'चिकन आलाफूस नहीं है क्या मेनू मे?'
'नहीं सर '
'क्या? नहीं है? अरे यार फिर क्या खाएं? ! कैसा रेस्टोरेंट है... मैनेजर को बुलाओ'
'सर क्या हुआ?'
'ये चिकन आलाफूस क्यों नहीं है? हर रेस्टोरेंट मे मिलने लगा है आजकल तो'
'सर ये रेसिपी हमें पता नहीं... अगली बार पता करके जरूर शामिल कर लेंगे'
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ये हम अक्सर करते...
बी आर चोपडा की फ़िल्म 'छोटी सी बात' मे इसका जिक्र आता है। हमारे हॉस्टल मे अंग्रेजी फिल्मों का ही बोलबाला रहता पर कुछ हिन्दी फिल्में बड़ी लोकप्रिय हुई जिनमें ये भी थी। कम बजट की लगने वाली सीधी-सादी मनोरंजक फ़िल्म. (शायद इसलिए भी लोकप्रिय हुई कि कई लोग आमोल पालेकर के इस किरदार से अपने आपको जोड़कर देखते... इसी तरह राजपाल यादव अभिनीत 'मैं,मेरी पत्नी और वो' भी बड़ी सराही गई. शायद अपना चरित्र-चित्रण मिला कई लोगों को :-)
इस फ़िल्म की दो बातें कुछ लोगों को बड़ी मजेदार लगी... एक तो अशोक कुमार द्बारा निभाये गए किरदार का नाम 'जुलियस नागेन्द्रनाथ विल्फ्रेड सिंह' और दूसरी 'चिकन आलाफूस'। अब ये बातें कुछ ऐसे लोगों को पसंद आ गई जिन्हें अगर कुछ पसंद आ जाए तो बाकी लोगों को पसंद करवा देना उनका काम होता। और दोनों नाम भी रोचक तो थे ही तो धीरे-धीरे प्रसिद्धि पा गए। और लगभग हर बार रेस्टोरेंट मे पूछा जाने लगा। (मैं शुद्ध शाकाहारी ! लेकिन ये रेसिपी इस कदर नहीं मिली कि मैंने कहा चलो अगर ये रेसिपी मिल गई तो मैं ट्राई कर लूँगा... अब अगर कहीं मिल जाती तो क्या होता... !)। कई बार तो हमारे कलाकार मित्रों ने बाकायदा रेस्टोरेंट वालों को ये भी समझा दिया कि अमेरिकन और फ्रेंच फ्यूजन है ! कैसे बनता है ये भी बता देते :-)
खैर धीरे-धीरे ये कम हुआ और फिर ख़त्म... पर क्या ऐसा नहीं है कि ऐसे ही कई काल्पनिक नाम और मनगढ़ंत घटनाएं इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि हम उसे वास्तविक मानने लगते हैं? निर्भर इस पर करता है कि बनाने वाला कितना रचनात्मक है... कितनी धाँसू कल्पना कर सकता है। शायद इसे ही कवि-सत्य कहते हैं... या फिर फ़िल्म-सत्य? क्योंकि कवि-सत्य तो कवि की कल्पना होती है तो इसे फ़िल्म-सत्य कहना ही ज्यादा उचित होगा.
काल्पनिक के अलावा कुछ वास्तविक चीजों की भी लोकप्रियता फिल्मों से बहुत बढती है। कवियों ने बहुत सारे कवि-सत्य तथ्य पैदा तो कर दिए पर चीजों को लोकप्रिय बनाने में फिल्मों के सामने कहीं नहीं टिक पाये. स्विस में गायों की कुछ बड़ी घंटीयाँ भारतीय पर्यटक जितने में खरीदते हैं उतने में भारत में गाय आ जायेगी ! और 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे ' का इस घंटी-विक्री में बहुत बड़ा योगदान दिखता है... फिर फिल्मों में दिखाई गई जगह ढूंढ़ कर वहां फोटो खिचवाना तो आम बात है.
और कुछ हो ना हो आतंरिक पर्यटन बढ़ाने में फ़िल्म उद्योग बड़ा अच्छा काम कर सकता है, अपने देश में अच्छे जगहों की कोई कमी तो है नहीं। पर बाहर शूटिंग करने का मजा भी तो कुछ और होगा, ये तो फ़िल्म-बनाने वाले ही जानें.
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फिलहाल ये आलाफूस युनुसजी की 'छोटी सी बात' वाली श्रृंखला की इस टिपण्णी से आई। आभार.
~Abhishek Ojha~
narayan narayan
ReplyDeleteसही बात है। फिल्मों का समाज में बहुत असर पड़ता है। फिल्मी दुनिया का आकर्षण आदमी को अक्सर उनसे जुड़ी चीजों या बातों का अनुकरण करने को प्रेरित करता है।
ReplyDeleteबहुत सही, हम भी मांग के देखेंगे चिकन आलाफ़ूस...
ReplyDeleteवैसे हिन्दी फ़िल्मों में हीरा चाटकर मरने वाले सीन को भी बचपन में हम सच मान बैठे थे ।
आपने हासिल फ़िल्म देखी है? हमारे हास्टल में रणविजय सिंह (इरफ़ान खान) वाले किरदार के लोग बडे फ़ैन थे और हम खुद भी ।
अरे भाई मुझे भी सुबह सुबह नोस्टालजिक कर दिया आपने -विद्या सिन्हा का अलसाया सौन्दर्य भी सहसा जीवंत हो उठा -आईये कभी बनाते हैं चिकन अलाफूस भी -तब यह वास्तविक सत्य हो जायेगा ! कमबख्त नोस्टाल्जिया तो ख़त्म होगा !
ReplyDeleteबहुत बढिया लिखा आपने ! चिकन आलाफूस का जिक्र तो और भी ताजगी दे गया ! :)
ReplyDeleteवैसे आपने सही कहा की फिल्म बड़ा लीड करती है समाज को ! ताजा उदाहरण की शोले का भूत अभी तक जिंदा है और हमारे ब्लागीवुड के मशहूर निर्देशक कुश साहब नामी सितारों के साथ फ़िर से शोले बना रहे हैं ! लगता है ब्लागीवुड में एक नया ट्रेंड सेट होने जा रहा है ! :) शुभकामनाएं !
@Neeraj Rohilla
ReplyDeleteनीरजजी 'हासिल' हमारे यहाँ भी बहुत लोकप्रिय हुई. हमने भी कई बार देखी... लेकिन यहाँ चर्चित फिल्मों से हट कर थी तो इसलिए उसका नाम नहीं लिया.
हाँ हमको भी याद आ गई वो छोटी सी बात.
ReplyDeleteहे हे हे ऐसी ही एक डिश आज कल मेरे घर में बड़ी फेमस हो गई है.... परात मशरूम कढ़ाही पनीर के कंपटीशन में :) :)
ReplyDeleteहां..हां.. चिकन अलाफूस ! बहुत बढिया डिश लगती है ! मुंह में पानी आ रहा है ! हमारेंग्पुर में बनती है दाल मटकी तडके वाली ! बहुत लाजवाब !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट.
ReplyDeleteढेर सारा कुछ याद आ गया. चिकेन आलाफूस सुनकर असरानी का चेहरा....अशोक कुमार जी...विद्या सिन्हा. मेरी बहुत ही फेवरिट फ़िल्म है.
परसों रात ही देख रही थी, छोटी सी बात, उस समय़ एक बार तो मेरे दिमाग में भी आया था कि ये चिकन आलाफ़ूस होता क्या है, आपने जानकारी दे ही दी
ReplyDelete:) बढ़िया ....छोटी सी बात पूरी घूम गई आँखों में ..:)
ReplyDeleteचिकन आलाफूस
ReplyDeleteनाम पढ़ते ही लगा कि हमारे लिये आउट-आफ कोर्स चीज है। पर जोर लगाकर पोस्ट पढ़ ही गये! :)
नीरज रोहिल्ला जी से सहमत, हम भी बचपन में जेम्स बाण्ड को असली ब्रिटिश जासूस ही समझते थे… और अब मेरा बेटा हैरी पॉटर को असली जादूगर समझता है :) :)
ReplyDeleteओझा भाई तुम रहते कहां हो ?स्विस मै या भारत मै, अगर स्विस मै हो तो किस जगह ? जरुर बताना शायद हम दिसम्बर मै एक दो दिन के लिये जुरिख के पास आये.
ReplyDeleteभाई हम तो यह चिकन आलाफ़ूस ??? नही भाई हम नही खाते आप का यह चिकन??? लेकिन आप का यह चिकन आलाफ़ूस पढने मै बहुत सुन्दर लगा.
धन्यवाद
यूँ तो हम भी शाकाहारी हैं पर लगता हे मस्ती के लिए ये जुगत हमें भी अपनानी पड़ेगी।
ReplyDeleteफिल्मेँ,
ReplyDeleteफैशन से लेकर
कई झूठी और सच्ची बातोँ को
हमारे मन मेँ
सदा के लिये स्थापित कर देतीँ हैँ -
ये किस्सा मज़ेदार रहा अभिषेक भाई
- लावण्या
लवली शाट
ReplyDeleteलवली शाट
ReplyDeleteअच्छा लिख रहें हैं .बधाई .फिल्में तो समाज का आइना होती ही हैं
ReplyDeleteचिकन आलाफूस, भई नाम तो बडा मजेदार है। लेकिन हमारी बदनसीबी की एक तो हमने इसका नाम तक नहीं सुना, दूसरे वेजीटेरियन जो ठहरे, अगर पता चल भी जाए कि कहां यह मिलती है, तो भी क्या फायदा?
ReplyDeleteha ha..kya mast movie thi. saare charecter jaandar.. aur chicken alafus kya tha..ye to ham bhi nahi samajh paaye the.
ReplyDeleteचिकन अलाफूस का ज़िक्र कर आपने फ़िर से छोटी सी बात की याद दिला दी.........वैसे मैं भी शाकाहारी हूँ मगर चिकन अलाफूस मिल जाए तो खाऊंगा मैं भी......
ReplyDeleteबड़ी लज़ीज़ अलाफूसात्मक पोस्ट रही.
ReplyDeleteवैसे अगर कभी रेसिपी मिले तो ज़रूर बताइयेगा. यह डिश तो किसी वैष्णव भोजनालय में ही मिलेगी.
हमें तो चिकन अलाफूस याद नहीं पड़ता है भई! इसकी एक ही वजह हो सकती है और वह यह कि यह फ़िल्म फ्लॉप नहीं हुई होगी. हम ठहरे सिर्फ़ फ्लॉप फिल्में देखने वाले - जो फ़िल्म पहले शो में देखी वो समझो उसी दिन उतर गयी.
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति के लिये बधाई
ReplyDeleteफ़िल्म तो देखी थी पर इतने गौर से नही पर हाँ दिलवाले में गाय की घंटिया याद है......क्या कहूँ आपकी नजर का भी जवाब नही
ReplyDeleteदुर्भाग्य कि शाकाहारी हूँ /और बड़ा दुर्भाग्य फ़िल्म देखता नहीं हूँ /अब आपको भी हाइकू के नियम पता चल ही गए है तो बढ़िया है खूब जमेगी /जब थोड़े में काम चले तो घणी म्हणत कुण करे
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