Apr 17, 2008
मुम्बई के ट्रैफिक में बिताये गये दो घंटे... और दिमाग में घूमते कुछ प्रश्न ... !
ये लोग इस तरह भाग क्यों रहे हैं?
किसी चीज़ के पीछे भाग रहे हैं क्या?
कहीं मिठाई तो नहीं बँट रही?
या फिर किसी चीज़ से दूर भाग रहे हैं?
कहीं जिंदगी से तो नहीं भाग रहे?
जिंदगी से कहाँ तक भागेंगे, कब तक?
बड़ी इमारत के बगल में झोपडियाँ...,
क्या फर्क पड़ता है... भाग तो सभी रहे हैं !
सिग्नल हरा हुआ लोग दौड़ रहे हैं...
गाड़ी वाले गाली दे रहे हैं...
मादर्च... मेरे टाइम पे ही लाल होता है... !
छोटे-छोटे बच्चे... भाई साब खिलौने ले लो, फूल ले लो...
चल भाग यहाँ से...
सिग्नल... किसी के लिए लाल, किसी के लिए हरा !
क्या ये शहर सिर्फ़ ट्रैफिक सिग्नलों पे ही रुकता है?
ऐसे शहर को सुना किसी 'राज' ने रोक दिया था?
क्या उसने पूरे मुम्बई का सिग्नल लाल करवा दिया था?
पर लाल हुआ तो किसी के लिए तो हरा हुआ होगा?
हाँ, हुआ तो था पर 'भइया' लोगो के लिए...
मुम्बई के लिए लाल और मुम्बई से बाहर के लिए हरा,
पर उनके लिए बाकी सारे सिग्नल तो पहले से ही लाल हैं!
और अगर उनको भगा दो तो ?...
तो बाकी मुम्बई क्या सिग्नल हरा रहते हुए भी ऐसे दौड़ पाएगी?
(एक शुक्रवार की शाम को वाशी से मुम्बई एअरपोर्ट तक जाने में लगे २ घंटो के बीच .. दिमाग में चल रही हलचल का एक अंश... )
~Abhishek Ojha~
(चित्र: साभार: http://www.mastek.com/images_new/img_01.jpg)
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ye savaal kon kare aor kis se kare?
ReplyDeleteये सवाल तो सड़क की तरफ़ देखते हुए दिमाग में उठ रहे थे... बस ! ख़ुद ही सवाल कर रहा था... अपने आप से.
ReplyDeleteआज यहाँ किया है... शायद किसी के पास जवाब हो !
मेरा एक मित्र पिछले साल मुम्बई गया था नौकड़ी करने(जी है तो बिहार का ही पर साफ्टवेयर प्रोफ़ेशनल है और उंची तन्खाह पर गया है और अंग्रेजी फर्राटेदार बोलता है सो भैया नहीं कहलाता है).. बहुत उहापोह में था कि कैसे रहूंगा उस भागती दुनिया में.. आज लगभग 8-9 महीने बाद उसका कहना है कि अब इस भागने की जिंदगी ही सबसे अच्छी लगने लगी है और वापस लौटने का मन भी नहीं करता है.. शायद यही है मायानगरी की माया..
ReplyDeleteहर दिन मेल करता है कि आज कैसे भाग कर कंपनी की बस पकड़ी.. और हर दिन एक नया अनुभव रहता है.. :)
चलना ही जिन्दगी हे भाई, चलता पानी कभी बदबु नही मारता, कभी बासी नही होता,वेसे ही जिन्दगी हे भागदोड रही हे जिस वक्त थम गई वो आखरी घडी हो गी, या कोई आलसी की जिन्दगी हो गी
ReplyDeleteअच्छा चित्रण है मनोविचारों का. हम तो ऐसे ट्रेफिक में फंस कर विचारों और यादों में ही गोता लगाते बीतते हैं. पढ़िये :)
ReplyDeletehttp://udantashtari.blogspot.com/2008/03/blog-post.html
धन्यवाद समीरजी... लिंक के लिए भी और टिपण्णी के लिए भी. वैसे आप के ब्लॉग पे ऐसा कोई पोस्ट नहीं जो हमने ना पढ़ा हो... :-)
ReplyDeleteपता नहीं - लेकिन मुम्बई का भागना ऐसे ही चलता है
ReplyDeleteP.S. - abhishek many thanks for neeraj's web page [he really looks ancient - but then we all do]. And "No" the name joshim is not IITK legacy but "Hari Mirch" is - it was the first ever hindi rag mag in IITK culfest history [ :-)].
इस मुम्बई मे हमने भी कुछ महीने गुजारे है.....ओर बहुत सारे सवाल रोज सर उठाकर तब भी इसी तरह से धमा चोकडी मचाते थे....आज भी सवाल जुदा है बस जेहन जुदा है....
ReplyDeleteइन्ही सवालो के जवाब बहुत बार ढूँढा करता हू..
ReplyDeleteबन्धुवर =लाल और हरे सिग्नल के रूप में आपने कितना बडा व्यंग्य कह डाला -एक बार तो सरसरी तोर पर पढ़ गया के कोई यात्रा का विवरण होगा मगर लगा की यह तो व्यंग्य है दोबारा पढा मुम्बई के बाहर हरा सिंगल कितने कितने इशारे कर रहा है किन किन की तरफ कर रहा है में तो हैरान रहा गया -यह मेरा सौभाग्य है की इत्तेफाकन आपका ब्लॉग खुल गया -सर्विस में और लेखन में तरक्की करो
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