Aug 23, 2008

पन्द्रह पंचे पचहत्तर, छक्का नब्बे... !

निवेश बैंकिंग और अंको का मस्त नाता है, आप चाहें न चाहें अंको से पाला पड़ता ही रहता है. तो हुआ यूँ के मैं एक स्प्रेडशीट खोले बैठा अंको को देख रहा था और कुछ ऐसा बोला:

'पन्द्रह छक्का नब्बे, सात पिचोत्तर... उम्म्म... कुछ एक मिलियन होना चाहिए'

अब क्या करें?... अपनी आदत है बीच-बीच में बोल देना... जो करता हूँ, कभी-कभी बीच में बोल भी देता हूँ. मुझे क्या पता था की लोग इतनी फुर्सत में होते हैं और एक-एक शब्द सुनते रहते हैं... मेरे बगल में जो सज्जन थे उन्हें बड़ा मजा आया ... उन्होंने पूछा:
'व्हाट यू जस्ट सेड?'
'नथिंग, आई वाज़ जस्ट लूकिंग ऐट दिस पोर्टफोलियो एंड सम नंबर्स असोसिएटेड विथ दिस !'

लेकिन इतनी आसानी से मान जाते तो पूछते ही क्यों? इतना तो वो भी समझ ही गए थे कि मैं क्या बोला था... लेकिन वो मेरे मुंह से सुनना चाहते थे... तो मुझे कौन सी शर्म आ जायेगी ! मैंने भी बोल दिया की कुछ नंबर जोड़-घटा रहा था और अपनी थोडी बचपन से आदत है... जोड़-घटाव करता हूँ तो उन्हें गुनगुना भी लेता हूँ ! ये गुनगुना लेने वाली बात उन्हें कुछ हजम नहीं हुई और उनके चेहरे के भाव से ऐसा लगा की अपच कुछ ज्यादा ही हो गया है... उनके सवाल का संतुष्ट हल उन्हें नहीं मिला, या फिर उन्हें जो मेरे मुंह से सुनना था वो नहीं मिला, या फिर गुनगुनाने वाली बात थोडी भारी हो गई !

मैंने सोचा की अपनी तरफ़ से थोडी दवा-दारु कर दी जाय मैंने कहा देखिये मैं जो गुनगुना रहा था आपको सुनाये देता हूँ: 'पन्द्रह दुनी तीस तियां पैंतालिस चौका साठ पांचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बिस्सा नौ पैन्तिसा झमक-झमक्का डेढ़ सौ !'

और मुड़ के फिर अपने डब्बे (कम्प्यूटर को डब्बा कहने की भी आदत है !) की तरफ़ देखने लगा... ऐसे काम करने के बाद सामने वाले का चेहरा देखने में जो मजा आता है वो शायद आप नहीं समझ सकते... वो आश्चर्य मिश्रित हँसी... हँसी मिश्रित उत्सुकता देखने लायक थी, इधर-उधर भी देख रहे थे की किसी और ने सुन तो नहीं लिया... कमाल है ! बोल में रहा हूँ और टेंशन उन्हें हो रही है... इतनी चिंता क्यों मोल लेते हैं लोग? पर इस गुनगुनाने का कमाल देखिये पास ही आके बैठ गए!
बोले: 'ये क्या था?'
मन तो किया की बोलूँ ये तुलसीदास की एक चौपाई है जिसमें कुम्भकर्ण बन्दर-भालुओं की गिनती करता है मजा तो बहुत आता लेकिन पीटने का डर हो तो चुप रह जाने में ही भलाई है !
'देखिये इसे पहाडा कहते हैं, आप जिसे टेबल कहते हैं ना, वही टू वन जा टू वाला, मेरी मुलाकात उससे थोडी देर से हुई उससे पहले से मैं इस दोहे चौपाई वाले को जानता हूँ और अब इस जन्म तो साथ नहीं छूटना इससे !'
वो मुझसे उम्र में बड़े हैं उन्हें लगा की क्यों बच्चे को परेशान करना बोले:
'पढ़ा तो मैंने भी पहाडा ही था लेकिन ऐसे नहीं, ये थोड़ा मस्त है और वैसे भी अब याद कहाँ है... बच्चों को रटाते-रटाते हम भी टेबल वाले हो गए हैं' वैसे ये भूल जाने वाली बात मुझे कुछ जमी नहीं... और इस भूल जाने वाली बात से ही याद आई हमारे दूर के रिश्ते की एक आंटीजी... आज से ३-४ साल पहले वो घर आई तो हिन्दी में बात कर रहीं थी... और उन्होंने कहा कि भोजपुरी तो वो भूल ही गई हैं, बच्चो के साथ रहते रहते अब बोल ही नहीं पाती! मैं उस समय कुछ ज्यादा ही छोटा था खैर उन्हें कुछ बोल तो अभी भी नहीं पाता बड़े रिश्तेदारों के सामने ना बोलने की आदत है अच्छी या बुरी पता नहीं ! बस बोलता ही नहीं :-)

हाँ तो ये बात मेरी समझ में नहीं आती की वो पहली बोली जो बचपन में बोलना सीखा हो, कोई कैसे भूल सकता है? पहाडा तो चलता है... वैसे ये भी थोड़ा कठिन ही लगता है कि पहाडा पढ़ा हो बचपन में और उसकी जगह टेबल ले ले ! भूलना तक तो समझ में आता है पर उसको टेबल से विस्थापित करने वाली बात थोडी मुश्किल लगती है, वैसे पढाते-पढाते सम्भव है...
पर बोली? नई सीख लो चाहे जीतनी... पर पहली बोली भूल जाओ... मेरे गले नहीं उतरती ! कोई ऐसा बोल रहा है तो कोरा झूठ नहीं तो और क्या कहेंगे? क्या आपके साथ ऐसा हो सकता है की आप बचपन से २०-२५ सा तक रोज़ जो बोली बोल रहे हों, उसके लिए बाकी जिंदगी में कभी ऐसा मौका आ जाय कि आपको वो बोलना ही ना आए?

पर ठीक है भोजपुरी वाले हिन्दी और हिन्दी वाले अंग्रेजी बोलने में अपनी बड़प्पन तो मानते ही हैं !

हाँ तो बात थी मस्त पहाडे की... अपनी तो सच्चाई है भाई जितना पढ़ा, जितने प्रोजेक्ट किए दिमाग में जब भी अंक चलते हैं तो भले ऐसे जितना ट्वेंटी-फोर्टी झाड़ता रहूँ अन्दर 'पंद्रह दूनी तीस तियां' ही फिट हो गया है... अब आप बड़ाई मानें या बुराई... पुराना प्रोग्राम है ! पर अब क्या करें, हम तो आए ही दुनिया में ३०-४० साल बाद... साला एक बात नई पीढी से नहीं मिलती :(

हाँ तो ऐसा लगा की अंकलजी को चिडियाघर का कोई प्राणी मिल गया है... बोले की बस एक बार और सुना दो !
अरे हद है ! अब बच्चा तो हूँ नहीं... तब की बात और थी.
वैसे ये काम बचपन में तो खूब किया... तेज होने की यही परिभाषा थी... चलो बेटा बताओ तो 'कितना नवें १०८?' हम तुरत बोलते १२ ... उसके बाद थोड़ा भारी १८-१९ पर.
पर भारी हल्का सब हो जाने के बाद अंत में यहीं आता था... 'अरे पन्द्रह का बड़ा अच्छा सुनाता है ये... आपने सुना है की नहीं?, बेटा एक बार १५ का पहाडा सुना दो' और हम राग भैरवी में तान छेड़ देते... 'पन्द्रह दुनी तीस तियां...'
और फिर 'वाह ! कितना तेज लड़का है !'
यही करके जिंदगी भर तेज कहाना होता तो कितनी आसान होती जिंदगी...

अब फिर से यही आग्रह आ गया तो क्या करता... एक बार फिर सुना दिया:
'पन्द्रह दुनी तीस तियां पैंतालिस चौका साठ पांचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बिस्सा नौ पैन्तिसा झमक-झमक्का डेढ़ सौ !' अब सुनाया भी लय में...

अब आया मजेदार सवाल: 'बेटा बाकी सब तो ठीक लेकिन ये झमक-झमक्का क्या है?'
अब क्या बताऊँ इसका जवाब तो मैं भी बहुत दिनों से ढूंढ़ रहा हूँ... इस पहाडे के बाकी संस्करणों में शायद ये शब्द होता भी नहीं है... अब ये दुर्लभ संस्करण लेकर घूम रहा हूँ तो कुछ तो कारण देना ही पड़ेगा... मैंने कहा की ये बस लय बनाने के लिए है, और इसका कोई गणितीय मतलब नहीं है. कुछ ऐसा हुआ होगा की छमक-छमक पायल बज रही होगी किसी की और किसी कवि ह्रदय मास्टर ने छमक-छमक्का जोड़ दिया और फिर बिगड़ के झमक-झमक्का हो गया होगा ! (मैंने उनसे कहा की इसकी व्युत्पति के बारे में ज्यादा जानना हो तो एक हमारे शब्दों के ज्ञानी अग्रज हैं उनसे संपर्क कर लीजिये, अब क्या करूँ इससे ज्यादा सोच पाता तो क्या यही अंक गुनगुनाता?)

प्रसन्न होके चल दिए... 'बहुत अच्छे बेटा!' शायद उन्हें भरोसा हो गया की ऐसा पहाडा पढ़ा हुआ आदमी जोड़-घटाव गुनगुना भी सकता है! अब तो बस डर है की किसी दिन उनके यहाँ चला गया तो... बच्चों के सामने ना गाना पड़ जाय ! और कहीं किसी मीटिंग में ना बोल दें की ओझा बाबू १५ का पहाडा बहुत अच्छा गाते हैं... आप हिन्दी वाले तो फिर भी मेरी मजबूरी पर हंस सकते हैं... किसी फिरंगी के सामने उन्होंने बोल दिया तो उसके तो गले ना उतरनी !



इस बीच दो बड़े लोगों से बात हुई जिन्हें आप सब जानते हैं... न तो उनका परिचय देने की जरुरत है ना उनके विनम्रता की. कई बातों के लिए मैं अक्सर लिखता हूँ की लिख नहीं सकता... या फिर कह नहीं सकता... तो बस उसी तर्ज पे... कह नहीं सकता कितनी खुशी हुई... कितना अच्छा लगा. बस फोन पे बात हुई तो औटोग्राफ नहीं ले पाया... आशीर्वाद ही मिल पाया है, और उस पर तो अपना अधिकार है. माँगने की भी जरुरत नहीं. बिना मांगे ये मिला और ढेर सारा स्नेह... विनम्रता और स्नेह शायद आप समझ गए: समीरजी और लावण्याजी. बस अब तो नंबर मिल गया है... इसी आशीर्वाद, स्नेह और विनम्रता की दुहाई देकर परेशान करता रहूँगा :-)


~Abhishek Ojha~

27 comments:

  1. मजा आ रहा है बंधु आपको पढ कर। अजीत जी के ब्लाग, जहां आजकल आप मौजूद है, से होता हुआ आप तक पहुंचा। अच्छा लगा बतकही का आपका निराला अंदाज।

    ReplyDelete
  2. रटना काम नहीं आता था जब हमारे बब्बा पूछते थे - कइ सते उनचास!
    और डर ऐसा था कि झट से जवाब न दिया तो खैर नही! :)

    ReplyDelete
  3. बलिया के पड़ोस का हूँ। यह पहाड़ा हमने भी ऐसे ही रटा था। कुछ पदों में थोड़ा अन्तर यह था -
    पन्द्रऽ के पन्द्रऽ, पन्द्र दुन्ना तीस, तियाँ पैतालिस, च‍उको साठ, पँचे पछोतर, छक्के नब्बे, सत्ते पाँच, अठ्ठम् बीसा, नौ पैंतीसा, धूम-धड़ाका डेढ़ सौ।
    अब तो बच्चों को टेबल याद कराने के लिए मन में अपना पहाड़ा दुहराते हैं और मुंह से n'ja-n'ja बोला करते हैं। क्या करें...?

    ReplyDelete
  4. भई वाह । हमने भी पंद्रह का पहाड़ा ऐसे ही सीखा था, शब्‍दों का थोड़ा हेरफेर था । नौं पैंतीसड़ धूम धड़क्‍कल डेढ़ सौ कहते थे अपन । और हां एक बात और याद आई । दादा मुनि अशोक कुमार के अवसान से कुछ वर्ष पहले हम उनके घर पर उनका इंटरव्‍यू ले रहे थे । उस दौरान उन्‍होंने पूछा कहां के हो--हमने कह दिया म.प्र. के । पूछा कहां के..हमने कहा बुंदेलखंड के । तो बोले पंद्रह का पहाड़ा तो याद ही होगा । और उन्‍होंने बिल्‍कुल लय में गाया । फिर चेहरे पर जो बुढापे वाली बालसुलभ हंसी आई वो कमाल थी ।
    वो सब याद आ गया ।

    ReplyDelete
  5. सुन्दर! सब गिनती-पहाड़े याद आ गये। साथ का एक सवाल भी- अस्सी मन का लकड़ा,तापर बैठा मकड़ा। रत्ती -रत्ती रोज चुने तो कित्ते दिन में चुन जाये।

    ReplyDelete
    Replies
    1. भाई जी इ वाला हिसबवा कलकुलेटरवो से नहीं होता है एरर शो कर देता है हा हा हा हा ..............

      Delete
  6. मजा आ गया । ये पहाड़ा हमने भी ऐसे ही सीखा था और आज भी लय में गाते है। पहाड़े तो बीस तक सब ही सीखे थे लेकिन पता नहीं क्युं यही पंदरह का पहाड़ा दिलो दिमाग में बैठा रहा। आज भी क्लास में स्टेटिस्कस पढ़ाते पढ़ाते कभी कभी ये पहाड़ा गुनगुना लेते हैं, अपने मराठी छात्राओं को ये नहीं बता पाये कि हिन्दी में टेबलस को पहाडा क्युं कहा जाता है, क्या कोई पहाड़ चढ़ना होता है क्या। अब बताओ इसका कोई जवाब है तुम्हारे पास

    ReplyDelete
  7. मैंने तो रटते हुए इन्हे याद किया था अभी यह पोस्ट पढ़ते हुए अपने आप ही इसी सुर में दिल से निकल रहे हैं ..:) मेरे लिए पहाडा हमेशा पहाड़ चढ़ने जैसा मुश्किल रहा है :) अच्छा रोचक लगा इसको पढ़ना

    ReplyDelete
  8. very very interesting abhishek, tables kabhi kabhi mushkil lagte hain or kabhi kabhi behad aasan, lekin tareeka vahi hota hai jo aapne bataya, lekin sab se zyada jo bat mutaassir karti hai mujhe vo aapka different andaz, bahut achha lagta hai aapko padh kar...

    ReplyDelete
  9. झमक झमक्का डेढ़ सौ...
    गणित में अपन कच्चे है मगर
    बचपन से अब तक इस पहाडे़ के पेड़ को झमक झमक्का हिलाते हैं तो अंकों के पत्ते अभी भी खूब
    झरते हैं।
    याद दिलाने के लिए शुक्रिया...गणित की ये क्लास अच्छी रही :)

    ReplyDelete
  10. पंद्रह छके तक तो ठीक था पर उसके बाद ये धमक्का वैगरह तो पहली बार सुना ..

    ReplyDelete
  11. जन्माष्टमी के पावन पर्व पर आपको शुभकामनाएं
    दीपक भारतदीप

    ReplyDelete
  12. जन्माष्टमी की बहुत बहुत वधाई,
    धन्य्वाद सुन्दर लेख के लिये

    ReplyDelete
  13. .

    हमें तो ढ़ैंचा भी रटाया गया था,
    ई का होता है, जरा बताओ तो जाने ?

    ReplyDelete
  14. इतनी मार खाकर सीखे थे ये पहाड़े कि चाहें तो भी भूल नहीं सकते और सच है भई कि मन में आज भी आठ अठ्ठू चौंसठ चल रहा होता है। ऐसे ही मेरे भी कान्वेंट एजुकेटिड सहकर्मी हंसते हैं जब मैं ज़ोर से केल्कुलेशन करने लगता हूँ। क्या करें पुराना मर्ज़ है जाता ही नहीं।
    जहां तक पहली बोली या भाषा भूलने का सवाल है यह सरासर झूठ है कि कोई भूल सकता है। भूलना संभव नहीं है, पर हां आपकी भाषा पर पकड़ ढीली हो सकती है। जर्मन सीखते हुए मुझे कई बार हिंदी के कुछ शब्द याद नहीं आते थे और शब्दकोश में शब्द का अंग्रेज़ी पर्यायवाची ढूंढकर फ़िर उसका हिंदी पर्यायवाची ढूंढना पड़ता था।

    ReplyDelete
  15. अभिषेक भाई जन्माष्टमी पर्व की शुभेच्छा
    आपका ये गणित के पहाडेवाली चर्चा बहुत पसँद आई !
    और आपसे फोन पे बात करके लगा मानोँ
    हम लोग पुराने परिचित ही हैँ !
    आप तो हमारे अतिथि हैँ,
    स्वागत है यहाँ ~~
    " welcome to USA "
    आशा है अमरीकी यात्रा भी बढिया चल रही है :)
    खूब मज़े करिये और खूब घूमिये और तस्वीरेँ भी दीखलाइयेगा
    " बकलमखुद " पर भी आपकी जीवन यात्रा के बारे मेँ पढकर
    खुशी हो रही है ~`
    स स्नेह,
    आशिष के साथ,-
    - लावण्या

    ReplyDelete
  16. बहुत खूब ओझा जी. आपने सही कहा - यह झमक-झमक्का हमारे संस्करण में नहीं था.

    ReplyDelete
  17. मन तो किया की बोलूँ ये तुलसीदास की एक चौपाई है जिसमें कुम्भकर्ण बन्दर-भालुओं की गिनती करता है
    हा हा.....बहुत शानदार!हमने भी याद किया है पंद्रह का पहाडा बिलकुल ऐसे ही लेकिन उसमे लास्ट मैं " ढामक डहुआ डेड सौ " था! बहुत मज़ा आया पढ़कर!

    ReplyDelete
  18. सही कहते हो......फार्मा में हम दवाई के indication ओर साइड इफेक्ट दोनों पे गाने बनाते थे ...एक बार एक्साम में किस दवा के साइड इफेक्ट पूछे तो हम गुनगाने लगे .....एक्सामिनेर बोले क्या करता है ?मैंने कहा सर revise कर रहा हूँ .....

    ReplyDelete
  19. ye nahi kahoonga pahara humne bhi para tha, rata tha kehna jyada uchit hoga lekin afsosh ye "jhamak jhakka" keh ke pahara samapt karne ke sukh se mehroom rah gaya.
    Interesting Read.

    ReplyDelete
  20. ओझा जी, आप तो हमें बचपन में ले गाये...स्कूल में सारी क्लास के सामने खड़े हो कर जोर जोर से बोल कर छे का पहाडा सुनाना आज भी याद है...छे एकम छे...छे दूनी बारा...छे ती अठारा...छे चोक चोईस, छे पंजे तीस, छा गा नागा छतीस...
    ये छा गा नागा छतीस आज भी जब याद आता है तो हँसी आती है...
    नीरज

    ReplyDelete
  21. मज़ा आ गया ओझा जी. हममें सभी ने पन्द्रह का पहाडा ऐसे ही याद किया है ....कहीं धूम धड़का देद्सौ था कहीं झमक-झमक्का .....

    ReplyDelete
  22. are humne bhi 15 ka pahada bilkul aise hi yaad kiya tha.. aap to hame ekdum yaadon mein le gaye.. aapki yeh post padhkar abhi 2.3 baar phir se doharya isse maza aa gaya :-)


    New Post :
    मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास

    ReplyDelete
  23. हम भी ऐसा ही करतें हैं अभिषेक भाई और तो और जब गाली देनी होती है तो कहतें हैं मुह झोंसा और कोई पूछता है क्या बोली तो कहते हैं इडियट और क्या !!

    ReplyDelete
  24. भोजपुरी और हिन्दी का तो पता नहीं, पर कुछ साल पहले "जॉनी जॉनी यस पापा...." का तर्जुमा कुछ इस तरह सुना था...(शायद आप लोगों ने भी सुना हो)..


    "कलवा कलवा,

    जी बाउजी,

    गुड़ खाबी?

    नईं बाउजी,

    झूट बोलबी?

    नईं बाउजी,

    दाँत चीरी,

    ही ही ही.

    ReplyDelete
  25. बढ़िया है.....शैली निराली
    विषय भी नया...बधाई.
    अभिषेक इश्वर ने आपको
    बुद्धि और अभिव्यक्ति का
    वरदान दिया है. इसे खूब
    संवारिये...बांटते रहिये
    आगे बढ़ते रहिये....
    यहीशुभकामना है.
    ===================
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

    ReplyDelete
  26. आज तो बचपन का क्लास रूम एकदम आँख के सामने घूम गया और इसके साथ हीं ढेर सारा संस्मरण भी ठेठ भोज पूरी में चार लाइन पहाडा
    गौर कीजियेगा :
    सोरे (१६ ) एके सोरे ,
    गईल बाड़े कोड़े ,
    अइहन त कह देब ,
    लगिहें बखोरे (पीटना )
    और
    नॉ(९ ) नवा एकासी(८१ )
    नाना गईले फांसी

    ते सभी बचपन के कक्षाओं के संस्मरण हैं जो सहसा हीं आपके पोस्ट पढ़ कर याद आ गएं | बचपन में लौटाने के लिए धन्यवाद

    ReplyDelete