इस बार होली का आधा दिन ट्रेन में गुजरा... इसके पहले की यात्रा आप पिछले दो पोस्ट (मुम्बई के ट्रैफिक में बिताये गये दो घंटे... और दिमाग में घूमते कुछ प्रश्न ... ! और विमान में भी मच्छर !) में पढ़ चुके हैं... दिल्ली से घर जाने के लिए ट्रेन से चला तो कई यादें, कई बातें दिमाग में घूमने लगी... दिमाग में चल रही उसी हलचल का एक अंश:
कानपुर सेन्ट्रल: (रात के समय)
कानपुर इतना प्रदूषित है फिर भी वहाँ बिठाये गए दिन अभी तक के सबसे अच्छे दिनों में से क्यों लगते हैं?
अरे कानपुर ही क्या किसी भी शहर में ऐसे लोग साथ हों और ऐसी जगह हों तो...
अनगिनत यादें... वो खूबसूरत दिन... I miss this place !
इलाहबाद:
दूर दूर तक फैले गेंहू के खेत,
ये पीले-पीले सरसों के फूल क्यों नहीं दिख रहे?
कुछ खेत कटे हुए भी तो है,
अरे बेवकूफ इस समय अब खेत कट रहे हैं तो पीले फूल कहाँ से दिखेंगे !
एक खेत में खड़ा लड़का दार्शनिक दृष्टि से ट्रेन को देख रहा है...
गरीबी लोगों को इसी उम्र में दार्शनिक क्यों बना देती है?
इसकी होली नहीं है क्या?
बच्चे तो ट्रेन और प्लेन देख कर खुश होते हैं, उछलते हैं,
पर ये दार्शनिक दृष्टि...
इसे फिलोसफी पढ़नी चाहिए...
चुप...! फिलोसफी पढ़नी चाहिए... आज होली है और यहाँ खाने के लाले पड़े हैं... फिलोसफी पढ़नी चाहिए !, ये शहर में रह के लोग इंसानों की तरह सोचना क्यों छोड़ देते हैं?
लकड़ी लेकर घर वापस लौटती औरतें, मवेशी चराते लोग... इनकी होली का क्या?
होली हो या दीवाली पेट भरना तो जरूरी है...
वाह! ये देखो आम भी बौरा गए हैं? हजारी प्रसाद भी इधर से ही गए थे क्या?
तभी तो उन्होंने किताब लिख डाली...
अरे आम तो मिलेंगे नहीं अभी?
क्या यार !... सरसों के फूल, आम, ये खेत...
सब एक साथ नहीं हो सकते क्या? इन सबके साथ एक सप्ताह हो तो छुट्टी में घर आने का मज़ा आ जाए!
लो बनारस आ गया.... वाह इसे कहते हैं होली... एक-एक आदमी पर इतना रंग... वाह!
रास्ते में इलाहबाद से ही अजीबो-गरीब बीमारियां और उनके इलाज के लिए हकीम-वैद्य का प्रचार (दीवारों पर) ट्रेन से दिखता आ रहा है?
इतना प्रचार? इतने लोग इन बीमारियों से ग्रस्त हैं क्या?
उन्ही प्रचारों के बीच गेरुआ रंग से लिखा हुआ दिख जाता है:
कश्मीर से कन्याकुमारी, भारत माता एक हमारी.
जरूर किसी बच्चे ने लिखा होगा... बड़े हो जाने के बाद तो सबको ये सब बकवास ही लगता है...
इससे अच्छा हकीम उस्मानी का प्रचार नहीं लिखेंगे कुछ पैसे तो आयेंगे !
एक बड़ा सा बोर्ड:
मुसलमान भाइयों को ईद मिलादुनवी मुबारक !
क्यों भाई मुझे मुबारक क्यों नहीं? हद है! इसमें मेरी क्या गलती है अगर मैं मुसलमान नहीं हुआ तो...
मुझे भी मुबारकबाद चाहिए... होली की भी और ईद की भी...
अखबार में छपी ख़बर और तस्वीर:
अमर-अकबर-अन्थोनी सब खुश, इस वर्ष होली, ईद और गुड फ्राइडे सब साथ-साथ ! दैनिक जागरण पढने का भी अपना ही एक मज़ा है :-)
चलो कुछ तो अच्छा है...
ट्रेन में पड़ोसी का अखबार पढ़ने का भी अपना मज़ा है :-)
अखबार भी ख़त्म.
अरे बेवकूफ बैग में लैपटॉप पड़ा है इतनी इबूक्स पड़ी है... बैठे-बैठे समय काट रहा है... चल कुछ पढ़ ही ले...
लैपटॉप खुला, लोग अजीब सी निगाहों से देख रहे हैं... मैं धर्मवीर भारती की लाइनों में खो गया... कनुप्रिया !
उस तन्मयता में - आम्र मंजरी से सजी मांग को
तुम्हारे वक्ष में छिपकर लजाते हुए
बेसुध होते-होते
जो मैंने सुना था
क्या उसमें कुछ भी अर्थ नहीं था?
कनुप्रिया के साथ-साथ यात्रा भी समाप्त !
~Abhishek Ojha~
Apr 29, 2008
Apr 17, 2008
मुम्बई के ट्रैफिक में बिताये गये दो घंटे... और दिमाग में घूमते कुछ प्रश्न ... !
ये लोग इस तरह भाग क्यों रहे हैं?
किसी चीज़ के पीछे भाग रहे हैं क्या?
कहीं मिठाई तो नहीं बँट रही?
या फिर किसी चीज़ से दूर भाग रहे हैं?
कहीं जिंदगी से तो नहीं भाग रहे?
जिंदगी से कहाँ तक भागेंगे, कब तक?
बड़ी इमारत के बगल में झोपडियाँ...,
क्या फर्क पड़ता है... भाग तो सभी रहे हैं !
सिग्नल हरा हुआ लोग दौड़ रहे हैं...
गाड़ी वाले गाली दे रहे हैं...
मादर्च... मेरे टाइम पे ही लाल होता है... !
छोटे-छोटे बच्चे... भाई साब खिलौने ले लो, फूल ले लो...
चल भाग यहाँ से...
सिग्नल... किसी के लिए लाल, किसी के लिए हरा !
क्या ये शहर सिर्फ़ ट्रैफिक सिग्नलों पे ही रुकता है?
ऐसे शहर को सुना किसी 'राज' ने रोक दिया था?
क्या उसने पूरे मुम्बई का सिग्नल लाल करवा दिया था?
पर लाल हुआ तो किसी के लिए तो हरा हुआ होगा?
हाँ, हुआ तो था पर 'भइया' लोगो के लिए...
मुम्बई के लिए लाल और मुम्बई से बाहर के लिए हरा,
पर उनके लिए बाकी सारे सिग्नल तो पहले से ही लाल हैं!
और अगर उनको भगा दो तो ?...
तो बाकी मुम्बई क्या सिग्नल हरा रहते हुए भी ऐसे दौड़ पाएगी?
(एक शुक्रवार की शाम को वाशी से मुम्बई एअरपोर्ट तक जाने में लगे २ घंटो के बीच .. दिमाग में चल रही हलचल का एक अंश... )
~Abhishek Ojha~
(चित्र: साभार: http://www.mastek.com/images_new/img_01.jpg)
Apr 8, 2008
विमान में भी मच्छर !
मैं मुम्बई से दिल्ली जाने के लिए विमान में बैठा तो इधर-उधर देखना चालू किया, 'बगल के सीट पे कोई लड़की आ जाती' वाला सपना हर बार की तरह इस बार भी टूट गया. आगे वाली सीट पर बैठे भाई साब के चक्कर में विंडो सीट भी गई... अब भई कोई जोडा अनुरोध करे 'और वो भी जोड़े का बेहतर हिस्सा' तो मना करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है. खैर उस सीट के बदले में मिला ३-४ थैंकयू वो भी वैरी मच के साथ. इधर मेरे मन में गाली और चेहरे पे मुस्कान... नहीं-नहीं गाली अच्छा शब्द नहीं है... गुस्सा !
उसके बाद चुप्पी और बोरियत चालू... हवाई जहाज में एक्सक्यूज मी के अलावा कुछ गिने-चुने शब्द ही तो लोग बोलते हैं. पता नहीं बगल वालों से लोग बात करने में इतना इतराते क्यों हैं? मेरी बात और है मैं तो वैसे भी पहले कभी बात शुरू नहीं कर पाता, हाँ ये बात और है कि अगर एक बार सामने वाला शुरू कर दे तो पछतायेगा कि किससे पाला पड़ गया, एक बार शुरू... तो फिर कुछ भी डिस्क्स करो... बात निकली है तो दूर तलक जायेगी :-)
इधर दाहिने हाथ पे चिर-परिचित डंक का अहसास हुआ और आदत के अनुसार मैं उधर जोर से चांटा मारने वाला था कि ख्याल आया जहाज में बैठा हूँ... यहाँ मच्छर तो नहीं होगा ! इधर समीर लालजी के ताली के गुण वाली कविता ... याद आ रही थी.
खैर मैंने आहिस्ते से हाथ मारकर देखा तो शक सही निकला मच्छर ही था... अब तो हद ही हो गई यही एक बाकी था... ये लो कोस्ट एअरलाइन वाले... उफ़! क्या मजबूरी है मोबाइल भी बंद... एक फोटो भी नहीं ले सकता, कम से कम ब्लॉग पे डालने के लिए एक सबूत तो मिल जाता. मैंने बिना आवाज़ किए ही उसकी हत्या करने की कोशिश की... और वो टेक-ऑफ़ कर गया. भले ही विमान उड़ने में देर हो जाए पर ये मच्छर बिल्कुल समय से उड़ जाते हैं... फिर पता नहीं किसके बदन के किस हिस्से पे लैंड किया. बडोदा के ऊपर एक बार और दिखा... पर दिल्ली आते-आते गायब. कहाँ गया पता नहीं... दिल्ली है भई गाँधी टोपी और खद्दर पहन के पार्लियामेन्ट नहीं... तो किसी पार्टी के मुख्यालय में तो जा ही सकता है, अभी मुम्बई से दिल्ली तक हवा में उड़ता, खून चूसता आया है, अब बस ग्रास-रूट लेवल पे खून चूसने की प्रैक्टिस चाहिए, बस एक ही दिक्कत है... जो ताली इनकी दुश्मन होती है उसी ताली को साथ मिलाना है... एक बार भाषण पे तालिया बजी की पहुच गए संसद.
अब कैसे कहूं कि ये यात्रा कैसी रही, इस पोस्ट के अलावा क्या है याद रखने को... हवाई अड्डे के बाहर रात के २ बजे टैक्सी वालों की डिमांड... बाप रे... 'क्या साब हवाई जहाज से उतरते हो और...?' खैर बिना टैक्स जितना हवाई जहाज वालों को दिया था उससे कुछ ज्यादा ही टैक्सी वाले को देके अपनी मंजिल तक पंहुचा. और हाँ दिल्ली में मच्छरों की कोई कमी नहीं है... बजाते रहो ताली. बस एक अन्तर है यहाँ के बहुत कम मच्छर ताली पे मरते हैं... इन्हे खून पीकर उड़ने की आदत कुछ ज्यादा ही है।
~Abhishek Ojha~
उसके बाद चुप्पी और बोरियत चालू... हवाई जहाज में एक्सक्यूज मी के अलावा कुछ गिने-चुने शब्द ही तो लोग बोलते हैं. पता नहीं बगल वालों से लोग बात करने में इतना इतराते क्यों हैं? मेरी बात और है मैं तो वैसे भी पहले कभी बात शुरू नहीं कर पाता, हाँ ये बात और है कि अगर एक बार सामने वाला शुरू कर दे तो पछतायेगा कि किससे पाला पड़ गया, एक बार शुरू... तो फिर कुछ भी डिस्क्स करो... बात निकली है तो दूर तलक जायेगी :-)
इधर दाहिने हाथ पे चिर-परिचित डंक का अहसास हुआ और आदत के अनुसार मैं उधर जोर से चांटा मारने वाला था कि ख्याल आया जहाज में बैठा हूँ... यहाँ मच्छर तो नहीं होगा ! इधर समीर लालजी के ताली के गुण वाली कविता ... याद आ रही थी.
खैर मैंने आहिस्ते से हाथ मारकर देखा तो शक सही निकला मच्छर ही था... अब तो हद ही हो गई यही एक बाकी था... ये लो कोस्ट एअरलाइन वाले... उफ़! क्या मजबूरी है मोबाइल भी बंद... एक फोटो भी नहीं ले सकता, कम से कम ब्लॉग पे डालने के लिए एक सबूत तो मिल जाता. मैंने बिना आवाज़ किए ही उसकी हत्या करने की कोशिश की... और वो टेक-ऑफ़ कर गया. भले ही विमान उड़ने में देर हो जाए पर ये मच्छर बिल्कुल समय से उड़ जाते हैं... फिर पता नहीं किसके बदन के किस हिस्से पे लैंड किया. बडोदा के ऊपर एक बार और दिखा... पर दिल्ली आते-आते गायब. कहाँ गया पता नहीं... दिल्ली है भई गाँधी टोपी और खद्दर पहन के पार्लियामेन्ट नहीं... तो किसी पार्टी के मुख्यालय में तो जा ही सकता है, अभी मुम्बई से दिल्ली तक हवा में उड़ता, खून चूसता आया है, अब बस ग्रास-रूट लेवल पे खून चूसने की प्रैक्टिस चाहिए, बस एक ही दिक्कत है... जो ताली इनकी दुश्मन होती है उसी ताली को साथ मिलाना है... एक बार भाषण पे तालिया बजी की पहुच गए संसद.
अब कैसे कहूं कि ये यात्रा कैसी रही, इस पोस्ट के अलावा क्या है याद रखने को... हवाई अड्डे के बाहर रात के २ बजे टैक्सी वालों की डिमांड... बाप रे... 'क्या साब हवाई जहाज से उतरते हो और...?' खैर बिना टैक्स जितना हवाई जहाज वालों को दिया था उससे कुछ ज्यादा ही टैक्सी वाले को देके अपनी मंजिल तक पंहुचा. और हाँ दिल्ली में मच्छरों की कोई कमी नहीं है... बजाते रहो ताली. बस एक अन्तर है यहाँ के बहुत कम मच्छर ताली पे मरते हैं... इन्हे खून पीकर उड़ने की आदत कुछ ज्यादा ही है।
~Abhishek Ojha~
Apr 2, 2008
एक फूल ऐसा भी: बहार की जगह विपत्ति !
साधारणतया फूल लगना अच्छी बात होती है पर बांस के फूल यानी अकाल, विपदा और ना जाने क्या-क्या!
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है मिजोरम. बांस के बड़े-बड़े घने जंगल यहाँ हरियाली और सुन्दरता के साथ आर्थिक मदद भी पहुचाते हैं. डलिया, मचिया, छतरी, खाट सब कुछ तो बांस से बनता है, और फिर घर भी तो बन जाते हैं इसी बांस से. यहाँ तक की अटल बिहारी वाजपेयी ने इन्ही बांसों को 'हरा सोना' कहा. ये तो हुई बाहर की बात अब बात वेणु-पुष्प-प्रकोप की:
१९५९ में इन बांसों पर फूल लग जाने की वजह से यहाँ भयंकर अकाल आया. जान माल की बहुत क्षति तो हुई ही... सरकार से जरुरत के हिसाब से मदद ना मिल पाने के कारण मिजोरम राज्य में अलगाववाद ने जन्म लिया जो २०-२५ वर्षों तक चलता रहा. अब आप शायद वेणु-पुष्प के प्रकोप को बेहतर समझ रहे होंगे ये किसी बाढ़, भूकंप, सूखे, या सुनामी से कम खतरनाक नहीं है. हर ४८ साल के अंतराल पर यह घटना घटती है और इसी तरह की घटना १८६२ और फिर १९११-१२ में पहले भी हो चुकी है. मिजो में मौतम के नाम से जानी जाने वाली इस प्रक्रिया के बाद बांस सूख जाते हैं और यह 'हरा सोना' फिर किसी काम का नहीं रह जाता. कुल मिला के ये बांस के फूल बहुत दुखदाई होते हैं. होता कुछ यूं है कि बांस के फूल में होने वाले बीज जब चूहे खाते हैं तो उनकी संख्या में बहुत तेज वृद्धि होती है, और फिर चूहे दौड़ते हैं खेतो की तरफ़, खेत साफ... फिर घर की तरफ़. अब इनसे मुक्ति कौन दिलाये!
चूहे हैं तो फिर प्लेग का खतरा अलग. २००५ में जब मौतम हुआ तो भारत सरकार और राज्य सरकार ने कई कदम उठाये जैसे 'एक चूहा मारो और एक रुपया पाओ'. सेना भी बुलाई गई... और फिर ऐसी खेती की सलाह दी गई जिससे चूहे दूर भागते हैं. और एक तरीका ये भी अपनाया गया: काट डालो सारे बांस फूल लगने के पहले ही, वैसे भी फूल लगने के बाद तो बांस बेकार हो ही जाते हैं.
है ना रोचक और खतरनाक कहानी !
इसीलिए मैं कहता हूँ कि सुन्दरता के पीछे बिना सोचे समझे नहीं भागना चाहिए. चाहे सुन्दरता चलने-फिरने वाली कोई वस्तु हो, फूल हो या फिर कोई निर्जीव वस्तु ही क्यों ना हो !
बहारों में आनंद के साथ होशियार रहना भी जरूरी है, क्योंकि अगर ऐसा कुछ हो गया तो फिर संभलना मुश्किल हो जायेगा जैसा कि किसोर दा ने गाया है... जो बाग़ बाहर में उजड़े उसे कौन बसाए?
अगर आपको ये रोचक लगा तो ये लिंक्स आपको और जानकारी देंगे:
http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/6585073.stm
http://en.wikipedia.org/wiki/Mautam
http://www.planetark.com/dailynewsstory.cfm/newsid/30572/story.htm
http://www.sos-arsenic.net/english/homegarden/bamboo.html
http://mizobamboo.nic.in/
इस विडियो में भी यही जानकारी है:
~Abhishek Ojha~
तस्वीरें साभार: बीबीसी, sos-arsenic.net और
http://www.flickr.com/photos/73231755@N00/493560415/
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है मिजोरम. बांस के बड़े-बड़े घने जंगल यहाँ हरियाली और सुन्दरता के साथ आर्थिक मदद भी पहुचाते हैं. डलिया, मचिया, छतरी, खाट सब कुछ तो बांस से बनता है, और फिर घर भी तो बन जाते हैं इसी बांस से. यहाँ तक की अटल बिहारी वाजपेयी ने इन्ही बांसों को 'हरा सोना' कहा. ये तो हुई बाहर की बात अब बात वेणु-पुष्प-प्रकोप की:
१९५९ में इन बांसों पर फूल लग जाने की वजह से यहाँ भयंकर अकाल आया. जान माल की बहुत क्षति तो हुई ही... सरकार से जरुरत के हिसाब से मदद ना मिल पाने के कारण मिजोरम राज्य में अलगाववाद ने जन्म लिया जो २०-२५ वर्षों तक चलता रहा. अब आप शायद वेणु-पुष्प के प्रकोप को बेहतर समझ रहे होंगे ये किसी बाढ़, भूकंप, सूखे, या सुनामी से कम खतरनाक नहीं है. हर ४८ साल के अंतराल पर यह घटना घटती है और इसी तरह की घटना १८६२ और फिर १९११-१२ में पहले भी हो चुकी है. मिजो में मौतम के नाम से जानी जाने वाली इस प्रक्रिया के बाद बांस सूख जाते हैं और यह 'हरा सोना' फिर किसी काम का नहीं रह जाता. कुल मिला के ये बांस के फूल बहुत दुखदाई होते हैं. होता कुछ यूं है कि बांस के फूल में होने वाले बीज जब चूहे खाते हैं तो उनकी संख्या में बहुत तेज वृद्धि होती है, और फिर चूहे दौड़ते हैं खेतो की तरफ़, खेत साफ... फिर घर की तरफ़. अब इनसे मुक्ति कौन दिलाये!
चूहे हैं तो फिर प्लेग का खतरा अलग. २००५ में जब मौतम हुआ तो भारत सरकार और राज्य सरकार ने कई कदम उठाये जैसे 'एक चूहा मारो और एक रुपया पाओ'. सेना भी बुलाई गई... और फिर ऐसी खेती की सलाह दी गई जिससे चूहे दूर भागते हैं. और एक तरीका ये भी अपनाया गया: काट डालो सारे बांस फूल लगने के पहले ही, वैसे भी फूल लगने के बाद तो बांस बेकार हो ही जाते हैं.
है ना रोचक और खतरनाक कहानी !
इसीलिए मैं कहता हूँ कि सुन्दरता के पीछे बिना सोचे समझे नहीं भागना चाहिए. चाहे सुन्दरता चलने-फिरने वाली कोई वस्तु हो, फूल हो या फिर कोई निर्जीव वस्तु ही क्यों ना हो !
बहारों में आनंद के साथ होशियार रहना भी जरूरी है, क्योंकि अगर ऐसा कुछ हो गया तो फिर संभलना मुश्किल हो जायेगा जैसा कि किसोर दा ने गाया है... जो बाग़ बाहर में उजड़े उसे कौन बसाए?
अगर आपको ये रोचक लगा तो ये लिंक्स आपको और जानकारी देंगे:
http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/6585073.stm
http://en.wikipedia.org/wiki/Mautam
http://www.planetark.com/dailynewsstory.cfm/newsid/30572/story.htm
http://www.sos-arsenic.net/english/homegarden/bamboo.html
http://mizobamboo.nic.in/
इस विडियो में भी यही जानकारी है:
~Abhishek Ojha~
तस्वीरें साभार: बीबीसी, sos-arsenic.net और
http://www.flickr.com/photos/73231755@N00/493560415/
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