पिछले पोस्ट थोडी फंडामय थी... इसमें शायद उतने फंडे नहीं आ पायेंगे. शाकाहार-मांसाहार तो छोड़ ही देते हैं। ऐसे ही सापेक्षता के उदहारण भरे पड़े हैं.
अब देखिये एक बार बहुत दिनों के बाद रीडर खोला तो पता चला की अपठित लेखों की संख्या ५०० पार कर गई है। लगा की सबको एक साथ 'मार्क ऐज रीड' कर दूँ। पर जैसे ही न्यूज़ और सम्पादकीय फीड को 'मार्क ऐज रीड' किया तो लगा कि अब तो बहुत कम हो गया... कम तो तब भी नहीं हुआ था लेकिन जब खोला था, तब की तुलना में कम था तो तय हुआ की पढ़ लूँगा... वैसे इसमें क्या है... कम-ज्यादा तो तुलनात्मक होता ही है ! पर ये तो तय हुआ की सब तुलनात्मक है... चाहे धनी-गरीब, पाप-पुण्य, सच-झूठ, परीक्षा में प्राप्त अंक, वेतन या फिर रीडर में अपठित लेख ! सब पर बाबा आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत लगता है... और ये बातें निर्भर करती हैं आस पास के परिवेश और अवस्था पर !
प्यार (या दया) और इर्ष्या में भी सापेक्षता है भाई... वही आदमी जो दया करता है अचानक उसी अवस्था में अगर कुछ बदल जाय तो इर्ष्या करने लगता है। अभी २ साल पहले हम विद्यार्थी थे तो यात्रा में लोगों की नज़र ऐसी थी... 'अच्छा बेटा बाहर पढ़ाई के काम से जा रहे हो? कहाँ रहोगे... अच्छा-अच्छा ! बहुत कुछ अच्छा और बेटा से ही शुरू और ख़त्म होता था। अब वही लोग बात तो छोडिये ऐसे देखते हैं... कि ये साले बच्चे बिजनेस क्लास में क्या कर रहे हैं? होंगे किसी अमीर के साहबजादे... अरे ! हम वही मेहनती और होनहार हुआ करते थे... इतना जल्दी ही...! तब की तरह आज भी पूछ लो भाई कि पैसे कौन देगा, तब भी कोई और देता था अब भी कोई और देता है, बस क्लास ही तो बदला है ! सब सापेक्ष है !
अच्छा एक और बात ये शाश्वत लाइन आप भी इस्तेमाल करते होंगे: 'वो भी क्या दिन थे !'
क्या दिन थे? कभी-कभी तो मन करता है की ख़ुद को बोलूँ... वो भी कोई दिन थे... फटेहाल !, आज हीरो बन रहे हो तो बन लो ! वो दिन थे तब तो आज वाले दिन का इन्तजार था... आज लगता है वो दिन ही अच्छे थे ! ये कमाल की बात क्यों? पता नहीं पर मेरे साथ भी थोड़ा-बहुत ऐसा है... कभी लगता है की अब साइकिल चलाने वाला मजा नहीं आ सकता... घंटो किसी पहाडी के ऊपर बैठने का काम अब नहीं हो सकता, कुछ ऐसे रिश्ते... छोटी-छोटी बातों पर बोरे भर कर मिलने वाली खुशी... अब शायद वो बोरा छोटा होता जा रहा है ! जेब में बहुत कम पैसों क साथ फ्री के पास पर घुमने का मज़ा... पर तब तो लगता था की ये कर लूँगा तो मजा आ जायेगा...
पर क्या करोगे भाई... फ्रेम बदलता है तो सापेक्षता के हिसाब से, मायने भी तो बदल जाते हैं! बचपन में सबको लगता है की दाढी बनाने में बड़ा मज़ा आता होगा... बड़ा होके भी बहुत लोगो को आता होगा... मुझे तो नहीं !
आप पहाडी पर चढ़ते जाओ नीचे से तो यही लगता है की उस ऊंचाई तक ही जाना है... वहां जाने पर पता चला कि अभी तो शुरुआत ही है... दुनिया तो ऊंचाई के साथ दिखनी शुरू होती है... बस चढ़ते जाओ... नई ऊंचाई, नई दुनिया। पर साथ में ये अनुभूति भी होती है की नीचे जो छूट रहा है वो फिर नहीं मिलना, उनमें यादें होती है... ऊपर से जो हिस्सा जितना धुंधला दीखता है उतना ही खुबसूरत लगता है... शायद इसलिए की उसकी बारीकियां वहां से नहीं दिखती... अब पहाड़ से नीचे के खुबसूरत झील ही दिखाई देते हैं... कांटे कम ही दिखाई देते हैं! अगर दिखाई देते भी हैं तो तुलना की बात है... आप कितनी ऊंचाई पर हो और कितने कांटे चुभे थे रास्ते में !
~Abhishek Ojha~
सापेक्षत: ज्यादा समझ में आयेगी यह पोस्ट - गणित कम, कविता ज्यादा है! :)
ReplyDeleteसमाज में सापेक्षता का सिद्धान्त का अच्छा विश्लेषण किया है। अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteऔरोँ की चिँता न करके
ReplyDeleteहर परिस्थिति मेँ
खुश रहना !
ये सबसे बडी उपलब्धि है !
आशा करती हूँ
आप सदा प्रसन्न रहेँ :)
-लावण्या
बहुत सही..आगे बढ़ना ही ज़िन्दगी है और उसको आपने लफ्जों में खूब अच्छे से ब्यान किया है ..
ReplyDeletenice post
ReplyDeleteबहुत खूब. सही जा रहे हो!
ReplyDeleteये पोस्ट जरा ज्यादा देर लगा गयी समझने में......
ReplyDeleteपिछली पोस्ट तो नही पढ़ी थी पर ये पोस्ट .॥ :)
ReplyDeleteआपकी लिखी शाश्वत लाइन तो हर कोई बोलता ही है। :)
और क्या खूब समझाया है आपने जिंदगी का फलसफा।
आज कहने के लिए कुछ नही है,खाली उपस्थिति दर्ज कर लीजये
ReplyDeleteसचमुच सापेक्षता के उदाहरण भरे पड़े हैं। सुंदर लेख।
ReplyDeleteकुछ तो लोग कहे गे, भाई लोगो की बात ना सुनो जो करना हे करो लेकिन अच्छा करो...
ReplyDeleteधन्यवाद
ब्रह्म सत्यम, जगदपिसत्य़मापेक्षिकम. सुंदर लिखा है आपने.
ReplyDeleteभाग १ शुरू करके ही छोडना पडा.. निचे तक पढ के शायद खुद ही बिमार पड जाती... शाम गये मेरे सारे क्लाईंट्स आपको कोसते इससे अच्छा दूर से प्रणाम करक लौट आयी....
ReplyDeleteइस पोस्ट पर सापेक्षता की बात से सहमत हूँ.. :) यहाँ सबकुछ सापेक्ष होता है... बस वक्त और नजर का फर्क है।
वाह...
ReplyDeleteअभिभूत कर दिया आपने..
जोरदार...
सही कहा, चलती का नाम गाडी।
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