जुलाई २००२, हाल २ प्रांगण, आई आई टी कानपुर।
चल खोल... ।
इतना सुनते ही बिना रुके फटाफट आवाज़ आती थी। मेरा नाम 'एक्स' है... मेरे बाप का नाम ... 'वाय' ... भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान द्वारा आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा में मेरा अखिल भारतीय स्थान 'ज़ेड' है । मैं यहाँ 'अ' विभाग में नामांकन के लिए आया हूँ । मैं 'बी' शहर से आया हूँ । मेरे शौक हैं... ।
हिन्दी में ये सब बोलना कईयों के लिए तो बहुत मुश्किल का काम था, पर एक बार रटने के बाद लोग बोल ही लेते थे। सबसे ज्यादा दिक्कत दक्षिण भारतीयों को और वो भी डिपार्टमेन्ट का नाम बोलने में... कंप्यूटर साइंस को संगणक विज्ञान और मेकनिकल को यांत्रिकी अभियांत्रिकी, इलेक्ट्रिकल को विद्युत तक तो ठीक है पर धातु विज्ञान एवं धातुकर्म अभियांत्रिकी में लोग अटक जाते थे और फिर हर एक गलती पर गाली खाओ... । और फिर तर्क तो हो ही जाता था की ये गलत है... हिन्दी में ये नहीं कुछ और बोलते हैं ... ।
खैर यहाँ तक तो हो जाता था... पर बात आई होब्बिस की... । बहुत सोचने पर भी कुछ समझ में नहीं आता था ... और सामने वाले को तो बस गाली देने का बहाना चाहिऐ। फिर सुनाई पड़ा ... कुछ लोग बोल रहे थे ... हमारा शौक है खाना खाना ! कुछ ने कहा गाना गाना.... वगैरह वगैरह। गाना तो हम कह नहीं सकते थे... सो खाना पर ट्राई किया... सामने वाले ने तुरत कहा अबे किसका सुनके बोल रहा है... खाना खाने का शौक है तो फिर एक पाव का शारीर क्यों है? चलो फिर हमने कहा सोना... । कितने घंटे सोता है? १० घंटे... तो इसे हॉबी कहते हैं मैं तो १२ घंटे सोता हूँ। चल तू ये ही बता की हॉबी किसे कहते हैं?
अब ये एक और समस्या आ खड़ी हुई....
जिसे हम खाली समय में करते हैं।
.... अबे चुप खाली समय में तो मैं सोता हूँ, अपने घर फोन करता हूँ ... तो क्या ये हॉबी है?
जी .... मैं और बता रहा था अभी पूरा नहीं बोला पाया था, ... वो काम जो हम अक्सर करते हैं और जिसे करने में आनंद आता है।
अब क्या-क्या कमेंट्स आते थे और क्या-क्या मतलब निकाले गए मैं आपको नहीं बता सकता.... मेरे समझ में ये नहीं आता था की सामने वालों को इतना कुछ कैसे आता है। हमने बताया हिन्दी की पुस्तके पढना, सिक्के एकत्रित करना, अखबार पढना, फिल्में देखना, घूमना। आप सोच रहे होंगे की चलो जान बच गयी... हाँ एक दो बार तो बची पर... ऐसे भी मौक़े आये...
अबे मिश्रा इसे हिन्दी पढ़ने का शौक है बे पूछ इससे कुछ... पाठ्यक्रम की कहानियो और कविताओं के अलावा प्रेमचंद तक ही हम संभाल पाते थे ... अखबार पढना तो हॉबी होती ही नहीं और फिल्मों के तो ऐसे उस्ताद थे कि आप न ही बोलें तो बेहतर है। सिक्के वाली बात थोडी झूठ बोल के निकल जाती थी... और घूमने में फिर ये आ जाता था की कहाँ-कहाँ घूम के आये हो? बस ख़त्म बात .... ! खैर वो वक्त निकल गया और अगले साल हम भी लोगो को चुप कर देते थे... ।
आपको बता दूं कि ये रैगिंग के दृश्य थे... ।
पर एक बात तो साफ हो गयी कि कुछ होब्बिस तो होने ही चाहिये। सोचना शुरू किया कि मैं क्या करता हूँ ... जिस काम को करते समय मुझे बाक़ी संसार का ध्यान न रहे.... ऐसा क्या है जो मैं घंटो कर सकता हूँ... ऐसा क्या है जो करते समय दिमाग कुछ और न सोचे यानी फ्री हो जाये सारी चिंताओं से...।
अंततः कुछ काम ऐसे मिल गए और अब मैं कह सकता हूँ कि मेरे शौक क्या हैं। पहला तो बहुत ही अजीब है... समुद्र के किनारे बैठना... पता नहीं इसे हॉबी कह सकते हैं कि नहीं पर हाँ इतना मैं जानता हूँ कि मैं समुद्र के किनारे बैठकर लहरों को देखते हुए सब कुछ भूल जाता हूँ... । यही एक काम है जिसमें मेरा दिमाग इधर-उधर नहीं भटकता... बिल्कुल फ्री... । एक एकांत किनारे पर मैं घंटो अकेला बैठ सकता हूँ।
दूसरा भी कुछ अजीब सा ही है... किताबों की दुकान .... बस एक किताबों कि दुकान या लाइब्ररी .... । अलग अलग सेक्शन्स और नयी पुरानी किताबें... । किताबें पढना भी अच्छा लगता है मुझे, पर ये देखना कि लोग कैसी-कैसी किताबें लिख जाते हैं... और किसने किस विषय पर कौन सी किताब लिखी है... ज्यादा अच्छा लगता है । और फिर घूमना ... तैरना... फिल्में देखना... पर न तो सारी मूविस अच्छी लगती हैं ना सारी किताबे... । खाना बनाना मुझे अच्छा लगता है... ।
पर क्या अच्छा लगने को ही हॉबी कहते हैं?
~Abhishek Ojha~
सुंदर लेख। अच्छा लिखते हैं आप।
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