Apr 29, 2008

होली के दिन ट्रेन में.. !

इस बार होली का आधा दिन ट्रेन में गुजरा... इसके पहले की यात्रा आप पिछले दो पोस्ट (मुम्बई के ट्रैफिक में बिताये गये दो घंटे... और दिमाग में घूमते कुछ प्रश्न ... ! और विमान में भी मच्छर !) में पढ़ चुके हैं... दिल्ली से घर जाने के लिए ट्रेन से चला तो कई यादें, कई बातें दिमाग में घूमने लगी... दिमाग में चल रही उसी हलचल का एक अंश:

कानपुर सेन्ट्रल: (रात के समय)

कानपुर इतना प्रदूषित है फिर भी वहाँ बिठाये गए दिन अभी तक के सबसे अच्छे दिनों में से क्यों लगते हैं?
अरे कानपुर ही क्या किसी भी शहर में ऐसे लोग साथ हों और ऐसी जगह हों तो...
अनगिनत यादें... वो खूबसूरत दिन... I miss this place !

इलाहबाद:

दूर दूर तक फैले गेंहू के खेत,
ये पीले-पीले सरसों के फूल क्यों नहीं दिख रहे?
कुछ खेत कटे हुए भी तो है,
अरे बेवकूफ इस समय अब खेत कट रहे हैं तो पीले फूल कहाँ से दिखेंगे !
एक खेत में खड़ा लड़का दार्शनिक दृष्टि से ट्रेन को देख रहा है...
गरीबी लोगों को इसी उम्र में दार्शनिक क्यों बना देती है?
इसकी होली नहीं है क्या?
बच्चे तो ट्रेन और प्लेन देख कर खुश होते हैं, उछलते हैं,
पर ये दार्शनिक दृष्टि...
इसे फिलोसफी पढ़नी चाहिए...
चुप...! फिलोसफी पढ़नी चाहिए... आज होली है और यहाँ खाने के लाले पड़े हैं... फिलोसफी पढ़नी चाहिए !, ये शहर में रह के लोग इंसानों की तरह सोचना क्यों छोड़ देते हैं?

लकड़ी लेकर घर वापस लौटती औरतें, मवेशी चराते लोग... इनकी होली का क्या?
होली हो या दीवाली पेट भरना तो जरूरी है...
वाह! ये देखो आम भी बौरा गए हैं? हजारी प्रसाद भी इधर से ही गए थे क्या?
तभी तो उन्होंने किताब लिख डाली...
अरे आम तो मिलेंगे नहीं अभी?
क्या यार !... सरसों के फूल, आम, ये खेत...
सब एक साथ नहीं हो सकते क्या? इन सबके साथ एक सप्ताह हो तो छुट्टी में घर आने का मज़ा आ जाए!

लो बनारस आ गया.... वाह इसे कहते हैं होली... एक-एक आदमी पर इतना रंग... वाह!
रास्ते में इलाहबाद से ही अजीबो-गरीब बीमारियां और उनके इलाज के लिए हकीम-वैद्य का प्रचार (दीवारों पर) ट्रेन से दिखता आ रहा है?
इतना प्रचार? इतने लोग इन बीमारियों से ग्रस्त हैं क्या?
उन्ही प्रचारों के बीच गेरुआ रंग से लिखा हुआ दिख जाता है:
कश्मीर से कन्याकुमारी, भारत माता एक हमारी.
जरूर किसी बच्चे ने लिखा होगा... बड़े हो जाने के बाद तो सबको ये सब बकवास ही लगता है...
इससे अच्छा हकीम उस्मानी का प्रचार नहीं लिखेंगे कुछ पैसे तो आयेंगे !

एक बड़ा सा बोर्ड:
मुसलमान भाइयों को ईद मिलादुनवी मुबारक !
क्यों भाई मुझे मुबारक क्यों नहीं? हद है! इसमें मेरी क्या गलती है अगर मैं मुसलमान नहीं हुआ तो...
मुझे भी मुबारकबाद चाहिए... होली की भी और ईद की भी...

अखबार में छपी ख़बर और तस्वीर:
अमर-अकबर-अन्थोनी सब खुश, इस वर्ष होली, ईद और गुड फ्राइडे सब साथ-साथ ! दैनिक जागरण पढने का भी अपना ही एक मज़ा है :-)
चलो कुछ तो अच्छा है...
ट्रेन में पड़ोसी का अखबार पढ़ने का भी अपना मज़ा है :-)
अखबार भी ख़त्म.

अरे बेवकूफ बैग में लैपटॉप पड़ा है इतनी इबूक्स पड़ी है... बैठे-बैठे समय काट रहा है... चल कुछ पढ़ ही ले...
लैपटॉप खुला, लोग अजीब सी निगाहों से देख रहे हैं... मैं धर्मवीर भारती की लाइनों में खो गया... कनुप्रिया !

उस तन्मयता में - आम्र मंजरी से सजी मांग को
तुम्हारे वक्ष में छिपकर लजाते हुए
बेसुध होते-होते
जो मैंने सुना था
क्या उसमें कुछ भी अर्थ नहीं था?

कनुप्रिया के साथ-साथ यात्रा भी समाप्त !

~Abhishek Ojha~

11 comments:

  1. बहुत गहरी और दार्शनिक निगाहों से देश का सच दिखता हुआ सफर,पर दुःख इसी बात का है कि ये सच्चाइयां सब को दिखायी नही देतीं.

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  2. सच है ......बड़े होने के बाद 'भारत माता ' जैसे विषय पर समय व्यर्थ न हो जाएगा ? इससे अच्छा अमरीका या लंदन में जीवन कितना सुहावना है ...........इसकी बात न करे ?

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  3. हम्म काफी फिलासफिकल मूड में लिखा है। ये विसंगतियाँ तो हैं ही और जल्दी जाने वाली भी नहीं।

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  4. mood mein badlav behad achcha hai. very good!

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  5. बहुत डूब कर लिखा है महाराज-कनुप्रिया की पंक्तियाँ:

    उस तन्मयता में - आम्र मंजरी से सजी मांग को
    तुम्हारे वक्ष में छिपकर लजाते हुए
    बेसुध होते-होते
    जो मैंने सुना था
    क्या उसमें कुछ भी अर्थ नहीं था?

    -एकदम सही मूड में पढ़ी.

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  6. वाह कया कहना, पंचरगा आचार की तरह से मजा आ गया,

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  7. Thats a really simplistic, original but good post. It has many facets if I read it carefully.

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  8. सफर का तजुर्बा जिस तरह आपको ओर समझदार बनाता है गरीबी के कुछ अपने तजुर्बे होते है जोकम उम्र से ही शुरू होते है ओर इन्सान को दार्शनिक बना देते है.....

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  9. bhut acche bhai, aaj 1st time aap ka blog padha, accha laga,

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  10. bahut gahrai se aapne safar ko socha aur badi rochak bhasha mein kaagaz par utara.....sach aur kewal sach.

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  11. this template is far better...and true one has to stand for himself today and ending India was actually symbolic (at least I thoght while writing)...

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