प्राकृतिक खूबसूरती की बात ही कुछ और होती है ! आप मानते हैं न? मैं भी मानता हूँ लेकिन मैं ये भी मानता हूँ कि ना तो सभी प्राकृतिक चीजें खूबसूरत होती हैं और ना ही जो खूबसूरत है वो प्राकृतिक भी होता ही है. वैसे तो ‘खूबसूरत’ बड़ा व्यापक शब्द है और खबसूरती देखने वालो की नज़रों में... नहीं… नज़रों में तो नहीं होती. नजरें तो दर्पण और कैमरे की तरह जो होता है वही देखती हैं. जैसा है वैसे का वैसा दिखा देती है. कोई मिलावट नहीं. अगर खूबसूरती देखने वालो के नज़रों में होती तो खूबसूरती सबके लिए एक सी होती. मुझे लगता है खूबसूरती देखने वालो के दिमाग, दिल या फिर दिलो-दिमाग जैसी किसी जगह में होती होगी. वैसे तो ये प्यार-मुहब्बत वाला दिल भी कौन सा अंग है ये बता पाना मुश्किल है. तो इंसान का वो दिलो-दिमाग क्या देखकर खूबसूरती का फैसला करता है ये बता पाना तो... पर एक बात तो है कुछ भी उचित अनुपात में सम्पूर्ण सा हो तो उसे ज्यादा लोग खूबसूरत करार देते हैं. पर इस अनुपातीय सम्पूर्णता के हिसाब से अगर कुछ बिल्कुल दोषरहित दिखे तो उसके प्राकृतिक से ज्यादा कृत्रिम होने का संदेह हो जाता है. मुझे तो लगता है कि कुछ परफेक्ट दिखे तो उसके प्राकृतिक होने की सम्भावना कम ही है. बिन फोटोशॉप के कौन बनाता है जी पत्रिकाओं के कवर? भले कवर पर विश्वसुंदरी की ही तस्वीर क्यों ना हो ! कहने का मतलब ये कि आजकल जब कुछ परफेक्ट दिखे तो उसके कृत्रिम होने पर संदेह हो ही जाता है. साथ ही जो पूर्ण कृत्रिम ही है वो भी खूबसूरत होता है. प्राकृतिक खूबसूरती को टक्कर देने के स्तर तक खूबसूरत.
ऐसी ही एक कृत्रिम खूबसूरती की ओर मैं अक्सर देखता हूँ – मानव के प्रकृति पर विजय और कृत्रिम खूबसूरती का अद्भुत नमूना. मैं बात कर रहा हूँ मैनहट्टन की. कंक्रीट, स्टील और ग्लास के इस जंगल की अपनी खूबसूरती है. मैं कुछ प्राकृतिक जगहों को इस कदर खूबसूरत मानता हूँ कि मैंने इसे कभी उस नजर से देखा ही नहीं. पर वो खूबसूरती ही क्या जो आपके पूर्वाग्रह के बाँध को तोड़ आपकी नज़रों को अपनी ओर खींच ना ले.
... मैं हडसन पार पश्चिम से इसे देख रहा हूँ. आसमान में कभी कम कभी ज्यादा बादल तो कभी बिल्कुल नीला आकाश. शाम का समय और नीचे उफनती हडसन. इन सबसे परावर्तित होती किरणें. विभिन्न प्राकृतिक और कृत्रिम रंगों के अलग-अलग समय पर अलग-अलग मिश्रण कुछ नए से रंग बना देते हैं. इमारतों पर इन रंगों के मिश्रण और उन रंगों के चढ़ाव-उतराव (ग्रेडीएन्ट) को अगर नजरें देख पाएं तो दिलो-दिमाग के उस हिस्से को छूती हैं जहाँ से खूबसूरती परिभाषित होती है. खासकर सिंदूरी ढलती शाम के समय नीले ग्लास के भवनों पर ये विविध परावर्तन कभी-कभी गजब का रंग मिश्रण तैयार कर देते हैं. जैसे-जैसे शाम ढलती है ये रंग बदलता जाता है. रात को जगमग करता शहर, महीने के कुछ दिनों में चाँद और सामने नदी. उफनती हुई नदी जो कभी बिल्कुल शांत सी भी दिखती है. और कभी कभी पूरा शहर बादलों में ढँक सा जाता है - सब कुछ. गगनचुम्बी इमारतें तब नहीं दिखतीं... एक ही समय पर जल, आकाश, भूमिगत - हर तरह का छोटा-बड़ा परिवहन आँखों के सामने होता है. और मैं सोचता हूँ कि मनुष्य के प्रकृति पर विजय का कौन सा नमूना नहीं दीखता यहाँ से?
इस शहर से मुझे प्यार नहीं था. भीड़ भी कभी अच्छी नहीं लगती. पर धीरे-धीरे... वैसे तो कहीं भी कुछ दिन रहो तो वो जगह अच्छी लगने लगती है. [इस मामले में मुंबई मेरे लिए एक अपवाद रहा है. वैसे फुटकर ही रहना हुआ है मुंबई में. थोक के भाव से कभी दिन बिताये नहीं वहाँ]. पर प्यार नहीं होते हुए भी मैनहट्टन को दूर से यूँ देखना मुझे आकर्षित करता रहा. फिर सडको पर चलते हुए मुस्कुराने को कुछ ना कुछ मिलता रहता है. चाहे वो पब्लिक आर्ट हो या विचित्रतम कुत्ते, और उससे भी विचित्र इंसानी फैशन. ... फिर कुछ दिनों के बाद कुछ भी अजीब नहीं लगता - कुछ भी.
यूँ तो हर जगह एक दूसरे से अलग होती है. वैसे ही ये भी है. हर जगह की तरह इसकी भी अपनी विचित्रता है, अपनी खूबसूरती है. इस शहर का सबसे ज्यादा कुछ मुझे पसंद है तो वो दृश्य जिसका मैंने वर्णन किया. उसके अलावा विविधता और आजादी की सीमा. मुझे लगता है कि ये शहर कई मामलों में आजादी की सीमा तय करता है. जैसे मुझे अभी अचानक ख्याल आया कि कपड़ों की लम्बाई और महिला सशक्तिकरण के परस्पर संबंध पर कोई अध्ययन क्यों नहीं किया गया? संसार में कहीं बुरखे और घूँघट की लम्बाई कम पड़ती है तो कहीं धुप में पीठ पर पड़ा एक धागा भी ज्यादा होता है ! विषयान्तर?... ओके. बैक टू मैनहट्टन...
विविधता... पता नहीं इस स्केल पर संसार में किस नंबर पर आता है लेकिन मुझे यहाँ हर दूसरा आदमी संसार के किसी अन्य कोने से आया लगता है. हर चहरे पर अलग कहानी कहने को होती है. और हर आदमी एक अलग संस्कृति लेकर चलता नजर आता है. हर व्यक्ति आपस में किसी अनजान भाषा में ही बात करता नजर आता है. मैनहट्टन की सड़कों पर दो लोग अंग्रेजी में बात कर रहे हों इसकी संभावना बहुत कम ही होती है. वैसे किसी एक समय पर मौजूद लोगों में यहाँ कितने प्रतिशत पर्यटक होते हैं ये आंकड़ा मुझे मिला नहीं.
इस छोटे से क्षेत्र को देखकर कई विचार मन में भटकने लगते हैं. इस छोटी सी जगह में कैसे कैसे लोग रहते हैं. इसका सकल घरेलु उत्पाद कितने देशो के सकल घरेलु उत्पाद से बड़ा होगा? फोर्चून ५०० में से कितनी कंपनियों का मुख्यालय होगा यहां? कितने लोग यहाँ आये, गए और कितने हैं. हम इंसानों ने जीवन को कितना जटिल नहीं बना दिया है? और भी बहुत सारे भटकते विचार...
ये शहर अकेलापन महसूस करने की फुर्सत नहीं देता... आप कैसी भी सोच रखते हों आपके लिए कुछ ना कुछ है इस शहर में. हमारे सोच की सीमा तक जाने वाली कई चीजें. शायद ये ऐसी अकेली जगह नहीं है... पर मुझे कुछ जगहें इतनी पसंद हैं कि हर बात पर मैं उनसे इसकी तुलना करता था हूँ... फिर धीरे-धीरे पता नहीं कब से मुझे ये जगह कुछ अच्छी सी लगने लगी है....
अब रुकता हूँ वर्ना पोस्ट की लम्बाई मैनहट्टन से बड़ी हो जायेगी वैसे मन हो तो ये विडियो भी देख आइये. नहीं तो कोई बात नहीं !
*’मन्ना-हटा’ मैनहट्टन का तत्सम है
~Abhishek Ojha~
विविधता की सही कही। उस छोटे से क्षेत्र में मानो सम्पूर्ण संसार छिपा बैठा है, बिना देखे शायद अहसास ही न हो। मन ना हटे!?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आलेख (विडिओ भी)
ReplyDeleteएक नजर हमारी सीडनी पर भी डाल ली जाए !
ReplyDeleteइसी भीड़ में कई बार अकेलापन सघन हो जाता है.
ReplyDelete’मन्ना-हटा’ (मैनहट्टन ) को देख तबियत मस्त हो गयी,बहुत खूबसूरत नजारा,परिचित करने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteमानव-मन की स्वाभाविक सोच और उत्सुकता...एक वक्त के बाद किसी भी देश या शहर में रहने से प्यार हो जाना स्वाभाविक है..
ReplyDelete"मुझे तो लगता है कि कुछ परफेक्ट दिखे तो उसके प्राकृतिक होने की सम्भावना कम ही है." आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत..
निश्चय ही प्राकृतिक सौन्दर्य मन को एक शान्ति प्रदान करता है, पर मानवकृत सौन्दर्य भी अभिभूत करता है। मेधा और श्रम का अद्भुत संयोग।
ReplyDeleteअभिषेक जी , मैंअन हट्टन और सिलिकन वैली मुझे बहुत आकर्षित करते हैं . एक बार इन स्ताथानो को देखने की इच्छा है . इनके अलावा , बर्कले विश्विद्यालय और स्तान्फोर्ड विश्विद्यालय को भी देखने की इच्छा है . मेए वाटरलू विश्विद्यालय --कनाडा में विसिटिंग शोध छात्र हूँ. हमारे विश्विद्यालय से कुछ लोग न्यू यौर्क का टूर बना रहे हैं , लेकिन सायद तब तक मेए वापस इंडिया चला जाऊंगा . अगर जल्दी आना हुआ तो आपसे मुलाकात भी हो जाएगी.
ReplyDeleteविषयांतर से इतना घबरा क्यूँ गए....थोड़ा और चलने देते...विषयांतर...:)
ReplyDelete@अनुरागजी: 'मन ना हटे' - ये अच्छा अर्थ निकाला आपने. धन्यवाद.
ReplyDelete@आशीषजी: आपकी सिडनी तो मैनहट्टन की गर्लफ्रेंड जैसी खूबसूरत है :)
@राहुलजी: वैसे बात तो आपकी सही है. कई बार वो सारी बातें जो अकेलापन को दूर करती हैं वही बातें उसे और सघन भी बना देती हैं.
@मनोजजी: धन्यवाद.
ReplyDelete@मीनाक्षीजी: हमारी सोच कई बार मिल जारी है. बिल्कुल एक जैसी :)
@प्रवीणजी: 'मेधा और श्रम का अद्भुत संयोग' ये बिल्कुल सही विशेषण दिया है आपने. धन्यवाद.
ReplyDelete@गौरवजी: धन्यवाद. प्राकृतिक खूबसूरती का नाम चले तो सिक्किम का नाम मेरे मानस पटल पर हमेशा ही आता है. आपका न्यू योर्क आना हो तो जरूर बताएं. बहुत अच्छा लगेगा आपसे मिलकर.
@रश्मिजी: धन्यवाद. आपने वो बात पकड़ ली, जिसे लिखने में सच में मैं घबरा ही गया था.
ReplyDeleteमुझे विषयान्तर से डर लगता है. पर आपने कहा तो विस्तार दे देता हूँ, प्रतिटिपण्णी में ही सही :)
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बहुत पहले एक पोस्ट में मैंने छोटे कपड़ों को लेकर कहा था:
सन्दर्भ ये था: हर दो मिनट पर जुल्फों को ठीक करती हुई और अपने कपडों को नीचे खीचती हुई... एक लड़की. उसके लिए:
'मैं ये थोड़े ना कह रहा हूँ की ड्रेस ख़राब है ये तो कुछ ज्यादा ही अच्छा है... पर मैं ये कह रहा हूँ कि या तो ऐसा पहनो और निश्चिंत हो जाओ, जैसा की यूरोप में करती हैं... या फिर एक इंच बड़ा ही पहन लेने में क्या बुराई है...' [तब मैंने मैनहट्टन नहीं देखा था]
महिला सशक्तिकरण के मामले में मुझे उस दिन का इंतज़ार है जब लड़कियों को हर दो मिनट पर अपने कपडे नीचे करने की चिंता नहीं सताएगी. [और वो निश्चिन्त हो अपने जुल्फों को सुलझा कर पाएंगी :)] ये आजादी मुझे न्यूयोर्क में दिखती हैं. इस शहर को उस आजादी की सीमा की चिंता नहीं.
यूँ तो मैं पोस्ट 'आजादी की सीमा' और जो 'परफेक्ट दिखे उसके पूर्ण प्राकृतिक होने पर शक होता है' पर लिखने वाला था लेकिन... पोस्ट मैनहट्टन पर ही खतम हो गयी. पोस्ट पर फोटो भी ये लगाने की सोचा था ... लेकिन...
फिलहाल तो मैं अपने जैसों के लिए उस दिन की भी सोच रहा हूँ जब मुझ जैसे लोग भी हिंदी ब्लॉग्गिंग में निश्चिन्त हो 'विषयान्तर' लिख पायेंगे. विवाद की चिंता छोड़ :)
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मैनहटन की इन गगनचुंबी इमारतों की खूबसूरती हमारे सामने लाने के लिए धन्यवाद। वहाँ एक अप्रवासी की सोशल लाइफ कैसी है इस पर भी लिखें।
ReplyDelete@ अभिषेक,
ReplyDeleteबात तो आपने सही कही....आज भी लडकियाँ...सड़कों पर घूम लें...दोस्तों के साथ हों या ...अजनबियों के सामने...उन्हें कोई संकोच नहीं होता पर अगर कोई बड़ा बुजुर्ग सामने पड़ जाता है तो वे कॉन्शस हो उठती हैं....मुझे विपाशा बसु की वो फोटो याद आ रही है....जिसमे वे बेहद छोटे कपड़ों में जॉन अब्राहम की माँ के साथ बैठी थीं...और उनका एक हाथ क्रॉस करता हुआ...दूसरे कंधे पर था और दूसरा हाथ...क्रॉस करता हुआ घुटनों पर. मैने भी यही सोचा था...या तो ऐसे कपड़े मत पहनो...या फिर इतना आत्मविश्वास रखो.....:)
पर यह स्वाभाविक है...स्विमिंग कॉस्टयूम में कोई पुरुष भी...अपने पिता...ससुर...के सामने यूँ ही संकोच से भर जायेगा.
इस मामले में हिंदी ब्लोगिंग अभी सचमुच शैशव अवस्था में ही है. अभी तो आप जैसे शरीफ { बाकी सब भी शरीफ हैं बाबा, no offence :) }लड़के को बड़ी हिम्मत करनी पड़ेगी...'विषयांतर' लिखने के लिए.
अभिषेक जी , मुझे भी आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगेगा . इतने सालों से आपका ब्लॉग पड़ते हुए , मै आपका प्रसंसक बन गया हूँ. देखते हैं , अगर न्यू यौर्क में नहीं मिल पाता हूँ तो फिर आप से इंडिया में मिलने की कोशिश करूँगा. वैसे जब आप पिचली बार आई आई टी कानपूर आये तो हम चुक गए थे आपसे मिलने में .
ReplyDeleteखूबसूरती नजारों में नहीं नजरों में होती है। नकली खूबसूरती असली को मात दे तो रही है । चित्र वाकई सुन्दर है । यह चित्र आपकी उस बात के विपरीत है कि खूबसूरती व्यक्ति की नजर मे होती है। जो खूबसूरत है वो तो लगेगा ही । दूसरा चित्र और भी मनोहारी। वीडीओ क्लिप और भी शानदार । बहुत अच्छा लगा पढ कर और देख कर
ReplyDelete@मनीषजी: कभी उसपर भी लिखा जाएगा. वैसे मुझे अपनी उम्र के लोगों की ही लाइफ का पता है :) परिवार वाले भारतीय लोगों से कम ही मिलना जुलना हो पाता है.
ReplyDelete@गौरवजी: बिलकुल, मिलना तो होगा ही. वैसे शायद मिलने के बाद प्रसंशक न रह पाएं आप. मिलकर ये भ्रम भी तोड़ ही देते हैं :)
@बृजमोहनजी: धन्यवाद.
हमारे एक सीनियर कुलीग को कई बार जोर से चिल्लाते सुना, ’मन्ना कर।’ बाद में समझ आई कि जब उनसे कोई शरारत करता था(और कोई न कोई उनसे शरारत जरूर करता था) तो वो बी.पी. के मरीज होने के कारण एकदम से उबाल खा जाते थे और अपनी तरफ़ से कहते थे ’मत ना कर।’ एक दिन फ़िर उन्होंने वही कहा और मैं उनसे कह बैठा कि मत और ना दोनों का एक ही तो मतलब है। बदले में मैंने भी सुना ’मन्ना कर शरारत।’
ReplyDeleteएकदम प्राकृतिक तरीके से कहते थे, बिना किसी कृत्रिमता के और सुनने में खूबसूरत(?) भी लगता था वो तकिया कलाम। पोस्ट का टाईटिल देखकर लगा वैसा ही कोई वाकया है।
विषयांतर तो नहीं हो गया कमेंट में?
पढ़ा, लिंक्स भी देख/पढ़ आया।
ReplyDeleteइस सुन्दर आलेख को पढ़ा रुचिकर था, विषयांतर जो कहा आपने वो भी।
@संजयजी: विषयान्तर, अच्छे विषय की ओर लेकर जाए तो कोई बुरे नहीं :)
ReplyDelete@अविनाशजी: धन्यवाद.
खूबसूरती पर लिखी एक खूबसूरत पोस्ट...इस नए शहर को आपकी आँखों से देखा...और शायद कहीं दिल दिमाग में खूबसूरती रही होगी इसलिए शहर अच्छा लग रहा है...धुला धुला सा. नदी किनारे शहर वैसे भी बेहद खूबसूरत लगते हैं मुझे.
ReplyDeleteexcellent
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