Dec 28, 2007

गाँव की ओर...

इस वर्ष एक लंबे अरसे के बाद घर पे छुट्टियां बिताने का मौका मिला। पिछले ३ सालों में घर तो जाना होता था, पर काफी कम दिनों के लिए ... हर लंबी छुट्टी में कोई न कोई यात्रा हो ही जाती थी। फिर कॉलेज ख़त्म हुआ तो घर पे रहना तो था ही। स्कूल के दिनों की याद आ गयी... जब हर गर्मी की छुट्टी में हम घर जाया करते थे। पर अब गाँव वैसा नहीं रहा, काफी कुछ बदल गया है... वो सारी चीजें बदल गयी जिनका हम बेसब्री से इंतज़ार किया करते थे।

वो घर जिनकी दीवारें मिट्टी की और छत खपरैल के होते थे... वो सब कुछ कंक्रीट के हो गए। बिजली तो पहले भी थी पर अब हमारे घर के फ़ोन की घंटी किसी और के लिए नहीं बजती, किसी को बुलाना नहीं पड़ता... । और दूसरी-तीसरी क्लास में जो हम उछल-उछल के किसी की चिट्ठी पढ़ने जाया करते थे, आज के बच्चे तो जानते भी नहीं है की चिट्ठी क्या होती है। हमारे बचपन में तो तेज़ होने का मतलब ही होता था फर्राटेदार चिट्ठी पढ़ने वाला ...। अरे भाई मैं इतना भी बुड्ढा नहीं हूँ... । अभी इसी साल तो कॉलेज से निकला हूँ... पर या तो हम जमाने से ही पीछे थे ... या ज़माना ही कुछ तेज़ आगे निकल गया। हाँ, तो फ़ोन का न बजना और चिट्ठियों के लुप्त होने का तो एक ही कारण है... मोबाइल ... सबके हाथ में मोबाइल । लोग पहले शाम को बैठकर बातें किया करते थे, अखबार में क्या आया है से ले कर हर घर की समस्याएं, हर बच्चे के बारे में बातें... हमें भी ख़ुशी होती थी ये सुन के की हम शरीफ हैं, और कभी-कभी तेज़ भी कह दिए जाते थे... और फिर ४ लोग सुन रहे हों... तो ख़ुशी तो होगी ही। अब मुश्किल से २-३ बुजुर्ग होते हैं... अधिकतर युवक और प्रौढ़ शहरों में काम करते हैं... । अब गुल्ली-डंडे की जगह क्रिकेट और कंचों की जगह फूटबाल ने ले ली है। कबड्डी अभी भी सरकारी स्कूल में खेली जाती है, पर सरकारी स्कूल में अब जाता ही कौन है?

सरकारी स्कूल.... वो स्कूल जहाँ मैं पहली बार पढ़ने गया था... वो पेड़... रोज़ शाम को... दो एकम दो। मुझे प्रसन्नता के साथ आश्चर्य भी हुआ जब मास्टरजी ने मुझे पहचान लिया... । मास्टरजी से पता चला की अब सरकारी स्कूल में लोग अपने बच्चों को नहीं पढाते... अंग्रेजी स्कूल बरसाती मेंढक की तरह खुल गए हैं। रजिस्टर में नामांकन तो होता है पर वो दोपहर में मिलने वाले पोषाहार के लिए... और बाक़ी कुछ जीवन बीमा के लिए ... कुछ वर्ग के छात्रों के लिए मिलने वाले वजीफे के लिए ... पर इन सबके लिए स्कूल नहीं आना होता, आप आराम से अंग्रेजी स्कूल में पढो और नाम सरकारी स्कूल में। और फिर पोषाहार जानवरों को खिलाने के लिए आसानी से मार्केट में भी तो मिलता है, चाहे आपको खरीदना हो या बेचना ! यह आपको आन्गंवाड़ी में काम करने वाली औरतों या ग्राम प्रधान के करीबी लोगो से सस्ते दर पर मिल सकता है। मास्टरजी तो आज भी पढाना चाहते हैं पर पढायें तो किसे.... ।

खेतों में जो नालियाँ बनती थी उनकी जगह प्लास्टिक के पाइपों ने ले ली है। घर पर पड़े हुए पुराने हल को देख कर याद आया की अरे किसी जमाने में बैल भी तो होते थे... खैर मैंने ये भी पता किया... तो पता चला की अब गाँव में एक भी बैल नहीं है। हमारे पुराने ट्युबवेल वाले घर में पड़ा थ्रेशर उस दिन का इंतज़ार कर रहा है जिस दिन उसे कबाड़ी वाले ले जायेंगे। अब खलिहान में उसका कोई काम नहीं है... दिनों तक होने वाले दँवनी अब नए मशीनों से घंटो में हो जाती है... । प्लास्टिक के पाइपों से ध्यान आया कि गाँव में अगर सब कुछ लुप्त हो रह है तो एक चीज बढ़ी भी तो है... और वो है प्लास्टिक... हर तरह के प्लास्टिक... ।

बहुत विकास हुआ... रोज़ हो रहा है... पर मुझे तो बस दो चीजों की कमी बहुत खली...

पहली तो ये की अब भैया, चाचा, काका... कहने वाले कम हो गए हैं। लोग एक दुसरे से आँखे चुराते हैं... बबुआ कब आये? कब तक रहना होगा? आजकल कहाँ हो? अब कम लोग पूछते हैं। दूरीयाँ बढ़ गयी हैं। अब कारण तो पता नहीं पर लोगो को एक दुसरे से मतलब कम रहता है।

दूसरी जिसके लिए गर्मियों में गाँव जाने का सबसे ज्यादा मन करता था... आम के बगीचे। इतने घने कि दिन में भी जाने में डर लगता था। हर पेड़ के साथ एक कहानी जुडी हुई थी... अब न तो पेड़ हैं ना कहानियाँ... लगभग सारे भूत भी उन पेडों के साथ कहीं चले गए। ना आम ना जामुन... कुछ भी तो नहीं रहा। वो बगीचे गाँव के थे... कभी हमारी हिम्मत नहीं होती थी कि किसी को कह दें... कि ये हमारे पेड़ हैं जाओ यहाँ से... । इतने पेड़ कि जिनके पास पेड़ नहीं थे, वो भी अपने रिश्तेदारों के यहाँ आम भेजते थे... । अब एक-दो पेड़ जो लोगो के घरो के सामने हैं, वो उनके अपने हैं। और वैसे भी एक-दो पेडों को न तो बगीचा कहेंगे, ना ही वो मज़ा... जब बाल्टी में से आम निकालते समय ये नहीं पता होता था कि कौन सा आम कैसा होगा। और फिर आम देख कर लोग पेड़ भी तो पहचान लेते थे... ।
हम डर के मारे बगीचे में मुँह नहीं खोलते थे... अगर गिद्धों ने देख लिया तो सारे दांत टूट जायेंगे... अब बच्चे खुल के हंस सकते हैं... इसलिए नहीं कि वो हमसे ज्यादा समझदार हैं... या वे जानते हैं कि गिद्ध दांत नहीं गिरा सकते... परन्तु इसलिए क्योंकि वो जानते ही नही कि गिद्ध क्या होता है... उन पेडों के ऊपर रहें वाले गिद्ध भी अब रहे... ।

~Abhishek Ojha~

Dec 12, 2007

मानस पटल पर अंकित वो पंक्तियाँ ...


चिट्ठियों की तरह मुझे पुस्तकें भी सहेजकर रखने की आदत है। इस बार घर गया तो स्कूल की कुछ पुस्तके मिल गयी... कई अध्याय बैठ के अनायास ही पढ़ डाला... । हिन्दी की पुस्तकों की वो लाइनें जो कभी नहीं भूल सकता... उन लाइनों के साथ यादें जुडी हैं... जब पढ़ के लगता था कि किसी ने हमारे लिए ही लिख दिया हो... सारी यादें फिर ताज़ा हो गयी... । कुछ लाइनें शायद आपको भी पसंद आ जाये... ।

यूं तो कई किताबें पढी... पर उस उमर में उन लेखकों की बातें जो मस्तिष्क पर छाप छोड़ती हैं उनकी जगह कोई और कैसे ले सकता है... । इन पक्तियों को पढ़कर पूरी क्लास, पुरा पाठ सब कुछ तो याद आ जाता है... ।

- यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता तो बहुत से विवाद समाप्त हो जाये, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा... । (महादेवी वर्मा)

- अरे, कवि की बात समझ में आ जाये तो वह कवि काहे का...। (हरिशंकर परसाई)
- हर भेडिये के आस पास दो-चार सियार रहते ही हैं। जब भेंडिया अपना शिकार खा लेता है, तब ये सियार हड्डियों में लगे मांस को कुतर कर खाते हैं, और हड्डियाँ चूसते रहते हैं । ये भेडियों के आस-पास दुम हिलाते रहते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौक़े-बेमौके "हुआं-हुआं" चिल्लाकर उसकी जे बोलते हैं । (हरिशंकर परसाई)

- नम्रता ही स्वतंत्रता की धात्री व माता है। लोग भ्रम वश अंहकार-वृति को उसकी माता समझ बैठते हैं, पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश कर देती है।
- मनुष्य का बेडा अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाये... ।
- जिस पुरुष की दृष्टि सदा नीचे रहती है उसका सिर कभी ऊपर ना होगा...
- जितना ही मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है। (आचार्य रामचंद्र शुक्ल, वैसे मित्रता और आत्मनिर्भरता की हर एक पंक्ति स्मरणीय है।)

- विफलता के इस मरुस्थल में एक बूंद आएगी भी तो सुखकर खो जायेगी।
- मुझे दुर्योधन कहेगा यही न। जानता हूँ युद्धिष्ठिर! मैं जानता हूँ। मुझे मारकर ही तुम चुप नहीं बैठोगे। तुम विजेता हो, अपने गुरुजनों और सगे-संबंधियों की शोणित की गंगा में नहाकर तुमने राजमुकुट धारण किया है। तुम अपनी देख रेख में इतिहास लिख्वाओगे और उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने में क्यों चुकोगे? सुयोधन को सदा के लिए दुर्योधन बनाकर छोडोगे। उसकी देह को ही नहीं, उसका नाम तक मिटा दोगे। (भरतभूषण अग्रवाल)

- ऐसी स्थितियां मन को बहुत व्यथित करती हैं। कैसे कहूं की उस गाँव का नहीं हूँ, जहाँ जन्मा, उन शहरों का नहीं हूँ, जिन्होंने मुझे ठौर-ठिकाना दिया, और उस व्यापक देश का नहीं हूँ जिसने हर विदेश-यात्रा के पूर्व रुमाल में गाँठ लगाई; जिसने हर विदेश-यात्रा को स्वदेश की पहचान के लिए नयी कसौटी बनायी, और जिसने विदेश की संस्कृति को समझने की आत्मीय परकीयता दी और जिसका होकर मैं अपने को बराबर गौरवान्वित अस्तित्ववान पाता रहा?
- ललक केवल स्नेह पाने के लिए नहीं, ललक स्नेह देने के लिए नहीं, केवल अपने को पहचानने के लिए नहीं, बल्कि दूसरो की पहचान में अपनी पहचान समाहित करने में है।
- आजकल तो दूध इतना शुद्ध है की हंस आये तो झंखने लगे। ... अब दही नहीं जमता, मन जरूर जम गया है। ऐसा जम गया है की कोई ताप उसे पिघला नहीं पाता। जिंदगी में ताप कम नहीं है, पर मन है ज्वालामुखी के ऊपर बर्फ की चादर बना हुआ है । (विद्यानिवास मिश्र)

- हम दीवानों की क्या हस्ती है आज यहाँ कल वहाँ चले ...

- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला उस-उस रही को धन्यवाद...

- मुझे तो ऐसा लगता है की मेरी माँ यदि जगी नहीं होती, तो में सोया होता... ।
- कहाँ गया वह बचपन और कहाँ गए वी आम के पेड़? जब सोचता हूँ तो पढना-लिखना बेकार सा लगता है। जीवन में गहरी खाई पैदा हो गयी है, जिसको भरकर सड़क नहीं बना सकता। पूल बनाता हूँ मगर वह पूल भी हर समय साथ नहीं देता, मौक़े-मौक़े पर टूट जाता है। (गोलंबर, हरिवंश नारायण)

-क्या मेरे देश को इसका एहसास हो सकता है की कोई माँ यात्रा-पथ पर शिशु को जन्म देने के एक दिन बाद ही चल पड़ती है पुनः अनंत यात्रा पर। (डाक्टर श्याम सिंह शशि)

- रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चिर देता,
रक्त की दो बूंद गिरती, एक दुनिया डूब जाती
आँख में हो स्वर्ग लेकिन पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंताको की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले

- और उडाये हैं इसने उज्वल कपोत जो,
उनके भीतर भरी हुई बारूद है। (रामधारी सिंह दिनकर)।


एक पोस्ट के लिए बहुत हो गया... बाक़ी फिर कभी... ।


~Abhishek Ojha~

Sep 25, 2007

उत्तर-पूर्व भारत यात्रा संस्मरण (भाग ३): मेघालय ...

चेरापूंजी को किसी परिचय की जरूरत नहीं है। वर्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध ये जगह प्राकृतिक रुप से काफी धनी है। गुवाहाटी से शिलांग और फिर चेरापूंजी जाते हुए अद्वितीय हरियाली देखने को मिली। मेघालय की बात हो और बादलों की चर्चा ना हो ऐसा कैसे हो सकता है। हरी -भरी घाटियों में तैरते हुए बदल ... और फिर बादलों से होकर गुजरना... ।

शिलांग से चेरापूंजी के मार्ग में बने व्यू प्वाइंट से हरी घाटी मन को मोह लेती है। चेरापूंजी पहुचने के बाद अगर आप भाग्यशाली हैं तो बादलों के बीच से नोह-कलि-कई जलप्रपात दिख ही जाएगा। ये तो आपके मन को मोह ही लेता है। दूर से गिरते हुए स्वच्छ जल का दृश्य अत्यंत ही मनोरम होता है। फिर घाटी की दूसरी तरफ से सात कन्या जलप्रपात का दृश्य हो या फिर ठंग्खारंग पार्क से बंगलादेश का दृश्य। मनोरम दृश्यों के मामले में कहीं भी निराशा नहीं हुई।

और फिर वो अनुभव जो शायद मेघालय के अलावा कहीं और नहीं मिल सकता। गुफाओं से गुजरने का मज़ा... । मेघालय सैलानियों को कई गुफाएं देता है। पर एक-दो को छोड़कर बाक़ी आम अनुभवहीन लोगो के लिए खुले नहीं है। मव-समाई गुफाओं ने प्रकृति के करीब पंहुचा दिया। अगर आप थोड़े मोटे हैं तो फंस भी सकते हैं :-) । गुफाओं की दीवारों की अद्वितीय प्राकृतिक संरचना और उन पर चमकती पानी की बूँदें... गुफा से निकलने के बाद की हरियाली भी तो ध्यान आकर्षित करते हैं। मेरे कमरें से उतनी अच्छी तस्वीरें नहीं आ पायी पर इस Link पर कुछ अच्छी तस्वीरें हैं।

इन सब के बाद भी अव्यवस्था तो मन में खटकती ही है। इन सभी जगहों पर सुविधाओं का अत्यंत ही अभाव देखने को मिला। और फिर स्थानीय युवकों की 'फाइट माँगता है'... कानून व्यवस्था की धज्जिया उड़ाते हुए लोग भी मिले। यहाँ फाइट माँगता हैं के बारे में आपको बताता चलूँ... हमारी गाड़ी को कुछ युवकों ने शिलांग के कुछ पहले रोका तो ड्राइवर ने बिना कुछ पूछे उन्हें ३० रुपये पकड़ा दिए। बाद में उसने बताया कि उन सभी गाड़ियों से जिनका नंबर मेघालय का नहीं है, वे पैसे वसूलते हैं। अगर किसी पर्यटक या गाड़ी वाले ने मन किया तो फिर... 'फाइट माँगता है... ' अर्थात् उनसे लडाई करनी पडेगी। अपने देश में ही अपने हमउम्र युवकों कि दशा देखकर तथा उससे जनित सोच को देखकर बहुत दुःख हुआ... ।

शिलांग में एलिफैन्टा जलप्रपात दर्शनीय है... पहले कभी ये हाथी की तरह दिखता था... पर भूकंप के कारन क्षति ग्रस्त होने के बावजूद आपको निराश नहीं करेगा । अगर आप म्यूजियम और चर्च में ज्यादा रूचि नहीं रखते तो फिर शिलांग व्यू प्वाइंट सबसे अच्छी जगह है। यहाँ से आप शिलांग देख सकते हैं और फिर पहाड़ियां तो दिखती ही हैं। हाँ मेघालय का मजा तभी है जब मौसम साथ दे... अन्यथा आप कई दृश्य नहीं देख पायेंगे। और फिर वहाँ की बारिश का भी अपना ही मजा है। आपको पता ही नहीं चलेगा की कहॉ तक बादल हैं ... और कहॉ से बारिश शुरू हो रही है। हमारी किस्मत अच्छी थी हमने बारिश के साथ-साथ दृश्यों का भी अनंद लिया।

गुवाहाटी और शिलांग के बीच में बड़ा पानी झील भी रुकने लायक जगह है। गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र, कामाख्या, फैंसी बाज़ार , कला क्षेत्र, महर्षि वशिष्ठ का आश्रम इत्यादी दर्शनीय है। ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई और धार देखकर आप एक बार जरूर मोहित होंगे और फि टापू पर बना उमानंदा मंदिर भी तो है।


बड़ा पानी झील

मव-समाई गुफा का एक दृश्य

शिलांग

~Abhishek Ojha~

Jun 1, 2007

ये कमी तो रहेगी...



इस बार भी संस्थान परिसर में आते समय ये महसूस नहीं हुआ कि अब ये परिसर मेरा नहीं रहा। इस जगह से लगाव ही कुछ ऐसा हो गया है... । यहाँ प्रवेश लेते समय लोगो ने कहा था ... पाँच साल बहुत होते हैं, ऊब जाओगे । आज लग रहा है... कितने कम होते हैं। कैसे बीत गए पता ही नहीं चला... पर अनगिनत यादें, अनुभव, अनमोल दोस्त... सभी कुछ तो दे गए। यहाँ आते समय बच्चे थे... शायद अब नहीं रहे।

पिछले पाँच सालो से यह परिसर और कानपुर हर योजना का केंद्र रहा। धीरे-धीरे घर की जगह संस्थान के कमरे को केंद्र में रखकर यात्राएं निर्धारित होने लगी... कानपुर सेन्ट्रल से गुजरने वाली रेलगाडियों की समय-सारणी याद हो गयी... ।

इतनी यादें हैं... ऐसी यादें हैं... जिन्हे लिखा नहीं जा सकता। जिनकी कमी सबसे ज्यादा महसूस होगी, उनके बारे में तो एक पंक्ति भी नहीं लिखी जा सकती... । उन मित्रों के बारे में क्या लिख सकता हूँ... लिख दिया तो फिर बाक़ी चीजों के बारे में क्या लिखूंगा... 'जनु राकेस उदय भएँ तारे'। एक साथ, एक जगह इतने अच्छे लोग और ऐसी निस्वार्थ मित्रता शायद ही कहीँ मिले।

पता नहीं कितनी कक्षाओं में सोया..., १०० से ज्यादा मिड-सेमेस्टर परीक्षायें, ५० से ज्यादा एंड-सेमेस्टर और अनगिनत क्विज़ दिया। हमेशा इनके नाम से डर लगा... आज फिर से परीक्षायें देने का मन कर रह है। प्रोफेसरों पर फिर ग़ुस्सा करने का मन कर रह है। आज जिंदगी में पहली बार 'फेल हो गया होता' ये ख्याल अच्छा लग रहा है। थोड़े दिन और सही यहाँ रह तो जाता...!

आज दीक्षांत समारोह में अचानक ये सुना कि हम ग्रेजुएट हो गए... हम IITK के अलुम्नी हो गए। आज तक ये शब्द तो काफी अच्छे लगते थे पर आज पता चला ... इनकी student शब्द के सामने कोई औकात नहीं। इन पाँच सालो के हर एक पल कि कमी तो जीवन में शायद ही कभी पूरी हो पायेगी। कुछ नियमित कार्य जो दिनचर्या का हिस्सा बन गए थे... उनकी कमी ज्यादा खलेगी।

दोस्त और अनिश्चित कल तक चलने वाले बिना किसी विषय के वार्तालाप (bulla),
द्वितीय छात्रावास (आज भी वहां जाने पर ऐसा महसूस होता है जैसा वहाँ हमारा बचपन गुजरा हो),
दौलत रामजी जैसे लोग,
२००२ कि ठंड,
कक्षाओं में सोना,
दुनिया का सर्वश्रेष्ठ LAN ,
कुछ प्रोफेसर,
MT कि चाय, (अन्तिम वर्ष में MT जाना चालू किया था)
बुक क्लब कि पुस्तकें,
LAN गेम्स देखना (कभी खेला नहीं पर देखने का अपना ही मज़ा है),
संस्थान में होने वाले व्याख्यान,
मोटे कि बाइक और हिंदी अख़बार,
IITK कि विशिष्ट शब्दावली,
Internships,
झगडे :-),
मूवीस (कभी-कभी एक दिन में ४) , पुस्तकें (सप्ताह में एक),
NewsGroups,
trips,
असीमित सुविधायें,
संस्थान की हरियाली और पंछी,.....

काश! ये सूची कभी पूरी हो जाती... ।

बस २००६ में पहली बार गर्मी कि छुट्टीयों के बाद यहाँ आने का मन नहीं कर रहा था। चार वर्षीय पाठ्यक्रम वाले सारे दोस्त चले गए थे। पर बचे हुए पाँच साल वाले... हमने जिंदगी कुछ यूं ढाली की अन्तिम वर्ष और भी यादगार हो गया। ये जगह ही कुछ ऐसी है... और ये लोग ही कुछ ऐसे हैं... ।

क्या नहीं दिया इस संस्थान ने... आगे जिंदगी का रुख जो भी हो... पर ये कमी तो रहेगी...।
या यूं समझ लिजीये... इस जगह को भूलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

Dancing in Campus

खैर, हर एक अंत एक नयी शुरुआत के लिए होता है। शाम हुई है तो एक नया सवेरा भी होगा... और जैसे बरसात किसान के लिए सुखदायी और कुम्हार के लिए दुखदायी होती है... किसी के लिए ये नयी सुबह लेकर आएगा... उनके लिए शुभकामनायें... ।



Abhishek Ojha
1st june 2007
३९वाँ दीक्षांत समारोह, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर
कैम्पस से किया गया आखिरी पोस्ट

May 31, 2007

उत्तर-पूर्व भारत... यात्रा संस्मरण (भाग २): दार्जिलिंग

सिक्किम की तरह दार्जिलिंग की प्राकृतिक सुन्दरता में भी भगवान ने कोई कंजूसी नहीं की है। वैसे यहाँ आपको बता दें कि दार्जिलिंग भी कभी सिक्किम का हिस्सा हुआ करता था। १८३५ में अंग्रेजो ने लीज पर लेकर इसे हिल स्टेशन की तरह विकसित करना प्रारम्भ किया। फिर चाय की खेती और दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की स्थापना और शैक्षणिक संस्थानों की शुरुआत भी हुई। कुछ इस तरह से 'क्वीन ओफ हिल्स' का विकास शुरू हुआ।


मौसम और प्राकृतिक छटा तो मनमोहक है... पर अनियोजित शहरीकरण/विकास, बेलगाम यातायात तथा प्रदूषण मन को दुखित कर देते हैं। पानी की किल्लत तो पूरे शहर में है। सिक्किम में प्राकृतिक छटा के अलावा बाक़ी जिन चीजों ने मन मोह लिया था सबकी कमी महसूस हुई। सड़क पर दुकान लगाना आम बात है... सिक्किम की तरह आवागमन के लिए कोई निर्धारित किराया सूची भी नहीं है। पीछे लग जाना तो कुछ नहीं... अगर आपके होटल के कमरे में भी कोई कुछ बेचने आ जाये तो घबराने की जरुरत नहीं है। और पालीथीन?... हम जिस दिन दार्जिलिंग पहुचे उसी दिन प्रतिबंधित हुआ, शायद अब कोई जाये तो कम दिखे। सिक्किम से आते हुए हम मल्ली नाम की जगह पर राफ्टिंग के लिए रुके तो एजेंट्स कुछ यूं पीछे पडे और आपस में इतना झगड़ा किया कि... राफ्टिंग के ६ घंटे बाद तक हम ठगा हुआ महसूस करते रहे। 'कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी' ये सुना तो था पर लोगो का व्यवहार भी इतनी जल्दी बदल जाएगा... कभी सोचा ना ।

सिक्किम से दार्जिलिंग जाते समय रास्ते में पडने वाले जंगल, तीस्ता और रंगीत नदियों का संगम देखने योग्य है। चाय के बगान और देवदार के जंगल भी अच्छा दृश्य बनाते हैं। टाइगर हिल पर व्यतीत की गई सुबह , चाय बगान, नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम जैसी जगहें अच्छी तो लगी लेकिन इनके अलावा वो कुछ नहीं दीखा जो मन को भा जाये। एजेंट्स को तो बस लगता था की हमारा ही इंतज़ार था... और बस हमीं से वो राजा बन जायेंगे। अरे भाई! मुर्गी को मार देने से क्या मिल जाएगा... संयम रखो तो रोज़ एक अंडा तो मिलेगा। विकास के नाम पर बनी अनियोजित और अदूरदर्शी कंकरीट की इमारतें... पानी की किल्लत... प्रदूषण ... अरे बख्स दो यार !

दार्जिलिंग हिमालयन रेल में व्यतीत किया गया समय भी यादगार रहा। दार्जिलिंग हिमालयन की बात आयी तो ये बता दें की १८७९ में इसका निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ था। ८८ किलोमीटर में कुल ३ लूप, ६ ज़ेड रिवर्सल और १३ स्टेशन पड़ते हैं। १९९९ से यह यूनेस्को विश्व धरोहर में शामिल है। अभी भी वाष्प से चलने वाले पूराने इंजन इस्तेमाल किये जाते हैं।

५० साल पहले दार्जिलिंग कैसा था ये देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है... आज उजड़ा हुआ लगता है। सोच कर ये दुःख तो होता ही है ... परायों ने अच्छा रखा था... हम ये क्या कर रहे हैं... । प्राकृतिक सुन्दरता तो अभी बरकरार है पर ऐसा ही चलता रहा तो आख़िर कब तक बच पायेगा।



दार्जिलिंग हिमालयन रेल के भीतर

नाइटिंगल पार्क


रेल तो खूबसूरत जगहों से गुज़र रही है... पर क्या आपको प्लास्टिक भी नज़र आ रहे है?

सांस्कृतिक कार्यक्रम: नाइटिंगल पार्क

रेड पांडा: नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम

बोटानिकल गार्डन

शहर और चाय बगान


बादलों का घेरा

बोटानिकल गार्डन

बोटानिकल गार्डन

हैप्पी वैली चाय बगान

बोटानिकल गार्डन

बोटानिकल गार्डन

बोटानिकल गार्डन

तेंज़िंग रॉक: हिमालयन माउन्टैनियरिंग संस्थान का ट्रेनिंग स्थल

बतासिया लूप: दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे

दार्जिलिंग का मुख्य चौराहा

गोमू रॉक: हिमालयन माउन्टैनियरिंग संस्थान का ट्रेनिंग स्थल



तुम क्या जानो जीवन कितना कठिन है?... तस्वीर ले लो दुनिया को दीखाना!

तीस्ता और रंगीत का संगम

टाइगर हिल


मल्ली में तीस्ता

May 29, 2007

वो लोग ही कुछ और होते हैं...



बात वर्ष २००० के गर्मियों की है। उस चिलचिलाती दुपहरी में हम दोनों अपनी भौतिकी के व्याख्यान कक्ष से बाहर निकले थे। प्रोफेसर कुमार का वो चेहरा जिसपर शायद ही किसी ने मुस्कान देखी हो, वो यांत्रिकी के तनावपूर्ण ५० मिनट अभी पुरी तरह मानस पटल पर हावी थे। अगला व्याख्यान चालू होने में अभी १ घंटा बाकी था। हमेशा की तरह हम महाविद्यालय परिसर के बाहर मंदिर तक टहलने निकल गये। रास्ते के दोनो तरफ लगे घने वृक्ष मानों उस प्रचंड़ गर्मी में सूर्य से लड़ते-लड़ते थक गये हों। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे उनकी झुलसी पत्तियाँ घुटने टेके किसी देवदूत से शीतल मंद बयार की प्रार्थना कर रही हो। उन प्रार्थनालिप्त वृक्षों की छत्रछाया में चलते हुए हम मंदिर तक पहुँच गये।

उस शीतल मंदिर प्राँगण में बैठकर घंटो चर्चा करना हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था। ये चर्चायें विज्ञान और गणित के अलावा राजनिति, दर्शनशास्त्र, कथित मानव मूल्यों के ह्रास इत्यादि विषयों पर केंद्रित हुआ करती थी...। हम ये भरपुर कोशिश करते कि ये चर्चायें कोई और ना सुने, दो अल्पज्ञानियों की इन गूढ़ विषयों पर पारस्परिक चर्चा सुनकर कोई भी हँस देता।

मंदिर प्राँगण से मुख्य सड़क पर होने वाली हर गतिविधी देखी जा सकती है। उस दुपहरी की लू में लोगों को काम करते देख थोड़ी शर्मिन्दगी तो जरुर हुई और शायद यही कारण था कि मैंने उस आदमी पर ध्यान दिया।

उस 'आदमी' की काया का स्मरण करने पर मस्तिष्क में बस निराला की कविता 'भिक्षुक' ही प्रतिबिम्बित हो पाती है...।

एक गर्भवती औरत और छः बच्चे खाली पेत प्रतीक्षा कर रहे हैं। शायद आज क्षुधा की तृप्ति हो। एक बच्चा झोपड़ी के अंदर बीमार लेटा है। बाहर एक बच्चा, अरे हाँ! ये बच्चा ही तो है, मटके सा पेत अत्यंत दुबले हाथ-पैर अपनी माँ का मैला-फटा आँचल खींच रहा है। दो बच्चे भुख को भुलकर खेलनें में व्यस्त हैं। सबसे बड़ा लड़का जो करीब १० साल का होगा दार्शनिक की तरह पेड़ के नीचे बैठा कहीं खोया हुआ है। कभी विद्यालय जैसी वस्तु से उसका परिचय नहीं हुआ। आज बंद होने के कारण वो चाय की दुकान पर नहीं गया... ये सारी बातें एक पल में ही मेरे दिमाग में कौंध गयी थी।

अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया 'एक ये 'आदमी' है, इस भरी दुपहरी में ठेला खींच रहा है... और एक हम हैं... वातानुकूलित कक्ष से निकलते ही पसीने और प्रोफेसर के लिये गाली दोनो ही छुटने लगते हैं...।'

हम दोनो की परिचर्चा अंत... उसने कहा 'तुम्हे इस आदमी पर दया रही है, मैं तुम्हारी सोंच का आदर करता हूँ... पर वो लोग ही कुछ और होते हैं, जो जाकर ठेले को धक्का लगा देते हैं...'

~Abhishek Ojha~

May 27, 2007

सिक्किम... हिमालय में बसा एक छोटा सा स्वर्ग


इस वर्ष उत्तर-पूर्व भारत के कई स्थानों को देखने का मौका मिला।

सिक्किम, दार्जिलिंग (फरवरी-मार्च), गुवाहाटी, शिलांग और चेरापूंजी (मई)। यहाँ सिक्किम की कुछ तस्वीरें हैं... बस थोडा इंतज़ार कीजिये बाक़ी के लिए :-)

सिक्किम

बिना किसी संशय के... सिक्किम इस स्थानो में हमें सबसे अच्छा लगा। एक सप्ताह तक सिक्किम में व्यतीत किया हुआ समय भुला नहीं जा सकता। देवदार के वृक्ष और बर्फ की सफ़ेद चादर, कंचनजंघा, जमीं हुई झीलें, भाँती-भाँती के पुष्प, इलायची के बगान, जल प्रपात, कल-कल करती हुई तीस्ता नदी तथा शांत बौद्ध मठ... ।

सिक्किम की अच्छी कानून व्यवस्था, साफ-सफ़ाई और वहाँ के शांतिप्रिय लोग इसकी खूबसूरती में चार-चाँद लगा देते हैं। कुछ सड़कों की हालत और आधारभूत सुविधाओं को छोड़ दें तो ... मुझे प्राकृतिक रूप से यह जगह स्विट्जरलैंड के कुछ जगहों तथा आल्प्स से ज्यादा मोहक लगी। पर्यटन को दृष्टि में रखकर हो रहे कार्यों को देखकर प्रसन्नता हुई। सिक्किम राज्य के बारे में भी काफ़ी रोचक बातें भी पता चली।

पर्वतारोहण और प्राकृति प्रेमियों के लिए तो ये स्वर्ग ही है। सर्दियों में जाने के कारण हमने कई प्रकार के orchids और फूलों की कमी महसूस तो की परंतु जमीं हुई छंगु झील ने वो कमी पुरी कर दी। भारी हिमपात के कारण हम नाथुला-दर्रा तक नहीं जा सके और हमें छंगु झील से ही वापस लौटना पड़ा पर रास्ते में वृक्षों, पहाडों तथा रास्तों पर पडी हुई बर्फ, और जमें हुए एक जल प्रपात ने वो कमी भी पुरी कर दी। लामाओं तथा बौद्ध मठों की शांति देखकर मन कुछ पल के लिए शांत हो जाता है। रास्तों में रंगीन तथा सफ़ेद झंडे... युम्थांग, लाचुंग तथा गंग्टोक की यात्रा भी यादगार रही। वानस्पति उद्यान में जाने के बाद हमारे अन्दर का फोटोग्राफ़र जाग गया... तस्वीरें देखकर ही ये अंदाजा लगाया जा सकता है।

प्राकृतिक सुन्दरता के अतिरिक्त भी सिक्किम की कई बातें मनमोहक हैं। पुरे राज्य में पालीथीन और गुटखे पर प्रतिबंध है। कहीँ भी खोमचे वाले नज़र नहीं आये। कोई कुछ बेचने के लिए आपके पीछे लग जाये... ऐसा भी कहीँ नहीं हुआ। लोगों का पर्यटकों के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार भी अपना प्रभाव छोड़ गया। बाक़ी ट्रेवल एजेंट्स का तो पता नहीं पर हमारे एजेंट ने हमें मेहमान की तरह आदर दिया... । आवागमन के लिए अधिकतम किराए निर्धारित हैं ... पर होटलों में या अगर आपको पूरी गाड़ी लेनी हो तो थोडा मोल-भाव तो करना ही पड़ेगा... ।



कंचनजंघा

रास्ते में पडी हुई बर्फ



झील का चक्कर लगाना है तो ... याक है ना !

सिक्किम विधान सभा



गंग्टोक शहर के ऊपर...




कैसे-कैसे बाँस...

एक बौद्ध मठ


नदी अपने उद्गम के समीप

इलायची के पत्ते...





जमीन चाहे जैसी हो... खेती तो हम कर ही लेंगे... ।



अब बर्फ पडी है तो कुछ सृजनात्मक काम भी कर लें।



सिक्किम में तरह-तरह के पुष्प तो मिलने ही थे।


हम भी पढ़ते हैं।

एक प्यारा बच्चा ... ।



ऐसी ठंड की झील ही जम गयी।










सात कन्या झरना।

देश के प्रहरियों को हमारा भी सलाम...

.