‘लेबंटी चाह’ के एक प्रोग्राम में एक प्रश्न उठा: मैंने ‘लेबंटी चाह’ हिन्दी में क्यों लिखा? अंग्रेज़ी क्यों नहीं? काम करते हो न्यू यॉर्क में, पढ़ाते हो मशीन लर्निंग और किताब हिन्दी में!
पौन घंटे के प्रोग्राम में मैं विस्तार से बता नहीं पाया। मन नहीं भरा अपने उत्तर से। कई बातें हैं और सारी बातें इसी बात पर ‘कंवर्ज’ होती हैं कि लिखना हिन्दी में ही हो पाएगा। जैसे एक और सवाल था कि क्या मैं अपनी किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाना चाहूँगा? जिसका उत्तर मैंने दिया - नहीं। क्योंकि किताब की भाषा भी कथानक जितनी ही महत्त्वपूर्ण है और मुझे लगता है कि उसका ठीक-ठीक अनुवाद हो नहीं सकता।
...असली कारण तो वही है जो अनूप जी ने दैनिक जागरण में तब लिखा था जब मैंने पटना डायरी लिखना शुरू ही किया था। उन्होंने एक लाइन लिखी थी कि… “अभिषेक जस का तस लिख देते हैं। अभिषेक को पढ़ते हुए हजारीप्रसाद की बात याद आई - ‘यदि मैं बाणभट्ट की आत्मकथा भोजपुरी में लिखता तो यह उपन्यास अधिक प्रभावी होता!” लेबंटी चाह लिखते हुए मुझे हमेशा वैसा ही लगा। मेरा लिखा प्रभावी हो ना हो लेकिन यदि हुआ तो वो हिन्दी में लिखा ही हो सकता है। (इसका अर्थ ये मत निकाल लीजिएगा - एक किताब क्या लिख लिए अपने को हजारीप्रसाद ही समझने लगे। आजकल लोग कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं तो बताना पड़ता है। इसका अर्थ ये है कि जब आचार्य हजारीप्रसाद जैसे विद्वान अपनी मातृभाषा के लिए ऐसा कहें तो हम भला किस खेत की मूली हैं।)
लेकिन हिन्दी में रुचि कब और कैसे हुई, लिखने का कब सोचा इसका उत्तर इतना स्पष्ट है नहीं।
मुझे लगता है किसी भी विषय में रुचि बचपन और शिक्षकों पर बहुत निर्भर करती है। वो शिक्षक जिन्होंने गणित-विज्ञान को हिन्दी-संस्कृत पर कभी हावी नहीं होने दिया उनका इसमें बड़ा योगदान है। विशेषकर संस्कृत और गणित के शिक्षक। मुझे बहुत मानते। इतना कि मुझे लगता कुछ ग़लत कर दूँगा तो वो निराश हो जाएँगे। एक बार ऐसा हुआ कि संस्कृत के एक क्विज़ में स्त्री प्रत्यय के एक सवाल में ङीप्,- ङीष् में गलती हो गयी। मैं अगले दिन किताब लेकर गया कि यहाँ से पढ़ा था। गलती मेरी नहीं है। उस किताब के ष का पेट काटने वाला मिट कर प जैसा हो गया था। संस्कृत के शिक्षक की एक बात याद है जो पता नहीं उन्होंने कितनी गम्भीरता से कहा था (या ऐसे ही कह दिया था जैसे ब्लॉग पर आयी अधिकतर टिप्पणियाँ होती थी लेकिन मैंने गम्भीरता से लिया)। दसवीं के परिणामों के बाद उन्होंने कहा था - ‘बहुत अच्छे नम्बर ले आए तुम अभिषेक। लेकिन मुझे तो लगा था कि तुम्हारे संस्कृत में भी गणित जितने नम्बर आ सकते थे।’ (उस जमाने में हर विषय में सौ में निन्यानबे-सौ नहीं आते थे!)
वैसे ही गणित के शिक्षक। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा था कि मुझे कभी किताब लिखने का बहुत ज़्यादा मन नहीं था और लिखने के बाद भी संशय बहुत रहा कि पता नहीं लोगों को किताब कैसी लगे। पर कुछ पल आए जब लगा लिखना सफल रहा। उनमें से एक था जब स्कूल के गणित के शिक्षक का बड़ा प्यारा मैसेज आया। उसी लहजे में जैसे वो बोला करते - डायलॉग की तरह। शिक्षक गणित के लेकिन स्कूल में नाटक -भाषण वग़ैरह लिखने-लिखवाने में बड़ी रुचि लेते।
फिर हिन्दी उस उम्र से पढ़ा है जब का कुछ याद भी नहीं। खूब किताबें पढ़ी। अंग्रेज़ी में कथा-कहानी-संस्मरण लिखने का सोच भी कैसे सकते हैं! अंग्रेज़ी हमेशा लगी कि बस पढ़ने का एक विषय है। हिन्दी मैंने पढ़ना शुरू किया था घर की किताबें चाट जाने से। स्कूल की लाइब्रेरी से भी खूब पढ़ा। इन किताबों में सम्पूर्ण प्रेमचंद, शरतचंद्र, आचार्य चतुरसेन की सोमनाथ, कन्हैयालाल मुंशी की भगवान परशुराम, मनोहर श्याम जोशी की कुरु कुरु स्वाहा जैसी किताबें थी। स्कूल की लाइब्रेरी से गुलिवर की यात्राएं, 80 दिन में दुनिया की सैर, क़ैदी की करामात जैसे अनुवाद की हुई किताबें खूब पढ़ा। सैकड़ों नहीं भी तो पचास से अधिक तो आराम से। फिर बचपन में घर का माहौल ऐसा था कि रामचरितमानस जैसी किताब की चौपाइयाँ, कबीर-रहीम-घाघ, भूषण वग़ैरह बिना पढ़े ही पता होते। गीता प्रेस की किताबें, पुराण, और कल्याण बचपन से ही इस सिलेबस का हिस्सा रहे। रादूगो प्रकाशन वग़ैरह की रूसी किताबें राँची में खूब मिलती। राँची में एक बाज़ार में एक बूढ़े व्यक्ति पुरानी किताबें बेचते। ज़मीन पर बिछाकर। अनपढ़ थे। किताब की बाइंडिंग और वजन देख क़ीमत लगाते - क्या गणित, क्या विज्ञान और क्या साहित्य! उनसे कौड़ी के भाव ख़रीदी गयी उत्कृष्ट किताबें भी पढ़ी गयी।
और काम करने का ऐसा है कि आज भी जोड़-घटाव तो मैं तो ऐसे ही करता हूँ - पाँच-सात-बारह, बारह नवा इठोल से। पाँच दूनी दस, पाँच एकम पाँच। - आइ थिंक ईंट विल बी एराउंड ट्वेंटी वन, ट्वेंटी वन पोईँट सिक्स। सोचने की भाषा थोड़े न बदलती है कभी! जो कहते हैं कि बचपन की बोली भूल गए… वो ही जाने। ख़ैर…
ग्यारहवीं-बारहवीं के साल इरोडोव, रेस्निक, लोनी, पुली, और लकड़ी के वेज पर बॉल लुढ़केगी तो किधर कितना फ़ोर्स लगेगा जैसी बातों में निकल गए। हिन्दी सिलेबस में थी पर साल के शुरू में ही किताबें पढ़ कर रख दिया था। ये सोचकर कि जितनी हिन्दी पढ़ा है उतनी पर्याप्त होनी चाहिए। सम्मान भर के अंक के साथ पास होने के लिए। सिलेबस में जो भी गद्य-पद्य था आधा पहले से पढ़ा हुआ लगा। ग्यारहवीं-बारहवीं में हिन्दी की क्लास भी बहुत बड़ी होती। आर्ट्स-कॉमर्स-साइंस सभी के लिए हिन्दी कॉमन थी। सेंट ज़ेवियर्स राँची में ग्यारहवीं-बारहवीं में भी हिन्दी ‘प्रोफ़ेसर’ पढ़ाते। जो बीए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। कुछ राँची विश्वविद्यालय के एमए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। शिक्षक वहाँ अब भी वही हैं। सारे पीएचडी। कक्षाएँ अच्छी होती। पर जहां स्कूल के शिक्षक हर क्लास में चर्चा करते, यहाँ शिक्षक-विद्यार्थी में एकतरफ़ा संवाद था। मेरा नाता बस हाज़िरी लगाने और व्याख्यान सुनने तक ही था। पर अच्छा लगता। परीक्षा हुई तो पढ़ा तो था नहीं इसलिए अपने हिसाब से लिखा। पता नहीं कैसे प्रोफ़ेसर लोगों को पसंद आया। शायद पहली परीक्षा के बाद अंक भी सबसे अधिक दिए थे डॉक्टर भाटिया ने। दो सालों में एक परीक्षा के बाद शायद पहला और आख़िरी मौक़ा था जब मुझसे किसी हिन्दी के अध्यापक ने बात की थी। मुझे बुला कर कहा कि तुम्हारी उत्तर पुस्तिका सबसे अलग थी।
मैंने कहा - ‘सर बिना पढ़े लिखा था। अपने मन से। शायद इसलिए।’
हिन्दी का अध्यापक अक्सर दुनिया देखा, दाल-रोटी का भाव समझने वाला व्यक्ति होता है। उन्होंने कहा था कि विज्ञान के विद्यार्थी हो। ऐसे ही बिना पढ़े हिन्दी की परीक्षा लिख देना अभी जहां ज़रूरत है वहाँ परिश्रम कर लो। हिन्दी के लेखक जो फ़्री में कुछ नहीं करेंगे और रॉयल्टी से ज़िंदगी चला लेंगे सोचते हैं ...उन्हें ऐसे शिक्षक नहीं मिले?
आईआईटी में हिन्दी से नाता रहा ट्रेन में पढ़ी जाने वाली किताबों से। वो भी तीसरे साल के बाद शुरू हुआ। कानपुर सेंट्रल प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर घुसते ही दाहिनी तरफ़ के व्हीलर्स से ख़रीदी गयी किताबें। चित्रलेखा, गुनाहों का देवता, वैशाली की नगरवधू इत्यादि - यूज़ूअल ससपेक्ट्स। अंतिम साल में आईआईटी के बुक क्लब से भी कुछ हिन्दी किताबें लाया पर वहाँ ढंग की हिन्दी किताबें होती नहीं थी (लाइब्रेरी में अच्छी किताबें थी पर वो हमेशा ही कोई कर्मचारी ले गया रहा होता )। ‘वैशाली की नगरवधू’ अकेली हिंदी की किताब थी जिसे हॉस्टल में मेरे अतिरिक्त मेरी विंग में कुछ और लोगों ने भी पढ़ा। पर छुट्टियों में हिन्दी में साहित्य के अतिरिक्त भी हिन्दी की किताबें पढ़ा - घर पर पड़ी बीए, एमए की कई किताबें हिंदी में थी। इतिहास, राजनीतिशास्त्र - यूरोप का इतिहास, मध्यकालीन भारत का इतिहास, बीए अंग्रेज़ी की किताबें भी पढ़ी।
आईआईटी में हिन्दी से नाता रहा ट्रेन में पढ़ी जाने वाली किताबों से। वो भी तीसरे साल के बाद शुरू हुआ। कानपुर सेंट्रल प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर घुसते ही दाहिनी तरफ़ के व्हीलर्स से ख़रीदी गयी किताबें। चित्रलेखा, गुनाहों का देवता, वैशाली की नगरवधू इत्यादि - यूज़ूअल ससपेक्ट्स। अंतिम साल में आईआईटी के बुक क्लब से भी कुछ हिन्दी किताबें लाया पर वहाँ ढंग की हिन्दी किताबें होती नहीं थी (लाइब्रेरी में अच्छी किताबें थी पर वो हमेशा ही कोई कर्मचारी ले गया रहा होता )। ‘वैशाली की नगरवधू’ अकेली हिंदी की किताब थी जिसे हॉस्टल में मेरे अतिरिक्त मेरी विंग में कुछ और लोगों ने भी पढ़ा। पर छुट्टियों में हिन्दी में साहित्य के अतिरिक्त भी हिन्दी की किताबें पढ़ा - घर पर पड़ी बीए, एमए की कई किताबें हिंदी में थी। इतिहास, राजनीतिशास्त्र - यूरोप का इतिहास, मध्यकालीन भारत का इतिहास, बीए अंग्रेज़ी की किताबें भी पढ़ी।
ब्लॉगिंग आईआईटी से निकलते-निकलते शुरू हुई। जिससे कई लोगों से सम्पर्क और दोस्ती हुई। कुछ ने अख़बारों में भी लिखवाया। ब्लॉगिंग तो ख़ैर सबसे बड़ा कारण बना हिन्दी में लिखने का। ओझा-उवाच लेबंटी चाह की माँ है - इधर से ही लेबंटी चाह का जन्म हुआ। तो उसकी बात क्या करना।
पर हिन्दी किताबें पढ़ने से भी एक के बाद एक कई रोचक बातें हुई। अंग्रेज़ी की किताबें मैंने हिन्दी से अधिक पढ़ा पर उन्हें पढ़ते हुए ऐसी बातें कभी नहीं हुई। (बस एक बार बलिया जाते हुए किसी ने ट्रेन में कहा था कि हल्ला मत करो लड़का अंग्रेज़ी पढ़ रहा है परीक्षा देने जा रहा होगा। और मैंने कहा था कि नहीं परीक्षा देने नहीं जा रहा ऐसे ही पढ़ रहा हूँ।)
पहली तो पुणे में। पुणे में एबीसी चौक है - अप्पा बलवंत चौक। वहाँ किताबों की दुकानें ही दुकानें हैं। २००८-०९ में अमेजन ऐसा था नहीं। किसी ने बताया था कि हिन्दी की किताबें वहीं मिलेंगी। वैसे हिन्दी की किताबें पुणे में मुश्किल से ही मिलती है। एक दो दुकानदारों ने तो साफ़ मना कर दिया। फिर …एक दुकान वाले ने मेरी किताबों की लिस्ट देख कुर्सी पर बैठाया। बड़े सम्मान से। पूछा चाय-ठंडा मँगा दूँ? मुझे ज़िंदगी में इसके अलावा कभी किसी दुकान वाले ने चाय-ठंडा ऑफ़र नहीं किया। ज्वेलर्स इत्यादि जैसे दुकान वाले, जो ये सब ऑफ़र करते हैं, वहाँ मैं कभी गया नहीं। बचपन में किराने की दुकान वाले ने कभी किसमिस-इलायची दिया हो और मैंने नहीं लिया हो के अलावा ऐसा पहली बार हुआ था।
पूछा - ‘पुणे यूनिवर्सिटी में एमए-पीएचडी कर रहे हो क्या? ऐसी किताबें ख़रीदने कभी कभार बस वही लोग आते हैं। कभी-कभी कोई ऐसा आता है ऐसी किताबें पढ़ने वाला।’
बड़ी इज्जत दी उन्होंने। जो किताबें उनके पास नहीं थी आस-पास से मँगा कर दी। अपना नम्बर दिया कि कोई भी किताब मँगा देंगे। पहली बार लगा हिन्दी पढ़ने और अच्छा पढ़ने पर विशेष भाव मिलता है! उन्होंने लिस्ट देख ययाति-मृत्युंजय पढ़ने की भी सलाह दी। दोनों मराठी की अनुवाद।
दुकान वाले का कहा मैंने सोचा एमए कर ही लें क्या! मज़ाक़-मज़ाक़ में नहीं गम्भीरता से। उन दिनों साथ के लोग एमबीए वग़ैरह पर ज़ोर मार रहे थे। एमबीए नहीं करने का मेरा निश्चय बहुत पहले से था। पीएचडी करने का मोहभंग पूरी तरह से तो कभी नहीं हुआ पर नौकरी में मन लगने से इतना तो हो चुका था कि (महेंद्र कपूर की आवाज़ में पढ़े) - उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। पीएचडी के परे पढ़ने का विचार ऐसा बनने लगा था जैसे बेवड़ो की एक श्रेणी होती है - फ़्री का मिला तो पी लेंगे। अर्थात् ये कि जो भी पढ़ने के पैसे कम्पनी दे देगी वो पढ़ते रहेंगे। और जो सीखने का मन हुआ उसे पढ़ा लेंगे। इन सबके साथ हिन्दी की किताबें पढ़ना फिर से शुरू हो गया था - दिनकर, अज्ञेय, अमृत लाल नागर, भगवती चरण वर्मा, धर्मवीर भारती, राजकमल चौधरी, विनोदकुमार शुक्ल वग़ैरह वग़ैरह।
पुणे में ही एक दिन मैं इग्नू एमए हिन्दी में एक दिन एडमिशन लेने चला गया। उन्होंने बोला था हिन्दी में एडमिशन के लिए किसी भी विषय में डिग्री की फोटो कॉपी लगेगी। हिन्दी में एडमिशन के लिए कुछ विशेष आवश्यकता थी नहीं। पर डिग्री देखकर सकते में आ गए - ये आपकी डिग्री है? आपको हिन्दी में क्यों एडमिशन लेना है? भारत में कहीं भी लोग अपने काम से अधिक काम रखते हैं। ख़ैर उनको उत्सुकता बहुत ज़्यादा थी पर कुछ सवाल-जवाब के बाद उन्होंने एडमिशन दे दिया। मैंने एक साथ दोनों साल की किताबें माँग ली। किताबें उनके स्टोर में बस पहले साल की ही थी। स्टोर ही था। बड़ी बेरहमी से प्लास्टिक की रस्सी में बाँध कर सीलन वाले कमरे में पीली पड़ती किताबें रखी थी। किताबों का मानवाधिकार की तरह किताबाधिकार तो होता नहीं। उन्होंने कहा कि एक सप्ताह में फ़ोन कर आ जाऊँ दूसरे साल की किताबें भी मिल जाएँगी। एक दो बार फ़ोन करने तक दूसरे साल की किताबें नहीं आ पायी और तीसरे चौथे फ़ोन के पहले मैं अमेरिका आ गया। एमए पहले साल वाली किताबें सात समंदर पार मेरे पीछे-पीछे आ गयी। अब भी साथ हैं।
किताबों (ज़्यादातर हिन्दी) के अमेरिका आने का ऐसा था कि कम्पनी कुछ भी समान ले आने का पैसा दे रही थी। तब हमारे पास सामान के नाम पर बस किताबें ही थी। कुछ और ख़रीद कर, कुछ दिल्ली से मँगा कर भी शिप कर दी गयी। बाद में जब ढाई महीनों के लिए पटना जाना हुआ तो उन्हीं दिनों एक किताब हाथ लग जाने से संस्कृत पढ़ना भी शुरू किया। चौखंबा की किताबें।
हिन्दी किताबों के मुझ तक पहुँचने के किस्से भी कम रोचक नहीं रहे। एक दो साल बाद एक और मित्र अपनी कम्पनी के पैसे पर भारत से आ रहे थे। उन्होंने पूछा कि कुछ चाहिए? (जैसे अमेरिका से कोई दोस्त भारत आए तो एक आईफ़ोन मंगाना होता है उसका उल्टा भी होता है!) तो हमने उन्हें भी एक लिस्ट थमा दी। उन्होंने वो लिस्ट अपने भ्राताश्री को बनारस भेज दिया। ये कहते हुए कि हमारे बहुत प्रिय मित्र ने मंगायी है, किताबें अमेरिका जानी हैं। उन्होंने मामले को इतनी गम्भीरता से लिया कि कुछ किताबें जो प्रिंट में नहीं थी वो भी ढूँढ कर आ गयी। भले लोग! मैं खुद इतनी मेहनत कभी नहीं करता। फिर बनारसी आदमी गम्भीरता से ले ले तो हिन्दी की किताबें भला कौन सी बड़ी बात है! धीरे-धीरे ये बात भी थोड़ी बहुत फैल गयी कि हिन्दी पढ़ता है। तो लोग पूछ लेते - पुस्तक मेला है कोई किताब लानी है तुम्हारे लिए? सोचूँ तो ऐसे लोगों की लिस्ट भी छोटी नहीं है जिन्होंने मुझे हिन्दी की किताबें दी। कई दोस्त-दोस्तनियों ने किताबें दी। निर्मल वर्मा, स्वदेश दीपक, सुरेन्द्र वर्मा की किताबों से ना केवल परिचय कराया पर किताबें भी न्यूयॉर्क तक पहुँचायी। अंग्रेज़ी की किताब पढ़ने से ये सब होता? पढ़ते तो रहे ऐसा कुछ नहीं हुआ।
और फिर इन किताबों के पढ़ते हुए भी कुछ कम रोचक किस्से नहीं हुए। अनगिनत।
उन दिनों मैं कुरुक्षेत्र पढ़ रहा था। हार्ड बाउंड। सुंदर किताब। मुंबई से अमेरिका आ रहा था। कम्पनी के पैसे पर बिज़नेस क्लास से। एक सज्जन पूरी फ़्लाइट हमें उत्सुकता से देखते रहे। बाद में मिलने आए। आप कहीं किसी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे हैं? लगता है आपको कहीं देखा है। मराठी किताब है? तीनों का उत्तर नहीं था। पर मुझे ऐसा कोई नहीं मिला जिसे हिन्दी पढ़ना ‘कूल’ या ‘स्पेशल’ नहीं लगा हो। कॉलेज के जिस भी मित्र को पता चला सबने ऐसा ही कहा भले खुद ना पढ़ें।
एक बार एक आंटी मिल गयी न्यूयॉर्क सबवे में। उन दिनों मेरे सर पर ‘झोंटा’ था - घुंघराले लम्बे बाल। और मैं पढ़ रहा था चौखंबा सीरिज़ की भर्तृहरि। वो मेरे स्टेशन पर ही उतर गयीं। बहुत देर तक बात की। जब उन्हें भरोसा हो गया कि मैं ‘हिप्पी’ नहीं हूँ, ना ही ‘योगा स्टूडीओ’ वाला - खूब-खूब आशीर्वाद देकर गयी। केवल किताब पढ़ने से।
कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय के क्वांट फ़ाइनांस की कक्षाएँ न्यूयॉर्क में भी होती हैं। मुझे एक बार वहाँ जाने का मौक़ा मिला। इस विषय पर बात करने कि नौकरी वग़ैरह के लिए छात्रगण क्या करें। वहाँ हुई लम्बी बात चीत का मुझे कुछ याद नहीं। याद है तो एक दूसरी पीढ़ी के भारतीय मूल का लड़का। मुझसे पूछने आया कि मेरे हाथ में किताब कौन सी है! थे कालिदास। उसने कहा - “पर संस्कृत तो ‘डेड लेंगवेज’ है। मुझे तो लगता है कि पचास लोग भी नहीं पढ़ते होंगे संस्कृत।” मैंने बताया कि मैं अनुवाद के साथ पढ़ रहा हूँ पर पचास से अधिक तो अमेरिका में ही पढ़ने वाले होंगे। यहाँ के विश्वविद्यालयों में भी विभाग हैं।
फिर भी उसने पूछा - “एक फोटो खींच लूँ? माँ को दिखाऊँगा कि कोई संस्कृत भी पढ़ता है।” कौन सी अंग्रेज़ी की किताब इतनी कूल होती कि पाठक के साथ कोई सेल्फ़ी ले?
और फिर हिंदी लिखने में अजूबा जैसा क्या है? हिन्दी नहीं लिखेंगे तो क्या लिखेंगे? और हाँ ये हिन्दी की सेवा करने और झंडा लेकर चलने जैसी कोई बात नहीं है। नेचुरल है। कभी अपने काम या पढ़ाई वाले विषयों पर लिखना हुआ तो अंग्रेज़ी ही दिमाग़ में आएगी। पर ‘लेबंटी चाह’ जैसा कुछ लिखना हुआ तो हिन्दी छोड़ कभी दूसरी भाषा दिमाग़ में आ ही नहीं सकती। स्वाभाविक है। स्वयंसिद्ध टाइप।
एक और बात… मैं लाइव म्यूज़िक की जगहों पर खूब गया हूँ जहां अधिकतर अंग्रेज़ी गाने बजते हैं। जैज़-वैज़ जैसी जगहें। एक बार अपने कॉलेज के दोस्तों के साथ “जैज़ बाई द बे” गया था। अंग्रेज़ी गाने बजते रहे। सब लोग सुनते रहे। कोई कभी किसी गाने पर गुनगुना भी देता। चेहरे पर ग़म ख़ुशी जैसा कुछ ख़ास नहीं आता। पर अंत में जब वहाँ किशोर कुमार के गाने बजे। जिसे उन्होंने अपने तरीक़े से बजाया - रीमिक्स जैसा। तब पहली बार ऐसा हुआ कि सब गुनगुनाने लगे। टेबल बजाने लगे। वैसा किसी भी अंग्रेज़ी गाने के साथ नहीं हुआ। ऐसा नहीं था कि मेरे साथ के लोग अंग्रेज़ी गाने नहीं सुनते थे या उन्हें समझ नहीं आते। पर किसी अंग्रेज़ी गाने पर टेबल बजाने लगें हो ऐसा भी नहीं हुआ। किशोर कुमार सुनते ही सब अपने रंग में आ गए। हिन्दी लिखने का वैसा ही है। रीमिक्स भी हो तो अपने लिए किसी भी दिन अंग्रेज़ी से ज़्यादा प्रभावी होगी।
इस पर अनगिनत बातें लिखी जा सकती है - सब कंवर्ज होंगी हिन्दी पर ही! अब जैसे यही एक बात है कि इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी - अंग्रेज़ी में लिखने पर घंटे भर में इतने फ़्लो में तो नहीं ही हो पाता! :)
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~Abhishek Ojha~
वाह! - अंग्रेज़ी में लिखा पढ़ने पर घंटे भर में इतने फ़्लो में तो नहीं ही हो पाता! :)
ReplyDeleteवाह सारी मीटिंग किनारे कर इसे भी पढ़ गया। आपकी लेखनी में जादू है। आपके जैसे कुछ लिखने पढ़ने के सदगुण आ जाए तो बात ही क्या।
ReplyDeleteवाह,पूरा लेख पढ़ा, आपका भाषा प्रेम प्रशसनीय है।
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