एक साधारण इंसान कला के नाम पर खुबसूरत पेंटिंग और मूर्ति तक ही जानता है। पहली बार जब किसी माडर्न आर्ट के एक विशाल संग्रहालय में अगर चला जाय... तो क्या होगा? ...होगा क्या, होता है !
'क्या है ये?'
'इसे आर्ट कहते हैं?'
'उफ्फ़... ये देखो ! हद ही है... कुछ भाई पोत के टांग दो !'
'अरे पोत के ही क्यों, कुछ भी ठोंक दो कहीं भी... उसमें दो-चार चीजें चिपका दो, कुछ बाँध के... कचरे की पेटी से निकाल के कुछ छिड़क दो... ! भई ऐसा तो हमारे चौराहे पर एक पागल पोटली बांधे खड़ा रहता है... कभी-कभी अपने आपको ट्रैफिक पुलिस समझ के ट्रैफिक कंट्रोल भी करने लगता है... इतनी मेहनत करने से अच्छा तो उसी को यहाँ बैठा देते, कुछ भला हो जाता बेचारे का !'
'उधर देखो, कीडा है या टैंक? मुझे तो गधे के ऊपर आलू लग रहा है...'
'चुप करो ना तो गधा है ना आलू... बन्दर के दिमाग में टमाटर के बीज अंकुरित हो रहे हैं !'
अब ऐसे चित्र का विवरण अगर पढ़ ले तो रही सही कसर भी पूरी हो जाती है... पता चला की ये पेंटिंग दिमाग की २१वीं और तनाव की २८वीं दशा के साथ-साथ... अब छोडो भी, इसके आगे पढने की हिम्मत ही कहाँ बचेगी बेचारे की!
... ये सब देखते-देखते अचानक सोच आती है... 'अरे ये तो मैं भी कर सकता हूँ!'
'पाँच लोगो के अंगूठे का छाप ले लूँगा... चलो अलग-अलग रंग में ! एक कागज पर दूध वाले की भैंस के पुँछ की छाप वो भी जब कीचड में सनी हो... अब ये लोग तो आर्ट के नाम पर किसी को नंगा कर के भी छाप ले लेते हैं... क्या फर्क पड़ता है उस छाप और भैंस की छाप में... दिखेगा तो एक जैसा ही !... होली के दिन एक कैनवास में चेहरा पोंछ लो... होली का इंतज़ार करने भी क्या जरुरत, एक बच्चे को खेलने के लिए ढेर सारा रंग दे दो और कैनवास... बीच में उसी पर पेशाब कर दे तो और अच्छा ! बच्चा छोटा होना चाहिए नहीं तो कुछ मतलब निकल आया तो बाकी जो कुछ भी हो... माडर्न आर्ट कहाँ रह पायेगा... एनसिएंट नहीं तो मेडिएवल आर्ट तो हो ही जायेगा !'
ये सब होते-होते आ जाता है असली विचार... 'बना तो मैं लूँगा ही, पचासों आईडिया हैं... लेकिन साला देखेगे कौन? प्रसंशा कौन करेगा? ये साले बड़े-बड़े चित्रकार, लेखक यही काम करें तो माडर्न आर्ट... हम करें तो कचरा ! इनके बकवास को लाखों-करोड़ों, हम कुछ अच्छा भी बनाएं तो गाली... धत साला पगला गया है... पता नहीं क्या पोत रहा है !... चलो कोई बात नहीं हम भी एक बार किसी तरह प्रसिद्द हो जाएँ फिर बनायेंगे माडर्न आर्ट... अरे चलो अभी बना लेते हैं... पता नहीं प्रसिद्द हो जायेंगे तब समय मिले न मिले। जब प्रसिद्द हो जायेंगे तब यही ठेल देंगे।'
यही सोचते हुए संग्रहालय से बाहर आ जाता है... बाहर आने के कुछ देर तक और कभी-कभी कुछ दिनों तक (निर्भर करता है की कितनी देर तक और कितने ध्यान से संग्रहालय में समय बिताया गया) उसे हर चीज में माडर्न आर्ट ही दीखता है।
और अब ब्लॉगरी... अरे धत तरे की... यही तो होता है।
एक नए, साधारण छोटे ब्लोगर को ब्लॉग जगत माडर्न आर्ट की तरह दीखता है... संग्रहालय की एक-एक बात से जोड़ लीजिये सब कुछ मिल जायेगा यहाँ भी। दो लाइन की तुकबंदी पता नहीं चले की कविता है या गद्य और लोग कह जाते हैं...
'आप महादेवी वर्मा के पाँचवे और निराला के बाइसवें अवतार की तरह लिखते हैं...'
क्या सोच के लिखा (वैसे ब्लॉग पर लिखने के पहले सोचना भी होता है क्या?) और लोग क्या समझ गए ! (टिपण्णी करने से पहले पोस्ट समझाना भी होता है क्या?)।
बेचारे छोटे ब्लोगर भी वो सब लिखते हैं जो बड़े... लेकिन वही माडर्न आर्ट वाली बात... एक बार प्रसिद्द हो जाओ फिर कुछ भी लिखो... 'वाह !'
वाह मिले न मिले लोग ध्यान से पढ़ते तो हैं... इसकी तो गारंटी होती है। होता तो तब भी माडर्न आर्ट ही है पर अब लोग दिमाग पर जोर देकर समझने की कोशिश करते हैं... छोटे का क्या? पढता तो कोई नहीं. बिना पढ़े कचरा और मान लिया जाता है... माल तो वही होता है।
छोटा ब्लोगर सोचता है चलो अभी लिखते जाओ... एक बार लोकप्रिय होने दो... फिर यही पोस्ट वापिस ठेला करूँगा... तब तो लोग पढेंगे ही, और पता नहीं तब समय मिले ना मिले !
1. आप सोचिये... आप पायेंगे की मॉडर्न आर्ट और ब्लॉग ऐसे समुच्चय हैं जिनके बीच एकैक फलन है... (There exists a one to one mapping between Modern art and blogging !) मैं चला... भैंस के पुँछ की छाप लेने :-)
2. अगर कोई छोटा-बड़ा (छोटी-बड़ी), मोटा-पतला (मोटी-पतली), ब्लोगर/नॉन-ब्लोगर इस पोस्ट से आहत हो तो क्षमा... मेरी गलती नहीं मॉडर्न आर्ट के संग्रहालय और ब्लॉग दोनों का संयुक्त असर है.
~Abhishek Ojha~
अभिषेक भाई,
ReplyDeleteआज तो खूब हँसाया आपकी पोस्ट ने !
मोर्डन आर्ट हमेँ भी कुछ खास पसँद नहीँ ..अगर समझ जायेँ तब तो कुछ बात बने .
बेचारे कई ब्लोगर लिखते हैँ,अच्छा ही पर ना जाने क्यूँ, मेहनत की अपेक्षा सराहे नहीँ जाते
दुनिया मेँ किसी करवट चैन नहीँ जी :)
- लावण्या
टिपण्णी करने से पहले पोस्ट समझाना भी होता है क्या?
ReplyDeleteऔर क्या? बहुत सोच समझ कर करना पड़ती ही टिप्पणी...कितना समय जाता है तुम्हें क्या मालूम..करो तो मालूम पड़े. :)
बुर मान गये.मोटे वालों की कटेगरी में. हा हा!!
बहुत अच्छा स्टाइल है लिखने का......... पढ़ने पर अच्छा लगा।
ReplyDeleteआधुनिक कला पर यह आलेख भी आधुनिक कला का अच्छा नमूना है। बधाई।
ReplyDeleteओझा जी कमाल का लिखा ! यही है इन दोनों विधाओं का
ReplyDeleteअटल सत्य !
अगर कोई छोटा-बड़ा (छोटी-बड़ी), मोटा-पतला (मोटी-पतली),
ब्लोगर/नॉन-ब्लोगर इस पोस्ट से आहत हो तो क्षमा...
मेरी गलती नहीं मॉडर्न आर्ट के संग्रहालय और ब्लॉग दोनों का संयुक्त असर है.
बिल्कुल आहत नही जी ! बल्कि आज का सुपर हिट लेख !
धन्यवाद !
अच्छी तहरीर है...पढ़कर अच्छा लगा...
ReplyDeleteअभिषेक भाई ,बिल्कुल सही फरमाया आपने -एक बार पिकासो की चित्र प्रदर्शनी में एक चिम्पांजी द्वारा जानबूझ कर /शरारत वश बनायी गयी पेंटिंग रख दी गयी और लोग गच्चा खा गए ..तब से चिम्पांजी पेंटिंग्स का क्रेज ही चल पडा इसे देखें और मगन रहें -http://www.btinternet.com/~charles.nightingale/chimpanzee_painting.htm
ReplyDeleteमस्त और जबरदस्त लेख। :)
ReplyDeleteक्या खूब मिलाया है।
हा हा :) बहुत मजेदार ..बिंदास लिखा है आपने अभिषेक ...कम्बीनेशन बढ़िया किया है आपने :)
ReplyDeleteएक दम सही बात ......बिंदास अंदाज में .....( ब्लोगर्स वाली )पेंटिंग का अपना सिर्फ़ यही है की खूबसूरत रंग अच्छे लगते है....
ReplyDeleteमज़ा ला दिया आपकी इस पोस्ट ने...मॉडर्न आर्ट की सही तस्वीर पेश की, जब से ये आर्ट अस्तित्व में आया है हमें भी vishvaas हो चला है की हम भी penting कर सकते हैं....और देखिये हमने आपकी पोस्ट को ध्यान से पढ़ा है इससे ये तो साबित हो ही गया की आप बहुत बड़े ब्लोगर हैं... :)
ReplyDeleteबिंदास पोस्ट... बहुत शानदार.. लय में आ गये अभिषेक भाई..
ReplyDeleteबढ़िया मॉडर्न आर्ट कथा.
ReplyDeleteपोस्ट पुनर्ठेलन की अच्छी बात सुझाई! हमने तो ५०० से ज्यादा पोस्टें लिख मारी हैं। पर हमारे साथ यह है कि ज्यादा तर पोस्टें सामयिक हैं; पुनर्ठेलेबल नहीं! :-)
ReplyDeleteमाडर्न आर्ट के बहाने एक बढिया पोस्ट पढने को मिली, शुक्रिया।
ReplyDeletenicely effort to make relation of art ad blog
ReplyDeleteregards
हम्म, आज फ़ुरसत में टिप्पणी करते हैं :-)
ReplyDeleteहमने भी Houston Fine Arts Museums में जाकर अपनी सोच को एक बार कोसा था । उसके बाद किसी भी मंहगी सी जगह जाओ तो वहां टंगी पेंटिंग को निहारते लोग अजीब से लगते हैं ।
लेकिन एक दिन हमने खुद माडर्न आर्ट बना डाली । हुआ यूं कि हमारी मेज पर एक कैंची, स्टेपलर और काफ़ी कप होल्डर रखा था । हमने यूँ ही कैंची और स्टेपलर उठाया और कुछ ऐसा बन गया मात्र २ मिनट के समय में :-)
http://homer.rice.edu/~nrohilla/Modern_Art.jpg
हमारे विश्व विद्यालय का मस्कट उल्लू है (घरवाले समझते हैं इसी कारण हमें दाखिला मिला) । अगर आप हमारी कला में उल्लू की छवि देख पाये तो हम भी कृतार्थ हो जायें ।
अब बस इन्तजार है अपने आप के प्रसिद्ध होने का, जिससे इसे किसी मोटी आसामी को ऊंची कीमत पर माडर्न आर्ट के नाम पर बेचा जा सके :-)
'आप महादेवी वर्मा के पाँचवे और निराला के बाइसवें अवतार की तरह लिखते हैं...'
ReplyDeletebahut sahi line
Baaki to blogger aur modern art me bahut khoob compare kiya hai
"ना तो गधा है ना आलू... बन्दर के दिमाग में टमाटर के बीज अंकुरित हो रहे हैं!"
ReplyDeleteक्या बात है!
वाह! मैं सोच रहा हूँ कि एक ही तरह के विचार दो अलग-अलग स्थानों पर उठते हैं फिर भी इनमें इतना गहरा जुड़ाव कैसे हो जाता है। अद्वैत ब्रह्म की अवधारणा यहीं से निकली होगी।
ReplyDeleteयह तो मॉडर्न आर्टनुमा टिप्पणी हो ली। आपको बधाई।
ये तो पोस्ट माडर्न है भाई,
ReplyDeleteआपने इज्ज़त बढ़ाई.
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कमल का लिख रहे हैं आप
अभिषेक !
जमे रहिये......
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
वाह अभिषेक भइया ..अपने तो मन प्रसन्न कर दिया आज ..एकदम तिक्षन और सटीक
ReplyDeleteमैं अरविन्द जी के शोध से सहमत हूं.
ReplyDeleteमाड्रन आर्ट और मुक्तछंद कविता,
भाई बहन हैं.
राशी भी एक दोनो की.
खैर.. आपका चिंतन निठल्ला नहीं...hai..
'आप महादेवी वर्मा के पाँचवे और निराला के बाइसवें अवतार की तरह लिखते हैं...'
ReplyDeleteलाजवाब। सच में माडर्न आर्ट के बहुत करीब है ब्लॉगरी।
आप महादेवी वर्मा के पाँचवे और निराला के बाइसवें अवतार की तरह लिखते हैं... :)
ReplyDelete... ये सब देखते-देखते अचानक सोच आती है... 'अरे ये तो मैं भी कर सकता हूँ!' बहुत शानदार लेख..हँसाते हुए बीच-बीच में आत्मावलोकन के लिए प्रेरित भी करता है. लेख प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हौसला बढाता है.....बस सवाल इस बात का है कि बन्दा पढ़ते हुए स्वयं को किस जगह पर देख रहा है. यह हमेशा चर्चा का विषय बना रहेगा कि लोग मॉडर्न आर्ट बनाते क्यों हैं , और यह अभी तक चल क्यों रहा है..लेकिन ब्लोगिंग की दुनिया बहुत जल्दी अपने आपको श्रेणीबद्ध कर लेगी. बाकी तो दुनिया की रीत है. यहाँ इतनी पर्याप्त जगह है कि सब तरह के लोग अपनी लीला रच सकें , हाँ अनुपात बदलता रहता है. पुनः बधाई !! अनवरत रहे अभिषेक भाई.
ReplyDeletebhai Bindaas post . dhanyawaad.
ReplyDeleteबच्चा अभिषेक ' मारदन आर्त ' पर क्या मर्दान टिप्पिया चेपो हो कि मजै आए गवा !! असीरबाद ऐसेही कलमियाते रहो !!
ReplyDeleteaapne likha hai pachso idea hain,aapke pas kya thos hain, aadhar ke sath hain? tatavon ko jod kar vishay diya ja sakta hai magar idea.....mai bhi ishi ki talash me hoon....
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