Dec 14, 2008

माँ का दूध

एक ज़माना था जब सोते-जागते कंपनी खोलने का भूत सर पर सवार रहता, और हर बात में बिजनेस आईडिया के अलावा कुछ दिखता ही नहीं था. हमारे एक मित्र इसमें बड़ा सक्रिय रहते... उनके आईडिया बड़े कमाल के होते, उसमें सफलता मिलती या नहीं ये तो बिजनेस स्टार्ट करने पर पता चलता पर आईडिया मजेदार जरूर होते ! आजकल ये मित्र रोयल डच शेल में तेली हैं। और नीदरलैंड से सिंगापुर तक तेल के कारोबार में हाथ बटाते हैं. अब कहने को तो इस तेल की कंपनी में शोध वैज्ञानिक है लेकिन अब हमारी भाषा में तेल बनाने/बेचने वाले को तेली ही तो कहते हैं... अब मैं तो इन्हें यही कहता हूँ !

एक समस्या ये होती कि इनके नए विचार अक्सर ऐसे होते जिन पर सदियों पहले से कंपनियाँ चल रही होती. अब क्या करें बेचारे दिमाग के किसी कोने से ढूंढ़ के लाते और दो मिनट में हम उस पर खड़ी बड़ी-बड़ी कंपनियां गिना देते... दो मिनट में रात के डिनर से सुबह के बाथरूम तक के सोचे गए उनके सारे 'इनोवेटिव' बिजनेस आईडियाओं पे पानी फिर जाता. खैर एक दिन उछलते-कूदते आए बिल्कुल आर्कीमिडिज के 'यूरेका' वाले क्षण की तरह...

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'अबे यार मस्त आईडिया आया है... दूध की कंपनी खोलते हैं ...'

'क्या यार इसी पे इतना उछल रहे थे... जा अमूल की साईट खोल के देख।'

'अबे नहीं भाई पुरा आईडिया सुन तो लो'
'देखो हम बच्चों के लिए दूध बनायेंगे... पाउडर और लिक्विड दोनों'

'ओके... तो?'

'प्रोडक्ट का नाम रखेंगे... "माँ का दूध"'

'व्हाट?'

'अबे देख डॉक्टर सलाह देते हैं... 'बच्चे को माँ का दूध पिलाइए', वो तो छोड़ जितने डब्बे वाले दूध आते हैं उन पर लिखा होता है 'माँ का दूध शिशु के लिए सर्वोत्तम है' तो हमारे ब्रांड को एडवटाइज करने की भी जरुरत नहीं है' सारे कंपटीटर ख़ुद ही हमारे प्रोडक्ट का इनडायरेक्टली प्रचार करेंगे !'

'हा हा ! जियो मेरे लाल क्या आईडिया है ! चलो इसी मेगाबक्स* में प्रेजेंट कर देते हैं। सारे वेंचर कैपिटलिस्ट लाइन लगा देंगे पैसे देने के लिए...'

'वही तो ... '

'भाग साले... कुछ तो ढंग का सोच लिया करो कभी, वैसे मदर डेयरी है तो तेरा कंपटीटर'

'अबे यार, क्या तुलना कर रहे हो, कभी सुना है 'मदर का दूध पिया हो तो...''

'देख एडवटाइज वाला आईडिया तो दुरुस्त है ही... उसके अलावा ६०-७०-८० के दशक की किसी भी हिन्दी फ़िल्म का क्लिप दिखा दो... "माँ का दूध पिया है तो..." और फिर दिखाएँगे 'आ गया माँ का दूध !' डब्बा से निकाल के दूध पिया और फिर साले विलियंस का सफाया ! बिजनेस का तो बाद में सोचना पहले ये बता क्रिएटिव एडवटाइजमेंट का अवार्ड मिलेगा की नहीं?'

'अबे क्यों गन्दगी फ़ेंक रहा है भाग यहाँ से' (ये एक टिपिकल लाइन होती थी होस्टल में)

'अरे यार मैं मजाक नहीं कर रहा सीरियसली सोच, अबे यार तू रिपोर्ट बना दे फिर प्रेजेंट करते हैं... कम से कम मजा बहुत आएगा। बड़े-बड़े लोग आते हैं सुनने'

'तुम्हें लगता है की एक राउंड भी आगे जा पाओगे?'

'साले मैं इस आईडिया पे फाइनल जीत सकता हूँ ! लेकिन अकेले नहीं कर सकता, भाई मेरे करते हैं न इसपे काम...'
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खैर काफ़ी चर्चा के बाद ये आईडिया ड्राप हो गया पर था. पर था तो सच में 'इनोवेटिव'...
अब इस पर तो काम नहीं हो पाया (ओह ! ऐसे कितने ही इनोवेटिव आईडिया बरबाद हो गए) मैंने सोचा चलो हम नहीं कोई और सही... आईडिया है, और हम भारतीय ! मुफ्त का आईडिया/सलाह दूसरों को बांटना हमारा पहला-दूसरा नहीं तो तीसरा-चौथा धर्म तो होता ही है.
अब किसी ने इस आईडिया पर कंपनी खोल दी और हमें नाम का भी क्रेडिट दे दिया तो घाटा क्या है !

चलो क्रेडिट ना भी दे तो कोई बात नहीं :-)

*मेगाबक्स आईआईटी कानपुर का वार्षिक बिजनेस और एंतार्प्रेनार्शिप समारोह है.

~Abhishek Ojha~

Dec 8, 2008

एक सेंट बोरिसीय का जन्म-दिन !

(एक मिनी पोस्ट)

'हेल्लो !'
'हेल्लो ! हैप्पी बर्थडे.'
'थैंक्स.'
'ये बताओ पार्टी कहाँ है?'
'कैसी पार्टी बे? तुम तो कभी देते नहीं हो? अपना जन्म-दिन तक तो बताया नहीं तुमने !'
'अब बता भी दूँ तो भरोसा तो करोगे नहीं !'
'मतलब? इसमें भरोसा ना करने वाली  कौन सी बात है? '
'अरे भाई सुन तो। मैंने अपनी माँ से अपना जन्म-दिन पूछा तो उसने बताया कि उसे तारीख तो याद नहीं ! इतना बताया कि  "उस दिन बारिश बहुत हुई थी और उसी दिन रामखेलावन की भैंस को पाड़ा हुआ था। और बुधन की गैया उसी दिन कुँआ में गिर गई थी बड़ी मुश्किल से उस बरसात में निकल पायी थी।" अब तुम्ही बताओ मेरी माँ ही जब इतना बता पायी तो अब क्या मैं रामखेलावन और बुधन से जाकर पाड़े के जन्म और गाय के गिरने का दिन पूछूँ? हाँ टाइम के बारे में माँ ने बताया कि उसी समय तीन बजियवा पसिंजर गई थी, अब भारतीय रेल का समय तो तुम जानते ही हो ! '
'साले बकर मत करो ! ... पार्टी जब मर्जी हो आ जाओ लेकिन एक दिन तो साल का अपना भी फिक्स कर ही लो बे अब... कम से कम वही जो सर्टिफिकेट में लिखा है।'
'किसी भी दिन कैसे माना ले बे? अच्छा रुको इस बार गाँव गया तो एक बार फिर रामखेलावन से पता करता हूँ, शायद याद आ जाय !'

और इस तरह उन्होंने एक और एकतरफा पार्टी ले ली !

इस सेंट बोरिसीय के स्कूल के बारे में तो आप जान ही चुके हैं, बड़े निराले अंदाज का इंसान है !

~Abhishek Ojha~

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आजकल मार्केट की उथल-पुथल, नौकरी और पढ़ाई के बीच इस मिनी-माइक्रो-नैनो से बड़ी पोस्ट सम्भव नहीं लगती.

Nov 30, 2008

झिलमिलाता लाउडस्पीकर (माइक्रो पोस्ट)

गर्मी की एक खुली हवादार रात में एक गाँव का छत:
दूर साइकिल पर लाउडस्पीकर का लंबा भोंपू बाँध कर ले जाता लाउडस्पीकरवाला और हवा के झोंके के साथ आती एक 'क्लासिक' गाने में विविधता, कमी-बेशी, झिलमिलाहट... क्या आपने कभी सुना है?


LoudSpeaker

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कल सड़क पर लाउड स्पीकर देखकर यूँही एक रात याद आ गई !
~Abhishek Ojha~

Nov 28, 2008

भारत का ९/११ ?

भारत का ९/११?

करीब २ महीने पहले किसी ने मुझसे न्यूयॉर्क में कहा था: '९/११ को अमेरिका में सात साल हो गए. उसके बाद कोई अगर अमेरिका में आतंकवादी कार्यवाही की 'सोचता' भी है तो उसे सीआईए वाले पकड़ के ले जाते हैं !'

भगवान करे यह घटना इस सड़ी राजनीति और नेताओं के लिए यह '९/११' साबित हो.

क्या इससे घटिया गृहमंत्री सम्भव है? गृहमंत्री 'लौहपुरुष' होना चाहिए... जो है उसके लिए अभी कुछ नहीं सूझ रहा !

ज्ञानजी की टिपण्णी के बाद:

One more thing I don't understand 'what the f**k will ISI chief will do here? defend his country?'

~Abhishek Ojha~

Nov 27, 2008

मुंबई

धमाके...
भय...
क्षुब्धता....
आतंक...
गुस्सा...
निष्फलता...
अव्यवस्था...
समाप्य बेकार संसाधन...
जूझते जांबाज...

१५ घंटे बाद भी जारी है.

इस बार कायरता कम, हमला ज्यादा?
क्यों? कैसे? कौन?
आख़िर कब तक?
इस मुद्दे पर राजनीति... क्यों नहीं? पर आज नहीं, कुछ दिनों के बाद !

सलाम उनको जिनके सरकारी 'बुलेट-प्रूफ़' जैकेट को चीर कर गोली लगती है.
श्रद्धांजली उन्हें जिनकी जगह 'हम' कभी भी हो सकते हैं.


शोक ! शोक !! शोक !!!



~Abhishek Ojha~

Nov 23, 2008

चिकन अलाफूस: खाया है कभी?

'चिकन आलाफूस नहीं है क्या मेनू मे?'

'नहीं सर '

'क्या? नहीं है? अरे यार फिर क्या खाएं? ! कैसा रेस्टोरेंट है... मैनेजर को बुलाओ'

'सर क्या हुआ?'

'ये चिकन आलाफूस क्यों नहीं है? हर रेस्टोरेंट मे मिलने लगा है आजकल तो'

'सर ये रेसिपी हमें पता नहीं... अगली बार पता करके जरूर शामिल कर लेंगे'

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ये हम अक्सर करते...

बी आर चोपडा की फ़िल्म 'छोटी सी बात' मे इसका जिक्र आता है। हमारे हॉस्टल मे अंग्रेजी फिल्मों का ही बोलबाला रहता पर कुछ हिन्दी फिल्में बड़ी लोकप्रिय हुई जिनमें ये भी थी। कम बजट की लगने वाली सीधी-सादी मनोरंजक फ़िल्म. (शायद इसलिए भी लोकप्रिय हुई कि कई लोग आमोल पालेकर के इस किरदार से अपने आपको जोड़कर देखते... इसी तरह राजपाल यादव अभिनीत 'मैं,मेरी पत्नी और वो' भी बड़ी सराही गई. शायद अपना चरित्र-चित्रण मिला कई लोगों को :-)

इस फ़िल्म की दो बातें कुछ लोगों को बड़ी मजेदार लगी... एक तो अशोक कुमार द्बारा निभाये गए किरदार का नाम 'जुलियस नागेन्द्रनाथ विल्फ्रेड सिंह' और दूसरी 'चिकन आलाफूस'। अब ये बातें कुछ ऐसे लोगों को पसंद आ गई जिन्हें अगर कुछ पसंद आ जाए तो बाकी लोगों को पसंद करवा देना उनका काम होता। और दोनों नाम भी रोचक तो थे ही तो धीरे-धीरे प्रसिद्धि पा गए। और लगभग हर बार रेस्टोरेंट मे पूछा जाने लगा। (मैं शुद्ध शाकाहारी ! लेकिन ये रेसिपी इस कदर नहीं मिली कि मैंने कहा चलो अगर ये रेसिपी मिल गई तो मैं ट्राई कर लूँगा... अब अगर कहीं मिल जाती तो क्या होता... !)। कई बार तो हमारे कलाकार मित्रों ने बाकायदा रेस्टोरेंट वालों को ये भी समझा दिया कि अमेरिकन और फ्रेंच फ्यूजन है ! कैसे बनता है ये भी बता देते :-)

खैर धीरे-धीरे ये कम हुआ और फिर ख़त्म... पर क्या ऐसा नहीं है कि ऐसे ही कई काल्पनिक नाम और मनगढ़ंत घटनाएं इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि हम उसे वास्तविक मानने लगते हैं? निर्भर इस पर करता है कि बनाने वाला कितना रचनात्मक है... कितनी धाँसू कल्पना कर सकता है। शायद इसे ही कवि-सत्य कहते हैं... या फिर फ़िल्म-सत्य? क्योंकि कवि-सत्य तो कवि की कल्पना होती है तो इसे फ़िल्म-सत्य कहना ही ज्यादा उचित होगा.

काल्पनिक के अलावा कुछ वास्तविक चीजों की भी लोकप्रियता फिल्मों से बहुत बढती है। कवियों ने बहुत सारे कवि-सत्य तथ्य पैदा तो कर दिए पर चीजों को लोकप्रिय बनाने में फिल्मों के सामने कहीं नहीं टिक पाये. स्विस में गायों की कुछ बड़ी घंटीयाँ भारतीय पर्यटक जितने में खरीदते हैं उतने में भारत में गाय आ जायेगी ! और 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे ' का इस घंटी-विक्री में बहुत बड़ा योगदान दिखता है... फिर फिल्मों में दिखाई गई जगह ढूंढ़ कर वहां फोटो खिचवाना तो आम बात है.

और कुछ हो ना हो आतंरिक पर्यटन बढ़ाने में फ़िल्म उद्योग बड़ा अच्छा काम कर सकता है, अपने देश में अच्छे जगहों की कोई कमी तो है नहीं। पर बाहर शूटिंग करने का मजा भी तो कुछ और होगा, ये तो फ़िल्म-बनाने वाले ही जानें.

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फिलहाल ये आलाफूस युनुसजी की 'छोटी सी बात' वाली श्रृंखला की इस टिपण्णी से आई। आभार.

~Abhishek Ojha~

Nov 10, 2008

बिन बताये ब्लॉग्गिंग छुडाएं !

पिछली बार जब ब्लॉगरी और माडर्न आर्ट लिख दिया तो एक कलाकार दोस्त बड़े दुखी हुए उनका कहना था कि तुम्हारी ब्लॉग वाली बात तो सही है लेकिन माडर्न आर्ट तुम क्या जानो?

मैंने भी कहा देखो भाई मैं तो ब्लॉगरी भी नहीं जानता माडर्न आर्ट तो दूर की बात है... पर तुम तो आर्टिस्ट हो ही, कभी ब्लॉग लिख के भी देख लो. अब इसी बात पर उन्होंने ब्लॉग बना डाला... और ऐसे डुबे की नींद ही ख़राब कर ली. रात को हर एक १० मिनट के बाद अपने लैपटॉप पर F5 दबा-दबा के टिपण्णी चेक करते रहे. क्या करते बेचारे कुछ भी लिख कर डरे हुए रहते:

'क्या लिख डाला है लोग गालियाँ न दें !' और उधर से जो वाह-वाह की टिपण्णी आनी चालु हुई की सिलसिला थमा ही नहीं...

पर इन सब में एक समस्या भी आ गई... अब बेचारे ठहरे शादी-शुदा आदमी और इधर बीबी परेशान. पहले तो बेचारी के पल्ले ही नहीं पड़ा... लगा कहीं दारु तो नहीं पीने लगे...

'ये एक नया नाटक क्या चालु हो गया, पहले उलूल-जुलूल कैनवास पोतते रहते थे अब नींद में भी हाथ F5 पर ही रहता है, पता नहीं क्या बडबडाते रहते हैं !'

खैर धीरे-धीरे पता चल गया की इस नशे को ब्लॉग्गिंग कहते हैं।

अब अखबार में 'बिन बताये शराब छुडाएं' तो आता है पर 'बिन बताये ब्लॉग्गिंग?' कभी ना सुना ना देखा... अब करती भी क्या बेचारी ! ये नए जमाने में कैसी-कैसी बीमारियाँ और कैसे-कैसे नशे आ रहे हैं... क्या होगा इस दुनिया का। झूठ का ही पंडितजी जपते हैं 'कलियुगे कलि प्रथम चरणे...' अरे ये प्रथम है तो अन्तिम कैसा होगा?

अब बीवी ने एक दिन एक-आध पोस्ट भी पढ़ ली... एक-आध ही पढ़ पायी, पूरी पढने के पहले ही अश्रु धरा बह निकली. बचा-खुचा काम भी हो गया.

'हे भगवान् ये क्या-क्या लिखते हैं... ये पहला-प्यार, दूसरा प्यार? मुझे तो कभी नहीं बताया ! और ये ट्रेन में क्या-क्या देखते हैं? कौन-कौन से अनुपात नापते हैं? ऑफिस में भी... राम-राम ! यहाँ पूरी दुनिया को सब सुना रहे हैं और मुझसे इतना बड़ा धोखा?'

अब उनकी भी गलती है लिखने के पहले पत्नी को भरोसे में लेना चाहिए था... उन्हें तो लगा था की इसको इन्टरनेट से क्या मतलब?... लिखते थे खुल के. अरे भाई टेक्नोलॉजी का ज़माना है आज ना कल उसे तो इन्टरनेट पे आना ही था... देख लेते कहीं पता चलता कि आपसे पहले से ब्लॉग है उसका. पर पुरूष ठहरे उन्हें तो लगा की बस ये हमीं लिखेंगे और हमारे जैसे ही पढेंगे.

अब मैंने ही भड़काया था तो पकड़ा भी मैं ही गया। भाभीजी ने पूछा:

'कोई उपाय बताओ? ब्लॉग्गिंग का तो नाम लेते ही भड़क जाते हैं... ये सौतन पता नहीं कहाँ से पैदा हो गई है. आप ही बताओ कोई बिना बताये छुडाने का तरीका है क्या?'

अब मैं क्या बताऊँ ! बीच में मुझसे ये भी पूछ लिया 'आप तो बीच-बीच में गायब हो जाते हैं कैसे मैनेज करते हैं? कुछ लेते हैं क्या?'

हद है कोई लिख रहा है तो समस्या और कोई नहीं लिख रहा है तो शंका ! मैंने दिलासा दे दिया ... 'जैसे ही कुछ समाधान पता चलेगा मैं आपको बता दूंगा !'

बात आई गई हो गई पर मामला ऐसे कहाँ रुकने वाला था... ये ब्लॉग चीज ही ऐसी है सब उगलवा लेता है. हमारे कलाकार मित्र लिखते गए. अब मामला इतना बिगडा की तलाक की नौबत आ गई. देखिये भाई मजाक नहीं कर रहा... बात बिल्कुल सच्ची है आजकल तो खर्राटे लेने के चलते तलाक हो जाते हैं तो ये ब्लॉग (खासकर हिन्दी वाले) तो ... !

फिर मेरे पास आ गयीं बोली कि अब कोई अच्छा सा वकील ढूंढ़ दो ! अब गणितज्ञ या इंजिनियर ढूंढ़ती तो हम दिला देते, किसी वकील को तो जानते नहीं ! एकाएक ख्याल आया और हमने कहा की अरे हम बड़े अच्छे वकील को जानते हैं आप समस्या लिख भेजो... और तीसरा खम्भा पर उन्हें टिका दिया.

अब (बेचारी!) अपनी समस्या भेजने के लिए उन्होंने नई-नई आईडी बनाई और इसी बीच एक दो ब्लॉग और पढ़ लिया... बस हो गया काम ! वही माडर्न आर्ट वाली बात उन्होंने भी अपनी समस्या को लेकर द्विवेदीजी के पास भेजने की जगह पोस्ट ही लिख डाली. पहले दिन कोई टिपण्णी नहीं आई तो रात भार सोयीं ही नहीं... समस्या को मिटाने का एक तरीका ये भी है की नई समस्या में उलझा दो. ये बात अलग है की एक दिन सब आपस में उलझ के इनवेस्टमेंट बैंकिंग की तरह हिसाब मांगने लगेंगे तो दिवाला निकल जायेगा. खैर इस समस्या के लिए वो मेरे पास नहीं आयीं... अब बार-बार मैं कहाँ से जाता मदद करने, तो उनके पतिदेव ने ही दो-चार एग्रेगेटर से जोड़ दिया.

अब आगे बताने की जरुरत है क्या?

अब दोनों खूब लिखते हैं... दिल खोल के लिखते हैं. तलाक की नौबत ही ख़त्म. पर बेचारों को समय नहीं मिल पा रहा... परेशान दम्पति अब मिल कर तरीका ढूंढ़ रही है... एक दुसरे का बिन बताये ब्लॉग्गिंग छुडाने का तरीका !

अब इस दम्पति को आप ढूंढ़ लीजिये ब्लॉग पर... एक तो ऐसे ही इतनी समस्या खड़ी की है मैंने. अब यहाँ पता बताकर और बैर नहीं मोलना चाहता :-)


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आजकल कोई पोस्ट नहीं ठेल पा रहा पर इसके पीछे ये कारण नहीं है की मैं कुछ लेने लगा हूँ... बस एक परीक्षा देनी है वैसे तो ३ देनी है पर अभी एक ही सामने है. उसके बाद थोड़ा नियमित होता हूँ.


~Abhishek Ojha~

Oct 30, 2008

तेरे नाम का पासवर्ड

कल एक करीबी मित्र का फ़ोन आया. हॉस्टल में हुई इस दोस्ती के मतलब ही अलग होते हैं... इसमें एक-दुसरे की हर एक बात पता होती है. उस समय वो यात्रा कर रहा था और अविलम्ब उसे एक ईमेल किसी को फॉरवर्ड करना था... ये सूचित करने के तुरंत बाद उसने अपना पासवर्ड एसेमेस किया।

यहाँ तक तो सबकुछ ठीक पर उनका पासवर्ड देखकर अचानक ही चेहरे पे मुस्कान आ गई। ये पासवर्ड स्पष्ट रूप से उस लड़की के नाम से बना था जिसे देखकर (देखकर ही क्यों उसके बारे में सुनकर भी) कभी हमारे मित्र का दिल धड़का करता था।

खैर उसके इश्क के किस्से फिर कभी... वो अक्सर कहा करता 'आज फिर से पहला प्यार हो गया !' पर ऐसा पासवर्ड रखा जाना ये तो दिखाता ही है कि उन सारे पहले प्यारों में ये थोड़ा ज्यादा पहला था . *

हाँ इसके साथ ही एक और बात साफ़ हुई... पहले जिस अधूरे प्यार की जगह किसी किताब में, किसी नोवेल में या फिर क्लास नोट्स के आखिरी पन्नों पर होती थी (दिल के किसी कोने में होने के अलावा) उसको एक नई जगह मिल गई है... और कमाल की सुरक्षित जगह है... पासवर्ड ! अभी-अभी एक और फायदा सूझा... पासवर्ड भुलाने की समस्या से मुक्ति ! कुछ भी भूल जाओ ये भूलना थोड़ा मुश्किल है... हाँ अगर आपको रोज एक नई शख्शियत से प्यार हो जाता हो तो थोड़ा मुश्किल है पर उसमें भी वरीयता तो होगी ही !

हर लम्हा तेरी याद दिल में और
तू निगाहों में होती थी,
कभी किताबों में तो
कभी उनमें भटकते-सूखते फूलों पर,
कभी हथेली पर भी तो लिखा करता था...
अब तेरे उस नाम का पासवर्ड बना रखा है !


कहीं आपने भी ऐसा पासवर्ड तो नहीं रखा है? अगर मजबूरी में किसी को बताना पड़ जाए तो आपको कोई समस्या तो नही? खैर जब आप अपना पासवर्ड ही किसी को बता सकते हैं तो उसे ये जानकारी देने में भी कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए.

* 'All animals are equal, but some animals are more equal than others.' इसी के तर्ज पर.

~Abhishek Ojha~

Oct 22, 2008

रोटी, दवा, दारु और चाँद !

दृश्य १:

एक ग्रामीण सरकारी प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र में एक बच्चा... हड्डी का ढांचा, शायद मांस उनके लिए नहीं होता. पता नहीं सो रहा है या बेहोश है. सरकारी ग्लूकोज की बोतल लगी हुई है... बाप बगल में बैठा है, देखने से तो नहीं लगता कि दो दिन से कुछ खाया होगा.

'आप इसे शाम को घर ले जाइए... ठीक हो जायेगा. मैं दवाई लिख देता हूँ. '
फिर कुछ सोच कर बोला 'आप फिलहाल इसे सुबह-शाम २-२ रोटी खिलाइए और फिर धीरे-धीरे बढ़ाना है २ से ३... ४ तक. '
'रोटी? डॉक्टर साहब कोई सस्ती दवा नहीं मिल सकती?'
भले अजीब लगे लेकिन शायद डॉक्टर को ये सुनने की आदत हो*, बोला 'दारु पीते हो?'
'हाँ साहब कभी-कभी !'
'उसी पैसे से रोटी नहीं खिला सकते?'
'रोज नहीं पीता साहब... जिस दिन पीता हूँ उस दिन तो रोटी के लिए भी बच जाता है...'
'तो उस दिन पीने के बजाय बचा के नहीं रख सकते?'
वो चुप हो गया और उसी के साथ वहां बैठे लोगों का दया-भाव जाता रहा...

दृश्य २:

उसी गाँव का एक छत, रात के १० बजे. शायद इतनी हसीन चाँदनी रात पहले नहीं देखी... शरद ऋतू, चाँद और तारे. क्या ऐसी भी रात होती है? लगा जैसे चाँद को तो भूल ही गया था ! सालों बात सप्तर्षि और फिर ध्रुव देखा... एक बारगी लगा... काश ये बिजली नहीं होती और रोज ऐसी ही रात होती... चाँद ना बढ़ता न घटता बस ऐसा ही रहता, वक़्त थम जाए जैसी बात. (शायद बहुत दिनों के बाद ऐसी रात देखकर कल्पना शक्ति जाती रही कि इससे अच्छी भी रात होती होगी और असल में तो ऐसा रोज ही होता है !)

_ _

दारु सुनते ही फेर लिया जो मुंह,
कभी सोचा क्यों पीता हूँ ?
मेरे लिए रोटी का टुकडा चाँद जैसा होता है !
पर तुम्हारे चाँद की तरह नहीं,
ये असली चाँद है !
बिजली से नहीं चलता...
और घटता-बढ़ता भी है !
_ _

*उस समाज में लोग कुछ भी करते हैं, अगले दिन अखबार में पढ़ा... लोगों ने उस डॉक्टर की पिटाई कर दी. आरोप: 'उसने एक साँप काटे हुए आदमी का इलाज ढंग से नहीं किया जिससे उसकी मृत्यु हो गई'. लोगों की हालात का वैसे ही नहीं पता जैसे उस गरीब के पीने का कारण। हाँ वो डॉक्टर अगर कर सकता तो जरूर इलाज करता। बहुत फर्क है इंडिया और भारत में... दोनों के सोच में भी. वैसे सोच को पैदा करने में हालात का बहुत बड़ा हाथ होता है.

~Abhishek Ojha~

Oct 14, 2008

यूँ ही... कुछ भी !

1.वो बारिश:
पत्तों से छन कर जो बूंदें
तुम्हारे गालों पर टपक पड़ी थी
आज तक मुझे भिगो रही हैं !

2.खोज:
तुम ढूंढ़ती रही...
बड़ी महफिलों में जो प्यार
वो आजकल सड़कों पर रहता है!

3.गरीबी:
मेरे कदम जो लड़खडाए भूख से,
- पी के आया है साला.
तुम जो लुढ़के नशे में,
- यारों की महफ़िल थी !

4.पलकें:
उनकी याद में जो खुली रह जाती हैं पलकें,
वो कहते हैं के खुली आंख सोने की आदत है !

5.मोबाइल:
वो मुफ्त के मिले मिनट जाया करते रहे -
हम समझ बैठे की उन्हें हमसे मुहब्बत है !

6.बॉयफ्रेंड:
उन्हें चाहिए था बाईक और ड्राईवर,
हम मुफ्त में मजनूं बने रहे !

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यूँही २ मिनट में लिखा गया बकवास है, मुझे ख़ुद अच्छा नहीं लगा आपको क्या लगेगा, इसलिए पहले ही क्षमा मांग लेता हूँ ! पर बकवास लिखने के लिए ही तो ब्लॉग है...

Oct 5, 2008

और दो शून्य... गंगा मैया के नाम पर !

यूपी बिहार के लोग बड़े धार्मिक होते हैं... आप कुम्भ में देख लीजिये सबसे ज्यादा लोग कहाँ से आते हैं? मुझे आंकड़े तो नहीं पता पर जानता हूँ यूपी-बिहार ही टॉप करेगा. किसी भी 'आम आदमी' से बात कर लीजिये ये गारंटी है कि पाँच मिनट के अन्दर भगवान का नाम आना ही है ! फोकट की चीज़ है... कर लो प्रयोग जैसे मर्जी. लूट सको तो लूट लो... राम नाम की लूट. इसका भरपूर पालन होता है भाई.

कुछ भी हुआ, ठोंक दो भगवान की मर्जी पर. कुछ बड़े ही प्रचलित किस्से और वाक्य भी लोग इस्तेमाल करते हैं... जैसे 'लक्ष्मी उल्लूओं के पास ही रहती हैं...', 'आत्मा अमर है इत्यादि'.

आदमी जितना 'आम' होता जाता है ये उतना ही बढ़ता जाता है... ठेठ गाँव में जाइए, खेती-बारी की तो चर्चा चालु ही होती है... भगवान भरोसे ! और ऐसे हर गंवई चौपाल में चर्चा भले ही कुछ भी हो निष्कर्ष तो ऐसे ही होते हैं...

'फलनवां के दिन बड़े अच्छे हैं... अरे भगवान जिसको देता है...'
'भगवान ने भी क्या दिन दिखाए बेचारे को...'
'करने दो भाई अपनी मर्जी का, एक दिन तो सबको जाना है उनके दरबार में...'
'अब भगवान के आगे किसकी चलती है...'

वैसे ये अच्छा भी है... कई लोगों के पास ये ना हो तो बेचारे मर ही जाय, भगवान की इच्छा मान कर कुछ भी झेल जाते हैं लोग... जी हाँ कुछ भी. फिर दो शून्य की क्या कीमत? वो भी जब गंगा मैया के नाम पर हो तो.

भगवान के साथ किस्मत भी बड़े जोर पर चलती है... भगवान और किस्मत कहीं भी एक दुसरे की जगह ले लेते हैं...

'अरे क्या किस्मत है भाई... बड़ी उपरवार कमाई है, भगवान ने तो दिन ही फेर दिए... '

ये ऊपर वाली कमाई तो भगवान के हिस्से में जानी ही है, नीचे वाली भले अपने नाम कर लें... उसे भी अपने नाम करने में थोडी दिक्कत ही होती है... अरे भाई सब उन्हीं का तो है. और वैसे भी ऊपर और नीचे में कोई चीन की दीवार तो है नहीं... नीचे वाली तो होती ही रहती है पता नहीं कब (भगवान और किस्मत का खेल) कमाई ऊपर वाली हो जाय !

अब किस्मत हो, भगवान हो ! जो कुछ भी हो ! ईमानदार आदमी की तो हर जगह इज्जत होती है...

'अरे बड़ा अच्छा अधिकारी आया है... फ़टाफ़ट काम करता है, मजाल है की काम रुक जाय. सबको टाइट कर के रखता है... अब थोड़ा-बहुत तो हर जगह देना ही पड़ता है, अब भाई भगवान ने उसको ऐसी पदवी दिला दी है तो लेना तो पड़ेगा ही ना... पर काम तो करता है.' (लेना तो पड़ेगा ही ! उफ़ क्या हसीन मज़बूरी है)

'हाँ भाई... उ ससुरा पहिले वाला ना ख़ुद पैसा ले ना किसी को लेने दे तो काम कहाँ से होगा?'

'और उ ससुर तो हदे किए थे... पैस्वो ले लेता था और कामो नहीं... यही अच्छा है भाई बड़ा ईमानदार है.'

(हम इ सब सुन रहे थे और इधर चौपाल में बैठे एक बिलागर बंधू बोल पड़े: अब गंगा मैया वाली बतवा पे आओगे... यहीं पे दिन भर नहीं बैठना है, कई जगह टिपियाना है और कुछ जम गया तो ठेल भी आयेंगे एक पोस्ट! इ बिजली का कउनो भरोसा नहीं है... मौसम भी गडबडा रहा है भगवान को भी अभी...)

'अरे हाँ ससुर हम भूल ही गए... उ गुप्ता जी हैं न अपने... अरे वही जेइ बाबू, अरे भगवान ने का किस्मत दी है भइया इस बार तो गंगा मैया ने दिन ही फेर दिए उनके'
'भइया इंजिनियर तो सरकारी ही कामात है... अब इ तो बेचारा बड़ा ईमानदार है! इ तो दुइयेठो शुन्ना (दो शून्य) जोड़ा था लेकिन ऊपर तक जाते-जाते...सुने हैं की कागज जोड़ना पड़ गया !'
'अरे लेकिन शुन्ना बढ़ा है तो इसकी भी तो कमाई बढ़ी होगी?'
'हाँ हिस्सा तो मिलेगा ही... गंगा मैया के नाम पे बेईमानी कौन करेगा भाई !'
'नया पन्ना जोड़ना पडा?... तभी बंगला बनाने को जगह देख रहे थे...'

चलो भइया जैसे गंगा मैया ने उनके दिन फेरे वैसे सबके फेर दें !

अब इतने में सब निकल गए और हमें ये गंगा मैया के नाम पर पन्ना जोड़ने की बात ही नहीं समझ आई ! हमने एक चाचा को पकड़ लिया... अरे वही जिनसे एक बार और मिला था. चाचा ने समझाया देखो बबुआ, तुम लोग इ सब का जानोगे... बाढ़ आई तो तुम्हारे टीवी वाले आके खूब नौटंकी रिकार्ड किए और तुम बिलागर लोग भी खूब बिलाग रंगे. लेकिन इसी बीच हमारे गाँव के पास वाले बाँध पर कटाव चालु हो गया... और जेइ बाबू जांच करने गए तो बोले की पत्थर और बालू भर के बोरी डलवाना पड़ेगा. उन्होंने १०० ट्रक का हिसाब बैठाया था, ईमानदार ठहरे बस २ शून्य जोड़ दिए कागज पे कर दिए... १००००. उनके और ठीकेदार के बीच का मामला बना... अब जब कागज ऊपर गया तो चीफ इंजिनियर साहब ने कहा 'अरे भाई तुम ईमानदार ही रहोगे... अरे बहती गंगा है भाई, गंगा मैया के नाम पर २ शुन्य और जोड़ दो... क्या फर्क पड़ना है, अब गंगा मैया तो कितना भी बहा ले जायेंगी कौन रिकॉर्ड रखेगा हम लोग आपस में देख लेंगे' अब कागज पास होने को ऊपर बढ़ता गया और गंगा मैया के नाम पर २ और शून्य जुड़ते गए... सुना है इतने जुड़े की कागज जोड़ना पड़ा.

और जहाँ भी जाए हिस्सा तो जेइ बाबू को मिलना ही था... आख़िर सबसे नीचे के आदमी हैं, और आईडिया भी तो उन्ही का था.
'पर चाचा आया कितना ट्रक?'
'बबुआ, एक दिन तुम्हारे अखबार, टीवी वालों के सामने एक ट्रक आया तो था पर सुना की शाम को जेइ बाबू के नए वाले घर के लिए चला गया.'
'और कटाव?'
'कटाव इ का रोकेंगे बेटा, उ तो सब भगवान की इच्छा है... गंगा मैया जिसको देना देके फिर सीधी हो गई...'
'पर ये सब अखबार में नहीं आया?'
'अरे कमाल करते हो, कटाव हो रहा था... जलमग्न कहाँ हुआ कुछ... कोई मरा भी नहीं... बस २-४ घर बह गए, तो उनको कौन पूछता है... टीवी में ये सब दिखाने से अच्छा पिर्लय नहीं दिखाएँगे? अरे ये सब तो गंगा मैया की माया है !'

जय हो गंगा मैया की !



आजकल ब्लॉग भ्रमण नहीं हो पा रहा है... आप सब के पोस्ट रीडर में उसी गति से बढ़ रहे हैं जिस गति से 'लिहमैन ब्रदर्स' के स्टॉक गिरे थे. इस ग्राफ को देख कर आप ये रेट निकालिए... तब तक मैं चचा की थोडी और बातें सुनता हूँ ! 'लिहमैन ब्रदर्स' का हश्र जो हुआ वो मैं नहीं होने दूंगा, और पोस्ट पढ़े जायेंगे... वैसे रिचर्ड फूल्ड को भी कहाँ लगा था की ये हश्र होगा :-)



~Abhishek Ojha~

Sep 24, 2008

कोंकण यात्रा (भाग... III)

कोंकण और पुणे के आस-पास बिताये गए कुछ सप्ताहांत की झलकियों की तीसरी कड़ी में... हरिहरेश्वर और श्रीवर्धन.

इससे पहले अलीबाग और दिवेआगर हो चुका है... दिवेआगर से श्रीवर्धन और फिर हरिहरेश्वर कुछ ३०-३५ किलोमीटर की यात्रा है. इस यात्रा की सबसे खुबसूरत बात ये है की ये लगभग पूरे समय समुद्र (अरब सागर) के किनारे-किनारे चलता है.  बस दाहिनी तरफ़ देखते रहो और खुबसूरत समुद्री नज़ारा दीखता रहता है.PICT0516 ये नजारे यात्रा को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. बीच में मछुवारों के गाँव से गुजरते समय बस थोडी देर के लिए नज़ारा छुटता है और इसी थोडी देर में ही मछली की तीखी गंध भी नाकों में प्रवेश करती है. तटीय क्षेत्र होने के कारण मुख्य यहाँ के जीवन-यापन पर मछ्ली और नारियल का बहुत बड़ा योगदान दिखना स्वाभाविक ही है.

अगर आप धर्म में रूचि रखते है तो कुछ प्रसिद्द मन्दिर भी हैं इस क्षेत्र में.

श्रीवर्धन का समुद्रतट है तो सुंदर ! पर इस क्षेत्र के अन्य समुद्र तटों को देखने के बाद कुछ ख़ास प्रतीत नहीं होता. पर हरिहरेश्वर पहुचने के बाद चट्टान वाला तट... आपको मोहित कर लेगा. अगर आप प्राकृतिक संरचना और नजारों के शौकीन हैं तो फिर निराशा का सवाल ही नहीं उठता. हरिहरेश्वर का प्रसिद्द 'काल भैरव' शंकर भगवान् का मन्दिर है. मन्दिर के समीप प्रदक्षिणा का मार्ग बना हुआ है. PICT0571 धार्मिक भावना हो न हो अगर एक बार आप वहां तक गए हैं और इस मार्ग पर नहीं गए तो बहुत कुछ छुट जायेगा... एक तरफ़ अरब सागर और दूसरी तरफ़ लहरों से कटे-छंटे चट्टान...  प्रकृति के खुबसूरत नमूने हैं. दो खड़े चट्टानों के बीच बनी सीढी से उतरना और फिर तट तक पहुचना... अगर ज्वार का समय हो तो आप चट्टानों से टकराती हुई लहरों को भी देख सकते हैं. पर पत्थरों की संरचना भी अपने आप में बहुत खुबसूरत है. ऐसी मान्यता है की अगस्त मुनि का आश्रम यहाँ हुआ करता था.

इस मन्दिर के समीप ही महाराष्ट्र पर्यटन विभाग का रिसॉर्ट और एक अन्य खुबसूरत समुद्री तट है. यहाँ से चट्टानयुक्त और बालू दोनों के ही तट समीप ही हैं. एक-आध छोटे वाटर स्पोर्ट्स की भी व्यवस्था हैं.

PICT0524

जब कुछ नहीं ... तो यात्रा वृतांत. अगली बार जब कुछ ठेलने को नहीं मिला तो कोंकण यात्रा में आगे चलेंगे... ! बड़ी मजेदार जगहें हैं.

(ये ठीक ऊपर वाली और पहली तस्वीर दिवेआगर और श्रीवर्धन के बीच के मार्ग पर ली गई थी और ऊपर से दूसरी तस्वीर हरिहरेश्वर के समुद्र के किनारे के चट्टानों की है. नीचे के ये सारे चित्र हरिहरेश्वर के हैं. )

PICT0539 PICT0553
PICT0556 PICT0558
PICT0559 PICT0574

फिलहाल मैं कल से १५ दिनों की छुट्टी पर घर जा रहा हूँ तो तब तक के लिए इधर से भी छुट्टी !


एक पखवाडे के लिए बिलागरी बंद... बस ईमेल और फ़ोन चालु.

Sep 21, 2008

ब्लॉगरी और माडर्न आर्ट

एक साधारण इंसान कला के नाम पर खुबसूरत पेंटिंग और मूर्ति तक ही जानता है। पहली बार जब किसी माडर्न आर्ट के एक विशाल संग्रहालय में अगर चला जाय... तो क्या होगा? ...होगा क्या, होता है !


'क्या है ये?'

'इसे आर्ट कहते हैं?'

'उफ्फ़... ये देखो ! हद ही है... कुछ भाई पोत के टांग दो !'

'अरे पोत के ही क्यों, कुछ भी ठोंक दो कहीं भी... उसमें दो-चार चीजें चिपका दो, कुछ बाँध के... कचरे की पेटी से निकाल के कुछ छिड़क दो... ! भई ऐसा तो हमारे चौराहे पर एक पागल पोटली बांधे खड़ा रहता है... कभी-कभी अपने आपको ट्रैफिक पुलिस समझ के ट्रैफिक कंट्रोल भी करने लगता है... इतनी मेहनत करने से अच्छा तो उसी को यहाँ बैठा देते, कुछ भला हो जाता बेचारे का !'

'उधर देखो, कीडा है या टैंक? मुझे तो गधे के ऊपर आलू लग रहा है...'
'चुप करो ना तो गधा है ना आलू... बन्दर के दिमाग में टमाटर के बीज अंकुरित हो रहे हैं !'

अब ऐसे चित्र का विवरण अगर पढ़ ले तो रही सही कसर भी पूरी हो जाती है... पता चला की ये पेंटिंग दिमाग की २१वीं और तनाव की २८वीं दशा के साथ-साथ... अब छोडो भी, इसके आगे पढने की हिम्मत ही कहाँ बचेगी बेचारे की!

... ये सब देखते-देखते अचानक सोच आती है... 'अरे ये तो मैं भी कर सकता हूँ!'

'पाँच लोगो के अंगूठे का छाप ले लूँगा... चलो अलग-अलग रंग में ! एक कागज पर दूध वाले की भैंस के पुँछ की छाप वो भी जब कीचड में सनी हो... अब ये लोग तो आर्ट के नाम पर किसी को नंगा कर के भी छाप ले लेते हैं... क्या फर्क पड़ता है उस छाप और भैंस की छाप में... दिखेगा तो एक जैसा ही !... होली के दिन एक कैनवास में चेहरा पोंछ लो... होली का इंतज़ार करने भी क्या जरुरत, एक बच्चे को खेलने के लिए ढेर सारा रंग दे दो और कैनवास... बीच में उसी पर पेशाब कर दे तो और अच्छा ! बच्चा छोटा होना चाहिए नहीं तो कुछ मतलब निकल आया तो बाकी जो कुछ भी हो... माडर्न आर्ट कहाँ रह पायेगा... एनसिएंट नहीं तो मेडिएवल आर्ट तो हो ही जायेगा !'

ये सब होते-होते आ जाता है असली विचार... 'बना तो मैं लूँगा ही, पचासों आईडिया हैं... लेकिन साला देखेगे कौन? प्रसंशा कौन करेगा? ये साले बड़े-बड़े चित्रकार, लेखक यही काम करें तो माडर्न आर्ट... हम करें तो कचरा ! इनके बकवास को लाखों-करोड़ों, हम कुछ अच्छा भी बनाएं तो गाली... धत साला पगला गया है... पता नहीं क्या पोत रहा है !... चलो कोई बात नहीं हम भी एक बार किसी तरह प्रसिद्द हो जाएँ फिर बनायेंगे माडर्न आर्ट... अरे चलो अभी बना लेते हैं... पता नहीं प्रसिद्द हो जायेंगे तब समय मिले न मिले। जब प्रसिद्द हो जायेंगे तब यही ठेल देंगे।'

यही सोचते हुए संग्रहालय से बाहर आ जाता है... बाहर आने के कुछ देर तक और कभी-कभी कुछ दिनों तक (निर्भर करता है की कितनी देर तक और कितने ध्यान से संग्रहालय में समय बिताया गया) उसे हर चीज में माडर्न आर्ट ही दीखता है।

और अब ब्लॉगरी... अरे धत तरे की... यही तो होता है।

एक नए, साधारण छोटे ब्लोगर को ब्लॉग जगत माडर्न आर्ट की तरह दीखता है... संग्रहालय की एक-एक बात से जोड़ लीजिये सब कुछ मिल जायेगा यहाँ भी। दो लाइन की तुकबंदी पता नहीं चले की कविता है या गद्य और लोग कह जाते हैं...

'आप महादेवी वर्मा के पाँचवे और निराला के बाइसवें अवतार की तरह लिखते हैं...'


क्या सोच के लिखा (वैसे ब्लॉग पर लिखने के पहले सोचना भी होता है क्या?) और लोग क्या समझ गए ! (टिपण्णी करने से पहले पोस्ट समझाना भी होता है क्या?)।

बेचारे छोटे ब्लोगर भी वो सब लिखते हैं जो बड़े... लेकिन वही माडर्न आर्ट वाली बात... एक बार प्रसिद्द हो जाओ फिर कुछ भी लिखो... 'वाह !'

वाह मिले न मिले लोग ध्यान से पढ़ते तो हैं... इसकी तो गारंटी होती है। होता तो तब भी माडर्न आर्ट ही है पर अब लोग दिमाग पर जोर देकर समझने की कोशिश करते हैं... छोटे का क्या? पढता तो कोई नहीं. बिना पढ़े कचरा और मान लिया जाता है... माल तो वही होता है।

छोटा ब्लोगर सोचता है चलो अभी लिखते जाओ... एक बार लोकप्रिय होने दो... फिर यही पोस्ट वापिस ठेला करूँगा... तब तो लोग पढेंगे ही, और पता नहीं तब समय मिले ना मिले !


1. आप सोचिये... आप पायेंगे की मॉडर्न आर्ट और ब्लॉग ऐसे समुच्चय हैं जिनके बीच एकैक फलन है... (There exists a one to one mapping between Modern art and blogging !) मैं चला... भैंस के पुँछ की छाप लेने :-)

2. अगर कोई छोटा-बड़ा (छोटी-बड़ी), मोटा-पतला (मोटी-पतली), ब्लोगर/नॉन-ब्लोगर इस पोस्ट से आहत हो तो क्षमा... मेरी गलती नहीं मॉडर्न आर्ट के संग्रहालय और ब्लॉग दोनों का संयुक्त असर है.



~Abhishek Ojha~

Sep 17, 2008

सेक्स है क्या?

मार्च २००८, पुणे में एक ढाबा:

ढाबे में बैठा कुछ मेसेज पढ़ रहा था, कुछ डिलीट कर रहा था... सामने मेरे मित्र मेन्यु छान रहे थे. १०-११ साल का बच्चा पानी लेकर आया और बड़ी उत्सुकता से मेरे मोबाइल में झांकने लगा... मैंने भी मुस्कुरा दिया। उसे भी थोडी आत्मीयता लगी... और उसने पूछ लिया 'चित्र है क्या?'
मैंने कहा हाँ हैं... मैंने उसे कुछ इधर-उधर की खिंची हुई तस्वीर दिखाई... फिर उसने पूछा: 'गाना है क्या?'
मैंने गाना भी बजा दिया... २ मिनट में बोला: 'विडियो है क्या?'
चलो भाई विडियो भी सोचा चला ही देते हैं... पहला ही गाना 'कजरारे' दिखा... पता नहीं क्या दिमाग में आया और मैंने उसे न चला कर पंकज उधास का एक गाना है 'और आहिस्ता कीजिये बातें' का विडियो चला दिया. बच्चा बहुत खुश था मैं भी खाने का इंतजार कर रहा था... गाना चलाकर रख दिया नीचे. आपस में मैं और मेरे मित्र कुछ बात भी कर रहे थे. फिर अगली मांग आप समझ ही गए होंगे... थोड़ा धीरे से मुस्कुराते हुए बोला: 'सेक्स है क्या?'
मैं तो कूल हो गया... बस यही कहते हैं हम. कूल हो जाना... मैं कुछ बोला ही नहीं! कहाँ थोडी देर पहले कजरारे बजाने में सोच रहा था...

मेरे मित्र ने बस इतना ही कहा 'क्या रे छोटू क्या बोला? यही सब देखता है !'
मैंने खाना खाया... काफ़ी देर तक चुप ही रहा... मेरे मित्र ने भी कुछ नहीं कहा बस इतना ही कहा 'क्या कर सकते हो यार ऐसी ही दुनिया है... हमें लगता है की हमें ही सबसे ज्यादा पता हैं गरीबी और उनकी समस्याओं को !' बीच में एक बड़ा लड़का आया तो उससे बस पूछा की 'उसकी उम्र क्या होगी?' उसने अलग ही सवाल पूछ लिया की 'क्यों क्या हुआ? कुछ बोला क्या?'

किससे क्या कहें भाई? उसकी क्या गलती है ! १० साल की उम्र होगी... एक तो वहां काम करता है कितनी मजबूरी होगी ये तो वही जानता होगा. हम कुछ कहें तो ज्यादा से ज्यादा पहले बाल-मजदूरी कह के उसका काम बंद हो सकता है ! बस ! भले कोई ये सोचे न सोचे... उसके बाद वो क्या करेगा.

गलती तो उसकी है जिसने बताया है उसे... किसी ने तो बताया है की मोबाइल में ये होता है... बताया ही क्यों दिखाया भी होगा... नहीं तो ऐसे कैसे बोल सकता है वो किसी से ! उन लोगों से कैसे निपट सकते हैं ! इस घटना पर और लिखें भी तो क्या?

~Abhishek Ojha~

Sep 14, 2008

कृष्ण की हार और धमाकों से लाभ

क्या कृष्ण इस युग में हार जाते?

कुछ दिनों पहले ज्ञानजी ने एक सवाल उठाया था: 'दुर्योधन इस युग में आया तो विजयी होगा क्या?' पता नहीं क्यों ये सवाल कुलबुलाता रहा दिमाग में। पोस्ट में क्या था वो ठीक से याद नहीं रहा और फिर देख के आया, पर ये सवाल याद रहा. ऐसे कई सवाल पढ़ के दो मिनट भी दिमाग में नहीं रह पाते लेकिन ये दिमाग से निकल नहीं पाया। उनके सवाल का जवाब तो मन ने तैयार कर लिया कि हाँ भाई विजयी हो सकता है...

लेकिन किससे? कृष्ण से ! ये सम्भव नहीं लगता... मेरा तर्क कहता है की दुर्योधन विजयी हो सकता है लेकिन कृष्ण नहीं हार सकते और आमने-सामने की बात हो तो जीत तो कृष्ण की होनी ही है... युग कोई भी हो।

हम अक्सर कहते/सुनते हैं... वो ज़माना ऐसा था, अब ऐसा नहीं हो सकता। उस जमाने में लोगों के पास बहुत कुछ करने को था, अब क्या करें? हमारे कई मित्र कहते हैं 'गाँधी का समय ही ऐसा था... बाकी देशवाशियों के पास भी कुछ कर-गुजरने वाली बात थी। गांधी आज के युग में होते तो कुछ ना कर पाते ! और हमारे पास वैसा कुछ करने को है भी नहीं। भगत सिंह के पास लड़ने को अंग्रेज थे हम किससे लड़ें?'

एक फॉरवर्ड होते हुए एक ईमेल आती है... मुझे पूरी मिल नहीं पायी पर लाईने कुछ ऐसी होती हैं:

हे कृष्ण तुने कंस को मारा, लादेन को पकड़ के तो दिखा।
हे कृष्ण तुने रास लीला की कलयुग की एक लड़की तो पटा के दिखा।

और भी लाईने होती है (शायद एक लाइन होती है की सॉफ्टवेर के कोड लिख के दिखा) पर याद नहीं। ये तो मजाक की बात है पर अगर इस मजाक पर ही सोचा जाय तो क्या ऐसा है की कृष्ण से ये काम नहीं होते? अगर देखा जाय तो उस समय और इस समय में कोई फर्क नहीं है... हर युग में बात वही होती है। पर जो जीतते हैं वो किसी भी युग में जीतेंगे।

मेरे मित्र कहते हैं की अब शोध करने को क्या बचा है न्यूटन ही सब लिख गए, उनके जमाने में कुछ नहीं था तो बैठ के लिखते गए... आज होते तो क्या कर पाते? बात में दम तो है लेकिन उनके पहले भी तो लोग थे और बाद में भी हुए पर आइन्स्टीन के पहले किसी ने रिलेटिविटी क्यों नहीं सोचा? रामायण तो तब भी था पर तुलसी बाबा का एक बार पढ़ के तो देखो ! पहले से ही सब कुछ था पर क्या कुछ ढूंढ़ गए.

अलग-अलग बातें हैं... बिल्कुल बकवास सरीखी. पर जुड़ कर मतलब यही निकलता है... कृष्ण, न्यूटन, तुलसी, गाँधी या आइंस्टाइन तब भी विजयी हुए आज भी विजयी होंगे। मुझे तो यही लगता है की कृष्ण आज होते तो जींस पहनकर रासलीला कर लेते... मतलब ये की आज भी वो सब कर जाते जो उन्हें करना होता.

ये बातें तो शाश्वत है की आज का युग ख़राब हो गया है पहले बहुत अच्छा था। क्या हमारे बाप-दादा की जवानी में उनके बाप-दादा नहीं कहा करते थे: 'अंधेर गया है हमारे जमाने में तो... ' वही बात आज भी है, ज़माना उसी गति से बदलता रहता है।

अंधेर हर युग में होता रहा है होता रहेगा... पर विजयी होने वाले तो विजयी होते ही रहेंगे।





दिल्ली धमाको से आपको क्या मिला?

इनको तो मुंह माँगा मिला:

मीडिया को: ब्रेकिंग न्यूज़।
नेता को: एक और मुद्दा।
कचरे को: सिक्यूरिटी गार्ड।
ब्लोग्गर को: एक और पोस्ट।
नौकरशाह को: लिखने को एक भाषण और एक जांच कमिटी की सदस्यता।
पुलिस को: बहुत दिनों के बाद काम।
मोबाइल कंपनी को: कॉल में वृद्धि।
जनता को: आदत।
घायलों को: मुआवजा।

सुना है जिंदगी तेजी से सामान्य हो रही है... अब तो रोज़ का नाटक है भूखों तो मर नहीं सकते, क्या करें !

पर आप ही देखिये सब बाहर से दुखी लेकिन अन्दर से खुश हैं... बस मृतकों को कुछ नहीं मिला बाकी सबको कुछ ना कुछ मिला है... आपको क्या मिला?

~Abhishek Ojha~

Sep 11, 2008

अच्छा या बुरा ?

अच्छा बुरा तो कुछ नहीं होता... जो किसी के लिए अच्छा वही किसी के लिए बहुत बुरा... या फिर जो कभी अच्छा होता है वही कभी बुरा हो जाता है । सब अवस्था पर निर्भर करता है (मुझे पता है आप क्या सोच रहे हैं यही ना की साले को सापेक्षता के कीडे ने काट खाया है पिछली दो पोस्ट से यही गाये जा रहा है) आपका सोचना सही भी है लेकिन सापेक्षता के कीडे का जहर उतर ही रहा था की एक मोहतरमा से फोन पर बात हो गई !

कुछ यूँ:

पिछले दिनों एक महीने से भी ज्यादा समय के बाद फोन चालु किया तो एक संदेश आया 'थैंक्स !' ... वो भी एक अज्ञात नंबर से। कई लोगों की शिकायत थी तो कई जगह फोन करना ही प्राथमिकता रही और इस सिलिसिले में वो संदेश भूल ही गया। अगले दिन जब फिर उसी नंबर से वही 'थैंक्स' का संदेश आया तो उत्सुकता होना स्वाभाविक था।

हमने घंटी बजा दी और उधर से जो आवाज आई वो जानी पहचानी थी... फिर भी हमने पूछ लिया 'कौन?'

ये वही मोहतरमा हैं जिनका इस साल का 'वैलेंटाइन डे' मैंने बिगाड़ दिया था। मैं ठहरा आदम बाबा के जमाने के ख़याल वाला मेरे लिए उस दिन का क्या महत्तव? पर जब वो फूट-फूट कर रोई थी तो मुझे लगा था की सच में कुछ गड़बड़ है। मैंने उनका दिल तोडा था... किसी तरह समझा पाया था कि देखो बिना किसी को देखे फोन पर ही ऐसे नहीं बोल देते... अभी तुम्हारी पढ़ाई करने की उम्र है... मन लगाके पढ़ाई करो। और तुम्हारे कॉलेज में भी बहुत अच्छे-अच्छे लड़के होंगे, जिंदगी में बहुत लोग मिलेंगे... ब्ला-ब्ला-ब्ला...! कुल मिला के मतलब यही था की अब माफ़ करो आज से फ़ोन मत करना, मैं तो करूँगा ही नहीं... बाकी पढ़ाई में मन लगाओ !

पर ये मतलब मैं समझ रहा हूँ आप भी शायद समझ रहे हों... पर वो कहाँ कुछ समझता है जिसे इश्क हो जाता है ! खैर मैंने पुछा की ये तो बता दो की थैंक्स किस बात के लिए... उन्होंने बताया की मेरे कहने पर उन्होंने सच में पढ़ाई कर ली और इस बार उनके कैरियर के सबसे अच्छे अंक आए हैं। जब से उनके अच्छे अंक आए हैं तब से वो मुझे फोन करने की कोशिश कर रही थी... और इधर निरंतर फोन बंद !... किसी सोर्स से पता चला की अभी ये कुछ दिनों तक ऐसा ही रहेगा तो उन्होंने ठान लिया कि रोज़ एक संदेश भेजेंगी !

'पर मुझे तो बस दो ही मेसेज मिले?'... मेरी अज्ञानता पर थोड़ा मुस्कुराई और बोली: 'किस जमाने के आदमी हो... मेसेज २४ घंटे तक अगर नहीं पहुचे तो डिलीट हो जाता है !' चलिए ये भी जानकारी मिल गई... हम अपने आपको बहुत हीरो समझते हैं पर मोबाइल के मामले में अभी भी पोल खुल ही जाती है :( ... किस जमाने का आदमी ! खैर ये सब फिर कभी...

फिलहाल ये वाकया जब बकलमखुद में आया था तो कई लोगों का विचार था कि मैंने किसी कन्या का दिल तोड़कर अच्छा नहीं किया ! हाँ ये तो मुझे भी पता था... और फरवरी से लेकर इस फोन वाली घटना तक कभी-कभी बुरा भी लगता था। दिमाग में ये बात भी आती थी कि बद्दुआ लगी है... अब इतनी आसानी से लड़की ना मिलनी भाई ! पर अब बद्दुआ खत्म ! और बहार का इंतज़ार... वैसे तो हमेशा रहता है लेकिन बद्दुआ वाली बात अब दिमाग में नहीं आएगी... क्या अभी भी आपको लगता है की मैंने ग़लत किया था?

ग़लत सही क्या ? सब सापेक्ष है... निर्भर करता है कि देखने वाला किस फ्रेम में बैठा है ! फिर भी आपका फ्रेम क्या कहता है?

Sep 7, 2008

सब कुछ सापेक्ष है... (भाग २)

पिछले पोस्ट थोडी फंडामय थी... इसमें शायद उतने फंडे नहीं आ पायेंगे. शाकाहार-मांसाहार तो छोड़ ही देते हैं। ऐसे ही सापेक्षता के उदहारण भरे पड़े हैं.

अब देखिये एक बार बहुत दिनों के बाद रीडर खोला तो पता चला की अपठित लेखों की संख्या ५०० पार कर गई है। लगा की सबको एक साथ 'मार्क ऐज रीड' कर दूँ। पर जैसे ही न्यूज़ और सम्पादकीय फीड को 'मार्क ऐज रीड' किया तो लगा कि अब तो बहुत कम हो गया... कम तो तब भी नहीं हुआ था लेकिन जब खोला था, तब की तुलना में कम था तो तय हुआ की पढ़ लूँगा... वैसे इसमें क्या है... कम-ज्यादा तो तुलनात्मक होता ही है ! पर ये तो तय हुआ की सब तुलनात्मक है... चाहे धनी-गरीब, पाप-पुण्य, सच-झूठ, परीक्षा में प्राप्त अंक, वेतन या फिर रीडर में अपठित लेख ! सब पर बाबा आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत लगता है... और ये बातें निर्भर करती हैं आस पास के परिवेश और अवस्था पर !

प्यार (या दया) और इर्ष्या में भी सापेक्षता है भाई... वही आदमी जो दया करता है अचानक उसी अवस्था में अगर कुछ बदल जाय तो इर्ष्या करने लगता है। अभी २ साल पहले हम विद्यार्थी थे तो यात्रा में लोगों की नज़र ऐसी थी... 'अच्छा बेटा बाहर पढ़ाई के काम से जा रहे हो? कहाँ रहोगे... अच्छा-अच्छा ! बहुत कुछ अच्छा और बेटा से ही शुरू और ख़त्म होता था। अब वही लोग बात तो छोडिये ऐसे देखते हैं... कि ये साले बच्चे बिजनेस क्लास में क्या कर रहे हैं? होंगे किसी अमीर के साहबजादे... अरे ! हम वही मेहनती और होनहार हुआ करते थे... इतना जल्दी ही...! तब की तरह आज भी पूछ लो भाई कि पैसे कौन देगा, तब भी कोई और देता था अब भी कोई और देता है, बस क्लास ही तो बदला है ! सब सापेक्ष है !

अच्छा एक और बात ये शाश्वत लाइन आप भी इस्तेमाल करते होंगे: 'वो भी क्या दिन थे !'
क्या दिन थे? कभी-कभी तो मन करता है की ख़ुद को बोलूँ... वो भी कोई दिन थे... फटेहाल !, आज हीरो बन रहे हो तो बन लो ! वो दिन थे तब तो आज वाले दिन का इन्तजार था... आज लगता है वो दिन ही अच्छे थे ! ये कमाल की बात क्यों? पता नहीं पर मेरे साथ भी थोड़ा-बहुत ऐसा है... कभी लगता है की अब साइकिल चलाने वाला मजा नहीं आ सकता... घंटो किसी पहाडी के ऊपर बैठने का काम अब नहीं हो सकता, कुछ ऐसे रिश्ते... छोटी-छोटी बातों पर बोरे भर कर मिलने वाली खुशी... अब शायद वो बोरा छोटा होता जा रहा है ! जेब में बहुत कम पैसों क साथ फ्री के पास पर घुमने का मज़ा... पर तब तो लगता था की ये कर लूँगा तो मजा आ जायेगा...
पर क्या करोगे भाई... फ्रेम बदलता है तो सापेक्षता के हिसाब से, मायने भी तो बदल जाते हैं! बचपन में सबको लगता है की दाढी बनाने में बड़ा मज़ा आता होगा... बड़ा होके भी बहुत लोगो को आता होगा... मुझे तो नहीं !

आप पहाडी पर चढ़ते जाओ नीचे से तो यही लगता है की उस ऊंचाई तक ही जाना है... वहां जाने पर पता चला कि अभी तो शुरुआत ही है... दुनिया तो ऊंचाई के साथ दिखनी शुरू होती है... बस चढ़ते जाओ... नई ऊंचाई, नई दुनिया। पर साथ में ये अनुभूति भी होती है की नीचे जो छूट रहा है वो फिर नहीं मिलना, उनमें यादें होती है... ऊपर से जो हिस्सा जितना धुंधला दीखता है उतना ही खुबसूरत लगता है... शायद इसलिए की उसकी बारीकियां वहां से नहीं दिखती... अब पहाड़ से नीचे के खुबसूरत झील ही दिखाई देते हैं... कांटे कम ही दिखाई देते हैं! अगर दिखाई देते भी हैं तो तुलना की बात है... आप कितनी ऊंचाई पर हो और कितने कांटे चुभे थे रास्ते में !

~Abhishek Ojha~

Sep 4, 2008

सब कुछ सापेक्ष है... (भाग १ )

मच्छर हत्या से मांसाहार समर्थन तक:

अगर आपको लगे की लम्बी पोस्ट है तो इस डब्बे में बंद लाइनों को छोड़कर सीधे उसके नीचे की लाइनों पर पहुच जाइए। उसके पहले तो बस ये यात्रा है जिससे इस पोस्ट की उत्पति हुई। समय और अवस्था के हिसाब से चीजों के मतलब बदलते रहते हैं ...

दृश्य १: (सी/१३३, हॉल २, आईआईटी कानपुर): मच्छर हत्या !

'आज ओझा ने मर्डर कर दिया !'
'किसका किया बे? इसकी औकात है?'
'मच्छर मारा होगा !'
'हाँ तुझे कैसा पता?'
'इससे ज्यादा ये क्या मारेगा ... '

कई बार ऐसा होता... मुर्गा, दारु के लिए कई बार चुनौती दी जाती. और हर बार मैं हार स्वीकार कर लेता...
'नहीं मारना चाहिए यार ये भी तो जीव है'

फिर लोग मच्छर मारने के फायदे गिनाते... मैं जीव हत्या का मामूली तर्क ही दे पाता. खैर धीरे-धीरे एक-दो सालों में इतना तो बदल ही गया की कोई बगल में कितना भी मुर्गा नोंच के खाता,मुझे दिक्कत होनी बंद हो गई.

दृश्य २: (शाकाहारी स्विस प्रोफेसर) : छूने में क्या समस्या हो सकती है?

एक बहुत अच्छे प्रोफेसर दोस्त हैं (दोस्त ही कहना ज्यादा उचित है) वो 'लगभग शाकाहारी' बने थे जब तक मैं उनका मेहमान रहा... शायद बाद में भी वैसे ही रहने लगे हों. पर मैंने पूछना कभी उचित नहीं समझा. हाँ मछली को कभी-कभी शाकाहार का हिस्सा मानते.
एक दिन हम साथ खाना खा रहे थे, उनके प्लेट में मछली, मेरे में सब्जी... मेरा खाना निकालने के बाद उन्होंने उसी चमचे से मछली भी निकाल ली. अब उन्होंने मुझे दुबारा सब्जी देने की बात की तो मैंने मना कर दिया (वही... आज भूख नहीं है ! भूख लगी हो तो या कहना बड़ा कठिन काम होता है !). कारण ये था की उसी चमचे से निकाली हुई सब्जी शायद मैं न खा पाता. ये बात अलग है की मैंने उन्हें ये बात नहीं बताई... ऐसा नहीं की उन्हें मेरा शाकाहारी होना पसंद नहीं पर मुझे लगा की उनके लिए ये समझ पाना थोड़ा मुश्किल होगा की छूने से क्या समस्या आ सकती है ! बात भी सही है... जब तक दिमाग में कीडा न हो समस्या होनी भी नहीं चाहिए ।

दृश्य ३: (हाँगकाँग, एक किराना दूकान): पड़ गए बीमार !

साँप, बिच्छु, चमगादड़, गीदड़, केंकडा, चींटी, खटमल, जूं, मधुमक्खी, कुत्ता, बिल्ली, कछुवा, घड़ियाल... बस जो नहीं भी सोच सकते वो सब बिकता है! जिन्दा साँप पालीथीन में पकडो और तौल कर ले जाओ... अब क्या बचा? कुछ शुद्ध मांसाहारी दोस्त भी ये देख के २-४ दिन के लिए शाकाहारी हो गए !
और फिर ये डींग कि 'बगल में कोई कितना भी मुर्गा चबाये मुझे कोई दिक्कत नहीं' कि पोल खुली और हम बीमार हो गए. २-३ दिन तक दिमाग में ये भी नहीं आया कि ब्रेड नाम की भी कोई चीज़ होती है, होटल में ख़ुद खाना भी नहीं बना सकते. और फिर शाकाहारी रेस्टोरेंट में जाओ और पता चले की शाकाहारी भोजन के ऊपर थोडी मांस की ड्रेसिंग कर दी गई और आप बिना छुए बिल देकर आ जाओ... और साथ में १०-१५% टिप भी ! तो इन सबके बीच हम फलाहार करते रहे... वो भी बहुत कम... और बीमार हो गए !

दृश्य ४: (न्यूयार्क, एक किराना दूकान): खाओ भाई क्या दिक्कत है !

आज फिर एक दूकान में पानी में जिन्दा तैरते हुए बड़े-बड़े केंकड़े दिख गए, मस्ती में तैर रहे थे... उनको क्या पता की ऊपर कीमत टंकी हुई है. मुझे बस दुःख हुआ तो यही की फोटो नहीं ले पाया. पर बीमार और ये सब देख के... ना ! जैसे मुर्गा कोई चबाये और मुझे कोई दिक्कत नहीं वैसे ही अब ये देख के भी कुछ ना होना, वैसे भी क्या प्रोब्लम है.

पर हाँ चर्चा जरूर हो गई... मेरे मित्र ने बताया की चीन में ओलंपिक देखने बहुत लोग गए और उसी सिलसिले में किसी टीवी चैनल पे प्रोग्राम आ रहा था की १-२ किलोमीटर लम्बी 'जिन्दा और पके हुए कीडों-मकोडों' की लाइन से स्टाल लगी थी. इस पोस्ट पर उस चर्चा का बड़ा प्रभाव है।

अब देखिये इस मांसाहार के फायदे: भाई चीन ने तो जनसंख्या पर काबू कर ही लिया और जितने लोग हैं उतने में तो खाद्य समस्या नहीं आनी ! खाओ भाई कीडे-मकोडे... कुत्ते-बिल्ली । आप सोचिये अगर भारत में लोग मच्छर फ्राई खाने लगें तो समस्या ही ख़त्म. बीमारी भी ख़त्म और खाद्य समस्या कुछ तो कम होगी, क्यों? कुछ ज्यादा हो गया पर ऐसा तो नहीं है की संभाव्य नहीं ! अच्छा चलिए मच्छर को छोड़ दिया पर भी हजारों तरह के कीडे-मकोडे और जानवर हैं... साले ये चूहे ! इन्हें तो देखते ही खा लेना चाहिए. इनको खा लो तो खाद्य समस्या क्या चीज़ है, अनाज निर्यात करने पर भारत सरकार को सीजनल सेल ना लगानी पड़ जाय ! और कुत्ते? मुन्सिपलिटी की परेसानी तो बड़ी समस्या है, मेरे जैसे लोग भी ऑफिस से लेट आते हैं तो डरते हैं की कहीं दौड़ा दिया तो हम तो नहीं भाग पायेंगे ! सांप उनको तो नहीं खाना उन्हें दूध पिलाने के जैसा ही है भाई. मत खाओ... मरो !

और इधर आपको तो लग रहा है की हम खा ही रहे होंगे दबा के :-)

हाँ हमें भी ऐतराज हुआ इधर... यहाँ ढूंढ़ के शाकाहारी जगहों पर गए तो पता चला की कई जगह दूध या दूध से बना हुआ कुछ भी नहीं डालते. ये वेगन पता तो था पर कभी पाला नहीं पड़ा था इससे पहले, एकाएक मैं अपने मित्र से बोलने वाला था कि दूध में क्या प्रॉब्लम है यार ! फिर ख़ुद को ही मन में बोल के चुप रह गया... 'साले आज पता चला... दूध में क्या प्रॉब्लम है? तो फिर कुत्ते में ही क्या प्रॉब्लम है? कुत्ता तो छोड़ तुझे तो उस चमचे में ही प्रॉब्लम थी... जो जहाँ है उसको दूसरा बुरा लगता है... आज पता चला लोग क्यों खाते हैं? जैसे तुम्हारे लिए मांस वैसे ही किसी के लिए दूध ! वैसे ही किसी के लिए मुर्गा, किसी के लिए कुत्ता और किसी के लिए जूं, खटमल... भाई ये सीढ़ी में कौन आगे पीछे है ये तो सबके लिए अलग अलग. किसी को कुछ अच्छा लग सकता है किसी को कुछ !'

निष्कर्ष तो यही है... खाओ भाई खाओ ! सब खाओ !

आप भी खाइए... जो भी मिले दबा के ! खाद्य समस्या के साथ-साथ कई समस्याएं हल हो जायेंगी... बस अब अपनी राम कहानी इतनी गाई है तो अब ये भी बता दूँ की इस जन्म मुझसे से ये काम तो ना हो पायेगा... मैंने कहा था ना की दिमाग में कीडा हो तो थोडी दिक्कत होती है. सब कुछ सही लगते हुए भी देश का भला नहीं कर सकता... इतना जो लिखा है यही पढ़ लिया मेरे किसी मित्र ने तो कहेंगे कि 'बहुत हीरो बनता है अंडा ही छू के दिखा !'

अगर आपके दिमाग में ऐसा कीडा है फिर तो थोडी दिक्कत है. नहीं तो भाई दबा के खाना जरूर ! बहुत भला होगा देश का... वस्त्र समस्या के लिए तो किसी उपदेश कि जरुरत नहीं वो तो वैसे ही कुछ दिनों में हल हो जाने वाली है !

अब भाई इस पूरे लेख का मूल यही है कि बाबा आइन्स्टीन के नियमानुसार संसार में कुछ भी निरपेक्ष (Absolute) नहीं है सब सापेक्ष (Relative) है... इसकी चर्चा किसी और परिपेक्ष्य में अगले पोस्ट में करते हैं. पर ये तो मानना ही पड़ेगा कुछ भी निरपेक्ष नहीं सब कुछ तुलनात्मक है ! ये तुलना की सीढ़ी संसार की हर बात पर लागू होती है और इसका कोई अंत नहीं... ये तो कभी सोचना भी मत की आप इस सीढ़ी के किसी एक सीरे पर हो... क्योंकि वो तो सम्भव नहीं !

~Abhishek Ojha~


अब ये बताइए की आपका क्या ख्याल है इस वचन पर ! (प्रवचन, सुवचन, कुवचन, दुर्वचन कुछ भी हो सकता है सामने वाले पर निर्भर करता है ! आख़िर सब तुलनात्मक है. )

Sep 1, 2008

सेंट बोरिस पब्लिक स्कूल !

(ये प्रसंग मेरे एक करीबी मित्र के जीवन से है... बिहार के एक गंवई इलाके के रहने वाले हैं, आईटी बीएचयु के ग्रेजुएट हैं और एक प्रतिष्ठित सॉफ्टवेर कंपनी में कार्यरत हैं)

...जब मैं आईटी बीएचयु मैं पढने पहुँचा तो एक रात सब बैठकर अपने-अपने स्कूलों की चर्चा करने लगे. हॉस्टल में स्कूल की चर्चा अक्सर लड़कियों से ही शुरू होती है और अक्सर वहां तक जाती है कि आजकल क्या कर रही है? कैसी दिखती है? कहाँ है? और फिर... ऑरकुट पर है क्या?

सबने चालु किया सेंट थॉमस, सेंट जेवियर्स, सेंट जॉन्स... इतने 'सेंट' और 'पब्लिक' सुना कि लगा अच्छे स्कूल के नाम में दोनों में से एक तो होना ही चाहिए. अगर आगे सेंट और पीछे पब्लिक लगा हो तो फिर सोने पे सुहागा ! मुझे भी किसी ने टोक दिया... तुम किस स्कूल से पढ़े हो? अब मैं क्या बोलता!... स्कूल सोचूँ तो सबसे पहले याद आता है... बोरा ! बोरा भी बड़े काम का होता था... एक दम मस्त ! स्कूल में बिछा के बैठते फिर धुप लगे या बारिश हो तो ओढ़ के चले आओ. और मास्टरजी भी याद आते हैं. खेलते कूदते जाते रास्ते में खेत, बगीचे... खाते-पीते अपनी मस्ती में.

मैंने कहा: 'सेंट बोरिस पब्लिक स्कूल'
'अबे ये कौन सा स्कूल है? कभी नाम ही नहीं सुना !'
'नाम नहीं सुना? अबे साले हमारे जिले में एक ही तो अंग्रेजी मीडियम स्कूल है... मस्त स्कूल है, मेरे बैच से ही पाँच का जेइइ में हुआ है. '

सबने मान भी लिया... बात आई गयी हो गयी। मानते भी कैसे नहीं ! सेंट भी है और पब्लिक भी और बोरिस भी तो पूरा अंग्रेजी ही लगता है. सेंट बोरिस स्कूल की एक और बात बता दूँ. एक बार जब परीक्षाफल निकलने का दिन था तो मास्टरजी आए और उन्होंने सुनाया: 'फलनवाँ फस्ट, चीलनवाँ सेकेण्ड... और बाकी सब पास ! और आज से एक महीने की गर्मी छुट्टी'
घर आके पिताजी ने पूछा: 'रिजल्ट क्या हुआ रे? '
मैंने कहा 'मास्टर जी बोले कि फलनवाँ और चीलनवाँ के रिजल्ट में कोई दिक्कत है बाकी सब पास हैं'
बाबूजी भी खुश ! ससुरे फलनवाँ फस्ट, चीलनवाँ सेकेण्ड... आख़िर कुछ तो सीखा था सेंट बोरिस में, बोरा-बस्ता फेंका और खेलने भागे !

अब स्कूल से तो दो ही बातें बता सकता हूँ बाकी बता दूँ तो गंवार ही कहेंगे लोग। लोगों को भरोसा ही उठ जायेगा जेइइ की कठिनता से. पर क्या करुँ पास कर गया क्योंकि तब आरक्षण नहीं होता था और शायद मेरे जैसे बहुत गंवार वहां पहुच जाते थे... अब ना तो बिना सेंट और पब्लिक के स्कूल ही बचे ना वो परीक्षा ही बिना आरक्षण के रह गई. मेरे जैसे सेंट बोरिस के अलुम्नी कहाँ-कहाँ पहुँच गए... मैं गंवार रह गया ये अलग बात है.

ये सेंट बोरिस का असली मतलब पूरे बीएचयु के चार सालों में कभी किसी को नहीं बताया आज तुम्हें सुना रहा हूँ. '

और मैं आपको सुना रहा हूँ... किसी को बताइयेगा मत :-)



समीरजी और लावण्याजी से बात के बाद निठल्ला चिंतन वाले तरुणजी के साथ लंच पर जाना हुआ... बहुत खुशी हुई, ये यात्रा बहुत अच्छी साबित हो रही है. कमाल की वर्चुअल रियलिटी है ब्लॉग्गिंग भी और हिन्दी ब्लॉग्गिंग वालों में जो आत्मीयता है... वो शायद किसी और भाषा के ब्लोगरों में नहीं.



~Abhishek Ojha~

Aug 28, 2008

लाली देखो लाल की... !

शीर्षक से तो आप अनुमान लगा ही नहीं सकते कि मैं क्या लिखने जा रहा हूँ. पहले इस दुःख और खुशी के संगम को बताने से पहले दो बातें बता दूँ.

- पहली ये की शुक्रवार का बड़ा बेसब्री से इंतज़ार रहता है. पहला तो सनातन कारण है: सप्ताहांत की शुरुआत. पुणे ऑफिस में ये खुशी दुगुनी हो जाती है क्योंकि इस दिन जींस-टी-शर्ट-स्पोर्ट-शू पहन कर ऑफिस जा सकते हैं. इसमें जो खुशी है वो शायद वही समझ सकता है जो चप्पल-हाफ पैंट और टी-शर्ट में क्लास जाता हो और अचानक आप उसे फोर्मल पहनने के बोझ तले दबा दो. साल में जीतनी बार दाढी बनाता हो महीने में उससे ज्यादा बार बनाने को बोल दो.

- दूसरी ये की न्युयोर्क ऑफिस में ऐसा नहीं होता यहाँ लोग कोई भी दिन हो शूट बूट में आते हैं, पर हमने ये फैसला लिया की चाहे जो भी हो पहले शुक्रवार को तो कुछ भी पहन के जाना बनता है. आगे से तो वैसे भी नहीं पहन पायेंगे ! तो हमने अपनी नई टी-शर्ट का उदघाटन कर दिया.

पूरे दिन तो ठीक रहा कुछ लोग अजीब निगाहों से देखते तो बस यही लगा की 'ऐसे ड्रेस में क्यों आ गए हो भाई?' वाली प्रश्न भरी दृष्टि है. असली बात तो शाम को पता चली.

अब किस्मत फूटी उसी दिन हमारे बॉस लंच पर लेकर चले गए, उन्हें भी यही दिन मिला था :( ... ख़ुद को बुरा लगा की ये क्या ड्यूड बन के आ गए हैं. चलिए इतना तो ठीक, ऐसी बातों से ज्यादा परेशान नहीं होता.

शाम को हमारे एक बहुत करीबी दोस्त हैं जो यहीं रहते हैं पिछले दो सालों से, पहला सप्ताहांत... तो मिलने आए. ४-५ घंटे साथ रहे, खूब भटके उनके साथ न्युयोर्क की गलियों में. बहुत अच्छा लगा, बहुत दिनों बाद मुलाकात हुई थी पर चलते-चलते असली बात बता गए.
बोले:
'ये क्या पहन रखा है?'
'क्यों इसमें क्या बुराई है? भाई बहुत मंहगे कपड़े हैं, अच्छे नहीं लग रहे क्या?' (ना समझ में आए तो सवाल का जवाब सवाल ही हो सकता है !)
'देख अच्छे तो हैं, मस्त लग रहा है पर ये रंग...'
'रंग?'
'हाँ ये लाल-नीला रंग... ये सब यहाँ पहनोगे तो लोग समलैंगिक समझेंगे'
'व्हाट?' (ऐसे उलूल-जुलूल झटके लगे तो अंग्रेजी बोलना ही पड़ेगा)
'Welcome to America Dude ! चिल्ल मार, कोई नहीं!'

कोई तो नहीं और चिल्ल भी मार ली मैंने पर अब जाके माजरा साफ़ हुआ, कहाँ सुबह सोंच के निकले थे की आज तो कहर ढाएँगे और यहाँ .... ! अमेरिकी अंग्रेजी का एक ही शब्द मुंह से निकल सकता है: F*** !
क्या सोच रहे होंगे दिन भर लोग... ऑफिस में ! खैर उसने समझाया की वो भी कई बार पहन के चला गया और ठीक है इतना भी कुछ नहीं है पर आगे से मत पहनना ! जब इतना कुछ नहीं ही है तो आगे से क्यों नहीं पहनूं ? अब दोस्त है तो क्या कहे बेचारा ! तसल्ली देना तो फर्ज बनता है.

अब आप कहेंगे की इस दुःख भरी दास्ताँ में खुशी का लम्हा कहाँ मिल गया? अरे भाई नई टी-शर्ट कम से कम एक दिन तो पहन ली पहले ही पता चल गया होता तो बेचारी धरी की धरी रह जाती. अब क्या करुँ कैसे भी हालात हो अपनी तो खुशी ढूंढ़ लेने की आदत है :-)



किसी समलैंगिक भाई को बुरा लगे तो माफ़ी भई, इस पोस्ट का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुचाना नहीं है. मैं तो शत-प्रतिशत सच और आपबीती सुना रहा हूँ. आपलोग सामान्य न सही सामान्य रूप से रह तो सकते हैं, मानता हूँ सबको आपना साम्राज्य विस्तार अच्छा लगता है पर कपडों को तो छोड़ सकते थे... ऐसे ही लडकियां नहीं मिलती और अगर कपडों के कारण (वो भी जब अपने दिमाग में हो की मस्त कपड़े पहन रखे हैं) ऐसा हो तो.

छोडो यार आप लोगों को क्या मालूम कि लड़की क्या चीज़ होती है !


~Abhishek Ojha~

Aug 23, 2008

पन्द्रह पंचे पचहत्तर, छक्का नब्बे... !

निवेश बैंकिंग और अंको का मस्त नाता है, आप चाहें न चाहें अंको से पाला पड़ता ही रहता है. तो हुआ यूँ के मैं एक स्प्रेडशीट खोले बैठा अंको को देख रहा था और कुछ ऐसा बोला:

'पन्द्रह छक्का नब्बे, सात पिचोत्तर... उम्म्म... कुछ एक मिलियन होना चाहिए'

अब क्या करें?... अपनी आदत है बीच-बीच में बोल देना... जो करता हूँ, कभी-कभी बीच में बोल भी देता हूँ. मुझे क्या पता था की लोग इतनी फुर्सत में होते हैं और एक-एक शब्द सुनते रहते हैं... मेरे बगल में जो सज्जन थे उन्हें बड़ा मजा आया ... उन्होंने पूछा:
'व्हाट यू जस्ट सेड?'
'नथिंग, आई वाज़ जस्ट लूकिंग ऐट दिस पोर्टफोलियो एंड सम नंबर्स असोसिएटेड विथ दिस !'

लेकिन इतनी आसानी से मान जाते तो पूछते ही क्यों? इतना तो वो भी समझ ही गए थे कि मैं क्या बोला था... लेकिन वो मेरे मुंह से सुनना चाहते थे... तो मुझे कौन सी शर्म आ जायेगी ! मैंने भी बोल दिया की कुछ नंबर जोड़-घटा रहा था और अपनी थोडी बचपन से आदत है... जोड़-घटाव करता हूँ तो उन्हें गुनगुना भी लेता हूँ ! ये गुनगुना लेने वाली बात उन्हें कुछ हजम नहीं हुई और उनके चेहरे के भाव से ऐसा लगा की अपच कुछ ज्यादा ही हो गया है... उनके सवाल का संतुष्ट हल उन्हें नहीं मिला, या फिर उन्हें जो मेरे मुंह से सुनना था वो नहीं मिला, या फिर गुनगुनाने वाली बात थोडी भारी हो गई !

मैंने सोचा की अपनी तरफ़ से थोडी दवा-दारु कर दी जाय मैंने कहा देखिये मैं जो गुनगुना रहा था आपको सुनाये देता हूँ: 'पन्द्रह दुनी तीस तियां पैंतालिस चौका साठ पांचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बिस्सा नौ पैन्तिसा झमक-झमक्का डेढ़ सौ !'

और मुड़ के फिर अपने डब्बे (कम्प्यूटर को डब्बा कहने की भी आदत है !) की तरफ़ देखने लगा... ऐसे काम करने के बाद सामने वाले का चेहरा देखने में जो मजा आता है वो शायद आप नहीं समझ सकते... वो आश्चर्य मिश्रित हँसी... हँसी मिश्रित उत्सुकता देखने लायक थी, इधर-उधर भी देख रहे थे की किसी और ने सुन तो नहीं लिया... कमाल है ! बोल में रहा हूँ और टेंशन उन्हें हो रही है... इतनी चिंता क्यों मोल लेते हैं लोग? पर इस गुनगुनाने का कमाल देखिये पास ही आके बैठ गए!
बोले: 'ये क्या था?'
मन तो किया की बोलूँ ये तुलसीदास की एक चौपाई है जिसमें कुम्भकर्ण बन्दर-भालुओं की गिनती करता है मजा तो बहुत आता लेकिन पीटने का डर हो तो चुप रह जाने में ही भलाई है !
'देखिये इसे पहाडा कहते हैं, आप जिसे टेबल कहते हैं ना, वही टू वन जा टू वाला, मेरी मुलाकात उससे थोडी देर से हुई उससे पहले से मैं इस दोहे चौपाई वाले को जानता हूँ और अब इस जन्म तो साथ नहीं छूटना इससे !'
वो मुझसे उम्र में बड़े हैं उन्हें लगा की क्यों बच्चे को परेशान करना बोले:
'पढ़ा तो मैंने भी पहाडा ही था लेकिन ऐसे नहीं, ये थोड़ा मस्त है और वैसे भी अब याद कहाँ है... बच्चों को रटाते-रटाते हम भी टेबल वाले हो गए हैं' वैसे ये भूल जाने वाली बात मुझे कुछ जमी नहीं... और इस भूल जाने वाली बात से ही याद आई हमारे दूर के रिश्ते की एक आंटीजी... आज से ३-४ साल पहले वो घर आई तो हिन्दी में बात कर रहीं थी... और उन्होंने कहा कि भोजपुरी तो वो भूल ही गई हैं, बच्चो के साथ रहते रहते अब बोल ही नहीं पाती! मैं उस समय कुछ ज्यादा ही छोटा था खैर उन्हें कुछ बोल तो अभी भी नहीं पाता बड़े रिश्तेदारों के सामने ना बोलने की आदत है अच्छी या बुरी पता नहीं ! बस बोलता ही नहीं :-)

हाँ तो ये बात मेरी समझ में नहीं आती की वो पहली बोली जो बचपन में बोलना सीखा हो, कोई कैसे भूल सकता है? पहाडा तो चलता है... वैसे ये भी थोड़ा कठिन ही लगता है कि पहाडा पढ़ा हो बचपन में और उसकी जगह टेबल ले ले ! भूलना तक तो समझ में आता है पर उसको टेबल से विस्थापित करने वाली बात थोडी मुश्किल लगती है, वैसे पढाते-पढाते सम्भव है...
पर बोली? नई सीख लो चाहे जीतनी... पर पहली बोली भूल जाओ... मेरे गले नहीं उतरती ! कोई ऐसा बोल रहा है तो कोरा झूठ नहीं तो और क्या कहेंगे? क्या आपके साथ ऐसा हो सकता है की आप बचपन से २०-२५ सा तक रोज़ जो बोली बोल रहे हों, उसके लिए बाकी जिंदगी में कभी ऐसा मौका आ जाय कि आपको वो बोलना ही ना आए?

पर ठीक है भोजपुरी वाले हिन्दी और हिन्दी वाले अंग्रेजी बोलने में अपनी बड़प्पन तो मानते ही हैं !

हाँ तो बात थी मस्त पहाडे की... अपनी तो सच्चाई है भाई जितना पढ़ा, जितने प्रोजेक्ट किए दिमाग में जब भी अंक चलते हैं तो भले ऐसे जितना ट्वेंटी-फोर्टी झाड़ता रहूँ अन्दर 'पंद्रह दूनी तीस तियां' ही फिट हो गया है... अब आप बड़ाई मानें या बुराई... पुराना प्रोग्राम है ! पर अब क्या करें, हम तो आए ही दुनिया में ३०-४० साल बाद... साला एक बात नई पीढी से नहीं मिलती :(

हाँ तो ऐसा लगा की अंकलजी को चिडियाघर का कोई प्राणी मिल गया है... बोले की बस एक बार और सुना दो !
अरे हद है ! अब बच्चा तो हूँ नहीं... तब की बात और थी.
वैसे ये काम बचपन में तो खूब किया... तेज होने की यही परिभाषा थी... चलो बेटा बताओ तो 'कितना नवें १०८?' हम तुरत बोलते १२ ... उसके बाद थोड़ा भारी १८-१९ पर.
पर भारी हल्का सब हो जाने के बाद अंत में यहीं आता था... 'अरे पन्द्रह का बड़ा अच्छा सुनाता है ये... आपने सुना है की नहीं?, बेटा एक बार १५ का पहाडा सुना दो' और हम राग भैरवी में तान छेड़ देते... 'पन्द्रह दुनी तीस तियां...'
और फिर 'वाह ! कितना तेज लड़का है !'
यही करके जिंदगी भर तेज कहाना होता तो कितनी आसान होती जिंदगी...

अब फिर से यही आग्रह आ गया तो क्या करता... एक बार फिर सुना दिया:
'पन्द्रह दुनी तीस तियां पैंतालिस चौका साठ पांचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बिस्सा नौ पैन्तिसा झमक-झमक्का डेढ़ सौ !' अब सुनाया भी लय में...

अब आया मजेदार सवाल: 'बेटा बाकी सब तो ठीक लेकिन ये झमक-झमक्का क्या है?'
अब क्या बताऊँ इसका जवाब तो मैं भी बहुत दिनों से ढूंढ़ रहा हूँ... इस पहाडे के बाकी संस्करणों में शायद ये शब्द होता भी नहीं है... अब ये दुर्लभ संस्करण लेकर घूम रहा हूँ तो कुछ तो कारण देना ही पड़ेगा... मैंने कहा की ये बस लय बनाने के लिए है, और इसका कोई गणितीय मतलब नहीं है. कुछ ऐसा हुआ होगा की छमक-छमक पायल बज रही होगी किसी की और किसी कवि ह्रदय मास्टर ने छमक-छमक्का जोड़ दिया और फिर बिगड़ के झमक-झमक्का हो गया होगा ! (मैंने उनसे कहा की इसकी व्युत्पति के बारे में ज्यादा जानना हो तो एक हमारे शब्दों के ज्ञानी अग्रज हैं उनसे संपर्क कर लीजिये, अब क्या करूँ इससे ज्यादा सोच पाता तो क्या यही अंक गुनगुनाता?)

प्रसन्न होके चल दिए... 'बहुत अच्छे बेटा!' शायद उन्हें भरोसा हो गया की ऐसा पहाडा पढ़ा हुआ आदमी जोड़-घटाव गुनगुना भी सकता है! अब तो बस डर है की किसी दिन उनके यहाँ चला गया तो... बच्चों के सामने ना गाना पड़ जाय ! और कहीं किसी मीटिंग में ना बोल दें की ओझा बाबू १५ का पहाडा बहुत अच्छा गाते हैं... आप हिन्दी वाले तो फिर भी मेरी मजबूरी पर हंस सकते हैं... किसी फिरंगी के सामने उन्होंने बोल दिया तो उसके तो गले ना उतरनी !



इस बीच दो बड़े लोगों से बात हुई जिन्हें आप सब जानते हैं... न तो उनका परिचय देने की जरुरत है ना उनके विनम्रता की. कई बातों के लिए मैं अक्सर लिखता हूँ की लिख नहीं सकता... या फिर कह नहीं सकता... तो बस उसी तर्ज पे... कह नहीं सकता कितनी खुशी हुई... कितना अच्छा लगा. बस फोन पे बात हुई तो औटोग्राफ नहीं ले पाया... आशीर्वाद ही मिल पाया है, और उस पर तो अपना अधिकार है. माँगने की भी जरुरत नहीं. बिना मांगे ये मिला और ढेर सारा स्नेह... विनम्रता और स्नेह शायद आप समझ गए: समीरजी और लावण्याजी. बस अब तो नंबर मिल गया है... इसी आशीर्वाद, स्नेह और विनम्रता की दुहाई देकर परेशान करता रहूँगा :-)


~Abhishek Ojha~