सुबह सुबह रिक्शे वाले ने जब सौ रुपये का नोट देखकर हाथ खड़ा कर दिया तो मैं चाय वाले छोटू के पास गया। सौ रुपये अभी उसके पास भी जमा नहीं हुए थे। अगली कोशिश जूस वाले चचा... मैंने सौ का नोट बढ़ाते हुए कहा - "चचा, सौ रुपये का छुट्टा है तो दे दीजिये। रिक्शे वाले को देना है।"
"अरे त अइसे बोलिए ना कि रेकसा वाला को देना है। उसके लिए सौ टाकिया काहे लहरा रहे हैं उ त ओइसे भी हो जाएगा। आपका कवन सा एक दिन का आना है। रोज त आप यहाँ आते ही हैं बीरेंदर के साथ। बोलिए न कै पईसा देना है? हमको बाद में लौटा दीजिएगा"
"पंद्रह रुपये" मैंने सौ रुपये का नोट वापस जेब में रखते हुए कहा।
ये तीसरी बार था जब ना चाहते हुए भी मुझे इस तरह उधार लेना पड़ा था। पटना की इन छोटी दुकानों पर उधार बहुत ही आम बात है भले ही उधार की समानता प्रेम की कैंची से करते हुए स्टिकर सामने लगा हो।
"पंदरह? अरे महाराज आपलोग त बिगार के रख दिये हैं रेक्सवा वलन के। अब कायदे से त एतना दूर से आपको पैदले आ जाना चाहिए। आ रेकसा किए भी भी त पंदरह रुपाया का जरूरत देने का ! ...लीजिये" - चचा ने पाँच-पाँच के तीन सिक्के मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा। मैंने मुसकुराते हुए बस इतना कहा - "एक फ्रूट प्लेट बनाइये मैं दो मिनट में आता हूँ।"
मुख्य सड़क पर पैसे देकर मैं वापस गली में आया तो बीरेंदर भी मिल गया। बाइक रोकते ही बोला - "भैया, आज सुबह-सुबह आप इधर आ गए। आप त सीधे ऑफिस में ही जाते हैं।"
"अरे वो छुट्टा नहीं था तो रिक्शे वाले को देने के लिए चचा से पैसे लेने आ गया । वैसे भी ऑफिस में आज कुछ खास काम है नहीं। एक घंटे बाद दानापुर जाना है। बैंक से कोई आने वाला है उसी के साथ फील्ड ट्रिप है"
"त फिर क्या ! चाय पीकर जाईएगा"
"नहीं बीरेंदर चाय नहीं, फ्रूट प्लेट लिया है। चचा को पैसे भी लौटाने हैं, अब क्या खाता चलाएं इनके यहाँ एकाध महीने तो बचे हैं बस"
"आरे आप उसका टेंसन न लीजिये। चचा खाता में लिखते ही नहीं है उ का है कि एक बार खाता में लिख देते हैं, दुबारा खुदे नहीं पढ़ पाते हैं" बीरेंदर का मूड देखते ही मुझे लग गया कि आज चचा का नंबर है।
"अरे ऐसा क्या छायावाद लिख देते हैं जो समझ नहीं आता?" मैंने पूछा।
"अरे नहीं भैया, उ त सदालाल सिंगवा का फील्ड है। चचा तो पुराने जमाने के बिदवान हैं। चचा तनी बताइये न ? "
चचा अपने ग्राहको को सुबह-सुबह जुस पिलाने में बीजी थे तो ध्यान नहीं दे पाये। फ्रेज़र रोड में जहां चचा की दुकान है वहाँ बड़े-बड़े ऑफिस हैं। अब ऑफिस बड़े हैं तो साहब लोग भी बड़े वाले ही हैं। उनमें से कई ब्रेकफ़ास्ट में फलाहार ही लेते हैं। तो चचा का धंधा सुबह थोड़ा अच्छा चलता है। हर ऑफिस से एक चपरासी अपने-अपने साहब की पसंद लिए उनकी दुकान पर आते हैं। इलाके में बड़े साहबों के होने से छोटू को चाय भी कई तरह की बनानी पड़ती है। बीरेंदर यानि बैरीकूल ने एक बार बताया था कि जैसे-जैसे साहब लोग बड़े होते जाते हैं उनके चाय में दूध और शक्कर कम होता जाता है। सबसे बड़े साहब बस ब्लैक ही लेते हैं।
बीरेंदर ने चचा की कहानी छेड़ी -
"भईया, दरअसल ऐसा था कि चचा बचपन से आजतक जो एक बार लिख दिये दुबारा खुदे कभी पढ़ नहीं पाये। हिस्ट्री का मास्टरवा एक बार कह दिया इनके क्लास में कि अगर किसी को हीरोग्लिफिक लिपि देखना हो तो इनकी कॉपी में देख लेना। ओहि लिपि में लिखते थे ई" बैरी ने हँसते और ताली बजाते हुए कहा।
चचा को अब तक भनक नहीं थी। पर शायद 'हीरोग्लिफिक' शब्द सुन के उन्हें लग गया कि उनकी ही बात है। बोले - "का बीरेंदर तू भी न... भोरे भोर तोरा के कोई और नहीं मिला?"
"आचे चचा सही बताइयेगा आपको संस्कृत वाले तिवारीजी नहीं बोले थे कि अपना लिखा पढ़ दे त पास कर देंगे?" बीरेंदर ने चचा को पूछा तो चचा गंभीर मुद्रा में आ गए।
"एक बात तो मानना परेगा बीरेंदर कि तेवारी जी संसकीरित का एक नंबर बिदवान हैं। चेहरा प तेज है उनका। अपना जमाना में जो धोती कुर्ता पहिन के पर्हआने आते थे त लगता था कि कुछ हैं - ये लंबा चौड़ा छौ फूट का जवान थे। बस हमको एक बार बरी मार मारे । एतना कि हमको ओहि दिन बुझा गया कि ई परहाई-ओरहाई हमारा बस का बात नहीं है ! हुआ क्या कि हम गलती से गुरु को गोरू लिख दिये । आ इहे बात गुरुजी को लग गया। पूरा कक्षा में छरी उठा के बोले - गुरु के मवेशी आ भारतीय महाद्वीप को महा हाथी लिखता है रे तुम। तुम तो हमको साकछाते गुरु से गोरू बना दिया। ई बोल के जो मारे हैं हमको... माने... बूंक दिये थे धर के। शाम को हल्दी-चुना चढ़ गया पीठ पर" चचा ने अपने बीते दिनों को याद करते हुए सगर्व बताया। चेहरे के भाव को देख कर लगा की सच में बहुत पीटे होंगे।
"आ पढ़ के दिखा तो पास कर देंगे ई वाला किस्सा तो बताइये"
"अरे उ त हम जाके जब फाइनल परीछा के बाद बोले कि हमको इस बार पास कर दीजिये आगे साल से हम बहुत मेहनत करेंगे। तब उ बोले कि जा एक पन्ना सुलेख लिख के ले आ संसकीरित का किताब से कौनों पाठ। हम लिख के ले गए त बोले कि पर्ह देगा कि तू कि का लिख के लाया है त पास कर देंगे। अब संसकीरित कबो किताब से त हम पर्ह नहीं पाते थे त अपना लिखा हुआ कबूतर का टँगड़ी का पर्हते? बस उसी का बाद छोर दिये परहाई लिखाई।" चचा की आवाज में ग़म नहीं शान था ! जो किए झण्डा गाड़ के शान से किए वाली भावना।
"लेकिन चचा, तिवारीजी त आपके बाबूजी के दोस्ते हैं।" बीरेंदर ने पूछा।
"अरे उ जमाना में मास्टर सब ईमानदारी से परहाते थे। आ इस सब के बीच में दोस्ती आना भी नहीं चाहिए। चोर-पूलिस का दोस्ती। मास्टर बिद्यार्थी का दोस्ती.... होना ही नहीं चाहिए। अपना अपना काम करो ईमानदारी से। हम को नहीं आता था त उ दोस्ती निभा के अपना ही जीवन खराब करते। अब आपे बताइये आपका नाम ओझा है नू? आप को पता लगेगा कि कोई लरकी डायन है त आप उसको कभी लाइन मारेंगे? " इस बार चचा का इशारा मेरी तरफ था।
"अरे मैं..." मैं हँसते हुए इतना ही बोल पाया था कि चचा ने बात लपक ली।
"बर्हिया मास्टर थे... आ उ का है कि संसकीरित में मात्रा, हुंकार-फुँकार, हलंत-चलंत सब बहुते होता है। आठवाँ क्लास में हम का किए कि... तब त हम लोग सियाही से लिखते थे... परीछा लिखने के बाद फाउंटेन पेन छीरक दिये कापीये प। अब खोजते रहो हलंत-फलंत... सब ओहिमे हुंकार फुँकार सब मिल गया मास्टर साहेब को। जहां चाहिये वहाँ भी जहां नहीं चाहिए वहाँ भी। आ हम पास हो गए। नौमा क्लास में तिवारी जी हमको एक दिन धर के थूर दिये... बस तब से परहाईये स्वाहा हो गया" चचा ने फलों के टुकड़ो से भरे चांदी वाले कागज के प्लेट को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा।
"माने एकदम डाक्टर जईसा लिख देते थे... नहीं?" बीरेंदर ने चुटकी ली। "लेकिन चचा एक बात है आज का जमाना में आप इंजीनियर तो बन ही गए होते। उसको देखिये... अपना डाक्टरवा का भतीजवा, उहे जो साउथ इंडिया गया था पढ़ने। जानते हैं इंजीनियरिंग में उसके बैच का ही एगो लड़का पास होके आ उसी कालेज में लेक्चरर बन के पढ़ाने आया। दोस्ते था त इसको इंटरनल आ प्रेक्टिकल में पास किया। ई त ४-५ साल से प्रेक्टिकलवे में फेल हो जाता था।"
"अब बताइये त... उ बिल्डिंग आ पूल बनाएगा त टूटेगा कि नहीं? अब हम हियाँ फल बेच के अच्छा काम कर रहे हैं कि उ इंजीनियर बन के? मान लीजिये अभी हम आपको फल खिलाये नु जी । इसमें आपको सेहत के लिए बीटामिन-उटामिन सब बढ़िया मिला न? अब हम किसी का जान नहीं नू ले रहे हैं" चचा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा तो... असहमति का सवाल ही नहीं था !
हम ऑफिस जाने लगे तो एक चमचमाती स्कॉर्पियो सन्न से निकली। बैरी ने कहा बिधायक जी का गाड़ी लगता है। जानते हैं भईया... कभी पटना में गारी से जाइएगा आ ठोलवन सब (पुलिस) अगर रोका कहीं कागज-पतर के लिए त बस सीसा नीचे कर के ज़ोर से पूछिएगा - "का है रे !" ऐसा पूछने से ठोलवन सबको लगता है कि जरूर कोई बड़ा आदमी है... बस ओतने में कह देगा...
- कुछ नहीं सर जाइए
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~Abhishek Ojha~
क्या किस्से लिखते हो बलिया नरेश। हम इसई वास्ते तो आपके मुरीद हैं। हम का ढेरों हैं। हम तो उनमें से एक हैं। जय हो।
ReplyDeleteपर्र के बहुत मजा आया। एक बात हो तो बतायें कि क्या मजा आया। पूरा का पूरा किस्सा मजेदार है।
वैसे तो इधर ब्लॉगिंग में सब झूठ का बड़ाई बहुत करता है। लेकिन आप जैसा दो चार प्रोत्साहन करने वाले नहीं होते तो सीरीज में नंबर १५ तक नहीं चर्ह पाते :)
Deleteधन्यवाद लिए जाय :)
वो सब तो ठीक है लेकिन इ "डायन लरकी" के बारे मे कुछ नही लिखे !
ReplyDeleteहम तो आँखों देखा हाल लिख रहे थे... चचा ने कुछ बोलने ही नहीं दिया... :)
Deleteसब समझ रहे हैं हम, जानबूझकर छुट्टा पैसा नहीं लेकर चलते हैं आप:)
ReplyDeleteजो प्रेक्टिकल ज्ञान वीरेंदर, चचा, सदालाल सिंग, राजू के पास है वो हारवर्ड के प्रोफेसर्स के पास भी नहीं होगा|
:)
Deleteवो तो हम समझ गए की आप समझ रहे हैं। लेकिन इसका मतलब पब्लिक को ऐसे बता दीजिएगा :)
Delete:p (:(:(
Deleteजितनी भी तारीफ की जाये" कम्मे लागी"
ReplyDeleteसबसे बड़े साहब बस ब्लैक ही लेते हैं।...
ReplyDeleteसोचना पड़ेगा कि हम बड़े साहब कब से बने हुए हैं.
पर, दुखती रग है ये. जब बढ़ती उम्र की परेशानियाँ - शुगर, वेट, बीपी इत्यादि एक एक कर घेरने लगती हैं तब मलाई मार के डबल चीनी वाली चाय पीने वाला मेरे जैसा शौकीन आदमी फ़ीकी, ब्लैक टी पर उतर आता है. बैरीकूल वैसे तो सर्वज्ञ सर्वज्ञानी है, पर कभी दुबारा मुलाकात हो तो इसे ये बात जरूर किलियर करिएगा :)
बैरीकूल ने कहा - "वइसे तो हर तरह का साहब लोग हैं। पर जादे करके बड़े साहब लोग आजकल एक्सेप्ट नहीं करते हैं की उ बड़े भी साहब हैं :)"
Deleteवाह!
ReplyDeleteपटना सीरीज कमाल है. जय हो!
बहुत रोचक..
ReplyDeleteपढ़कर लग रहा था कि वहीं पटना की किसे हिस्से में खड़े सब देख रहे हैं।
ReplyDeleteखुबसूरत किस्सा कहें या कह दें संस्मरण
ReplyDeleteपटनहिया भासा सुन के मिजाज खुस हो गया जी.. ;)
ReplyDeleteआनंद आ गया पर्हकर :-)
ReplyDeleteकल टीचर्स डे है और ये गुरु और गोरु वाली बात पढ़ ली...राम राम :)
ReplyDeleteपर 'सदालाल सिंगवा'के सौजन्य से पहली बार इस साम्यता पर नज़र पड़ी(शब्दों में ) :)
ये महज संयोग ही है :)
Deleteहा हा हा... का है रे?
ReplyDeleteतुम बहुत गर्दा लिखता है.. :)
वाह! लगता है पटना जाना ही पड़ेगा।
ReplyDelete"एक नंबर बिदवान हैं। चेहरा प तेज है" से ले कर "ज़ोर से पूछिएगा- "का है रे!" - गुरु ज्ञान.
ReplyDeleteतुम जाओ अबकी बिरेंदरवा टेशनै पर खड़ा तुम्हार इन्तेज़ार कर रहा होगा, सदानंद , चचा सबके संगे!!!
ReplyDeleteधर के धोएगा, छिला अंडा दिखोगे :) :) :)
:) :) धुलाई फिर थुराई :) :)
Deleteबेहतरीन चल रही है पटना सीरीज.... बेरिकूल की छवि मस्त बनाई है आपने.
ReplyDeleteपटना सीरीज बहुत ही जबरदस्त है । बरिकूल के चरण कंहा हैं , सोंच रहा हूँ अगर उनके चरणों में स्थान मिल जायेगा तो ये जीवन धन्य हो जायेगा ।
ReplyDelete"आप को पता लगेगा कि कोई लरकी डायन है त आप उसको कभी लाइन मारेंगे? " इस बार चचा का इशारा मेरी तरफ था। --इसका जवाब भी दे देते तो थोडा और ज्ञान मिल जाता ।
बैरीकूल सुनेंगे को धन्य हो जाएँगे :)
Deleteहा हा! कौनो डईनिया लरकी के लाइन मारे कि नहीं?!
ReplyDeleteई सवाल तो हमरा भी है :D
Deleteजूस वाले चचा तो बहुत बड़े दार्शनिक निकले. मेरिट में विश्वास करते हैं वे. गजब के व्यक्ति है.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
साँचो! एकदम्मे गर्दा लिखे हैं!
ReplyDeleteचचा ठीके पर्हाई किये हैं।
badhiya vivran...
ReplyDeleteपटना संस्करण सदा ही अविस्मरनीय बन मन में बैठ जाया करता है...जब मन मायूस होता है न, पन्ना खोलके बैठ जाते हैं...पर का जाने काहे, खुल के खिलखिला नै सके आज...बरा जोर से कुछ कचोट गेया..विसंगतियां अन्दर तक बेंध गयीं..
ReplyDeleteखैर, गुरु का गोरू और ऐसे ही असंख्य माटी की महक लिए शब्दों/ कहनों से मन भिगोने के लिए ढेर ढेर आभार..
bahut badhiya ojha ji!!
ReplyDeletevivid sketching of chacha!!
इल बार जूस वाले चचा मिल गये । बहुत ही बढिया ओझा जी, कहीं कोई डायन वायन तो नाही मिली ना वैसे आप तो पहिचान ही जाते ।
ReplyDeleteई तीसरा अतवार है जौन हम ई लेख पढ़ रहे हैं ओझा जी। अ दूसरी बार सोच रहे हैं कि कमेंट काहे नहीं किये! ऊ का है कि पढ़ के हम वहीं खो जाते हैं अउर भूल जाते हैं कि कमेंट भी करना है और लिखना है कि बढ़िया लिखे हैं!:)
ReplyDeleteयह बहुत अच्छी कहानी है, पटना Sanskaran का संग्रह है कृपया इसे जारी रखना !!
Deleteआज आपके ब्लाग पर आ कर आनन्द आ गया.यह भाषा ,यह संवाद,और सबसे अधिक ये पात्र, इस त्रिवेणी में लोकजीवन का प्रवाह ,खूब समेटा है आपने !
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