पिछले दिनो जब कानपुर-लखनऊ गया तो बड़े मजेदार अनुभव हुए. कानपुर सुबह-सुबह पंहुच गया तो ट्रैफिक का मजा नहीं ले पाया. हाँ लखनऊ में जरूर कुछ आशीर्वचन सुनते-सुनाते लोग मिले. मेरे एक दोस्त ने कानपुर में कभी गाड़ी नहीं चलाई. कहते गाड़ी चलाना तो सीख लिया, गाली देना नहीं सीख पाया और कानपुर में गाड़ी चलाने के लिए वो ज्यादा जरूरी होता है ! लखनऊ में मेरा कभी रहना नहीं हुआ. जब भी गया 2-4 घंटे के लिए ही. तो लखनऊ के बारे में कही गयी मेरी हर बात 2-4 घंटो के अनुभव पर ही आधारित होगी तो उसे उसी रूप में लिया भी जाना चाहिए. हाँ वहाँ के रहने वाले एक व्यक्ति ने जब खुद कहा कि मुझे आज तक लखनऊ में तहज़ीब दिखी नहीं... कहाँ मिलती है, कैसी होती है? तो लगा अपना अनुभव कुछ गलत भी नहीं है. खैर तहज़ीब की तलाश तो हमने की भी नहीं हम तो किसी और की तलाश में ही लगे रहे.
महाराष्ट्र में रहने के बाद मुझे लगने लगा था कि सड़क पर नेताओं की तस्वीर इससे ज्यादा कहीं और देखने को नहीं मिलेगी. पर वो (घिसी-पीटी) अवधारणा ही क्या जिसका तोड़ न मिले ! नए आविष्कारों से पुरानी मान्यताएँ तो टूटती ही रहनी चाहिए. तो ये अवधारणा भी टूट ही गयी. हर बिजली के खंभे और हर दो खंभो के बीच कम से कम एक होर्डिंग पर बहनजी की तस्वीर और किसी 'सर्वजन' के बारे में लिखा पाया. लोनावाला के मगनलाल चिक्की वाले की बड़ी याद आई. अगर आपको नहीं पता तो बता दूँ लोनावाला में चिक्की की खूब दुकाने हैं और हर दुकान 'असली मगनलाल' की ही है. एक बार लोनावाला के एक रेस्तरां से फोन पर मैंने रास्ता बताया: 'फ़्लाइओवर से लेफ्ट लेके आजा, हम लोग आरिजिनल मगनलाल की चिक्की दुकान के सामने वाले रेस्टौरेंट में बैठे हैं' . दो मिनट बाद वापस फोन आया: '!#$%^&@! यहाँ तो हर दुकान ही वही है !'. अब वैसे ही लखनऊ में कोई ऐसी तस्वीर या 'सर्वजन' उपसर्ग-प्रत्यय लगे किसी जगह या कहीं लिखी किसी लाइन का उद्धरण दे तो फिर आप तो ढूँढते ही रह जाओगे.
पुणे में रहकर एक और अवधारणा बन गयी है कि पार्क का मतलब आईटी या बायोटेक पार्क होता है, लखनऊ में लंबे-चौड़े पत्थर के हाथी पार्क. एक और अवधारणा टूटी. खैर आज महात्मा बुद्ध होते तो पता नहीं कितने हैप्पी होते वहाँ अपनी प्रतिमा देखकर ! मेरी अभी की अवधारणा तो यही कहती है कि कम से कम उन्हें तो अपनी लीगेसी की चिंता नहीं रही होगी. अगर नाम और लोकप्रियता मूर्तियों और भवनों से निर्धारित होते तो शायद खण्डहरों में जाकर इंसान दार्शनिक की तरह नहीं सोचता. हर खंडहर देखकर मैं तो अक्सर यही सोचता हूँ कि बनाने वाले ने क्या कभी सोचा होगा... एक दिन इसकी ऐसी हालत होगी?
लखनऊ से बाहर जाते ही दो बातें तो साफ़ हुई. पहली ये कि 'सर्वजन' कोई बहुत बड़ी सख्शियत है. तभी तो उत्तर प्रदेश सरकार सब कुछ इसी 'सर्वजन' के लिए करती है. दूसरी बात ये कि 'सर्वजन' जो कोई भी है वो रहता/रहती तो लखनऊ में ही है. क्योंकि उत्तर प्रदेश में सड़के और बिजली तो लखनऊ के बाहर बहुत कम ही निकल पाती है. बस सर्विस और पार्क तो खैर छोड़ ही दीजिये. वैसे बिजली का तो मुझे लगता है उन तस्वीर लगे खंभो में ही उलझ कर रह जाती है और लखनऊ से बाहर निकल ही नहीं पाती. बहुत कोशिश की कि इस 'सर्वजन' का पता मिल जाये... एक क्षणिक मुलाक़ात ही सही. लेकिन पता चल नहीं पाया कि आखिर ये सर्वजन है कौन?
सुबह-सुबह मेरे मित्र मुझसे मिलने आए तो उनको होटल में बैठाकर अपने ब्लॉगर भाइयों से एक त्वरित मुलाक़ात करने के बाद वापस आया तो पता चला मेरे दोस्त 2-3 कॉफी पीकर बाहर निकल गए थे. फिलहाल वो सड़क के उस पार खड़े थे. हम एक दूसरे को देख तो पा रहे थे पर बात फोन के जरिये हो रही थी. समस्या ये थी कि प्रांत की मुख्यमंत्री साहिबा उसी सड़क से किसी रैली में जाने वाली थी और पुलिस के इरादे से लग रहा था कि उन्हें किसी परिंदे को पर ना मारने जैसी कोई हिदायत दी गयी थी. मुख्य सड़क से मिलने वाली हर छोटी सड़क पर लोगों को 'जैसे थे' वाली अवस्था में ही रोक रखा गया था. अब 'जैसे थे' मतलब बिल्कुल जैसे थे वैसे ही रहिए. जब तक काफिला ना निकाल जाये किसी रियायत की कोई उम्मीद मुझे तो नहीं दिखी. इससे पहले मुझे लगता था कि देश के इस हिस्से में लोग बड़ी फुर्सत में रहते हैं. पर उस समय जिस तरह से लोग एक कदम चल पाने में भी असमर्थ हो गए थे तब ये अवधारणा भी वहाँ खड़े लोगो के चेहरे और उन पर आ रही भावनाओं ने गलत कर दिया. एक और अवधारणा टूटी ! मैं सोच रहा था कि 2 घंटे में मुझे निकलना है, सामने मेरे दोस्त हैं और हममें से कोई भी सड़क पार नहीं कर सकता. काश ! मैं 'सर्वजन' को जानता, उत्तर प्रदेश सरकार सब कुछ उसी के लिए तो करती है. शायद जान-पहचान कुछ काम आता उस वक्त. फिलहाल मैं फोन कान में लगाये होटल के सामने फूटपाथ पर टहल रहा था तो मुझे एक पुलिस वाले ने वापस बुलाया:
'ऐसे नवाबी अंदाज में नहीं दौड़ के आओ !'. 'यहाँ क्या कर रहे हो?'
'इसी होटल में रुका हूँ, और सामने वो मेरा दोस्त है उसके सड़क क्रॉस कर इधर आने का इंतज़ार कर रहा हूँ.'
'अंदर रुके हुए हो तो अंदर चले जाओ वरना अंदर कर दूंगा !'
थोड़ी बहस के बाद उसके बड़े साहब ने आकर समझाया, तब तक मैंने भी अपनी औकात में आते हुए सोचा कि अंदर होने से अच्छा है कि अंदर ही चला जाय. वैसे भी शायद वो अपनी ड्यूटी और अपना फर्ज निभा रहा था.
मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि मैं धीरे-धीरे उस वर्ग का हो गया हूँ जिसे देश की राजनीति में कोई रुचि नहीं... पर जब खुद के साथ ऐसा हो रहा हो या फिर जब बिहार से परिवर्तन की बात सुनने को मिले... तो दिमाग में कुछ नयी अवधारणाएँ बनती है, कुछ पूरानी अवधारणाएँ टूटती भी हैं ! सुना उस दिन रैली में बसो में भरकर एक दिन के खाने पर हजारों लोग आए थे. शायद ये सुनने कि 'सर्वजन' के लिए बहुत काम हो रहा है (होगा/होता रहेगा). पर ये 'सर्वजन' है कौन? शायद उन्हें मिल जाय !
यूपी-बिहार से मुंबई-पुणे आने-जाने वाली रेलों में आरक्षण मिलना बहुत कठिन होता है. और मैं सोच रहा था कि उनमें यात्रा करने वाले कितने प्रतिशत मराठी होते हैं? खैर... मानव आज भी पाषाण युग से औद्योगिक युग की तरफ बढ़ रहा है... हाथी पार्क से आईटी पार्क की ओर !
आते समय कैब में दो बातें और हुई. मेरी कंपनी की एचआर ने (अंग्रेजी में) कहा कि ऐसी बातें मत डिस्कस करो वरना संभव है चालक गाड़ी किसी थाने पे लगा दे और तुम अंदर कर दिये जाओ. दूसरी बात... मेरे एक कलीग ने कहा 'अगले साल से मैं तो नहीं आऊँगा आईआईटी कानपुर प्लेसमेंट के लिए, तुम्हें बहुत लगाव है तो अकेले आना...'. वैसे मेरी कंपनी से इस साल भी तीन ग्रुप में से केवल मेरा ग्रुप ही जा पाया रिकरुटमेंट के लिए... कानपुर ! वैसे ये कोई पैमाना तो नहीं है पर कहीं आगे की जगह पीछे तो नहीं जा रहा सर्वजन प्रदेश?
~Abhishek Ojha~
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वैसे संभवतः फ़रवरी में एक दिन के लिए एक दोस्त की शादी में फिर लखनऊ जाना है, इस पोस्ट के लिए कहीं अंदर तो नहीं कर दिया जाऊँगा :) और दूसरे आप इतनी लंबी पोस्ट पढ़ गए क्या?
इस संस्मरण के साथ आपकी वापसी तो हुयी .हम क्या कहें रोज ही दो चार होते हैं!
ReplyDeleteअभी पढ़्कर फुर्सत पाये पूरी पढ़कर..बधाई दो पढ़ने के लिए तो हम तुम्हें दें अन्दर न होने के लिए.
ReplyDeleteआपके चक्की वाले और कलकत्ता के असली के सी दास के रसगुल्ले...सब एक ही थाल है..कौन जाने कौन असली..
लखनऊ से लौट कर किस्सा सुनाना.
अरविन्द जी की बात ही हमारी भी । हम तो कितना भी लम्बा पढ़ेंगे , आप लिखिये तो !
ReplyDeleteउत्तर प्रदेश के किसी नगर गए बहुत दिन हो गए हैं। अब यहाँ राजस्थान में भी होर्डिंग्स पर नेतागण बहुत दिखने लगे हैं। हालात कमोबेश सब जगह एक जैसे हैं।
ReplyDeleteलेकिन पता चल नहीं पाया कि आखिर ये सर्वजन है कौन? ...
ReplyDeleteयह सवाल तो १९९० से ही दिमाग में उछल रहा है ,लेकिन अभी तक का निष्कर्ष यही है सर्वजन छलावा है ,दरअसल यह कुछ जनों तक ही सीमित है.
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ReplyDeletepadh to daalaa kahin gunaah to nahin hua?
ReplyDeleteबड़ा लेट कर दिए छापने में। डर पर काबू पाने में समय लगता है। अच्छा किए यहाँ के स्थायी निवासी ब्लॉगरों का नाम नहीं दिए नहीं तो उनका तो ....:)
ReplyDeleteभाई, स्थिति इतनी खराब भी नहीं है। काहें हमरे ऊपी को ..? अब देखिए द्विवेदी जी भी वही बात कर रहे हैं। ऊपी लीडर है बाकी फॉलोवर।
सर्वजन जी से जब मुलाकात होगी, बताएँगे।
तमाम योजनाओं के गलियारों में वह बिला गए हैं। शोर इतना है कि उनकी पुकार भी नहीं सुनाई पड़ रही, कैसे उन तक पहुँचूँ?
वैसे पोस्टर के मामले में हम भी धनी ही हैं.. यहां छोटे-छोटे पोल पर चिपकाने वाले पोस्टर नहीं होते हैं.. जितना बड़ा नेता, उतना बड़ा होर्डिंग.. और वो भी हर दो कदम पर.. दो साल पहले चेन्नई को स्काई फ्री बनाने का निर्णय लिया गया था, तब सभी होर्डिंग(फिल्मी और पोलिटिकल) को नोचकर फेंक दिया गया था.. मगर अब लगता है कि फिल्मी पोस्टर हटाने का वह साजिष भर ही था..
ReplyDeleteसोच रहे हैं कि तुम्हारे पोस्ट से भी लंबा कमेंट लिख दें, तभी तुम्हारे लिये ठीक रहेगा.. ;)
भाई हमारे यहां तो होर्डिंग पर इतने नेता दिखते हैं कि चोराहा ही दिखना बंद होगया था. युं लगता था जैसे सुरंग मे से निकल रहे हों. इस साल नगर निगम को कुछ सदबुद्धि आई तो इनसे बनी सुरंगे बंद हुई है.:)
ReplyDeleteअगला लिखिये...इंतजार करते हैं.
रामराम.
आज से तीस साल पहले भी कानपुर में वाहन चला लेना बहादुरी की बात थी। दो साल पहले गए थे। तब भी यही लगा।
ReplyDeleteबेहतरीन व्यंग्य....
आपका यह लेख बहुत अच्छा लगा.... यह बात तो सही है... कि लखनऊ से अब तहज़ीब गायब हो गई है....और बिजली, सड़क व पानी लखनऊ से बाहर सपना ही है.....सर्वजन का मतलब भी लखनऊ ही है..... हाँ! पर यह है कि ज़बान में तहजीबियत मिल जाएगी.... पर वो भी कुछ कुछ गाली मिश्रित हो गई है..... पर अब लखनऊ कि तहज़ीब को बचाने के लिए आन्दोलन हो रहे हैं..... उम्मीद है बच जाएगी..... बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट.....
ReplyDeleteअब कभी लखनऊ आना हो .... तो ज़रूर मिलिएगा.....
ReplyDeleteगाडी चलते हुए आपको गली नहीं आये तो आपकी ड्राइवरी पे शक होता है..... ...यूँ भी यू पी में ही ये मुमकिन है .दो कदम की दूरी पे मॉल हो आगे चार कदम पर भैंस आपका रास्ता रोके कड़ी हो के मुंह दिखाई नहीं दोगे तो जाने नहीं दूँगी .....ओर लाईटवा !!!!!!!!सर्दी में आये इसलिए ज्यादा झलक नहीं दिखी वर्ना हर दुकान पे दो दाम दिखेगे .मसलन कोल्ड ड्रिंक..इत्ते पैसे की ?क्यों .जेनरेटर में ठंडी की है न !
ReplyDeletebahut achhi lagi..kafi dinon baad aapko padha, style to aapki lajavab hai hi,aaj kuchh alag alag si lagi...kaise hain aap? I always missed u...
ReplyDeleteयह भी रोचक रहा आपका संस्मरण वैसे तो हर जगह आज कल यही हाल है .बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा ..अच्छा लगा ...दिल्ली आने पर भी आपसे न मिल पाने का अफ़सोस है..
ReplyDeletebahut jaldi soch bana lete hain bhai sahab aap , kahin first impression is the last impression ke shikar to nahi hai . viase ek baat khani thi , "jaise dristi vasi sristhi " vali kahavat to aap ne suni ho hogi .
ReplyDelete@गिरिजेश राव: काहें हमरे ऊपी को ..?
ReplyDeleteअरे भाई साहब अपने ऊपी को हम ऐसा कुछ नहीं कह रहे. हम तो उसी मिट्टी के हैं. पर क्या करें किसी से हम ऊपी-बिहार कह दें तो लगता है किसी बीहड़ की बात हो रही है. पुणे-पटना एक्सप्रेस में इलाहबाद क्रोस होने के बाद लोग डरा देते हैं. मुझसे कहा गया कि रात में तो बक्सर से बलिया मत ही जाना ! मैंने जब कहा कि पिछले दस साल से आता जाता रहा हूँ इन स्टेशनों के बीच रात-विरात. तो लोग मानने को तैयार ही नहीं थे कि कभी कुछ हुआ नहीं होगा! एक और अवलोकन किया हैं मैंने इस ट्रेन में. ज्यादातर छात्र चलते हैं छुट्टियों के सीजन में. इधर से जाते समय लोग लैपटॉप नहीं निकलते बैग से. वापस आते समय सब उसी पर लगे होते हैं. आप मानिए ना मानिये ऊपी-बिहार के नाम से डरते हैं लोग ! जो कभी नहीं गए उनसे जरा पूछिए क्या छवि है उनके दिमाग में. और प्लेसमेंट वाली बात जिसे मैंने कहा कि कोई पैमाना नहीं है... आज से ५-१० साल पहले तक अगर किसी कंपनी को एक आईआईटी जाना होता था तो वो कानपुर हुआ करता था अब चार कैम्पस में जाना होता है तब भी सोचते हैं लोग ! मुझे उस कैम्पस से बहुत लगाव है और अक्सर सोचता हूँ... कहाँ फँस गया कानपुर में ! ऐसे दिग्गज प्रोफेसरों के नाम जानता हूँ जो कैम्पस छोड़कर बस इसीलिए गए क्योंकि वो कानपुर में रहना नहीं चाहते थे. कुछ को लगा कि बच्चे बड़े हो रहे हैं तो कानपुर में अच्छा माहौल नहीं मिलेगा, उनमें से एक फिलहाल आईआईटी दिल्ली के डायरेक्टर हैं. ये तो शायद कोई पैमाना नहीं पर कई पैमाने हैं जिन पर पिछड़ रहा है ऊपी !
@timeforchange: no dude ! its not first impression neither it is 'jaisi drishti'. I spent better part of my life at those places and I love every bit of those places. But these are just real facts ! If things are changing for good sooner or later everyone will appreciate it. I didn't go to bihar recently but whatever I hear about changes... I can't ignore it. Can I?
I don't know which point in my post made you think like this. but feel free to point out those points if something is completely opposite of ground realities here.
बढ़िया संस्मरण. सर्व-जन हिताय लेखन है यह....:-) लखनऊ में अरेस्ट की चिंता मत करो. कार में एक मूर्ति रख लेना. कोई आएगा तो मूर्ति दिखा देना.
ReplyDeleteकुछ यह पढ़ कर अच्छा नहीं लगा,
ReplyDelete'अगले साल से मैं तो नहीं आऊँगा आईआईटी कानपुर प्लेसमेंट के लिए, तुम्हें बहुत लगाव है तो अकेले आना...'.
देखिये यह न होने पाये। आईआईटी कानपुर भारत का बेहतरीन कॉलेज है सरकार की कमजोरी से कहीं पिछड़ न जाये।
भाई काहे को डरा रहे हो, अब हम कभी लखनाऊ नही आयेगे डर के मारे, लगता है वहा हिटलर ही नाम बदल कर बेठा है ओर चक्की वाले सभी असली ही है
ReplyDeleteपोस्ट पढ़ी फिर टिप्पणियाँ भी ...
ReplyDeleteमुझे ऐसा क्यों लग रहा है आप कुछ उदास से हैं?
वैसे पोस्ट आप कितनी भी लम्बी लिखें हम पढेंगे ही ..पोस्ट की विषय वास्तु पर - नो कमेन्टस :-)
कभी झारखण्ड आइए ..इसकी दुर्दशा देखिए, पर यह भी संभव है हर किसी को अपना ही दुःख बड़ा लगता है इसलिए मुझे ऐसा लग रहा हो ...
पुलिस वाले भाई साहब दर असल स्वास्थ्य बनाने के लिये दौड़ कर आने के लिये कह रहे होंगे। कहीं और की पुलिस भली है इत्ती भला? उसका शुक्रिया अदा करो जी।
ReplyDeleteऔर किसी से डर जाये वो बलिया जिले का कैसे हो सकता है? फ़िर से दोहराया करो-- बलिया जिला घर बा त कौन बात का डर बा।
उन्मुक्तजी की बात का ख्याल रखा जाये, लवली की बात का जबाब दिया जाये।
LAJAWAAB KATAKSH ......
ReplyDeleteJABARDAST SATEEK VIVRAN PRASTUT KIYA HAI AAPNE...."SARVJAN AUR PRADESH" KA VIKAASH HAATHI CHAAL CHAL RAHA HAI,YAH ALAG BAAT HAI KI YAH AAGE KEE OR HAI YA PEECHHE KI OR...
Aapke aalekh ki pratiksha thi..aasha hai lakhau yatra vritant bhi sheeghra hi padhne ko milega...
Hamara soubhagy uday na hua hai aajtak us ilake jaane ka..kam se kam aapke vivran se to yah bhraman poora ho...
बिलकुल अपनी नज़र से देखा,लखनऊ को...जब बाहर से काफी दिनों बाद कहीं जाओ तो ऐसा ही लगता है...बिहार के लिए भी ऐसा ही सुना है..'जिसके गले में आवाज़ हो, वही गाड़ी चला सकता है.'
ReplyDeleteलोगों की अवधारणाओं का तो क्या कहें...एक बार एक साउथ इंडियन लड़की पेंटिंग सीखने आई थी...उसे जब कुछ दिन बाद पता चला,मैं बिहार से हूँ तो उछल कर सामने आकर खड़ी हो गयी...जैसे कुछ अजूबा देख लिया हो...पूछने लगी "वहाँ तो बम टोकरी में बिकते हैं,ना"...मैंने कहा,'हाँ हम लोग सब्जी लेने जाते हैं तो कहते हैं,दो चार बम भी डाल देना."
जी हां साहब हमने लम्बी पोस्ट पढी और बाकायदा पढी ध्यान से पढी। दौनो जगह के पार्क का अन्तर जाना ,एक तो आकर्षक शीर्षक और आपके लिखने का तरीका जैसे बातें कर रहे हों ,सड़्क के इस पार खडे हुये आपको देखा उस पार खडे आपके मित्र को देखा ,शाही इन्तजाम वाबत् पढा ,मूर्तियों के वाबत जाना और यह भी कि किसी ने उस जमाने मे सोचा भी न होगा कि इन महलों का यह हाल होगा
ReplyDeleteअभिषेक भाई
ReplyDeleteपढ़ीं आपकी यात्रा की सारी बातें
कितनी अच्छी तरह से
पूरा द्रश्य उभरा है के बस !
क्या कहने !
आप सभी को बसंत पर्व पर,
माँ शारदा की कृपा उपलब्ध हो
इस मंगल कामना सह:
-स्नेह
- लावण्या
अभिषेक जी,
ReplyDeleteयू.पी., बिहार और झारखंड ये तीनों चोर-चोर मौसेरे भाई हैं....कम-बेसी यही दुर्दशा है...आज कल रांची में भी यही देखने को मिलता है... बोलेरो का काफिला और ....साईरन बजाती गाड़ियाँ और जैसे थे ऐसी स्तिथि में खड़े लोग...
और रिक्शेवालों, गरीबों पर डंडे बरसाती पुलिस...यह तो आम दृश्य है....और बिना बात के पुलिस यहाँ सिर्फ कहती नहीं देती अन्दर ही कर देती है फिर आप भुगतते रहिये ..किसे परवाह है..?
आपका संस्मरण...लाजवाब...और आपकी लेखनी बे-मिसाल..
आभार...
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ReplyDeleteओझा जी
ReplyDeleteयू पी के दोनों महानगरों का यात्रा संस्मरण बहुत जीवंत है दोस्त.....फरबरी में फिर आ रहे हैं अच्छी खबर है.....कोई तारीख हो तो बताईयेगा.....शायद मुलाक़ात भी हो जाये .
भाई देखिये, बाकी जगह का तो हमको पता नहीं है, पर हमरा बिहार ई सब मामला में सबसे ठीक है. इहाँ सब रंगदारे है, किसको बोलेगा पुलिस. ज्यादा करेंगे तो पकड़ के मरबो करेगा और जीपवो जला देगा. कैसे कहता है लोग की बिहार पिछड़ा हुआ है! इतना हिम्मत है और जगह के "सर्वजन" को?
ReplyDeleteachchhi post.....
ReplyDeleteलाजवाब पोस्ट अभिषेक..."बहनजी की तस्वीर और किसी 'सर्वजन' के बारे में लिखा पाया."...इस किसी "सर्वजन’ पर ठाके लगा रहा हूं।
ReplyDeleteदिनों बाद आते हो और छा जाते हो यार...
darsal bhai sahab main lucknow ka hi hoon , apki kuch batein sahi , kuch galat hain , agar aapko lakhnvi tahzeeb nahi dikhi uske liye ,apko hotel mein nahi kisi lakhnvi ke ghar mein rukh kar dekhna chaiye tha ,aapke saath galat incident hua ,iska matlab ye nahi ki yahan roz aisa hi hota hai , bade sahar aur chote sahar mein antar hota hai , mumbai ,pune delhi se lucknow ki tulna nahi hai ki ka sakti , kuch saal aur ye antar bhi kahatm ho jayega .
ReplyDeletechama karein aapke blog par padhen valon mein jo rai bani usse mujhe dukha hai , maine agar aapko kisi bhi tarah se dukh pahuchaya ho to chama .
ReplyDelete@timeforchange: अरे भाई क्षमा मांगने की जरुरत नहीं, आप लखनऊ के रहने वाले हैं और आप जरूर बेहतर जानते हैं लखनऊ के बारे में. और आपने अपनी राय दी... इसके लिए धन्यवाद. "लखनऊ में मेरा कभी रहना नहीं हुआ. जब भी गया 2-4 घंटे के लिए ही. तो लखनऊ के बारे में कही गयी मेरी हर बात 2-4 घंटो के अनुभव पर ही आधारित होगी तो उसे उसी रूप में लिया भी जाना चाहिए." आपने जो बात कही है उसका अंदेशा था इसीलिए मैंने ये लिखा था. पर राय इस लाइन से नहीं बल्कि बाकी पोस्ट में जो था उससे बन गयी, ये मैं मानता हूँ. लखनऊ में तो नहीं रहा पर बाकी उत्तर प्रदेश में तो रहना हुआ ही है. और जब भी 'अपने घर' जाता हूँ... बड़ा दुःख होता है. शायद इसीलिए ये पोस्ट बन गयी.
ReplyDeleteदेर से आये हैं तो क्या, जायेंगे पूरी पोस्ट और टिप्पणिया दो बार तसल्ली से पढ़कर.
ReplyDeleteभई हम तो आपसे कतई भी सहमत नहीं हैं. सर्वजन-स्वामिनी अपना काफिला लेकर सड़क पर निकलती हैं तो लोग मित्रों से न मिल पाने की शिकायत करते हैं. और वे अपने महल में ही बैठकर पोस्टरों के द्वारा बिलकुल मुफ्त दर्शन-लाभ देती हैं तो लोग दर्शन की जगह रोटी मांगने लगते हैं - भुक्खड़ कहीं के. इसी तरह एक तरफ वन-जीवन नष्ट होने का रोना रोया जा रहा है, वहीं जब देवी जी हाथियों को अमर करने जा रही हैं तो उसमें भी तकलीफ है.
टिप्पणियाँ भी सब ऐंवे ही हैं सिवाय timeforchange के, उनसे पूरी तरह सहमत होकर इतना दोहराना चाहता हूँ कि आपने बड़ी जल्दी राय बना ली. आज़ाद देश में रहते हुए सेलफोन पर बात करने के जुर्म में दो चार दिन नंगे फर्श पर डंडे खाने के बाद राय बनाते तो सर्वजन के बल और तहजीब दोनों से सही परिचय हो पाता.
पिछली टिप्पणी दर्दनाक व्यंग्य भर थी.
ReplyDeleteबहुत सही पोस्ट है. जब यूपी का हाल इतना बुरा नहीं था तब भी काफी बुरा पुलिस-राज ही था. अब तो कहने सुनने को कुछ बचा नहीं है. खासकर जब महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि से आओ तो व्यवस्था और अनुशासन की धज्जियां कुछ ज़्यादा चुभती हैं.
भाई साहब , मैंने कल आपके कई सारे ब्लॉग पढ़े बहुत अच्छा लगा , आपके विचारों में जो सरलता और उसके बावजूद जो गम्बीरता है , वो मुझे काफी सही लगी , इस बार नहीं मिल पाए तो क्या हुआ ,ये दुनिया बहुत छोटी है कभी न कभी मुलाकात हो ही जाएगी . और हमारा ब्लॉग वर्ल्ड तो है ही .
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार .
आपके इस ब्लॉग पर मैंने भी सारे कमेन्ट पढ़े , सामन्यतः लोग बहुत जल्दी राय बना लिया करते हैं , छोटा मुह बड़ी बात कह रहा हूँ तो छमा लेकिन ये आप जैसे लोगों का ही काम है की लोग सही राय बनाएं , बहुत सारी बातें हैं जो विस्तार से कर सकतें है पर ये सही जगह नहीं लगती .
ReplyDeleteसही मूड में आये जानी.. इधर जयपुर में भी हर पाँव भाजी वाला असली पंडित पाँव भाजी वाला होता है..
ReplyDeleteअरे वो सर्वजन आपको मिल गये क्या ?
ReplyDeleteवाकई ये पोस्ट लंबी थी पर हम बी लग रे और पूरी पढ डाली । ये मगन लाला चक्की वाले और "लखी बाबू आसली सोना चांदी वाले" एकही स्कूल के लगते हैं ।
aapki february ki doosri yatra kaisi rahi.... kanpur to aap fir se gaye the...
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