अगर आपको लगे की लम्बी पोस्ट है तो इस डब्बे में बंद लाइनों को छोड़कर सीधे उसके नीचे की लाइनों पर पहुच जाइए। उसके पहले तो बस ये यात्रा है जिससे इस पोस्ट की उत्पति हुई। समय और अवस्था के हिसाब से चीजों के मतलब बदलते रहते हैं ...
दृश्य १: (सी/१३३, हॉल २, आईआईटी कानपुर): मच्छर हत्या ! 'आज ओझा ने मर्डर कर दिया !' 'किसका किया बे? इसकी औकात है?' 'मच्छर मारा होगा !' 'हाँ तुझे कैसा पता?' 'इससे ज्यादा ये क्या मारेगा ... ' कई बार ऐसा होता... मुर्गा, दारु के लिए कई बार चुनौती दी जाती. और हर बार मैं हार स्वीकार कर लेता... 'नहीं मारना चाहिए यार ये भी तो जीव है' फिर लोग मच्छर मारने के फायदे गिनाते... मैं जीव हत्या का मामूली तर्क ही दे पाता. खैर धीरे-धीरे एक-दो सालों में इतना तो बदल ही गया की कोई बगल में कितना भी मुर्गा नोंच के खाता,मुझे दिक्कत होनी बंद हो गई. दृश्य २: (शाकाहारी स्विस प्रोफेसर) : छूने में क्या समस्या हो सकती है? एक बहुत अच्छे प्रोफेसर दोस्त हैं (दोस्त ही कहना ज्यादा उचित है) वो 'लगभग शाकाहारी' बने थे जब तक मैं उनका मेहमान रहा... शायद बाद में भी वैसे ही रहने लगे हों. पर मैंने पूछना कभी उचित नहीं समझा. हाँ मछली को कभी-कभी शाकाहार का हिस्सा मानते. एक दिन हम साथ खाना खा रहे थे, उनके प्लेट में मछली, मेरे में सब्जी... मेरा खाना निकालने के बाद उन्होंने उसी चमचे से मछली भी निकाल ली. अब उन्होंने मुझे दुबारा सब्जी देने की बात की तो मैंने मना कर दिया (वही... आज भूख नहीं है ! भूख लगी हो तो या कहना बड़ा कठिन काम होता है !). कारण ये था की उसी चमचे से निकाली हुई सब्जी शायद मैं न खा पाता. ये बात अलग है की मैंने उन्हें ये बात नहीं बताई... ऐसा नहीं की उन्हें मेरा शाकाहारी होना पसंद नहीं पर मुझे लगा की उनके लिए ये समझ पाना थोड़ा मुश्किल होगा की छूने से क्या समस्या आ सकती है ! बात भी सही है... जब तक दिमाग में कीडा न हो समस्या होनी भी नहीं चाहिए । दृश्य ३: (हाँगकाँग, एक किराना दूकान): पड़ गए बीमार ! साँप, बिच्छु, चमगादड़, गीदड़, केंकडा, चींटी, खटमल, जूं, मधुमक्खी, कुत्ता, बिल्ली, कछुवा, घड़ियाल... बस जो नहीं भी सोच सकते वो सब बिकता है! जिन्दा साँप पालीथीन में पकडो और तौल कर ले जाओ... अब क्या बचा? कुछ शुद्ध मांसाहारी दोस्त भी ये देख के २-४ दिन के लिए शाकाहारी हो गए ! और फिर ये डींग कि 'बगल में कोई कितना भी मुर्गा चबाये मुझे कोई दिक्कत नहीं' कि पोल खुली और हम बीमार हो गए. २-३ दिन तक दिमाग में ये भी नहीं आया कि ब्रेड नाम की भी कोई चीज़ होती है, होटल में ख़ुद खाना भी नहीं बना सकते. और फिर शाकाहारी रेस्टोरेंट में जाओ और पता चले की शाकाहारी भोजन के ऊपर थोडी मांस की ड्रेसिंग कर दी गई और आप बिना छुए बिल देकर आ जाओ... और साथ में १०-१५% टिप भी ! तो इन सबके बीच हम फलाहार करते रहे... वो भी बहुत कम... और बीमार हो गए ! दृश्य ४: (न्यूयार्क, एक किराना दूकान): खाओ भाई क्या दिक्कत है ! आज फिर एक दूकान में पानी में जिन्दा तैरते हुए बड़े-बड़े केंकड़े दिख गए, मस्ती में तैर रहे थे... उनको क्या पता की ऊपर कीमत टंकी हुई है. मुझे बस दुःख हुआ तो यही की फोटो नहीं ले पाया. पर बीमार और ये सब देख के... ना ! जैसे मुर्गा कोई चबाये और मुझे कोई दिक्कत नहीं वैसे ही अब ये देख के भी कुछ ना होना, वैसे भी क्या प्रोब्लम है. पर हाँ चर्चा जरूर हो गई... मेरे मित्र ने बताया की चीन में ओलंपिक देखने बहुत लोग गए और उसी सिलसिले में किसी टीवी चैनल पे प्रोग्राम आ रहा था की १-२ किलोमीटर लम्बी 'जिन्दा और पके हुए कीडों-मकोडों' की लाइन से स्टाल लगी थी. इस पोस्ट पर उस चर्चा का बड़ा प्रभाव है। |
अब देखिये इस मांसाहार के फायदे: भाई चीन ने तो जनसंख्या पर काबू कर ही लिया और जितने लोग हैं उतने में तो खाद्य समस्या नहीं आनी ! खाओ भाई कीडे-मकोडे... कुत्ते-बिल्ली । आप सोचिये अगर भारत में लोग मच्छर फ्राई खाने लगें तो समस्या ही ख़त्म. बीमारी भी ख़त्म और खाद्य समस्या कुछ तो कम होगी, क्यों? कुछ ज्यादा हो गया पर ऐसा तो नहीं है की संभाव्य नहीं ! अच्छा चलिए मच्छर को छोड़ दिया पर भी हजारों तरह के कीडे-मकोडे और जानवर हैं... साले ये चूहे ! इन्हें तो देखते ही खा लेना चाहिए. इनको खा लो तो खाद्य समस्या क्या चीज़ है, अनाज निर्यात करने पर भारत सरकार को सीजनल सेल ना लगानी पड़ जाय ! और कुत्ते? मुन्सिपलिटी की परेसानी तो बड़ी समस्या है, मेरे जैसे लोग भी ऑफिस से लेट आते हैं तो डरते हैं की कहीं दौड़ा दिया तो हम तो नहीं भाग पायेंगे ! सांप उनको तो नहीं खाना उन्हें दूध पिलाने के जैसा ही है भाई. मत खाओ... मरो !
और इधर आपको तो लग रहा है की हम खा ही रहे होंगे दबा के :-)
हाँ हमें भी ऐतराज हुआ इधर... यहाँ ढूंढ़ के शाकाहारी जगहों पर गए तो पता चला की कई जगह दूध या दूध से बना हुआ कुछ भी नहीं डालते. ये वेगन पता तो था पर कभी पाला नहीं पड़ा था इससे पहले, एकाएक मैं अपने मित्र से बोलने वाला था कि दूध में क्या प्रॉब्लम है यार ! फिर ख़ुद को ही मन में बोल के चुप रह गया... 'साले आज पता चला... दूध में क्या प्रॉब्लम है? तो फिर कुत्ते में ही क्या प्रॉब्लम है? कुत्ता तो छोड़ तुझे तो उस चमचे में ही प्रॉब्लम थी... जो जहाँ है उसको दूसरा बुरा लगता है... आज पता चला लोग क्यों खाते हैं? जैसे तुम्हारे लिए मांस वैसे ही किसी के लिए दूध ! वैसे ही किसी के लिए मुर्गा, किसी के लिए कुत्ता और किसी के लिए जूं, खटमल... भाई ये सीढ़ी में कौन आगे पीछे है ये तो सबके लिए अलग अलग. किसी को कुछ अच्छा लग सकता है किसी को कुछ !'
निष्कर्ष तो यही है... खाओ भाई खाओ ! सब खाओ !
आप भी खाइए... जो भी मिले दबा के ! खाद्य समस्या के साथ-साथ कई समस्याएं हल हो जायेंगी... बस अब अपनी राम कहानी इतनी गाई है तो अब ये भी बता दूँ की इस जन्म मुझसे से ये काम तो ना हो पायेगा... मैंने कहा था ना की दिमाग में कीडा हो तो थोडी दिक्कत होती है. सब कुछ सही लगते हुए भी देश का भला नहीं कर सकता... इतना जो लिखा है यही पढ़ लिया मेरे किसी मित्र ने तो कहेंगे कि 'बहुत हीरो बनता है अंडा ही छू के दिखा !'
अगर आपके दिमाग में ऐसा कीडा है फिर तो थोडी दिक्कत है. नहीं तो भाई दबा के खाना जरूर ! बहुत भला होगा देश का... वस्त्र समस्या के लिए तो किसी उपदेश कि जरुरत नहीं वो तो वैसे ही कुछ दिनों में हल हो जाने वाली है !
अब भाई इस पूरे लेख का मूल यही है कि बाबा आइन्स्टीन के नियमानुसार संसार में कुछ भी निरपेक्ष (Absolute) नहीं है सब सापेक्ष (Relative) है... इसकी चर्चा किसी और परिपेक्ष्य में अगले पोस्ट में करते हैं. पर ये तो मानना ही पड़ेगा कुछ भी निरपेक्ष नहीं सब कुछ तुलनात्मक है ! ये तुलना की सीढ़ी संसार की हर बात पर लागू होती है और इसका कोई अंत नहीं... ये तो कभी सोचना भी मत की आप इस सीढ़ी के किसी एक सीरे पर हो... क्योंकि वो तो सम्भव नहीं !
~Abhishek Ojha~
अब ये बताइए की आपका क्या ख्याल है इस वचन पर ! (प्रवचन, सुवचन, कुवचन, दुर्वचन कुछ भी हो सकता है सामने वाले पर निर्भर करता है ! आख़िर सब तुलनात्मक है. )
सुबह पढ़कर ही कुछ कह पायेंगे...अभी तो बस बता रहे हैं कि हमें पता है कि आपने यह छापा है और हमने सरिया लिया है.
ReplyDeleteआप से पूरी तरह से सहमत बाबा आइंस्टाइन सही फरमा गए हैं। दुनियाँ की सारी चीजें सापेक्ष ही हैं। और दूध भी शाकाहारी तो नहीं। वह भी हमें एक जन्तु से ही प्राप्त होता है। पर उसे हम शाकाहारी मानते हैं।
ReplyDeleteमुझे और बेटे-बेटी को भी यह समस्या सब स्थानों पर आती है।
पर अपनी तरह जीना ठान ले तो मुश्किल नहीं है।
क्या क्या खाते हैं लोग ..उफ्फ्फ... शाकाहारी होना सबसे अच्छा है ..पर देश से बाहर जाने पर इस तरह की समस्या आती है ..
ReplyDeleteभाई साहब, आपने तो कन्फ़्यूज कर दिया। इस दुनिया में जो भी जैविक पदार्थ अस्तित्व में हैं, उनका उपभोग मनुष्य अपनी पसन्द-नापसन्द के अनुसार करने का प्रयत्न करता है। किसी की पसन्द-नापसन्द तो तर्कातीत होती है। एक की दूसरे को समझ नहीं आएगी...
ReplyDeleteहम भी आप ही की तरह अपने को समझा नहीं पाते हैं...
मजेदार चर्चा वाली पोस्ट...
आपका धन्यवाद जो आपने ऐसा विषय उठाया! बहुत गंभीर समस्या है. एक-दो पोस्ट लग जायेंगी समाधान करने में - इजाज़त है क्या?
ReplyDeleteअपन का कुविचार यह है कि जब मांस खाना है तो जो कुछ खा सको खाओ, कोई परहेज़ मत करो। बीफ़ भी खा सको तो खा लो। मानवीय तर्क दो तो सही मगर धार्मिक तर्क मत दो। नागा लोग कुत्ते खाते हैं तो जे एन यू में कुतों की समस्या नहीं, मच्छर खाने लगे तो वह समस्या भी हल हो जाएगी। आपकी बातों से कमोबेश सहमति है।
ReplyDeleteमुझे तो खासी दिक्कत आती है कोलकाता में वहां वेज बोलकर सब्जी में माछ-मुडी मिला देते हैं,चारो तरफ़ मछली -मछली गंध आती है पर क्या करें किसी तरह मैनेज करना पड़ता है..ओडिसा में केकड़े की पकोड़ी बनाते हैं..रांची में आदिवासी बहुल इलाके में चींटी भुजिया भी मिलाती है.
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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
सच कहूँ तो सारा सिस्टम इंसान ने गडबडा दिया है .....जहाँ मजबूरी है वहां तो ठीक है पर अब सारा मामला स्वाद पर टिका है ....स्वाद के लिए सारे तर्क वितर्क है .......ओर ये भी सच है की हमारी intestine मॉस खाने के लिए नही बनी है ...बेचारी ओवेर्तिमे करके उसे पचा लेती है ओर न जाने क्या क्या पचाती है ?कभी कभी कभी तो सोचता हूँ की डरती होगी की अब क्या आयेगा ? साला आदमी आराम नही करने देता ...कोई वक़्त नही......इस स्वाद की वजह से सारा स्वास्थ्य गड़बड़ है.....
ReplyDeleteलम्बी पोस्ट की चिंता मत करो ...कंटेंट है तो फ़िर सब कुछ
जीव जीवस्य भोजनम!
ReplyDeleteबस कुछ लोग तो होते हैं जो सिद्धान्त का अपवाद होते हैं! अलग-थलग और सिरफिरे!
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ReplyDeleteआपकी पोस्ट मनमोहन जी या पी. चिदंबरम जी ने तो नहीं पढ़ी। पढ़ ली होगी तो मच्छर फ्राई का प्रचार प्रसार जरूर केन्द्र सरकार के एजेंडे में आ जाएगा।
ReplyDeleteओझा भाई हम तो १८ साल से शाकाहारी हो गये हे, कहो तो अपने हिस्से के मच्छर आप क भेज दे, मुस्किल तो हम होती हे जब हम युरोप मे कही घुमने जाते हे,
ReplyDeleteधन्यवाद
आप सोचिये अगर भारत में लोग मच्छर फ्राई खाने लगें तो समस्या ही ख़त्म. बीमारी भी ख़त्म और खाद्य समस्या कुछ तो कम होगी, क्यों?
ReplyDeleteBhai wah wah
सामयिक विषय..
आपके चिंतन का जवाब नहीं मित्र..
बधाई....
सकारात्मक चिंतन ! धन्यवाद ! हमारे यहाँ मच्छर एक्सपोर्ट क्वालिटी के उपलब्ध हैं ! अगर किसी को रेस्टोरेंट के लिए थोक में चाहियें तो संपर्क कर सकते हैं !
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढने के बाद ऐक ही विचार आ रहा है मन में ........
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट है पढ़ कर मज़ा आ गया :)
वीनस केसरी
ReplyDeleteनिवेदन
आप
लिखते हैं, अपने ब्लॉग पर छापते हैं. आप चाहते हैं लोग आपको पढ़ें और आपको बतायें कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है.
ऐसा ही सब चाहते हैं.
कृप्या
दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी कर अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच न करें.
हिन्दी
चिट्ठाकारी को सुदृण बनाने एवं उसके प्रसार-प्रचार के लिए यह कदम अति महत्वपूर्ण है, इसमें अपना भरसक योगदान करें.
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समीर लाल
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उड़न तश्तरी
sach hi to hai.....mujhe bhi shaakahari bhojan ke liye taklif to hui thi europe me.....aap ki shaili bahut hi alag si hai...
ReplyDeletebhai aapki party ke hain par mansariyon ke bech rahte rahte mujhe unke sath khana khane ki aadat pad gayi hai.
ReplyDeleteWell written post with many points to think about.
ReplyDeleteबहुत घूम घुमा कर इस पोस्ट तक पहुंचे हैं, मजेदार पोस्ट रही। मुझे भी अक्सर इस परेशानी से दो चार होना पड़ता है।... वही छू लेने में क्या हर्ज है ?
ReplyDeleteमैने इन दिनों एक नया रास्ता निकाला है कहीं बाहर खाना होता है, नई जगह पर जहां संदेह हो, (क्यों कि यहां दक्षिण में मीटेरियन होटल्स पर लिखा नहीं होता कि यह मीटेरियन है। )
तो मैं होटल वाले से पूछता हूँ कि भाई नॉन वेज मिलेगा ? अगर होटल वाला उत्साहित हो कर कहता है हाँ हाँ क्यों नहीं बैठिये, तो अपने वहां से निकल पड़ते हैं और अगर होटल वाला चेहरा लटका कर बोले कि नहीं मिलेगा तो अपन राजी राजी होटल में जा कर खा लेते हैं।
:)