराने कलिग ने एक दिन फोन किया। एक प्रस्ताव के साथ कि ये वाली पढ़ाई करते हैं। मैं सोचता रह गया कि बाल-बच्चे वाला यह आदमी तो एक तरह से शीर्ष देख चुका है और मुझसे पूछ रहा है कि पढ़ाई कर लूँ? उन्हें चिंता है कि अभी जो लेटेस्ट हो रहा है, ऐसा तो नहीं कि उन्हें नहीं पता? कल को वो अप्रासंगिक तो नहीं हो जाएँगे? 

मैंने पूछा - क्यों करना है अब आपको पढ़ाई? 
तो बोले – “दस साल बाद कौन सी चीजें नयी होंगी और हम उसके लिए कितने तैयार होंगे? और फिर जो करने में मज़ा भी आए वो क्यों नहीं करें? इसीलिए तो तुमसे पूछ रहा हूँ। मुझे पता है हमें वो पढ़ने में बड़ा मज़ा आएगा”। मुझे उनकी बातें किसी एंगल से रैट रेस नहीं लगी। 

और आपको लगता है कि आपसे बस वही होगा जो आप करते आए हैं तो मैं जानता हूँ एक व्यक्ति को जो दर्शन शास्त्र की पढ़ाई पढ़े और अब एक बड़े संस्थान के आईटी प्रमुख हैं। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों से कम्प्यूटर साइंस पढ़े पचासों लोग उनके लिए काम करते हैं। मैंने उनसे पूछा कि कैसे किया उन्होंने? दर्शन शास्त्र से कोडिंग? उन्होंने बड़ी सरलता से कहा कि कॉल सेंटर जैसी नौकरी से शुरू किया था …और बस सीखते चले गए। 

एक ये भी एंगल है कि यदि अभी आपके पास वारेन बफ़ेट की तरह ढेर सारा पैसा होता तो आप कुछ नहीं करते? उस हिसाब से वारेन बफ़ेट को कब रिटायरमेंट ले लेना चाहिए था? और वारेन बफ़ेट ही क्यों अभी जितने सफल लोग हैं – सीईओ, वैज्ञानिक, डॉक्टर सब को कुछ सालों पहले ही रिटायरमेंट ले लेना चाहिए था, यदि वही श्रेष्ठ है। मुझे ऐसा लगता है कि वर्तमान, बचे हुए जीवन के लिए पर्याप्त पैसा कमाने और उस दिन की प्रतीक्षा करने के लिए नहीं है जब पर्याप्त पैसे हो जाएँगे। यदि इस उधेड़बुन में बर्न आउट है कि कल सुकून होगा तो फिर ये पूरा कॉन्सेप्ट ही एक भ्रम है। इसे मरीचिका कहते हैं।

मुझे लगता है कि सोचना ही है तो स्वस्थ रहने का सोचिए। आपदा स्थिति का सोचिए। और वो काम करने का सोचिए जो मजे-मजे में आप आज ही कर सकते हो, जिसके लिए रिटायरमेंट के दिन की प्रतीक्षा ना करनी पड़े। 

ख़ैर बातें बहुत सी हैं। अंत में इतना कि मुझसे मेरी एक मित्र ने कभी कहा था कि क्या कहानी सुनाओगे बुढ़ापे में कि क्या कर रहे थे अपने टवेंटिज में? मुझे बड़ी खुशी होती है कि मैंने उसकी बात को गम्भीरता से लिया। ये तो नहीं ही कहूँगा कि रिटायरमेंट के लिए पैसे जमा कर रहा था। 

चलते-चलते… (ज्यादा लम्बी पोस्ट हो गयी, अभी फुटकर विचार हैं इसे रिटायरमेंट के बाद अच्छे से लिखा जाएगा 😂) व्यस्तता का तो ऐसा है कि परसाई जी कह गए हैं – “व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की जरूरत पड़ती है, उससे ज्यादा अक्ल निठल्ले आदमी को समय काटने में।” :)  

 


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~Abhishek Ojha~

Jun 19, 2021

मौसम नहीं, मन चाहिए!

[ट्विट्टर पर एक वायरल फोटो देख “where I need to study” मन में एक प्रश्न उठा कि ये सब भी लगता है पढ़ाई में? हमें तो लगता था पढ़ाई के लिए किताब चाहिए और मन चाहिए। पर मजा भी आया क्योंकि कई बातें याद आ गयी…]


बात उन दिनों की है जब ...हमारे अपार्टमेंट में इतने लोग आते-जाते रहते कि मेरे एक दोस्त कहते – “बाबा, इसे अब धर्मशाला घोषित कर दो”। 

किसी को न्यूयॉर्क घूमने आना होता तो, कोई अपने ऑफ़िस के काम से आता तो, कुछ कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को बिज़नेस ट्रिप पर रहने के घर/होटल की जगह पैसे ही दे देती कुछ वैसे लोग भी रह कर जाते। हम गाइड बन कर शहर भी घुमा देते। ये शिकायत की बात नहीं है। हमें बड़ा अच्छा लगता। मजे-मजे के दिन थे। 

वीकेंड पर तो अक्सर पाँच-छः लोग हो जाते। कोई आए ना आए एक मित्र जो उन दिनों एमबीए कर रहे थे वो हर वीकेंड ज़रूर आते। हम लोग शहर घूमते, खेलते, सिनेमा देखते। वो ईमानदारी से कहते - देखो यार मैं स्टूडेंट हूँ। तीन-चार और लड़कों के साथ एक बेसमेंट में रहता हूँ। यहाँ तुम लोग के साथ वीकेंड अच्छा बीत जाता है। वो उनके संघर्ष वाले दिन थे। अब तो कहाँ से कहाँ पहुँच गए। मैंने उन दिनों ये भी सीखा कि किसी को ये नहीं कहना चाहिए कि तुमने संघर्ष देखा ही क्या है। क्योंकि "भूखे पेट ही सो जाते हैं" ही नहीं “अक्सर पिज़्ज़ा खाकर ही सो जाते हैं” भी ग़रीबी होती है। भले साल का चालीस-पचास लाख (उन दिनों) का पढ़ाई में खर्चा हो फिर भी व्यक्ति अभाव में रह सकता है। महसूस तो कर ही सकता है। Poverty is just a state of mind जैसी कालजयी बात पहले ही कोई महान व्यक्ति कह गया है नहीं तो अभी इसी बात पर लिख देते। ख़ैर… 

उन दिनों हम लोग कभी-कभार खाना भी बना लेते। अक्सर बाहर खाते। अतिथियों में से कुछ खाना बनाने के विशेषज्ञ भी थे तो धीरे-धीरे रेड्डी की चटनी, शर्मा की कढ़ी जैसे व्यंजन आविष्कृत हो चुके थे। इससे हुआ ये कि कुछ-कुछ बर्तन और खाना बनाने के अन्य समान जमा होते गए। तो धीरे-धीरे हम भी बनाने लग गए। हमारे एमबीए कर रहे मित्र भी कभी कभार बनाते। हम मज़ाक़ में कहते - "भाई, तू पैसे बचाने के चक्कर में कुछ भी मत खिला दिया कर।" उनका राजमा हमने जगत प्रसिद्ध कर दिया था। जिसके बारे में कहा जाता कि उबला तो पूरा नहीं था ...पर पेट में जाकर जठराग्नि से भी तो कुछ पकना चाहिए। दो दिन तक उबलता रहा था पेट के अंदर। 

एक रविवार के दिन उन्होंने घोषणा की – “आज मैं दाल-चावल बनाऊँगा।” 

इससे बड़ी ख़ुशी की बात क्या होती! पर किचन में जिस गति से गए थे उससे भी तेज गति से लौट आए। 

हमने पूछा – “क्या हुआ? मुआयना कर आए अब राहत पैकेज घोषित करोगे क्या?” 

“टमाटर नहीं है।” गम्भीरता से बोले। 
“तो?” 
“तो क्या? टमाटर नहीं है तो दाल कैसे बनेगी?”
“क्यों? दाल ने मना कर दिया क्या बनने से?”
“अबे कैसी बात कर रहे हो? टमाटर नहीं है तो दाल बनेगी कैसे?”
“वही तो पूछ रहा हूँ? क्यों नहीं बनेगी?” 
“अबे दाल बनती नहीं है बिना टमाटर के।” 
“यार तुम बनाओ, दाल मना करेगी तो देख लेंगे। अगर दाल कह दे कि बिना टमाटर मैं नहीं बन रही। कर लो जो करना है! तो मुझे बताना, उसे मनाएँगे! केमिकलि इमपोसिबल तो है नहीं टमाटर के बिना दाल गलना?” 

हमारे बाकी दोस्त हँस रहे थे। हमने उन्हें उनकी भाषा में कहा – “जैसे तुम्हें आता है वैसे ही बनाओ। टमाटर डालने वाला स्टेप स्किप कर देना।” 

कुढ़ कर उन्होंने दाल बनायी। खाते समय बोले – “यार अच्छी बन गयी है। मुझे नहीं पता था बिना टमाटर के भी दाल बनती है।” 

ये झूठ बात नहीं है। ये बात पहले भी हमने बहुत लोगों को सुनाई है। 

वैसे ही एक हमारे बड़े अच्छे मित्र। एक दिन उन्हें फ़िटनेस का भूत सवार हुआ। पहले खूब रिसर्च किए (माने पीएचडी में एडमिशन नहीं ले लिए, रात भर बैठ कर यूटूब देखे)। उनका काम ऐसा था कि पूरे आमेरिका की यात्रा होती रहती, तो पहले तो इस बात पर रिसर्च किए कि जिम ऐसा होना चाहिए जिससे यात्रा करें तो भी समस्या नहीं आए। अब जिम लेकर यात्रा तो कर नहीं सकते! लेकिन ऐसे ही सोचने वालों की समस्याओं का हल करने से अमेरिकी (पूरी नहीं तो आधी तो पक्का) अर्थव्यवस्था चलती है। उन्होंने एक जिम ढूँढ निकाला जो पैसे ले लेता है इस बात की गारंटी के साथ कि अमेरिका में लगभग हर जगह उनकी शाखाएँ हैं। जिम वाले को हम से बेहतर पता है कि कितने दिन आएँगे ऐसे लोग! (जिम वालों को तो ऐसा करना चाहिए कि दिसम्बर-जनवरी में डिस्काउंट देकर न्यू ईयर रिज़ोल्यूशन वालों को मेंबरशिप बेच देनी चाहिए। उसके बाद बाकी साल के लिए उसी जगह में बीयर बार खोल देना चाहिए।) 


फ़िलहाल वो पहला काम ये किए कि साल भर का प्रीमियम मेंबरशिप ले लिए। जैसे कलाकार के लिए सरस्वती वंदना होती है, इनके ऐसे काम भुगतान से ही शुरू होते। उसके बाद गए अपने पैर का टेस्ट कराने ...कि दौड़ने के लिए उनके पैर की संरचना के हिसाब से अच्छा जूता कौन सा होगा। (धावक लोग इस बात को बड़ी गंभीरता से लेते हैं कि पैर के आकार के हिसाब से सही जूता होना अत्यंत आवश्यक है।) फिर धावक वाला ड्रेस ख़रीदे। गैजेट। गैजेट बांधने के लिए पट्टी। दौड़ते हुए गाना सुनने के लिए नया हेड फोन। चूसनी लगी पानी की नयी बोतल। दर्द होने पर मालिश के लिए बिजली से चलने वाली थुरनी (पता नहीं क्या कहते हैं उसे!)। सब ज़रूरी ही था। सामान बढ़ता गया। सब कुछ हमारे पते पर ही आता था। एक दिन सब खोले। सजा कर रखे। योजना बताए। हम हँसे तो पूछे कि क्या हुआ। मैंने कहा कुछ नहीं। मुझे लगा वो समझेंगे नहीं। 


मन तो हुआ था कि कहूँ - "कहानी पढ़े हो फ़ेडिप्पिडिस की? नंगे पैर ही दौड़ गया था। और आजतक उसके नाम पर मैराथन होता है।" (इस बिम्ब को गम्भीरता से ना लिया जाय क्योंकि हम देखने तो नहीं गए थे... लेकिन उस जमाने के ग्रीक लोग हर पेंटिंग और ३०० सिनेमा इत्यादि में लगभग नंगे और ख़ाली पैर ही तो दिखते हैं।) 

मेरे दिमाग़ में चल रहा था कि हमारे गाँव की कोई दादी के उमर की औरत होती तो वार्तालाप कैसा होता! स्वाभाविक प्रश्न होता कि दौड़ने के लिए इन सब की क्या ज़रूरत? (दउरे के बा त ई कुल्ही का होयी रे?) 

पर शायद वो सोच रहे हों कि - इन सबके बिना दौड़ूँगा कैसे? लोग भूल ही गए हैं कि दौड़ना पैर से होता है। किसी को दौड़ना हो तो समान की सूची देखता है। अपने पैर की ओर नहीं देखता। इच्छा शक्ति तो दूर की बात है।

मैंने सोचा कहूँ– “यार पैर मना कर देते क्या? थोड़े कम सामान भी होते तो दौड़ लेते। जैसा दाल बिना टमाटर के बनने से मना नहीं कर देती वैसे ही।” 

कहना नहीं होगा वो दो दिन से अधिक नहीं दौड़े। 

इसी प्रकार से फ़ोटोग्राफ़ी का शौक़ चढ़ा तो कैमरा ख़रीदे। किताब ले आए। फ़ोटोग्राफ़ी की पत्रिका और फ़ोटोशॉप का सब्सक्रीप्शन लिए। ऑनलाइन कोर्स। खुद कहते कि कॉलेज के बाद कभी कोई किताब नहीं पढ़े फिर भी अब ज़रूरी हो गया था – ध्यान रहे पढ़ना नहीं ख़रीदना। ट्राइपॉड, उसे लेवल करने के लिए उपकरण। फ़िल्टर (इन्स्टग्रैम वाला नहीं असली वाला)। अलग-अलग तरह के लेंस। 

न्यू यॉर्क में फोटो-विडीओ-टेलीस्कोप इत्यादि की एक बड़ी प्यारी दुकान है, वहाँ मैं अक्सर जाता – देखने कि क्या-क्या उपकरण होते हैं। वो गए तो उन्हें लगा पूरी दुकान ही ख़रीद लेनी चाहिए। मैंने ही उन्हें पहले सस्ते कैमरे से शुरू करने को कहा था कि पहले सीख तो लो। पर कुछ ही दिनों में उन्हें लग गया कि बिना महँगा कैमरा ख़रीदे पैशन नहीं जगेगा। पहला कैमरा औने-पौने दाम में बेचकर दुनिया का लगभग सबसे महँगा कैमरा ले आए। झूठ नहीं बोलूँगा, दौड़े तो दो-चार दिन भी नहीं थे पर दर्जन भर फोटो खींचे थे। ज़्यादातर न्यू यॉर्क ऑटो शो में कार के टायरों के। मैंने कहा - "भाई गाड़ी की भी खींच ले। इतनी अच्छी गाड़ियाँ हैं। केवल टायर की ही खींचोगे? हमारी भी खींच दो।"

तो बोले- “नहीं बे आर्टिस्टिक एंगल से खींचना होता है। कोर्स में बताया था, पहली क्लास में।” 

मुझे पता था आगे की क्लास वो किए भी नहीं होंगे। इस झाम ने लम्बे समय तक उनका पीछा नहीं छोड़ा। भारत गए तो इतना महँगा कैमरा देख कस्टम वाले ने लपेट लिया। पैंतीस हज़ार बिना रसीद “कैश” लेकर जाने दिया! पैशन ऐसा कि इन सबके बाद भी भी ससुर सोया ही रहा। 

उन्हें ऐसे दौरे पड़ते रहे। कुछ लोग हमें भी दोष दिए कि तुम्हारी संगति में लूटा जा रहा है लड़का। तुम्हीं ले जाते हो ऐसी जगहों पर। इसी प्रकार कुछ दिनों हम गोल्फ़ खेलने गए। हम वहीं किराए पर उपकरण वग़ैरह लेते, खेलने जैसा कुछ हरकत करते और उपकरण लौटा कर आ जाते। हमारे साथ वो भी चले गए एक दिन। बस फिर क्या था उन्हें लगा असली चीज तो ये है! उनका पैशन कुलाँचे भरने लगा। घर आते-आते पूरा गोल्फ़ किट ऑर्डर कर दिए। रेटिंग देखकर कि सबसे अच्छा लोग यही बता रहे हैं तो यही अच्छा होगा! और अब तो अक्सर खेलने जाना ही होगा तो किराए पर क्यों उपकरण लेना? 

कालांतर में वो किट भी उसी गति को प्राप्त हुआ जिस गति को पहले की चीजें हुई थी - धूल खाने की गति। 
उन दिनों
उन दिनों

ऐसे लोग मिलते रहते हैं। और तो और डायटिंग करनी है तो लोग खाना ऑर्डर करने बैठ जाते हैं! हेल्दी खाना - सैलड, सुगर फ़्री, किनुआ, चिया, हेम्प, ग्रीन टी। अरे डायटिंग करनी है तो होना तो ये चाहिए कि किनुआ-बेचुआ खाने के पहले भकोसना बंद करो। कम खाओ, उपवास कर लो। उसके लिए और अधिक खाना ख़रीदने की क्या ज़रूरत? विरोधाभास नहीं हो गया? चलना है तो पहले चलो फिर ख़रीद लेना फ़िटनेस वॉच भी किसी दिन। ऐसा थोड़े है कि बिना फ़िटनेस वॉच पहने एक दिन चल लोगे तो घाटा हो जाएगा! पर हैं लोग जो एक दिन ऐसी घड़ी नहीं पहनें तो सच में उन्हें दुःख हो जाता है!

“क्या हुआ?” 
“अबे यार। मत पूछो। आज बेकार में ही चल लिए, फ़िटनेस वॉच घर पर ही रह गयी। अब क्या ही फ़ायदा आज चलने का।” 

बात आप समझ ही गए होंगे। वैसे ये सब लिख-पढ़ कर कुछ बदलना तो है नहीं पर रमानाथ अवस्थी की कविता की एक सुंदर पंक्ति है - 

"कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए!"

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~Abhishek Ojha~

May 27, 2021

... गिरिजेश राव 🙏

गिरिजेश राव का जाना असहनीय है। उनकी कमी रहेगी। आजीवन।

क्या समझें, क्या समझाएँ और क्या लिखें! 

वो ऐसे थे कि उनके नाम के आगे आचार्य स्वतः लग जाता है। उनको पढ़ने के साथ-साथ उन्हें  व्यक्तिगत रूप से जानना भी हुआ। आत्मीय। अद्भुत। अद्वितीय। विलक्षण। उनसे नियमित बात होती रही। मिलना भी हुआ। अभी मई २१ को उनको भेजा मेरा आख़िरी संदेश अनुत्तरित ही रह गया। ११ मई को उनसे आख़िरी बार बात हुई थी, १६ मई को उनका आख़िरी संदेश आया था। अस्पताल जाने के बाद। उसके बाद उत्तर नहीं आया …सोच ही रहा था कि किससे हाल पूछूँ… और ये पता चला!

इससे पहले मैंने अभी तक के अपने जीवन में ऐसे किसी आत्मीय को हमेशा के लिए ऐसे चले जाते नहीं देखा। जब से सुना… शब्द नहीं है क्या लिखूँ।

मनु-ऊर्मि लिखते गिरिजेश राव को पढ़ आश्चर्य होता था कि कोई ऐसा भी लिख सकता है! फिर बाऊ। उनकी कविताएँ। बातें हुई तो - खगोल। काल गणना। गणित। दर्शन। वेद। पुराण। लंठ। कई बातें जो मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती। मनु-ऊर्मि पढ़ते हुए इतना जीवंत लिखते कि एक बार मैंने कहा था - “पता नहीं क्यों लग रहा है कि मनु अगले अंक में उलझ जाएगा।” बहुत हंसे। बोले बिल्कुल ऐसा ही होगा, पता कैसे चल गया? उनके साथ की गयी अनेकों बातें चैट लॉग में हैं २००८-०९ से। मैंने एक बार कहा था कि मैं किसी से बात ही नहीं करता पर जिनसे करता हूँ तो चुप भी नहीं होता। दो अलग लोग देखें तो समझ नहीं पाएँगे कि यही आदमी है। इस पर भी खूब हंसे बोले डिट्टो ऐसा ही हूँ मैं भी।

ऐसी कितनी बातें होती। जो बातें किसी और से नहीं हो सकती। हंसी-मजाक की भी अनेकों बातें। उनके कॉलेज की बातें। लंठो की बातें।

लेखन के परे अद्भुत व्यक्तित्व। अद्वितीय। ऐसा भी कोई कॉम्बिनेशन होता है?

पढ़ाई और पेशे से अभियंता, आईआईटियन, और वेदपाठी। वेद, पुराण, उपनिषद, खंडहरों और मूर्तियों पर लिखते तो लिखते ही चले जाते। लोक गीतों, जीउतिया और नाग पंचमी जैसे पर्वों के अस्तित्व और उद्भव पर कैसी-कैसी अद्भुत बातें बतायी उन्होंने। कैसी अद्भुत दृष्टि। साथ में ये भी - एक बार उनके ऑफ़िस में दो जर्मन उपकरणों की ख़रीद का टेंडर आया था जिनकी तुलना करते हुए ल्यूमिनस को समझने के एक सवाल पर कैंडेला पर स्कवायर और लक्स में उलझे तो मैंने भी उनके साथ माथा-पच्ची की। अंततः बात यहाँ तक गयी कि …उससे जुड़ा सवाल मैंने जगत प्रसिद्ध एच सी वर्मा से पूछा! जिन्होंने एक किताब बतायी जिसमें इसका वर्णन था। आप जानते हैं किसी सरकारी अफ़सर को जो अपनी नौकरी में इतनी गम्भीरता से काम करता हो?!

अद्भुत विचार थे उनके पास। और जुझारू भी वैसे ही। मात्र कोरे विचार नहीं। उन पर काम भी करते। एक बार एक विज्ञान के पाठ्यक्रम को लेकर कई दिनों तक चर्चा हुई। उन्हें कुछ भेजने में डर भी लगता क्योंकि कह देते - "चलिए हम भी ऐसा करते हैं!" अच्छा लगने भर से वाह-वाह कर रुकना नहीं होता था उन्हें। किसी किताब में महाभारत के समय के नक्षत्रों की स्थिति का वर्णन मिला तो स्वयं भी गणना करने बैठ जाते। एक बार उन्होंने कहा था “चार लोगों को लेकर कुछ छोटा सा भी निःस्वार्थ करने का प्रयास कर लीजिए। बस एक बार। उसके बाद आप बैठे-बैठे कभी किसी ऐसे को गाली नहीं देंगे जो कुछ भी करने का प्रयास कर रहा हो।”

उनकी सुझायी कितनी किताबें पढ़ा होगा। ऐसे-ऐसे नाम जो मैंने सुने नहीं थे। एक बार बोले - मोतीलाल बनारसीदास चलेंगे कभी साथ वहाँ मिलेगी रुचि की किताबें। उनसे पूछा तिरुकुरल पढ़ने का मन है कौन सा अनुवाद पढ़ूँ? तो बोले - “असली पढ़िए। तमिल सीख लीजिए इतना कठिन नहीं है।” कहाँ हो पाएगा! पर हाँ वो व्यक्ति ऐसे थे जो करवा देते।

एक बार एक ग्राफ़ भेजा तो उन्होंने कहा ऐसे ही जगन्नाथ को बनाइए ना। जगन्नाथ के चित्र में तो बस रेखा चित्र ही है! ज्यामिति  है - मैंने कभी देखा नहीं था उस दृष्टि से। ऐसे ही बातों-बातों में एक चर्चा चली तो बोले यही लिखिए मघा के लिए... और वो ९० लेख हो गए। समयाभाव में कहाँ से समय निकला वो मेरे लिए चमत्कार है। पटना में था तो हर कुछ दिन पर फोन कर पूछते कि पटना डायरी की अगली कड़ी कब आ रही है। -“अरे बाहर जाइए ये बैठ कर नहीं लिखाएगा।” और वो एक किताब बन गयी।

उनके आख़िरी संदेशों में से एक  -

“एक के पश्चात एक समस्याएँ। सोचा था कि विस्तृत लिखूँगा आपकी पुस्तक पर किंतु माताजी के देहावसान के पश्चात सप्ताहों तक मन:स्थिति नहीं बन पाई। व्यर्थ के फेसबुकिया हीही फीफी भी व्यर्थ ही सिद्ध हुए… इतने निकट से अच्छी भली को जाते देखना बड़ा त्रासद रहा। आपकी पुस्तक लेकर घूमना प्रारम्भ किया पटना पहुँचने से आगे नहीं बढ़ पाया। माता की शुश्रूषा के लिए लखनऊ स्थानान्तरण माँगा था, मिला तो कोई अर्थ ही नहीं रहा। ज्वाईन करने पहुँचा ७ मई को और उसी दिन से भयानक त्वचा संक्रमण से जूझ रहा हूँ! कुछ बातें मन को कचोटती रहती हैं, उनमें से एक यह भी कि लेबंटी चाह पर कुछ लिख नहीं सका अब तक। चाहे जितना समय लगे, लिखना तो है ही।”

उनकी माताजी को गए अभी कुछ सप्ताह ही हुए थे। मैंने कहा था कि अभी संकोच में पुस्तक पढ़ने को प्रथमिकता नहीं देना है बहुत काम है आपके पास। तो उन्होंने जवाब दिया  - 

“सब हो जाएगा। इसी में सब चल ही रहा है। जीवन रुकता थोड़े है! टाइमिंग का लफड़ा रहेगा केवल।”

मेरी आँखें नम नहीं होती आसानी से। पर ये देख रो पड़ा। हर बार। जीवन को ऐसे नहीं रुक जाना था।

लिंक और रोचक बातें भेजते रहते और मैं हर बार आश्चर्य में पड़ता जाता कि कितने जिज्ञासु व्यक्ति हैं। कितना कुछ आता है उन्हें। कई बार सवाल के साथ भेजते, विशेष कर गणित हो तो। मुझे जो थोड़ा-बहुत आता है शायद उन्हें लगता कि मुझे उससे कई गुना ज़्यादा आता है। मैं नहीं दे पाता था उनके कई प्रश्नों के उत्तर। कभी महीने में एकाध बार फ़ोन या वो कर लेते या मैं तो हम बहुत बातें करते। कितनी योजनाएँ थी - कोणार्क जाने की, कहीं बैठ कर चर्चा करने की। मघा प्रकाशन से पहली किताब आने की। मघा पर आने वाली लेखमालाओं की - “इसके बाद लिखिए दर्शन को आधुनिक रूप में! मिल कर लिखते हैं। उपनिषद के महा वाक्यों पर।”

मघा के एक लेख के बाद उनका संदेश आया - “अब सम्पादित करना शुरू कीजिए इसे, ये मघा प्रकाशन की पहली किताब बनेगी।” मैंने वो लेख बार-बार पढ़ा कि ऐसा क्या है जो उन्हें इतना अच्छा लग गया। मैंने लिखा नहीं उन्होंने लिखवा लिया।

वो दोस्त थे, बड़े भाई थे, आचार्य थे, ऋषि थे। २००८-०९ से शायद ही मैंने कुछ ऐसा लिखा हो जिसमें उनका किसी ना किसी रूप में योगदान नहीं था। उन्होंने कह-कह कर लिखवाया। मघा के हर लेख को सम्पादित किया। “वर्तनी का अपराध अक्षम्य है आर्य” कहने वाले पता नहीं कैसे मेरे लिखे को झेल जाते और सुधार कर देते। बिना कुछ कहे। विश्वास था कि लेबंटी चाह की कोई तो समीक्षा करेगा जो भाषा की त्रुटियों को उधेड़ कर रख देगा।

पता नहीं कैसे कुछ लोगों का उनसे वैचारिक मतभेद हो गया। विशेष रूप से २०१४ के बाद। जब लोग कहते हैं तो मुझे आश्चर्य होता है। हमने कभी ऐसे किसी मुद्दे पर चर्चा ही नहीं की! मुझे हमेशा इतने सुलझे और सहज लगे कि करते तो भी मतभेद नहीं होता पर वैसे ही सदा इतना कुछ होता था बात करने को!

कितना कुछ अधूरा रह गया - मनु-ऊर्मि, बाऊ, मघा के अनगिनत लेख, मघा प्रकाशन, कोणार्क, आपका उपन्यास जिसे आपने कहा था कि आप कभी लिखेंगे जो मैनहैट्टन में चलता, जिसकी नायिका का नाम ग्रेटा होता और नायक बलिया में जन्मा।

इतनी भी क्या जल्दी थी? आप तो अपनी अनंतता लिए अनंत में विलीन हो गए… पर ऐसे अचानक!

अभी दो महीने भी नहीं हुए आपने अपने माताजी के देहावसान के बाद ...

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥

तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥

को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥

🙏 सनातन कालयात्री। 


~Abhishek Ojha~

Mar 30, 2021

हिन्दी


‘लेबंटी चाह’ के एक प्रोग्राम में एक प्रश्न उठा: मैंने ‘लेबंटी चाह’ हिन्दी में क्यों लिखा? अंग्रेज़ी क्यों नहीं? काम करते हो न्यू यॉर्क में, पढ़ाते हो मशीन लर्निंग और किताब हिन्दी में!

पौन घंटे के प्रोग्राम में मैं विस्तार से बता नहीं पाया। मन नहीं भरा अपने उत्तर से। कई बातें हैं और सारी बातें इसी बात पर ‘कंवर्ज’ होती हैं कि लिखना हिन्दी में ही हो पाएगा। जैसे एक और सवाल था कि क्या मैं अपनी किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाना चाहूँगा? जिसका उत्तर मैंने दिया - नहीं। क्योंकि किताब की भाषा भी कथानक जितनी ही महत्त्वपूर्ण है और मुझे लगता है कि उसका ठीक-ठीक अनुवाद हो नहीं सकता।

...असली कारण तो वही है जो अनूप जी ने दैनिक जागरण में तब लिखा था जब मैंने पटना डायरी लिखना शुरू ही किया था। उन्होंने एक लाइन लिखी थी कि… “अभिषेक जस का तस लिख देते हैं। अभिषेक को पढ़ते हुए हजारीप्रसाद की बात याद आई - ‘यदि मैं बाणभट्ट की आत्मकथा भोजपुरी में लिखता तो यह उपन्यास अधिक प्रभावी होता!” लेबंटी चाह लिखते हुए मुझे हमेशा वैसा ही लगा। मेरा लिखा प्रभावी हो ना हो लेकिन यदि हुआ तो वो हिन्दी में लिखा ही हो सकता है। (इसका अर्थ ये मत निकाल लीजिएगा - एक किताब क्या लिख लिए अपने को हजारीप्रसाद ही समझने लगे। आजकल लोग कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं तो बताना पड़ता है। इसका अर्थ ये है कि जब आचार्य हजारीप्रसाद जैसे विद्वान अपनी मातृभाषा के लिए ऐसा कहें तो हम भला किस खेत की मूली हैं।)

लेकिन हिन्दी में रुचि कब और कैसे हुई, लिखने का कब सोचा इसका उत्तर इतना स्पष्ट है नहीं।

मुझे लगता है किसी भी विषय में रुचि बचपन और शिक्षकों पर बहुत निर्भर करती है। वो शिक्षक जिन्होंने गणित-विज्ञान को हिन्दी-संस्कृत पर कभी हावी नहीं होने दिया उनका इसमें बड़ा योगदान है। विशेषकर संस्कृत और गणित के शिक्षक। मुझे बहुत मानते। इतना कि मुझे लगता कुछ ग़लत कर दूँगा तो वो निराश हो जाएँगे। एक बार ऐसा हुआ कि संस्कृत के एक क्विज़ में स्त्री प्रत्यय के एक सवाल में ङीप्,- ङीष् में गलती हो गयी। मैं अगले दिन किताब लेकर गया कि यहाँ से पढ़ा था। गलती मेरी नहीं है। उस किताब के ष का पेट काटने वाला मिट कर प जैसा हो गया था। संस्कृत के शिक्षक की एक बात याद है जो पता नहीं उन्होंने कितनी गम्भीरता से कहा था (या ऐसे ही कह दिया था जैसे ब्लॉग पर आयी अधिकतर टिप्पणियाँ होती थी लेकिन मैंने गम्भीरता से लिया)। दसवीं के परिणामों के बाद उन्होंने कहा था - ‘बहुत अच्छे नम्बर ले आए तुम अभिषेक। लेकिन मुझे तो लगा था कि तुम्हारे संस्कृत में भी गणित जितने नम्बर आ सकते थे।’ (उस जमाने में हर विषय में सौ में निन्यानबे-सौ नहीं आते थे!)

वैसे ही गणित के शिक्षक। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा था कि मुझे कभी किताब लिखने का बहुत ज़्यादा मन नहीं था और लिखने के बाद भी संशय बहुत रहा कि पता नहीं लोगों को किताब कैसी लगे। पर कुछ पल आए जब लगा लिखना सफल रहा। उनमें से एक था जब स्कूल के गणित के शिक्षक का बड़ा प्यारा मैसेज आया। उसी लहजे में जैसे वो बोला करते - डायलॉग की तरह। शिक्षक गणित के लेकिन स्कूल में नाटक -भाषण वग़ैरह लिखने-लिखवाने में बड़ी रुचि लेते।

फिर हिन्दी उस उम्र से पढ़ा है जब का कुछ याद भी नहीं। खूब किताबें पढ़ी। अंग्रेज़ी में कथा-कहानी-संस्मरण लिखने का सोच भी कैसे सकते हैं! अंग्रेज़ी हमेशा लगी कि बस पढ़ने का एक विषय है। हिन्दी मैंने पढ़ना शुरू किया था घर की किताबें चाट जाने से। स्कूल की लाइब्रेरी से भी खूब पढ़ा। इन किताबों में सम्पूर्ण प्रेमचंद, शरतचंद्र, आचार्य चतुरसेन की सोमनाथ, कन्हैयालाल मुंशी की भगवान परशुराम, मनोहर श्याम जोशी की कुरु कुरु स्वाहा जैसी किताबें थी। स्कूल की लाइब्रेरी से गुलिवर की यात्राएं, 80 दिन में दुनिया की सैर, क़ैदी की करामात जैसे अनुवाद की हुई किताबें खूब पढ़ा। सैकड़ों नहीं भी तो पचास से अधिक तो आराम से। फिर बचपन में घर का माहौल ऐसा था कि रामचरितमानस जैसी किताब की चौपाइयाँ, कबीर-रहीम-घाघ, भूषण वग़ैरह बिना पढ़े ही पता होते। गीता प्रेस की किताबें, पुराण, और कल्याण बचपन से ही इस सिलेबस का हिस्सा रहे। रादूगो प्रकाशन वग़ैरह की रूसी किताबें राँची में खूब मिलती। राँची में एक बाज़ार में एक बूढ़े व्यक्ति पुरानी किताबें बेचते। ज़मीन पर बिछाकर। अनपढ़ थे। किताब की बाइंडिंग और वजन देख क़ीमत लगाते - क्या गणित, क्या विज्ञान और क्या साहित्य! उनसे कौड़ी के भाव ख़रीदी गयी उत्कृष्ट किताबें भी पढ़ी गयी।

और काम करने का ऐसा है कि आज भी जोड़-घटाव तो मैं तो ऐसे ही करता हूँ - पाँच-सात-बारह, बारह नवा इठोल से। पाँच दूनी दस, पाँच एकम पाँच। - आइ थिंक ईंट विल बी एराउंड ट्वेंटी वन, ट्वेंटी वन पोईँट सिक्स। सोचने की भाषा थोड़े न बदलती है कभी! जो कहते हैं कि बचपन की बोली भूल गए… वो ही जाने। ख़ैर…

ग्यारहवीं-बारहवीं के साल इरोडोव, रेस्निक, लोनी, पुली, और लकड़ी के वेज पर बॉल लुढ़केगी तो किधर कितना फ़ोर्स लगेगा जैसी बातों में निकल गए। हिन्दी सिलेबस में थी पर साल के शुरू में ही किताबें पढ़ कर रख दिया था। ये सोचकर कि जितनी हिन्दी पढ़ा है उतनी पर्याप्त होनी चाहिए। सम्मान भर के अंक के साथ पास होने के लिए। सिलेबस में जो भी गद्य-पद्य था आधा पहले से पढ़ा हुआ लगा। ग्यारहवीं-बारहवीं में हिन्दी की क्लास भी बहुत बड़ी होती। आर्ट्स-कॉमर्स-साइंस सभी के लिए हिन्दी कॉमन थी। सेंट ज़ेवियर्स राँची में ग्यारहवीं-बारहवीं में भी हिन्दी ‘प्रोफ़ेसर’ पढ़ाते। जो बीए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। कुछ राँची विश्वविद्यालय के एमए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। शिक्षक वहाँ अब भी वही हैं। सारे पीएचडी। कक्षाएँ अच्छी होती। पर जहां स्कूल के शिक्षक हर क्लास में चर्चा करते, यहाँ शिक्षक-विद्यार्थी में एकतरफ़ा संवाद था। मेरा नाता बस हाज़िरी लगाने और व्याख्यान सुनने तक ही था। पर अच्छा लगता। परीक्षा हुई तो पढ़ा तो था नहीं इसलिए अपने हिसाब से लिखा। पता नहीं कैसे प्रोफ़ेसर लोगों को पसंद आया। शायद पहली परीक्षा के बाद अंक भी सबसे अधिक दिए थे डॉक्टर भाटिया ने। दो सालों में एक परीक्षा के बाद शायद पहला और आख़िरी मौक़ा था जब मुझसे किसी हिन्दी के अध्यापक ने बात की थी। मुझे बुला कर कहा कि तुम्हारी उत्तर पुस्तिका सबसे अलग थी। 

मैंने कहा - ‘सर बिना पढ़े लिखा था। अपने मन से। शायद इसलिए।’ 

हिन्दी का अध्यापक अक्सर दुनिया देखा, दाल-रोटी का भाव समझने वाला व्यक्ति होता है। उन्होंने कहा था कि विज्ञान के विद्यार्थी हो। ऐसे ही बिना पढ़े हिन्दी की परीक्षा लिख देना अभी जहां ज़रूरत है वहाँ परिश्रम कर लो। हिन्दी के लेखक जो फ़्री में कुछ नहीं करेंगे और रॉयल्टी से ज़िंदगी चला लेंगे सोचते हैं ...उन्हें ऐसे शिक्षक नहीं मिले?

आईआईटी में हिन्दी से नाता रहा ट्रेन में पढ़ी जाने वाली किताबों से। वो भी तीसरे साल के बाद शुरू हुआ। कानपुर सेंट्रल प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर घुसते ही दाहिनी तरफ़ के व्हीलर्स से ख़रीदी गयी किताबें। चित्रलेखा, गुनाहों का देवता, वैशाली की नगरवधू इत्यादि - यूज़ूअल ससपेक्ट्स। अंतिम साल में आईआईटी के बुक क्लब से भी कुछ हिन्दी किताबें लाया पर वहाँ ढंग की हिन्दी किताबें होती नहीं थी (लाइब्रेरी में अच्छी किताबें थी पर वो हमेशा ही कोई कर्मचारी ले गया रहा होता )। ‘वैशाली की नगरवधू’ अकेली हिंदी की  किताब थी जिसे हॉस्टल में मेरे अतिरिक्त मेरी विंग में कुछ और लोगों ने भी पढ़ा। पर छुट्टियों में हिन्दी में साहित्य के अतिरिक्त भी हिन्दी की किताबें पढ़ा - घर पर पड़ी बीए, एमए की कई किताबें हिंदी में थी। इतिहास, राजनीतिशास्त्र - यूरोप का इतिहास, मध्यकालीन भारत का इतिहास, बीए अंग्रेज़ी की किताबें भी पढ़ी।

ब्लॉगिंग आईआईटी से निकलते-निकलते शुरू हुई। जिससे कई लोगों से सम्पर्क और दोस्ती हुई। कुछ ने अख़बारों में भी लिखवाया। ब्लॉगिंग तो ख़ैर सबसे बड़ा कारण बना हिन्दी में लिखने का। ओझा-उवाच लेबंटी चाह की माँ है - इधर से ही लेबंटी चाह का जन्म हुआ। तो उसकी बात क्या करना।

पर हिन्दी किताबें पढ़ने से भी एक के बाद एक कई रोचक बातें हुई। अंग्रेज़ी की किताबें मैंने हिन्दी से अधिक पढ़ा पर उन्हें पढ़ते हुए ऐसी बातें कभी नहीं हुई। (बस एक बार बलिया जाते हुए किसी ने ट्रेन में कहा था कि हल्ला मत करो लड़का अंग्रेज़ी पढ़ रहा है परीक्षा देने जा रहा होगा। और मैंने कहा था कि नहीं परीक्षा देने नहीं जा रहा ऐसे ही पढ़ रहा हूँ।)

पहली तो पुणे में। पुणे में एबीसी चौक है - अप्पा बलवंत चौक। वहाँ किताबों की दुकानें ही दुकानें हैं। २००८-०९ में अमेजन ऐसा था नहीं। किसी ने बताया था कि हिन्दी की किताबें वहीं मिलेंगी। वैसे हिन्दी की किताबें पुणे में मुश्किल से ही मिलती है। एक दो दुकानदारों ने तो साफ़ मना कर दिया। फिर …एक दुकान वाले ने मेरी किताबों की लिस्ट देख कुर्सी पर बैठाया। बड़े सम्मान से। पूछा चाय-ठंडा मँगा दूँ? मुझे ज़िंदगी में इसके अलावा कभी किसी दुकान वाले ने चाय-ठंडा ऑफ़र नहीं किया। ज्वेलर्स इत्यादि जैसे दुकान वाले, जो ये सब ऑफ़र करते हैं, वहाँ मैं कभी गया नहीं। बचपन में किराने की दुकान वाले ने कभी किसमिस-इलायची दिया हो और मैंने नहीं लिया हो के अलावा ऐसा पहली बार हुआ था।

पूछा - ‘पुणे यूनिवर्सिटी में एमए-पीएचडी कर रहे हो क्या? ऐसी किताबें ख़रीदने कभी कभार बस वही लोग आते हैं। कभी-कभी कोई ऐसा आता है ऐसी किताबें पढ़ने वाला।’

बड़ी इज्जत दी उन्होंने। जो किताबें उनके पास नहीं थी आस-पास से मँगा कर दी। अपना नम्बर दिया कि कोई भी किताब मँगा देंगे। पहली बार लगा हिन्दी पढ़ने और अच्छा पढ़ने पर विशेष भाव मिलता है! उन्होंने लिस्ट देख ययाति-मृत्युंजय पढ़ने की भी सलाह दी। दोनों मराठी की अनुवाद।

दुकान वाले का कहा मैंने सोचा एमए कर ही लें क्या! मज़ाक़-मज़ाक़ में नहीं गम्भीरता से। उन दिनों साथ के लोग एमबीए वग़ैरह पर ज़ोर मार रहे थे। एमबीए नहीं करने का मेरा निश्चय बहुत पहले से था। पीएचडी करने का मोहभंग पूरी तरह से तो कभी नहीं हुआ पर नौकरी में मन लगने से इतना तो हो चुका था कि (महेंद्र कपूर की आवाज़ में पढ़े) - उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। पीएचडी के परे पढ़ने का विचार ऐसा बनने लगा था जैसे बेवड़ो की एक श्रेणी होती है - फ़्री का मिला तो पी लेंगे। अर्थात् ये कि जो भी पढ़ने के पैसे कम्पनी दे देगी वो पढ़ते रहेंगे। और जो सीखने का मन हुआ उसे पढ़ा लेंगे। इन सबके साथ हिन्दी की किताबें पढ़ना फिर से शुरू हो गया था - दिनकर, अज्ञेय, अमृत लाल नागर, भगवती चरण वर्मा, धर्मवीर भारती, राजकमल चौधरी, विनोदकुमार शुक्ल वग़ैरह वग़ैरह।

पुणे में ही एक दिन मैं इग्नू एमए हिन्दी में एक दिन एडमिशन लेने चला गया। उन्होंने बोला था हिन्दी में एडमिशन के लिए किसी भी विषय में डिग्री की फोटो कॉपी लगेगी। हिन्दी में एडमिशन के लिए कुछ विशेष आवश्यकता थी नहीं। पर डिग्री देखकर सकते में आ गए - ये आपकी डिग्री है? आपको हिन्दी में क्यों एडमिशन लेना है? भारत में कहीं भी लोग अपने काम से अधिक काम रखते हैं। ख़ैर उनको उत्सुकता बहुत ज़्यादा थी पर कुछ सवाल-जवाब के बाद उन्होंने एडमिशन दे दिया। मैंने एक साथ दोनों साल की किताबें माँग ली। किताबें उनके स्टोर में बस पहले साल की ही थी। स्टोर ही था। बड़ी बेरहमी से प्लास्टिक की रस्सी में बाँध कर सीलन वाले कमरे में पीली पड़ती किताबें रखी थी। किताबों का मानवाधिकार की तरह किताबाधिकार तो होता नहीं। उन्होंने कहा कि एक सप्ताह में फ़ोन कर आ जाऊँ दूसरे साल की किताबें भी मिल जाएँगी। एक दो बार फ़ोन करने तक दूसरे साल की किताबें नहीं आ पायी और तीसरे चौथे फ़ोन के पहले मैं अमेरिका आ गया। एमए पहले साल वाली किताबें सात समंदर पार मेरे पीछे-पीछे आ गयी। अब भी साथ हैं।

किताबों (ज़्यादातर हिन्दी) के अमेरिका आने का ऐसा था कि कम्पनी कुछ भी समान ले आने का पैसा दे रही थी। तब हमारे पास सामान के नाम पर बस किताबें ही थी। कुछ और ख़रीद कर, कुछ दिल्ली से मँगा कर भी शिप कर दी गयी। बाद में जब ढाई महीनों के लिए पटना जाना हुआ तो उन्हीं दिनों एक किताब हाथ लग जाने से संस्कृत पढ़ना भी शुरू किया। चौखंबा की किताबें।

हिन्दी किताबों के मुझ तक पहुँचने के किस्से भी कम रोचक नहीं रहे। एक दो साल बाद एक और मित्र अपनी कम्पनी के पैसे पर भारत से आ रहे थे। उन्होंने पूछा कि कुछ चाहिए? (जैसे अमेरिका से कोई दोस्त भारत आए तो एक आईफ़ोन मंगाना होता है उसका उल्टा भी होता है!) तो हमने उन्हें भी एक लिस्ट थमा दी। उन्होंने वो लिस्ट अपने भ्राताश्री को बनारस भेज दिया। ये कहते हुए कि हमारे बहुत प्रिय मित्र ने मंगायी है, किताबें अमेरिका जानी हैं। उन्होंने मामले को इतनी गम्भीरता से लिया कि कुछ किताबें जो प्रिंट में नहीं थी वो भी ढूँढ कर आ गयी। भले लोग! मैं खुद इतनी मेहनत कभी नहीं करता। फिर बनारसी आदमी गम्भीरता से ले ले तो हिन्दी की किताबें भला कौन सी बड़ी बात है! धीरे-धीरे ये बात भी थोड़ी बहुत फैल गयी कि हिन्दी पढ़ता है। तो लोग पूछ लेते - पुस्तक मेला है कोई किताब लानी है तुम्हारे लिए? सोचूँ तो ऐसे लोगों की लिस्ट भी छोटी नहीं है जिन्होंने मुझे हिन्दी की किताबें दी। कई दोस्त-दोस्तनियों ने किताबें दी। निर्मल वर्मा, स्वदेश दीपक, सुरेन्द्र वर्मा की किताबों से ना केवल परिचय कराया पर किताबें भी न्यूयॉर्क तक पहुँचायी। अंग्रेज़ी की किताब पढ़ने से ये सब होता? पढ़ते तो रहे ऐसा कुछ नहीं हुआ।

और फिर इन किताबों के पढ़ते हुए भी कुछ कम रोचक किस्से नहीं हुए। अनगिनत।

उन दिनों मैं कुरुक्षेत्र पढ़ रहा था। हार्ड बाउंड। सुंदर किताब। मुंबई से अमेरिका आ रहा था। कम्पनी के पैसे पर बिज़नेस क्लास से। एक सज्जन पूरी फ़्लाइट हमें उत्सुकता से देखते रहे। बाद में मिलने आए। आप कहीं किसी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे हैं? लगता है आपको कहीं देखा है। मराठी किताब है? तीनों का उत्तर नहीं था। पर मुझे ऐसा कोई नहीं मिला जिसे हिन्दी पढ़ना ‘कूल’ या ‘स्पेशल’ नहीं लगा हो। कॉलेज के जिस भी मित्र को पता चला सबने ऐसा ही कहा भले खुद ना पढ़ें।

एक बार एक आंटी मिल गयी न्यूयॉर्क सबवे में। उन दिनों मेरे सर पर ‘झोंटा’ था - घुंघराले लम्बे बाल। और मैं पढ़ रहा था चौखंबा सीरिज़ की भर्तृहरि। वो मेरे स्टेशन पर ही उतर गयीं। बहुत देर तक बात की। जब उन्हें भरोसा हो गया कि मैं ‘हिप्पी’ नहीं हूँ, ना ही ‘योगा स्टूडीओ’ वाला - खूब-खूब आशीर्वाद देकर गयी। केवल किताब पढ़ने से।

कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय के क्वांट फ़ाइनांस की कक्षाएँ न्यूयॉर्क में भी होती हैं। मुझे एक बार वहाँ जाने का मौक़ा मिला। इस विषय पर बात करने कि नौकरी वग़ैरह के लिए छात्रगण क्या करें। वहाँ हुई लम्बी बात चीत का मुझे कुछ याद नहीं। याद है तो एक दूसरी पीढ़ी के भारतीय मूल का लड़का। मुझसे पूछने आया कि मेरे हाथ में किताब कौन सी है! थे कालिदास। उसने कहा - “पर संस्कृत तो ‘डेड लेंगवेज’ है। मुझे तो लगता है कि पचास लोग भी नहीं पढ़ते होंगे संस्कृत।” मैंने बताया कि मैं अनुवाद के साथ पढ़ रहा हूँ पर पचास से अधिक तो अमेरिका में ही पढ़ने वाले होंगे। यहाँ के विश्वविद्यालयों में भी विभाग हैं।

फिर भी उसने पूछा - “एक फोटो खींच लूँ? माँ को दिखाऊँगा कि कोई संस्कृत भी पढ़ता है।” कौन सी अंग्रेज़ी की किताब इतनी कूल होती कि पाठक के साथ कोई सेल्फ़ी ले?

और फिर हिंदी लिखने में अजूबा जैसा क्या है? हिन्दी नहीं लिखेंगे तो क्या लिखेंगे? और हाँ ये हिन्दी की सेवा करने और झंडा लेकर चलने जैसी कोई बात नहीं है। नेचुरल है। कभी अपने काम या पढ़ाई वाले विषयों पर लिखना हुआ तो अंग्रेज़ी ही दिमाग़ में आएगी। पर ‘लेबंटी चाह’ जैसा कुछ लिखना हुआ तो हिन्दी छोड़ कभी दूसरी भाषा दिमाग़ में आ ही नहीं सकती। स्वाभाविक है। स्वयंसिद्ध टाइप।

एक और बात… मैं लाइव म्यूज़िक की जगहों पर खूब गया हूँ जहां अधिकतर अंग्रेज़ी गाने बजते हैं। जैज़-वैज़ जैसी जगहें। एक बार अपने कॉलेज के दोस्तों के साथ “जैज़ बाई द बे” गया था। अंग्रेज़ी गाने बजते रहे। सब लोग सुनते रहे। कोई कभी किसी गाने पर गुनगुना भी देता। चेहरे पर ग़म ख़ुशी जैसा कुछ ख़ास नहीं आता। पर अंत में जब वहाँ किशोर कुमार के गाने बजे। जिसे उन्होंने अपने तरीक़े से बजाया - रीमिक्स जैसा। तब पहली बार ऐसा हुआ कि सब गुनगुनाने लगे। टेबल बजाने लगे। वैसा किसी भी अंग्रेज़ी गाने के साथ नहीं हुआ। ऐसा नहीं था कि मेरे साथ के लोग अंग्रेज़ी गाने नहीं सुनते थे या उन्हें समझ नहीं आते। पर किसी अंग्रेज़ी गाने पर टेबल बजाने लगें हो ऐसा भी नहीं हुआ। किशोर कुमार सुनते ही सब अपने रंग में आ गए। हिन्दी लिखने का वैसा ही है। रीमिक्स भी हो तो अपने लिए किसी भी दिन अंग्रेज़ी से ज़्यादा प्रभावी होगी।

इस पर अनगिनत बातें लिखी जा सकती है - सब कंवर्ज होंगी हिन्दी पर ही! अब जैसे यही एक बात है कि इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी - अंग्रेज़ी में लिखने पर घंटे भर में इतने फ़्लो में तो नहीं ही हो पाता! :)

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~Abhishek Ojha~