पिछली पोस्ट को लिखे इतने दिन हो गए कि मैं खुद ही भूल गया कौन सी रेसिपी सोची थी भाग दो के लिए. दिल्ली में कुछ ५-६०० रुपये का गन्ने का जूस याद तो है लेकिन उसका धांसू वाला नाम याद नहीं आ रहा. अब जब नाम ही याद नहीं तो फिर गन्ना गन्ना हो जायेगा और भंटा भंटा... फिर काहे का आकर्षण. बिन नाम सब सून... !
खैर अब भाग एक था तो भाग दो भी लिखना ही पड़ेगा. आजकल तो फ्लॉप मूवी हो तो भी सिकवेल बनने लगे हैं मेरी पोस्ट पर तो फिर भी कुछ टिपण्णी आई थी. खैर बात थी नाम की. अब नाम में तो सब कुछ रखा ही है लेकिन कई चीजें ऐसी है जो बकायदा काम करती हैं उन्हें किसी नाम की जरूरत नहीं होती. अब जुगाड़ से चलने वाली हर चीज का नाम तो होता नहीं है. लेकिन जितना काम उनसे होता है उतना नाम वाले क्या कर पायेंगे ! आज अपने कुछ बेनामी तंत्रों से आपका परिचय करा देता हूँ.
हुआ यूँ कि हमारे गैस का रेगुलेटर खराब हो गया. अब पिछली बार गैस ख़त्म हुई थी तो पोटाचियो घूघूरियानों का आविष्कार हुआ था. इस बार सिर्फ दूध गरम करने के लिए नया रेगुलेटर तो हम लाने से रहे तो थोड़ा इधर-उधर करने पर पता चला कि रेगुलेटर तो दबा के रखने से काम कर रहा है. अब कितनी देर हाथ से दबा के रखा जाय... अपने फ़्लैट पर कोई ऐसी वजन वाली छोटी वस्तु है नहीं जो रेगुलेटर के ऊपर आ सके. दिमाग की बत्ती जली और हमने दो बर्तनों में पानी भरकर ये तंत्र तैयार किया जो २ महीने चला. इसका नामकरण नहीं हो पाया !
ऐसे ही एक बार किचन के बेसिन का पाइप फट गया. पता चला सोसाइटी में शिकायत लिखवानी पड़ेगी और ठीक तो शनिवार को ही हो पाता. वो भी पूरे दिन घर पर उपस्थित रहना पड़ता. ठीक करने वाला शनिवार को कभी भी आ सकता था और अगर हम घर पर नहीं रहे तो वो वापस चला जाता. अव्वल तो ये घर पर उपस्थित रहने वाला 'नेसेसरी बट नॉट साफिसिएंट कंडीशन' हमें कुछ पसंद नहीं आया. दूसरे शनिवार तक कैसे काम चलता? फ्लैट पर गिने-चुने सामान... एक प्लास्टिक की बोतल मिली और फिर काट कर बिन पेंदी की बोतल से जो अस्थायी व्यवस्था हुई वो एक साल से बिना किसी शिकायत के चल रही है.
अब लिखते-लिखते सोचता हूँ तो दिखता है कि गीजर का पाइप भी तो दो साल से टूटा हुआ है और वैसे ही चल रहा है ! बिना किसी समस्या के. ये अजीबो-गरीब सिस्टम भी बड़ा मस्त काम करता है. भारी-भरकम नलके से धीर-धीरे पानी आता था, जब से ये पाइप टूटा तब से सीधा इसी से धारा प्रवाहित होती है. ठीक करा के धीरे-धीरे टाइम खराब करने से अच्छा है फटाफट स्नान. वैसे भी रोज भागते-भागते ऑफिस पहुचने वाले ही एक-एक मिनट का मूल्य समझ सकते हैं !
अगल-बगल देखता हूँ तो हर वस्तु जिसका जो उपयोग होना चाहिए उससे कहीं अधिक और अच्छा उपयोग किसी और काम में हो रहा है. कुछ अनुपयोगी वस्तुओं को भी काम पर लगा दिया गया है. पर्दा कैसे टंगा है से लेकर कुर्सी, टेबल, एक्सटैन्शन कॉर्ड सबका कुछ और भी (ही) उपयोग हो रहा है. ये कॉफी मग में पड़ा बेलन मिक्सी और सिलबट्टे से अच्छा काम करते हैं. अदरख, इलायची, धनिया, मिर्च सबको बेरहमी से कुचल दिया जाता हैं इसमें. और ये वाइन की बोतल से रोटी बेलने का आइडिया तब आया था जब बेलन के अभाव में चार शीशे के ग्लास रोटी बेलने के प्रयास में तोड़ दिये गए थे. और जब आइडिया आ गया तो क्या रोटी, क्या समोसा सब बेल डाला गया.
अब ये सब तो ठीक... ऐसा ही जुगाड़ तंत्र अपने काम में भी चलता है. गनीमत है अपनी नौकरी में बस काम से मतलब होता है. कैसे हो रहा है इससे किसी को मतलब नहीं है. एक दिन मेरे बॉस बड़े खुश हुए तो कहा डोक्यूमेंट कर दो ये काम कैसे हो रहा है... अब तिकड़म और जुगाड़ का डोक्यूमेंटेशन और नामकरण होने लगा तब तो... खैर बिना नामकरण और डोक्यूमेंटेशन के ही सब कुछ चल रहा है. ठीक वैसे ही जैसे इन तस्वीरों में सब कुछ सही सलामत चल रहा है. ऐसे तंत्र हर जगह चल जाते हैं हर क्षेत्र में ! आप जहाँ भी जिस क्षेत्र में भी काम करते हों... ऐसे तिकड़म लगाया कीजिये कभी कुछ नहीं रुकेगा.
अब आपका मन हो इनमें से किसी यंत्र को 'पोटाचियो घूघूरियानों' टाइप धांसू नाम देने का तो दे दीजिये.
~Abhishek Ojha~
--
ये जिस फ़्लैट की तस्वीरें हैं वो अब छूट चुका... पुणे भी... फिलहाल अनिश्चित काल के लिए न्यूयॉर्क में हूँ. अनिश्चितकाल क्यों? ये अगली पोस्ट का विषय होगा.
पता लगा कि अमेरीका आये हो...नम्बर तो ईमेल करो..महाराज!!
ReplyDelete:-D सुन्दर और उपयोगी जुगाड़ू व्यवस्थाएं है
ReplyDeleteएक नया सम्प्रदाय न चला दीजियेगा।
ReplyDeleteबहुत खूब! जुगाड़तंत्र का जवाब नहीं. एक से बढ़कर एक बढ़िया जुगाड़.
ReplyDeleteएक बता बताइए कि इन घूघूरियानों पर कोई पेटेंट तो नही है? :)
ReplyDeleteहे राम केसे केसे जुगाडिये है, वेसे बीयर की बोतल से हम ने भी ६, ७ साल रोटी बनाई है,शादी के बाद बीबी बेलन ढुढे, हम उसे बीयर की बोतल पकडा दे...
ReplyDeleteyou were looking gorgeous in your kitchen.
ReplyDelete'पोटाचियो घूघूरियानों' जैसे नाम आविष्कार करते समय ताऊ की आत्मा सवार रही होगी. बहुत ही रोचक और धांसू पोस्ट. पूना छोडकर न्यूयार्क में रमने की वजह जानने की उत्सुकता रहेगी.
ReplyDeleteरामराम
वो एक एड आता है न.....कुछ इंटेलीजेंट लोगो का ....जो स्टूल को उल्टा करके जुगाड़ करते है....तुम भी उनमे से एक हो....
ReplyDeleteहमलोग (भारतीय) ऐसे जुगाड़ के विशेषज्ञ हैं.लेकिन कभी कभी यह विशेषज्ञता दुर्घटना के रूप में भारी भी पड़ जाती है.
ReplyDeleteजुगाड़ के बिना कुछ नहीं चल सकता। लेकिन जुगाड़ पर अधिक नहीं चलना चाहिए।
ReplyDeleteकमाल के जुगाडी निकले आप तो ......
ReplyDeleteहुंह ..हमारे हर जुगाडी को ..ये अमेरिका ..कोई न कोई जुगाड करके अपने यहां बुला ही लेता है ...
बढ़िया ...इंटरेस्टिंग जुगाड़ !
ReplyDeleteतभी तुम्हारा फोन तो नहीं ही लग रहा था, SMS भी फेल हुआ जा रहा था..
ReplyDeleteवैसे भी हमारा देश ही जुगाड पर चल रहा है, हम चले तो क्या गुनाह किये..
ये बेलन वाला जुगाड सबसे मस्त लगा.. :)
इसे कहते है ’भौकाली जुगाड’... वाह जी वाह.. दारू की बोतल को पता चले कि उसका इतना सात्विक प्रयोग तो खुद ही शरमा जाय.. :)
ReplyDeleteshandar,jugaad hi zindagi hai.... ;)
ReplyDeleteबड़े भाई टाइप सुझाव:
ReplyDeleteअमेरिका में ऐसा न करना।
भारत में भी गैस सिलिंडर और ग़ीजर के साथ ऐसे खिलवाड़ नहीं करने चाहिए।
बाकी जुगाड़ तो मस्त हैं। भारत वापस आने से एक महीने पहले मुझे बताइएगा।
जुगाड़ बिना सब सुना हो सकता था। अम्मा एकदम निश्चिंत हो कर अपने जुगाड़ू को भेजी होगी ....
ReplyDeleteदो साल मैंने भी कानपुर में mirror के बिना बिताये थे. इसका ध्यान मुझे तब आया था जब एक मित्र रात मेरे यहाँ रुकने के बाद सुबह घर में शीशा ढूंढते मिला.
ReplyDelete@आभा: अरे अम्मा कहाँ निश्चिंत हो पाती हैं ! भले सब पता ही अम्मा को लेकिन बेटे की चिंता तो रहती ही है...
ReplyDeleteजुगाड़ सम्प्रदाय के लोग वस्तुओं को उनकी उपयोगिता के आधार पर इस्तेमाल करते हैं, नाम के अनुसार नहीं। :)
ReplyDelete