ये पोस्ट पुस्तक समीक्षा नहीं है... वरन एक पुस्तक पढ़ने का व्यक्तिगत अनुभव भर है. बस जैसे पुस्तक उठा ली गयी और फिर खत्म होने पर ही रखी गयी वैसे ही अब पोस्ट लिखना चालु कर दिया है तो... इस टटकी पढ़ी पुस्तक से जो बातें याद आएगी लिख दी जायेंगी. जिन्होंने ये किताब पढ़ने की सलाह दी थी उन्होंने ही इस पोस्ट लिखने की भी बात कही. योगदान है उनका इस ब्लॉग को जिन्दा रखने में, मुझे एक दुनिया से दूसरी दुनिया ले जाते रहने में. मेरी दिनचर्या को थोडा और व्यस्त करने में. और जब कांटेक्ट लिस्ट में ऐसा कोई नंबर ना मिले जिसे परेशान किया जाए ऐसे में एक ऐसा नंबर रखने के लिए जिस पर जाकर अंगूठा रुकने में ज्यादा सोचता नहीं. भुक-भुकाते इन्टरनेट कनेक्शन पर हमसे चैट करने वाले ये हमारे बुरधुधुर मित्र हैं. जिंदगी में पढाई अभी चालु आहे... तो इन दिनों रोज ५० पन्ने (वित्तीय गणित) पढ़ने का अपना लक्ष्य रहता है. पहले उसे पूरा करना और ये स्वार्थ कि १०-२० पन्ने ज्यादा पढ़ लूं ताकि उपन्यासों का जो जखीरा जमा कर रखा है वो भी पढ़े जाए. पर कई और इक्वेशन लक्ष्यों पर आगे बढ़ने नहीं देते. दिनचर्या को एक दिन का विराम सा देकर ये किताब उठा ली गयी... तो अब बातें 'कोहबर की शर्त' की.
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किताब पर अगर एक लाइन कहूँ तो... ' सुबह से शाम हो गयी, किताब खोलने के बाद मैं अपनी जगह से तब उठा जब किताब का आखिरी पन्ना आ गया और आँखे तब-तब हटी जब-जब ये लगा कि पुस्तक पर बुँदे टपक जायेंगी.' आधी पुस्तक पढ़ने के बाद (सिनेमा जहाँ ख़त्म हो जाता है) आगे पढ़ने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है. दुखों का अंतहीन सिलसिला... पर गर्मी के दिनों का खुली धुप वाला एक शनिवार, सामने बहती हडसन, हडसन पार मैनहट्टन और इस पार सेहत बनाने के लिए टहलते-दौड़ते लोग (इस दौडने वालों के व्यू में लडकियां भी शामिल कर ली जाएँ) का संयोग-माहौल बना. ये व्यू और पुस्तक में वर्णित संसार बार-बार एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाते रहे. व्यू का इंतना तेज परिवर्तन स्लॉटरहाउस ५ में बिली पिलग्रिम के साथ ही होता पढ़ा है मैंने (हाल ही में) और अनुभव संभवतः पहली बार.
मुझे टाइम ट्रवेल करा लाई ये किताब.
'लगभग' आधी पुस्तक वही है जो 'नदिया के पार' में दिखाई गयी है. पर पुस्तकें हमेशा ही ज्यादा प्रभावी होती हैं विशेषकर जगहों और चरित्रों के वर्णन में. फिर फिल्म के स्क्रिप्ट की अपनी सीमाएं होती हैं. पूरी तरह परिवेश और दृश्यों को दिखाना उनका लक्ष्य भी नहीं होता. पर जहाँ फिल्म में सुखांत होता है वहीँ से पुस्तक में दुखारम्भ होता है. एक के बाद एक... सुख के क्षण फिर तलाशने पर भी नहीं मिलते. पुस्तक के प्रभाव पर मैं शायद थोडा पक्षपाती हो जाऊं क्योंकि मेरा अनुभव कहता है कि अगर कुछ भी पढते हुए यदि उससे जुड़ाव हो जाए. लगे कि कहीं ना कहीं हमने भी ऐसा महसूस किया है. कुछ पढते समय अगर पात्रों के साथ-साथ चलना हो पाता है तो वैसा कुछ सच में बहुत अच्छा लगता है. वैसी ही पुस्तकें हमें अच्छी भी लगती हैं. हमारी पसंद की पुस्तकें (और लोग, गाने इत्यादि ) बहुत कुछ हमारे स्वयं के बारे में भी तो बता देते हैं !
कुछ पंक्तियाँ भले कितनी ही साधारण क्यों न हो वो हमेशा के लिए याद रह जाती है क्योंकि उसमें अपनी या अपने आस-पास की बात दिखती है. ये कहानी मेरे गाँव की है. वहाँ चलती हैं जहाँ मेरी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा गुजरा है. वो हिस्सा जिसे बचपन कहते हैं.. उसी गाँव में मैंने प्राथमिक शिक्षा पायी है जो पुस्तक में नायिका का भी गाँव है. और मैं घर जाने के लिए आज भी उसी स्टेशन पर उतरता हूँ जिसका वर्णन पहले पन्ने पर है. पुस्तक पढते हुए मैं उसमें आये हर रास्ते पर चल पाया. एक-एक दृश्य देखा हुआ मिला. एक एक चरित्र में किसी न किसी की छवि दिखती गयी. खेती के तरीके अब भी लगभग वही हैं. उन खेतों में आज भी भदई बोना जुए का खेल ही है... नावों और बैलों को छोड़कर आज भी सबकुछ लगभग वैसा ही है. अब जो बदल भी गया वो बचपन में देखा है. पुस्तक में आया बरगद का पेंड आज भी वैसे ही खड़ा है. मेरे बड़े पिताजी की ससुराल बलिहार के एक मिश्र घराने में ही है और चौबे छपरा-बलिहार के रास्ते सरेह के मेढ़ों और पगडण्डियों से होते हुए एक बार मैं भी पैदल गया हूँ. हमारे जमाने में सड़कें और बसें हो गयी थी पर मेरे बचपन में बूढ़े-बुजुर्ग लोगों को ये सब घूम कर जाने वाला रास्ता लगता - 'ऐ ओतना दूर घूम के के जाई !' जब तक वो घुमायेगा तब तक तो हम पहुँच जाएंगे... और लोग पैदल ही निकल लेते. साईकिल भी नहीं. एक बार पैदल आने के बाद मैंने कई बार सवाल किया है - 'बलिहार वाले रोज रेवती स्टेशन से पैदल जाते थे इतनी दूर? रोज?' और बरसात में?. सुन कर आश्चर्य होता कि लोग शादियों में, नाच-नौटंकी देखने तो कितनी दूर तक पैदल चले जाते. साइकिललक्जरी थी. कितने किस्से सुने हैं दहेज़ में दूल्हे का रेले साइकिल आ ओमेगा घडी के लिए नाराज होते.
बलिया शहर अर्थात कचहरी इत्यादि में काम करने वालों के लिए रेवती जैसे इन टीसनों (स्टेशन) के अलावा कोई और उपाय नहीं था.. स्टेशन से गाँव कितना भी दूर हो ! उस जमाने में दूरी ऐसे नापी जाती सुना है मैंने - बूढ़ा बरगद प्रेत की जगह पेंड जैसा दिखने लगा मतलब अब गाँव आने वाला है ! मोटे-मोटे खम्भे के दुवार वाला फलाने का पक्का मकान आता तब लोग सुस्ता लेते, फलाने कुंवे पर या किसी के बगीचे के पास दूसरा पड़ाव और सरेह में निर्धारित जगह से लेकर कुछ दुरी तक किसी न किसी की आत्मा भटकती. कई कुंवे और बगीचों के नाम भी किसी भूतों के नाम पर होते. 'अकलुवा बो के बारी' के सैकड़ों पेड़ों और बसवारी से होते मैं खुद स्कूल जाता था. कोई अकलुवा बो बगीचे के कुंवे में डूब मरी थी तब से उसका बगीचे और कुंवे पर उसकी आत्मा का राज हो न हो नाम तो था ही. अब वो बगीचा नहीं रहा एक एक करके सारे पेंड कटते गए .. पर पुस्तक पढ़ते हुए उन रास्तों से फिर जाना हो गया. पोस्ट लिखते हुए भी पुस्तक की जगह मैं अपने बचपन में ही चला जा रहा हूँ.
पुस्तक में आये बीस-बिगहवा खेत की कहानियां सुनी है मैंने. करइल माटी के खेतों में बिना खाद पानी इफरात में होने वाले चना-मटर उखाड़ कर खाते बचपन गुजरा। और बाल धोने के लिए उन खेतों की करइल माटी दूर-दूर के गाँव के लोगों को साइकिल पर ले जाते देखा है मैंने. वही करइल माटी जिसके ढेले पुस्तक में बारिश के बाद छितरा जाते हैं. बैद जी चौबे छपरा नहीं पड़ोस के अन्य गाँव के थे जिनकी ख्याति हमने बचपन में सुनी थी. जगहें तो वही थी पर पुस्तक में आये कुछ चरित्र भी किन से प्रभावित थे ये भी हमें पूछने पर पता चला.
आंचलिक शब्दों, दृश्यों और पात्रों से जुडने की जरुरत नहीं थी. अपनी भाषा, अपने पात्र, अपना गाँव।
पुस्तक में कई यादगार क्षण आते हैं चाहे वो थोड़े ढीले चरित्र के काका का चतित्र परिवर्तन हो, होली का वर्णन या फिर नदी पार करने वाले दृश्यों का जीवंत वर्णन. गाँव में हो रही नौटंकी और खेत के दृश्य. और फिर बचपन-किशोर के पड़ाव का मासूम वार्तालाप. पढते समय पाठक अपने आपको कहीं न कहीं आस पास बैठा पाता है. सरेह में चलते चन्दन-गुंजा के साथ और नदी पार करते उन नावों पर...
सब कुछ सही चल रहे माहौल हंसती-खेलती भोली मासूम जिंदगीयों में अचानक ही चरित्रों के मन में द्वंद्व और जीवन में असहनीय दुखो का जब सिलसिला चालु होता है तो आँखे कई बार नम हो आती हैं. किताब बंद कर आँख बचानी पड़ती है. कई बार पढते-पढते मन करता है कि ऐसा क्यों नहीं हो गया… पर किसी की गलती भी नहीं दिखती. सभी अपनी जगह पर सही दिखते हैं. लेकिन एक घर में त्रिभुज के तीन बिंदु की तरह जुड़े मगर अलग भी. क्या बिडम्बना है सभी एक दूसरे का भला चाहने वाले और फिर भी चीजें उलटी पड़ती जाती हैं - नियति की कठोरता.
पैराडॉक्स जिसका नाम है जिंदगी. हर कुछ पन्नों के बाद लगता है चलो थोड़ी संतुलित हुई कहानी…पर दुर्भाग्य का सिलसिला थमता ही नहीं और सब कुछ उल्टा होता चला जाता है. किताब कई जगह थोड़ी निराशावादी लगती है. लगता है कुछ भी करो जिंदगी मैं जो होना होता है वही होता है - यथार्थ का चित्रण. तो कई बार ठीक इसका उल्टा... चन्दन के दिमाग की हलचलें और उसकी दृढ़ता. कई डाइमेंशन में ले जाती है कहानी. ग्रामीण जीवन के कई पहलुओं का सटीक चित्रण तो है ही.
एक ही बार में समाप्त हो जाने वाली किताब निश्चय ही मोटी नहीं है (कीमत भी सिर्फ ५० रुपये). पर सोचे गए स्तर से कहीं ज्यादा दुःख पढने को मिल जाता है. पुस्तक पढते-पढते जब लगता है कि परिवेश, जगहों के नाम सब सही हैं और सारे चरित्र भी बिल्कुल वास्तविक से तो फिर कहानी भी सच सी लगने लगती है. मन को याद दिलाना पड़ता है कि नहीं ये सिर्फ कहानी है... वैसे कितनों को ही ऐसे समझौते करने पड़ते हैं जिंदगी में. मैं अपने आपको समझाने की कोशिश करता हूँ… सबकी परिणति शायद इतनी बुरी नहीं होती. कुसमय का शिकार भी कितने ही लोग होते हैं. पर अभी भी मन ये मानने को तैयार नहीं कि ये सभी एक साथ किसी की जिंदगी में हो जाते हों. वैसे इन सभी घटनाओं के एक साथ एक व्यक्ति के जीवन में हो जाने की सम्भावना शून्य भी तो नहीं !
डूबते-उतराते, इस दुनिया से उस दुनिया आते-जाते गंगा-सोना की धार दिमाग में और हडसन की धार सामने... एक शनिवार का दिन कुछ यूँ बीता.
~Abhishek Ojha~
पोस्टोपरांत अपडेट: मेरे एक दोस्त ने सवाल लिख भेजा है "आपका ब्लॉग पढने वालों में से कितने जानते होंगे कि 'कोहबर' का मतलब क्या होता है?". मुझे लगता है... लगभग सभी?
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किताब पर अगर एक लाइन कहूँ तो... ' सुबह से शाम हो गयी, किताब खोलने के बाद मैं अपनी जगह से तब उठा जब किताब का आखिरी पन्ना आ गया और आँखे तब-तब हटी जब-जब ये लगा कि पुस्तक पर बुँदे टपक जायेंगी.' आधी पुस्तक पढ़ने के बाद (सिनेमा जहाँ ख़त्म हो जाता है) आगे पढ़ने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है. दुखों का अंतहीन सिलसिला... पर गर्मी के दिनों का खुली धुप वाला एक शनिवार, सामने बहती हडसन, हडसन पार मैनहट्टन और इस पार सेहत बनाने के लिए टहलते-दौड़ते लोग (इस दौडने वालों के व्यू में लडकियां भी शामिल कर ली जाएँ) का संयोग-माहौल बना. ये व्यू और पुस्तक में वर्णित संसार बार-बार एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाते रहे. व्यू का इंतना तेज परिवर्तन स्लॉटरहाउस ५ में बिली पिलग्रिम के साथ ही होता पढ़ा है मैंने (हाल ही में) और अनुभव संभवतः पहली बार.
मुझे टाइम ट्रवेल करा लाई ये किताब.
'लगभग' आधी पुस्तक वही है जो 'नदिया के पार' में दिखाई गयी है. पर पुस्तकें हमेशा ही ज्यादा प्रभावी होती हैं विशेषकर जगहों और चरित्रों के वर्णन में. फिर फिल्म के स्क्रिप्ट की अपनी सीमाएं होती हैं. पूरी तरह परिवेश और दृश्यों को दिखाना उनका लक्ष्य भी नहीं होता. पर जहाँ फिल्म में सुखांत होता है वहीँ से पुस्तक में दुखारम्भ होता है. एक के बाद एक... सुख के क्षण फिर तलाशने पर भी नहीं मिलते. पुस्तक के प्रभाव पर मैं शायद थोडा पक्षपाती हो जाऊं क्योंकि मेरा अनुभव कहता है कि अगर कुछ भी पढते हुए यदि उससे जुड़ाव हो जाए. लगे कि कहीं ना कहीं हमने भी ऐसा महसूस किया है. कुछ पढते समय अगर पात्रों के साथ-साथ चलना हो पाता है तो वैसा कुछ सच में बहुत अच्छा लगता है. वैसी ही पुस्तकें हमें अच्छी भी लगती हैं. हमारी पसंद की पुस्तकें (और लोग, गाने इत्यादि ) बहुत कुछ हमारे स्वयं के बारे में भी तो बता देते हैं !
कुछ पंक्तियाँ भले कितनी ही साधारण क्यों न हो वो हमेशा के लिए याद रह जाती है क्योंकि उसमें अपनी या अपने आस-पास की बात दिखती है. ये कहानी मेरे गाँव की है. वहाँ चलती हैं जहाँ मेरी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा गुजरा है. वो हिस्सा जिसे बचपन कहते हैं.. उसी गाँव में मैंने प्राथमिक शिक्षा पायी है जो पुस्तक में नायिका का भी गाँव है. और मैं घर जाने के लिए आज भी उसी स्टेशन पर उतरता हूँ जिसका वर्णन पहले पन्ने पर है. पुस्तक पढते हुए मैं उसमें आये हर रास्ते पर चल पाया. एक-एक दृश्य देखा हुआ मिला. एक एक चरित्र में किसी न किसी की छवि दिखती गयी. खेती के तरीके अब भी लगभग वही हैं. उन खेतों में आज भी भदई बोना जुए का खेल ही है... नावों और बैलों को छोड़कर आज भी सबकुछ लगभग वैसा ही है. अब जो बदल भी गया वो बचपन में देखा है. पुस्तक में आया बरगद का पेंड आज भी वैसे ही खड़ा है. मेरे बड़े पिताजी की ससुराल बलिहार के एक मिश्र घराने में ही है और चौबे छपरा-बलिहार के रास्ते सरेह के मेढ़ों और पगडण्डियों से होते हुए एक बार मैं भी पैदल गया हूँ. हमारे जमाने में सड़कें और बसें हो गयी थी पर मेरे बचपन में बूढ़े-बुजुर्ग लोगों को ये सब घूम कर जाने वाला रास्ता लगता - 'ऐ ओतना दूर घूम के के जाई !' जब तक वो घुमायेगा तब तक तो हम पहुँच जाएंगे... और लोग पैदल ही निकल लेते. साईकिल भी नहीं. एक बार पैदल आने के बाद मैंने कई बार सवाल किया है - 'बलिहार वाले रोज रेवती स्टेशन से पैदल जाते थे इतनी दूर? रोज?' और बरसात में?. सुन कर आश्चर्य होता कि लोग शादियों में, नाच-नौटंकी देखने तो कितनी दूर तक पैदल चले जाते. साइकिललक्जरी थी. कितने किस्से सुने हैं दहेज़ में दूल्हे का रेले साइकिल आ ओमेगा घडी के लिए नाराज होते.
बलिया शहर अर्थात कचहरी इत्यादि में काम करने वालों के लिए रेवती जैसे इन टीसनों (स्टेशन) के अलावा कोई और उपाय नहीं था.. स्टेशन से गाँव कितना भी दूर हो ! उस जमाने में दूरी ऐसे नापी जाती सुना है मैंने - बूढ़ा बरगद प्रेत की जगह पेंड जैसा दिखने लगा मतलब अब गाँव आने वाला है ! मोटे-मोटे खम्भे के दुवार वाला फलाने का पक्का मकान आता तब लोग सुस्ता लेते, फलाने कुंवे पर या किसी के बगीचे के पास दूसरा पड़ाव और सरेह में निर्धारित जगह से लेकर कुछ दुरी तक किसी न किसी की आत्मा भटकती. कई कुंवे और बगीचों के नाम भी किसी भूतों के नाम पर होते. 'अकलुवा बो के बारी' के सैकड़ों पेड़ों और बसवारी से होते मैं खुद स्कूल जाता था. कोई अकलुवा बो बगीचे के कुंवे में डूब मरी थी तब से उसका बगीचे और कुंवे पर उसकी आत्मा का राज हो न हो नाम तो था ही. अब वो बगीचा नहीं रहा एक एक करके सारे पेंड कटते गए .. पर पुस्तक पढ़ते हुए उन रास्तों से फिर जाना हो गया. पोस्ट लिखते हुए भी पुस्तक की जगह मैं अपने बचपन में ही चला जा रहा हूँ.
पुस्तक में आये बीस-बिगहवा खेत की कहानियां सुनी है मैंने. करइल माटी के खेतों में बिना खाद पानी इफरात में होने वाले चना-मटर उखाड़ कर खाते बचपन गुजरा। और बाल धोने के लिए उन खेतों की करइल माटी दूर-दूर के गाँव के लोगों को साइकिल पर ले जाते देखा है मैंने. वही करइल माटी जिसके ढेले पुस्तक में बारिश के बाद छितरा जाते हैं. बैद जी चौबे छपरा नहीं पड़ोस के अन्य गाँव के थे जिनकी ख्याति हमने बचपन में सुनी थी. जगहें तो वही थी पर पुस्तक में आये कुछ चरित्र भी किन से प्रभावित थे ये भी हमें पूछने पर पता चला.
आंचलिक शब्दों, दृश्यों और पात्रों से जुडने की जरुरत नहीं थी. अपनी भाषा, अपने पात्र, अपना गाँव।
पुस्तक में कई यादगार क्षण आते हैं चाहे वो थोड़े ढीले चरित्र के काका का चतित्र परिवर्तन हो, होली का वर्णन या फिर नदी पार करने वाले दृश्यों का जीवंत वर्णन. गाँव में हो रही नौटंकी और खेत के दृश्य. और फिर बचपन-किशोर के पड़ाव का मासूम वार्तालाप. पढते समय पाठक अपने आपको कहीं न कहीं आस पास बैठा पाता है. सरेह में चलते चन्दन-गुंजा के साथ और नदी पार करते उन नावों पर...
सब कुछ सही चल रहे माहौल हंसती-खेलती भोली मासूम जिंदगीयों में अचानक ही चरित्रों के मन में द्वंद्व और जीवन में असहनीय दुखो का जब सिलसिला चालु होता है तो आँखे कई बार नम हो आती हैं. किताब बंद कर आँख बचानी पड़ती है. कई बार पढते-पढते मन करता है कि ऐसा क्यों नहीं हो गया… पर किसी की गलती भी नहीं दिखती. सभी अपनी जगह पर सही दिखते हैं. लेकिन एक घर में त्रिभुज के तीन बिंदु की तरह जुड़े मगर अलग भी. क्या बिडम्बना है सभी एक दूसरे का भला चाहने वाले और फिर भी चीजें उलटी पड़ती जाती हैं - नियति की कठोरता.
पैराडॉक्स जिसका नाम है जिंदगी. हर कुछ पन्नों के बाद लगता है चलो थोड़ी संतुलित हुई कहानी…पर दुर्भाग्य का सिलसिला थमता ही नहीं और सब कुछ उल्टा होता चला जाता है. किताब कई जगह थोड़ी निराशावादी लगती है. लगता है कुछ भी करो जिंदगी मैं जो होना होता है वही होता है - यथार्थ का चित्रण. तो कई बार ठीक इसका उल्टा... चन्दन के दिमाग की हलचलें और उसकी दृढ़ता. कई डाइमेंशन में ले जाती है कहानी. ग्रामीण जीवन के कई पहलुओं का सटीक चित्रण तो है ही.
एक ही बार में समाप्त हो जाने वाली किताब निश्चय ही मोटी नहीं है (कीमत भी सिर्फ ५० रुपये). पर सोचे गए स्तर से कहीं ज्यादा दुःख पढने को मिल जाता है. पुस्तक पढते-पढते जब लगता है कि परिवेश, जगहों के नाम सब सही हैं और सारे चरित्र भी बिल्कुल वास्तविक से तो फिर कहानी भी सच सी लगने लगती है. मन को याद दिलाना पड़ता है कि नहीं ये सिर्फ कहानी है... वैसे कितनों को ही ऐसे समझौते करने पड़ते हैं जिंदगी में. मैं अपने आपको समझाने की कोशिश करता हूँ… सबकी परिणति शायद इतनी बुरी नहीं होती. कुसमय का शिकार भी कितने ही लोग होते हैं. पर अभी भी मन ये मानने को तैयार नहीं कि ये सभी एक साथ किसी की जिंदगी में हो जाते हों. वैसे इन सभी घटनाओं के एक साथ एक व्यक्ति के जीवन में हो जाने की सम्भावना शून्य भी तो नहीं !
डूबते-उतराते, इस दुनिया से उस दुनिया आते-जाते गंगा-सोना की धार दिमाग में और हडसन की धार सामने... एक शनिवार का दिन कुछ यूँ बीता.
~Abhishek Ojha~
पोस्टोपरांत अपडेट: मेरे एक दोस्त ने सवाल लिख भेजा है "आपका ब्लॉग पढने वालों में से कितने जानते होंगे कि 'कोहबर' का मतलब क्या होता है?". मुझे लगता है... लगभग सभी?
तुम्हारा तो टाइम ट्रेवल हो गया भाई, उन पाठकों का क्या जिन्होंने किताब भी नहीं पढी और नदिया के पार भी नहीं देखी? अच्छी किताबों के बारे में यूं ही जानकारी मिलती रहे तो हमारा जीवन भी धन्य हो जाए.
ReplyDeleteआभार!
Hamne bhi padha per apne ko smbhal nhi paya teen din duba rha na khane ki ichha hoti na batane ki apne bhawanatamak dukh ka karan itna dukh hai novel me ki usko Hamm aapse kaise bataye hamare pass word nhi aapne jo likha hai whi padh ke dil ko sukun kar Leta hun
Deleteऐसी किताबें पढ्ने का वक्त निकाल ले रहे हैं, यह क्या कम है ।
ReplyDeleteआंचलिक जुडाव ने शायद ज्यादा इफेक्ट डाला है आप पर ।
प्रविष्टि का रोम-रोम आत्मीय भाव बखान रहा है ।
आभार ।
एक अलग थलग से परिवेश में, दिक्काल में देशज रचना पढने का अपना अनुभव ही अलग रहा होगा -कोहबर की शर्त एक कालजयी रचना है !
ReplyDelete"नदिया के पार" तो देखी ......"कोहबर की शर्त" पर अब तक आँख नहीं गड़ाई !
ReplyDeleteआपका समय कहीं डूबने उतराने में तो बीता। मैं तो डूबा रहा अपनी अलस-झील में।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद
ReplyDeleteसचमुच बहुत बढिया उपन्यास है, कोहबर की शर्त. दस साल हो गये इसे पढे हुए... आभार एक बार फिर याद दिलाने के लिये. और हां, कोहबर का मतलब तो सभी जानते होंगे, क्योंकि ये उत्तर, मध्य और पूर्वी भारत में शादी की प्रमुख रस्म है. मैने तो हर शादी वाले घर में कोहबर लिखा देखा है, उसका पृथक कमरा भी. हो सकता है अन्य प्रान्तों में इसे किसी और नाम से जाना जाता हो.
ReplyDeleteहमारे यहां मध्यप्रदेश में सात पांच वचन कहते हैं जो दूल्हा दुल्हन आपस में एक दूसरे को देते हैं लेकिन शादी के तत्काल बाद ही भूल जाते हैं और कुछ सालों के बाद तो शायद कोई भी वचन याद नहीं रहता 😀
Delete
ReplyDeleteअहाहा... क्या याद दिलाया है ?
कल ही इसे दुबारा खोलता हूँ ।
इस किताब का नाम भर सुना है....पहले पन्ने से आखिरी तक बाँध कर रखा..तो निश्चय ही रोचक होगी...(पर कीमत बताने से या ज्यादा मोटी नहीं,बताने से क्या ...मिलनी भी तो चाहिए पढने को...)
ReplyDeleteफिल्म कभी भी किताब की जगह नहीं ले सकती..जो आठ पन्नों में वर्णित होता है..मात्र आधे मिनट के दृश्य में समेट लिया जाता है.
और जहाँ तक कोहबर शब्द के अर्थ का प्रश्न है...बहुत लोग नहीं जानते (चाहे तो poll करा लो :) ) क्यूंकि इस नाम से एक ब्लॉग भी है...जिसका अर्थ कई लोग मुझसे पूछ चुके हैं.
ऐसी किताबे हमेशा कहीं न कहीं जहन में रहती है ...नदिया के पार तो पढ़ी हुई है ...इसको कहीं तलाश करते हैं ..शुक्रिया
ReplyDeleteकोहबर क्या होता है ?? बता तो देते ...?
ReplyDeleteपहली बार डेल्ही से सूरत की ट्रेन यात्रा में बांचा था .इसे....मुझे याद है सर्दियों के दिन थे ओर रतलाम में कुल्हड़ की चाय पीते पीते हमने ब्रेक लिया था .....
ReplyDeleteअच्छा लगा तुमसे इस किताब के बारे में जानना। आगे भी ऐसी पोस्ट्स का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeletevery good darling
ReplyDeleteबड़ी खूबसूरती से लिखा है किताब के बारे में। बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteकोहबर के बारे में इस पोस्ट में लिखा है!
"कोहबर की शर्त" तो अब ढ़ूंढ कर लाना होगी...
ReplyDeleteयह उपन्यास काफी पहले पढा था और इसकी कथावस्तु भूल गया था । याद दिलाने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteमैनहटन - बलिहार और चौबे छपरा
ReplyDeleteगंगा - हडसन
न्यूयार्क - बलिया
ग्रेटा - गुंजा
एभी - अभिषेक
एक बढ़िया उपन्यास की भूमि बनती है। हाँ, यहाँ टिप्पणी कर गयी 'मुन्नी बदनाम' जी उस कथा को स्पाइसी भी बना देंगी। फ्री होकर एकाध साल का यह प्रोजेक्ट कर ही डालो। लेकिन अंग्रेजी में।
आपकी पुस्तक समीक्षा ने पुस्तक पढने की इच्छा तीव्र कर दी है...ये समीक्षा की सफलता ही है...बधाई
ReplyDeleteनीरज
इतनी अच्छी समीक्षा कि पुस्तक पढ़ने की तिव्र इच्छा जगा दी। धन्यवाद इतनी अच्छी पुस्तक की जानकारी देने के लिए।
ReplyDeleteअभिषेक जी कोहबर की शर्त की समीक्षा नही की पर समीक्षा से ज्यादा हो गया । किताब पढते पढते किताब को जी भी लिया आपने ऐसा ही होता है जब परिवेश जाना पहचाना देखा भाला है । किताब नही पढी पढना चाहूंगी जब मौका लगे । कोहबर होता क्या है बता देना ।
ReplyDelete'कोहबर' उस कमरे को कहते हैं जहाँ नवदंपति को विवाह के बाद ले जाया जाता है. यह बिहार के कुछ हिस्सों और उत्तर-प्रदेश के कुछ हिस्सों में बेहद प्रचलित शब्द है.
Delete@ ये पोस्ट पुस्तक समीक्षा नहीं है...
ReplyDeleteआपकी पुस्तक समीक्षा ने पुस्तक पढने की इच्छा तीव्र कर दी है...ये समीक्षा की सफलता ही है...बधाई
नीरज
इतनी अच्छी समीक्षा कि पुस्तक पढ़ने की तिव्र इच्छा जगा दी। धन्यवाद इतनी अच्छी पुस्तक की जानकारी देने के लिए।
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समीक्षा अच्छी करते हैं आप। :) हमारी भी यही राय है।
ताऊ पहेली ९५ का जवाब -- आप भी जानिए
ReplyDeletehttp://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_9974.html
भारत प्रश्न मंच कि पहेली का जवाब
http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_8440.html
ओझा बाबू
ReplyDeleteयह किताब मैंने अब तक नहीं पढ़ी थी मगर अब तो पढनी ही पड़ेगी
वैसे बहुत शानदार पोस्ट लगी है आपने
दुखी होने के लिए 50 रूपये भी ख़र्चे जाएं !
ReplyDeleteबहुत दिन से बुकमार्क करके रखा था, मगर आज पढ़ा हूँ.. बस ये बताओ कि तुम भेजोगे या मुझे छीननी पड़ेगी?
ReplyDeleteसार्थक लेखन के लिये आभार एवं “उम्र कैदी” की ओर से शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteजीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव भी जीते हैं, लेकिन इस मसाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये यह मानव जीवन अभिशाप बन जाता है। आज मैं यह सब झेल रहा हूँ। जब तक मुझ जैसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यही बडा कारण है। भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस षडयन्त्र का शिकार हो सकता है!
अत: यदि आपके पास केवल दो मिनट का समय हो तो कृपया मुझ उम्र-कैदी का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आप के अनुभवों से मुझे कोई मार्ग या दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये।
http://umraquaidi.blogspot.com/
आपका शुभचिन्तक
“उम्र कैदी”
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ReplyDeleteसर नहीं पढी यह किताव । आपका लेख पढा । यदि किताव भी पढी होती तो वाकई आपका लेख अच्छा लगता इसका अर्थकदापि नहीं है अभी अच्छा नहीं लगा क्योंकि या तो उस किताव के पात्र याद आते या घटना क्रम शायद आखें भी नम होती
ReplyDeleteभैया अब तो और कुछ नहीं,खाली ई बताओ कि कितबवा मंगाई कैसे जाय ????
ReplyDeleteआपने कहा समीक्षा नहीं है यह...लेकिन यह जो भी है,इतना बेजोड़ है न...कि क्या कहें...
ReplyDeletehum to intazar karte rahtein hain ki aapki post jaldi aye agli post ke liye aankhein bichhaein hain.sunder lekhan ki badhai.
ReplyDeleteआप टाइम ट्रैवलर हैं, सो 'फिल्मी पटना' देखने का आग्रह ईमेल से भी किया है.
ReplyDeleteमैने इस उपन्यास को पहली बार तब पढ़ा था जब मै क्लास ४ का विद्यार्थी था. फिर मै इस किताब को जाने कितनी बार पढ गया, तब मुझे पता भी नही था की नदिया के पार इसी उपन्यास पे आधारित है. एक बार दूरदर्शन पे नदिया के पार आ रही थी, तो मैने अपने पापा से कहाँ अरे ये तो लग रहा है कि जैसे मै " कोहबर की शर्त" देख रह हू. पापा मुझे बताए कि उसी पे बनी है.फिर पापा के कोइ मित्र "कोहबर की शर्त" को ले के चले गए, और वो वापस करना भुल गए. एक दिन मै बलिया रेलवे स्टेशन पे अपनी ट्रेन का इन्तजार कर रह था. अचानक मेरी नज़र वहा के एक बुक स्टाल पे रखी हुयी " कोहबर कि शर्त " पे गई. मैने खरीद लिया. जब-जब मुझे बलिया कि बहुत याद आती है, मै इसको जरुर पढ़ता हू. मुझे इसको पढ़ते हुए हमेशा ऐसा लगता है जैसे मै अपने बलिया मे हू और वहाँ की किसी गली मे घुम रहा हू. किसी किताब के साथ् ऐसा जुडाव मुझे केवल राही मासुम रजा कि "नीम का पेड और आधा गावं" मुन्शी प्रेमचन्द कि "प्रेमाश्रम और गोदान", धर्मवीर भारती के "गुनाहों का देवता" और कमलेश्वर कि "कितने पाकिस्तान" के साथ ही हो पाया है.
ReplyDeleteधन्यवाद दीपकजी.
ReplyDeleteकोहबर की शर्त. बीस साल हो गये इसे पढे हुए.।.. एक बार फिर इसकी याद दिलाने के लिये. धन्यवाद । कोहबर का मतलब तो सभी जानते होंगे, क्योंकि ये उत्तर, मध्य और पूर्वी भारत में शादी की प्रमुख रस्म है. मैने तो हर शादी वाले घर में कोहबर लिखा देखा है, उसका पृथक कमरा होता है ।
ReplyDeleteफिल्म नदिया के पार में इस उपन्यास की आधी कहानी ही प्रयोग हुई थी .उपन्यास की बाकी कहानी को लेकर नदिया के पार पार्ट 2 बननी चाहिए, जैसे पिछले वर्ष सचिन और राजश्री की फिल्म अखियों के झरोखों से फिल्म का पार्ट 2 फिल्म जाना पहचाना बनी थी
ReplyDeleteवैसे उपन्यास की बाकी कहानी क्या है
ReplyDeleteकहानी बहुत दुखद है। गुंजा की शादी चन्दन से नहीं होती बल्कि उसके बड़े भाई से हो जाती है। और फिर दुखो का अनवरत सिलसिला है... पतली सी किताब है। मिले तो पढ़िएगा।
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