ज़्यूरिक लेक… गर्मियों की शाम… दूर दिखता आल्पस और पानी में तैरते सफ़ेद बत्तख. एक के हाथ में चॉकलेट और दूसरे के हाथ में बत्तखों को खिलाने का चारा. आते ही ये सामान आपस में एक्सचेंज हो जाता. लैब से दोनों साइकिलें उठा सीधा यहीं आते. जगह ही ऐसी है और फिर जहाँ उसके दिमाग का तापमान पूरे दिन पर्शियल डिफ़्रेंशियल इक्वेशनस में घुसे रहने से बढ़ जाता तो ऋचा कहती कि गले में मेढक फंस गया हो जैसी बोली सुन के मेरे तो कान पक जाते हैं. वैसे यहाँ भी घुमा फिरा के उनकी बातें उन इक्वेशनस में ही अटक जाती...
कई दिनों से ऋचा के शादी की बात चल रही है… इस मुद्दे पर भी आजकल दोनों खूब बाते करते. एक दूसरे को भरपूर चिढाते…
‘सुन कल मैं इंडिया जा रही हूँ, टिकट नहीं कराया ना अभी तक तुने?’
‘जैसे मैं नहीं आऊंगा तो शादी ही नहीं करोगी !’
‘सच में नहीं करुँगी, तुझे क्या लगता है… अच्छा तू बता मैं ना आऊं तेरी शादी में तो?’
‘तू कैसे नहीं आएगी, बिना तेरे अप्रूव किये मेरी शादी होगी कैसे?’
‘तुने तो अप्रूव किया नहीं… तो मैं भी ना कर रही… अच्छा अपना पुराना आईडिया कैसा रहेगा? ये अटेंड करने का लफड़ा ही खतम कर देते हैं चल हम दोनों एक-दूसरे से ही शादी कर लेते हैं'
……
… इसके बाद दोनों चुप हो गए. ऐसा नहीं था कि ये बात पहली बार कह दी हो किसी ने… अक्सर ये बात दिन में चार दफा तो आ ही जाती. कोई भी कह देता. …‘कब कर रहे हो शादी?’. और दोनों हंस देते ‘हद है ! किसी को भरोसा ही नहीं होता हम दोस्त हैं !’. पर चुप्पी पहली बार छाई थी दोनों के बीच में… किसी ने कुछ नहीं कहा… कुछ भी नहीं. थोड़ी देर बाद ऋचा ने कुछ कहा था शायद. उसे ठीक-ठीक याद नहीं. फिर दोनों साइकिलें उठा चले गए.
…नहीं गया वो और शायद ऋचा की शादी भी हो गयी हो… अब भी वो बैठता है लेक के किनारे, रोज शाम हाथ में एक किताब लिए हुए. अक्सर बोर होते हुए मोबाइल में ऋचा पर अंगूठा थम जाता है. कई बार हरे बटन पर जाकर रुक गया… उसे भी पता है कि ये नंबर अब तक नहीं चलता होगा. उसकी मानें तो आज तक उसे नहीं पता ऋचा की शादी हुई या नहीं. दोनों बेस्ट-फ्रेंड थे (हैं?).
--
~Abhishek Ojha~
(ऐंवे ही ठेल दी आज ये पढते-पढते पक गया तो बीच में. बड़े पैराडॉक्स हैं जिंदगी में. वही दीखता है पर वही नहीं होता. एक उदहारण… मेरा फेसबुक स्टेटस: Abhishek Ojha is reading so much these days that he is not getting time to read what he wants to read.)
तस्वीर: ज़्यूरिक लेक, 04-जुलाई-2005.
डाली का चूका बन्दर और समय का चूका आदमी -बहरहाल हम तो आपके शुभाकांक्षी हैं !
ReplyDeleteबहुत सुंदर! बहुत पसंद आयी.. :)
ReplyDeleteशायद ज़्यूरिक लेक और वहाँ से दिखती आल्प्स पर्वत श्रंखला का असर हो..
वैसे आधी रात में पुने से १५ किमी दूर लेक के किनारे जहाँ सन्नाटा बजता हो.. ये पोस्ट वहाँ से भी आ सकती थी :)
लव्ड इट..
एक अच्छी अभिवयक्ति .
ReplyDeleteYou must try to call her... may be just for your call she is having that number... hope she is also missing this lake and evening... Well written and executed...
ReplyDeleteमुझे पसंद है ये वाला अभिषेक....ज्यादा नेचुरल लगता है .....कम बुजुर्गाया सा ....
ReplyDeletei love this post...
जबर्दस्त्त ....
ReplyDeleteवैसे ज्यूरिक लेक के किनारे तो जो न लिखा जाये थोडा है :)
ज्यूरिक लेक के किनारे सीढीयो पर हम भी घंटो बेठ कर आये.... लेकिन आप कही नही दिखे... हां बत्त्खे जरुर हमारे पास आ रही थी, बार बार, आप की मुलाकात बहुत कुछ कह रही है, अब हम क्या कहे
ReplyDeleteत्वरित रूप में कहने लायक ,जो कि सटीक हो...कुछ आ नहीं रहा दिमाग में...
ReplyDeleteफिर से आती हूँ ....
बढ़िया पोस्ट!!
ReplyDeleteपैराडॉक्स से ही बनती है ये ज़िंदगी. बिखरे पड़े हैं.
बढिया, उत्तम...
ReplyDeleteहमारे होस्टल में एक कहानी खूब चलती थी कि बरसों बाद एक लडका अपनी पुरानी मित्र से मिलता है जिसका एक छोटा बच्चा है। बच्चा पूछता है कि ये कौन हैं? तो कन्या कहती है, कि बेटा ये एक तुम्हारे मामा हैं लेकिन चाहते तो पापा भी बन सकते थे :)
अच्छी लगी आपकी भावनायें ..मेरे ब्लॉग का अवलोकन करें तो खुशी होगी..
ReplyDeletewww.kya-karu.blogspot.com
बलिदान दे प्रसन्न रहना सीखिये, नहीं तो बलिदान देने का साहस मत कीजिये।
ReplyDelete@Neeraj Rohilla: एक नंबर कमेन्ट ! :)
ReplyDeleteकहीं दोस्ती भी ना खो बैठें ....यह डर जुबान पर शब्द से पहले आकर बैठ जाता है...और ज़िन्दगी आँखों के सामने से निकल जाती है..
ReplyDeleteक्या आप ब्लॉग संकलक हमारीवाणी के सदस्य हैं?
ReplyDeleteहमारीवाणी पर ब्लॉग पंजीकृत करने की विधि
बढ़िया प्रस्तुति..हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामना
ReplyDeleteइस मूड में साहेब को पहली बार देख रहा हूँ.. अंदर कि बात पता लगानी पड़ेगी..
ReplyDeleteगजब और शानदार...
ReplyDeleteटोरंटो चले आओ!!
हिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!
Don't wait, ring up your Richa before it is too late.
ReplyDeleteलघुकथा पसन्द आयी।
ReplyDelete===================
उन्मुक्त जी ज़िन्दाबाद!
बेहतरीन...भावों को बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया है आपने...आपके शब्द कौशल का अनुपम उधाहरण है ये लघु कथा...
ReplyDeleteनीरज
अच्छी अभिवयक्ति,
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें:-
अकेला कलम...
बहुत अच्छा लगता है जब गणित के अलावा भी कुछ सुंदर कोमल पढने को मिलता है यहाँ । वैसे ऋचा की शादी हुई या ...................
ReplyDeleteissh rachna mein paripakwata dikhi.sunder lekhan ke liye badhai.
ReplyDeleteजिंदगी विरोधाभाषों से भरी है भाई.
ReplyDeleteपैराडाक्स की बात से सहमत हूं मैं, सही में बहुत से पैराडाक्स होते हैं ज़िन्दगी में...बहुत मुश्किल होता है कई की तो बात भी कर पाना...
ReplyDeleteबढ़िया लिख रहे हो भाई ।
ReplyDeleteलघुकथा पढी ,मार्मिक !,एक दीर्घ निश्वांस छोड कर, एक मर्तवा फिर पढी ।संसार में दस प्रतिशत लोगों के साथ तो एसा होता ही होगा
ReplyDeleteI am looking for Chikitsa ka chakkar by harishankar parsai jee. I read one of your comment with that mention so thought you might know where to find it. thanks in advance.
ReplyDeleteकिसी को भरोसा ही नहीं होता हम दोस्त हैं
ReplyDeleteजरुरत तो ज्यादा अपने भरोसे पर विश्वास की थी, दूसरे की बैटन की परवाह करेंगे तो रामजी की तरह पत्नी का भी त्याग करना पड़ेगा, ये तो महज़ दोस्ती थी...
लघु कथा असरदार थी.....
बधाई..
चन्द्र मोहन गुप्त