Jul 19, 2010

आई = आई+२

हमारे एक दोस्त हैं और जबसे मैं उन्हें जानता हूँ उनकी शादी 'दो साल बाद' होने वाली है. जब भी पूछो 'कब हो रही है?' जवाब होता है 'दो साल बाद'. वैसे एक बार उन्होने कहा फरवरी में होगी... पर जब फिर से उन्होने एक बार २ साल बाद वाली बात कह दी तो हमने ये मान लिया कि महिना भले तय हो गया हो इनकी शादी तो दो साल बाद ही होगी.  वो अभी भी २ साल बाद वाली बात पर अडिग हैं... इस बीच हमने इसे 'आई=आई+२' नाम दे दिया. मतलब वर्तमान को दो से बढ़ाते जाओ.

प्रोग्रामिंग से परिचय रखने वाले इस कथन का मतलब बखूबी जानते हैं. बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने वाला कथन है. ऐसे कथन को प्रोग्रामिंग में रोकना होता है... किसी भी एक Loopशर्त पर. रोकना है तो शर्त तो रखनी ही पड़ती है. अगर बोल-चाल की भाषा में कहूँ तो कहा जायेगा कि आई को दो से तब तक बढ़ाते रहो जब तक कुछ 'ऐसा' नहीं हो जाता. अगर गलती से 'ऐसा' हो जाने वाली शर्त लगाना भूल गए तो प्रोग्राम अनंत समय तक चलता  रहेगा !  वैसे ही जैसे हमारे दोस्त की शादी दो साल बाद होनी है. किस दिन से दो साल बाद ये तो बताया नहीं उन्होने. ऐसा ही एक अनंत तक चलने वाला लूप पहले भी फंसा था. अब क्या करें थोड़ी बहुत जो प्रोग्रामिंग की उसमें लूप में अक्सर फंस ही गया, और याद भी वही रह गया :)

प्रोग्रामिंग के अभ्यास करते समय कई बार ऐसे अनंत तक चलने वाले फंदों में फँसना हुआ है. हर बार यही लगता: 'ओह फिर शर्त लगाना भूल गया !  या फिर गलत या उल्टी शर्त लगा दी.' देखने में बहुत स्वाभाविक गलती लगती है लेकिन प्रोग्रामिंग करने वाले ही बता पायेंगे कि कितनी आसानी से हर बार ये गलती हो ही जाती है.
व्हाइल (<शर्त >){
आई= आई+२;
}

प्रोग्राम लिखते समय यही बात कागज पर लिखी हुई रहती है लेकिन कोड़ में अक्सर उल्टी शर्त लग जाती है या फिर शर्त लगाना ही भूल गए और फंस गए इनफाइनाइट लूप में ! 
प्रोग्रामिंग वाले मामले में प्रोग्राम को रोक देने या फिर डब्बे* को ही फिर से चालू कर देने का विकल्प होता है. लेकिन यही विकल्प हमारे पास हमेशा कहाँ होता है ? बिना ठोस समय सीमा के कोई भी बात कह देना या योजना बना लेना बहुत आसान है. लेकिन उसे पूरा करने के लिए जो समर्पण चाहिए वो अक्सर आई = आई+२ वाले फंदे में उलझ कर रह जाता है. वक्त अपनी गति से चलता जाता है. और हम सोचे गए काम को और आगे ठेलते जाते हैं कभी २ से कभी ४ से. कितनी भी धुन पक्की हो एक बार अगर नहीं हो पाया तो बहाने तो हमेशा ही तैयार रहते हैं. आपके कितने काम हैं जो एक साल के भीतर पूरे होने वाले थे (हैं)?

अब ऐसा ही कुछ-कुछ अपने साथ भी हो रहा है. घुमा फिरा कर हमारी कंपनी ने इस बार तथाकथित हमेशा के लिए न्यूयॉर्क ऑफिस भेज दिया. (वैसे मिनटो में निकाल बाहर करने वाले या खुद ही लूट जाने वाले उद्योग से जुड़े लोग जब 'परमानेंट' शब्द इस्तेमाल करते हैं तो... इस उद्योग में काले सूट पहने और ब्लैकबेरी पर अंगुली नचाते लोग जब आधे घंटे में दस-बीस साल बाद की योजना बना  कर कमरे से बाहर निकलते हैं और सामने टीवी पर दिखता है... कंपनी दिवालिया हो गयी ! खैर... अभी बात आई=आई+२ की)... कुछ लोगों ने पूछा कब तक रहोगे? तो कइयों ने बड़े दावे से कहा  'लौट नहीं पाओगे ! ' कइयों ने पूछा कि ऐसा क्या है जो यहाँ रहकर नहीं कर पाओगे? वैसे तो हमें अटल बिहारी वाजपई की तरह सबकी बात ठीक ही लगी. पर अपने हर बात पर चर्चा हो जाती है... तिल का ताड़...टाइप्स. वैसे यहाँ से लौट कर गए कई लोगों के साथ एक... वेल... उन्हें लगता है कि उन्होने बड़ा भारी काम किया है... कुछ त्याग-व्याग टाइप का.... और उनके हिसाब से किसी और के लिए ये संभव नहीं है. खैर इस पर कोई टिपण्णी नहीं. हाँ कई लोग हैं जो साथ काम करते थे और वापस जाकर बहुत खुश हैं.

जो भी हो हमने इसी बहस के बीच दस हजार रुपये की शर्त लगा दी... दो साल में लौट जाने की. अब ये दो साल 'आई=आई+२' ना हो जाये इसलिये ये पोस्ट ठेल दी. तो अपना आई+२ होता है जुलाई २०१२. अगर नहीं लौटा तो इस तर्क पर दस हजार तो नहीं बचने वाले... तो दो साल बाद की जगह २०१२ पढ़ा जाय.

फिलहाल तो दिसंबर में आता हूँ [इस या अगले में ये तो वक्त जाने ;)]! वैसे फंदा-वंदा अपनी जगह... हमें तो थोड़ा फंडा मारना था तो पोस्ट लिख दी.

और भाइयों, बहनो, दोस्तों, दोस्तनियों, हमारी कोई चाहने वाली टाइप, चाचा-चाचियों वॉटएवर-ववॉटएवर और टिपण्णी के बदले टिपण्णी की अभिलाषा रखने वालों  (शॉर्ट में कहने का मतलब ये कि यह पढ़ कर टाइम खराब हमारे कोई शुभचिंतक ही करेंगे वरना किसे फुर्सत है!) एक बार और क्लियर कर दूँ ये ब्रेन-ड्रेन उरेन-ड्रेन नहीं है, अपने पास इतना ब्रेन नहीं है कि ड्रेन की समस्या हो. उस हिसाब से तो जितना दूर ही रहे तो बढ़िया है :) खैर हमें जानने वाले हमारी असलियत जानते हैं उन्हें इस डिसक्लेमर की जरूरत नहीं है.  

~Abhishek Ojha~

(...अगर लूप-वूप में फँसे तो पीड़ीजी हैं न प्रोग्रामिंग समझाने के लिए. सुना है 'जी' लगाने पे बहुत खुश रहते हैं आजकल. 'कहते हैं पीडीजी बोलो जी'... )

*डब्बा माने कंप्यूटर

Jul 12, 2010

सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों (भाग 2)

पिछली पोस्ट को लिखे इतने दिन हो गए कि मैं खुद ही भूल गया कौन सी रेसिपी सोची थी भाग दो के लिए. दिल्ली में कुछ ५-६०० रुपये का गन्ने का जूस याद तो है लेकिन उसका धांसू वाला नाम याद नहीं आ रहा. अब जब नाम ही याद नहीं तो फिर गन्ना गन्ना हो जायेगा और भंटा भंटा...  फिर काहे का आकर्षण. बिन नाम सब सून... !

खैर अब भाग एक था तो भाग दो भी लिखना ही पड़ेगा. आजकल तो फ्लॉप मूवी हो तो भी सिकवेल बनने लगे हैं मेरी पोस्ट पर तो फिर भी कुछ टिपण्णी आई थी. खैर बात थी नाम की. अब नाम में तो सब कुछ रखा ही है लेकिन कई चीजें ऐसी है जो बकायदा काम करती हैं उन्हें किसी नाम की जरूरत नहीं होती. अब जुगाड़ से चलने वाली हर चीज का नाम तो होता नहीं है. लेकिन जितना काम उनसे होता है उतना नाम वाले क्या कर पायेंगे !  आज अपने कुछ बेनामी तंत्रों से आपका परिचय करा देता हूँ.

हुआ यूँ कि हमारे गैस का रेगुलेटर खराब हो गया. अब पिछली बार गैस ख़त्म हुई थी तो08052010471 पोटाचियो घूघूरियानों का आविष्कार हुआ था. इस बार सिर्फ दूध गरम करने के लिए नया रेगुलेटर तो हम लाने से रहे तो थोड़ा इधर-उधर करने पर पता चला कि रेगुलेटर तो दबा के रखने से काम कर रहा है. अब कितनी देर हाथ से दबा के रखा जाय... अपने फ़्लैट पर कोई ऐसी वजन वाली छोटी वस्तु है नहीं जो रेगुलेटर के ऊपर आ सके. दिमाग की बत्ती  जली और हमने दो बर्तनों में पानी भरकर ये तंत्र तैयार किया जो २ महीने चला. इसका नामकरण नहीं हो पाया !

ऐसे ही एक बार किचन के बेसिन का पाइप फट गया. पता चला सोसाइटी में शिकायत 08052010472 लिखवानी पड़ेगी और ठीक तो शनिवार को ही हो पाता. वो भी पूरे दिन घर पर उपस्थित रहना पड़ता. ठीक करने वाला शनिवार को कभी भी आ सकता था और अगर हम घर पर नहीं रहे तो वो वापस चला जाता. अव्वल तो ये घर पर उपस्थित रहने वाला 'नेसेसरी बट नॉट साफिसिएंट कंडीशन' हमें कुछ पसंद नहीं आया. दूसरे शनिवार तक कैसे काम चलता? फ्लैट पर गिने-चुने सामान... एक प्लास्टिक की बोतल मिली और फिर काट कर बिन पेंदी की बोतल से जो अस्थायी व्यवस्था हुई वो एक साल से बिना किसी शिकायत के चल रही है.

अब लिखते-लिखते सोचता हूँ तो दिखता है कि गीजर का पाइप भी तो दो साल से टूटा 13052010476 हुआ है और वैसे ही चल रहा है ! बिना किसी समस्या के. ये अजीबो-गरीब सिस्टम भी बड़ा मस्त काम करता है. भारी-भरकम नलके से धीर-धीरे पानी आता था, जब से ये पाइप टूटा तब से सीधा इसी से धारा प्रवाहित होती है. ठीक करा के धीरे-धीरे टाइम खराब करने से अच्छा है फटाफट स्नान. वैसे भी रोज भागते-भागते ऑफिस पहुचने वाले ही एक-एक मिनट का मूल्य समझ सकते हैं !

अगल-बगल देखता हूँ तो हर वस्तु जिसका जो उपयोग होना चाहिए उससे कहीं अधिक 08052010473 और अच्छा उपयोग किसी और काम में हो रहा है. कुछ अनुपयोगी वस्तुओं को भी काम पर लगा दिया गया है. पर्दा कैसे टंगा है से लेकर कुर्सी, टेबल, एक्सटैन्शन कॉर्ड सबका कुछ और भी (ही) उपयोग हो रहा है. ये कॉफी मग में पड़ा बेलन मिक्सी और सिलबट्टे से अच्छा काम करते हैं. अदरख, इलायची, धनिया, मिर्च सबको बेरहमी से कुचल दिया जाता हैं इसमें. और ये वाइन की बोतल से रोटी बेलने का आइडिया तब आया था जब बेलन के अभाव में चार शीशे के ग्लास रोटी बेलने के प्रयास में तोड़ दिये गए थे. और जब आइडिया आ गया तो क्या रोटी, क्या समोसा सब बेल डाला गया.

अब ये सब तो ठीक... ऐसा ही जुगाड़ तंत्र अपने काम में भी चलता है. गनीमत है अपनी नौकरी में बस काम से मतलब होता है. कैसे हो रहा है इससे किसी को मतलब नहीं है. एक दिन मेरे बॉस बड़े खुश हुए तो कहा डोक्यूमेंट कर दो ये काम कैसे हो रहा है... अब तिकड़म और जुगाड़ का डोक्यूमेंटेशन और नामकरण होने लगा तब तो... खैर बिना नामकरण और डोक्यूमेंटेशन के ही सब कुछ चल रहा है. ठीक वैसे ही जैसे इन तस्वीरों में सब कुछ सही सलामत चल रहा है. ऐसे तंत्र हर जगह चल जाते हैं हर क्षेत्र में ! आप जहाँ भी जिस क्षेत्र में भी काम करते हों... ऐसे तिकड़म लगाया कीजिये कभी कुछ नहीं रुकेगा.

अब आपका मन हो इनमें से किसी यंत्र को 'पोटाचियो घूघूरियानों' टाइप धांसू नाम देने का तो दे दीजिये.

~Abhishek Ojha~

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ये जिस फ़्लैट की तस्वीरें हैं वो अब छूट चुका... पुणे भी... फिलहाल अनिश्चित काल के लिए न्यूयॉर्क में हूँ. अनिश्चितकाल क्यों? ये अगली पोस्ट का विषय होगा.

May 18, 2010

सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों (भाग 1)

हेडनोट: शीर्षक एक खुराफात जनित अद्द्भुत फ्यूजन रेसिपी का प्रस्तावित नाम है.

कुछ दिनों पहले अपने बॉस के बॉस के साथ एक पाँच सितारा भोज में जब उनके खास अनुरोध पर तैयार किया गया एक विकराल सा नाम धारण किए हुए व्यंजन जब चार बैरे लेकर आए तो हमें लगा कुछ तो बात होगी इसमें. एक सूट बूट वाले सज्जन ने 2 मिनट तक समझाया भी उस अद्भुत व्यंजन के बारे में. मुझे तो यकीन हो चला कि पंचतंत्र वाले भारुंड पक्षी की तरह का कोई अमृत-फल है इसमें. अब शाकाहारी इंसान दैवीय फल और घास फूस की ही तो कल्पना कर सकता है... चीता की तो नहिए करेगा? खैर... जब हमनेभंटा चखा तो ससुर भंटा निकला. अरे वही जिसे आजकल लोग एग प्लांट कहते हैं. आप जो भी कहते हों हमें तो भंटा नाम ही पसंद है. घर लौकर बताया... 'आज ल मेरीडियन से भंटा खाके आया हूँ कितने का मत पूछना'. पहली प्रतिक्रिया... 'तुम साले गंवार ही रहोगे ! अपरिसिएट करना सीखो'

फिर एक दिन टोसकाना में कुछ इटालियन रैसिपि मिली किसी जेट विमान के नाम की तरह. नाम में क्या रखा है टाइप्स सोच के एक बार फिर नाम भूल गया. पर जब स्वाद भी याद करने लायक नहीं मिला तो लगा... 'जो भी कुछ रखा है नाम में ही है... बाकी जो थोड़ा बहुत रखा है वो कीमत में'. अगर नहीं रखा होता तो फिर क्यों सबने निपट आलू टमाटर को बढ़िया आइटम कह दिया?... खैर हमने भी सहमति में सर हिला ही दिया. वैसे पुणे में शनिवार की रात... हमारी उम्र के अधिकतर लोगों के पैसे तो क्राउड़ ही वसूल करा देती है. खैर... इस पर फिर कभी.

कुछ दिनों बाद हमारा गैस ख़त्म... अरे भाई गैस रखा है यही क्या कम है? 'सप्ताह के दो दिन अगर बढ़िया मुहूर्त और मन रहा तो कुछ बना लिया' वाले मामले में बैकअप सिलिंडर रखने का सवाल ही नहीं उठता है. अधपकी दाल फेंक दी गयी [अब अरहर की ही थी लेकिन क्या कर सकते थे? :) वैसे सुना है इस अक्षय तृतीया के दिन सोने को अरहर की दाल की खरीदारी ने तेजी से रिपलेस किया है. सच है क्या?]. उबला आलू और हरा मटर जीरा संग थोड़ी देर भुना गया था. उसे वैसे ही छोड़ बाहर खाने चले गए. अब आधी रात को एक अतिथि-कम-मित्र आ गए अब इस ग्लोबल जमाने में देर-सवेर टाइप की कोई चीज तो होती नहीं. रात को दो ही जगहें बचती हैं जहाँ खाने को कुछ मिल सकता है. एक स्टेशन और दूसरी एक जगह है जहाँ थोड़े ज्यादा ही शरीफ लोग जाते हैं. तो फिर? काली मिर्च और नमक छिड़ककर हमने परोस दिया. (यहाँ छिड़कना कुछ सभ्य शब्द नहीं लग रहा... वैसे किया यही था पर स्टाइल में कहूँ तो उसे आवश्यकतानुसार काली मिर्च, नमक, अदरख और धनिया से सजाकर गरमागरम परोसा था... सॉरी गैस नहीं थी तो आखिरी वाली बात गलत है, पर इतना तो चलता ही है. जैसे कल गोवा-तवा-भिंडी-फ्राई ऑर्डर किया तो उसमें भिंडी मिली ही नहीं !).

'ये क्या है बे?'

'अरे वो आज एक इटालियन रैस्टौरेंट गया था तो वहीं से पैक करा लाया'

'बढ़िया आइटम है... क्या नाम था?'

'सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों'... और एक बार फिर लगा नाम में ही सब कुछ रखा है. इस बार मेरा मन किया बोल दूँ... 'साले गंवार ही रहोगे'. पर यहाँ तो मामला उल्टा था. खैर... हर शुक्रवार को हम अपने ऑफिस वालों के साथ बाहर खाने जाते हैं और धीरे-धीरे कितना महंगा महंगा होता है ये समझ ख़त्म हो रही है. और अब शायद अपना गंवारपन इस बात से चला गया है कि 'ये इतना महंगा क्यों है'. पर अब भंटा को भंटा नहीं तो क्या आम कहेंगे ? :)

नसीम तालेब कहते हैं: 'You will be civilized the day you can spend time doing nothing, learning nothing, & improving nothing, without feeling slightest guilt.' और मैं श्री गिरिजेश राव के ब्लॉग पर बड़ो की बात एक बार फिर पढ़ के आता हूँ.

फूटनोट: मेरे फ्लैट का नंबर है 'सी-तीन. पाँच सौ दो' लेकिन स्टाइल में 'सी-थ्री फाइव-ओ-टू' कहना पड़ता है. बाकी आलू और हरे मटर को पोटैटो और घूघूरी तो आपने डिकोड कर ही लिया होगा. 

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'…अच्छा तो तुम्हें ये भी आता है? एक कुशल गृहणी के सारे गुण है तुममें :)'

'तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि ये काम सिर्फ लड़कियों को ही करना चाहिए? '

'सॉरी आई डिड्न्ट नो दैट यू आर ए फ़ेमिनिस्ट... '

'अरे सुनो तो... '

'नहीं रहने दो... ' ये एक नयी बात और देखने को मिली.

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(जारी...)

~Abhishek Ojha~