मैं बात कर रहा हूँ रिश्तों के एक झटके में मर जाने की. ये थोड़ा कठिन मसला लगता है, यहाँ अगर मौत हो भी गयी तो वापस जिंदगी डाली जा सकती है. क्या कहा आपने गाँठ पड़ जायेगी? नहीं ! मैं रहीम बाबा के 'टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए' से पूर्णतया सहमत नहीं हूँ. कम से कम एक झटके में सब ख़त्म तो नहीं हो सकता. अगर किसी गलतफहमी से चटक के टूट भी गया तो सच्चाई सामने आने पर क्या और और मजबूत नहीं हो सकता? अब ऐसा मसला है तो मन तो भटकेगा... खूब भटकेगा. कुछ बातें याद आ रही है...
संस्मरण 1: स्कूल के दिन... एक बच्चा (या किशोर?)
'मुझे तुमसे फिर कभी बात नहीं करनी !'.
अगर उस समय 'बेस्ट फ्रेंड' जैसा कोई चयन होता तो शायद उसका ही नाम आता, गर्लफ्रेंड का फंडा तब शायद इतने जोरों पर नहीं हुआ करता था. पर एक बार उसने ऐसा कहा और फिर कभी बात नहीं हुई. ये बात उसने क्यों कही थी अब तो ढंग से याद भी नहीं. वो बात जो अब याद भी नहीं वैसी किसी बात के लिए... ! एक झटके में ही सब ख़त्म हो गया था.
संस्मरण 2: कॉलेज तृतीय वर्ष... मुझे याद है एक बहुत अच्छे दोस्त के बारे में कुछ बुरा-भला कहा था मैंने. जब 4-6 लोग बैठे हों और कोई बात निकले तो दूर तलक चली ही जाती है. ये बात भी पीठ पीछे अपने दोस्त तक पंहुची और फिर गोल घूमकर मुझ तक आ गयी. मुझे एक बार फिर एक झटके में ही सब ख़त्म होता दिखा. 'भाई मैंने ऐसा कहा तो था... पर...'. इससे आगे उसने मुझे बोलने नहीं दिया. 'मैं तुम्हें 3 सालों से जानता हूँ वो ज्यादा विश्वसनीय है या कोई आकर तुम्हारे बारे में कुछ कह दे? या तुम कहीं किसी संदर्भ में यूँ ही कुछ कह दो उससे ये निर्धारित होगा कि तुम कैसे इंसान हो?'. ऐसी समझदारी हो तो फिर क्या डरना ! कुछ भी ख़त्म नहीं हुआ... बल्कि दोस्ती पुनः परिभाषित हुई.
संस्मरण 3,4,5...: 'ओह! तो ये बात थी!' ...ये कई बार हुआ. कई लोगों के साथ अलग-अलग संदर्भ में. एक स्पष्टीकरण के बाद कई बार रिश्ते बेहतर हुए, कई बार बिगड़े तो कई बार वैसे के वैसे ही रहे. परिणाम जो भी रहा हो एक-दूसरे की बात तो सुनी गयी खुले दिमाग से.
संस्मरण 0: अब एकदम अलग सी बात याद आ रही है. दसवी का एक छात्र. ये वो उम्र होती है जिसमें कुछ लोगों को परीक्षा में एक अंक भी कम पाना मंजूर नहीं होता और अक्सर हर परीक्षा के बाद वास्तविकता से समझौता करना पड़ता है. प्री-बोर्ड... गणित का पेपर... एक रैखिक समीकरणों के समूह को हल करने का सरल सवाल. हड़बड़ी में 35 कि जगह 15 लिख दिया और फिर जूझता रहा. अंततः दो पन्नों में सचित्र ये समझा आया कि सवाल का हल संभव नहीं है ! परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही... 15,35 ! ओह ! ओह ! (आज की बात होती तो... फSSSS*!.. तीन चार बार ज़ोर से) उस समय की हालत तो बस सोची जा सकती है... उसके बाद कई परीक्षाओं में ऐसी गलतियाँ होती रही. पर कोई उस कदर याद नहीं. जब भी याद आता है एक कसक, एक टीस उठती है मन में. शिक्षक के पास गया तो पता चला प्री-बोर्ड का पेपर कोई और चेक करेगा... वो भी बोर्ड स्टाइल में. उसकी मर्जी चाहे तो पढ़े. वैसे उसे क्या पड़ी है जो दो पन्ने पढ़े और ढूँढे कि कहीं 35 की जगह 15 हुआ है. और वैसे भी साफ़-साफ़ गलत है... आधे पन्ने के सवाल के लिए 2 पन्ने? सन्न रह गया था मैं... शून्य मिलेगा ! एक बार फिर सीधे-सीधे गलत था मैं. 100 नंबर आने का अरमान तो ख़त्म हो गया पर इंसानी आदत... एक आस बनी रही... कुछ नंबर तो मिल ही जाएँगे. और एक ख्वाहिश बची रही अगर गलती से भी ध्यान से पढ़ लिया तो सामने वाला 'वाह' कह उठेगा. वैसे भी कोई कैसे शून्य दे सकता है... समीकरण पर पूरी महाभारत तो लिख आया हूँ ! अंततः उस सवाल में शून्य ही मिला... हमारी महाभारत सामने वाले सुनते कहाँ हैं?
मुझे इन सारे संस्मरणों में एक जैसी बात दिखती है. रिश्तों को जिंदा रखने की बात... संस्मरण 0 में मुझे असली दर्शन दिखता है. माफ कीजिएगा अजीब से उदाहरण हैं ये... लेकिन अब क्या करें ज़िदगी भर जिस कुएं में पड़ा रहा उदाहरण तो वही से आयेंगे न.
संस्मरण 0 की कई बातें दिमाग में घूम रही हैं. अभी भी लगता है 'क्यों अंक ठीक से नहीं पढ़े?'... वैसे सच कहूँ तो इस बात पर अब ध्यान नहीं जाता. ये गलती तो लगता है कि होनी ही थी. शायद इसलिये कि वो गलती खुद की थी. अपनी भूल/गलती कभी गलती लगती ही नहीं. अपने शिक्षक ने देखा होता तो क्या होता? मेरे दो पन्ने अगर सामने वाले शिक्षक ने पढ़ लिए होते तो? मतलब ये कि अगर सामने वाले हमारी तरह सोचने लग जायें या हमारी बात सुनने की कोशिश करें तो कितने अरमान पूरे हो जायें. कितने दिल टूटने बच जायें.
खैर इनसे ज्यादा दिमाग में वो चल रहा है जो उन दो पन्नों में लिखा था. अगर दो रैखिक समीकरण हैं तो तीन स्थितियाँ बनती हैं. कोई हल नहीं, अनंत हल या फिर एक अद्वितीय हल. समीकरण से बनने वाली रेखाएँ या तो समानांतर होती हैं या एक बिन्दु पर एक दूसरे से मिलती हैं या दोनों रेखाएँ समान ही होती है... अर्थात हर बिन्दु पर मिलती है. मेरे संस्मरण 1 में रेखाएँ कभी मिली ही नहीं... रिश्तों के समीकरण समानांतर ही रहे. संस्मरण 2 में रिश्तों के समीकरण एक ही थे एक दूसरे की हर बात समझते रहे कुछ भी हो जाये विवाद की गुंजाइस ही नहीं... बिल्कुल पर्फेक्ट. बाकी 3,4,5,... में एक हल निकला भले ही रिश्तों के समीकरण उसके बाद फैल गए हों (डाइवर्ज हो गए हों). आपस के विवाद कहीं न कहीं इन तीनों जैसे ही तो होते हैं. आपने एक गलती की... फिर लगता है कि अब कुछ भी संभव नहीं... सब ख़त्म.
एक गलती/गलतफहमी के बाद हम अपने दिमाग के पन्ने रंग डालते हैं 35 की जगह 15 मानकर. अभी भी सब कुछ वैसा ही होता है जैसा पहले हुआ करता था लेकिन अब हमें सब कुछ उल्टा दिखता है. सामने वाला पहले जैसा था उससे बिल्कुल अलग दिखने लगता है. उसकी हर बात अब जो कभी अपनी तरह दिखती थी अब समानांतर रेखा की तरह दिखने लगती है. वो हर बात जो अच्छी लगती थी अब दिखावा लगने लगती है. और फिर सामने वाला भी उन रंगे पन्नो को बोर्ड स्टाइल में ही तो देखता है... एक पूर्वाग्रह के साथ. और फिर जैसे मुझे 100 अंक नहीं मिले, रिश्ते भी परफेक्ट नहीं रह पाते. अगर एक बार सामने वाले के फ्रेम में जाकर सोच लें, थोड़ा समय देकर ये ढूँढ लाये कि कहाँ 35 का 15 हुआ है तो फिर... परफेक्ट मार्क्स के अरमान तो वैसे ही उस गलती के बाद नहीं रह जाते हाँ एक सुकून जरूर मिलता है. और साथ में एक अरमान कि अगर सामने वाला ढंग से पढ़ ले तो शायद 'वाह' कर उठे.
वैसे ये ट्रिगर बड़े क्षणिक होते हैं... अक्सर परीक्षा कक्ष से निकलते ही, कई बार कुछ दिन बाद, फिर से सवाल पढ़ने पर, कई बार उत्तर पुस्तिका देखने पर पता चलता है... पर जैसे ही पता चलता है... ओह ! सब ख़त्म हो गया ! (वॉट द फ* हैव आई डन?, माफ कीजिएगा आजकल यही वाली लिने फैशन में है). लेकिन तीर से निकले बाण, मुँह से निकली बोली वाले स्टाइल में ही... आजकल एक माऊस क्लिक से भेजे गए ईमेल और सेंड बटन से भेजे गए एसएमएस... गया तो गया.
अब ऐसे हालात में बस जरूरत है रंगे हुए पन्ने जो उल्टी राह दिखाते हैं, में से उस बात को ढूँढ निकालना जिससे गलतफहमी की शुरुआत हुई. एक ट्रिगर से रिश्ते मरने लगे तो बुरा लगता है पर अगर हम किसी को संस्मरण 2 वाले लोगों के वर्ग में सोचते हो और वो किसी मोड पर समानांतर हो निकल जाये तो फिर ज्यादा दुख होता है.
निष्कर्ष: कुल मिलकर अगर रिश्ते एक ट्रिगर से मरने लगे तो बेहतर है कि उन्हें हल करने कि कोशिश की जाय. जरूरी नहीं की गाँठ पड़ ही जाये. सामने वाले की बात सुनकर उसके बाद भले ही अपनी राह निकल लें. वैसे भी हम सब को एक निर्धारित K वर्ष की जिंदगी मिली है जो हर क्षण (K-X) होती जा रही है. इस क्षय हो रही जिंदगी और बम-धमाको की दुनिया में X कब K हो जाये कोई नहीं जानता ! फिर काहे को टेंशन पालना? वरना एक कसक, एक टीस उठती रहेगी मन में... इससे तो बेहतर है कि सच्चाई जानकर अपने समानांतर रास्ते चुन लिए जाय.
मैं सोच रहा हूँ अपने छोटे से वृत्त में से गुजरने वाले रिश्तों को संस्मरण 2 की तरह बनाया जाय... अगर वो संभव नहीं तो हल करने की कोशिश की जाय... दूसरे एक्सिस का सहयोग मिले न मिले.
... यकीन मानिए किसी के बारे में सोची गयी बातें और वास्तविकता में बहुत फर्क है !
अपडेट 1: अभी मेरे सोने का वक्त हुआ है और पोस्ट ठेलने से पहले वैसा ही एक ट्रिगर मिला जिसने ये पोस्ट लिखवा डाली. जय हो गूगल के बज़ बाबा की. इतनी कम उम्र में इतने कहर ढा रहे हैं. आप खुद देखिये.
अपडेट 2: 7 तारीख को कुछ घंटो के लिए एक शादी के सिलसिले में लखनऊ जाना हुआ. लखनऊ शहर से ज्यादा तो एयरपोर्ट पर ही रहा इसलिये किसी को बताना सही नहीं लगा, लखनऊ वालों रिश्ता तोड़ने का मन हो रहा हो तो पोस्ट एक बार फिर पढ़ लो :) ना समझ में आए तो फिर... अब ऐसी सजा पर भी नाराज हैं तो कहिए? सोमवार को 3 दिन गोवा में बिताकर लौटा हूँ, पुणे में रहने के कारण मेरे जानने वालों के खूब फोन आए ये पता करने को कि जिंदा हूँ या नहीं ! सोमवार से तीन दिन के लिए रूडकी-देहरादून जा रहा हूँ. और अपडेट दूँ क्या...? फोकट में लिखे जा रहा हूँ... क्या फर्क पड़ता है ! मैं हैप्पी हूँ आप भी रहिए, हैप्पी रहने के लिए कारण जरूरी है क्या? !
~Abhishek Ojha~
अभिषेक,
ReplyDeleteक्या क्या याद दिला दिया तुमने, अब हमारी भड़ास झेलो...
मतलब प्री बोर्ड में ही एक्जिसटेंस और यूनिकनेस की प्रमेय लगा आये तुम, ;-)
लीनियर एल्जेब्रा की कक्षा में जब पहली बार "एक्जिसटेंस और यूनिकनेस" का नाम सुना तो बड़ा डर सा लगा और उसके बाद लगा की धत तेरे की, बस सादी से बात को कठिन करके लिख दिया कि समझ में न आये, ;-)
तुमसे ही मिलती जुलती गलती हमने १०वी में की थी तो १०० नंबर के अरमान धरे रह गए लेकिन १२वीं में कसर पूरी हो गयी थी|
किसी भी रिश्ते में जब संवाद बंद हो जाए तभी समस्या आती है वरना भले ही बात करने के बाद रिश्ता टूट जाए, अफ़सोस कम होता है| कितनी अजीब बात है जिनसे रोज जीमेल चैट पे हाय हैलो होती है उनसे कोई बात नहीं होती और कुछ अनजाने लोगों से साल भर बाद बात करो तो ऐसा लगता है कि जैसे पिछले हफ्ते कैंटीन पे जो बात अधूरी छोड़ी थी, वो आज पूरी हो रही है| कितना आसान होता है कुछ लोगों के साथ फिर से पुराने सिरे उठा लेना जैसे इन महीनो में वो सिरे वहीँ पड़े इंतज़ार करते रहे हों|
बाकी, ग्राफ तो धाँसू हैं....दो समानांतर रेखाएं कैसे मिलेंगी, ;-) शायद कहीं अनंत पर, ;-)
बहुत हैप्पिली सोने जा रहे थे, थैंक्यू, अब नींद अच्छी आयेगी. गुड नाईट. बी हैप्पी.
ReplyDeleteइतना बांचने के बाद यह समझ गया की जीवन कुछ आड़ी तिरछी और उलझी रेखाओं
ReplyDeleteके जरिये भी समझा जा सकता है -रोचक अनालोजी !
क्या एक ट्रिगर ही काफी है मौत के लिए ?- क्या भइया ओझा जी सुबह-सबेरे काहें को डरा रहे हैं.
ReplyDeleteवैसे भाषाई शब्द -जाल के दृष्टि कोण से बढ़िया लगी यह पोस्ट ,लेकिन इतनी उलझनों को सुलझानें का माद्दा सब में नहीं है...
''मैं हैप्पी हूँ आप भी रहिए, हैप्पी रहने के लिए कारण जरूरी है क्या?''--बिलकुल नहीं जी.
वैसे धांसू है..
अंततः उस सवाल में शून्य ही मिला
ReplyDeleteतब याद आता है कि सारे जैहरी तो ३५ की जगह १५ लिख रहे हैं और पंक्चर जोड़ने वाले कॉपियों में से हीरे ढूंढ रहे हैं
खूब फोन आए ये पता करने को कि जिंदा हूँ या नहीं
भाई, सलामत हो तो फिर चिंता की क्या बात है, और जो ज़िंदा नहीं वह फोन क्या यमलोक के इम्मीग्रेशन काउंटर से उठाएगा? यह बात समझ नहीं आयी. ज़रा रेखाचित्र बनाकर समझिए.
औह! बहुत सारी गलतियाँ याद दिला दी। बहुत सारी टूटी हुई दोस्तियाँ भी। लेकिन अब वे सब जुड़ चुकी हैं। अब कोई दोस्ती नहीं टूटती। बस स्पीड ब्रेकर की तरह झटका आता है और फिर समतल। जिन्दगी में झटके पहले आते है और बाद में संभलना।
ReplyDeleteसवाल होंगे तो ही तो हल होंगे।
सवालों से रोज सामना होता है। वे जल्दी या देर से हल भी होते ही हैं।
"मुझे 100 अंक नहीं मिले, रिश्ते भी परफेक्ट नहीं रह पाते. अगर एक बार सामने वाले के फ्रेम में जाकर सोच लें, थोड़ा समय देकर ये ढूँढ लाये कि कहाँ 35 का 15 हुआ है तो फिर..."
ReplyDeleteखूबसूरत विचार.
भई, हमने तो तुम्हारी आकांक्षा पूरी कर दी, ध्यान से पढ़ लिया और सौ में से सौ.
ReplyDeleteभाई मैं भी ये आडी तिरछी रेखाएं खींचने की कोशीश कर रहा हूं. खींच पाता हूं या नही...
ReplyDeleteरामराम.
रिश्तों के इस समीकरण में कुछ इस कदर उलझ कर रह गये हैं हम कि परिधि पे गोल-गोल घूमते जा रहे हैं।
ReplyDeleteदिनों बाद आते हो और खलबली मचा जाते हो। बहुत अच्छा लिखा है। कुछ बिम्ब मिले हैं अद्भुत से अपनी कविता के लिये। हा! हा!!
लखनऊ वाले अपडेट से याद आया कि हम भी थे लखनऊ में और कुछ लोग नाराज हैं इस बात से...
100 में 100? समस्या की जड़ तो शायद यही है?
ReplyDeleteरिश्ता हो या गणितीय समीकरण - हम तो भई, 100 में 55 को अद्वितीय मानते हैं - बस, एबव एवरेज बने रहें, ज्यादा एफ़र्ट भी नहीं लगेगी, और कहीं समस्या ही नहीं होगी... :)
मेरे एक मित्र कहते हैं...भाषा बहुत ताकतवर हथियार है, और कमजोर भी ..कभी न कह कर समझे जाने की गुंजाइश न छोड़ना ..
ReplyDeleteवैसे तोडना हमेसा आसन होता है बनिस्पत जोड़ने के ...इसलिए बार -बार सोंचना चाहिए
टिप्पणी करते - करते रवि जी की टिप्पणी पर नजर पड़ी ..मैं उनसे १०० में १०० सहमत हूँ. :-)
ReplyDelete"हम सब को एक निर्धारित K वर्ष की जिंदगी मिली है जो हर क्षण (K-X) होती जा रही है. इस क्षय हो रही जिंदगी और बम-धमाको की दुनिया में X कब K हो जाये कोई नहीं जानता ! "गज़ब की पोस्ट है 'अभी'.........कायल हूँ यार आपके इस गणितीय कैलकुलेसन पर जो सीधे दिल और एहसास की दूरी नए यूनिट तय करती हैं.......
ReplyDeleteरिश्तों और जिन्दगी के समीकरण को ऐसे जबरदस्त ले में लिख डाला आपने कि.....वाह....लाजवाब !!!
ReplyDeleteसच है, रीडिफाइन कर लेने से गाँठ की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती,बल्कि सब पहले से अधिक खूबसूरत हो जाता है...
घटती सांसों का हिसाब बड़ा जबरदस्त लगाया आपने....
सुन्दर... बहुत सुन्दर पोस्ट...
र इतना ही आसान होता सब कुछ तो दुनिया कितनी खूबसूरत होती .रिश्ते एक बार बनते ओर तुमे निभते .दुनियादारी ओर गणित दोनों मुश्किल है .कभी दुनियादारी में अव्वल गणित में फेल होता है ओर कभी गणित में अव्वल दुनियादारी में .......
ReplyDeleteदोस्ती बड़ा नाजुक रिश्ता है .....जिनके पास नहीं है वे अभागे है.....आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में शायद खून के रिश्तो से ज्यादा अहम् ...पर कसार सालो साल बने रिश्ते इस मुई ग़लतफ़हमी के नाते ही फट से टूट जाते है ....ओर फिर सालो लगते है उन्हें उसी रौ से बैठाने में ......
शायद समानांतर रेखाएं,अनंत के पहले मिल भी जांय - बस सतह चपटी न हो गोलाकार चलेगी।
ReplyDeleteपोस्ट तो फीड रीडर में पढ़ ली थी। यहां तो यह देखने आया था कि लोग क्या टिपेर रहे हैं! :)
ReplyDeleteधन्यवाद।
मेरी अक्ल के हिसाब से तो कुछ पोस्टों को सिर्फ़ पढा जा सकता है ....और फ़िर टिप्पणी ........न ...नहीं जी ..उसे फ़िर से दोबारा पढा जा सकता है ..और ऐसा ही करते रहने को मन करता है तो .....क्या करूं ....अब मन को कैसे समझाऊं ...बस खुद को बहलाने के लिए इत्ता टीप रहा हूं ...फ़िर पढने जा रहा हूं
ReplyDeleteअजय कुमार झा
रिश्तों में गाँठ पढ़ने का मतलब उनका टूटना नहीं । बात रहती है पर पहले जैसी नहीं। वैसे शायद इस बात के लिए कोई सामान्य फार्मूला नहीं बन सकता। बहुत कुछ प्रभावित व्यक्तियों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
ReplyDeleteऔर हाँ संस्मरण ० तक तो तो ठीक था भावनात्मक प्रश्न पूछते समय इतनी ज्यादा गणित ठेलोगे तो मस्तिष्क रिश्तों की बातें सोचते सोचते रेखाओं में भटक जाएगा।
ओझा भाई दोस्ती ओर रिश्तो मै बहुत फ़र्क होता है, वेसे तो आज तक कभी किसी से दुशमनी नही की ओर ना ही कभी कोई दोस्ती तोडी है, हां अगर रिश्तो मै कभी कोई खटास आ जाये तो फ़िर चाहे दोस्ती हो या रिश्ता, पहले जड देखते है कि गलती कहां हुयी, फ़िर मनाने की कोशिश भी करते है, वरना एक बार मुंह फ़ेर लिया तो कभी पलट के नही देखा चाहे कुछ भी क्यो ना हो जाये
ReplyDelete15 35 की गलतफहमिया अभी भी बदस्तूर जारी है..
ReplyDeleteएयरटेल के होर्डिंग्स जगह जगा लगे होते है.. बाते मिटा देती है रिश्तों की दूरिया.. पर बाते हो कैसे?
कई रिश्तों में पन्द्रह का पैतीस हो गया.. रिजल्ट में हमें भी जीरो ही मिला..
इस पोस्ट को पुरे सौ नंबर दूँगा..
आप क्या कहना चाहते हैं?
ReplyDeleteमैं यह कहना चाहता हूँ कि अद्भुत पोस्ट लिखी है आपने. रिश्तों की गणित की ऐसी व्याख्या! बहुत खूब.
अपडेट ३: जिन्हें मनाने के लिए ये पोस्ट लिखी गयी थी वो मान गए ! :)
ReplyDelete@रविजी, गणित में तो ० भी चलेगा लेकिन रिश्तों में हम तो १०० की कोशिश हमेशा करते हैं, १०० की कोशिश करेंगे तब तो बुरा भी हुआ तो ५५ तक तो आ ही जायेगे :)
स्फेरिकल ज्योमैट्री की ओर सही इशारा कर रहे हैं उन्मुक्त जी. जरा ध्यान दीजिये.
ReplyDeleteइतना पढ़ लेने के बाद मैं भी यही कहना चाहता हूँ कि बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है आपने !
ReplyDeleteवाह रे गणित ! अदभुत गणित ! पढ़ते वक्त जीवन की व्याख्या,रिश्तों की व्याख्या में इसकी भूमिका किसी ने नहीं बतायी थी, नहीं तो..
वैसे ’अज्ञेय’ की यह बात याद आयी(कुछ जुड़ती है क्या?)-
ReplyDelete"समानान्तर सूत्रों से बुनाई नहीं हो सकती - जीवन का पुट बुनने के लिए आवश्यक है कि बहुत से सूत्र आड़े पड़ें ।"
@हिमांशु । Himanshu :वाह ! क्या पंक्तियाँ उद्धृत की है आपने.. धन्यवाद.
ReplyDelete"... यकीन मानिए किसी के बारे में सोची गयी बातें और वास्तविकता में बहुत फर्क है "
ReplyDeleteBookmarked...
रिश्ते बनते बिगरते रहने के लिए कारक बहुत हैं, हल करना मतलब उन तमाम कारकों पर सोचना है.
कुछ उल्टा सोचने से पहले हल करने में क्या जाता है. पुराने रिश्ते अनमोल होते हैं, यूँ हम थोड़े न गवां देंगे.
सब हैप्पी है भईया
अरे आप तो सोचते भी गणित में हैं अभिषेक भाई ..परंतु रिश्तों का समीकरण अच्छा जोड़ा है
ReplyDeleteये बताओ घुमते ही रहोगे या
१ + १ = २ के बारे में भी सोचोगे ?
हम्म ? ;-)
स स्नेह,
- लावण्या
बहुत सुन्दर पोस्ट! कई दिन से इसे रखे था कि आराम से पढूंगा। आज अभी पढ़ ही ली। जय हो!
ReplyDeleteलेकिन ये पूरा संसार ही शून्य है और जीवन को गणित से नहीं समझा जा सकता.
ReplyDeleteमौत के लिए एक ट्रिगर शायद काफी नही है अलबत्ता ट्रिगर मौत की अनांउसमेंट कर सकता है. इस तरह की अनांउसमेंट शायद एकदम होती भी नहीं है....बहुत सोचा समझी होती है, कभी कभी तो कोल्ड ब्लेडेड भी..
ReplyDeleteअभिषेक !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट लिखी है दोस्त यही जीवन का सार है मगर इसको मान्यता नकारात्मक सोच रखने वाले लोग देंगे इसमें संदेह है ! आजकल इसी कष्ट में हूँ ,एक पोस्ट लिखी है अपने एक मित्र के बारे में जिनसे कभी भेंट नहीं हुई मगर दिल में अच्छी जगह दे रखी थी , अब गाँठ सी कसक रही है देखिये कौन महसूस करता है !
जिस उंगली को पकड़कर चलना सीखते है वह उंगली ट्रिगर न दबाये ..तो समझ लो सब ठीक है ।
ReplyDeleteगजब!!क्या विश्लेषण किया है!!
ReplyDeleteइक जरासी बात पर बरसों के याराने गए -लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहिचाने गए |रिश्ते बनाना बहुत सरल निवाहना बहुत कठिन
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