Sep 30, 2009

डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ महात्मा गाँधी

०२ अक्टूबर २०३०: सरकार ने आज एक विज्ञप्ति जारी की जिसके अनुसार 'इंडिया दैट इज भारत' की जगह 'डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ महात्मा गाँधी' कर दिया गया. इसके साथ ही सरकार का दो साल पहले का 'भारत' को देश का राष्ट्रीय नाम घोषित करने वाला फैसला रद्द हो जाएगा. कई लोगों ने इसका विरोध किया है... विपक्ष का कहना है कि सारे दस्तावेजों पर परिवर्तन करना बहुत महंगा होगा जबकि प्रधानमंत्री ने कहा है कि सारे दस्तावेजों को इलेक्ट्रोनिक कर दिए जाने के बाद इस खर्च का कुछ ख़ास असर नहीं पड़ेगा. उधर गृहमंत्री ने कहा है कि इसी gandhi तरह के बेबुनियाद सवाल उठाये गए थे जब हमने 'भारत' को देश का राष्ट्रीय नाम घोषित किया था. भारत गणराज्य, भारतवर्ष, हिन्दुस्तान जैसे कई नामों में से हमने सबसे सटीक नाम को जब राष्ट्रीय नाम घोषित किया था तब भी कई लोगों ने यह आरोप लगाया था कि हमारे पास कुछ भी राष्ट्रीय घोषित करने को नहीं बचा इसलिए हम देश के नाम के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. लेकिन हमने तब भी जनता की भावनाओं का सम्मान किया था और आज भी कर रहे हैं. सोचिये तो शोर्टफॉर्म में ‘ड़ीआर महात्मा गाँधी’ कितना अच्छा लगेगा. लोग डॉक्टर महात्मा गाँधी भी कह लिया करेंगे.

उधर एक मंत्री के ब्लॉग पोस्ट से नया विवाद खडा हो गया है. अपने ही मंत्री से ऐसी पोस्ट देखकर सरकारी खेमे के कई लोग सकते में है. मंत्रीजी ने अपनी पोस्ट में कहा है कि ये तो होना ही था. इतिहास इस बात का गवाह रहा है... जो कुछ भी राष्ट्रीय घोषित हो जाता है वो धीरे-धीरे विलुप्त हो जाता है. चाहे वो राष्ट्रीय पक्षी हो, पशु हो, खेल हो, भाषा या नदी. गंगा के राष्ट्रीय नदी घोषित होने के बाद ही मुझे तो ये समझ में आ गया था. कैबिनेट मीटिंग में तो पानी को राष्ट्रीय सम्पदा घोषित करने पर भी विचार चल रहा है. वैसे सच में बात ये है कि सरकार के पास अब राष्ट्रीय घोषित करने के लिए कुछ बचा नहीं है. पहले किसी सरकार द्वारा चालु की गयी परियोजना का नाम नयी सरकार अपने नेताओं के नाम पर रख लेती थी. लेकिन जब से योजना शुरू होने के पहले ही नेताओं के नाम पर फैसला होने लगा तब से नयी सरकारों के पास अपने नेताओं के नाम पर घोषित करने के लिए भी कुछ नहीं बचा. पिछले दिनों एक नेता ने २० वर्षीय पुराने पुल का नाम अपने नाम पर रख लिया था तबसे एक नयी होड़ चालु हो गयी.

कई नेताओं ने इस ब्लॉग पोस्ट पर मंत्री का इस्तीफा माँगा है.

उधर बहनजी ने लगभग दो दशक पहले बनाए गए स्मारकों को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करवाने की मांग की है. उनका कहना है की राष्ट्रीय स्मारकों में आ रही कमी को देखते हुए यह कदम जरूरी हो गया है.

हिंदी दिवस पर हिंदी ब्लोगरों के एक संगठन ने हिंदी को ब्लॉग्गिंग की राष्ट्रीय भाषा बनाने की मांग की है और कांग्रेस पार्टी ने एक्सवायजेड गाँधी को प्रधान मंत्री का नया उम्मीदवार बनाते हुए प्रधान मंत्री का राष्ट्रीय उपनाम ‘गांधी’ करने की मांग की है…

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और मेरा अलार्म बज गया… मैं ०२ अक्टूबर २०३० से ०१ अक्टूबर २००९ पर वापस आ गया... सोचा जल्दी से ये पोस्ट ठेल दूं नहीं तो भूल जाऊँगा. वैसे सुना है सुबह के सपने सच होते हैं :)

~Abhishek Ojha~

Sep 22, 2009

उनके प्यार का ग्राफ

मैंने बहुत कोशिश की ये जानने की कि आखिर हुआ क्या हमारे रिश्ते में? लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. इस 'ख़ास रिश्ते' की शुरुआत बाकी कई रिश्तों से बेहतर तरीके से हुई थी लेकिन अंत इस तरह होगा ऐसा कभी नहीं लगा. अंत तो मैं अभी नहीं कहूँगा क्योंकि मैं तो अभी भी उसे चाहता हूँ… मैंने इस रिश्ते को हमेशा ही अहमियत दी और आज भी देता हूँ पर वो ये समझे तब न? मैं तो उसके नफ़रत के बदले भी उसे प्यार करता हूँ काश ! एक बार वो ये जान पाती. २ साल के इस उतार चढाव में पहले एक साल मेरी जिंदगी के सबसे अच्छे दिन थे. फिर कुछ बातों को लेकर जो अनबन चालु हुई... उस समय शायद हमारा रिश्ते के सबसे अच्छे दिन थे. यह सुनते हुए कल मैंने एक अरसे बाद अपने मित्र के चेहरे पर मुस्कान देखी. स्वाभाविक है आगे सुनने की रूचि बढ़ गयी.

...पर वक़्त के साथ कुछ बातें बदलती हैं. उसके साथ कुछ आदतें-चीजें बदलनी पडती हैं. ये वो क्यों नहीं समझती? मैंने तो उसके बाद भी... और आज भी. वो मुझसे जितना नफ़रत करती है मैं उससे उतना ही प्यार करता हूँ. मैं मानता हूँ उसकी नफ़रत के साथ मेरे प्यार में भी एक तरह की स्थिरता जरूर आ गयी है, पर ये नफ़रत में नहीं बदल सकता ये भी जानता हूँ. लेकिन वो तो...

पिछले कुछ दिनों से मैं परेशान हो गया हूँ. हमारे रिश्ते में कुछ नहीं बदल रहा है जैसे सब कुछ स्थिर हो गया हो. प्यार और झगडे कभी-कभार हो जाया करते थे लेकिन अब तो सब बंद हो गया ! Untitled शांत जल की तरह... सब स्थिर... अब इस शून्य से मुझे डर लगने लगा है. भाई मेरे एक पत्थर मार दे किसी तरह इस शांत जल में. प्यार ना सही नफ़रत की तरफ ही सही मुझे परिवर्तन चाहिए ! उसका सब कुछ इग्नोर कर के चुप्पी साध लेना मुझसे बर्दाश्त नहीं होता. मुझे एक पत्थर मारना ही पड़ेगा अब जीने के लिए !

क्या सच में हलचल ना रहे तो ऐसे रिश्ते स्थिर हो जाते हैं? या क्या सच में प्रेम-विवाह वालों के लिए समय के साथ चीजें बदलती हैं और इतनी ज्यादा बदल जाती हैं? मैंने ये बात सुनते-सुनते बगल वाला ग्राफ बना डाला. शायद ये उनकी कहानी को एक स्तर तक दिखला पाता हो.

अब वो बेचारा भी क्या करे... शादी के पहले और बाद में कितना कुछ बदल गया दोनों के लिए. परियों की दुनिया से जमीन पर वापस आना शायद इतना आसान नहीं होता. इस ग्राफ में दोनों अक्सिस पर कई गैप हैं और कई परिवर्तन हैं वो क्यों और कैसे हैं ये मैं ज्यादा समझ नहीं पाया, वैसे भी ये चीजें जीतनी उलझनदार होती हैं ठीक-ठीक समझ पाना आसान नहीं, जब खुद उसे स्थिरता का कारण नहीं पता तो... हमें समझ में आ जाए ये कैसे हो सकता है. बस ये परियों से जमीनी वास्तविकता वाली बात मुझे थोडी समझ में आई. बाकी जो समझ में आया वो ये कि यह एक काम्प्लेक्स नॉन-लीनियर ऑपटीमाइजेशन प्रॉब्लम की तरह है. जिसमें कई सारे कंस्ट्रेंट्स हैं. और फिर इन्हें हल भी उसी तरीके से करना होता है... हर एक स्टेप के बाद सारे कंस्ट्रेंट्स को साथ रखते हुए अगर मामलें में सुधार हो रहा हो तो उस तरफ और बढो वरना फिर दूसरी तरफ. इस तरह अगर ओपटीमाईज हो पाए तो शायद दोनों लाइनें पोजिटिव अक्सिस पर चलीं जाए ! 

फिलहाल कहीं मामला समझाने में मैंने कहीं और तो नहीं उलझा दिया ?

~Abhishek Ojha~

Sep 13, 2009

फर्माटिंग के चक्कर में बड्डे सेलिब्राट हो गया !

कुछ फर्माटिंग में गड़बड़ हुई और हमारा बड्डे सेलिब्राट हो गया. अब ये वाकया लिखने बैठा तो 'फर्माटिंग' और 'सेलिब्राट' याद आ गए. शब्द चर्चा थोडी देर बाद...

१२ सितम्बर को बिस्तर छोड़ने से पहले ही समीरजी का  ईमेल पढ़ा 'जन्म दिन की बधाई और शुभकामनाएं'. खुरपेंची डॉक्टर की तरह थोडा हम भी कन्फ्यूजियाये कि  कहीं रामखेलावन के पाड़े का असली जन्म दिन तो नहीं पता चल गया. पहला शक गया ऑरकुट/फेसबुक पर नींद में ही पूछा 'अबे ड्यूड ! आज किसी साईट पे मेरा बड्डे तो नहीं दिखा रहा?'
'नहीं भाई !'
मेरे ये मित्र सोशल नेट्वर्किंग साइट्स के अपडेट बाकी लोगों को दिखने के पहले नहीं तो साथ-साथ तो देख ही लेते हैं. फ्लैश ट्रेड्स की तरह. फिर? मुझे तो हर एंगल से अपने दो ही बड्डे याद हैं ९ दिसम्बर और १ जुलाई. और हम पैदा तो ९ दिसम्बर को ही हुए थे. १ जुलाई की बात फिर कभी पर सेलिब्राट तो ९ दिसम्बर को ही होता रहा है. फिर ख्याल आया... १२/९ और ९/१२. मतलब किसी से तो फर्माटिंग की गलती हुई है. यहाँ भी अमेरिकी हाथ निकला... दिन-महिना-साल फर्माट महिना-दिन-साल हो गया कहीं. वैसे भी ९/११ के बाद ज्यादा करने लोग यही वाला फर्माट पसंद करने लगे हैं. ये गडबडी किधर हुई ये तो नहीं पता चला पर एक ट्रेंड दिख रहा था कि सारी शुभकामनाएं अपने हिंदी ब्लागरों से ही आ रही है. एक बार डाउट तो हुआ... 'किसी ने पोस्ट तो नहीं लिख मारी?'

थोड़े-बहुत काम में व्यस्त रहा पर ये बधाइयों और शुभकामनाओं का सिलसिला शाम तक जारी रहा. शाम को एक दो मेल का सधन्यवाद जवाब भेजा ९/१२ और १२/९ की बात बताते हुए तो (वाया द्विवेदीजी) पाबलाजी का फोन आया. और फिर शुभकामनाओं के पेड़ की जड़ ये पोस्ट निकली.

फिलहाल हमें खुश रहने, जिंदगी में बड़े-बड़े काम करने... और ऐसी ही ढेर सारी शुभकामनायें मिली है. तो हम पूरे वीकएंड हैप्पी च लकी फील करते रहे. आप सबको धन्यवाद ऐसे ही किसी भी बहाने शुभकामनायें और आशीर्वाद भेजते रहिये... धन्यवाद के अलावा कुछ और वापस नहीं करूँगा इसकी गारंटी !  इस बार आप चुक गए तो ९ दिसम्बर को फिर मौका है भूलियेगा मत :)  पार्टी-सार्टी लेनी है तो पुणे आइये. वैसे भी जिस ब्लॉगर से मिलता हूँ जूनियर ब्लॉगर होने के नाते पे तो मुझे नहीं ही करने देंगे आप. क्यों? इसे कहते हैं दोनों हाथ में लड्डू...

कभी ऐसे सेलिब्राट होगा सोचा न था. कई बार ये सलाह जरूर मिली: 'करले बर्थडे सेलिब्रेट और बुला ले पार्टी में यही एक तरीका है...'. जो भी हो बढ़िया रहा :)

और अब फर्माटिंग: हमारी एक ट्रेनिग में एक उड़िया इंस्ट्रक्टर थे उनसे हमने सीखा संसार कि सारी समस्याएं या तो भर्जनिंग (version) से होती हैं या फर्माटिंग (Formatting) से. कम से कम प्रोग्रामिंग में तो यही होता है. तब से ये दोनों शब्द हमारे तकिया कलाम हैं :)

सेलिब्राट: कानपूर में एक बार बड्डे पार्टी से लौट कर आते हुए फैसला हुआ कि मेन गेट से हॉस्टल तक पैदल चला जाय. रास्ते में एक टुन्न सज्जन मिल गए... बड़े हैप्पी थे और वो बार-बार कहते 'आज मैं बहुत खुश हूँ और तुम सब मेरे दोस्त हो... आज हम सेलिब्राट करेंगे. लेट्स सेलिब्राट !' ये कह कर वो रुक जाते और एक क्लासिकल गाना गाने लगते. हम कहते 'रुक क्यों गए? चलते-चलते गाइए...'  और वो खड़े-खड़े फिर तान छेड़ देते 'चलते-चलते मेरे ये गीत....'.

~Abhishek Ojha~

Sep 1, 2009

कभी-कभी इत्तफाक से...

हर व्यक्ति के जीवन में कुछ लोग होते हैं जिनसे वो जाने अनजाने प्रेरणा लेता रहता है. अपने रिश्ते, आस-पड़ोस के लोगों से लेकर ऐतिहासिक, पौराणिक, काल्पनिक और वास्तविक चरित्रों तक से. और अब इन्टरनेट के जमाने में ये लिस्ट लम्बी हुई है इसमें कोई दो राय नहीं. हम जब भी किसी व्यक्ति विशेष के बारे में कुछ पढ़ते-सुनते हैं या किसी से मिलते हैं तो कहीं न कहीं उनके गुणों से प्रभावित तो होते ही हैं.

वैसे प्रभावित होने के लिए ये जरूरी नहीं कि हम उनसे मिलें भी. कई बार तो ये सिर्फ पुस्तकों में बसे चरित्र ही होते हैं या फिर ऐतिहासिक लोग. पर इनमें से अगर किसी से अपने जीवनकाल में कभी मिलना हो जाय तो फिर अतिशय ख़ुशी होना स्वाभाविक ही है.

वैसे प्रेरणा लेने की बात से याद आया. हर प्रेरणा लेने वाले एकलव्य को द्रोणाचार्य तो नहीं मिलते. अगर सोचे तो उस एकलव्य ने तो फिर भी द्रोणाचार्य से मिलने का सौभाग्य पाया.

द्रोणाचार्य को तो 'को नहीं जानत है जग में !' की तर्ज पर भला कौन नहीं जानता होगा/है. तो यहाँ हर एक 'साधारण जिज्ञासु' व्यक्ति की तुलना एकलव्य से करना बेमानी होगी. पर एक बात तो सत्य है... एकलव्य न सही अगर एक साधारण जिज्ञासु भी अगर द्रोणाचार्य से मिलता तो सीखता तो बहुत कुछ. भले ही उनके गुरुकुल में पहुचने के लिए पचासों शर्ते रही हो और हर किसी को ये अवसर ना मिलता हो. पर क्या एक साधारण इंसान की गुरु द्रोण से एक क्षणिक मुलाकात ज्ञान में वृद्धि और सहज हर्ष कि अनुभूति नहीं कराती होगी? क्या आप द्वापर युग के उस व्यक्ति की ख़ुशी का अनुमान लगा सकते हैं जिससे कभी कहीं आते-जाते कोई मिल गया हो. और अचानक ही पता चला हो कि वो जिसके साथ है वो स्वयं द्रोणाचार्य हैं ! वो भले ही घास काटने* का काम करता हो एक बार तो पूछता ही होगा 'क्या मैं भी तीर चला सकता हूँ?'.

यह हर्षातिरेक अनुभूति मुझे पिछले दिनों हुई जब मैं खुद इत्तफाक से एक ऐसे ही गुरु द्रोण से मिला. मेरी हालिया यात्रा के दौरान मुंबई एयरपोर्ट पर एक आचार्यजी मिल गए. मुंबई एअरपोर्ट पर लाउंज में यूँ ही आदतन वायरलेस इन्टरनेट देखकर ऑनलाइन हो गया. मैं अपने मित्र से थोडा जल्दी पहुँच गया था तो अकेले समय काटने का ये तरीका अच्छा लगा. थोडी देर में मेरे मित्र भी आ गए और फिर इधर-उधर की बातें होने लगी. उसी दौरान एक हंसमुख व्यक्ति से अचानक ही बातचीत शुरू हो गयी. वैसे तो किसी अनजान व्यक्ति से बात करना हमेशा ही सुखद होता है पर हम इंसानों ने दूरियाँ कुछ इस कदर बढा दी हैं कि कम से कम हवाई यात्रा में तो दो अनजान यात्रियों का आपस में बात करना एक सामान्य घटना नहीं लगती है. पर इस बार की घटना से तो मुझे सीख मिली कि अगली बार से जरूर एक दो यात्रियों से बात करूँगा 'जाने केही वेश में' कौन मिल जाए. वर्ना अब तक तो अक्सर बगल में बैठने वाले से भी औपचारिकता से आगे बात कम ही बढ़ पायी.

लैपटॉप, यात्रा, काम-धाम, पढाई, हाल-चाल की बात होते-होते अचानक उनका नाम पता चला तो एक बार भरोसा नहीं हुआ... और उसके बाद ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. हमने तो उन्हें यह बताकर कि 'हम आपको पहले से जानते हैं' और साथ में साबुत के तौर पे ये बता पाया कि उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय से सांख्यिकी की पढाई की थी. इसी में अपने को धन्य मान लिया.

खैर उमंग में बात ही कहाँ हो पाती है. इस बात को लेकर मन में लड्डू फूटते रहे कि दोस्तों को बताऊंगा... मैं किससे मिला ! किस्मत को धन्यवाद देता फ्रैंकफर्ट पंहुचा. फ्रैंकफर्ट में कुछ पल के साथ में एक त्वरित फोटो खिचाई. आचार्य तो आचार्य थे... पिता सामान आचरण. जब गुरु द्रोण कहा ही है तो ज्ञान कि बात करने वाला मैं कौन? बस इतना ही कहना है कि उनका विनम्र होना... !

हजारों चीजें सीखी हमने इस छोटी सी मुलाकात में. हम लोग फोकट में हीरो बने फिरते हैं... और जिन्हें आदर्श मानते हैं वो ! ज्ञान-श्यान अपनी जगह है... मुझे तो सबसे पहले उनमें एक अच्छा, विनम्र, हंसमुख और मिलनसार इंसान दिखा. वो गुण जो अब गिने-चुने विलुप्त हो रही प्रजातियों में ही पाए जाते हैं.

अगर आपको कभी ऐसे आचार्य से मिलने का मौका मिले तो ख़ुशी से फूलने की जगह अधिक से अधिक ज्ञान लेने की कोशिश कीजियेगा (ये एक सलाह है). वैसे मेरा अनुभव कहता है कि इतनी ख़ुशी मिलने पर कुछ समय के लिए कोई इच्छा नहीं बचती... ज्ञान प्राप्ति की भी नहीं.
ये आचार्य थे दीपक जैन. दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित बिजनेस स्कूलों में से एक केल्लोग बिजनेस स्कूल के डीन. उनसे मुलाकात की और बातें फिर कभी.... !

~Abhishek Ojha~

बड़े दिनों बाद इधर लौटा हूँ. व्यस्तता का रोना तो अब पुरानी बात हो गयी है... वैसे आपको पता ही है कि अगर समय मिला तो ब्लॉग्गिंग प्राथमिकता सूची में बहुत ऊपर आता है. हालिया संपन्न यात्रा में तरुणजी से मुलाकात हुई और कई बड़े लोगों से बात हुई आप तो सबको जानते ही हैं... समीरजी, लावण्याजी, अनुरागजी, नीरज भाई से भी १ मिनट :)

हमारे संस्थान के एक सीनियर हैं उनसे मिलना भी सुखद रहा... आप उन्हें शायद ही जानते होंगे. हमारी उनकी पहचान भी इसी ब्लॉग की बदौलत है. वैसे बड़े धाँसू फोटोग्राफर हैं, आप उनकी खिंची तस्वीरें देखकर आइये. उनसे एक हिंदी ब्लॉग बनाने का अनुरोध किया तो है मैंने... पर पहली प्रतिक्रिया से थोडा मुश्किल ही लग रहा है.


*वैसे घास काटना मेरे हिसाब से कहीं से भी कम कौशल का काम नहीं हैं. वो तो मुहावरा समझ कर लिख दिया है जी. बुरा मत मानियेगा :)