Dec 31, 2020

छपना ‘लेबंटी चाह’ का

मेरे ब्लॉग की सबसे चर्चित पोस्टें हैं - पटना वाली। लोकप्रिय भी*। इन्हीं में से एक पोस्ट लेबंटी चाह भी है। लेमन-टी से बना लेबंटी और चाय से बना चाह। इसी नाम से अब उपन्यास छप कर आ रहा है। 

    पटना डायरी से उपन्यास बनने तक की प्रक्रिया ‘इवोल्यूशनरी’ रही – क्रमिक विकास। ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था तो हर तरह के पोस्ट लिखा, पर पटना डायरी के मामले में पोस्ट दर पोस्ट ‘सरवाइवल ओफ़ फिटेस्ट’ की तरह लिखने की एक शैली बनती गयी। इस दौरान निरंतर अच्छी प्रतिक्रियाएँ भी आती रही। ब्लॉग पर आयी टिप्पणियों के परे भी। ईमेल, फ़ोन इत्यादि से भी कई लोगों ने सम्पर्क किया। ऐसे लोग भी जो ना तो ब्लॉग लिखते-पढ़ते हैं ना सोशल मीडिया पर ही हैं। किसी अख़बार में कहीं कुछ छप गए से ढूँढते पहुँच गए तो किसी के बताए पढ़ लिए। 

    ब्लॉगिंग के अन्य कई मित्रों की तरह मैं भी कभी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा। इससे एक अच्छी बात ये हुई कि किसी विधा की परवाह किए बिना मुक्त रूप से लिखा। लिखने की शैली (यदि कोई होती है तो) अपनी खुद की ही रही/बनी। 

    मेरे ब्लॉग से परिचित लोग बातचीत होने पर पटना डायरी का ज़िक्र करना नहीं भूलते। पहली पोस्ट से ही। मुझे याद है ढाई महीने के पटना प्रवास के दिनों में गिरिजेश राव फ़ोन कर पूछते कि अगली पोस्ट कब आ रही है? पटना के लोग भी बड़ी आत्मीयता से टिप्पणी करते। धीरे-धीरे प्रतिक्रियाओं और सुझावों में एक बात नियमित रूप लेती गयी कि इसे छपना चाहिए। पुरानी पोस्टें अभी भी लोग पढ़ते रहते हैं, याद दिलाते रहते हैं। कहने वालों ने ये भी कहा कि वो पोस्ट का प्रिंट आउट निकाल कर पढ़ते-पढ़ाते हैं। कितना सच है वो नहीं पता पर जिन लोगों ने कहा वो झूठ बोलने वाले लोग नहीं हैं। शिव कुमार मिश्र, ज्ञानदत्त पांडेय, पूजा उपाध्याय, रवि रतलामी, अनुराग शर्मा, गिरिजेश राव, अनूप शुक्ल, रंजना सिंह… दर्जनों श्रद्धेय एवं भले लोगों की कुछेक टिप्पणियाँ/बातें तो याद रह गयी। सागर ने उन दिनों बड़ी प्रेरित करने वाली टिप्पणियाँ की थी। 

    एक बार देव झा मिले तो बोले - “वाह! पटना सीरीज क कितबिया कब बन रही है!” मुझे लगा कि ये तो पहले भी सुनी हुई बात लग रही है। तो उन्होंने बताया कि अरे ज्ञानदत्तजी ने टिप्पणी की थी आपके पोस्ट पर वही याद दिला रहा हूँ। लिख दीजिए।

    पूजा उपाध्याय तो नियमित रूप से पहले कहती रही कि लिखो फिर पूछती रही कि कितना लिखा? मैंने एक बार कह दिया था कि सरस्वती पूजा तक लिख दूँगा। साल बताया नहीं था तो उसके बाद कितने भी साल निकल गए हो वादा टूटा हुआ नहीं कहेंगे। रविजी ने भी एक से अधिक बार कहा कि इसे संकलित कर भेजिए किसी को छापने के लिए। मैंने शंका दिखायी की छापेगा कौन तो लोगों ने ये भी कहा कि तुम लिख दो हम छपवा देंगे। 

पर बात आयी-गयी होती रही। 

    अनूप जी पिछले साल न्यूयॉर्क आए तो मिले। उन्होंने फ़ोन पर किसी को परिचय दिया - “अभिषेक ओझा के साथ हूँ, वही जो फ़ंक्शन फाड़ देते हैं। जो पटना लिखते थे।” फिर उन्होंने कहा - “बड़ा मज़ेदार लिखते थे तुम, छपवाओ उसे।” मैंने कहा समय का बहुत अभाव है। कभी छुट्टी लेकर लिखूँगा। तो उन्होंने कहा कि ऐसे नहीं होता। छुट्टी लेकर तो नहीं हो पाएगा लिखना। उसी में लिख दो। पर समय का अभाव ऐसा था कि दिनचर्या में ऐसा कोई काम ही नहीं था जिसमें कटौती कर समय निकाला जाय। ऐसा भी कोई काम नहीं था जिससे ज़्यादा ज़रूरी काम किताब लिखना लगे। 

    इसका एक कारण ये भी था कि सुनता हूँ लिखने वाले पढ़ने वाले से अधिक हो गए हैं। और बहुत कुछ अपठनीय भी लिखा गया है। सुनी सुनाई इसलिए बात कह रहा हूँ क्योंकि मैंने हिंदी के नए लेखकों का कुछ पढ़ा नहीं - ना अच्छा ना बुरा। मैं महीने में औसतन डेढ़ से दो किताबें पढ़ता हूँ। लेकिन हिंदी में ब्लॉग के अतिरिक्त पिछले २०-२५ वर्षों में छपी किताबें मैंने लगभग नहीं पढ़ी। ब्लॉगिंग के दोस्त-मित्रों की दो-चार किताबों को छोड़ दें तो। अपठनीय के विपरीत हिंदी में मैंने जो पढ़ा वो इतना अच्छा पढ़ा है कि पढ़ते हुए हमेशा लगा कि इतना अच्छा नहीं लिख सकते तो लिखने का कोई मतलब नहीं। और इसलिए भी हम छपने के लिए नहीं लिखते रहे। बचपन में लेखकों के बारे में जानना बड़ा अच्छा लगता। अख़बार में छपने वालों से लेकर पाठ्यक्रम की पुस्तकों के लखकों तक। हर पुस्तक की भूमिका और लेखक के बारे में भी ज़रूर पढ़ता कि ये कौन लोग होते हैं जो किताबें लिखते हैं। अक्सर बड़ा ख़तरनाक टाइप का परिचय भी होता लेखकों का -“कट्टा थे, तमंचा थे, सम्प्रति तोप हैं”। सम्प्रति शब्द का मतलब ही लेखक परिचयों से पता चला था। पर छपने वालों के प्रति जो बचपन से सम्मान था वो भी धीरे-धीरे कम होता गया। बहुत दिनों से मैंने अपना एक ट्वीट पिन किया हुआ है - “पढ़े लिखे, अखबार में छपने वाले, किताब लिखने वाले, टीवी पर दिखने वाले... बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट वगैरह वगैरह बचपन में सही में लगता था तोपची लोग होते होंगे ! धन्य हो ट्वीटर की बारिश सारे रंगे सियार हुआँ-हुआँ करते दिखने लगे !” 

    एक बात ये भी थी कि किताब से अधिक ब्लॉग की अहमियत लगती। ये वो जान सकता है जिसने उस समय से ब्लॉग लिखना शुरू किया हो जब सोशल मीडिया ऐसा नहीं था। पढ़ना इतना त्वरित नहीं था। हिंदी के ब्लॉग लोग बड़ी आत्मीयता से पढ़ते और टिप्पणी करते। (स्माइली के साथ नाइस और अप्रतिम लेखन के लिए साधुवाद जैसी टिप्पणियाँ भी थी!)। अपने तरह के लोग मिले। बड़ी अच्छी दोस्तियाँ हुई। वैसे लोग किसी और तरीक़े से कहाँ ही मिले होते! गर्व सा होता है कि हम ऐसे लोगों को जानते हैं। कुछ लिखने के बाद यदि उसकी कुछ जमा पूँजी है तो तो वो है उस पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ। ये जानना कि लोगों को वो अच्छा लगा। ये जानना कि पढ़ते हुए लोगों को लगा कि वो साथ चल रहे हैं। उनकी अपनी बात लिख दी हो जैसे किसी ने या कोई और भी ऐसे सोचता है। पढ़ कर किसी को किसी उलझन का हल मिल जाए। पात्रों के संवाद में अपनी बात झलक जाए। और ये सब पटना डायरी से भरपूर मिला। कई लोग हैं जिनसे बात कर मुझे आश्चर्य हुआ कि लोगों ने इतने अच्छे से पढ़ा है जितने अच्छे से मैंने लिखा नहीं! 

    पर स्वाभाविक है मुझे पटना डायरी पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ हमेशा अच्छी लगी तो लिखना टलता तो रहा पर ये भी था कि कभी तो लिखना होगा ही। और ये भी स्पष्ट हो गया था कि पहली किताब होगी तो पटना डायरी की शैली में ही। और अभी भी लोगों को लगता है कि किताब का अपना ही जलवा है। इंटरनेट-ब्लॉग अपनी जगह है। तो लोग कहते रहे कि किताब छपवाओ।

    चार साल पहले एक सम्पादक से मिलना भी हुआ पर उसके बाद भी आलस में बात वहीं की वहीं रह गयी। संपदाकजी की सुझाई एक बात याद रह गयी उन्होंने कहा था कि तुमने लिखा बहुत अच्छा है पर ब्लॉग तो लोगों ने पढ़ लिया है। ऐसा ही उपन्यास के रूप में लिखो, डायरी के रूप में नहीं। विचार अच्छा था पर समय के अभाव और आलस में गुम सा हो गया। 

     ऐसे कामों के लिए मुझ जैसे व्यक्ति को धक्का (nudge) चाहिए होता है। एक बार नहीं निरंतर। इसका एक उदाहरण तो यही है कि जिन समाचार पत्रों ने लिखने के पैसे भी दिए, जिन्हें पढ़ते भी बहुत लोग हैं पर कह कर भूल गए कि हर सप्ताह लिख कर भेज दीजिए वहाँ दो-चार लेखों से आगे नहीं लिख पाया। पर जिन्होंने निरंतर कहा कि अगला आलेख भेजिए। "इस बार अभी तक नहीं भेजा" कह याद दिलाते रहे वहाँ लिखता रहा। कोई करवा ले तो हो जाता है। वो धक्का (nudge) मिलता भी रहा (भगवान ऐसे दोस्त सबको दें!) तो बस पिछले साल (२०२० नहीं १९ में ही) लिख दी गयी, अनूप जी के जाने के कुछ दिनों बाद। लिखना कठिन नहीं था क्योंकि बहुत दिनों से एक कहानी मन में चलने लगी थी। किरदार बन गए थे। तो किताब पूरी हो गयी। प्रकाशक को भेजते ही उम्मीद से जल्दी उसी रूप में स्वीकार भी हो गयी। पर किताब का कवर, डिज़ाइन, सम्पादन और इन सबके साथ कोरोना। लिखी लिखाई किताब का काम धीमी गति का समाचार हो गया। हमें लगा था किताब लिखना ही सबसे धीमा काम होता है पर छपना उससे कम धीमा नहीं निकला। ख़ैर हम अपना काम कर दिए थे और जब काम किसी और के पास अटका हो तो मज़ा ही होता है। दफ़्तरों में जैसे ही लोगों को पता चलता है कि किसी और टीम के पास काम अटका है तो वो एक दम से चौड़े हो जाते हैं! - हम कर ही क्या सकते हैं फलाने टीम के पास जाइए! डीपेड़ेंसी है उनके काम पर। तो हम भी लिखने के बाद मज़े में हो गए। 

पर अब किताब आ जाएगी। जनवरी अंत तक निर्धारित है। तो एकाध सप्ताह इधर तो नहीं पर शायद उधर हो जाए।

        जब आ जाए तो पढ़ा जाए। पढ़ाया जाय। और अच्छी लगे तो लोगों को बाताया जाय। गिफ़्टित किया जाय। कोई कहे कि बहुत दिनों से हिंदी में कुछ अच्छा नहीं पढ़ा हो तो जवाब के रूप में भी बताया जाय। और हमें ज़रूर बताया जाय कि कैसी लगी। छपने के पहले सम्पादक मंडली के अतिरिक्त पाँच लोगों ने किताब का ड्राफ़्ट पढ़ा। उन्होंने तो कुछ ज़्यादा ही अच्छा-अच्छा कह दिया। पर उस पर नहीं जाना चाहिए। हाँ एक बात तो है कि पढ़ने वालों की पृष्ठभूमि बड़ी अलग-अलग थी। हिंदी पढ़ने वालों से लेकर ऐसे जिन्होंने एक दशक या उससे भी बाद हिंदी पढ़ी। और सभी पढ़ने वालों की ‘मुझे सबसे ज़्यादा अच्छी बात ये लगी’ वाली बातें अलग-अलग थी। पात्र, संवाद और अध्याय भी सबको अलग-अलग पसंद आए। मुझे बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें बतायी गयी पर उन्हें बताने पर लगेगा कि किताब बेचने के लिए कह रहा हूँ। पर …मुश्किल है कि पढ़ते हुए किसी को ऐसा ना लगे कि वो किरदारों के साथ नहीं चल रहे हैं। या कहीं ना कहीं उन्हें पढ़ते हुए खुद की बात ना मिल जाए। है तो उपन्यास ही पर पढ़ने वालों को पढ़ते हुए व्यंग, रोमांटिक, नोस्टालज़िया, भाषा, समाज से लेकर गम्भीर बातें तक भी मिली। 

    ख़ैर कैसी किताब होगी ये तो आप पढ़ने वाले बताएँगे वो बताना या सोचना मेरा काम नहीं है। मेरा काम था लिखना। बेचने के लिए मेहनत करना तो मुझसे होने से रहा। तो पढ़ कर बताया जाय। ईमानदार प्रतिक्रिया/आलोचना/समीक्षा ज़रूरी है। क्योंकि एक लिखने के बाद अब और लिखने का प्रस्ताव और विचार दोनों है। 

    जिन टिप्पणियों/बातों ने लिखने को प्रेरित किया उन्हें भी यहाँ संकलित करना ऐसे हो जाएगा जैसे किताब बेचने के लिए लिख रहे हैं। पर हैं कम से कम दो दर्जन टिप्पणियाँ और ईमेल हैं जो इस वारदात के लिए क़सूरवार ठहरायी जा सकती हैं। उन्हें किताब के लिए जल्दी ही वेबपेज बनेगा तो वहाँ संकलित किया जाएगा।  

किताब राजपाल एंड संस से आएगी। 

    बाकी कवर, किताब ख़रीदने के पते-ठिकाने, लिंक वग़ैरह की जानकारी जैसे ही आएगी दी जाएगी। किताब आने के पहले सोशल मीडिया वग़ैरह पर जानकारी तो दिखेगी ही। मेरे पेज पर भी और अन्यत्र भी। तो उसे अनदेखा नहीं करना है। किसी और कि बात होती तो चल जाता यहाँ तो मामला अपने घर जैसा है। बात आप समझ ही रहे हैं :)

 नव वर्ष की शुभकामनाएँ। मंगलमय हो। 

 *चलते-चलते:वैसे एक प्रेमपत्र और एक कविता वाली (दोनों ही मैं लिखता नहीं गलती से कभी लिख दिया था) पोस्ट एकाकी रूप में सबसे अधिक पढ़ी गयी पोस्ट हैं। पर अपवादों के लिए कब नियम रुकें हैं।

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~Abhishek Ojha~

4 comments:

  1. वाह! बहुत-बहुत बधाई। प्री-आर्डर की लिंक किधर है?😊

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  2. बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ

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  3. ढेर सारी बधाई, जनवरी की अंत भी बस आया ही समझो।

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  4. कबो काढ़ा पर भी लिखिए :-)

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