‘आपका क्या ख्याल है घूस दे दूँ क्या?’
अगर आपसे कोई अधेड़ अजनबी ऐसा सवाल पूछे तो आप क्या कहेंगे?
छुट्टी के बाद घर से वापस आ रहा था. रात का समय… बलिया (यूपी) से बक्सर (बिहार) (तकरीबन ३० किलोमीटर) जाने के लिए टैक्सी पकड़नी थी. जल्दी-जल्दी रिक्शे से उतरा ताकि आखिरी टैक्सी छूट ना जाए. गर्मी का दिन... उतरते ही पानी निकाला ही था की आवाज सुनाई दी:
'बोतल का ही पानी पीते हो, नहीं? इंसान भी कितना शौकीन हो गया है !'
सच कहूं तो बहुत गुस्सा आया… अरे मैं बोतल का पानी पियूँ या गड्ढे का तुम्हे क्या पड़ी है? लेकिन फिर उनकी उम्र देखकर मुस्कुरा दिया. 'नहीं… वो छुट्टे नहीं थे तो एक बोतल पानी ले लिया'.
फिर बातचीत चालु हुई. पहले तो पानी का बोतलीकरण और फिर बेचने वालो को गाली... फिर बाद में बाकी बातें... अंकलजी रिटायर्ड फौजी थे और एक साक्षात्कार के लिए पटना जा रहे थे. कोई सीआईएसऍफ़/सीआरपीऍफ़ या फिर किसी बैंक में सेक्युरिटी के लिए कोई पोस्ट थी. इन सबका उन्होंने जिक्र किया था तो ठीक-ठीक याद नहीं किस वाली नौकरी के लिए जा रहे थे. रिटायर्ड फौजी… लेकिन बेटे पढने वाले हैं तो पेंशन पर गुजारा नहीं हो रहा तो काम करना जरूरी है ! आधे भारत की यही कहानी है. ये आधे खुशहाल में आते हैं बाकी आधों के लिए तो कपडे मकान का संघर्ष है. रोटी शायद अब सबको मिल जाती है. और जो बाकी बचे वो थोड़े आराम की जिंदगी जीते हैं. अब ये मत पूछियेगा कि आधे-आधे हो ही गए तो ये बाकी वाले कहाँ से आ गए? ये जो बाकी हैं इन्हें मैं भारत नहीं इंडिया मानता हूँ.
बच्चों की पढाई और नौकरी की बात करते रहे फिर मेरे बारे में भी कुछ पूछा. ‘पुणे में काम मिल सकता है क्या? ५-६ हजार में किसी के यहाँ खाना बनाने का भी...?’ फिर अचानक ही बोल पड़े:
‘तुम्हारा क्या ख्याल है दे दूं घूस? बिना घूस के तो नौकरी मिलेगी नहीं. ’
'मैं क्या बताऊँ… आप अनुभवी हैं. पर ऐसा नहीं है… बिना घूस के भी काम होता है, अगर आप योग्य हैं तो आपको क्यों नहीं मिलेगी नौकरी? आपको इतने सालों का अनुभव है. ऐसे छोटे काम के लिए क्यों परेशान हो रहे हैं, हो जाएगा आपका.’
‘अरे योग्य तो सभी हैं. चार में से एक का होना है. और उनमें से ऐसा कोई नहीं जो योग्य नहीं इस पोस्ट के लिए. सभी ओवर क्वालिफाइड ही हैं. बस एक ही बात बची है पूरी प्रक्रिया में जो १ लाख देगा उसको रख लेंगे. मेरे पास तो साक्षात्कार का लेटर आने के पहले ही दलाल आ गया था. और वो तो चैलेन्ज करके गया है कि बिना पैसे के होना संभव ही नहीं है ! मैं नहीं दूंगा तो कोई और देगा…’
'पर मान लीजिये पैसा भी ले ले और नौकरी भी नहीं लगी तो?' इसके अलावा और कोई तर्क बचा नहीं था मेरे पास. ईमानदारी से भूखो मरने की सलाह उनकी समस्या और 'सभी ओवर क्वालिफाइड ही हैं' वाली बात सुनकर मैं नहीं दे पाया.
'नहीं ऐसा बहुत कम होता है. उनका एक दिन का काम तो है नहीं... प्रोफेशनल लोग हैं. काम होने के बाद आधा पैसा लेते हैं.'
अब क्या बोलता मैं?... मैंने बस इतना ही कहा 'अगर आप योग्य हैं तो नौकरी आपको मिलनी ही चाहिए. और इन सबके चक्कर में ना पड़े तो ही बेहतर है'
अंकलजी ने बस इतना ही कहा... 'तुमने दुनिया देखी कहाँ है? मैं पटना जा रहा हूँ... और वो भी ऐसे पोस्ट के लिए जिस पर कई सालों से बिना घूस के कोई नहीं रखा गया... तुम्हे क्या पता कैसे दुनिया चल रही है... फौज और पारा मिलिट्री में नॉन-ऑफिसर की बहाली कैसे होती है ! मैंने दुनिया देखी है... २० वर्ष के फौज की नौकरी के आधार पर कह रहा हूँ ! '
पता नहीं उनकी नौकरी का क्या हुआ !
पिछ्ली पोस्ट में अन्न मसूर था. जिसे काली दाल भी कहते हैं.
~Abhishek Ojha~
मैं घूस देने के मामले में अब तक बचा रहा हूं। लेने से बचना तो व्यक्तिगत प्रवृत्ति का सवाल है - लिहाजा वह कष्ट नहीं देता। पर देने के मामले में कभी कभी सोचता हूं कि बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी। नौकरी के बाद का जीवन, जब आपको स्वयं बहुत कुछ करना होगा, आपको काट कर रख देगा।
ReplyDeleteइष्टदेव जी लिखते भी हैं - एकदम अकेले. जैसे हमारे देश में रिटायर होने के बाद ईमानदार टाइप के सरकारी अफसरों को कर दिया जाता है.
आगे की राह कठिन है। और वह तब, जब आदर्श का जोश थकने के कगार पर है।
भाई बडा मुश्किल है बिना घूस के जीवन. बिना हवा के कोई कैसे जियेगा? आज के जमाने मे इसको आक्सीजन कहा जाता है.
ReplyDeleteरामराम
अपने यहाँ तो कुछ मास्टरों को छोड़ कर सरे मास्टर घूश पाएंगे कहाँ से!! इसलिए हम तो आज तक इमानदार हुए न??
ReplyDeleteकुछ मास्टर घूश वुश न ले तो सर्व शिक्षा अभियान को गति कैसे मिलेगी?
सब पढें - सब बढ़ें की जगह समझा जाये -------> सब खाएं - सब कमायें !!
बकिया घूश लेने में हमारे अधिकारी व बाबू का कोई जवाब नहीं!!
और तो और अब तो यह दावा भी कि यह तो ऊपर तक जाती है!!
रब ही जाने रब की माया !!
बड़ी आफ़त है!
ReplyDeleteयह यथार्थ ही है भाई ,अक्सर लोग -बाग़ समय बचानें के लिए अपने कम वाले पटल पर घूस दे देंते है ,सामने वाले को नोट गिनने की इतनी बुरी आदत पद जाती है की फिर बगैर उसके उससे कुछ भी नही होता .फिर हम जैसे लोंगों की मुसीबत बढ़ जाती है जो कि नतो लेते है और न ही देंते हैं ,अब आप ही बताइए उनके काम कैसे होतें हैं वह भी आराम से सहजता के साथ .
ReplyDeleteबड़ी परेशानी है..सहूलियत मिल जाती है घूस देकर तो यह नासूर हटता भी नहीं.
ReplyDeleteअंकल जी ने 'दुनियाँ देखी है.' शायद ठीक कह रहे होंगे.
ReplyDeleteवैसे उन्हें घूस नहीं देना चाहिए.
शायद घूंस आज अनिवार्य बन गया है. और अंकल जी ने सही कहा, की "उन्होंने दूनिया देखी है" और "सभी ओवर क्वालिफाइड ही हैं". पर क्या करें हम, यही आज का यथार्थ है.
ReplyDeletehttp://merekhwab.blogspot.com/
जिन्दा रहना है तो लेन देन की रस्म निभाते रहो.. वरना दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंक दिए जायेंगे हम.. वैसे हमारी एक मित्र मंडली है जिनका फैसला है कि न कभी घूस देंगे ना लेंगे.. हमने तो अब तक निभाया है अपना धर्म.. इसी वजह से पासपोर्ट का फार्म वेरीफाई नहीं हुआ और साहब देख लेने की धमकी और दे गए.. वैसे हमारे एक साथी इसमें फिसल गए और दौ सौ रूपये देकर पासपोर्ट बनवा लिए.. पर हम बेवकूफों की तरह अब भी बैठे है सोच कर कि राम राज्य आएगा..
ReplyDeleteआश्चर्य होगा आप को कि मैं ने कभी घूस नहीं दी और न कभी इस के लिए किसी को प्रोत्साहित किया। फिर भी रोजमर्रा के काम होते हैं। हाँ कुछ समय अधिक लगता है कुछ श्रम भी।
ReplyDeleteये इमानदारी भी न.. बहुत सवाल पैदा ्करती.. बहुत परेशानियों में डालती है.. बहुत परिक्षाऐं लेती है... बड़ी कठीन है राह पनघट की.. पर जमे रहो... कहीं तो मिलेगी... कभी तो मिलेगी...
ReplyDeleteये लेन देन तो हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया है. हम कितनी बार ही जल्दी के चक्कर में रेड लाइट क्रॉस करते है... हमें पता होता है की आगे 'मामा' खडा होगा और हाथ के इशारे से गाड़ी किनारे लगवायेगा.... पर ये भी पता होता है की उससे कैसे छूटा जाता है......
ReplyDeleteअगर काम आसानी से होता है तो कौन लफडे में फंसे.......
बेहक रोचक घटना का वर्णन आपने किया है । क्या हमारे देश की स्थिति यही है कि बिना घूस के नौकरी नही होती । सवाल यह है कि फौज की नौकरी के लिए भी अगर घूस चाहिए तो निश्चित रूप से हमारी सेना को कमजोर बनाना है । घूस पर गए बाबू क्या देश की सुरछा कर पाएगे । वैसे तो अपने विहार में बिना घूस के कोई काम होता नही है तो इस घटना पर ज्यादा बहस नही होनी चाहिए। आभार
ReplyDeleteयह स्थितियां वाकई विचलित करती हैं। पर अफसोस इसका कोई उपाय नहीं निकल रहा।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
jab tak bache rahein is lene dene ke chakkar se utna hi achchha hai. par shayad ye baat insia ki ho bharat humne bhi kahan dekha hai?
ReplyDeleteअभिषेक भाई,
ReplyDeleteरीटाय्र्ड फौजी बुजुर्ग की कथा से दुख हुआ क्या करना जब सारे कूँए मेँ भाँग मिली हो ? :-(
मेरे पापा जी जैसे लोग जिन्होँने सत्य के मार्ग पर चलते हुए जीवन पूरा किया बहुत सारे
अभावोँ मेँ जीये परँतु आज उन्हीँकी जीवनी सुवर्ण की चमकती रेखा के सामान मार्ग दीखलाती है
आपने गर्मी मेँ बोतल खरीदकर पानी पी लिया वो अच्छा किया :-)
स स्नेह,
- लावण्या
मैंने आजतक घूस नही दिया है ..पर बहुत गुस्सा आता है उन लोगों पर जिन्होंने इसे सामाजिक परंपरा बना दिया है ..बाकि आपकी पोस्ट पढ़कर मुझे कुछ और भी महसूस हुआ ..वह बाद में कहूँगी
ReplyDeleteलोग भले ही कितनी साफ़ सुथरे दावे करे .पर हकीक़त ये है की इस देश में घूस सरकारी सिस्टम का एक अनिवार्य हिस्सा है...अब तो अपना जायज काम करवाने के लिए भी कचहरी या यूनिवर्सिटी में घूस देनी पड़ती है
ReplyDeleteपुलिस और बिजली विभाग तो जायज काम भी घूस के बगैर नहीं करता. जिनका दावा है कि उन्होंने कभी घूस नहीं दी, मेरा मानना है कि उन्हें कभी ढंग का काम कराने की जरूरत नहीं पड़ी.. खैर...
ReplyDeleteमन कुछ अजीब सा हो गया आलेख पढ़ कर...शायद इसलिये भी कि आलेख का नायक फौजी था और अब ये दशा...
ReplyDeletehmm ghoos dene se bache rahna aur lachari mahsoos nahi hona bhi bahut badhi baat hai
ReplyDeletehalaki ghoos bhi kayi tarah ki hoti hai
zaruri nahi sirf paise hi ghoos kahlate hai
aajkal waqayi mein kathin ho gaya hai jeevan
यूं ही चलते-फिरते जब इस तरह व्यवस्था की कड़वी सच्चाई सामने आती है, तो एक अजीब सी उलझन में ख़ुद को पाते हैं। हमदर्दी जताएं, किसी को दोष दें... क्या करें ?
ReplyDeleteपोस्ट की अन्तिम लाइन में आपने लिखा कि वह अन्न मसूर है जिसे काली दाल कहते हैं।
ReplyDeleteमेरे हिसाब से यह सही नहीं है काली दाल उड़द की दाल को कहते हैं। मसूर- मसूर दाल लाल होती है, हां छिलका उतरने से पहले वह काली नहीं कुछ कुछ मेरून सी होती है।
दक्षिण भारत में मसूर की लाल दाल बहुत खाई जाती है और इसे तेलुगु में एर्रापप्पू कहते हैं।
एर्रा(लाल) पप्पू (दाल)